Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३० संख्याप्रमाणनिरूपणम् अदं बोध्यम्-आभिमुख्यं तु समीप्ये सत्येवोपपद्यते, अतोऽभिमुखनामगोत्रस्य द्रव्यशङ्खस्य जघन्यतः एक समयम् , उत्कृष्टतस्त्वन्तमुहूर्त स्थितिबोध्येति । उपरि. निर्दिष्टात् कालादनन्तरम् एकमविकादयस्त्रयोऽपि भावशङ्खतां प्रतिपद्यन्ते इति । इदानी नैगमादि सप्तनयमध्ये को नयः त्रिविधशखेषु कं शङ्खमिच्छति, तदार नैगमसंग्रहव्यवहाराः स्थूलदृष्टित्वात् त्रिविधमपि शङ्खमिच्छन्ति । दृश्यते हि स्थल: तात्पर्य यह है कि-'अभिमुखता समीपता के होने पर ही बनती है। इसलिये अभिमुख नाम गोत्रवाले द्रव्यशंख की स्थिति जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। ये एकपविक आदि द्रव्यशंख इस कही हुई स्थिति के बाद फिर नियम से भावशंख पर जाते हैं। इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि-'एकमविकजीवद्रम्प शंख जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से एक कोटि पूर्व तक रहता है, इसके बाद वह भावशंख बन जाता है अर्थात् शंख पर्याय में हो जाता है । इसलिये एकभविक की द्रव्यशंखरूप से रहने की स्थिति पूर्वोक्त जयन्य और उत्कृष्ट कही गई है। इमी प्रकार से बद्धायुक
आदि में भी जानना चाहिये । इयाणि को ओ के संखं इच्छा) अब सकार यह कहते है कि सातनयों में से कौन २ सा नय इन तीन शंखों में किस २ शंख को मानता है-'तत्थ णेगमसंगहववहारा तिषिई मखं इच्छंति-तं जहां एगभवियं, बद्धाउयं, अभिमुहनामगोतच) नेगमनय, संग्रहनय, और व्यवहार नय ये तीन नय स्थूल दृष्टिवाले આ પ્રમાણે છે કે “અભિમુખતા સામિપ્યને લીધે જ થાય છે એથી અભિમુખ નામ ગેત્રવાળા દ્રવ્ય શંખની સ્થિતિ જઘન્યથી એક સમયની એને ઉકષ્ટથી અન્તર્મહત્ત જેટલી કહેવામાં આવી છે. આ બધાં એક ભવિક આદિ દ્રશંખ આ કથિત સ્થિતિ પછી ફરી નિયમાનુસાર ભાવશંખ બની જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “એક વિક જીવ દ્રવ્ય શંખ જઘન્યથી અન્તમુહૂર્તા સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક કટિ પૂર્વ સુધી રહે છે, ત્યાર પછી તે ભાવ શંખ બની જાય છે. એટલે કે શંખ પર્યાયમાં પરિવર્તન થઈ જાય છે. એટલા માટે એકભાવિક જીવની દ્રવ્યખ રૂપમાં રહેવાની સ્થિતિ પૂર્વોકત જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ કહેવામાં આવેલી છે. આ प्रमाणे मद्धा पोरे विष ५ one से . (इयाणि को "ओ के संखं इच्छद) वे सूत्रा२ सात नयामाथी या नय मात्रय शोभायी य॥ शमन भने छ. ते विषे अथन रे थे. (तत्थ णेगमसंगहववहारा सिविहं संखं इच्छंति नहा एगभवियं बद्धाउयं, अभिमुइनामगोत्तं च) नेगभनय, सहनय, અને વ્યવહારનય આ ત્રણે ન સ્થલ દષ્ટિવાળા હોય છે, એથી એ
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