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अध्याय २ वर्ण
भारत की जाति व्यवस्था के उद्गम एवं विशिष्टताओं के विवेचन से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें अधिकांश जातियों एवं उपजातियों की विविधताओं तथा उनकी अर्वाचीन धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं एवं व्यवहार- प्रयोगों पर ही अधिक प्रकाश डालते हैं । जाति उद्गम के प्रश्न ने भाँति-भाँति के अनुमानों, विचार शाखाओं एवं मान्यताओं की सृष्टि कर डाली है । कतिपय ग्रन्थकारों ने या तो कुल, या वर्ग, या व्यवसाय के आधार पर ही अपने दृष्टिबिन्दु या मत निर्धारित किये हैं, अतः इस प्रकार उनकी विचारधाराएँ एकांगी हो गयी हैं । समाज-शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए भारतीय जाति-व्यवस्था के उद्गम एवं विकास का अध्ययन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण एवं मनोरञ्जक विषय है ।
पाश्चात्य लेखकों में कुछ ने तो अति प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं और कुछ लोगों ने बहुत कड़ी आलोचना एवं भर्त्सना की है। सिडनी लो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'विज़न आव इण्डिया' (द्वितीय संस्करण, १९०७, पृ० २६२-२६३ ) में जाति-व्यवस्था के गुणों के वर्णन में अपनी कलम तोड़ दी है। इसी प्रकार एब्बे डुबोय ने आज से लगभग १५० वर्ष पूर्व इसकी प्रशस्ति गायी थी । किन्तु मेन ने अपने ग्रन्थ 'ऐश्येण्ट लॉ' (नवीन संस्करण, १९३०, पृ० १७) में इसकी क्षयकारी एवं विनाशमयी परम्परा की ओर संकेत करके भरपूर भर्त्सना की है। शेरिंग ने 'हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स' नामक ग्रन्थ ( जिल्द ३, पृष्ठ २९३ ) में भारतीय जाति-व्यवस्था की भर्त्सना करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी है, किन्तु मेरिडिथ ने अपने 'यूरोप एण्ड एशिया' (१९०१ वाले संस्करण, पृ० ७२ ) में स्तुति गान किया है। कुछ लोगों ने जाति-व्यवस्था को धूर्त ब्राह्मणों द्वारा रचित आविष्कार माना है ।
जन्म एवं व्यवसाय पर आधारित जाति व्यवस्था प्राचीन काल में फारस, रोम एवं जापान में भी प्रचलित थी, किन्तु जैसी परम्पराएँ भारत में चलीं और उनके व्यावहारिक रूप जिस प्रकार भारत में खिले, वे अन्यत्र दुर्लभ थे और यही कारण था कि अन्य देशों में पायी जानेवाली ऐसी व्यवस्था खुल-खिल न सकी और समय के प्रवाह में पड़कर समाप्त हो गयी ।
यदि 'हम भारतीय जाति-व्यवस्था की विशिष्टताओं पर कुछ ग्रन्थकारों एवं कतिपय विचारकों के मतों का संकलन करें तो निम्न बातें उभर आती हैं, जिनका सम्बन्ध स्पष्टतः जाति-व्यवस्था के गुणों या विशेषताओं से है-(१) वंशपरम्परा, अर्थात् एक जाति में सिद्धान्ततः जन्म से ही स्थान प्राप्त हो जाता है; (२) जाति के भीतर ही विवाह करना एवं एक ही गोत्र में या कुछ विशिष्ट सम्बन्धियों में विवाह न करना; (३) भोजन - सम्बन्धी वर्जना ; (४) व्यवसाय ( कुछ जातियाँ विशिष्ट व्यवसाय ही करती हैं); (५) जाति-श्रेणियाँ, यथा कुछ तो उच्चतम और कुछ नीचतम । सेनार्ट साहब ने एक और विशेषता बतायी है; जाति-सभा (पंचायत), जिसके द्वारा दण्ड आदि की व्यवस्था की जाती है । किन्तु यह बात सभी जातियों में नहीं पायी जाती, यथा ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में; धर्मशास्त्रग्रन्थों में भी इसकी चर्चा नहीं हुई है। आज एक जाति के अन्तर्गत ही विवाह सम्भव है, इसी से जन्म से जाति वाला
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