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धर्मशास्त्र का इतिहास
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संयुक्त परिवार के ऋण, पुत्र पिता के किस ऋण को न दे; ऋण निक्षेपण; तीन प्रकार के बन्धक प्रतिज्ञा; जमा; साक्षीगण, उनकी पात्रता - अपात्रता; शपथ-ग्रहण; मिथ्या साक्षी पर दण्ड; लेखप्रमाण; तुला, जल, अग्नि, विष एवं पूत जल के दिव्य; बटवारा, इसका समय विभाजन में स्त्रीभाग; पिता-मृत्यु के बाद बँटवारा, विभाजनायोग्य सम्पति, पिता-पुत्र का संयुक्त स्वामित्व बारह प्रकार के पुत्र शूद्र का अनौरस पुत्र पुत्रहीन पिता के लिए उत्तराधिकार : पुनपिलनं; व्यावर्तन स्त्रीधन पर पति का अधिकार सीमा विवाद, स्वामी - गोरक्षक - विवाद ; स्वामित्व के विना विक्रय ; दान की प्रमाणहीनता; विक्रय-विलोप भृत्यता - सम्बन्धी प्रतिज्ञा का भंग होना; बलप्रयोग द्वारा दास्य, परम्परा विरोध; मज़दूरी न देना; जुआ एवं पुरस्कार-युद्ध; अपशब्द, मानहानि एवं पिशुनवचन; आक्रमण चोट आदि; साहस साझा ; चोरी; व्यभिचार; अन्य दोष; न्यायपुनरवलोकन । खण्ड ३ -- जलाना एवं गाड़ना; मृत व्यक्तियों को जल-तर्पण; उनके लिए जिनके लिए न रोया गया और न जल तर्पण किया गया; कतिपय व्यक्तियों के लिए परिवेदन अवधि; शोक प्रकट करनेवाले के नियम जन्म पर अशुद्धि; जन्म-मरण पर तत्क्षण पवित्रीकरण के उदाहरण समय, अग्नि, क्रिया-संस्कार, पंक आदि पवित्रीकरण के साधन विपत्ति में आचार एवं जीविका - वृत्ति; वानप्रस्थ के नियम ; यति के नियम; आत्मा शरीर में किस प्रकार आवृत है; भ्रूण ( गर्भस्थ शिशु ) के कतिपय स्तर; शरीर में अस्थि-संख्या ; यकृत, प्लीहा आदि शरीरांग; धमनियों एवं रक्त स्नायुओं की संख्या; आत्म-विचार; मोक्षमार्ग में संगीत - प्रयोग; अपवित्र वातावरण में पूत आत्मा कैसे जन्म लेती है; पापी किस प्रकार विभिन्न पशुओं एवं पदार्थों की योनि में उत्पन्न होते हैं; योगी किस प्रकार अमरता ग्रहण करता है; सत्त्व, रज एवं तम के कारण तीन प्रकार के कार्य; आत्म-ज्ञान के साधन दो मार्ग--एक मोक्ष की ओर और दूसरा स्वर्ग की ओर पापियों के भोग के लिए कतिपय रोग-व्याधि; प्रायश्चित्त-प्रयोजन; २१ प्रकार के नरकों के नाम; पंच महापातक एवं उनके समान अन्य कार्य; उपपातक; ब्रह्म हत्या तथा मनुष्य-हत्या के लिए प्रायश्चित्त; सुरापान, मानवीय एवं क्षन्तव्य पापों तथा विविध प्रकार की पशु हत्याओं के लिए प्रायश्चित्त समय, स्थान, अवस्था एवं समर्थता के अनुसार अधिक या कम शुद्धि; नियम न मानने वाले पापियों का निष्कासन; गुप्त शुद्धियाँ दस यम एवं नियम; सान्तपन, महासांतपन, तप्तकृच्छ्र, पराक, चान्द्रायण एवं अन्य अशुद्धियाँ इस स्मृति को पढ़ने का पुरस्कार ।
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वेदों के अतिरिक्त छः वेदांगों एवं चौदह विद्याओं ( चार वेद, छ: अंग, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र) की चर्चा याज्ञवल्क्यस्मृति में हुई है। अपने ग्रन्थ आरण्यक एवं योगशास्त्र की चर्चा भी याज्ञवल्क्य ने की है। अन्य आरण्यकों एवं उपनिषदों का भी उल्लेख हुआ है । पुराण भी बहुवचन में प्रयुक्त हुए इतिहास, पुराण, वाकोवाक्य एवं नाराशंसी गाथाओं की भी चर्चा आयी है । आरम्भ में ही याज्ञवल्क्य ने अपने को छोड़कर १९ धर्मशास्त्रकारों के नाम लिये हैं, किन्तु स्मृति के भीतर ग्रन्थ में कहीं भी किसी का नाम नहीं आया है । उन्होंने आन्वीक्षिकी (अध्यात्मशास्त्र) एवं दण्डनीति (१.३११ ) के विषय में चर्चा की है। धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के विरोध में उन्होंने प्रथम को मान्यता दी है ( २.२१) । उन्होंने सामान्य ढंग से स्मृतियों की चर्चा की है; सूत्रों एवं भाष्यों की ओर भी संकेत किया है, किन्तु कहीं किसी लेखक का नाम नहीं आया है । उन्होंने सम्भवतः पतञ्जलि के भाष्य की ओर संकेत किया है। 'एके' (१.३६ ) कहकर अन्य धर्मशास्त्रकारों की ओर संकेत अवश्य किया गया है।
याज्ञवल्क्य ने विष्णुधर्मसूत्र की बहुत-सी बातें मान ली हैं। इनकी स्मृति एवं कौटिलीय में पर्याप्त समानता दिखाई पड़ती है । याज्ञवल्क्यस्मृति के बहुत-से श्लोक मनु के कथन के मेल में बैठ जाते हैं । किन्तु याज्ञवल्क्य मनु की बहुत बातें नहीं मानते और कई बातों एवं प्रसंगों में वे मनु से बहुत बाद के विचारक
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