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धर्मशास्त्र का इतिहास
शिलाहार राजकुमार थे। शिलाहारों के अभिलेखों से पता चलता है कि उनकी तीन शाखाएँ थीं: जिनमें एक उत्तरी कोंकण के थाणा नामक स्थान में, दूसरी दक्षिणी कोंकण में, तथा तीसरी कोल्हापुर में थी। ये तीनों शाखाएँ अपने को जीमूतवाहन वंश की ठहराती हैं। अपरार्क संम्भवत: उत्तरी कोंकण वाले शिलाहारों में अपरादित्य देव नाम वाले राजा थे, क्योंकि निबन्ध में आनेवाली, शिलाहार नरेन्द्र एवं जीमूतवाहनान्वयप्रसूत उपाधियाँ एवं महामण्डलेश्वर तथा नगरपुर परमेश्वर आदि नाम एक शिलालेख में भी आये हैं, जहाँ पर अपराजित या अपरादित्यदेव, जो नागार्जुन के पुन अनन्तदेव के पुत्र थे, एक ब्राह्मण को दान देते हुए वणित हैं। और भी बहुतसे अभिलेख हैं, जिनमें अपरादित्य का नाम आता है। अपरादित्य की तिथि १६१५-११३० ई. के बीच में आती है। मंख के श्रीकण्ठचरित में आया है कि कोंकण के राजा अपरादित्य ने तेजकण्ठ को कश्मीर के राजा जयसिंह (११२९-११५० ई.) की विद्वत्परिषद् ने दूत बनाकर भेजा था। आज भी कश्मीर में अपरार्क की टीका चलती है। अपरार्क की कृति यह स्पष्ट करती है कि वे कश्मीर से परिचित थे। लगता है, राजा ने दूत को अपने भाष्य के साथ ही कश्मीर भेजा था, जहाँ के पण्डित आज भी अपरार्क को आदर की दृष्टि से देखते हैं। अपराक ने अपनी टीका १२वीं शताब्दी के प्रथमाई में अवश्य लिखी होगी। अपरार्क ने भासर्वज्ञ के न्यायसार पर भी एक टीका लिखी थी।
८०. प्रदीप श्रीधर की पुस्तक स्मृत्यर्थसार ने प्रामाणिक ग्रन्थों में कामधेनु के उपरान्त प्रदीप की गणना की है। स्मृतिचन्द्रिका ने प्रदीप नामक ग्रन्थ का, सम्भवतः उल्लेख किया है। सरस्वतीविलास ने स्पष्ट शब्दों में प्रदीप के मत का उल्लेख किया है। रामकृष्ण (लगभग १६०० ई.) के जीवत्पितकनिर्णय ने प्रदीप का उद्धरण इस विषय में दिया है कि क्या विभक्त भाई, अपने पिता या पूर्वपुरुषों के वार्षिक श्राद्ध पृथक्-पृथक् रूप से करें या साथ ही? वीरमित्रोदय के अनुसार प्रदीप ने भवदेव की आलोचना की है।
प्रदीप व्यवहार, श्राद्ध, शुद्धि आदि पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ था। स्मृत्यर्थसार एवं स्मृतिचन्द्रिका द्वारा वर्णित होने पर यह ग्रन्थ ११५० ई० के बाद किसी भी दशा में नहीं आ सकता। इसने भवदेव की आलोचना की है, अतः इसकी तिथि ११०० से पूर्व नहीं जा सकती।
८१. श्रीधर का स्मृत्यर्थसार
इस प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९१२ में आनन्दाश्रम प्रेस ने किया। इस ग्रन्थ के विषय अन्य स्मृति-ग्रन्थों से बहुत मिलते-जुलते हैं, यथा--पूर्वयुगादेशित एवं कलियुगजित कर्म, संस्कार-संख्या, उपनयन का विस्तृत वर्णन, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, अनध्याय, विवाह-प्रकार, सपिण्डता के कारण निषेध गोत्र-प्रवर-विवेचन, आचमन, शौच, आह्निक कर्म, दन्तधावन, स्नान, पंचयज्ञ, आह्निक संध्या, आह्निक पूजा, श्राद्ध का विस्तृत वर्णन, श्राद्ध के लिए उचित काल, पदार्थ तथा निमन्त्रण-योग्य ब्राह्मण, श्राद्ध-प्रकार, विविध तीर्थों पर विवेचन, मलमास, भक्ष्यामक्ष्य, विविध पदार्थों एवं अपने शरीर का निर्मलीकरण, जन्म-मरण पर अशुद्धि, मृत्यूपरान्त क्रिया-संस्कार, संन्यास-नियम, विविध पापों एवं दोषों के लिए प्रायश्चित्त।
श्रीधर विश्वामित्र गोत्र के नागभर्ता विष्णुभट्ट के पुत्र थे और स्वयं वैदिक यज्ञों को करनेवाले थे। श्रीधर ने अपने पूर्व के श्रीकण्ठ एवं शंकराचार्य के ग्रन्धों की चर्चा की है। उन्होंने कामधेनु, प्रदीप, अब्धि, कल्पवृक्ष (कल्पतरु), कल्पलता, शम्भु, द्रविड़, केदार, लोल्लट तथा अन्य मनुटीकाकारों के मतों की पर्याप्त चर्चा
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