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सामान्य धर्म
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समान हैं। इसी उपनिषद् में एक अति उदात्त स्तुति है-'असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।" मुण्डकोपनिषद् में केवल सत्य के विजय की प्रशंसा की गयी है। बृहदारण्यकोपनिषद् ने सबके लिए वम (आत्म-निग्रह), दान एवं दया नामक तीन प्रधान गुणों का वर्णन किया है (तस्मादेतत्त्रयं शिक्षेद् दमं दानं दयामिति-बृ० उ०, ५।२।३)। छान्दोग्योपनिषद् कहती है कि ब्रह्म का संसार सभी प्रकार के दुष्कर्मों से रहित है, और केवल वही, जिसने ब्रह्मचारी विद्यार्थियों के समान जीवन बिताया है, उसमें प्रवेश पा सकता है। इस उपनिषद् ने (५।१०) पांच पापों की भर्त्सना की है-सोने की चोरी, सुरापान, ब्रह्महत्या, गुरु-शय्या को अपवित्र करना तथा इन सबके साथ सम्बन्ध । कठोपनिषद् में आत्म-ज्ञान के लिए दुराचरण-त्याग, मनःशान्ति, मनोयोग आवश्यक बताये गये हैं। उद्योगपर्व (४३।२०) में ब्राह्मणों के लिए १२ व्रतों (आचरण-विधियों) का वर्णन है। इस (२२।२५) में दान्त (आत्म-संयमित) का उल्लेख हुआ है। शान्तिपर्व (१६०) में दम की महिमा गायी गयी है। महाभारत के इसी पर्व (१६२१७) में सत्य के १३ स्वरूपों का वर्णन है और मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसा, सदिच्छा एवं दान अच्छे पुरुषों के शाश्वत-धर्म कहे गये हैं। गौनमधर्मसूत्र ने दया, क्षान्ति, अनसूया, शौच, अनायास, मंगल, अकार्पण्य, अस्पृहा नामक आठ आत्मगुणों वाले मनुष्यों को ब्रह्मलोक के योग्य ठहराया है और कहा है कि ४० संस्कारों के करने पर भी यदि ये आठ गुण नहीं आये तो ब्रह्मलोक की प्राप्ति नहीं हो सकती। हरदत्त ने भी इन गुणों का वर्णन किया है। अत्रि (३४-४१), अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, हेमाद्रि, पराशरमापवीय आदि में ऐसा ही उल्लेख है । मत्स्य (५२६८-१०), वायु (५९।४०-४९), मार्कण्डेय (६१.६६), विष्णु (३।८ ३५-३७) आदि पुराणों ने इसी प्रकार के गुणों को थोड़े अन्तर से बताया हैं। वसिष्ठ (१०।३०) ने चुगलखोरी, ईर्ष्या, घमण्ड, अहंकार, अविश्वास, कपट, आत्म-प्रशंसा, दूसरों को गाली देना, प्रवञ्चना, लोम, अपबोध, क्रोध, प्रतिस्पर्धा छोड़ने को सभी आश्रमों का धर्म कहा है और (३०।१) आदेशित किया है कि 'सचाई का अभ्यास करो अधर्म का नहीं, सत्य बोलो असत्य नहीं, आगे देखो पीछे नहीं, उदात्त पर दृष्टि फेरो अनुदात पर नहीं।' आपस्तम्ब ने गुणों एवं अवगुणों की सूची दी है (आपस्तम्ब ध० सू० ११८।२३।३-६) । इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि गौतम एवं अन्य धर्मशास्त्रकारों के भतानुसार यज्ञ-कर्म तथा अन्य शौच एव शुद्धि सम्बन्धी धार्मिक क्रिया-संस्कार आत्मा के नैतिक गुणों की तुलना में कुछ नहीं हैं। हाँ, एक बात है, एक व्यक्ति सत्य क्यों बोले या हिंसा क्यों न करे? आदि प्रश्नों पर कहीं विस्तृत विवेचन नहीं है। किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इन गुणों की ओर संकेत नहीं है। यदि हम ग्रन्थों का अवलोकन करें तो दो सिद्धान्त झलक उठते हैं। बाह्याचरणों के अगणित नियमों के अन्तरंग में आन्तर पुरुष या अन्तःकरण पर बल दिया गया है। मनु (४।१६१) ने कहा है कि वही करो जो तुम्हारी अन्तरात्मा को शान्ति दे। उन्होंने पुनः (४१२३९) कहा है-'न माता-पिता, न पत्नी, न लड़के उस संसार (परलोक) में साथी होंगे, केवल सदाचार ही साथ देगा।' देवता एवं आन्तर पुरुष पापमय कर्तव्य को देखते हैं (वनपर्व, २०७१५४; मनु० ८३८५,
६. तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुधर्म वदतीति धर्म वा बदन्तं सत्यं वदतीत्येतद् ध्येवंतदुभयं भवति । यह १।४।१४; तदेतानि जपेदसतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमयति । बृह० उ० १।३।२।
७. नाविरतो दुश्चरितानाशान्तो नासमाहितः।नाशान्तमानसोवापि प्रज्ञानेननमाप्नुयात् ॥ कठ०१।२२३ और देखिए, वही ११३७ तथा मैत्रेयी उ० ३५। जिसमें ऊँचे एवं उदात्त दर्शन के विद्यार्थी द्वारा त्याज्य अन्धकारगुणों की सूची है।
८. अबोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुपहश्च दानं च सा धर्मः सनातनः॥ शान्तिपर्व, १६२।२१॥
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