Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २३६ अष्टविधानंतकनिरूपणम् ६७७ तयं होइ, तेण परं अजहण्जमणुक कोसयाइं ठाणाई। से तं गणणासंखा ॥सू०२३६॥
छाया- जघन्यकं परीतानन्तक कियद् भाति ? जघन्यकाऽसंख्येयासंख्ये. यकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याऽभ्यासः प्रतिपूर्णः-जघन्यक परीतानन्तक भवति, अथवा उत्कर्ष के असंख्येषासंख्येय के रूपं पक्षिप्त जघन्य परीता
अब सूत्रकार आठ प्रकार के जो अनंत हैं, उनका वर्णन करते हैं'जहण्णयं परित्ताणतयं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(जहण्णयं परित्ताणतयं केवइयं होइ) हे भदन्त ! जघन्य परीतानन्तक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(जहणयं असंखेज्जा संखेजयमेसणं रासीणं अण्णमण्ण भासा पडिपुग्णो जहणयं परित्ताणतय होइ) जघन्य असंख्याता. संख्यातरूप जो राशि है, उसका अन्योन्य अभ्यास के रूप में आपस में गुणा करना चाहिये । और उसमें से एक कम नहीं करना चाहिये। यही जघन्य परीतानंतक का स्वरूप है. (अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्मयं परिसाणंतयं होइ) अथवा-उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक जोडने पर जघन्य परीतानंतक का प्रमाण बन
હવે સૂત્રકાર આઠ પ્રકારના જે અનંત છે, તેમનું વર્ણન કરે છે– 'जहण्णय परित्ताणतय” इत्यादि ।
शा--(जहण्णय' परित्ताणतय केवइय होइ) 8 मत ! धन्य પરિતાનન્તકનું સ્વરૂપ કેવું છે !
उत्तर-(जहण्णयं अस खेज्जास खेज्जयमेत्ताणं रासीण अण्णमण्णभाओ पड़िपुण्णो जहण्णय परित्ताणतय होइ) 14.4 AAVयाताभ्यात शि છે, તેને અન્ય અભ્યાસના રૂપમાં પરસ્પર ગુણાકાર કર જોઈએ. અને તેમાંથી એક એ છે ન કરે જઈએ. એજ જઘન્ય પરીતાનંતકનું ११३५ छे. (अहवा उकोसए असंखेना सखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णय' परित्ताणतय होइ) 0 Gट मसच्यात सध्यातमा मे
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