Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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aartrefront free eत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम्
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सम मनोऽस्येति समनाः, स एव श्रमण इति श्रमणशब्दस्य पूर्ववैलक्षण्येन निर्दचनं कृत्वा पर्यायान्तरमपि भवितुमईतीति प्रदर्शयितुमाह- 'स्थिय से' इत्यादि । तस्य सममनस्कत्वात् सर्वेषु चैव त्रापि जीवेषु न कश्चिद् द्वेष्यः =अभियः प्रियः = मेवा अस्ति । एतेन हेतुना स श्रमः सममता एव निरुक्तरीत्या श्रमणो भवति । एव श्रवणस्य अन्योऽपि पूर्वविलक्षणः पर्यायो योग्य इति ॥ ४ ॥ ॥ इत्थं सामायिकयुक्तस्य साधोः स्वरूपं निरूप प्रकारान्तरेण पुनस्तन्निरूपयति- 'उरग' मनोऽस्येति समनाः' इस निर्वचन से उसमें सममनसूरूप श्रमणता का प्रतिपादन करते हैं जो पहिले निर्वाचन की अपेक्षा से भिन्न है । (नस्थि य से कोइ देसेापियो य सच्चे चेव जीवेसु, एएण होइ समणो एमो अन्नोऽपिज्जाओ) समस्त जीवों के ऊपर सममनवाला होने के कारण जीवों में से जिसका कोई भी जीव द्वेष्य (द्वेष करने लायक नहीं है, और न कोई जीव जिसे प्रिय हैं- प्रेमाश्रय है - इस श्रमण ? शब्द की निरुक्ति से सममनवाला जीव श्रमण कहलाता है। भ्रमण शब्द की पहिले की अपेक्षा दूसरी प्रकार की निरुक्ति है। इस निरुक्ति की रीति के अनुसार 'समं मनोऽस्येति समनाः समना एवं श्रमण:' समनस् यह शब्द भी श्रमण शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है । क्योंकि जो सममनवाला होता है, वही श्रमण होता है । इस प्रकार सामायिक युक्त साधु के स्वरूप का निरूपण कर के प्रकारान्तर से पुनः उसका निरूपण सूत्रकार करते हैं - ( उरगगिरिजलण सागर नहतल तरुगण - समो य जो
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मनोऽस्येति भ्रमनाः” मा निर्वाचनधी तेमां सममन३५ श्रमश्रुतानु प्रतिपादन १३ छे, ने प्रथम निर्वाचननी अपेक्षा मे लिन्न छे, (णत्थि य से कोइ देसो पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु, एएण होइ भ्रमणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ) સમસ્ત જીવેા પર સમમનવાળા હાવાથી જીવમાંથી જેને કાઇ પણ અદ્વેષ્ય (द्वेष रखा योग्य) नयी, अनेन हो भेने प्रिय है, प्रेमाश्रय छे, भा શ્રમણ શબ્દની નિરુક્તિથી સમમનવાળા જીવ-શ્રમણુ કહેવામાં આવે છે. આ શ્રમણ શબ્દની પહેલાની અપેક્ષાએ ત્રીજી નિરુક્તિ છે. આ નિરુક્તિ મુજબ 'समं मनेोऽस्येति समनाः, समना एव श्रमणः ' समनस् मा शब्द पशु श्रमश શબ્દને પર્યાયવાચી શબ્દ છે. કેમ કે જે સમમનવાળા હોય છે, તેજ શ્રમણુ હૈાય છે. આ પ્રમાણે સામાયિકયુક્ત સાધુના સ્વરૂપનુ' નિરૂપણુ કરીને अकारान्तरथी श्री तेनुं नि३पशु ४२ छे. ( उरगगिरि जलणसागर नहतलत रुगणसमो ब जो होइ, भमर, मियधरणि जलरुहर विपवणसमो य सो भ्रमणो) भेव नियम
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