Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 821
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुयोगद्वारसूत्रे भगजादीनां वधादीन विवादरान्, अग्राह्यान मद्यमांसादीन् अप्राप्य, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्थिमत्स्यादि वधादींश्च त्रिविध त्रिविधेन प्रत्याख्याति, न पुनस्तत् सामान्येन सावद्ययोगविषयं बोध्यमिति । अत्रायं विवेकः - श्रावकस्यापि एकादशी प्रतिमानसमये तथा भक्तप्रत्याख्यानाङ्गीकरणसमये प्राणातिपातादीनां त्रिकरणत्रियोगेन प्रत्याख्यानं भवितुमर्हतीति तथा - 'कहि' इति क सामायिकं भवति ? इत्यपि वक्तव्यम् । अमुमेवार्थ गाथा प्रयेण विशदयति । तथाहि ५ ६ 'खेत दिसिकालाई भयि सनि ऊसास दिट्ठिमाहारे । の 90 99 १२ १३ १४ १५ १६ १७ पज्जत सुत्त जम्म- द्विइवेय सण्णा कसायाज ॥ १ ॥ १८ १९ २० २१ २२ ૨૩ २४. नाणे जो आंगे सरीरसंठाण संघयणमाणे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 २५ २७ २.८ लेसा परिणाम वेयणाय समुग्धाय कम्मे य | २|| 33 निव्वेट्टणमुत्रट्टे आसत्र करणं वहा अलंकारं । 33 ३४ ३५ ३६ सणासठाण चकमंते य किं कहिये' सामाइयम् ॥३॥ अतिबादररूप वादि का मद्य, मांस आदि जो अग्राह्य हैं उनका और अप्राप्य स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यादि के बधादि का त्याग मन, वचन और काय से कृत कारित अनुमोदना पूर्वक कर देता है सो यह बात सर्वथारूप से सावद्ययोग विषयक नहीं मानी जा सकती है। यहां पर यह समझने का है कि- ग्यारहवीं प्रतिमा के वहन करते समय और भक्तप्रत्याख्यात संथारे के समय श्रावक के भी प्राणातिपातादिका तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार यह पंद्रहवें द्वार का विवेचन है ॥ १५ ॥ કાઇ શ્રાવક સિદ્ધ, સરભ, ગજ આદિના અતિ બાદર રૂપ વધાદિક, મઘ માંસ વગેરે અગ્રાહ્ય છે. તેમનેા અને અપ્રાપ્ય સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રનામસ્ત્યાદિના વધાનિા ત્યાગ મત, વચન અને કાયથી કૃત, કારિત અનુમેાદના પૂર્વક કરી નાખે છે, તા આ વાત સર્વથા રૂપમાં સાવદ્યયેાગ વિષયક માનવામાં આવી શકતી નથી. અહી' આ વાત સમજવી આવશ્યક છે કે ૧૧ મી પ્રતિમાનું વહન કરતી વખતે અને ભક્તપ્રત્યાખ્યાન સંથારાના સમયે શ્રાવકને પણ પ્રાણાતિપાતાદિના ત્રણ કરણ, ત્રણ ચાગધી પ્રત્યાખ્યાન હોય છે. આ પ્રમાણે આ ૧૫ માં દ્વારનું વિવેચન છે. ૫૧પા For Private And Personal Use Only

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