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धर्मशास्त्र का इतिहास
क्षत्रिय को कोई कार्य आरम्भ करने के पूर्व ब्राह्मण के पास जाना चाहिए, ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के सहयोग से यश मिलता है ; आदि बातें श्रुति-ग्रन्थों से स्पष्ट हो जाती हैं (शत० ब्रा० ४।१।४।६)। क्रमशः राजा के पुरोहित का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया । एक ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है, किन्तु एक राजा बिना पुरोहित के नहीं रह सकता, यहाँ तक कि देवताओं को भी पुरोहित की आवश्यकता होती है (तैत्तिरीय सं० २।५।१।१)। स्वप्टा के पुत्र विश्वरूप देवताओं के पुरोहित थे (ते० सं० २।५।१।१) । शण्ड एवं अमर्क असुरों के पुरोहित थे (काटक सं० ४।४) । एक राजन्य, जिसे पुरोहित प्राप्त है, अन्य राजन्यों से उत्तम है। एक राजा, जो ब्राह्मणों के लिए शक्तिशाली नहीं है, अर्थात् उनके सम्मुख विनम्र है, वह अपने शत्रुओं से अधिक शक्तिशाली होता है (यो वै गजा ब्राह्मणादबलीयानमित्रेभ्यो वै स बलीयान् भवति (शतपथ ब्राह्मण ५।४।४।१५)। किन्तु शतपथ ब्राह्मण में ही कहीं-नहीं क्षत्रियों को सबसे उत्तम कहा गया है। अथर्ववेद में ब्राह्मण सर्वोच्च कहा गया है (५।१८।४ एवं १३ तथा ५।१९।३ एवं ८)।
किन्तु कभी-कभी कुछ राजाओं ने ब्राह्मणों का अनादर भी किया है। महाभारत एवं पुराणों की गाथाएँ कछ राजाओं द्वारा ब्राह्मणों के प्रति अनादर भी प्रकट करती हैं। राजा कार्तवीर्य एवं विश्वामित्र की गाथाएँ, जिन्होंने जमदग्नि एवं वसिष्ठ की गौएँ छीन ली थीं, यह बताती हैं कि बहुत-से राजा अत्याचारी थे और उन्होंने ब्राह्मणों के प्रति कोई आदर नहीं प्रकट किया (महाभारत--शान्तिपर्व ४९, आदिपर्व १७५) । यहाँ तक कि ब्राह्मणों की पत्नियां भी राजाओं के हाथ में अरक्षित थीं (अथर्ववेद ५।१७।१४)।
तैतिरीय संहिता में आया है--पशुओं की कामना करनेवाले वैश्य सत्तमुच यज्ञ करत हैं। जब देवता लोग पराजित हो गये तो वे वैश्य की दशा को प्राप्त हो गये या असुरों के विर बन गये।" मनुष्यों में वैश्य, पशुओं मे गाय अन्य लोगों के उपभोग की वस्तुएँ हैं ; वे भोजन के आधार से उत्पन्न किये गये हैं, अतः वे संख्या में अधिक है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है कि वैश्य ऋक्-मन्त्रों से उत्पन्न हुए हैं। इसके अनुसार क्षत्रियों का उद्गम यजुर्वेद से एवं ब्राह्मणों का उद्गम सामवेद से हुआ है। इसी ब्राह्मण ने यह भी लिखा है कि विश् ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से पृथक् रहते हैं । ताण्ड्य ब्राह्मण में यह आया है कि वैश्य ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से निम्न श्रेणी के हैं (ताण्ड्यमहाब्राह्मण ६।१।१०)। ऐतरेय ब्राह्मण (३५।३) के अनुसार वैश्य अन्य लोगों का भोजन है और कर देनेवाला है। उपर्यत बातों से स्पष्ट है कि वैश्य यज्ञ कर सकते थे, पशु पालन करते थे, दोनों ऊंची जातियों की अपेक्षा संख्या में अधिक थे, उन्हें कर देना पड़ता था, वे ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से दूर रहते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे।
वर्ण-व्यवस्था ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रणयन समय में इतनी सुदृढ़ हो गयी थी कि देवताओं में भी जाति-विभाजन हो गया था। अग्नि एवं बृहस्पति देवताओं में ब्राह्मण थे; इन्द्र, वरुण, यम क्षत्रिय थे; वसु, रुद्र, विश्वे-देव एवं मस्त विश् थे, तथा पूपा शूद्र था। इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि ब्राह्मण वसन्त ऋतु हैं, क्षत्रिय ग्रीष्म ऋतु एवं विश् वर्षा ऋतु हैं।
११. पशुकामः खलु बंश्यो यजत। ते० सं० २।५।१०।२; ते देवाः पराजिग्याना असुराणां वैश्यमुपायन् । तं० सं० २॥३॥७१॥
१२. यो मनुष्याणां गावः पशूनां तस्मात्त आधा अन्नधानावध्यसृज्यन्त तस्माद् भूयांसोऽन्येभ्यः। ते० सं० ७।१।१५।
१३. ऋग्म्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः। यजुर्वेदं भत्रियस्याहुर्योनिम्। सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः । ते० प्रा० ३।१२।९; तस्माद ब्रह्मणश्च क्षत्राच्च विशोन्यतोऽपक्रमिणीः। ते० प्रा० १६५।
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