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धर्मशास्त्र का इतिहास द्वारा सम्पादित) तथा त्रिवेन्द्रम् के संस्करण वाली विश्वरूप की टीका का हवाला दिया गया है।
याज्ञवल्क्य वैदिक ऋषि-परम्परा में आते हैं। उनका नाम शुक्ल यजुर्वेद के उद्घोषक के रूप में आता है। महाभारत (शान्तिपर्व, ३१२) में ऐसा आया है कि वैशम्पायन और उनके शिष्य याज्ञवल्क्य में सम्बन्धविच्छेद हुआ और सूर्योपासना के फलस्वरूप याज्ञवल्क्य को शुक्ल यजुर्वेद, शतपथं आदि का ऐशोन्मेष अथवा
काश मिला। गरु-शिष्य के सम्बन्ध-विच्छेद वाली घटना की चर्चा विष्ण एवं भागवत पुराणों में भी हुई है, किन्तु उसमें और महाभारत वाली चर्चा में कुछ भेद है। शतपथ ब्राह्मण में अग्निहोत्र के सम्बन्ध में विदेहराज जनक एवं याज्ञवल्क्य के परस्पर कथनोपकथन की ओर कई बार संकेत हुआ है। शतपथ में आया है कि वाजसनेय याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद की विधियाँ सूर्य से ग्रहण करके उद्घोषित की। वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य एक बड़े दार्शनिक के रूप में अपनी दार्शनिक मन वाली पत्नी मैत्रेयी से ब्रह्म एवं अमरता के बारे में बातें करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं (२.४ एवं ४.५) । उसी में याज्ञवल्क्य जनक द्वारा प्रदत्त एक सहस्र गायों को एक विद्वान् ब्राह्मण के रूप में ले जाते हुए प्रदर्शित हैं (३.१.१-२)। पाणिनिसूत्र के वार्तिक में कात्यायन ने याज्ञवल्क्य के ब्राह्मणों की चर्चा की है। याज्ञवल्क्यस्मृति (३.११०) में आया है कि इसके लेखक चाहे जो भी रहे हो, वे आरण्यक के प्रणेता थे। यह भी आया है कि उन्हें सूर्य से प्रकाश मिला था और वे योगशास्त्र के प्रणेता थे। इससे केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इन बातों से याज्ञवल्क्यस्मृति के लेखक ने स्मृति को महत्ता दी है कि वह एक प्राचीन ऋषि, दार्शनिक एवं योगी द्वारा प्रणीत हुई थी। किन्तु आरण्यक एवं स्मृति. का लेखक एक ही नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों की भाषा में बहुत अन्तर है। मिताक्षरा ने ऐसा लिखा है कि याज्ञवल्क्य के किसी शिष्य ने धर्मशास्त्र को संक्षिप्त करके कथनोपकथन के रूप में रखा है। भले ही आरण्यक (बहदारण्यकोपनिषद्) एवं स्मृति का लेखक एक व्यक्ति न हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि याज्ञवल्क्यस्मृति शुक्ल यजुर्वेद से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है।
याज्ञवल्क्यस्मृति में निर्णयसागर संस्करण, त्रिवेन्द्रम् संस्करण एवं आनन्दाश्रम संस्करण (विश्वरूप की टीका वाले) के अनुसार क्रम से १०१०, १००३ एवं १००६ श्लोक हैं। विश्वरूप ने मिताक्षरा में आनेवाले आचार-सम्बन्धी ५ श्लोक छोड़ दिय हैं इसी से यह भिन्नता है। मिताक्षरा और विश्वरूप की प्रतियों में श्लोकों एवं प्रकरणों के गठन में अन्तर है । अपरार्क की प्रति भी इसी प्रकार भिन्न है।
अग्निपुराण से याज्ञवल्क्यस्मृति के विषय की तुलना की जा सकती है। दोनों में व्यवहार-सम्बन्धी बहुत-सी बातें समान हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति के प्रथम व्याख्याकार विश्वरूप ८००-८२५ ई० में विद्यमान थे। मिताक्षरा के लेखक (याज्ञवल्क्यस्मृति के दूसरे प्रसिद्ध व्याख्याकार) विश्वरूप से लगभग २५० वर्ष बाद हुए। गरुडपुराण में भी अग्निपुराण की भाँति याज्ञवल्क्यस्मृति की बहुत-सी बातें पायी जाती हैं। अग्निपुराण ने तो कहीं भी यह नहीं कहा कि इतना अंश याज्ञवल्क्यस्मृति का है, किन्तु गरुडपुराण ने ऋण स्वीकार किया है (याज्ञवल्क्येन यत् (यः ?) पूर्व धर्म (धर्मः? ) प्रोक्तं (तः ?) कथं हरे। तन्मे कथय केशिघ्न याथातथ्येन माधव ॥)। अग्निपुराण एवं गरुडपुराण ने याज्ञवल्क्य से क्या-क्या लिया है, इस पर स्थान-संकोच के कारण यहाँ कुछ नहीं कहा जायगा।
शंख-लिखित-धर्मसूत्र ने धर्मशास्त्रकार याज्ञवल्क्य का उल्लेख किया है और याज्ञवल्क्य ने स्वयं शंख-लिखित को धर्मशास्त्रकार के रूप में माना है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शंख-लिखित के सामने कोई प्राचीन याज्ञवल्क्यस्मृति थी। इस बात के अतिरिक्त कोई अन्य सूत्र हमारे पास नही है कि हम कहें कि इस स्मृति का कोई प्राचीन संस्करण भी था। विश्वरूप एवं मिताक्षरा के संस्करणों की तुलना यदि अग्नि एवं गरुडपुराणों
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