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सामान्य धर्म
१०५ है।" मनुस्मृति (२।२२४), विष्णुधर्मसूत्र (७११८४) एवं भागवत (१।२।९) ने धर्म को ही प्रधानता दी है।" कामसूत्रकार वात्स्यायन ने धर्म, अर्थ एवं काम की परिभाषा की है और क्रम से प्रथम एवं द्वितीय को द्वितीय एवं तृतीय से श्रेष्ठ कहा है, किन्तु राजा के लिए उन्होंने अर्थ को सर्वश्रेष्ठ कहा है। धर्मशास्त्रकारों ने इस प्रकार आसन्न एवं परम लक्ष्यों एवं प्रेरणाओं की ओर संकेत किया है और अन्त में परम लक्ष्यों एवं प्रेरणाओं को ही श्रेष्ठतम माना है। उनके अनुसार उच्चतर जीवन के लिए तन और मन दोनों का अनुशासित होना परम आवश्यक है, अतः निम्नतर लक्ष्यों का उच्चतर गुणों एवं मूल्यों के आश्रित हो जाना परम आवश्यक है। मनु ने अरस्तू के समान ही सभी क्रियाओं के पीछे कोई अनमानित या पूर्वकल्पित शम या कल्याणप्रद तत्त्व मान लिया है। उन्होंने कहा है कि प्रत्येक जीव वासनाओं की
ओर झुकता है, अतः उन पर बल देने के स्थान पर उनके निग्रह पर बल देना चाहिए (५।५६)। उपनिषदों ने भी हित एवं हिततम के अन्तर को स्वीकार किया है।
विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्यस्मृति के भाष्य मिताक्षरा, (११) में लिखा है कि अहिंसा तथा अन्य गुण सबके लिए, यहाँ तक कि चाण्डालों तक के लिए हैं । कतिपय ग्रन्थों में इन गुणों की सूचियों में भेद पाया जाता है। शंखस्मृति (११५) में कथित शान्ति, सत्य, आत्म-निग्रह (दम) एवं शुद्धि नामक सामान्य गुण सबके लिए हैं। महाभारत के मत से निर्वैरता, सत्य एवं अक्रोध तीन सर्वश्रेष्ठ गुण हैं। वसिष्ठ के मत से सत्य, अक्रोध, दौन, अहिंसा, प्रजनन जैसी सामान्य बातें सभी वर्गों के धर्म हैं (४१४; १०।३०) । गौतम ने शूद्रों को भी सत्य, अक्रोध, शुद्धि के लिए प्रोत्साहित किया है (१०५२) । मनु के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह सभी वर्गों के धर्म हैं। सम्राट अशोक ने निम्नलिखित गुणों का उल्लेख अपने शिलालेखों (स्तम्भ २ एवं ७) में किया है---दया, उदारता, सत्य, शुद्धि, भद्रता, शान्ति, प्रसन्नता, साधुता, आत्मसंयम । यह सूची गौतम की सूची से मिलती-जुलती है। ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक के लिए याज्ञवल्क्य ने नौ गुणों का वर्णन किया है (१।१२२) । शान्तिपर्व में ये नौ गुण हैं-अक्रोध, सत्यवचन, संविभाग, क्षमा, प्रजनन, शौच, अद्रोह, आर्जव, भृत्यभरण । वामनपुराण में दस गुण हैं, यथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, शान्ति, दम, शम, अकार्पण्य, शौच, तप । हेमाद्रि ने सामान्य धर्मों की चर्चा की है। विष्णुधर्मसूत्र में १४ गुणों का वर्णन है।
१३. अर्थशास्त्र, ११७ 'धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत । न निःसुखः स्यात् । .....अर्थ एव प्रधनमिति कौटिल्यः। अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति ।'
१४. धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामायौ धर्म एव च । अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः॥ मनु० २।२२४॥; परित्यजेदर्थकामो यो स्यातां धर्मवर्जितौ। मनु० ४।१७६; मिलाइए, विष्णुधर्मसूत्र ७१२८४ 'धर्मविरुद्धौ चार्थकामो (परिहरेत्)' ; अनुशासन ३॥१८-१९-धर्मश्चार्यश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम् । एतत्त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवजितम् ॥ विष्णुपुराण ३।२१७-परित्यजेदर्यकामौ धर्मपीडाकरौ नृप। धर्ममप्यसुखोदकं लोकविद्विष्टमेव च ॥
१५. त्वमेव वृणीष्व यं त्वं मनुष्याय हिततमं मन्यसे इति । कौषीतकि वा० उ० ३।१।
१६. एतरि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत । निवरता महाराज सत्यमकोष एव च ॥ आश्रमवासिपर्व २८१९; प्रोग्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम् । न ब्रोच्चव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत् ॥ अनुशासनपर्व १२० ॥१०॥
१७. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः॥ मनु० १०॥६३; देखिए, सभी आश्रमों के लिए १० गुण, मनु० ६॥६२।
१८. भमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्द्रियसंयमः। अहिंसा गुरुशुश्रूषा तीर्थानुसरणं दया। आर्जवं लोभशून्यत्वं देवब्राह्मणपूजनम् । अनभ्यसूया च तथा धर्मः सामान्य उच्यते॥ विष्णु० २०१६-१७ ।
धर्म. १४
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