Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगद्वारसूत्र विघटन्ते । अत एवाह-'कम्माण' इत्यादि। अयं भावः-यस्मात् अस्मिन् सति उपचिताना-पागुपनिबद्धानां कर्मणामपचयो हासो भवति, नवानां च कर्मणाम् अनुपचयः अवन्धो भवति, तस्मात् इदम् अज्झयणम् अध्ययनम् इच्छन्ति तीर्थकरगणधरादय इति । अत्र नो शब्दो देशवाची। सामायिकादिकमध्ययन तु ज्ञान क्रियासमुदायात्मकम् ततश्च आगमस्यैक देशत्तिस्मादिदं नो आगमतो भावाध्य यनमित्युच्यते, इति। सम्पति प्रकृतमुपसंहरति तदेतद् नो आगमतो भावा. ध्ययनमिति । इदं सभेदं भावाध्ययन निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत्-भावाध्ययनमिति । इत्थं च चतुर्विधमप्यध्ययन निरूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतद. ध्ययनमिति ॥सू० २४२॥ को बंध विघटित (नष्ट) हो जाता है। इसीलिये सूत्रकार ने 'कम्माणं' इत्यादि पाठ कहा है। इसका भाव यह है कि 'चित्त जष निर्मल बन जाता है-तय पूर्व बद्ध कर्मों का हास-निर्जरा-होती है, तथा मषीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है । इसलिये इस सामायिक आदि अध्ययन का तीर्थ कर गणधर आदि देवों ने ना आगम से भावा. ध्ययन माना है । यहां नो आगम में 'नो शब्द देशवाची है। आगम के अभाव का वाची नहीं हैं। क्योंकि सामायिक आदि अध्ययन ज्ञानक्रिया के समूहरूप होते है । इसलिये ये पूर्ण आगमरूप न होकर आगम के एकदेशरूप होते हैं। इसलिये इन्हें ना आगम की अपेक्षा भावाध्ययन माना गया है । (से तंणो आगमओ भावज्झयणे) इस प्रकार से ने। आगम की अपेक्षा भाव अध्ययन का स्वरूप है। (से तं अज्झ. यणे) इस प्रकार चार प्रकार का अध्ययन निरूपित किया है।स०२४२॥
५ विघटित 25 जय . मेथी सूत्ररे 'कम्माण' वगेरे ५४ ४ छे. माना माछे है 'चित्त' ब्यारे शुद्ध य य छे, त्यारे पूर्व કર્મોને હાસ-નિજ –થાય છે. તેમજ નવીન કર્મોને બંધ થતું નથી. એથી આ સામાયિક વગેરે અધ્યયનેને તીર્થંકર ગણધર વગેરે દેવોએ ને આગમથી ભાવાધ્યયન તરીકે માન્ય રાખેલ છે. અહીં ને આગમમાં “રો શબ્દ દેશવાચી આગમના અભાવને વાચક નથી, કેમ કે સામાયિક વગેરે અધ્યયને જ્ઞાનકિયાના સમૂઠરૂપ હોય છે. એથી એઓ પૂર્ણ આગમરૂપ હોતા નથી પણ આગમના એકદેશરૂપ હોય છે એથી એમને ને આગમથી અપેક્ષા मावाध्ययन मानवामो मावल छे. (से तणो आगमओ भावज्झयणे) मा प्रमाणे नो भागमनी मपेक्षा मामध्ययननु १३५ छ. (से तअन्झ यणे) આ પ્રમાણે ચાર પ્રકારના અધ્યયનેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. સૂ. ૨૪૨ છે
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