Book Title: Shrutgyan Amidhara
Author(s): Kshamabhadrasuri
Publisher: Shrutgyan Amidhara Gyanmandiram
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COMPAN LUTATISTIANITHAIRS HINITIATTRANHITRINATA श्री श्रुतज्ञान-अमीधारा জী ঋন্যথাহব্যাক্তিয়ালাও TIMURARERANTHALIA MINOW AIMAHAANIMA ANCINHINPATTA HOMEHATAMLESH M HTMINAINION संपादकाः स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयक्षमा भद्रसूधिराः Mita HAMAPAN HAITANA AHAN Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय क्षमाभद्रसूरीश्वरजी महाराज Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अहँ नमः ॥ श्री श्रृतज्ञान-अमीधारा श्री शान्तसुधारसादिग्रन्थरत्नाकर : MUSERSESEGMERememeremeere : संग्राहकाः : पूज्यपादानां सुविशाल-सुविहितगच्छाधिपतीनां सिद्धान्तमहोदधि - आचार्यभगवतां श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराणां पट्टप्रभावकाः तथैव पूज्यपादानां शासनप्रभावकानां अमीविजय-मुनिसत्तमानां विनेयरत्नाः पुण्यनामधेयाः स्व० आचार्यश्रीमद्विजयक्षमाभद्रसूरीश्वराः Menitarietierrere..........................0-3 - प्रकाशको - (१) श्री श्रुतज्ञान-अमीधारा-ज्ञानमंदिरम् व्हेडा ( मरुधरदेशः ) (२) श्री जैनसंघः, अजीतग्रामः (मरुधरदेशः) SESSESSISeme: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थानम् शा. पुनमचंद गोमाजी मझगाम - जूना बजार. पो. बो. १०, बंबइ. मूल्यम् - अमूल्यम् द्वितीयावृत्तिः १००० प्रतयः मुद्रक : कीरचंद जगजीवन शेठ श्री जशवतसिंहजी प्री. वर्क्स पढवाण सीटी (सौराष्ट्र) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृतना सहभागी - ६०० पुस्तकोमां द्रव्य सहायक रु ६०० - पूज्यपाद स्व. मुनिवर्य्यश्री अमीविजयजी महाराजना शिष्यरत्न पू. तपस्वी मुनिराज श्री गुणविजयजी महाराज तथा स्व. पू. मुनिवर श्री लक्ष्मीविजयजी महाराजना सदुपदेशथी पूज्यपाद सिद्धान्तमहोदधि परमकृपानिधि आचार्य भगवान श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजानी पावन निश्रामां बेडा ( मारवाड ) निवासी शेठ ऋगनाथमलजी भीमाजीना सुपुत्रो हिंमतमलजी तथा वनेचंदजीए करावेली श्री उपधानतपनी भव्य आराधना (वि. सं. २०१३ शंखेश्वरजी तीर्थं ) निमीत्ते, तथा स्व. पूज्यपाद मुनिराज अमीविजयजी महाराजना शिष्यरत्न परमतपस्वी पू. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे वर्धमान आयंबील तपनी १०० ओळी पूर्ण करो (पारणुं वि. सं. २०१३ - फाल्गुन शुद् ३, शंखेश्वरजी) ते निमीत्ते । रु. १०० - स्व. पूज्य मुनिराज श्री अमीविजयजी महाराजना शिष्यरत्न पू. पं. श्री भक्तिविजयजी गणिवरना शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री ललीतविजयजी म. ना उपदेशथी नंदरबार - श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ तरफथी । रु. १०० - पूज्य मुनिराजभी ललितविजयजी महाराजना उपदेशथी नीपाणी (महाराष्ट्र) निवासी आर. टी. शाह तरफथी । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पुस्तकोमा द्रव्य सहायकपूज्यपाद स्व. मुनिवर्यश्री अमीविजयजी महाराजना शिष्यरत्न पूज्यपाद आचार्यदेव स्व. विजयक्षमाभद्रसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न पू. मुनिवरश्री माणेकविजयजी महाराजना सदुपदेशथी श्री अजीतगाम (मारवाड) ना देरासरजीनी थयेली प्रतिष्ठा (वि. सं. २०१४-मागसर सुद ६) नी यादगीरी निमित्ते (अजीतगाम संघ तरफथी शेठ सोनराजजी, शेठ सरदारमलजी शेठ चीमनीरामजी, शेठ वच्छराजजी तथा शेठ दलीचंदजी) -प्रकाशकः द्वितोय - आवृत्तिनुं - प्रकाशकीय निवेदन'श्री श्रुतज्ञान अमीधारा' स्वाध्यायग्रंथनी आ बीजी आवृत्ति बावीस वर्षना आंतरे बहार पडे छे. घणो ज हर्ष थाय छे के घणा समयथी दुर्लभ बनेलो आ ग्रंथ आजे अमे तत्त्वपिपासु अने स्वाध्यायरसिक भव्यात्माओनी समक्ष रजु करी शकीए छीए । आ ग्रंथना प्रकाशनमा जो कोइए अगत्यनो भाग भजव्यो होय तो ते छे पूज्यपाद मुनिराजश्री अमीविजयजी महाराजना शीष्यरत्न पं. श्री भक्तिविजयजी गणिवर । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारपछी तो पूज्यपाद स्व. आचार्यदेवश्री क्षमाभद्रसूरीश्वरजी महाराजना समुदायना विद्यमान पू. मुनिराजोए आ प्रकाशनने वेग आप्यो; अने ग्रंथ ट्रंक समयमांज प्रगट थाय छ । आ ग्रंथना प्रकाशनमा जे भाग्यशाळी भाइआले आर्थिक सहाय करी छे, तेमनो आ तके महान आभार मानीए छीए; तेमज घणी काळजी राखवा छतां ग्रंथना प्रीन्टींगमा जे भूलो रही जवा पामी छे; ते क्षन्तव्य गणी शुद्धि-पत्रकमांथी सुधारी लेवा विनंति छे। शुद्धिपत्रक तैयार करी आपनार पू. मुनिराजश्री नित्यानंदविजयजी महाराजने आ तके भूली शकता नथी । बीजं, प्रथमावृत्तिमा जे ग्रंथोनो संग्रह हतो ते ग्रंथो उपरांत नूतन आवत्तिमां 'श्री वीतराग स्तोत्र' उमेरवामां आव्यं छ । जेथी पूज्य साधु-साध्वीजी महाराजने एक अगत्यनु स्वाध्यायसाधन मली रहेशे। सौ कोइ स्वाध्यायरसिक मुमुक्षु आत्माओ आ स्वाध्याय ग्रंथने आत्मसात् करी अनंत कल्याण साधो; ते शुभेच्छा । वि. सं. २१५ । ली. प्रकाशक : श्री पुनमचंद गोमाजी. मझगाम, जूनी बजार-पो. बो. १० मुंबई. महा वद । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमकृपासिन्धु सुविहिताग्रणी सुविशालगच्छाधिपति सिद्धान्तमहोदधि पूज्यपाद आचार्यभगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजाना करकमलमा - विनम्रभावे समर्पण Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mM ३८ 200000000000 6 . mewan विषयानुक्रमः ग्रन्थ : १ श्री शान्तसुधारसः २ , प्रमाणनयतत्त्वरहस्यम् वर्धमानविद्यास्तवः गौतमाष्टकम् शतबलनृपस्य भावना पञ्चमहाव्रतभावनाः धर्मरत्न प्रकरणम् पश्चसूत्रम् अध्यात्मोपनिषत् गौतमस्वामिस्तवनम् प्रशमरतिप्रकरणम् हृदयप्रदीपषट्त्रिंशिका साधारण जिनस्तवनम् रत्नाकरपञ्चविंशतिका तत्त्वार्थसूत्रम् अध्यात्मकल्पद्रुमः ज्ञानसार-अष्टकम् उपदेशमाला जिनस्तवनम् सिरिवद्धमाणसामिथवो वीतरागस्तोत्रम् ७न १०२ १२० १४४ १६१ १९७ २०० २०१ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 m cc www . षट अशुद्धि-सम्मार्जनम् पृष्ठम् : पंक्तिः शुद्धिः अशुद्धिः १ २ विगणि' विजयगणि बपुर वपुरि सर्वभावा सर्वभावाः ३ १६ मूढस्वभावः मूढस्वभावाः षट् सुस्वाभासै सुखाभासै कचदहो कचिदहो °संवृति संवृति नि प्रणये निःप्रणये सुघारसं सुधारसं घियमाधाय धियमाधाय निरन्ध्या निरन्ध्याः सावु साधु सङ्गाण. सङ्ग्रहाण भणि 'मणि कि त्रैलोक्य त्रैलोक्यं काटत्रम् मूढैः, द्विरागाः 'लक्ष्मी 'लक्ष्मी भदधुः अधुः प्रीति - 6 6 .mmm namaw www.26 0 6 कटित्रम् मूढे, °द्विरागा प्रीति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पू. मुनिराजश्री अमीविजयजी महाराज Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " तदेवेद 'रत्नम् । यज्छतु महारत्रमिवानऱ्या मुषिताःस्म 'देयाभिः प्राप्रत° गादबह्म बुड्ढाणुगो उजइ तदेवेदं रत्नम् । यच्छतु महारत्नमिवानर्थ्य मुषितास्म 'दानेर्याभिः प्राग्रत' गाद्ब्रह्म वृड्ढाणुगो उज्जुम ४० घेत्तुं मज्झमा नियमा मज्झिमा 2006 - 022 - 1 or 2.22.9.2AX नियमा वेशा "दुल्लह मग्गj गुरुलाधव असमंजं विरुद्धपि °माव वेसा 'दुल्लहं मग्गाणु गुरुलाघव असमंजं विरुद्धंपि °भाव सुद्धा विघाइणी तहाढवा दरिदो सयल' विधाइणी तहा ढवइ दरिदो * सन्नुल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४८ २ ه ه ه م م ه م م م 'बंधमे "डिग्हाय 'भित्तजोगं समारंभ एकघम्म लोगचताए सवीओ सता ब्रयात्त अभिप्रेता तदुष्ट्यैव 'प्रायैर्गणे लाधवेन श्रोपद्म ममिः सुटु 'बंधमेभं °डिग्घाय 'मित्तजोगं समारंभ एअधम्म लोगचिंताए सबीओ सत्ता यात्त' अभिप्रेता तदृष्टयैव 'प्रायैर्गुणैः लाघवेन श्रीपद्म नमिः १६ ه ه ه م م م م م م م م م ه س م पूर्व पूर्व क्रोघो वर्णबन्धस्य मैयन नवकोटयु सुमहाध्यैरपि कुर्याद्वलेनापि कंथ मुङ्कते क्रोधो वर्णबन्धस्य "मैथुन नवकोट्यु सुमहाध्यैरपि कुर्यादबलेनापि कथं ه भुक्ते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ . मतिरिय रूपिद्व्यो स्यादी क्षयपति मतिरियं रूपिद्रव्यो म्यादी क्षपयति म्लेच्छे सद्वोधि लधु स्कन्धाश्च °दःखस्य दुःखस्य म्लेछै कल्पद्रम कल्पद्रुम सद्बोधि' लधु त्रायास्त्रिंश त्रायस्त्रिंश वह्नाय वहन्य स्कन्धाश्च 'द्वन्ध दबन्ध द्विचतुं द्विचतुं कामानि कामनि १० परभोगतिथि परिभोगातिथि मर्थः ह्यर्थः छलयन्ति न छलयन्ति १२ स्पश स्पश ११ म्यात्को स्यात्को १२ फलमश्रुते कलम नुते पतिर्दशमया पतिर्दुरामया १७. यदर्गतौ यदुर्गतौ 'छेल्ली घोरेरनायित्म् धैर्निश्चित नित्यम् घौरैरथुनिश्चित २२ गृहणत्सु गृहणत्यु ११३ १२१ १२४ १२६ १३० , Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ वद्धायु गृहणासि बद्धायु गहणासि कम १४१ दुर्वि १५३ १५६ १४७ १५१ १५६ १६७ १६८ १६० . mwwwsex 2050 कूम कि दुवि यौधः दृष्ठि अनन्यापक्ष तस्करै शौवभ्रमो दर्भाषित सावद्यः सभापत्तिः चिते विवजिता निष्ठङ्कितं चिंतिजभाण काणियरण्णा सब्भिसि (पट्टे) सरीरां निट्ठरभासा ३५४ अखुबद्धवासे पाडेअणं उहऽ वट्ठावय यौघः दृष्टि अनन्यापेक्ष तस्करैः शोचभ्रमो दुर्भाषित सावद्यः समापत्तिः चित्ते विवजिता निष्टङ्कितं चिंतिजमाण कोणियरण्णा लब्भिसि (व) सरीरं. निढरभासी ३६४ अणुबद्धवासे पाडेऊणं अट्ठऽट्ठ वट्टावय o Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धम् । महा महोपाध्याय श्रीविनयविगणिविरचितः श्रीशान्तसुधारसः । 00 ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) नीरन्ध्रे भवकाने परिगलत्पश्चाश्रवाम्भोधरे कर्मावितानगने मोहान्धकारोधुरे । भ्रान्तानामिह देहिनां हितकृते कारुण्यपुण्यात्मभिस्तीर्थेशैः प्रथितास्सुधार सकिरो रम्या गिरः पान्तु वः || १ || ( द्रुतविलंबितं वृत्तत्रयम् ) स्फुरति चेतसि भावनया विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमप्यमुना विना, जगति मोहविषादविषाकुले ||२|| यदि भवभ्रमखेदपराङ्मुखम्, यदि च चित्तमनन्तसुखोन्मुखम् । शृणुत तत्सुधियः शुभभावना-मृ (भृ?) तर सं मम शान्त सुधारसम् ॥३॥ सुमनसो मनसि श्रुतपावना, निदधतां द्वद्यधिका दशभावनाः । यदि रोहति मोहतिरोहिता - भुतगतिर्विदिता समताला ||४|| ( रथोद्धतावृत्तम् ) आर्तरौद्रपरिणाम पावक - प्लुष्टभावुकविवेक सौष्ठवे । मानसे विषयलोलुपात्मनाम्, क्व प्ररोहतितमां शमाङ्करः ||५|| (वसन्ततिलकावृत्तम्) यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेक - पीयूष वर्षरमणीयर ( त ? ) मं श्रयन्ते । सद्भावनासुरलता नहि तस्य दूरे, लोकोत्तर प्रशमसौख्य फलप्रसूतिः ६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अनुष्टुब् वृत्तम) अनित्यत्वाशरणते, भवमेकत्वमन्यताम् । अशौचमाश्रवं चात्मन्, संवरं परिभावय ॥७॥ कर्मणो निर्जरां धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् । बोधिदुर्लभतामेता, भावयन् मुच्यसे भवात् ॥८॥ (पुष्पिताग्रवृत्तम् ) बपुरिवपुरिदं विदम्भलीला-परिचितमप्यतिभङ्गुरं नराणाम् । तदतिभिदुरयौवनाविनीतम् , भवति कथं विदुषां महोदयाय ॥९॥ (शार्दूलविक्रीडितं वृत्तद्वयम् ) आयुर्वायुतरत्तरङ्गतरलम्, लग्नापद : सम्पद : सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाः, सन्ध्याभ्ररागादिवत् । मित्रस्त्रीस्वजनादिसङ्गमसुखम् , स्वप्नेन्द्रजालोपमं, तत्किं वस्तु भवे भवे-दिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥१०॥ प्रातमा॑तरिहावदातरुचयो ये चेतनाचेतना दृष्टा विश्वमनःप्रमोदविदुरा भावाः स्वतः सुन्दराः। तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसान हा नश्यतः पश्यत श्वेतः प्रेतहतं जहाति न भवप्रेमानुबन्धं मम ॥ ११ ॥ ॐ प्रथमभावनाष्टकम् । रामगिरिरागेण गीयते ॥ मूढ मुह्यसि मुधा मूढ मुह्यसि मूधा, विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम् । कुशशिरसि नीरमिव गलदनिलकम्पितम् , विनय जानीहि जीवितमसारम् , मू० ॥ १॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्य भङ्गुरमिदं विषयसुखसौहृदम् , पश्यतामेव नश्यति सहासम्। एतदनुहरति संसाररूपं रयाज्ज्वल-जलदबालिकारुचिविलासम्, मू॥२॥ हन्त इतयौवनं पुच्छमिव शौवनम् , कुटिलमति तदपि लघुदृष्टनष्टभ् तेन बत परवशाः परवशा हतधियः, कटुकमिह किं न कलयन्ति कष्टम् , मू० ॥ ३॥ यदपि पिण्याकतामङ्गमिदमुपगतम् , भुवनदुर्जयजरापीतसारम् । तदपि गतलजमुज्झति मनो नाङ्गिनाम् , वितथमति कुथितमन्म थविकारम् मू० ॥४॥ सुखमनुत्तर सुरावधि यदतिमेदुरम् , कालतस्तदपि कलयति विरामम् । कतरदितरत्तदा वस्तु सांसारिकम् , स्थिरतरं भवति चिन्तय निकामम् मू० ॥ ५॥ यैः समं क्रीहिता ये च भृशमीडिताः, यैः सहाकृष्महि प्रीतिवादम् । तान् जनान् वीक्ष्य बत भस्मभूयङ्गतानिर्विशङ्काः स्म इति धिक् प्रमादम् मू० ॥६॥ भसकृदुन्मिष्य निमिषन्ति सिन्धूर्मिवच्चेतनाचेतनाः सर्वभावा । इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसङ्गमास्तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावः, मूः ॥७॥ कवलयन्नविरतं जङ्गमाजङ्गमम् , जगदहो नैव तृप्यति कृतान्तः। मुखगतान् खादतस्तस्य करतलगतैने कथमुपलप्स्यतेऽस्माभिरन्तः, मू० ॥८॥ नित्यमेकं चिदानन्दमयमात्मनो, रूपमभिरूप्य सुखमनुभवेयम् । प्रशमरसनवसुधापानविनयोत्सवो, भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् , मू० ॥९॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये अनित्यभावनाविभावनो नाम प्रथमः प्रकाशः Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( शार्दूलविक्रीडितम् ) ये षट्खण्डमहीमही नतरसा निर्जित्य बभ्राजिरे, ये च स्वर्गभुजो भुजोर्जितमदा मेदुर्मुदा मेदुराः । तेऽपि क्रूरकृतान्तवक्त्ररदनैर्निर्दल्यमाना इठादत्राणाः शरणाय हा दशदिशः प्रैक्षन्त दीनाननाः ॥ १ ॥ ( स्वागतावृत्तम् ) तावदेव मदविभ्रममाली, तावदेव गुणगौरवशाली । यावदक्षमकृतान्त कटाक्षै-नैक्षितो विशरणो नरकीटः ॥ २ ॥ ( शिखरिणीवृत्तम् ) प्रताप व्र्व्यापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमथ पुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्द्रव्यग्रहणविषये बान्धवजनैजने कीनाशेन प्रसभमुपनीते निजवशम् ॥ ३॥ 5 द्वितीयभावनाष्टकम् । मारुणीरागेण गीयते 5 स्वजनजनो बहुधा हितकामम्, प्रीतिरसैरभिरामम् । मरणदशावशमुपगतवन्तम्, रक्षति कोऽपि न सन्तम् ॥ १ ॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मः शरणम् । i ' अनुसन्धीयतां रे शुचितरचरणस्मरणम् विन० ॥ २ ॥ ध्रुवपदम् ॥ तुरगरथेभनरावृतिकलितम् दधतं बलमस्खलितम्, " हरति यमो नरपतिमपि दीनम्, मैनिक इव लघुमीनम् विन० ॥३॥ , प्रविशति वज्रमये यदि सदने, तृणमथ घटयति वदने । तदपि न मुञ्चति इतसमवर्ती, निर्दयपौरूषनर्ती, विन० ॥ ४ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन० ॥५॥ , विद्यामन्त्रमहौषधिसेवाम्, सृजतु वशीकृतदेवाम् । रसतु रसायनमुपचयकरणम्, तदपि न मुञ्चति मरणम्, वपुषि चिरं निरुणद्धि समीरम् पतति जलधिपरतीरम् । शिरसि गिरेरधिरोहति तरसा, तदपि स जीर्यति जरसा, विन० ॥