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वर्ण एवं वर्णसंकर
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मी वर्णसंकरता पायी जाती है, किन्तु वे अपनी माता की गति के विशेषाधिकारों को प्राप्त कर लेते हैं । स्वयं मनु (१० । २५) अनुलोमों के लिए 'संकरणयोनि' शब्द का प्रयोग नहीं करते । यम ने कहा है कि मर्यादा के लोप होने से अर्थात् बिवाह सम्बन्धी नियमों के उल्लंघन से वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं। यदि वर्णों का उचित क्रम माना जाय (अनुलोम अर्थात् ऊँचे वर्ण के पुरुष नीचे वर्ण की नारी से विवाह करें) तो संतानें वर्णत्व प्राप्त करती हैं, किन्तु यदि प्रतिलोम क्रम माना जाय तो यह पातक है । मनु ( १० १२४ ) ने कहा है- 'जब किसी वर्ण के सदस्य दूसरे वर्ण की नारियों से सम्मोन करते हैं, ऐसी नारियों से विवाह करते हैं जिनसे नहीं करना चाहिए (यथा सगोत्र कन्या से ) तथा अपने वर्णों के कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं, तब वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है। अनुशासनपर्व (४८।१) में उल्लेख है कि धन, लोभ, काम, वर्ण के अनिश्चय एवं वर्णों के अज्ञान से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है । भगवद्गीता ( ११४१-४३ ) नामक दार्शनिक ग्रन्थ में भी आया है--' जब नारियाँ व्यभिचारिणी हो जाती हैं, वर्णसंकरता उपजती है........ करता को रोकने के लिए स्मृतिकारों ने राजाओं को उद्बोधित किया है कि वे उन लोगों को, जो वर्णों के लिए बने हुए निश्चित नियमों का उल्लंघन करें, दण्डित करें। गौतम ( ११।९-१९ ) ने लिखा है कि शास्त्रों के नियमों के अनुसार राजा को वर्णों एवं आश्रमों की रक्षा करनी चाहिए, और जब वे (वर्णाश्रम) अपने कर्तव्यों से च्युत होने लगें तो उन्हें ऐसा करने से रोका जाय । वसिष्ठ ( १९ । ७-८ ) ने भी ऐसा ही लिखा है। इसी प्रकार विष्णुधर्मसूत्र (३1३), याज्ञवल्क्यस्मृति (१।३६१), मार्कण्डेयपुराण (२७), मत्स्यपुराण (२१५/६३ ) में भी कहा गया है। इसी लिए ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास राजा वासिठीपुत सिरी पुड़ मायी ( वासिष्ठीपुत्र श्री पुलुमायी) को चारों वर्णों को वर्णसंकर होने से बचाने के फलस्वरूप प्रशंसा मिली (एपीग्रफिया इण्डिका, जिल्द ८, १०६०-६१-- विनिवर्तितचातुवणसंकरस) । युधिष्ठिर ने भी ( वनपर्व १८०।३१-३३) वर्णसंकर आदि की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है। स्वामी शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र - भाष्य ( १।३।३३ ) में लिखा है कि उनके काल में वर्ण एवं आश्रम अव्यवस्थित हो गये थे और अपने धर्म के अनुसार नहीं चल पा रहे थे, किन्तु ऐसी बात पूर्व युगों में नहीं थी, क्योंकि ऐसा होने पर धर्मशास्त्रों के विधान आदि निरर्थक ही सिद्ध हुए होते।"
गौतम (४/१८-१९ ), मनु ( १०/६४-६५ ) एवं याज्ञवल्क्य (११९६ ) जात्युत्कर्ष एवं जात्यपकर्ष नामक एक सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। इन लोगों के कथनों की व्याख्याओं में विभिन्नता पायी जाती है, किन्तु सामान्य अर्थ एक ही है । गीतम (४।१८) ने लिखा है कि आचार्यों के अनुसार अनुलोम लोग जब इस प्रकार विवाह करते हैं कि प्रत्येक स्तर में जब वर जाति में दुलहिन से उच्चतर या निम्नतर होता है तो वे सातवीं या पांचवीं पीढ़ी में ऊपर उठते हैं ( जात्युत्कर्ष ) या नीचे जाते हैं ( जात्यपकर्ष ) । हरदत्त ने इसे इस प्रकार समझाया है-जब एक ब्राह्मण एक क्षत्रिय नारी से विवाह करता है तो उससे जो कन्या उत्पन्न होती है वह सवर्णा कहलाती है । यदि यह सवर्ण कन्या किसी ब्राह्मण द्वारा विवाहित हो जाय और यह क्रम सात पीढ़ियों तक चलता जाय और सातवीं कन्या किसी ब्राह्मण से विवाह कर ले तो उस सम्बन्ध से जो भी सन्तान उत्पन्न होगी वह ब्राह्मण वर्ण वाली कहलायेगी ( यद्यपि पूर्व
२०. मर्यादाया विलोपेन जायते वर्णसंकरः । आनुलोम्येन वर्णत्वं प्रातिलोम्येन पातकम् ॥ कृत्यकल्पतरु की हस्तलिखित प्रति ( व्यवहार, प्रकीर्णक) में उद्धृत यम का श्लोक ।
२१. भवानीमिव च कालान्तरेऽवि अव्यवस्थितप्रायान् वर्णधर्मान् प्रतिजानीत । व्रतस्य व्यवस्थाविधायि शास्त्रमनर्थकं स्यात् । शांकरभाष्य, वेदान्तसूत्र १।३।३३ ।
२२. वर्णान्तरगमनमुत्कर्षापकर्षाभ्यां सप्तमे पञ्चमे बाचार्याः । सृष्ट्यन्तरजातानां च । गौतम० ४११८/- १९ । धर्म ० १६
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