Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 864
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४८ अनुगमनामानुयोगद्वारनिरूपणम् ८४७ वात् । उपयोगतातु सर्वेषां सामायिकानाम् अन्तर्मुहूर्त स्थितिः । नानाजीवानां तु सर्वाणि सामायिकानि सद्धिति । तदुक्तम् 'सम्मत्तस्स सुयस्स य, छावट्ठी सागरोक्माई ठिई । सेमाण पुनकोडी, देसूणा होइ उक्कोसा ॥१॥ अंतो मुहुत्तमित्तं, जहन्नो चरणमेगसमयं तु । उवओगंतमुहुत्तं, नानाजीवाण सव्वद्धं ॥२॥ छाया-सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च, षट्पष्टि सागरोपमाणि स्थितिः। शेषयोः पूर्व कोटी देशोना भवति उत्कृष्टा ॥१॥ अन्तम हर्त्तमात्रं जघन्यतश्चरणमेकसमयं तु । उपयोगादन्तमहतै, नानाजीवानां सद्धिा ॥२॥ इति । इत्येकोनविंशं द्वारम् । तथा-सम्यक्त्वादि सामायिकानां विवक्षितसमये प्रतिपयमानका पूर्व पतिपन्नकाः प्रातिताश्च कति=कियन्तो भवन्तीति वक्तव्यम् । यथा-क्षेत्रपल्योपमस्या. संख्येयभागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त: सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोरेकदा प्रतिपधमानका भवन्ति । तत्रापि देशविरतिप्रतिपद्यमानकापेक्षया सम्यक्त्वपतिसमस्त सामायिकों को स्थिति अन्तर्मुहर्त की है । तथा नाना जीवों की अपेक्षा सच सामायिकों की स्थिति सर्वाद्धाकाल है। तदुक्तम्सम्पत्तस्स सुयस्सय' इत्यादि गाथाओं का अर्थ यही पूर्वोक्तरूप से है। अब सूत्रकार २० वें द्वार में कह रहे हैं कि सम्यक्त्व आदि सामायिकों के विवक्षित समय में प्रतिपद्यमानक, पूर्वप्रतिपन्नक एवं प्रपतित जीव कितने होते हैं-सो क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रतिपद्यमानक जीव मम्यक्त्वसामायिक और देशविरतिसामायिक के एक काल में होते हैं इनमें भी देशविरति के प्रतिपत्ताओं-धारकों की अपेक्षा નીરિથતિ અન્તર્મુહૂર્તની છે. તથા અનેક પ્રકારના જવેની અપેક્ષા સર્વ सामायिोनी स्थिति सद्धि छे. ततम्-“सम्मत्तस्स सुयस्स य" त्यादि ગાથાઓને અર્થ આ પૂર્વોક્તરૂપમાં હોય છે. હવે સૂત્રકાર ૨૦ માં દ્વા૨નું કથન કહી રહ્યા છે કે સમ્યક્ત્વ વગેરે સામયિ. કોના વિવક્ષિત સમયમાં પ્રતિપદ્યમાનક પૂર્વ પ્રતિપન્નક અને પ્રપતિત કેટલા હોય છે? ક્ષેત્ર પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગમાં જેટલા પ્રદેશો હોય છે, તેટલા પ્રતિપદ્યમાનક જ સમ્યકત્વ સામાયિક અને દેશવિરતિ, સામયિકના એક કાળમાં હોય છે. આમાં પણ દેશવિરતિના પ્રતિપત્તાઓ-ધારકોની અપેક્ષા For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928