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आत्मविलास] देकर क्षय होजाते हैं। सो लोकक्षय अथवा प्रलय नित्य, नैमित्तिक और महाप्रलय रूपसे तीन प्रकारका माना गया है । यथाः-- __(१) नित्य ही सुपुप्त अवस्थामै जीवके कर्मसस्कार भोगसे उदासीन रहते हैं, नित्य ही ऐमा होते रहनेसे इसको, नित्य-प्रलय कहते हैं।
(२) जव प्रारब्धका अन्त होकर शरीर मृत्युसम्मुम्ब होता है, तव अन्य शरीरकी प्राप्तिपर्यन्त नैमित्तिक-प्रलय कहा जाता है, क्योंकि प्रारब्धके क्षयके निमित्तसे ही इस प्रलयकी उत्पत्ति होती है।
(३) जब अपने परमात्मस्वरूपके साक्षात्कारके अनन्तर अविद्याकी निवृतिद्वारा संचित व प्रारब्ध कर्मका नाश हो जाता है, तब इसको महाप्रलय कहते हैं।
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इससे सिद्ध हुआ कि मोगके सम्मुख जीवके कर्मसस्कार ही द्विविध भोग उनका | संसाररूपमें प्रकट होते हैं, ससारका निमित्त तथा जीवन और कोई रूप नहीं।सो भोग सुखरूप व का लक्ष्य ... दुःखरूप दो ही भागोंमें विभक्त कियाजा सकता है । सुख व दुखकी उत्पत्ति पुण्य व पापसे होती है । पुण्यसे सुख और पापसे दुःख उत्पन्न होता है। सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्ति प्रत्येक प्राणी के जीवनका निर्विवाद लक्ष्य है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवनभर में दिन-रात इसी लक्ष्यकी पूर्तिमे लगा हुआ है कि दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति हो और ऐसा सुख मिले जिसका कभी क्षय, न हो। परन्तु जब तक दुःख-सुखका मूल पाप व । पुण्यका प्रवाह चल रहा है, इस लक्ष्यकी पूति कैसे सम्भव हो