Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणम् च नैयस्याभावात्तव मतेऽनवस्था प्रमज्येतेति, तस्माद् मा भण भक्तव्यः प्रदेश इति, अपि तु इत्यं भण 'धम्मे एएसे से पएसे धम्मे' (धर्मः प्रदेशः स प्रदेशो धर्मः) इत्यादि । धर्म: धर्मात्मकः प्रदेशः, स प्रदेशो धर्मः । अत्रे बोध्यम्-अयं धर्मात्मकः प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायाइभिन्नः सन्नेव धर्मात्मक उच्यते न तु धर्मास्तिकायैकदेशामिनः सन् सकलजीशस्तिकायैकदेशभिन्नजीवात्मकप्रदे. शवत् । अतएव स प्रदेशो धर्म:=पकलधर्मास्तिकायादव्यतिरिक्त उच्यते । अयं भावः-जीवास्तिकायेऽनन्तजीवद्रव्याणि परस्परं पृथग्भूतानि सन्ति, अतएव एकहोने पर और क श्री अमात्य आदि के सेवक होने पर नयत्य नहीं बनता है। उसी प्रकार प्रदेश में भी नै पत्य का अभाव होने से तुम्मारे मत में अनवस्था होगी । (तं मा भणाहि भइयच्चो पएसो) इसलिये ऐसा मत कहो कि प्रदेश भजनीय है। किन्तु (भणाहि) ऐसा कहो (धम्मेपएसे से परसे, धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंघे पएसे से पएसे नोखंधे) कि जो प्रदेश धर्मात्मक है वह प्रदेश धर्म है। इसका तात्पर्य यह है-यह धर्मात्मक जो प्रदेश है वह समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक कहलाता है। सकल जीवास्तिकाय के एकदेश से अभिन्न होकर जीवात्मक प्रदेश के जैसा कह लानेवाले धर्मास्तिकाय के एकदेश से अभिन्न होकर वह धर्मात्मा नहीं कहलाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि-जीवास्तिकाय में अनन्त जीव द्रव्य परस्पर जुदे जुदे हैं इसलिये एक जीवद्रव्य का जो प्रदेश है वह समस्त जीवा. વગેરેના સેવક હોવાથી નેત્ય બનતું નથી, તેમ પ્રદેશમાં પણ રૈયત્યના અભાવે तमा। मत भु गनवा -1 थशे. (त भणाहि भइयव्यो पएसो) सटमा माटे तमे माम न ४ ते प्रदेश मनीय छे. परंतु (भणाहि) माम
डा (धम्मे पएसे से परसे, धम्मे, अहम्मे पएसे, से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे परसे से पएसे नो खंधे) २ प्रश घाम छे. ते प्रदेश ५ छे. सानु तात्य या प्रमाणे છે કે આ ધર્માત્મક જે પ્રદેશ છે તે સમસ્ત ધમરિતકાયથી અભિન્ન થઈને જ ધર્માત્મક કહેવાય છે. સકલ જવાસ્તિકાયના એકદેશથી અભિન્ન થઈને જવાત્મક પ્રદેશની જેમ કહેવડાવનારા ધર્માસ્તિકાયના એકદેશથી અભિન્ન થઈને તે ધર્માત્મક છે તેમ કહી શકાય નહિ. કહેવાનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે છવાસ્તિકાયમાં અનંત જીવ દ્રો પરરપર જુદા જુદા છે. એટલા માટે એક अ० ७६
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