Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 898
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् शब्दानेकाभिधेयत्वेनेच्छतीति । तथा-समभिरूढे नये=समभिरूढनरमते वस्तुना= इन्द्रादेरन्यत्र शक्रादौ संक्रमणम् अवस्तु-अवास्तविक भवतीति । अयं भावः वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति-समभिगच्छति प्रतिपद्यते यः स समभिरूढः इति समभिरूढस्य व्युत्पत्तिः। शब्दनयो हि इन्द्रशक्रपुरन्दरादि शब्दान एकाभिधेयत्वेनेच्छति । समभिरूढनयस्तु तदपेक्षया विशुद्धतरवासान उन शब्दों के वाच्यार्थ में भिन्नता नहीं है । इस प्रकार 'इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' इन शब्दों का वाच्यार्थ एक ही है क्योंकि इन शब्दों में लिङ्ग और वचन की समानता है। (वत्थूओ संक्रमण होह अवस्थूनए समभिरूढे । धजण अस्थ तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ) समभिरूढनय में इन्द्रादिरूप वस्तु का अन्यत्र-शक्रादि-में संक्रमण अवस्तु-अवास्तविक-होता है, ऐसी इस नय की मान्यता है। तात्पर्य इसका यह है कि शादिक धर्म भेद के आधार पर अर्थ भेद करनेवाली घुद्धि ही जब और भी आगे बढकर व्युत्पत्ति भेद का आश्रय लेने लग जाती है और ऐसा मानने पर कि 'वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति इति समभिरूढः' जहां पर अनेक जुदे २ शब्दों का एक ही अर्थ मान लिया जाता है वहां पर भी वास्तव में उन सभी शब्दों का एक अर्थ नहीं हो सकता किन्तु जुदा २ ही अर्थ होता है। क्योंकि इस नय की व्युत्पत्ति ऐसी है । शब्दनय इन्द्र, शक, पुरन्दर, आदि शब्दों से छे, शहाना पा२याय मा मिन्नत नथी. मा प्रमाणे इन्द्रः, शक्रः पुरन्दरः' मा शहोना पायाथ से छे. भ. मा शमा सिंग भने क्यननी समानता छ. (वत्थूओ संकमणं होह अवत्थूनए समभिः रूढे। वंजण अत्थ तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ) समनि३० नयमां ઈન્દ્રાદિરૂપ વરતુનું અન્યત્ર શક્રાદિમાં સંક્રમણ-અવસ્તુ-અવાસ્તવિક હેય છે, એવી આ નયની માન્યતા છે. તાત્પર્ય આનું આ પ્રમાણે છે કે શાબ્દિક ધર્મ ભેદના આધાર પર અર્થભેદ કરનારી બુદ્ધિ જ જ્યારે વધારે આગળ વધીને વ્યુત્પત્તિ ભેદના આશ્રયે રહેવા તત્પર થાય છે. અને આમ भान्या पछी -'वाचकभेदेन भिन्नतया वाच्यविशेषान् समभिरोहति इति समभिरूढः' यो भने लिन्न निन्न शहाना ४ म भानवामां आवछ ત્યાં પણ વાસ્તવમાં તે બધા શબ્દને એક જ અર્થ સંભવી શકે જ નહિ, પરંતુ ભિન્ન ભિન્ન અર્થ જ હોય છે. કેમ કે આ નયની વ્યુત્પત્તિ એવી જ છે. શબ્દ નય ઈન્દ્ર, શક્ર, પુરન્દર વગેરે શબ્દોને વાગ્યાથે એક ઇન્દ્રરૂપ अ० १११ For Private And Personal Use Only

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