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ॐ तत्सत् ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
आत्मविलास
पुण्य-पाप की व्याख्या
वेदका सिद्धांत है कि संसार जीवको भोगरूप है, जीव सृष्टिको उत्पत्तिका के भोगसे भिन्न संसारका और कोई निमित्त और त्रिविध- रूप नहीं । अर्थात् जीवके कर्मसंस्कार प्रलयनिरूपण
| जव भोगके सम्मुख होते हैं, तब वे ही संसारके रूपमें परिणत होते है और जब वे भोग देनेके सम्मुख नहीं होते, तव संसारका लय हो जाता है। जैसे बीज ही वृक्षरूपमें विकसित होता है, इसी प्रकार भोगके सम्मुख कर्मसंस्कार ही संसाररूपमें विकसित होते हैं । यथा श्रुतिः
तद्यथेह कर्मवितो लोकः क्षीयते
एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते
अर्थ यह है कि जिस प्रकार यह कर्मरचित लोक क्षय हो जाता है, उसी प्रकार पुण्यरचित परलोक स्वर्गादिक भी अपना भोग ।