६॥ सृजतीमसितशिरोरुहललितम्, मनुजशिरः सितपलितम् । को विदधानां भूषनमरसम् प्रभवति रोद्धुं जरसम्, विन० ॥७॥ उ (तु?)द्यत उग्ररुजा जनकायः कः स्यात्तत्र सहायः । एकोऽनुभवति विधुरुपरागम्, विभजति कोऽपि न भागम्, विन० ॥८॥ शरणमेकमनुसर चतुरङ्गम्, परिहर ममतासङ्गम् । विनय रचय शिव सौख्यनिधानम्, शान्त सुघार सपानम्, विन० ॥९॥ इति श्रीशान्त सुधारसगे यकाव्ये अशरणभावनाविभावनो नाम द्वितीयः प्रकाशः ( शिखरिणीवृत्तत्रयम् ) इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरन्तो दव इवो - ल्लसँल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम् । इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने ॥ १ ॥ गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका मनोवाक्काये हा विकृतिरतिरोषात्तरजसः । विपद्गर्तावर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं न जन्तोः संसारे भवति कथमप्यर्तिविरतिः ॥ २॥ सहित्वा सन्तापान शुचिजननी कुक्षिकुहरे ततो जन्म प्राप्य प्रचुरतरकष्टक्रमहत: । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्वाभासैर्यावत्स्पृशति कथमप्यर्तिविरतिं जरा तावत्कायं कवलयति मृत्योः सहचरी ।। ३ ॥ ( उपजातिवृत्तम ) विभ्रान्तचित्तो बत बम्भ्रमीति, पक्षीव रुद्धस्तनुपञ्जरेऽङ्गी नुन्नो मियत्याऽतनुकर्मतन्तु-सन्दानित : सन्निहितान्तकौतु : ॥ ( अनुष्टुव्वृत्तम् ) अनन्तान्पुद्गलावर्ताननन्तानन्तरूपभृत् । अनन्तशो भ्रमत्येव जीवोऽनादिभवार्णवे ॥ ५ ॥ म तृतीयभावनाष्टकम् । केदाररागण गीयते ॥ कलय संसारमतिदारुणम् , जन्ममरणादिभयभीत रे । मोहरिपुणेह सगलग्रहम् , प्रतिपदं विपदमुपनीत रे, कल० ॥ १ ॥ स्वजनतनयादिपरिचयगुणै-रिह मुधा बध्यसे मूढ रे । प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः, परिभवैरसकृदुपगूढ रे, कल० ॥२॥ घटयसि कचन मदमुन्नतेः, कचदहो हीनतादीन रे । प्रतिभवं रूपमपरापरम् , वहसि बत कर्मणाधीन रे, कल० ॥ ३ ॥ जातु शैशवदशापरवशो, जातु तारुण्यमदमत्त रे । जातु दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकरायत्त रे, कल ॥४॥ व्रजति तनयोऽपि ननु जनकताम् , तनयतां व्रजति पुनरेष रे । भावयन्विकृतिमिति भवगते-सत्यजतमां नृभवशुभशेष रे, कल० ॥५॥ यत्र दुःखार्तिगददवलवै-रनुदिनं दह्यसे जीव रे । हन्त तत्रैव रज्यसि चिरम् , मोहमदिरामदक्षीब रे, कल० ॥ ६ ॥ दर्शयन् किमपि सुखवैभवम् , संहरंस्तदथ सहसैव रे । विप्रलम्भयति शिशुमिव जनम् , कालबटुकोऽयमत्रैव रे, कल०॥७॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलसंसारभयभेदकम् , जिनवचो मनसि निबधान रे । विनय परिणमय निःश्रेयसम् , विहितशमरससुधापान रे, कल० ॥८॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये संसारभावनाविभावनो नाम तृतीय : प्रकाशः (खागतावृत्तम् ) एक एव भगवानयमात्मा, ज्ञानदर्शनतरङ्गसरङ्गः । सर्वमन्यदुपकल्पितमेतद्, व्याकुलीकरणमेव ममत्वम् ॥ १॥ (प्रबोधतावृत्तत्रयम् ) अबुधैःपरभावलालसा-लसदज्ञानदशावशात्मभिः । परवस्तुषु हा स्वकीयता, विषयावेशवशाद् विकल्प्यते ॥२॥ कृतिनां दयितेति चिन्तनम् , परदारेषु यथा विपत्तये । विविधातिभयावहं तथा, परभावेषु ममत्वभावनम् ॥ ३ ॥ अधुना परभावसंवृति हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् । क्षणमात्मविचारचन्दन-द्रुमवातोर्मिरसाः स्पृशन्तु माम् ॥ ४ ॥ ( अनुष्टुप् वृत्तम् ) एकतां समतोपेता-मेनामात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द-सम्पदं नमिराजवत् ॥ ५ ॥ ॐ चतुर्थभावनाष्टकम् । परजीयारागेण गीयते ॥ विनय चिन्तय वस्तुतत्त्वम् , जगति निजमिह कस्य किम् । भवति मतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति तस्य किम् , विन० ॥१॥ एक उत्पद्यते तनुमा-नेक एक विपद्यते । एक एच हि कर्म चिनुते, सैककः फलमश्नुते, विन० ॥२॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य यावान् परपरिग्रहः, विविधममतावीवधः ।। जलधिविनिहितपोतयुक्था, पतति तावदसावधः, विन० ॥ ३।। स्वस्वभावं मद्यमुदितो, भुवि विलुप्य विचेष्टते । दृश्यतां परभावघटनात् , पतति विलुठति जृम्भते, विन० ॥४॥ पश्य काश्चनमितरपुद्गल-मिलितमश्चति कां दशाम् । केवलस्य तु तस्य रूपम् , विदितमेव भवादृशाम् , विन० ॥ ५ ॥ एवमात्मनि कर्मवशतो, भवति रूपमनेकधा । कर्ममलरहिते तु भगवति, भासते काञ्चनविधा विन० ॥ ६ ॥ ज्ञानदर्शनचरणपर्य-वपरिवृतः परमेश्वरः । एक एवानुभवसदने, स रमतामविनश्वरः, विन० ॥ ७ ॥ रुचिरसमतामृतरसं क्षण-मुदितमास्वादय मुदा । विनय विषयातीतसुखरस-रतिरुदश्चतु ते सदा, विन० ॥ ८॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये एकत्वभावनाविभावनो नाम चतुर्थः प्रकाश ( उपजातिवृत्तम् ) परः प्रविष्टः कुरुते विनाशम्, लोकोक्तिरेषा, न मृषेति मन्ये निर्विश्य कर्माणुभिरस्य,-किं किम् , ज्ञानात्मनो नो समपादि कष्टम् १ ( स्वागतावृत्तम् ) खिद्यसे ननु किमन्यकथातः, सर्वदैव ममतापरतन्त्रः । चिन्तयस्यनुपमान्कथामात्मन्नात्मनो गुणमणीन्न कदापि ॥ २ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तद्वयम् ) यस्मै त्वं यतसे बिभेषि च यतो यत्रानिशं मोदसे यद्यच्छोचसि यद्यदिच्छसि हृदा यत्प्राप्य पेप्रीयसे । स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं नि ठ्य लालप्यसे तत्सर्वे परकीयमेव भगवन्नात्मन्न किश्चित्तव ॥ ३ ॥ दुष्टाः कष्टकदर्थनाः कति न ताः सोढास्त्वया संसतौ तिर्यङ्नारकयोनिषु प्रतिहतश्छिन्नो विभिन्नो मुहुः । सर्व तत्परकीयदुर्विलसितं विस्मृत्य तेष्वेव हा रज्यन्मुद्यसि मूढतानुपचरन्नात्मन किं लञ्जसे ॥ ४ ॥ ( अनुष्टुब वृत्तम् ) ज्ञानदर्शनचारित्रकेतनां चेतनां विना ।। सर्वमन्यद्विनिश्चित्य यतस्व स्वहिताप्तये ॥ ५ ॥ ॐ पञ्चमभावनाष्टकम् । श्रीरागेण गीयते ॥ विनय निभालय निजभवनम् , तनुधनसुतसदनस्वजनादिषु, किं निजमिह कुगतेरवनम् , विन० ॥१॥ येन सहाश्रयसेऽतिविमोहा-दिदमहमित्यविभेदम् । तदपि शरीरं नियतमधीरम् , त्यजति भवन्तं धृतखेदम् , विन० ॥२॥ जन्मनि जन्मनि विविधपरिग्रह-मुपचिनुषे च कुटुम्बम् । तेषु भवन्तं परभवगमने, नानुसरति कृशमपि शुम्बम् , विन० ॥३॥ त्त्यज ममतापरितापनिदानम् , परपरिचयपरिणामम् । भज निःसङ्गतया विशदीकृत-मनुभवसुखरसमभिरामम् , विन० ॥४॥ पथि पथि विविधपथैः पथिकैः सह. कुरुते कः प्रतिबन्धम् । निजनिजकर्मवशैः स्वजनैः सह किं कुरुषे ममताबन्धम् , विन० ॥५॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणयविहीने दधदभिषङ्गम् , सहते बहुसन्तापम् । त्वयि नि प्रणये पुद्गलनिचये,वहसि मुधाममतातापम् , विन० ॥६॥ त्यज संयोगं नियतवियोगम् , कुरु निर्मलमवधानम् । नहि विदधानः कथमपि तृप्यसि, मृगतृष्णाघनरसपानम् , विन० ॥७॥ भज जिनपतिमसहायसहायम् , शिवगतिसुगमोपायम् ।। पिब गदशमनं परिहृतवमनम् , शान्तसुधारसमनपायम् , विन० ॥८॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये अन्यत्वभावनाविभावनो नाम पञ्चमः प्रकाशः ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) सच्छिद्रो मदिराघटः परिगलत्तल्लेशसभाशुचिः शुच्यामृद्य मृदा बहिः स बहुशो धौतोऽपि गङ्गोदकैः । नाधत्ते शुचितां यथा तनुभृतां कायो निकायो महाबीभत्सास्थिपुरीषमूत्ररजसा नायं तथा शुद्धयति ॥ ९ ॥ (मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) स्नायं स्नायं पुनरपि पुनः स्नान्ति शुद्धाभिरद्भिरिं वारं बत समलतनुं चन्दनैरर्चयन्ते । मूढात्मानो वयमपमला प्रीतिमित्याश्रयन्ते नो शु(बुद्धध?)ध्यन्ते कथमवकरः शक्यते शोधुमेवम् ॥२॥ ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) कपूरादिभिरर्चितोऽपि लशुनो नो गाहते सौरभं, नाजन्मोपकृतोऽपि हन्त पिशुनः सौजन्यमालम्बते । देहोऽप्येष तथा जहाति न नृणां स्वाभाविकी विस्रतां, नाभ्यक्तोऽपि विभूषितोऽपि बहुवा पुष्टोऽपि विश्वस्यते ॥३॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ) यदीयसंसर्गमबाप्य सद्यो भवेच्छुचीनामशुचित्वमुच्चैः । अमेध्ययोनेर्वपुषोऽस्य शौचसङ्कल्पमोहोऽयमहो महीयान ॥४॥ (स्वागतावृत्तम् ) इत्यवेत्य शुचिवादमतथ्यम् , पथ्यमेव जगदेकपवित्रम् । शोधनं सकलदोषमलानाम् , धर्ममेव हृदये निदधीथाः ।।५।। ॐ षष्ठभावनाष्टकम् । आसावरीरागेण गीयते ॥ भावय रे वपुरिदमतिमलिनम् , विनय विबोधय मानसनलिनम् , पावनमनुचिन्तय विभुमेकम् , परममहोदयमुदितविवेकम् . भाव०॥१॥ दम्पतिरेतोरुधिरविवर्ते, किं शुभमिह मलकश्मलगर्ने । भृशमपि पिहितः सवति विरूपम् , को बहु मनुतेऽवस्करकूपम, भाव०॥२।। भजति सचन्द्रं शुचिताम्बूलम् , कर्तु मुखमारुतमनुकूलम् । तिष्ठति सुरभि कियन्तं कालम् , मुखमसुगन्धि जुगुप्सितलालम् भाव०॥३।। असुरभिगन्धवहोऽन्तरचा(वा?)री, आवरितुं शक्यो न विकारी। वपुरुपजिघ्रसि वारंवारम् , हसति बुधस्तव शौचाचारम् , भाव० ॥४॥ द्वादश नव रन्ध्राणि निकामम् , गलदशुचीनि न यान्ति विरामम् । यत्र वपुषि तत्कलयसि पूतम् , मन्ये नव नूतनमाकूतम् , भाव० ॥५।। अशितमुपस्करसंस्कृतमन्नम् , जगति जुगुप्सां जनयति हन्नम् । पुंसवनं धैनवमपि लीढम् , भवति विगर्हितमऽति जनमीढम् ,भाव०॥६॥ केवलमलमयपुन्दलनिचये अशुचीकृतशुचिभोजनसिचये । वपुषि विचिन्तय परमिह सारम् , शिवसाधनसामर्थ्यमुदारम् ,भाव०॥७॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येन विराजितमिदमतिपुण्यम् , तच्चिन्तय चेतननैपुण्यम् । विशदागममधिगम्य निपानम् , विरचय शान्तसुघारसपानम् , भाव०॥८॥ इति श्रीशान्तसुघारसगेयकाव्ये अशौचभावनाविभावनो नाम षष्ठः प्रकाशः ( भुजङ्गप्रयातं वृत्तम् ) यथा सर्वतो निर्झरैरापतद्भिः, प्रपूर्येत सद्यः पयोभिस्तटाकः । तथैवाश्रवैः कर्मभिः सम्भृतोऽङ्गी, भवेद्व्याकुलश्चश्चलः पङ्किलश्च ।।१।। ... ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) यावत्किञ्चिदिवानुभूय तरसा कर्मेह निर्जीयते तावच्चाश्रवशत्रवोऽनुसमयं सिञ्चन्ति भूयोऽपि तत् । हा कष्टं कथमाश्रवप्रतिभटाः शक्या निरोधं मया संसारादतिभीषणान्मम हहा मुक्तिः कथं भाविनी ॥२॥ (प्रहर्षणीवृत्तम् ) मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगसंज्ञाश्चत्वार. सुकृतिभिराश्रवाः प्रदिष्टाः । कर्माणि प्रतिसमयं स्फुटैरमीभिर्बध्नन्तो भ्रमवशतो भ्रमन्ति जीवाः ३ ( रथोद्धतावृत्तम् ) इन्द्रियावतकषाययोगजाः, पञ्च पञ्च चतुरन्वितात्रयः । पञ्चविंशतिरसत्क्रिया इति, नेत्रवेदपरिसङ्ख्ययाऽप्यमी ॥ ४ ॥ (इन्द्रवज्रावृत्तम् ) इत्याश्रवाणामधिगम्य तत्त्वम् , निश्चित्य सत्त्वं श्रुतिसन्निधानात् । एषां निरोधे विगलद्विरोधे सर्वात्मना द्राग यतितव्यमात्मन् ॥५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सप्तमभावनाष्टकम्। धनाश्रीरागेण गीयते ॥ परिहरणीया रे, सुकृतिभिराश्रवा, हृदि समतामवधाय । प्रभवन्त्येते रे, भृशमुच्छृङ्खला, विभुगुणविभववधाय, परि० ॥१॥ कुगुरुनियुक्ता रे, कुमतिपरिप्लुताः, शिवपुरपथमपहाय । प्रयतन्तेऽमी रे, क्रियया दुष्टया, प्रत्युत शिवविरहाय, परि० ॥२॥ अविरतचित्ता रे, विषयवशीकृता, विषहन्ते विततानि । इह परलोके रे, कर्मविपाकजा-न्यविरलदुःखशतानि, परि० ॥३॥ करिझषमधुपा रे, शलभमृगादयो, विषयविनोदरसेन । हन्त लभन्ते रे, विविधा वेदना, बत परिणतिविरसेन, परि० ॥४॥ उदितकषाया रे, विषयवशीकृता, यान्ति महानरकेषु । परिवर्तन्ते रे, नियतमनन्तशो, जन्मजरामरणेषु, परि० ॥५॥ मनसा वाचा रे, वपुषा चञ्चला, दुर्जयदुरितभरेण । उपलिप्यन्ते रे, तत आश्रवजये, यततां कृतमपरेण, परि० ॥६॥ शुद्धा योगा रे, यदपि यतात्मनाम् , स्रवन्ते शुभकर्माणि । काञ्चननिगहां-स्तान्यपि जानीयात् , हतनिर्वृतिशर्माणि, परि० ॥७॥ मोदस्वैवं रे, साश्रवपाप्मनाम् , रोधे घियमाधाय । शान्तसुधारस-पानमनारतम् , विनय विधाय विघाय, परि० ॥८॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये आश्रवभावनाविभावनो नाम सप्तम : प्रकाश: ( स्वागतावृत्तद्वयम् ) येन येन य इहाश्रवरोधः, सम्भवेनियतमौपयिकेन । आद्रियस्व विनयोद्यतचेतास्तत्तदान्तरदृशा परिभाव्य ॥ १ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ संयमेन विषयाविरतत्वे, दर्शनेन वितथाभिनिवेशम् । ध्यानमार्तमथ रौद्रमजस्रम्, चेतसः स्थिरतया च निरुन्ध्याः ||२|| ( शालिनीवृत्तम् ) क्रोधं क्षान्त्या मार्दवेनाभिमानम्, हन्या मायामार्जवेनोळवलेन । लोभं वारांराशिरौद्रं निरुन्ध्या सन्तोषेण प्रांशुना सेतुनेव ||३|| 9 ( स्वागतावृत्तम् ) गुप्तिभिस्तिसृभिरेवमजय्यान्, जीन् विजित्य तरसाधमयोगान् 1 साधुसंवरपथे प्रयतेथा, लप्स्यसे हितमनीहितमिद्धम् ॥ ४ ॥ ( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) एवं रुद्धेष्वमलहृदयैराश्रवेष्वाप्तवाक्यश्रद्धाचचत्सितपटपटुः सुप्रतिष्ठानशाली । शुभ्धैर्योगे जेवनपवनैः प्रेरितो जीवपोतः स्रोतस्तीर्त्वा भवजलनिधेर्याति निर्वाणपुर्याम् ॥ ५॥ 5 अष्टमभावनाष्टकम् । नटरागेण गीयते 5 शृणु शिवसुखसाधन सदुपायम्, सदुपायं रे सदु० शृणु शिवसुखसाधन सदुपायम् । ज्ञानादिकपावनरत्नत्रय - परमाराधनमनपायम् शृणु ॥ १ ॥ विषयविकारमपाकुरु दूरम्, क्रोधं मानं सह मायम् । , लोभरिपुं च विजित्य सहेलम् भज संयमगुणमकषायम् शृणु०॥२॥ उपशमरसमनुशीलय मनसा, रोषदहनजलदप्रायम् । कलय विरागं धृतपरभागम्, हृदि विनयं नायं नायम् शृणु० ||३|| , Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत रौद्रं ध्यानं मार्जय, दह विकल्परचनाऽनायम् । यदियमरुद्धा मानसवीथी, तत्त्वविदः पन्था नाऽयम् , शृणु० ॥४॥ संयमयोगैरवहितमानस-शुद्ध्या चरितार्थय कायम् । नानामतरुचिगहने भुवने, निश्चिनु शुद्धपथं नायम् , शृणु० ॥५॥ ब्रह्मवतमङ्गीकुरु विमलम् , बिभ्राणं गुणसमवायम् । उदितं गुरुवदनादुपदेशम् , सङ्गहाण शुचिमिव रायम् , शृणु० ॥६॥ संयमवाङ्मयकुसुमरसैरति-सुरभय निजमध्यवसायम् । चेतनमुपलक्षय कृतलक्षण-झानचरणगुणपोयम् शृणु० ॥७॥ वदनमलङ्करु पावनरसनम् , जिनचरितं गावं गायम् । सविनय शान्तिसुधारसमेनम् , चिरं नन्द पायं पायम् , शृणु० ॥८॥ इती श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये संवरमावनाविभावनो नाम अष्टमः प्रकाशः ( इन्द्रवज्रावृत्तम् ) यन्निर्जरा द्वादशधा निरुक्ता, तद् द्वादशानां तपसां विभेदात् । हेतुप्रभेदादिह कार्यभेदः, स्वातन्त्र्यतस्त्वेकविधैव सा स्यात् ॥१॥ ( अनुष्टुवृत्तद्वयम् ) काष्ठोपलादिरूपाणां निदानानां विभेदतः । वह्निर्यथैकरूपोऽपि, पृथग्रूपो विवक्ष्यते ॥ ५ ॥ निर्जरापि द्वादशधा, तपोभेदैस्तथोदिता । कर्मनिर्जरणात्मा तु, सैकरूपैव वस्तुतः ॥ ३ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उपेन्द्रवत्रावृत्तम् ) निकाचितानामपि कर्मणां यद्, गरीयसां भूधरदुर्धराणाम् । विभेदने वचमिवातितीव्रम् , नमोऽस्तु तस्मै तपसेऽद्भताय ॥ ४ ॥ ( उपजातिवृत्तम् ) किमुच्यते सत्तपसः प्रभावः, कठोरकर्मार्जितकिल्बिषोऽपि । दृढप्रहारीव निहत्य पापम् , यतोऽपवर्ग लभतेऽचिरेण ॥ ५ ॥ यथासुवर्णस्य शुचिस्वरूपम् , दीप्तः कृशानुः प्रकटीकरोति । तथात्मनः कर्मरजो निहत्य, ज्योतिस्तपस्तद्विशदीकरोति ॥ ६ ॥ ( स्रग्धरावृत्तम् ) वाह्येनाभ्यन्तरेण प्रथितबहुभिदा जीयते येन शत्रुश्रेणी बाह्यान्तरङ्गा भरतनृपतिवद्भावलब्धद्रढिना । यस्मात्प्रादुर्भवेयुः प्रकटितविभवा लब्धयः सिद्धयश्च वन्दे स्वर्गापवर्गार्पणपटुसततं तत्तपो विश्ववन्द्यम् ।। ७ ॥ ॐ अथ नवमभावनाष्टकम् । सारंगरागेण गीयते ॥ विभावय विनय तपोमहिमानम् , (ध्रुवपदम् ,) बहुभवसञ्चितदुष्कृतममुना, लभते लघु लघिमानम् , विभा० ॥१॥ याति घनाऽपि घनाघनपटली. खरपवनेन विरामम् । भजति तथा तपसा दुरिताली, क्षणभङ्गुरपरिणामम् , विभा० ॥२॥ वाञ्छितमाकर्षति दूरादपि रिपुमपि ब्रजति वयस्यम् । तप इदमाश्रय निर्मलभावादागमपरमरहस्यम् विभा० ॥ ३ ॥ अनशनमूनोदरतां वृत्ति ह्रासं रसपरिहारम् । भज सांलीन्यं कायक्लेशम् , तप इति बाह्यमुदारम् , विभा० ॥४॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तं वैथावृत्त्यम , स्वाध्यायं विनयं च । कायोत्सर्ग शुभध्यानम् , आभ्यन्तरमिदमं च, विभा० ॥ ५ ॥ शमर्यात तापं गमयति पापम् , रमयति मानसहंसम् ।। हरति विमोहं दूरारोहम् , तप इति विगताशंसम् , विभा०॥ ६ ॥ संथमकमलाकार्मणमुज्ज्वल-शिवसुखसत्यङ्कारम् । चिन्तितचिन्तामणि-माराधय तप इह वारंवारम् विभा० ॥ ७ ॥ कर्मगदौषधमिदमिदमस्य च, जिनपतिमतमनुपानम् । विनय समाचर सौख्यनिधानम् , शान्तसुधारसपानम् , विभा० ॥८॥ __ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये निर्जराभावनाविभावनो नाम नवमः प्रकाशः ( उपजातिवृत्तम् ) दानं च शीलं च तपश्च भावो, धर्मश्चतुर्धा जिनबान्धवेन । निरूपितो यो जगतां हिताय, स मानसे मे रमतामजस्रम् ॥१॥ ( इन्द्रवज्रावृत्तत्रयम् ) सत्यक्षमामार्दवशौचसङ्गत्यागाऽऽर्जवब्रह्मविमुक्तियुक्तः । पः संथमः कि च तपोऽवगूढश्चारित्रधर्मो दशधाऽयमुक्तः ॥२॥ यस्य प्रभावादिह पुष्पदन्तौ, विश्वोपकाराय सदोदयेते । ग्रीष्मोष्मभीष्मामुदितस्तडित्वान् , काले समाश्वासयति क्षितिं च ॥३॥ उल्लोलकल्लोलकलाविलासैन प्लावयत्यम्बुनिधिः क्षितिं यत् । न घ्नन्ति यव्याघ्रमरुद्दवाद्या, धर्मस्य सर्वोऽप्यनुभाव एषः ॥४॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) यस्मिन्नैव पिता हिताय यतते, भ्राता च माता सुतः सैन्यं दैन्यमुपैति चापचपलम् , यत्राऽफलं दोर्बलम । तस्मिन् कष्टदशाविपाकसमये, धर्मस्तु संवर्मितः सज्जः सज्जन एष सर्वजगत-स्त्राणाय बद्धोद्यमः ॥ ५ ॥ त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्थ प्रसादा(भावा?)दिदम , योऽत्राऽमुत्र हितावहस्तनुभृतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः । येनानर्थकदर्थना निजमहःसामर्थ्यतो व्यथिता तस्मै कारुणिकाय धर्मविभवे, भक्तिप्रणामोऽस्तु मे ॥ ६ ।। ( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) प्राज्यं राज्यं सभगदयिता, नन्दना नन्दनानाम , रम्यं रूपं सरसकविता-चातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः, सजनत्वं सुबुद्धिम् किं नु ब्रूमः फलपरिणतिम , धर्मकल्पद्रुमस्य ॥ ७ ॥ ॥ अथ दशमभावनाष्टकम् । वसन्तरागेण गीयते ॥ पालय पालय रे पालय मां जिनधर्म । मङ्गलकमलाकेलिनिकेतन, करुणाकेतन धीर । शिवसुखसाधन भवभयबाधन, जगदाधार गम्भीर, पाल० ॥१॥ सिञ्चति पयसा जलधरपटली, भूतलममृतमयेन । सूर्याचन्द्रमसावुदयेते, तव महिमातिशयेन, पाल० ॥२॥ निरालम्बमियमसदाधारा, तिष्ठति वसुधा येन । तं विश्वस्थितिमूलस्तम्भम् , त्वां सेवे विनयेन, पाल० ॥३॥ दानशीलशुभभावतपोमुख-चरितार्थीकृतलोक । शरणस्मरणकृतामिह भविनाम् , दूरीकृतभयशोक, पाल० ॥४॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमासत्सन्तोषदयादिक-सुभगसकलपरिवार । देवासुरनरपूजितशासन-कृतबहुभवपरिहार पाल० ॥ ५ ॥ बन्धुमबन्धुजनस्य दिवानिश-मसहायस्य सहाय । भ्राम्यति भीमे भवगहनेऽङ्गी, त्वां बान्धवमपहाय पाल० ॥ ६ ॥ द्रगति गहनं जलति कृशानुः, स्थलति जलधिरचिरेण । तव कृपयाखिलकामितसिद्धिर्बहुना किं नु परेण, पाल० ॥ ७ ॥ इइ यच्छसि सुखमुदितदशाङ्गन् प्रेत्येन्द्रादिपदानि । क्रमतो ज्ञानादीनि च वितरसि, निःश्रेयससुखदानि पाल० ॥ ८ ॥ सर्वतन्त्रनवनीत सनातन, सिद्धिसदनसोपान । जय जय विनयवतां प्रतिलम्भित-शान्तसुधारसपान पाल• ॥९॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये धर्मभावनाविभावनो नाम दशम : प्रकाश : ( शालिनी वृत्तम् ) सप्तधोऽधो विस्तृता याः पृथिव्यश्छत्राकाराः सन्ति रत्नप्रभाद्याः । ताभिः पूर्णो योऽस्त्यधोलोक एतौ, पादौ यस्य व्यायतौ सप्तरज्जू ॥१॥ तिमग्लोको विस्तृतो रजुमेकाम् , पूर्णो द्वीपैरर्णवान्तैरसङ्घयैः । यस्य ज्योतिश्चक्रकाश्चीकलापम् मध्ये काश्य श्रीविचित्रं काटत्रम् ॥२॥ लोकोऽथोर्चे ब्रह्मलोके द्युलोके यस्य व्याप्तौ कूपरौ पञ्चरज्ज । लोकस्याऽन्तो विस्तृतो रज्जुमेकाम् , सिद्धज्योतिश्चित्रको यस्य मौलिः ३ यो वैशाखस्थानकस्थायिपादः श्रोणीदेशे न्यस्तहस्तद्वयश्च । कालेऽनादौ शश्वदूर्ध्वदमत्वाद्, बिभ्राणोऽपि श्रान्तमुद्रामखिन्नः ॥४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऽयं ज्ञेयः पूरुषो लोकनामा षड्व्यात्माऽकृत्रिमोऽनाद्यनन्तः । धर्माधर्माकाशकालात्मसंज्ञैर्द्रव्यैः, पूर्णः सर्वतः पुद्गलैश्च ॥ ५ ॥ रङ्गस्थानं पुद्गलानां नटानाम् , नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च । कालोद्योगस्वस्वभावादिभावैः, कर्मातेाद्यैर्नतितानां नियत्या ॥ ६ ॥ एवं लोको भाव्यमानो विविक्त्या, विज्ञानां स्यान् मानसस्थैर्यहेतुः। स्थैर्य प्राप्ते मानसे चात्मनीना, सुप्राप्यैवाध्यात्मसौख्यप्रसूतिः ।।७।। 卐 एकादशभावनाष्टकम् । काफीरागेण गीयते ॥ विनय विभावय शाश्वतम् , हृदि लोकाकाशम् । सकलचराचरधारणे, परिणमदवकाशम् , विन० ॥ १ ॥ लसदलोकपरिवेष्टितम् , गणनातिगमानम् । पञ्चभिरपि धर्मादिभिः, सुघटितसीमानम् , विन० ।। २ ।। समवघातसमये जिनैः, परिपूरितदेहम् । असुमदणुकविविधक्रिया-गुणगौरवगेहम् , विन० ॥ ३ ॥ एकरुपमपि पुद्गलैः कृतविविधविवर्तम् । काञ्चनशैलशिखरोन्नतम् , कचिदवनतगर्तम् , विन० ॥ ४ ।। कचन तविषमणिमन्दिरै-रुदितोदितरूपम् । घोरतिमिरनरकादिभिः कचनातिविरूपम् , विन० ॥ ५ ॥ कचिदुत्सवमयमुज्वलम् , जयमङ्गलनादम् । कचिदमन्दहाहारवम् , पृथुशोकविषादम् , विन० ॥ ६ ॥ बहुपरिचितमनन्तशो, निखिलैरपि सत्त्वैः । जन्ममरणपरिवर्तिभिः, कृतमुक्तममत्वैः विन० ॥ ७ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह पर्यटनपराङ्मुखाः, प्रणमत भगवन्तम् । शान्तसुधारसपानतो, धृतविनयमवन्तम् , विन० ॥ ८ ॥ इति श्री शान्तसुधारसगेयकाव्ये लोकस्वरूपभावनाविभावनो नाम एकादश प्रकाशः ( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) यस्माद्विस्मापयितसुमन : स्वर्गसम्पद्विलासाः प्राप्तोल्लासाः पुनरपि जनिः सत्कुले भूरिभागे । ब्रह्माद्वैतप्रगुणपदवीप्रापकं निःसपत्नम् , तदुष्प्रापं भृशमुरुधियः सेव्यतां बोधिरत्नम् ॥ १ ॥ ( भुजङ्गप्रयातवृत्तत्रयम् ) · भनादौ निगोदान्धकूपे स्थिताना-मजस्र जनुसृत्युदुःखार्दितानाम् । परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्याद्, यया हन्त तस्माद्विनिर्यान्ति जीवाः ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वम् , त्रसत्वं पुनदुर्लभं देहभाजाम् । वसत्वेऽपि पश्चाक्षपर्याप्तसंज्ञि-स्थिरायुष्यवहुर्लभं मानुषत्वम ॥३॥ तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः । भ्रमन दूरमग्नो भवागाधगर्ते, पुनः क्व प्रपद्येत तद्बोधिरत्नम् ॥४॥ ( शिखरिणीवृत्तम् ) विभिन्नाः पन्थानः , प्रतिपदमनल्पाश्च मतिनः कुयुक्तिव्यासङ्गैनिजनिजमतोल्लासरसिकाः । न देवाः सानिध्यं विदधति, न वा कोऽप्यतिशयस्तदेवं कालेऽस्मिन् , य इह दृढधर्मा स सुकृती ।।५।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ( शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) यावद्देहमिदं गदैर्न मृदितम्, नो वा जराजर्जरम् यावत्त्वक्षकदम्बकं स्वविषयज्ञानावगाहक्षमम् । यावच्चायुरभङ्गुरं निजहिते तावद्बुधैर्यत्यताम् । कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते, पालिः कथं बध्यते || ६ || ( अनुष्टुब्वृत्तम् ) विविधोपद्रवं देह-मायुश्च क्षणभङ्गरम् । कामालम्ब्य धृतिं मूढै, स्वश्रेयसि विलम्ब्यते ||७|| 5 अथ द्वादशभावनाष्टकम् | धनश्रीरागेण गीयते 5 बुध्यतां बुध्यतां बोधिरतिदुर्लभा, जलधिजलपतित सुररत्नयुक्त्या । सम्यगाराध्यतां स्वहितमिह साध्यताम्, बाध्यतामधरगतिरात्मशक्त्या. बुध्य० ||१|| चक्रभोज्यादिवि नरभवो दुर्लभो, भ्राम्यतां घोरसंसारकक्षे | बहुनिगोदादिकायस्थितिव्यायते, मोह मिध्यात्व मुख चोरलक्षे, बुध्य० ॥२॥ । लब्ध इह नरभवोऽनार्यदेशेषु यः स भवति प्रत्युतानर्थकारी । जीवहिंसादिपापाश्रवव्यसनिनाम् माघवत्यादिमार्गानुसारी, बुध्यः ||३|| " आर्यदेशस्पृशामपि सुकुलजन्मनाम्, दुर्लभा विविदिषा धर्मतत्त्वे । रतपरिग्रहभवाद्दार संज्ञार्तिभिईन्त ! मन जगह ः स्थितत्वे, बुध्य० ||४|| विविदिषायामपि श्रवणमतिदुर्लभम् धर्मशास्त्रस्य गुरुसन्निधाने । वितथविकथादितत्तद्रसावेशतो, विविधविक्षेपमलिनेऽवधाने, बुध्य० ||५|| 3 धर्ममाकर्ण्य सम्बुध्य तत्राद्यमम् कुर्वतो वैरिवर्गोऽन्तरङ्गः । रागद्वेषश्रमालस्यनिद्रादिको, बाघते निहतसुकृतप्रसङ्गः बुध्य० ||६|| Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतावहो योनिलक्षेष्वियम् , क त्वयाकर्णिता धर्मवार्ता ॥ प्रायशो जगति जनता मिथो विवदते, ऋद्धिरसशातगुरुगौरवार्ता बुध्य० ॥७॥ एवमतिदुर्लभात्प्राप्य दुर्लभतमम् , बोधिरत्नं सकलगुणनिधानम् । कुरु गुरुप्राज्यविनयप्रसादोदितम् ,शान्तरससरसपीयूषपानम् बुध्यास इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये बोधिदुर्लभभावना विभावनो नाम द्वादशः प्रकाशः ( अनुष्टुब्वृत्तम् ) सद्धर्मध्यानसंध्यान-हेतवः श्रीजिनेश्वरैः । मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्रो भावनाः पराः ॥१॥ तथाहः-मैत्रीप्रमोदकारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तुम् , तद्धि तस्य रसायनम् ॥२॥ ( उपजातिवृत्तम् ) मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद्-भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः । कारुण्यमार्ताङ्गिरुजां जिहीर्ष-त्युपेक्षणं दुष्टधियामुपेक्षा ॥३॥ सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्मन् , चिन्त्यो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः । कियद्दिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन् , किं खिद्यते वैरिधिया परस्मिन् ॥४॥ सर्वेऽप्यमी बन्धुतयानुभूताः, सहस्रशोऽस्मिन् भवता भवाब्धौ । जीवास्ततो बन्धव एव सर्वे, न कोऽपि ते शत्रुरिति प्रतीहि ॥५॥ सर्वे पितृभ्रातृपितृव्यमातृ-पुत्राङ्ग जास्त्रीभगिनीस्नुषात्वम् । जीवाः प्रपन्ना बहुशस्तदेतत्कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित् ॥६॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( इन्द्रवज्रावृत्तद्वयम् ) एकैन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः, पञ्चेन्द्रियत्वाद्यधिगत्य सम्यक् । बोधिं समाराध्य कदा लभन्ते, भूयो भवभ्रान्तिभियां विरामम ॥७।। या रागरोषादिरुजो जनानाम् , शाम्यन्तु वाकायमनोद्रुहस्ताः । सर्वेऽप्युदासीनरसं रसन्तु, सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु ।।८।। ॐ अथ त्रयोदशभावनाष्टकम् । देशाखरागेण गीयते ॥ विनय विचिन्तय मित्रताम् , त्रिजगति जनतासु । कर्मविचित्रतया गतिम् , विविधां गमितासु, विन० ॥ १ ॥ सर्वे ते प्रियबान्धवाः, न हि रिपुरिह कोऽपि । मा कुरु कलिकलुषं मनो, निजसुकृतविलोपि. विन० ॥२॥ यदि कोपं कुरुते परो, निजकर्मवशेन । अपि भवता किं भूयते, हृदि रोषवशेन, विन० ॥ ३ ॥ अनुचितमिह कलहं सताम् , त्यज समरसमीन । भज विवेककलहंसताम् , गुणपरिचयपीन, विन० ॥ ४ ॥ शत्रुजनाः सुखिनः समे, मत्सरमपहाय । सन्तु गन्तुमनसोऽप्यमी, शिवसौख्यगृहाय. बिन० ॥ ५ ॥ सकृदपि यदि समतालवम् , हृदयेन लिहन्ति । विदितरसास्तत इह रतिम , स्वत एव वहन्ति, विनः ॥ ६ ॥ किमुत कुमतमदमूर्छिताः, दुरितेषु पतन्ति । जिनवचनानि कथं हहा, न रसादुपयन्ति, विन० ॥ ७ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ परमात्मनि विमलात्मनाम् परिणम्य वसन्तु । विनय समामृतपानतो. जनता विलसन्तु, विनः || ८ || इति श्रीशान्त सुधार सगेयकाव्ये मैत्रीभावनाविभावनो नाम त्रयोदशः प्रकाशः ( स्रग्धरावृत्तचतुष्टयम् ) धन्यास्ते वीतरागाः क्षपकपथर्गातक्षीणकमेपरागास्त्रैलोक्ये गन्धनागाः सहजसमुदितज्ञानजाग्रद्विरागा । अध्यारुह्यात्मशुद्ध्या सकलशशिकलानिर्मलध्यानधारामारान्मुक्तेः प्रपन्नाः कृतसुकृतशतोपार्जितार्हन्त्य लक्ष्मीम् ॥ १ ॥ तेषां कर्मक्षयोत्थैरतनुगुणगणैर्निर्मलात्म स्वभावर्गायं गायं पुनीमः स्तवन परिणतैरष्टवर्णास्पदानि । धन्यां मन्ये रसज्ञां जगति भगवतस्तोत्रवाणीरसज्ञामज्ञां मन्ये तदन्यां वितथजनकथाकार्य मौखर्यमग्नाम् ॥ २ ॥ निर्धन्यास्तेऽपि धन्या गिरिगहनगुहागह्वरान्तर्निविष्टा धर्मध्यानावधाना समरससुहिताः पक्षमासोपवासाः । येऽन्येऽपि ज्ञानवन्तः श्रुततिधिय दत्तधर्मोपदेशाः शान्ता दान्ता जिताक्षा जगति जिनपते शासनं भासयन्ति ॥ ३॥ दानं शीलं तपो ये विदधति गृहिणो भावनां भावयन्ति धर्म धन्याचतुर्धा श्रुतमुपचितश्रद्धयाराधयन्ति । साध्यः श्राद्ध्यश्च धन्याः श्रुतविशदधिया शील मुद्भावयन्त्यस्तान्सर्वान्मुक्तगर्वाः प्रतिदिन मसकृद्भाग्यभाजः स्तुवन्ति ॥ ४ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उपजातिवृत्तम् ) मिथ्यादृशामप्युपकारसारम् , संतोषसत्यादिगुणप्रसारम् । वदान्यता-वैनयिकप्रकारम् , मार्गानुसारीत्यनुमोदयाम ॥ ५ ॥ (स्रग्धरावृत्तम् ) जिह्व प्रवीभव त्वं सुकृतिसुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना भूयास्तामन्यकीर्तिश्रुतिरसिकतया मेऽद्य कर्णी सुकर्णौ । वीक्ष्यान्यप्रौढलक्ष्मी दूतमुपचिनुतं लोचने रोचनत्वं संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मुख्यमेव ॥ ६॥ ( उपजातिवृत्तम् ) प्रमोदमासाद्य गुणैः परेषां येषां मतिर्मजति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मन प्रसादो गुणास्तथैते विशदीभवन्ति ॥ ७ ॥ ॐ अथ चतुर्दशभावनाष्टकम् । टोडीरागेण गीयते ॥ विनय विभावय गुणपरितोषम् , विनय विभावय गुणपरितोषम् । परिहर दूरं मत्सरदोषम् , विन० निजसुव ताप्तवरेषु परेषु, विन० ॥१॥ दिष्ट्यायं वितरित बहुदानम् , वरमयमिह लभते बहुमानम् । किमिति न विमृशसि परपरभागम , यद्विभजसि तत्सुकृतविभागम , विन०२ येषां मन इह विगतविकारम् , ये विदधति भुवि जगदुपकारम् । तेषां वयमुचिताचरितानाम , नाम जपामो वारंवारम् , विन० ॥३॥ अहह तितिक्षागुणमसमानम् , पश्यत भगवति मुक्तिनिदानम् । येन रुषा सह लसदभिमानम , झटिति विघटते कर्मवितानम , विन०४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदधुः केचन शीलमुदारम् , गृहिणोऽपि परिहृतपरदारम् । यश इह सम्प्रत्यपि शुचि तेषाम् , विलसति फलिताफलसहकारम् , विन० ५ या वनिता अपि यशसा साकम् , कुलयुगलं विदधति सुपताकम् । तासां सुचरितसश्चितराकम् , दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकम् , विन० ॥६॥ तात्त्विकसात्त्विकसुजनवतंसाः, केचन युक्तिविवेचनहंसाः । अलमकषत किल भुवनाभोगम , स्मरणममीषां कतशुभयोगम् , विन० ॥७॥ इति परगुणपरिभावनसारम् , सफलथ सततं निजमवतारम् । कुरु सुविहितगुणनिधिगुणगानम् , विरचय शान्तसुधारसपानम् , विन० ८ । इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये प्रमोदभावनाविभावनो नाम चतुर्दशः प्रकाशः ( मालिनीवृत्तम ) प्रथममशनपानप्राप्तिवाञ्छाविहस्ता. स्तदनु वसनवेश्मालङ्कतिव्यग्रचित्ताः। परिणयनमपत्यावाप्तिमिष्टेन्द्रियार्थान सततमभिलषन्तः स्वस्थतां क्वाऽ नुवीरन् ॥ १ ॥ ( शिखरिणीवृत्तम् ) उपायानां लक्षैः कथमपि समासाद्य विभवं . भवाभ्यासात्तत्र ध्रुवमिति निबध्नाति हृदयम् । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाकस्मादस्मिन् विकिरति रजः क्रूरहृदयो रिपुर्वा रोगो वा भयमुत जरा मृत्युरेथवा ॥ २ ॥ (स्रग्धरावृत्तम) स्पर्धन्ते केऽपि केचिद्दधति हृदि मिथो मत्सरं क्रोधदग्धा युध्यन्ते केऽप्यरुद्धा धनयुवतिपशुक्षेत्रपद्रादिहेतोः । केचिल्लोभाल्लभन्ते विपदमनुपदं दूरदेशानटन्तः किं कुर्मः किं वदामो भृशमरतिशतैर्व्याकुलं विश्वमेतत् ॥३॥ ( उपजातिवृत्तत्रयम् ) स्वयं खनन्तः स्वकरण गर्तान , मध्ये स्वयं तत्र तथा पतन्ति । यथा ततो निष्क्रमणं तु दूरेऽधोऽधःप्रपाताद्विरमन्ति नैव ॥४॥ प्रकल्पयन्नास्तिकतादिवाद-मेवं प्रमाद परिशीलयन्तः । मना निगोदादिषु दोषदग्धाः, दुरन्तदुःखानि हहा सहन्ते ॥५॥ शृण्वन्ति ये नैव हितोपदेशम् , न धर्मलेशं मनसा स्पृशन्ति । रुजः कथङ्कारमथापनेयास्तेषामुपायस्त्वयमेक एव ॥६॥ ( अनुष्टुब्वृत्तम् ) परदुःखप्रतीकारमेवं ध्यायन्ति ये हृदि । लभन्ते निर्विकारं ते सुखमायतिसुन्दरम् ॥७॥ ॥ अथ पञ्चदशभावनाष्टकम् । रामकुलिरागेण गीयते ॥ सुजना भजत मुदा भगवन्तम् , सुजना भजत मुदा भगवन्तम् । शरणागतजनमिह निष्कारण-करुणावन्तभवन्तं रे, सुज० ॥१॥ क्षणमुपधाय मनः स्थिरतायाम् , पिवत जिनागमसारम् । कापथघटनाविकृतविचारम् , त्यजत कृतान्तमसारं रे, सुज० ॥२॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ परिहरणीयो गुरुर विवेकी, भ्रमयति यो मतिमन्दम् । सुगुरुवचः सकृदपि परिपीतम्, प्रथयति परमानन्दं रे, सज० ॥३॥ कुमततमोभरमीलितनयनम्, किमु पृच्छत पन्थानम् । दधिबुद्धया नर जलमन्थन्याम् किमु निद्धत मन्थानं रे, सुज० 11811 · अनिरुद्ध मन एव जनानाम्, जनयति विविधातङ्कम् । सपदि सुखानि तदेव विधत्ते, आत्माराममशङ्कं रे, सुज० ॥५॥ परिहरताश्रवविकथागौरव - मदनमनादिवयस्यम् । क्रियतां सांवर साप्तपदीनम्, ध्रुवमिदमेव रहस्यं रे, सुज० ||६|| सात इह किं भवकान्तारे, गदनिकुरम्बमपारम् । अनुसरताऽऽहितजगदुपकारम्, जिनपतिमगदङ्कारं रे, सुज ||७|| शृणुतैकं विनयोदितवचनम्, नियतायतिहितर चनम् । रचयत कृतसुखशतसन्धानम्, शान्तसुधारसपानं रे, सुज० ॥८॥ इति श्री शान्त सुधार सगेयकाव्ये कारुण्यभावनाविभावनो नाम नाम पञ्चदशः प्रकाशः ( पञ्चापि शालिनीवृत्तानि ) श्रान्ता यस्मिन् विश्रमं संश्रयन्ते, रुग्णा: प्रीति यत्समासाद्य सद्यः । लभ्यं रागद्वेषविद्वेषिरोधा - दौदासीन्यं सर्वदा तत्प्रियं नः ॥ १ ॥ लोके लोका भिन्नभिन्नस्वरूपाः, भिन्नैर्भिन्नैः कर्मभिर्मर्मभिद्भिः । रम्यारम्यैश्चेष्टितैः ः कस्य कस्य तद्विद्वद्भिः स्तूयते रुष्यते वा ||२|| मिथ्या शंसन्वीरतीर्थेश्वराणां, रोद्धुं शेके न स्वशिष्यो जमालिः । अन्यः को वा त्स्यते केन पापात्तस्मादौदासीन्यमेवात्मनीनम् ॥३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हन्तोऽपि प्राज्यशक्तिस्पृशः किम् धर्मोद्योगं कारयेयुः प्रसह्य । दद्युः शुध्धं किन्तु धर्मोपदेशम् . यत्नुर्वाणा दुस्तरं निस्तरन्ति ।।४।। तस्मादौदासीन्यपीयूषसारम् , वारं वारं हन्त सन्तो लिहन्तु । आनन्दानामुत्तरङ्गत्तरङ्गैर्जीवद्भिर्यद्भज्य ते मुक्तिसौख्यम ॥ ५ ॥ 卐 षोडशभावनाष्टकम् । प्रभातिरागण गीयते ॥ अनुभव विनय सदा सुखमनुभव, औदासीन्यमुदारं रे । कुशलसमागममागमसारम् , कामितफलमन्दारं रे, अनु० ।। १ ।। परिहर परचिन्तापरिवारम् , चिन्तथ निजमविकारं रे । तव किं कोऽपि चिनोति करीरम् , चिनुतेऽन्यः सहकारं रे, अनु० ॥२॥ योऽपि न सहते हितमुपदेशम , तदुपरि मा कुरु कोपं रे ।। निष्फलया किं परजनतप्त्या, कुरुषे निजसुखलोपं रे, अनु० ॥३॥ सूत्रमपास्थ जडा भाषन्ते, केचन मतमुत्सूत्रं रे । कि कुर्मस्ते परिहृतपयसो, यदि पीयन्ते (पिबन्ति) मूत्रं रे, अनु० ॥४।। पश्यसि कि न मनःपरिणामम् , निजनिजगत्यनुसारं रे । येन जनेन यथा भवितव्यम् , तद्भवता दुर्वारं रे, अनु० ॥ ५ ॥ रमय हृदा हृदयङ्गमसमताम , संवृणु मायाजालं रे । वृथा वहसि पुद्गलपरवशता-मायुः परिमितकालं रे, अनु० ॥ ६ ॥ अनुपमतीर्थमिदं स्मर चेतन-मन्तःस्थितमभिरामं रे । विरतिभावविशदपरिणामम , लभसे सुखमविरामं रे, अनु० ॥७॥ परब्रह्मपरिणामनिदानम् , स्फुटकेवलविज्ञानं रे । विरचय विनयविवेचितज्ञा(गा?)नम् , शान्तसुधारसपानं रे, अनु० ॥८॥ इति श्रीशान्तसुधारसगेयकाव्ये माध्यस्थ्यभावनाविभावनो नाम षोडश : प्रकाश : Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( स्रग्धरावृत्तद्वयम् ) एवं सद्भावनाभिः सुरभितहृदयाः संशयातीतगीतोनीतस्फीतात्मतत्त्वास्त्वरितमपसरन्मोहनिद्राममत्वाः । गत्त्वा सत्त्वाममत्वातिशयमनुपमां चक्रिशक्राधिकानां सौख्यानां मक्षु लक्ष्मीम् , परिचितविनयाःस्फारकीर्ति श्रयन्ते १ दुर्ध्यानप्रेतपीडा प्रभवति न मनाकाचिदद्वन्द्वसौख्यस्फातिः प्रीणाति चित्तं प्रसरति परितः सौख्य(म्य?) सौहित्यसिन्धुः । क्षीयन्ते रागरोषप्रभृतिरिपुभटाः, सिद्धिसाम्राज्यलक्ष्मीः स्याद्वश्या यन्महिना विनयशुचिधियो भावनास्ता श्रयध्वम् ॥२॥ (पथ्यावृत्तम् ) श्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यौ सोदरावभूतां द्वौ । श्रीसोमविजयवाचक-वाचकवरकीर्तिविजयाख्यौ ॥ ३ ॥ (गीतिद्वयम् ) तत्र च कीर्तिविजयवाचकशिष्योपाध्यायविनयविजयेन । शान्तसुधारसनामा संदृष्टो(ब्धो) भावनाप्रबन्धो(बोघो?)ऽयम् ॥४॥ शिखिनयनसिन्धुशशिमितवर्षे हर्षेण गन्धपुरनगरे । श्रीविजयप्रभसूरिप्रसादतो यत्न एष सफलोऽभूत ॥ ५ ॥ ( उपजातिवृत्तम् ) यथा विधुः षोडशभिः कलाभिः सम्पूर्णतामेत्य जगत्पुनीते । ग्रन्थस्तथा षोडशभिः प्रकाशैरयं समग्रैः शिवमातनोतु ॥ ६ ॥ ( इन्द्रवज्रावृत्तम् ) यावज्जगत्येष सहस्रभानुः पीयूषभानुश्च सदोदयेते । तावत्सतामेतदपि प्रमोदम् , ज्योतिः स्फुरद्वाङ्मयमातनोतु ॥ ७ ॥ 'इति समाप्तोऽयं गेयकाव्यमयः श्रीशान्तसुधारसः' Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीप्रमाणनयतच्चरहस्यम् । स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणमतो ज्ञानमेवेदम् । तद्वयवसायस्वभावं समारोपविरुद्धत्वादनुमा (न) वत् । अतस्मिन् तदध्यवसायः समारोपः । स संशयविपर्ययानध्यवसायभेदात्त्रेधा । स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायोऽर्थस्येव तदुन्मुखतया घटमहमात्मना वेति । कर्मवन कर्तृकरणक्रियाप्रतीतिः । को वा तत्प्रतिभासितमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् प्रदीपवत् । तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥ १ ॥ तत् द्वेधा प्रत्यक्षं च परोक्षं च । स्पष्टं प्रत्यक्षम् । तद्विविधं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । आद्यमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम । पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षमवध्यादि || २ || अस्पष्टं परोक्षम् । स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम् । संस्कारोद्बोधनिबन्धनं तदित्याकारं स्मरणम् स देवदत्तो यथा । दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् - तदेवेद तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिपः, इदमस्माद्दूरम्, वृक्षोऽयमित्यादि । उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनं तर्कः - यथाग्नौ सत्येव धूमो भवति, तदभावे न भवत्येवेति । अनुमानं द्विधा स्वार्थं परार्थं च । हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणहेतुकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । निश्वितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः । इमवाधितमसिद्ध साध्यम् । तद्विशिष्टः प्रसिद्ध धर्मी पक्षः । धर्मिणः प्रसिद्धिर्विकल्पप्रमाणोभयैः । विकल्पसिद्धे धर्मिणि सत्तेतरे साध्ये - अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम | प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता - अग्निमानयं देशः, परिणामी शब्दो यथा । पक्ष हेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्पन्न प्रति हेतुप्रयोगात्तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव । मन्दमतीस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तोपनयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि । दृष्टान्तो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् । साधनसत्तायां यत्रावश्यं साध्यसत्ता प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः । साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः । हेतोरुपसंहार उपनयः । प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् । एते पक्षादयः पञ्चावयवाः कीर्यन्ते । स हेतुर्द्विधा-उपलब्ध्यनुपलधिभेदात् । उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च । अविरुद्धोपल ब्धिविधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात्। परिणामी शब्दः कृतकत्वात् , यः कृतकः स परिणामी दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी; यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्वायम् , तस्मात्परिणामी । अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्यवहारादेः । अस्त्यत्र छाया छत्रात्। उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् । उदगाद्भरणिः प्राक्तत एव । अस्त्यत्र मातुलिङ्ग रूपं रसात्।। विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ६-'नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् । नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात् । नास्मिन् शरोरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् । 'नोदेष्यति मुहूर्ताते शकटं रेवत्युदयात् । 'नोद्गाद्भरणिमुहूर्तात् पूर्व पुष्योदयात् । 'नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥ अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा-स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलब्धिभेदात् । नास्त्यत्र भूतले घट उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे सत्यनुपलब्धः । नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः। नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामोऽग्निर्धमानुपलब्धेः । नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः। ५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयानुपलब्धेः । नोदगाद्भरणिर्मु हूर्तात्प्राक् तत एव । नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामोऽवनामानुपलब्धः।। विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिविधौ सम्भवति । यथाम्मिन प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धः। अम्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् । अनेकान्तात्मकं वस्तु एकान्त स्वरूपानुपलब्धेः । परम्परया सम्भवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयमअभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात। कार्यकार्यमविरुद्धकार्यापलब्धौयथा नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिशब्दनात् । कारणविरुद्धकाय विरुद्धकार्यापलब्धौ यथा (नासौ रोमहर्षादिविशेपवान समीपवतिपावकविशेषात् ) ॥३॥ आप्तवचनाज्जातमर्थज्ञानमागम :, उपचारादाप्रवचनं च । यथास्त्यत्र निधिः, सन्ति मेर्वादयः पदार्थाः। अभिधेयं वस्तु यथा वस्थितं यो जानीते यथाज्ञातं चाभिधत्ते स आप्तः; जनकतीथकरादिः । सहजसामर्थ्यसङ्केताभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः ॥४॥ ____सामान्यविशेषाद्यर्थस्तस्य विषयः अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगो चरत्वात , पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेणार्थक्रियो पपत्ते च । सामान्यं द्विधा-तिर्यगूर्खताभेदात् । सदृशपरिणामस्तिर्यक. खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् । परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता, मृदिय स्थासादिषु ॥ विशेषश्च पर्यायव्यतिरेकभेदात् । एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः (परिणामाः) पर्यायाः-आत्मनि हर्पविपादादिवत । (अर्थान्तरगतो) विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ।।५।। __ अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम् , प्रमाणाद्भिन्नमभिन्न च । यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्याददात्युपेक्षते चेति Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीतिः । प्रमाणस्वरूपादेरन्यत् तदाभासम् सन्निकर्षाद्यस्वसंविदितपरानवभासकज्ञानदर्शनसंशयाद्याः प्रमाणाभासाः। द्विचन्द्रादिज्ञानं विभङ्गश्च प्रत्यक्षाभासम् । अतस्मिंस्तदिति स्मरणाभासं, यज्ञदत्ते स देवदत्तो यथा । सहशे तदेवेदं तत्सदशमित्यादिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाभासं यमलज्ञानवत् । असम्बद्ध तज्ज्ञानं ताभासं यावांस्तत्पुत्रः स श्याम इति यथा ॥ अनुमानाभासमिदम्-(तत्र) अनिष्ठादि पक्षाभासः अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः, सिद्धः श्रावणः शब्दः, बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैरनुष्णोऽग्निरित्यादिवत् । असिद्धविरुद्धानैकान्तिका हेत्वाभासा -प्रमाणेनासिद्धान्यथानुपपत्तिरसिद्धः, परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात ; विपरीतान्यथानुपपत्तिविरुद्धः, अनित्यः पुरुषः प्रत्यभिज्ञानादिमत्वात् ; विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः, अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् ।। अन्वये दृष्टान्ताभासा असिद्धसाध्यसाधनोभयाः, अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुखपरमाणुघटवत् ; विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्त विद्युदादिनाऽतिप्रसङ्गात् । व्यतिरेकेऽसिद्धतद्वयतिरेकाः, परमा ण्विान्द्रयसुखाकाशवत् । विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्त तन्नापौरुषमिति । अनाप्तवचनजं ज्ञानमागमाभासं नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धाववं धावध्वं माणवकाः । प्रत्यक्षमेकं प्रमाणमित्यादि सङ्ख्याभासम्, विषयाभासं सामान्य विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् । फलाभासं प्रमादभिन्न भिन्नमेव वा ॥६॥ मूलनयौ द्रव्यार्थिकपर्यायाथिको, द्रव्यार्थिकस्नेधा, नैगमसङ्ग्रहव्यवहारभेदात् । पर्यायार्थिकञ्चतुर्दा ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवम्भूतभेदात् । अन्योऽन्यगुणप्रधानभूतभेदप्रवणो नैगमः । सन्मात्रग्राही सङग्रहः । सद्विशेषप्रकाशको व्यवहारः । शुद्धपर्यायग्राही ऋजुसूत्रः । कालकारकलिङ्गानां भेदाद् ध्वनेरर्थभेदवादी शब्दः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायध्वनिभेदादर्थनानात्वनिरूपकः समभिरूढः । क्रियाश्रयेण भेदप्ररूपणमेवम्भतः । त एवेतरनिरपेक्षास्तदाभासाः। प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा । चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौगलिकाऽदृष्टवांश्चायम् । कृत्स्नकर्मक्षयस्वरूपाऽस्य सिद्धिः ॥७॥ इति प्रमाणनयतत्त्वरहस्यं स्याद्वादरत्नाकरप्रमेयरत्नमालासूत्रेऽनुसृत्य * विहितमिदं श्री गुणरत्नसूरिभिः - श्रीवर्धमानविद्यास्तवः बिलसंत जोइबीए परमिट्ठीणं सरेमि पंचन्हें । सुह पुट्ठि तुट्ठि संतिग आरुग्ग एए पए पयउ ॥१॥ केवलसिरितिलयाणं, अट्ठमहापाडिहेरकलियाणं। तिहुयणपणयाण नमो अरिहंताणं, सयाकालं ॥२॥ सिद्धिगइमुवगयाणं, अप्पडिहयनाणदसणसिरीणं । सासयरूवाण नमो सिद्धाणमणंतसोक्खाणं ॥३।। जिणपहपइछियाणं, पंचविहायारसारचरियाणं । पवयणवसहाण नमो आयरियाणं सुहनिहीणं ॥४॥ सययं नमो उवज्झायाणं, अणवरयसुयपयाणेणं । अणुग्गहियमुणिगणाणं, अहीणवरणाणजलहीणं ।।५।। निच्चपि नमो लोए सव्वसाहूणमणहवित्तीणं । मुत्तिवहुसंगमुस्सुयमणसाणवि निरभिसंगाणं ॥६॥ तह ओहि परमोहि सव्वोहि अणंतओसहीणं च । सन्जोइपयाण नमो जिणाण सव्वेसिमेएसिंजा तस्स य नमो भगवओ महइ महासिद्धिणो कुणइ विजा। वीरे य. सेणवीरे जयंति अपराजिए जस्स ॥८॥ जाणेसो पंचनमुक्कारो निवसइ मणे महामंतो। ताण न पिसायसाइणिभूयाइ भयाइं पहवंति ॥ ९ ॥ सुमरियमित्तोवि इमो तिलोअरक्खा-विवक्खमणमहणो । रणरायगपासाइसु विजयपडायं पयच्छेइ ॥१०॥ गुणिओ अ सव्वपावप्पणा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणो तय मङ्गलाणं च । सव्वेसि पढम हवइ मङ्गलं, सुमइसूरीहिं ॥११॥ इय वद्धमाण विजा चक्केसरपहु पसाय संपत्ता । पंचपरमिट्ठिणो मह हवंतु सुलहा पइभवंमि ॥१२।। || श्रीरस्तु । मङ्गलं भूयात् ॥ श्रीगौतमाकष्टकम् श्रीइन्द्रभूतिं वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतमगोत्ररत्रम् । स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वाग्छितं मे ॥१॥ श्रीवर्धमानात् त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशाऽपि, स गौतमो यच्छतु वाब्छितं मे ॥२॥ श्रीवीरनाथेन पुरा प्रणीतम्, मन्त्रं महानन्दसुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सृरिवराः समग्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥३॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृहणन्ति भिक्षाभ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥४॥ अष्टापदाद्री गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥५॥ त्रिपश्चसङ्ख्याशततापसानाम् , तपःकृशानामपुनर्भवाय । अक्षीणलब्ध्या परमान्नदाता, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥६॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, साधर्मिकं सङ्घसपर्ययश्च । कैवल्यवखं प्रददौ मुनीनाम् , स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥७॥ शिवं गते भर्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रः, स गौतमो यज्छतु वाच्छितं मे ॥८॥ श्रीगौतमस्याष्ठकमादरेण, प्रबोधकाले मुनिपुङ्गवा ये । पठन्ति ते सूरिपदं च देवानन्दं लभन्ते सुतरां क्रमेण ॥ ९ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ हैं. त्रि. श. पु. च. गता श्रीशतबलनपस्यभावना ॥ ( अनुष्टुब वृत्तम् ) विधाय सहजाशौचमुपस्कारैर्नवनवम् । गोपनीयमिदं हन्त कियत्कालं कलेवरम् ॥१॥ सत्कृतोऽनेकशोऽप्येष सक्रियेत यदापि न। तदापि विक्रियां याति कायः खलु खलोपमः ॥२॥ अहो बहिर्निष्पतितैर्विष्ठामूत्रकफादिभिः। दीयन्ते प्राणिनोऽमी, कायस्यान्त स्थितैर्न किम् ॥३॥ रोगाः समुद्भवन्त्यस्मिन्नत्यन्तातङ्कदायिनः । दन्दशूका इव क्रूरा जरद्विटपकोटरे ॥४॥ निसर्गाद्गत्वरश्वायं कायोऽब्द इव शारदः। दृष्टनष्टा च तत्रेयं योवनश्रीस्तडिनिभा ॥५॥ आयुः पताकाचपलम् , तरङ्गचपला श्रियः । भोगिभोगनिभा भोगाः सङ्गमाः स्वप्नसन्निभाः ॥६॥ कामक्रोधादिभिस्तापैस्ताप्यमानो दिवाऽनिशम् । आत्मा शरीरान्तस्थोऽसौ पच्यते पुटपाकवत् ॥७॥ विषयेष्वतिदुःखेषु सुखमानी मनागपि । नाहो बिरज्यते जनोऽशुचिकीट इवाशुचौ ॥८॥ दुरन्तविषयास्वादपराधी. नमना जनः । अन्धोऽन्धुमिव पादारस्थितं मृत्युं न पश्यति ॥९॥ भापातमात्रमधुरैविषयैर्विषसन्निभैः । आत्मा मूछित एवास्ते स्वहिताय न चेतति ॥१०॥ तुल्ये चतुर्णा पौमर्थ्ये पापयोरर्थकामयोः। आत्मा प्रवर्तते हन्त न पुनर्धर्ममोक्षयोः ॥११॥ अस्मिन्नपारसंसारपारावारे शरीरिणाम् । महारवमिवानध्य मानुष्यमिह दुर्लभम् ॥१२॥ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते प्राप्यन्ते पुण्ययोगतः। देवता भगवानईन् , गुरवश्व सुसाधवः ॥१३॥ मानुष्यकस्य यद्यस्य वयं नादद्महे फलम् । मुषिताःस्म तदधुना चौरैर्वसति पत्तने ॥१४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। हेभीययोगशास्त्रविवृताः पञ्चमहावतभावनाः ।। मनोगुप्त्येषणादेाभिः समितिभिः सदा। दृष्टान्नपान्नग्रहणेनाऽहिंसां भावयेत्सुधीः॥१॥ हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्यानैर्निरन्तरम् । आलोच्य भाषणेनापि भावयेत् सूनृतं व्रतम् ॥२॥ आलोच्यावग्रह याश्चाऽभीक्ष्णावग्रहयाचनम् । एतावन्मात्रमेवैतदित्यवग्रहधारणम् ॥३।। समानधार्मिकेभ्यश्च तथावग्रहयाचनम् । अनुज्ञापितपानान्नासनमस्तेयभावना ॥४॥ स्त्रीपण्ढपशुमद्वेश्मासनकुड्यान्तरोझनात् । सरागस्त्रीकथात्यागात् प्रावतस्मृतिवर्जनात् ॥५॥ स्त्रीरम्याङ्गक्षणस्वाङ्गसंस्कारपरिवर्जनात् । प्रणीतात्यशनत्यागादब्रह्मचर्य तु भावयेत् ॥६॥ स्पर्शे रसे च गन्धे च रूपे शब्दे च हारिणि । पञ्चसु हीन्द्रियार्थेषु गाढं गाद्ध-र्यस्य वर्जनम् ॥७॥ एतेष्वेवाऽमनोज्ञेषु सर्वथा द्वेषवर्जनम् । आकिश्चन्यव्रतस्यैवं भावनाः पञ्च कीतिताः ।।८।। श्री शान्तिसूरिविरचितं श्रीधर्मरत्नप्रकरणम् नमिऊण सयलगुणरयणकुलहरं विमलकेवलं वीरं । धम्मरयणस्थिआणं जणाण वियरेमि उवएसं ॥१॥ भवजलहिम्मि अपारे दुलहं मणुयत्तणंपि जंतूणं । तत्थवि अणत्थहरणं दुलहं सद्धम्मवररयणं ॥२॥ जह चिंतामणिरयणं सुलहं न हु होइ तुच्छविहवाणं । गुणविभववज्जियाणं जियाण तह धम्मरयणंपि ॥३।। इगवीसगुणसमेओ जोगो एयस्स जिणमए भणिओ। तदुवजणंमि पढम ता जइयव्वं जओ भणियं ॥४॥ धम्मरयणस्स जोग्गो 'अक्खुद्दो रूववं पयइसोमो । लोगप्पिओ 'अकूरो 'भीरू असढो 'सुदक्खिन्नो ॥५॥ लज्जालुओ १ दयालू 'मज्झत्थो-सोमदिट्ठि १२गुणरागी। १३सकह १४सुपक्खजुत्तो १सुदीहदरिसी १६विसेसन्नू ॥६॥ १७बुड्ढागुगो १८विणीओ १ कयन्नुओ २०परहियस्थकारी य । तह चेव २१लद्धलक्खो इगवीसगुणेहिं संपन्नो ॥७॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० खुदोत्ति भगंभीरो उत्ताणमई न साहए धम्मं । सपरोवयारसत्तो अक्खुद्दो तेण इह जोग्गो ॥ ८ ॥ संपुन्नंगोवंगो पंचिंदियसुंदरो सुसंघयणो । होइ पभावणहेऊ खमो य तह रूववं धम्मे ॥९॥ पयईसोमसहावो न पावकम्मे पवत्तई पायं । हवइ सुहसेवणिज्जो पसमनिमित्तं परेसिपि ॥१०॥ इहपरलोयविरुध्धं न सेवए दाणवियसीलड्ढो । लोअप्पिओ जणाणं जणेइ धम्ममि बहुमाणं ॥११॥ कूरो किलिट्ठभावो सम्मं धम्म न साहिउ तरइ। इय सो न एत्थ जोगो जोगो पुण होइ अकरो ॥१२॥ इहपरलोगावाए संभावेतो न वट्टई पावे । बीहइ अयसकलंका तो खलु धम्मारिहो भीरू ॥१३॥ असढो परं न वंचइ वीससणिज्जो पसंसणिज्जो य । उज्जमइ भावसारं उचिओ धम्मस्स तेणेसो ॥४॥ उवयरइ सुदक्खिन्नो परेसिमुज्झिय सकजवावारो । तो होइ गझवक्कोऽणुवत्तणीओ य सव्यस्स ॥१५॥ लज्जालुओ अकज्जं वजइ दूरेण जेण तणुयंपि । आयरइ सयायारं न मुयइ अंगीकयं कहवि ॥१६॥ मूलं धम्मस्स दया तयणुगयं सव्वमेवYढाणं । सिध्धं जिणिंदसमए मग्गिजइ तेणिह दयालू ॥१७॥ मज्झत्थसोमदिट्ठी धम्मवियारं जहट्ठियं मुणइ कुणइ। गुणसंपओगं दोसे दूरं परिच्चयइ ॥१८॥ गुणरागी गुणवंते बहु मन्नइ निग्गुणे उवेहेइ । गुणसंगहे पवत्तइ संपत्तगुणं न मयलेइ ॥१९॥ नासइ विवेगरयणं असुहकहासंगकलुसियमणस्स । धम्मो विवेगसारोत्ति सकहो होज धम्मत्थी ॥२०॥ अणुकूल धम्मसीलो सुसमायारो य परियणो जस्स । एस सुपक्खो धम्मं निरंतरायं तरइ का ॥२१॥ आढवइ दीहदंसी सयलं परिणामसंदरं कज्जं । बहुलाभमप्पकेसं सलाहणिज्जं बहुजणाणं ॥२२॥ वत्थूणं गुणदोसे लक्खेइ अपक्खवायभावेण । पाएण विसेसन्नू उत्तमधम्मारिहो तेण ॥२३॥ वुड्ढो परिणयबुद्धी पावायारे पवत्तई नेय । वुड्ढाणुगोवि एवं संसग्गकया गुणा जेण Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४॥ विणओ सव्वगुणाणं मूलं सन्नाणदंसणाईणं । मोक्खस्स य ते मूलं तेण विणीओ इह पसत्थो ॥२५॥ बहु मन्नइ धम्मगुरु परमुवयारित्ति तत्तबुद्धीए। तत्तो गुणाण वुड्ढी गुणारिहो तेणिह कयन्नू ॥२६॥ परहियनिरओ धन्नो सम्मं विनायधम्मसम्भावो । अन्नेवि ठवइ मग्गे निरीहचित्तो महासत्तो ॥२७॥ लक्खेड़ लद्धलक्खो सुहेण सयलंपि धम्मकरणिज्जं । दक्खो सुसासणिजो तुरियं च सुसिक्खिओ होइ॥२८|एए इगवीसगुणा सुयाणुसारेण किंचि वक्खाया । अरिहंति धम्मरयणं घेत्तुं एएहि संपन्ना ॥२९।। पायद्धगुणविहीणा एएसिं मज्झमा वरा नेया । ऐत्तो परेण हीणा दरिदपाया मुणेयव्वा ।।३०।। धम्मरयणस्थिणा तो पढमं एयजणंमि जइयव्यं । जं सुद्धभूमिगाए रेहइ चित्तं पवित्तंपि ॥३१।। सड़ एयंमि गुणोहे संजायइ भावसावयत्तंपि । तस्स पुण लक्खणाई एयाइं भणंति सुहगुरुणो ॥३२॥ कयवयकम्मो तह सीलवं च गुणवं च "उज्जुवबहारी । गुरुसुस्सूसो पवयणकुसलो खलु सावगो भावे ॥३३॥ तत्थायन्नणजाणणगिण्हणपडिसेवणेसु उज्जुत्तो। कयवयकम्मो चउहा *भावत्थो तस्सिमो होइ ॥३४॥ विणयबहुमाणसारं गीयत्थाओ करेइ वयसवणं। भंगयभेयइयारे वयाण सम्मं वियाणाइ ॥३५।। गिण्हइ गुरूण मूले इत्तरमियरं व कालमह ताई। आसेवइ थिरभावो आयंकुत्रसग्गसंगेवि ॥३६।। *आययणं खु निसेवइ वज्जइ परगेहपविसणमकज्जे। निश्चमणुब्भडवेसो न भणइ सवियारवयणाइं ॥३७॥ परिहरइ बालकीलं साहइ कज्जाइँ महुरनीईए । इय छव्विहसीलजुओ विन्नेओ सीलवंतोत्थ ॥३८॥ आययणसेवणाओ दोसा झिज्जंति वड्ढइ गुणोहो । परगिहगमणंपि कलंकपंकमूलं सुसीलाणं ॥३९॥ सहइ पसंतो धम्मी उन्भडवेसो न सुंदरो तस्स । सवियारजंपियाई नूणमुईरंति रागरिंग ॥४०॥ बालिसजणकीलावि हु लिंगं मोहस्सणत्थदंडाओ । फरुसवयणाभिओगो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ न संगभो सुद्धधम्माणं ॥ ४१ ॥ * जइवि गुणा बहुरूवा तहवि हु पंचहि गुणेहि गुणवंतो । इह मुणिवरेहि भणिओ सरूवमेसिं निसामेहि ||४२ || सझाए करणंमि य विणयम्मि यनिञ्चमेव उज्जुत्तो । सव्वत्थणभिनिवेसो वहइ रुइं सुठु जिवणे ||४३|| पढणाईसज्झायं वेरग्गनिबंधणं कुणइ विहिणा । तवनियमवंदणाईकरणंमि य निञ्चमुज्जमइ ||४४ || अभुट्ठाणाईयं विणयं नियभा परंजइ गुणीणं । अणभिनिवेसो गीयत्थभासियं नन्ना मुइ ||४५ ॥ सवणकरणेसु इच्छा होइ रुई सद्दहाणसंजुत्ता । एईए विणा कत्तो सुद्ध सम्मत्तरयणस्स || ४६ ॥ *उजुववहारो चउहा जहत्थभणणं अवचिगा किरिया । हुंतावायपगासण मेत्तीभावो य सब्भावा ॥ ४७ ॥ अन्नभणणाईसं अवोहिबीयं परस्स नियमेण । तत्तो भवपरिवृढी ता होजा उज्जुववहारी ||४८ || सेवाए कारणेण य संपायणभाओ गुरुजणस्स | सुस्सूसणं कुणंतो गुरुसुस्सूसो हवइ चउहा ॥४९॥ सेवति कालंमि गुरु अकुणंतो ज्झाणजोगवाधायं । सयवन्नवायकरणा अन्नेवि पवत्तई तत्थ ||५० || ओसहभेसज्जाई सभ य परओ य संपणामेइ । सइ बहुमन्नेइ गुरु भावं चऽणुवत्तए तस्स ॥ ५१ ॥ * अत्थे यतहा उस्सग्गववाय भाववहारे । जो कुसलत्तं पत्तो पवयणकुसलो नभ छद्धा ॥५२॥ उचियम हिज्जइ सुत्तं सुणइ तयत्थं ता सुतित्थंमि । उस्सग्गववायाणं विसयविभागं वियाणाइ ||५३ || वहइ सइ पक्खवायं विहिसारे सव्वधम्मणुट्ठाणे । देसद्धादणुरूवं जाणइ गीयत्थववहारं || ५४ || एसो पवयणकुसलो छन्भेओ मुणिवरेहि निट्ठिो | * किरियागयाई छ च्चिय लिंगाई भावसडूढस्स ॥५५॥ *भावगयाइं सतरस मुणिणो एयस्स बिंति लिंगाई । जाणियजिणमयसारा पुव्वायरिया जओ आहु, ॥ ५६ ॥ इत्थिदियत्थसंसारविसयआरंभगेहदंसणओ । गडुरिगाइपवाहे पुरस्सरं आगमपवित्ती ॥ ५७ ॥ दाणा जहासत्ती (ति) पवत्तणं विहरत्तदुट्ठे य । ૧ २ 3 ૯ ૧૦ ૧૧ ૧૨ १३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ मज्झत्थमसंबध्धे परत्थकामोवभोगी य ॥५८॥ वेशा इव गिहवासं पालइ सत्तरसपयनिबध्धं तु। भावगयभावसावगलक्खणमेयं समासेण ॥५९॥ इत्थीमणत्थभवणं चलचित्तं नरयवत्तिणीभूयं । जाणतो हियकामी वसवत्ती होइ न ह तीसे ॥६०॥ इंदियचवलतुरंगे दोग्गइमग्गाणुधाविरे निन्छ । भावियभवस्सरूवो रंभइ सन्नाणरस्सीहि ॥६१॥ सयलाणत्थनिमित्त आयासकिलेसकारणमसारं । नाऊण धणं धीरो न हु लुब्भइ तंमि तणुयंपि ॥६२॥ दुहरूवं दुक्खफलं दुहाणुबन्धि विडंबणारूवं । संसारमसारं जाणिऊण न रई तहिं कुणइ ॥६३॥ खणमेत्तसुहे विसए विसोवमाणे सयावि मन्नंतो । तेसु न करेइ गिद्धिं भवभीरू मुणियतत्तत्थो ॥६४॥ वजइ तिव्वारंभं कुणइ अकामो अनिव्वहंतो उ। थुणइ निरारंभजणं दयालुओ सव्वजीवेसु ॥६५॥ गिहवासं पासं पिव मन्नंतो वसइ दुक्खिओ तंमि । चारित्तमोहणिज्जं निजिणि उज्जमं कुणइ ॥६६॥ अत्थिक्कभावकलिओ पभावणा वनवायमाईहिं। गुरुभत्तिजओ धीमं धरेइ सइ दसणं विमलं ॥६५॥ मडरिगपवाहेणं गयाणुगइयं जणं वियाणंतो । परिहरइ लोगसन्नं सुसमिक्खियकारओ धीरो ॥६८|| नत्थि परलोगमग्गे पमाणमन्नं जिणागमं मोत्तुं । आगमपुरस्सरं चिय करेइ तो सव्वकिच्चाई ॥६९॥ अनिगूहितो सत्ति आयाबाहाए जह बहुं कुणइ । आयरइ तहा सुमई दाणाइचउव्विहं धम्मं ॥७०॥ हियमणवज किरियं चिंतामणिरयणदुल्लह लहिउ। सम्मं समायरंतो न हु लजइ मुद्धहसिओवि ॥७१॥ देहट्टिइनिबंधणधणसयणाहारगेहमाईसु। निवसइ अरत्तदुट्ठो संसारगएमु भावेसु ॥७२॥ उवसमसारवियारो वाहिज्जइ नेय रागदोसेहिं । मज्झत्यो हियकामी असग्गहं सव्वहा चयइ ॥७३॥ भावेतो अणवरयं खणभंगुरयं समत्थवत्थूणं । संबद्धोवि धणाइसु वजइ पडिबंधसंबंधं ॥७४॥ संसारविरत्तमणो भोगुवभोगा न तित्तिहेउत्ति । नाउ lini Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ पराणुरोहा पवत्तई कामभोगेसु ॥७५॥ वेस व्व निरासंसो अन्नं कल्लं चयामि चिंतंतो। परकीयं पिव पालइ गेहावासं सिढिलभावो ॥७६॥ *इय सतरसगुणजुत्तो जिणागमे भावसावगो भणिओ । एस उण कुसलजोगा लहइ लहु *भावसाहुत्तं ॥७७॥ एयस्स उ लिंगाइं 'सयला मग्गाणुसारिणी किरिया । २सद्धा पवरा धम्मे पन्नवणिजत्तमुजुभावा ।।७८॥ किरियासु अप्पमाओ आरंभो सक्कणिजणुट्ठाणे । गुरुओ गुणाणुराओ गुरुआणाराहणं परमं ॥७९॥ मागो आगमनीई अहवा संविग्गबहुजणाइन्नं । उभयाणुसारिणी जा सा मग्गणुसारिणी किरिया ॥८०॥ अन्नह भणियंपि सुए किंची कालाइकारणावेक्खं । आइन्नमनह च्चिय दीसइ संविग्गगीएहिं ॥८१॥ कप्पाणं पाउरणं अग्गोयरचाय झोलियाभिक्खा । ओवगहियकडाहयतुंबयमुहदाणदोराई ॥८२।। सिक्किगनिक्खवणाई पजोसवणाइतिहिपरावत्तो । भोयणविहिअन्नत्तं एमाई विविहमन्नंपि ।।८३॥ ज सव्वहा न सुत्ते पडिसिधं नेय जीववहहेऊ । तं सव्वंपि पमाणं चारित्तधणाण भणियं च ॥८४॥ अवलंबिऊण कज्जं जं किंपि समायरंति गीयत्था । थेवावराह बहुगुण सव्वेसिं तं पमाणं तु ।।८५।। जं पुण पमायरूवं गुरुलाधवचिंतविरहियं सवहं । सुहसीलसढाइन्नं चरित्तिणो तं न सेवंति ॥८६।। जह सड्ढेसु ममत्तं राढाए असुद्धउवहिभत्ताई निद्देजवसहितूलीमसूरिगाईण परिभोगो ॥८७॥ इच्चाई असमंजसमणेगहा खुद्दचिट्ठियं लोए । बहुएहिवि आयरियं न पमाणं सुद्धचरणाणं ॥८८॥ गीयत्यपारतंता इय दुविहं मग्गमणुस्सरंतस्स । भावजइत्तं जुत्तं ॥ दुप्पसहंतं जओ चरणं ।।८९।। *सद्धा तिव्वभिलासो धम्मे पवरत्तणं इमं तीसे। 'विहिसेव अतित्ती सुद्धदेसणा स्खलियपरिसुद्धी॥१०॥ विहिसारं चिय सेवइ सद्धालू सत्तिमं अणुट्ठाणं । दव्वाइदोसनिहओवि पक्खवायं वहइ तम्मि ॥९१॥ निरुओ भोजरसन्न कवि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवत्थं गओ असुहमन्नं । भुजं न तंमि रजइ सुहभोयणलालसो धणियं ॥९२।। इय सुद्धचरणरसिओ सेवंतो दव्वओ विरुध्धपि । सद्धागुणेण एसो न भावचरणं अइक्कमइ ॥१३॥ तित्तिं न चेव विदइ सद्धाजोगेण नाणचरणेसु । वेयावच्चतवाईसु जहविरियं भावओ जयइ ॥९४।।卐 सुगुरुसमीवे सम्म सिध्धंतपयाण मुणियतत्तत्थो । तयणुन्नाओ धन्नो मज्झत्थो देसणं कुणइ ॥९५।। अवगयपत्तरूवो तयणुग्गहहेउमाववुढिकरं । सत्तभणियं परूवइ वजंतो दूरमुम्मग्गं ॥९६।। सव्वंपि जओ दाणं दिन्नं पत्तंमि दायगाण हियं । इहरा अणत्थजणगं पहाणदाणं च सुयदाणं ॥९७।। सुट्ठयरं च न देयं एयमपत्तंमि नायतत्तेहिं । इय देसणाऽवि सुद्ध इहरा मिच्छत्तगमणाई ॥१८॥॥ जं च न सुत्ते विहियं न य पडिसिद्ध जणंमि चिररूढं । समइविगप्पियदोसा तपि न दूसंति गीयत्था ॥९९॥ संविग्गा गीयतमा विहिरसिया पुव्वसूरिणो आसि । तददूसियमायरियं अणइसई को निवारेइ ॥१००॥ अइसाहसमेयं जं उस्सुत्तपरूवणा कडुविवागा । जाणतेहिवि दिजइ निदेसो सुत्तबज्झत्थे ॥१८१॥ दीसंति य ढड्ढसिणोणेगे नियमइपउत्तजुत्तीहि । विहिपडिसेहपवत्ता चेइयकिच्चेसु रूढेसु ॥१८२॥ तं पुण विसुद्धसद्धा सुयसंवायं विणा न संसंति । अवहीरिऊण नवरं सुयाणुरूवं परूविंति ॥१०३।। अइयारमलकलंकं पमायमाईहिं कहवि चरणस्स। जणियंपि वियडणाए सोहिंति मुणी विमलसद्धा ॥१०४॥ एसा पवरा सद्धा अणुबद्धा होइ भावसाहुस्स । एईए सम्भावे *पन्नवणिजो हवइ एसो ॥१०५॥ विहिउज्जमवन्नयभयउस्सग्गववायतदुभयगयाइं । सुत्ताइं बहुविहाइं समए गंभीरभावाई ।१०६॥ तेसिं विसयविभागं अमुणंतो नाणवरणकम्मुदया। मुज्झइ जीवो तत्तो सपरेसिमसग्गहं जणइ ॥१८७॥ तं पुण संविग्गगुरू Hrithi ule Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परहियकरणुज्जयाणुकंपाए । बोहिंति सुत्तविहिणा पन्नवणिज्जं वियाणंता ॥१०॥ सोवि असग्गहचाया सुविसुध्धं दसणं चरित्तं च । आराहिउ समत्यो होइ मुहं उज्जुभावाओ ॥१०९॥ सुगइनिमित्तं चरणं तं पुण छक्कायसंजमो चेव। सो पालिउ न तीरइ विगहाइपमायजुत्तेहिं ॥११०॥ पव्वज्जं विज्जंपिव साहितो होइ जो पमाइल्लो । तस्स न सिज्झइ एसा करेइ गरूयं च अवयारं ॥११॥ पडिलेहणाइचेट्ठा छक्कायविधाइणी पमत्तस्स । भणिया सुयंमि तम्हा अपमाई सुविहिओ होइ ॥११२॥ रक्खइ वएसु खलियं उवउत्तो होइ समिइगुत्तीसु । वज्जइ अवज्जहेउ पमायचरियं सुथिरचित्तो ॥११३।। कालंमि अणूणहियं किरियंतरविरहिओ जहासुत्तं । आयरइ सव्वकिरिय अपमाई जो इह चरित्ती ॥११४॥ *संघयणादणुरूवं आरंभइ सक्कमेवणुट्ठाणं । बहुलाभमप्पच्छेयं सुयसारविसारओ सजई ॥११५।। जह तं बहुं पसाहइ निवडइ अस्संजमे दढं न जओ। जणिउज्जमं बहूणं विसेसकिरियं तहा ढवइ ॥११६।। गुरुगच्छुन्नइ. हे कयतित्थपभावणं निरासंसो। 5 अजमहागिरिचरियं समरंतो कुणइ सकिरियं ॥११७।। सक्रमि नो पमायइ असक्ककज्जे पवित्तिमकुणंतो । सकारंभो चरणं विसुद्धमणुपालए एवं ॥११॥ जो गुरुमवमन्नतो आरंभइ किर असक्कमवि किंचि । - सिवभूइव्व न एसो सम्मारंभो महामोहा ॥११९।। *जायइ गुणेसु रागो सुद्धचरित्तस्स नियमओ पवरो । परिहरइ तो दोसे गुणगणमालिन्नसंजणणे ॥१२०।। गुणलेसंपि पसंसइ गुरुगुणबुद्धीए परगयं एसो। दोसलवेणवि निययं गुणनिवहं निग्गुणं गणइ ॥१२१।। पालइ संपत्तगुणं गुणड्ढसंगे पमोयमुव्वहइ । उज्जमइ भावसारं गुरुतरगुणरयणलाभत्थी ॥१२२॥ सयणोत्ति व सीसोत्ति व उवगारित्ति व गणिव्वओ वत्ति । पडिबंधस्स न हेऊ नियमा एयस्स गुणहीणो Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२३॥ करुणावसेण नवरं अणुसासइ तंपि सुद्धमग्गंमि । अञ्चंताजोग्गं पुण अरत्तदुट्ठो उवेहेइ ॥१२४॥ उत्तमगुणाणुराया कालाइदोसओ अपत्तावि । गुणसंपया परत्थवि न दुल्लहा होइ भव्वाणं ॥१२५॥ *गुरुपयसेवानिरओ गुरुआणाराहणंमि तल्लिच्छो । चरणभरधरणसत्तो होइ जई नन्नहा नियमा ॥१२६॥ सव्वगुणमूलभूओ भणिभोज आयारपढमसुत्ते जं। गुरुकुलवासोवस्सं वसेज तो तत्थ चरणत्थी ॥१२७॥ एयस्स परिच्चाया सुटुंछाइवि सुंदरं भणियं । कम्माइवि परिसुध्धं गुरुआणावत्तिणो बिंति ॥१२८॥ ता धन्नो गुरुआणं न मुयइ नाणाइगुणगणनियाणं । सुपसन्नमणो सययं कयन्नुयं भणसि भावितो ॥१२९॥ गुणवं च इमो सुत्ते जहत्थगुरुसद्भायणं इट्ठो । गुणसंपयादरिदो जहुत्तफलदायगो न मओ ॥१३०॥ मूलगुणसंपउत्तो न दोसलवजोगओ इमो हेओ । महुरोवक्रमओ पुण पवत्तियवो जहुत्तम्मि ॥१३१॥ पत्तो ससीससद्दो एव कुणंतेण पंथगेणावि। गाढप्पमाइणोवि हु सेलगसूरिस्स सीसेणं ॥१३२॥ ॥ एवं गुरुबहुमाणो कयन्नुया सन्नुलगच्छगुणवुड्ढी । अणवत्थापरिहारो हुंति गुणा एवमाईया ॥१३३॥ इहरा वुत्तगुणाणं विवजओ तह य अत्तउक्करिसो। अप्पञ्चओ जणाणं बोहिविघायाइणो दोसा ॥१३४॥ बकुसकुसीला तित्थं दोसलवा तेसु नियमसंभविणो । जइ तेहिं वजणिज्जो अवज्जणिज्जो तो नत्थि ॥१३५| इय भावियपरमत्था मज्झत्था नियगुरुंन मंचंति । सव्वगुणसंपओगं अप्पाणमिवि अपेच्छंता ॥१३६।। एयं अवमन्नतो वुत्तो सुत्तंमि पावसमणोत्ति । महमोहबंधगोवि य खिसंतो अपडितप्पंतो ॥१३७॥ सविसेसंपि जयंतो तेसिमवन्नं विवज्जए सम्मं । तो दसणसोहीओ सुद्धं चरणं लहइ साहू ॥१३८॥ ॥ इय सत्तलक्खणधरो होइ चरित्ती तओ य नियमेण । कल्लाणपरंपरलाभजोगओ लहइ सिवसोक्खं ॥१३९।। *दुविहंपि धम्मरयणं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ तरइ नरो घेत्तुमविगलं सो उ । जस्सेगवीसगुणरयणसंपया सुत्थिया अस्थि ॥ ४० ॥ ता सुट्ठ इमं भणियं 5 पुत्र्वायरिहिं पर हियएहिं । इगवी सगुणोवेओ जोगो सइ धम्मरयणस्स || १४१ || धम्मरयणोच्चियाणं देसचरित्तीण तह चरित्तीणं । लिंगाई जाई समए भणियाई मुणियतत्तेहिं | | १४२ || तेसि इमो भावत्थो निय मइविभवाणुसार ओ भणिओ | सपराणुग्गहहेउ समासभ संतिसहं ॥ १४३ || जो परिभावइ पय सम्मं सिध्धंतगब्भजुत्तीहिं । सो मुत्तिमग्गलग्गो कुग्गहगत्तेसु न हु पडइ || १४४ || इ धम्मरयणपगरण मणुदियहं जे मणंमि भावेंति । ते गलियकलिलपका नेव्वाणसुहाई पावेंति ॥ १४५॥ फफफफ चिरन्तनाचार्यविरचितं श्रीपञ्चसूत्रम् णमो वीरागाणं सव्वष्णूणं देविंदपूइआणं जहद्विभवत्थुवाईणं तेलुगुरुणं भरुहंताणं भगवंताणं, जे एवमाइक खंति- इह खलु अणाइ जीवे, अणाइ जीवस्स भवे अणाइ कम्मसंजोग निव्र्व्वात्तिए, दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे। एअस्सणं वुच्छित्ती सुद्धधम्माओ, सुद्धम्मसंपत्ती पावकम्मविगमाओ, पावकम्मविगमो तहाभव्वत्ताइ भावओ । तस्स पुण विवागसाहणाणि चउसरणगमणं दुक्कडगरिहा कडाण सेवणं; अओ कायन्त्रमिणं होउकामेणं सया सुप्पणिहाणं भुजो भुजो संकिलेसे, तिकालमसंकिलेसे । जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तरपुन्नसंभारा खीणरागोसमोहा अचिंतचिंतामणी भवजलहिपोआ एगंतसरणा अरहंता सरणं । तहा पही जरामरणा अवेअकम्मकलंका पणट्टवाबाहा केवलनाणदंसणा सिद्धिपुर निवासी निरुवमसुहसंगया, सव्वहा कयकिच्चा सिद्धा सरणं । तहा पसंतगंभीरासया सावज्जजोगविरया पंचविहायार जाणगा परो Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयारनिरया पउमाइनिर्दसणा झाणज्झयणसंगया विसुज्झमाणभावा साहू सरणं; तहा सुरासुरमणुअपूइओ मोहतिमिरंसुमाली रागदोसविसपरममंतो, हेऊ सयलकल्लाणाणं, कम्मवणविहावसू , साहगो सिद्धभावस्स, केवलिपण्णत्तो धम्मो जावजीवं मे भगवं सरणं । सरणमुवगओ अ एएसिं गरहामि दुक्कडं-जपणं अरहतेसु वा सिद्धेसु वा, आयरिए.सु वा, उवज्झाएसु वा, साहूसु वा, साहुणीसु वा, अन्नेसु वा धम्मट्ठाणेसु माणणिजेसु पूअणिज्जेसु; तहा माईसु वा, पिईसु वा, बंधुसु वा, मित्तेसु वा, उवयारीसुवा, ओहेण वा जीवेसु मग्गट्ठिएसु अमग्गट्ठिएसु मग्गसाहणेसु अमग्गसाहणेसु; जं किंचि वितहमायरियं अणायरिअव्वं अणिच्छिअव्वं पावं पावाणुबंधि, सुहुमं वा बायरं वा; मणेण वा, वायाए वा, काएण वा; कयं वा, काराविरं वा, अणुमोइअं वा; रागेण वा, दोसेण पा, मोहेण वा; इत्थ वा जम्मे, जम्मंतरेसु वा; गरहिअमेषं दुक्कडमेरं उज्झियव्वमेअं। विआणिों मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणाओ; एवमेअंति रोइरं सद्धाए; अरिहंतसिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं; दुक्कडमेअं, उज्झियव्वमेअं, इत्थ मिच्छामिदुक्कडं मिच्छामिदुक्कडं मिच्छामिदुक्कडं । होउ मे एसा सम्म गरिहा, होउ मे अकरणनियमो बहुमयं ममेअंति । इच्छामि अणुसद्धिं अरहताणं भगवंताणं गुरूणं कल्लाणमित्ताणंति । होउ मे एएहिं संजोगो, होउ मे एसा सुपत्थणा, होउ मे इत्थ बहुमाणो, होउ मे इओ मुक्खबीअंति। पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिआ, आणारिहे सिआ, पडिवत्तिजुत्ते सिआ, निरइआरपारगे सिआ । संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं; अणुमोएमि सव्वेसिं अरहंताणं अणुट्ठाणं, सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं, सम्वेसिं आयरिआणं आयारं, सव्वेसिं उवज्ज्ञायाणं सुत्तप्पयाणं, सव्वेसिं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहूण साहुकिरिअं, सव्वेसिं सावगाणं मुक्खसाहणजोगे, सव्वेसि देवाणं, सव्वेसिं जीवाणं, होउकामाणं कल्लाणाऽऽसयाणं मग्गसाहणजोगे; होउ मे एसा अणुमोअणा सम्मं विहिपुव्विआ, सम्म सुद्धासया, सम्म पडिवत्तिरूवा, सम्म निरइआरा, परमगुणजुत्तभरहंताइसामथओ। अचिंतसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो वीअरागा सव्वण्णू परमकल्लाणा, परमकल्लाणहेऊ सत्ताणं; मूढे अम्हि पावे, अणाइमोहवासिए, अणभिन्ने भावओ हिआहिआणं, अभिन्ने सिआ, अहिअनिवित्ते सिआ, हिअपवित्ते सिआ, आराहगे सिआ, उचिअपडिवत्तीए सव्वसत्ताणं सहिअंति । इच्छामि सुक्कडं इच्छामि सुकडं इच्छामि सुक्कडं। एवमेअं सम्मं पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स सिडिलीभवंति परिहायंति खिज्जति असुहकम्माणुबंधा, निरणुबंधे वाऽसुहकम्मे भग्गसामथ्थे सुहपरिणामेणं, कडगबध्धे विध विसे अप्पफले सिआ, सुहावणिजे सिआ, अपुणभावे सिआ । तहा आसगलिजंति परिपोसिज्जति निम्मविज्जति सुहकम्माणुबंधा साणुबंधं च सुहकम्मं पगिहँ पगिट्ठभावजिभं नियमफलयं । सुपउत्ते विभ. महागए सुहफले सिआ, सुहपवत्तगे सिआ, परमसुहसाहगे सिआ। अपडिबंघमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीअंति सुप्पणिहाणं सम्मं पढिअव्वं, सम्मं सोअव्वं, सम्म अणुप्पेहिअवंति । नमो नमिअनमिआणं परमगुरुवीभरागाणं नमो सेसनमुक्कारारिहाणं । जयड सव्वण्णुसासणं; परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा ।। इति पावपडिग्धाय-गुणबीजाहाणसुत्तं समत्तं ॥१॥ २. अथ साहुधम्म परिभावणा-सुत्तं Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायाए धम्मगुणपडिवत्तिसद्धार भाविज्जा एएसिं सरूवं पयइसंदरतं, अणुगामित्तं, परोवयारित्तं, परमत्थहेउत्तं; तहा दुरणुचरत्तं, भंगे दारुणत्तं, महामोहजणगत्तं, भूओ दुल्लहत्तंति । एवं जहासत्तीए उचिअविहाणेणं अच्चंतभावसारं पडिवजिजा, तं जहा-१. थूलगपाणाइवायविरमणं २. थूलगमुसावायविरमणं ३. थूलगअदत्तादाणविरमणं ४. थूलगमेहुणविरमणं ५. थूलगपरिग्गहविरमणमिच्चाइ । पडिवजिउण पालणे जइज्जा, सयाऽऽणागाहगे सिआ, सयाssणाभावगे सिआ, सयाऽऽणापरतंते सिआ। आणा हि मोहविसपरममंतो, जलं रोसाइजलणस्स, कम्मवाहितिगिच्छासत्थं, कप्पपायवो सिवफलस्स । • वजिज्जा अधम्मभित्तजोगं चिंतिजाऽभिणवपाविए गुणे, अणाइभवसंगए अ अगुणे, उदग्गसहकारित्तं अधम्म मित्ताणं, उभयलोगगरिहिअत्तं, असुहजोगपरंपरंच । परिहरिजा सम्मं लोगविरुद्ध । करुणापरे जणाणं न खिसाविज धम्मं । संकिलेसो खु एसा, परम्बोहिबीअं अबोहिफलमप्पणोत्ति । एवमालोएज्जा 'न खलु इत्तो परो अणत्थो, अंधत्तमेअं संसाराडवीए, जणगमणिट्ठावायाणं, अइदारुणं सरूवेणं, असहाणुधमच्चत्थं, सेविज धम्ममित्ते विहाणेणं, अंधो विवाणुकट्ठए, वाहिए विव विज्जे, दरिदो विव ईसरे, भीओ विव महानायगे । न इओ सुंदरतरमन्नं ति वहुमाणजुत्ते सिआ, आणाकंखी, आणापडिच्छगे, आणाअविराहगे, आणानिप्फायगेति । पडिवन्नधम्मगुणारिहं च वहिज्जा गिहिसमुचिएसु गिहिसमाथारेसु, परिसुद्धाणुट्ठाणे, परिसुद्धमणकिरिए, परिसुद्धवइकिरिए, परिसुद्धकाअकिरिए। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जिज्जाऽणेगोवधायकारणं गरहणिज्जं बहुकिलेसं आयइविराहगं समारंमं; न चिंतिज्जा परपीडं, न भाविज्जा दीणयं, न गच्छिज्जा हरिसं, न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं उचिभमणपवत्तगे सिआ। न भासिज्जा अलिअं, न फरुसं, न पेसुन्नं, नाणिबद्ध । हिअमिअभासगे सिआ । एवं न हिंसिज्जा भूआणि, न गिव्हिज्जा अदत्तं, न निरिक्खिज्ज परदारं, न कुज्जा अणत्थदंडं, सुहकायजोगे सिआ । - तहा लाहोचिभदाणे लाहोचिअभोगे लाहोचिअपरिवारे लाहोचिभनिहिकरे सिआ। असंतावगे परिवारस्स, गुणकरे जहासतिं, अणुकंपापरे, निम्ममे भावेणं । एवं खु तप्पालणेवि धम्मो, जह अन्नपालणेत्ति । सव्वे जीवा पुढो पुढो, ममत्तं बंधकारणं । ___ तहा तेसु तेसु समायारेसु सइसमण्णागए सिआ, अमुगेऽहं, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगधम्मट्ठाणट्ठिए; न मे तश्विराहणा, न मे तदारंभो, वुड्ढी ममेअस्स । एअमित्थ सारं, एअमायभूध, एअं हिअं; असारमण्णं सव्वं, विसेसओ अविहिगहणेणं; एवमाह तिलोगबंधू परमकारुणिगे सम्म संबुध्धे भगवं अरहंतेत्ति । एवं समालोचिअ तदविरुध्धेसु समायारेस सम्मं वट्टिज्जा, भावमंगलमेरं तन्निप्फत्तीए । ___ तहा जागरिज्ज धम्मजागरिआए, को मम कालो, किमअस्स उचिअं असारा विसया निमगामिणो विरसावसाणा, भीसणो मच्च सव्वाभावकारी अविन्नायागमणो अणिवारणिज्जो, पुणो पुणोऽणुबंधी; धम्मो एअस्स ओसहं, एगंतविसुद्धो, महापुरिससेविमओ सव्वहिसकारी निरइआरो परमाणंदहेऊ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो इमस्स धम्मस्स । नमो एअ धम्मपगासगाणं । नमो एअधम्मपालगाणं । नमो एअघम्मपरूवगाणं । नमो एअधम्मपवज्जगाणं, इच्छामि अहमिणं धम्म पडिवज्जित्तए । सम्मं मणवयणकायजोगेहिं । होउ ममेअं कल्लाणं, परमकल्लाणाणं जिणाणमणुभावओ। सुप्पणिहाणमेवं चिंतिज्जा पुणो पुणो। एअधम्मजुत्ताणमववायकारी सिआ । पहाणं मोहच्छे अणमेअं । एवं विसुज्झमाणे भावणाए कम्मापगमेणं उवेइ एअस्स जुग्गयं । तहा संसारविरत्ते स-विग्गो भवइ अममे अपरोवतावी विसुद्ध विसुद्धमाणभावे ।। इति साहुधम्मपरिभावणासुत्तं सम्मत्तं ॥२॥ ३. अथ पव्वजागहणविहि-सुत्तं परिभाविए साहुधम्मे जहोदिअगुणे जइज्जा सम्ममेयं पडिवज्जित्तए. अपरोवता परोवतावो हि तप्पडिवत्तिविग्धं । अणुपाओ खु एसो। न खलु अकुसलारंभओ हि । __ अप्पडिबुद्ध कहिंचि पडिवोहिज्जा अम्मापिअरे, “ उभयलोगसफलं जीविअं, समुदायकडा कम्मा समुदायफलत्ति, एवं सुदीहो म विओगो । अण्णहा एगरुक्खनिवासिसउणतुल्लमेअं। उद्दामो मञ्चू , पच्चासण्णो अ । दुल्लहं मणुअत्तं समुद्दपडिअरयणलामतुल्लं । अइप्पभूआ अण्णे भवा दुक्खबहुला मोहंधयारा अकुसलाणुबंधिणो। अजुग्गा सुद्धधम्मस्स । जुग्गं च एअं पोअभूभं भवसमुद्दे, जुत्तं सकज्जे निउंजिउ, संवरठुइअच्छिदं नाणकण्णधारं तवपवणजवणं । "खणे दुल्लहे सव्वकज्जोवमाईए सिद्धिसाहगधम्मसाहगत्तेण । उवादेआ य एसा जीवाणं-जं न इमीए जम्मो, न जरा, न मरणं, न इविभोगो, नाणिट्ठसंपभोगो, न खुहा, न पिवासा, न अण्णो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोइ दोसो, सव्वहा अपरतंतं जीवावत्थाणं, असुभरागाइरहिअ, संतं, सिवं, अव्वाबाहंति। विवरीओ अ संसारो इमीए अणवट्ठिअसहावो, इत्थ खलु सुही वि असुही, संतमसंतं, सुविणुव्य सव्वमालमालंति । ता अलमित्थ पडिबंधेणं। करेह मे अणुग्गहं, उज्जमह एअं वुच्छिदित्तए। अहंपि तुम्हाणुमईए साहेमि एअं निम्विन्नो जम्ममरणेहिं । समिज्झइ अ मे समीहिअं गुरुपभावेणं।" एवं सेसेवि बोहिज्जा; तओ सममेएहिं सेविज्ज धम्मं, करिज्जोचिअकरणिज्जं, निरासंसो उ सव्वदा । एवं परम मुणिसासणं । __अबुज्झमाणेसु अ कम्मपरिणईए, विहिज्जा जहासत्तिं तदुवकरणं आओवायसुद्ध समईए, कयण्गुआ खु एसा, करुणा य धम्मप्पहाणजगणी जगम्मि । तओ अणुण्णाए पडिबज्जिज्ज घम्म । अण्णहा अणुवहे चेव उवहिजुत्ते सिआ। धम्माराहणं खु हिअं सव्वसत्ताणं। तहा तहेअं संपाडिज्जा । सत्यहा अपडिवज्जमाणे । चइज्जा ते अट्ठाणगिलाणोसहत्थचागनाएणं,-से जहा नामए केइ पुरिसे कहंचि कंतारगए अम्मापिइसमेए तापडिबध्धे वञ्चिज्जा। तेसिं तत्थ नियमधाई पुरिसमित्तासज्झे संभवओसहे महायंके । सिआ। तत्थ से पुरिसे तप्पडिबंधाओ एवमालोचिअ 'न भवंति एए निअमओ ओसहमंतरेण, ओसहभावे अ संसओ, कालसहाणि अ एआणि,' तहा संठविध संठविअ तदोसहनिमित्तं सवित्तिनिमित्तं च घयमाणे साहू । एस चाए अचार, अचाए चेव चाए । फलमित्थ पहाणं बुहाणं, धीरा एअदंसिणो; स ते ओसहसंपायणेण जीवाविग्जा, संभवाओ पुरिसोचिअमेअं । एवं सुक्कपक्खिए महापुरिसे संसारकंतारपडिए अम्मापिइसंगए धम्मपडिबध्धे विहरिज्जा; तेसिं तत्थ निअमविणासगे अपत्तबीजाइपुरिसमित्तासझे संभवंतसम्मत्ताइओसहे मरणाइक्विागे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मायके सिआ, तत्थ से सुक्कपक्खिए पुरिसे धम्मपडिबंधाओ एवं समालोचिअ - ‘विणस्संति एए अवस्सं सम्मत्ताइओसहविरहेण, तास संपाडणे विभासा, कालसहाणि अ एआणि ववहारओ, तहा संतुविअ संहविअ इहलोगचंताए तेसिं सम्मत्ताइओसहनिमित्तं विसिट्ठगुरुमाइभावेण, सवित्तिनिमित्तं च किच्चकरणेण, चयमाणे संजमपडिवत्तीए साहुसिद्धीए । एस चाए अचाए, तत्तभावणाओ। अचाए चेव चाए, मिच्छाभावणाओ । तत्तफलमित्थ पहाणं परमत्थओ । धीरा एअदंसिणो आसन्नभव्वा। स ते सम्मत्ताइओसहसंपाडणेण जीवाविज्जा, अचंतिअं अमरणावंज्झबीअजोगेणं संभवाओ। सुपुरिसोचिअमेअं; दुप्पडिआराणि अ अम्मापिईणि । एस धम्मो सयाणं। भगवं इत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणुबंधि अम्मापिइसोगंति । एवमपरोवतावं सब्यहा सुगुरुसमीवे, पूइत्ता भगवंते वीअरागे साहू अ, तोसिऊण विहवोचिरं किवणाई, सुप्पउत्तावस्सए सुविसुद्धनिमित्ते समहिवासिए विसुज्झमाणो महया पमोएणं सम्मं पव्वइज्जा लोअवम्मे हितो लोगुत्तरधम्मगमणेण । एसा जिणाणमाणा महाकल्लाणत्ति न विराहिअव्या बुहेणं, महाणत्थभयाओ सिद्धिकंखिणा ।। इति पव्वज्जागहणविहिसुत्तं सम्मत्तं ॥३॥ ४. अथ पव्वज्जापरिपालणासुतं स एवमभिपव्वइए समाणे सुविहिभावओ किरिआफलेण जुज्जह विसुद्धचरणे महासत्ते । न विवज्जयमेइ । एअ अभावेऽभिप्पेअसिद्धी उवायपवित्तीओ । नाविवज्जत्थोगुवाए पयट्टइ । उवाओ अ साहगो निअमेण, तस्स तत्तचाओ; अण्णहा अइप्पसंगाओ; निच्छयमयमेअं; Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ से समलि६कंचणे समसत्तु मित्ते निभत्तग्गहदुक्खे पसमसुमेए सम्मं सिक्खमाइअइ गुरुकुलवासी गुरुपडिबध्धे विणीए भूअत्थदरिसी । न इओ हिअं तत्तंति मन्नइ । सुस्सूसाइगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसा । विहिपरे परमतमंतोत्ति अहिज्जइ सुत्तं । बद्धलक्खे आसंसाविप्पक आययट्ठी । स तमवेइ सव्वहा । तओ सम्मं निउंजइ । एअं धीराण सासणं । अण्णा अणिओगो अविहिग हिअमंतनाएण अणाराहणाए न किंचि, तदणारंभाओ धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए ' दुक्खं अवधीरणा अपवित्ती । नेवमहीअमहीअं अवगमविरहेण । न एसा मग्गगामिणो विराहणा अणत्यमुहा, अत्थहेऊ, तस्सारंभाओ धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए 'अणभिनिवेसो पडिवत्तिमित्तं किरिआरंभो । एवंपिं अहीअं अहीअं अवगमले सजोगओ । अयं सत्रीओ नियमेण । मग्गगामिणो खु एसा अवयबहुलस्स | निरवाए जहोदिए सुत्तत्तकारी हवइ पत्रयणमाइसंगए पंचसमिए तिगुत्ते | अणत्थपरे एअच्चाए अविअत्तस्स सिसुजणणीचायना | वित्ते इत्थ केवली एअफलभूए । सम्ममे विआणइ दुविहाए परिण्णाए, तहा आसासपत्रासदीवं संदीणाऽथिराइभेअं । असंदीणथिरत्थमुज्जमइ जहासत्तिसंभंते अणूस | असंसत्तजोगाराहुए भवइ; उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए पात्रकम्मुत्ति । विमुज्झमाणे आभवं भाव करिअमारा हेइ, पसम सुहमणुहवइ अपोडिए संजमतव किरिआए, अव्चहिए परीसहोवसग्गेहिं बाहिअसुकिरिआनाएणं । से जहा नामए केइ महावाहि गहिए अणुहूत वेअणे, विष्णाया सरूवेण, निव्विण्णे तत्तओ, सुविज्जवयणेण सम्म Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमवगच्छिअ जहाविहाणओपवण्णे सुकिरिअं, निरुद्धजहिच्छाचारे, तुच्छपत्थभोई, मुञ्चमाणे वाहिणा, निअत्तमाणवेअणे समुवलन्भारोग्गं पवड्ढमाणतब्भावे तल्लाभनिव्वुईर तप्पडिबंघाओ सिराखाराइजोगेवि वाहिसमारुग्गविण्णाणेण इट्ठनिप्फत्तीओ अणाकुलभावयाए किरिओवओगेण अपीडिए अवहिए सुहलेस्साए वड्ढइ, विज्जं च बहु मण्णइ ।। एवं कम्मवाहिगहिए अणुभूअजम्माइवेअणे, विण्णाया दुक्खरूवेणं, निविण्णे तत्तओ, तओ सुगुरुवयणेण अणुट्ठाणाइणा तमवगच्छिअ पुवुत्तविहाणओ पवन्ने सुकिरिअं पव्वज्ज; निरुद्धपमायायारे असारसुद्धभोई, मुच्चमाणे कम्मवाहिणा, निअत्तमाणिट्ठविओगाइवेअणे, समुवलभ चरणारोग्गं, पवढमाणसुहभावे, तल्लाभनिव्वुईए तप्पडिवंधविसेसओ परीसहोवसग्गभावेवि तत्तसंवेअणाओ कुसलासयवुड्ढीथिरासयत्तेण धम्मोवओगाओ, सया थिमिए तेउल्लेसाए पवड्ढइ, गुरुं च बहु मन्नइ जहोचिरं असंगपडिवत्तीए, निसग्गपवित्तिभावेण । __ एसा गुरुई विआहिआ भावसारा, विसेसओ भगवंतबहुमाणेणं, 'ओ में पडिमन्नइ से गुरुं'ति तदाणा। अन्नहा किरिआ अकिरिआ, कुलडानारीकिरिआसमा, गरहिआ तत्तवेईणं, अफलजोगओ। विसण्णतत्तीफलमित्थ नायं, आवट्टे खु तप्फलं असुहाणुबंधे। ___ आयओ गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण, अओ परमगुरुसंजोगो, तओ सिद्धी असंसयं । एसेह सुहोदए पगिट्टतयणुबंधे भववाहितेगिच्छी । न इओ सुंदरं परं। उवमा इत्थ न विजई । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ स एवंपण्णे, एवंभावे, एवंपरिणामे, अप्पडिबडिए, वड्ढमाणे तेउल्लेसाए, दुवालसमासिएणं परिआएणं अइक्कमइ सव्वदेवतेउल्लेसं;-एवमाह महामुणी। तओ सुक्के सुक्काभिजाई भवइ, पायं छिण्णकम्माणुबंधे, खवइ लोगसण्णं, पडिसोअगामी, अणुसोअनिवित्ते । सया मुहजोगे एस जोगी विआहिए। एस आराहगे सामण्णस्स, जहा गहिअपइण्णे सयोवहासुध्धे संधइ सुद्धगं भवं सम्मं अभवसाहगं भोगकिरियासुरूवाइकप्पं । तओ ता संपुण्णा पाउणइ अविगलहेउभावओ असंकिलिट्ठसुहरूवाओ अपरोवताविणो सुंदरा अणुबंधेणं । न य अण्णा संपुण्णा; तत्तत्तखंडणेणं । एअं नाणंति वुच्चइ । एअंमि सुहजोगसिद्धी । उचिअपडिवत्तिपहाणा इत्थ भावो पवत्तगो। पायं विग्धो न विजइ निरणुबंधासुहकम्मभावेण । अक्खित्ताओ इमे जोगा भावाराहणाओ। तहा तओ सम्म पवत्तइ, निप्फायइ अणाउले । एवं किरिआ सुकिरिआ, एगंतनिकलंका निकलंकत्थसाहिआ, तहा सुहाणुबंधा उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए । तओ से साहइ परं परत्थं सम्मं । तकुसले सया तेहिं तेहि पगारेहिं साणुबंधं महोदए बीजबीजादिट्ठावणेणं, कत्तिविरिआइजुत्ते अवंझसुहचिट्ठ समंतभद्दे सुप्पणिहाणाइहेऊ मोहतिमिरदीवे रागामयविज्जे दोसानलजलनिही संवेगसिद्धिकरे हवइ अचितचिंतामणिकप्पे । स एवं परंपरत्थसाहए तहा करुणाइभावओ, अणेगेहिं भवेहिं विमुञ्चमाणे पात्रकम्मुणा, परड्ढमाणे अ सुहभावेहिं अणेगभविआए आराहणाए पाउणइ सव्वुत्तमं भवं चरमं अचरमभवहेउ अविगलपरंपरत्थनिमित्तं । तत्थ काऊण निरवसेसं किच्च विहूअरयमले सिज्ज्ञइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्यदुक्खाणमंतं करेइ ॥ इति पव्वजापरिपालणासुत्तं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. अथ पयज्जा फल-सुत्तं स एवमभिसिद्धे परमबंभे मंगलालए जम्मजरामरणरहिए पहीणासुहे अणुबंधसत्तिवन्जिए संपत्तनिअसरूवे अकिरिए सहावसंहिए अणंतनाणे अणंतदंसणे। से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे । अरूपी सता अणित्थंत्यसंट्ठाणा, अणंतविरिआ, कपकिचा, सम्बाबाहविधजिमा, सञ्चहा निरविक्खा, थिमिआ, पसंता । असंजोगिए एसाणंदे, अओ चेव परे मए । __ अविश्वा अणाणंदे । संजोगो विओगकारणं । अफलं फलमेआओ। विणिवायपरं खु तं, बहुमयं मोहाओ अबुहाणं, जमित्तो विवजओ, तओ अणत्था अपज्जवसिआ। एस भावरिऊ परे अओ वुत्ते उ भगवया । नागासेण जोगो एअस्स, से सरूवसंहिए। नागासमण्णत्थ । न सत्ता सदंतरमुवेइ। अचिंतमेअं केवलिगम्मं तत्तं, निच्छयमयमेअं। विजोगवं च जोगोत्ति न एस जोगो। भिण्णं लक्खणमेअस्स । न इत्थाविक्खा । सहावो खु एसो अणंतसुइसहावकप्पो । उवमा इत्थ न विजइ । तब्भावे अगुभावो परं तस्सेव । आणा एसा जिणाणं सवण्णूणं अवितहा एगंतभो, न वितहत्ते निमित्तं, न चानिमित्तं कज्जति । निदसणमित्तं तु नवरं, सव्वसत्तुक्खए सव्ववाहिविगमे सबसंजोगेणं सव्विच्छासंपत्तीए जारिसमेयं, इत्तोणंतगुणं । तं तु भावसत्तुक्खयादितो । रागादओ भावसत्तू , कम्मोदया वाहिणो, परमलद्धीओ उ अट्ठा, अणिच्छेच्छा इच्छा । एवं सुहुममेकं न तत्तओ इयरेण गम्मइ, जइसुहं व अजइणा, आरुग्गसुहं व रोगिणत्ति विभासा। अचिंतमेकं सरूवेणं; साइअपजवसि एग Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धाविक्खाए, पवाहओ अणाई। ते वि भगवंतो एवं, तहाभव्यत्ताइभावओ। विचित्तमेअंतहाफलभेएण । नाविचित्ते सहकारिभेओ, तदविक्खो तओत्ति । अणेगंतवाओ तत्तवाओ। स खलु एवं, इहरहेगंतो, मिच्छत्तमेसो, न इतो ववत्था, अणारिहमेअं। संसारिणो उ सिद्धत्तं, नावद्धस्स मुत्ती, सहत्थरहिआ, अणाइमं वंयो पबाहेणं अईअकालतुल्लो, अबद्धबंधणे वा मुत्ती पुणो बंधपसंगओ. अविसेसो अबद्धमुक्काणं । अणाइजोगे वि विओगो कंचणोवलनाएणं । न दिदिक्खा अकरणस्स, न यादिट्ठमि एसा, न सहजाए निवित्ती, न निवित्तीए आयट्ठाणं, न यण्णहा तस्सेसा, न भव्यत्ततुल्ला नाएणं, न केवलजीवरूवमेअं, न भाविजोगाविक्खाए तुल्लत्तं, तया केवलत्तेण सयाऽविसेसओ, तहा सहावकापणमप्पमाणमेव । एसेव दोसो परिकप्पिआए, परिणामभेआ बंधाइभेऊ त्ति साहू; सव्वनयविसुद्धिए निरुवचरिओभयभावेणं । न अपभूअं कम्मं । न परिकप्पिअमेअं। न एवं भवादिभेओ, न भवाभावो उ सिद्धी, न तदुच्छेदेऽणुप्पाओ, न एवं समंजसत्तं, नाणाइमंतभवो, न हे उफलभावो। तस्स तहा सहावकापणमजुत्तं निराहारऽन्नयकओ निओगेणं । तस्सेव तहाभावे जुत्तमेअं । सुहुममट्ठपयमेअं । विचिन्तिअव्वं महापण्णाएत्ति । अपज्जवसिअमेव सिद्धसुक्खं । इत्तो चेवुत्तमं इम, सव्वहा अणुस्सुगत्तेऽणंतभावाओ। लोगंतसिध्धिवासिणो एए । जत्य य एगो तत्थ निमा अणंता । अकम्मुणा गई पुवपओगेण अलाउप्पभिइनायो । निअमो अओ चेव अफुसमाणगईए गमणं। उक्करिसविसेसओ इथे। ___ अन्वुच्छेओ भव्याण अणंतभावेण । अमणंताणतयं, समया इत्थ नायं । भव्यत्तं जोगयामित्तमेव केसिचि पडिमाजुग्गदानिदं. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणेणं । ववहारमयमेरं । एसोऽवि तत्तंगं, पवित्तिविसोहणेण, अणेगंतसिध्धीओ, निच्छयंगभावेण, परिसुद्धो उ केवलं । एसा आणा इह भगवओ समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धीए अपुणबंधगा इगम्मा । एअप्पिअत्तं खलु इत्थ लिंगं ओचित्तपवित्तिविन्ने संवेगसाहगं निमा। न एसा अन्नेसिं देआ । लिंगविवज्जयाओ तप्परिणा। तयणुग्गहट्ठयाए आमकुंभोदगनासनाएणं । एसा करुणत्ति वुच्चइ, एगंतपरिसुध्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहु माणेणं निस्सेअससाहिगत्ति ।। इति पव्वज्जाफलसुत्तं ॥ ५॥ समाप्तमिदं पञ्चसूत्रं चिरन्तनाचार्यविरचितम् । न्यायविशा० महोपा० श्रीयशोविजयविरचिताऽध्यात्मोपनिषत् ॥ऐन्द्रवृन्दनतं नत्वा वीतरागं स्वयम्भुवम् । अध्यात्मोपनिपन्नामा ग्रन्थोऽस्माभिर्विधीयते ॥ १ ॥ आत्मानमधिकृत्य स्याद्यः पश्चाचारचारिमा । शब्दयोगार्थनिपुणास्तदध्यात्म प्रचक्षते ॥ २ ॥ रूव्यथेनिपुणास्त्वाहुश्चित्तं मैत्र्यादिवासितम् । अध्यात्म निर्मलं बाह्यव्यवहारोपबंहितम् ॥ ३ ॥ एवम्भूतनये ज्ञेयः प्रथमोऽर्थोऽत्र कोविदैः । यथायथं द्वितीयोऽर्थो व्यवहार सूत्रयोः ॥ ४ ॥ गलनयकृतभ्रान्तियः स्याद्विश्रान्तिसम्मुखः । स्याद्वादविशदालोकः स एवाध्यात्मभाजनम् ॥ ५ ॥ मनोवत्सो युक्तिगवीं मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमनःकपिः ॥६॥ अनर्थायैव नार्थाय जातिप्रायाश्च युक्तयः । हस्ती हन्तीति वचने प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत् ॥ ७॥ ज्ञायेरन हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥ ८ ॥ आगमश्वोपपत्तिश्च सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥९॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरा केवलज्ञानं छद्मस्थाः खल्वचक्षुषः । हस्तस्पर्शसमं शास्त्रज्ञानं तद्वयवहारकृत् ॥ १० ॥ शुध्धोछाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् । भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिषेधनम् ॥११॥ शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधैः शास्त्र निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य तञ्च नान्यस्य कस्यचित् ।।१२।। वीतरागोऽनृतं नैव ब्रयात्तद्धत्वभावतः। यस्तद्वाक्येष्वनाश्वासस्तन्महामोहनम्भितम् ॥ १३ ।। शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्नियमात् सर्वसिद्धयः ॥१४॥ एनं केचित् समापत्तिं वदन्त्यन्ये ध्रुवं पदम । प्रशान्तवाहितामन्ये विसभागक्षयं परे ॥१५|| चर्भचक्षुभृतः सर्वे देवाचावधिचक्षुषः। सर्वतश्चक्षुषः सिद्धा योगिनः शास्त्रचक्षुषः ॥१६॥ परीक्षन्त कषच्छेदतापैः स्वर्ण यथा जनाः। शारोऽपि वर्णिकाशुद्धि परीक्षन्तां तथा बुधाः ॥१७॥ विधयः प्रतिषेधाश्च भूयांसो यत्र वर्णिताः । एकाधिकारा दृश्यन्ते कषशुधि वदन्ति ताम् ।। १८ ।। सिध्धान्तेषु यथा ध्यानाध्ययनादिविधिवजाः । हिंसादीनां निषेधाश्च भूयांसो मोक्षगोचराः ॥ १९ ॥ अर्थकामविमिश्रं यद्यच्च क्लृप्तकथाविलम् । आनुषङ्गिकमोक्षार्थं यन्न तत् कषशुध्धिमत् ॥ २० ॥ विधीनां च निषेधानां योगक्षेमकरी क्रिया । वर्ण्यते यत्र सर्वत्र तच्छास्त्र छेदशुद्धिमत् ॥२१॥ कायिकाद्यपि कुर्वीत गुप्तश्च समितो मुनिः । कृत्ये ज्यायसि किं वाच्यमित्युक्त समये यथा ॥ २२ ॥ अन्यार्थ किश्चिदुत्सृष्टं यत्रान्यार्थमपोह्यते । दुविधिप्रतिषेधं तन्न शास्त्र छेदशुद्धिमत् ॥ २३ ॥ निषिद्धस्य विधानेऽपि हिंसादेभूतिकामिभिः ॥ दाहस्येव न सद्वैद्यैर्याति प्रकृतिदुष्टता ॥ २४ ॥ हिंसा भावकृतो दोषो दाहस्तु न तथेति चेत् । भूत्यर्थं तद्विधानेऽपि भावदोषः कथं गतः ॥ २५ ॥ वेदोक्तत्वान्मनःशुद्धया कर्मयज्ञोऽपि योगिनः । ब्रह्मयज्ञ इतीच्छन्तः श्येनयागं त्यजन्ति किम् ॥ २६ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ वेदान्तविधिशेषत्वमतः कर्मविधेर्हितम् । भिन्नात्मदर्शकाः शेषा वेदान्ता एव कर्मणः ।। २७ ।। कर्मणां निरवद्यानां चित्तशोधकतां परम् । साङ्ख्याचार्या अपीच्छन्तीत्यास्तामेषोऽत्र विस्तरः || २० || यत्र सर्वनयालम्बिविचारप्रवाग्निना । तात्पर्यश्यामिका न स्यात्तच्छात्र तापशुध्धिमत् ॥ २९ ॥ यथाह सोमिलप्रश्ने जिनः स्याद्वाद सिद्धये । द्रव्यार्थादहमेकोऽस्मि दृग्ज्ञानार्थादुभावपि ॥ ३० ॥ अक्षयश्चाव्ययश्चास्मि प्रदेशार्थविचारतः । अनेकभूतभावात्मा पर्यायार्थे परिग्रहात् ||३१|| द्वयोरेकत्वबुद्धयापि यथा द्वित्वं न गच्छति । नयैकान्तधिय - "येवमनेकान्तो न गच्छति ||३२|| सामग्र्येण न मानं स्याद् द्वयोरेकत्त्रधर्यथा । तथा वस्तुनि वस्त्वंशबुद्धिर्ज्ञेया नयात्मिका ॥३३॥ एकदेशेन चैकत्वधीर्द्वयोः स्याद्यथा प्रमा । तथा वस्तुनि वस्त्वंश - द्विज्ञेया नयात्मिका ||३४|| इत्थं च संशयत्वं यन्नयानां भाषते परः । तदपास्तं विलंबानां प्रत्येकं न नयेषु यत् ||३५|| सामग्र्येण द्वयाऽप्यविरोधे समुच्चयः । विरोधे दुर्नयत्राताः स्वशस्त्रेण स्वयं हुताः ||३६|| कथं विप्रतिषिद्वानां न विरोधः समुच्चये । अपेक्षाभेदतो हन्त चैव विप्रतिषिद्धता ||३७|| भिन्नापेक्षा यथैकत्र पितृपुत्रादिकल्पना । नित्यानित्याद्यनेकान्तस्तथैव न विरोत्स्यते ||३८|| व्यापके सत्यनेकान्ते स्वरूपपररूपयोः । आनेकान्त्यान्न कुत्रापि निर्णीतिरिति चेन्मतिः ||३९|| अव्याप्यवृत्तिधर्माणां यथावच्छेदकाश्रया । नापि ततः परावृत्तिस्तत् किं नात्र तथेक्ष्यते ॥ ४० ॥ आनैगमान्त्यभेदं तत्परावृत्तावपि स्फुटम् । अभिप्रेताश्रयेणैव निर्णयो व्यवहारकः ||४१ || अनेकान्ते ऽप्यनेकान्तादनिष्ठैत्रमपाकृता । नयसूमेक्षिका प्रान्ते विश्रान्तेः सुलभत्वतः || ४२ || आत्माश्रयादयोऽप्यत्र सावकाशा न कर्हिचित् । ते हि प्रमाणसिद्धार्थात् प्रकृत्यैव पराङ्मुखाः ||४३|| उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपि कः ॥ ४४ ॥ इच्छन् प्रधानं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वाद्येविरुद्धैगुम्फितं गुणैः । साङ्घयः सङ्ख्थावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४५॥ विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४६॥ चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥४७॥ प्रत्यक्षं मितिमात्रंशे मेयांशे तद्विलक्षणम् । गुरुर्ज्ञानं वदन्नेक नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४८॥ जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् । भट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। ४९ ।। अबद्ध परमार्थेन बद्ध च व्यवहारतः । वाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥५०॥ ब्रवाणा भिन्नभिन्नार्थान्नयभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् ॥५१॥ विमतिः सम्मतिर्वापि चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी ॥५२॥ तेनानेकान्तसूत्रं यद्यद्वा सूत्रं नयात्मकम् । तदेव तापशुद्ध स्यान्न तु दुर्नयसंज्ञितम् ॥५३॥ नित्यै कान्ते न हिंसादि तत्पर्यायापरिक्षयात् । मनःसंयोगनाशादौ व्यापारानुपलम्भतः ॥ ५४ ॥ बुद्धिलेपोऽपि को नित्यनिर्लेपात्मव्यवस्थितौ । सामानाधिकरण्येन बन्धमोक्षौ हि सङ्गतौ ॥ ५५ ॥ अनित्यैकान्तपक्षेऽपि हिंसादिकमसङ्गतम् । स्वतो विनाशशीलानां क्षणानां नाशकोऽस्तु कः ॥५६॥ आनन्तयें क्षणानां तु न हिंसादिनियामकम् । विशेषादर्शनात्तस्य बुद्धलुब्धकयोमिथः ।।५७॥ सङ्क्लेशेन विशेषश्चेदानन्तर्यमपार्थकम् । न हि तेनापि सक्लिष्टमध्ये भेदो विधीयते ।।५८॥ मनोवाकाययोगानां भेदादेवं क्रियाभिदा । समग्रैव विशीर्येतेत्येतदन्यत्र चर्चितम् ॥ ५९ ॥ नित्यानित्याद्यनेकान्तशास्त्र तस्माद्विशिष्यते । तदृष्ठयैव हि माध्यस्थ्यं गरिष्ठमुपपद्यते ॥६०॥ यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य क न्यूनाधिकशेमुषी ॥६१।। स्वतन्त्रास्तु नयास्तस्य नांशाः किं तु प्रकल्पिताः । रागद्वेषौ कथं तस्य दूषणेऽपि च भूषणे ॥६२॥ अर्थे महेन्द्रजालस्य दूषितेऽपि च Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूपिते । यथा जनानां माध्यस्थ्यं दुर्नयार्थे तथा मुनेः ॥ ६३ ॥ दूषयेदज्ञ एवोच्चैः स्याद्वादं न तु पण्डितः । अज्ञप्रलापे सुज्ञानां न द्वेषः करुणैव तु ॥६४॥ त्रिविधं ज्ञानमाख्यातं श्रुतं चिन्ता च भावना । आद्यं कोष्ठगबीजाभं वाक्यार्थविषयं मतम् ॥६५|| महावाक्यार्थजं यत्त सूक्ष्मयुक्तिशतान्वितम् । तद्वितीयं जले तैलबिन्दुरीत्या प्रसृत्वरम् ॥६६।। ऐदम्पर्यगतं यच्च विध्यादौ यत्नपच्च यत् । तृतीयं तद्विशुध्वोच्चजात्यरत्नविभानिभम् ॥६०॥ आधे ज्ञाने मनाक् पुंसस्तद्रागादर्शनग्रहः । द्वितीये न भवत्येप चिन्तायोगात्कदाचन ॥६॥ चारिसञ्जीविनीचारकारकज्ञाततोऽन्तिमे । सर्वत्रैव हिता वृत्तिर्गाम्भीर्यात्तत्त्वदर्शिनः ॥६९॥ तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोद्देशावि(द्वि?)शेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥७०॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिध्यति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् ॥७१।। पुत्रदारादिसंसारो धनिनां मूढचेतसाम् । पण्डितानां तु संसार: शास्त्रमध्यात्मवजितम् ।।७२॥ माध्यस्थ्यसहितं लेकपदज्ञानभपि प्रमा । शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्त महात्मना ॥७३॥ 1 वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद्गतौ ॥ ७४ ॥ इति यतिवदनात्पदानि बुवा प्रशमविवेचनसंवराभिधानि । प्रदलितदुरितः क्षणाच्चिलातितनय इह त्रिदशालयं जगाम ॥७५|| नचानेकान्तार्थावगमरहितस्यास्य फलितम् , कथं माध्यस्थ्येन स्फुटमिति विधेयं भ्रमपदम् । समाधेरव्यक्ताद्यदभिदधति व्यक्तसदृशम् , फलं योगाचार्या ध्रुधमभिनिवेशे विगलिते ॥ ७६ ॥ विशेपादोघाद्वा सपदि तदनेकान्तसमये, समुन्मीलद्भक्तिर्भवति य इहा. ध्यात्मविशदः । भृशं धीरोदात्तप्रियतमगुणोजागररुचिर्यशःश्रीस्तस्थाइ त्यजति न कदापि प्रणयिनी ॥७७।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्रीपण्डितनयविजयगणिशिष्यपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे शास्त्रयोग ___ शुध्धिनामा प्रथमोऽधिकारः समाप्तः ॥ १॥ ॥ दिशा दर्शितया शास्त्रैर्गच्छन्नच्छमतिः पथि । ज्ञानयोगं प्रयुञ्जीत तद्विशेपोपलव्धये ॥ १॥ योगजाहणुजनितः स तु प्रातिभसंज्ञितः । सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवलश्रुतयोः पृथक् ।।२।। पदमात्रं हि नान्वेति शास्त्र दिग्दर्शनोत्तरम । ज्ञानयोगो मुनेः पावमाकैवल्यं न मुञ्चति ।। ३ ॥ तत्त्वतो ब्रह्मणः शास्त्र लक्षक न तु दर्शकम् । न चाहणात्मतत्त्वस्य दृष्टभ्रान्तिनिवतेते ॥४॥ तेनात्मदर्शनाकाझी ज्ञानेनान्तमखो भवेत् । द्रष्टुगात्मता मुक्तिदृश्यैकात्म्यं भवभ्रमः ॥ ५ ॥ आत्मज्ञाने मुनिर्मग्नः सर्व पुद्गलविभ्रमम् । महेन्द्रजालबद्वेत्ति नैव तत्रानुरज्यते ॥६॥ आस्वादिता सुमधुरा येन ज्ञानरतिः सुधा। न लगत्येव तच्चतो विपयेपु विषेष्विव ॥७॥ सत्तत्त्वचिन्तया यस्याभिसमन्वागता इमे । आत्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मवान ब्रह्मवांश्च सः ।। ८॥ विपयान साधकः पूर्वमनिष्ठत्वधिया त्यजेत्। न त्यजेन्न च गृहणीयात् सिद्धो विन्द्यात् स तत्त्वतः ॥ ९॥ योगारम्भदशास्थस्य दुःखमन्तर्बहिः सुखम् । सुखमन्तर्बहिर्दःखं सिद्धयोगस्य तु ध्रुवम ॥ १० ॥ प्रकाशशक्त्त्या यद्रूपमात्मनो ज्ञानमुच्यते। सुखं स्वरूपविश्रान्तिशक्त्त्या वाच्यं तदेव तु ॥ ११ ॥ सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम । एतदुक्त समासेन लक्षणं सुखदुःखयो । १२ ।। ज्ञानमग्नस्य यच्छम तद्वक्तं नैव पार्यते । नोपमेयं प्रियाश्लेपैनापि तचन्दनद्रवैः ।।१३।। तेजोलेश्याविवृद्धिर्या पर्यायक्रमवृद्धितः । भापिता भगवत्यादौ सेत्थम्भूतस्य युज्यते ॥१४॥ चिन्मात्रलक्षणेनान्यव्यतिरिक्तत्व Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मनः । प्रतीयते यदश्रान्तं तदेव ज्ञानमुत्तमम् ॥ १५ ॥ शुभोपयोगरूपोऽयं समाधिः सविकल्पकः । शुद्धोपयोगरूपस्तु निर्विकल्पस्तदेकदृक् ॥ १६ ॥ आद्यः सालम्बनो नाम योगोऽनालम्बनः परः। छायाया दर्पणाभावे मुखविश्रान्तिसंनिभः ॥ १७ ॥ यदृश्यं यच निर्वाच्यं मननीयं यद्भुवि । तद्रूपं परसंश्लिष्टं न शुद्धद्रव्यलक्षणम् ॥ १८ ॥ अपदस्य पदं नास्तीत्युपक्रम्यागमे ततः । उपाधिमात्रव्यावृत्त्या प्रोक्त शुद्धात्मलक्षणम् ॥१९॥ यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । इति श्रुतिरपि व्यक्तमेतदर्थानुभाषिणी ॥२०॥ अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना । शास्त्रयुक्तिशतेनापि नैव गम्यं कदाचन ॥ २१ ॥ केषां न कल्पना दर्वी शास्त्रक्षीरानगाहिनी। विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ।। २२ ॥ पश्यतु ब्रह्मनिद्वंद्वं निद्वंद्वानुभवं विना । कथं लिपिमयी दृष्टिः वाङ्मयी वा मनोमयी ॥ २३ ॥ न सुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्पविश्रान्तेस्तुर्यैवानुभवो दशा ॥२४॥ अधिगत्याखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः । स्वसंवेद्यपरं ब्रह्मानुभवैरधिगच्छति ॥२५॥ ये पर्यायेषु निरतास्ते ह्यन्यसमयस्थिताः । आत्मस्वभावनिष्ठानां ध्रुवा स्वसमयस्थितिः ॥ २६ ॥ आवापोद्वापविश्रान्तियत्राशुद्धनयस्य तत् । शुद्धानुभवसंवेद्यस्वरूपं परमात्मनः ॥ २७ ॥ गुणस्थानानि यावन्ति यावन्त्यश्चापि मार्गणाः । तदन्यतरसं लेषो नैवातः परमात्मनः ॥ ३८ ॥ कर्मोपाधिकृतान् भावान् य आत्मन्यध्यवस्यति । तेन स्वाभाविक रूपं न बुद्ध परमात्मनः ॥२९॥ यथा भृत्यैः कृतं युद्ध स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्यविवेकैन कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ॥ ३०॥ मुषितत्वं यथा पान्थगतं पथ्युपचर्यते । तथा व्यवहरत्यज्ञश्चिद्रूपे कर्मविक्रियाम् ॥ ३१ ॥ स्वत एव समायान्ति कर्माण्यारब्धशक्तितः । एकक्षेत्रावगाहेन ज्ञानी तत्र न दोषभाक् ॥३२॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दारुयन्त्रस्थपाञ्चालीनृत्यतुल्याः प्रवृत्तयः । योगिनो नैव बाधायै ज्ञानिनो लोकवर्तिनः ||३३|| प्रारब्धादृष्टजनितात् सामायिकविवेकतः । क्रियापि ज्ञानिनो व्यक्तामौचितीं नातिवर्तते ॥ ३४ ॥ संसारे निवसन् स्वार्थसज्ज : कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोको ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥। ३५ ।। नाहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयिता च न । नानुमन्तापि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ॥ ३६ ॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो न लिप्ये पुद्गलैरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव ध्यायन्निति न लिप्यते ॥ ३७ ॥ लिप्तता ज्ञानसम्पातप्रतिघाताय केवलम् । निर्लेपज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ३८ ॥ तपःश्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसम्पन्नो निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥ ३९ ॥ समलं निर्मलं चेदमिति द्वैतं यदागतम् । अद्वैतं निर्मलं ब्रह्म तदैकमवशिष्यते ॥ ४० ॥ महासामा - न्यरूपेऽस्मिन्मज्जन्ति नयजा भिदाः । समुद्र इव कल्लोलाः पवनोन्माथनिर्मिताः ॥ ४१ ॥ षद्रव्यैकात्म्यसंस्पर्शि सत्सामान्यं हि यद्यपि । परस्यानुपयोगित्वात् स्वविश्रान्तं तथापि तत् ॥ ४२ ॥ नयेन सङ्ग्रहेणैवमृजुसूत्रोपजीविना । सच्चिदानन्दरूपत्वं ब्रह्मणो व्यवतिष्ठते ।। ४३ ।। सत्त्वचित्त्वादिधर्माणां भेदाभेदविचारणे । न चार्थोऽयं विशीर्येत निर्विकल्पप्रसिद्धितः ।। ४४ ।। योगजानुभवारूढे सन्मात्रे निर्विकल्पके । विकल्पौघासहिष्णुत्वं भूषणं न तु दूषणम् ।। ४५ ।। यो ह्याख्यातुमशक्योऽपि प्रत्याख्यातु न शक्यते । प्राज्ञैर्न दूषणीयोऽर्थः स माधुर्यविशेषवत् ॥ ४६ ॥ कुमारी न यथा वेत्ति सुखं दयितभोगजम् । न जानाति तथा लोको योगिनां ज्ञानजं सुखम् ॥ ४७॥ अत्यन्तपक्कबोघाय समाधिर्निर्विकल्पकः । वाच्योऽयं नार्धविज्ञस्य तथा चोक्तं परैरपि ॥ ४८ ॥ आदौ शमदमप्रायैर्गणैः शिष्यं प्रबोधयेत् । पश्चात् सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेत् ।। ४९ ।। अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत् । महानरकजा I Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेषु स तेन विनियोजितः ॥ ५० ॥ तेनादौ शोधयेञ्चित्तं सद्विकल्पव्रतादिभिः । यत्कामादिविकाराणां प्रतिसंख्याननाश्यता ॥५१॥ विकल्परूपा मायेयं विकल्पेनैव नाश्यते । अवस्थान्तरभेदेन तथा चोक्त परैरपि ॥ ५२ ।। अविद्ययैवोत्तमया स्वात्मनाशोद्यमोत्थया । विद्या सम्प्राप्यते राम सर्वदोषापहारिणी ॥५३॥ शाम्यति घस्त्रमस्रोण मलेन क्षाल्यते मलः । शमं विषं विषेणैति रिपुणा हन्यते रिपुः ॥ ६४ ॥ ईदृशी भूतमायेयं या स्वनाशेन हर्षदा । न लक्ष्यते स्वभावोऽस्याः प्रेक्ष्यमाणैव नश्यति ॥ ५५ ॥ व्रतादिः शुभसङ्कल्पो नि श्याशुभवासनाम् । दाह्य विनैव दहनः स्वयमेव विनश्यति ॥ ५६ ॥ इयं नैश्चेयिकी शक्तिर्न प्रवृत्तिर्न वा क्रिया। शुभसङ्कल्पनाशार्थ योगिनामुपयुज्यते ॥५७॥ द्वितीयापूर्वकरणे क्षायोपशमिका गुणाः । क्षमाद्या अपि यास्यन्ति स्थास्यन्ति क्षायिकाः परम् ॥ ५८॥ ___ इत्थं यथावलमनुद्यममुद्यमं च कुर्वन् दशानुगुणमुत्तममान्तरार्थे । चिन्मात्रनिर्भरनिवेशितपक्षपातः, प्रातर्युरत्नमिव दीप्तिमुपैति योगी ॥ ५९॥ अभ्यस्य तु प्रविततं व्यवहारमार्ग, प्रज्ञापनीय इह सद्गुरुवाक्यनिष्ठः। चिदर्पणप्रतिफलत्रिजगद्विवर्ते, वर्तेत किं पुनरसौ सहजान्मरूपे ॥ ६०॥ भवतु किमपि तत्त्वं बाह्यमाभ्यन्तरं वा, हृदि वितरति साम्यं निर्मलश्चिद्विचारः । तदिह निचितपञ्चाचारसञ्चारचारुस्फुरितपरमभावे पक्षपातोऽधिको नः ॥ ६१ ॥ स्फुटमपरमभावे नैगमस्तारतम्यम् . प्रवदतु न तु हृष्येत्तावता ज्ञानयोगी। कलितपरमभावं चिच्चमत्कारसारम्, सकलनयविशुद्ध चित्तमेकं प्रमाणम् ॥ ६२॥ हरिरपरनयानां गर्जितैः कुञ्जराणाम् सहजविपिनसुप्तो निश्चयो नो बिभेति । अपि तु भवति लीलोज्जम्भिजृम्भोन्मुखेऽस्मिन् गलितमदभरास्ते नोच्छ्वसन्त्येव भीता ॥ ६३ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलितविविधबाह्यव्यापकोलाहलौघव्युपरमपरमार्थे भावनापावनानाम् । कचन किमपि शोच्यं-नास्ति नैवास्ति मोच्यं, न च किमपि विधेयं नैव गेयं न देयम् ॥ ६४॥ इति सुपरिणतात्म-ख्यातिचातुर्यकेलिर्भवति यतिपतिर्यश्चिद्भरोद्भासिवीर्यः । हरहिमकरहारस्फारमन्दारगङ्गारजतकलशशुभ्रा स्यात्तदीया यशःश्री ।। ६५ । इति श्रीपण्डितनयविजयगणिशिष्यपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रक- रणे ज्ञानयोगशुद्धिनामा द्वितीयोऽधिकारः समाप्त ॥ २॥ यान्येव साधनान्यादौ गृहणीयाज्ज्ञानसाधकः। सिद्धयोगस्य तान्येव लक्षणानि स्वभावतः ॥१॥ अत एव जगौ यात्रां सत्तपोनियमादिषु । यतनां सोमिलप्रश्ने भगवान् स्वस्य निश्चितम् ॥२॥ अतश्चैव स्थितप्रज्ञभावसाधनलक्षणे । अन्यूनाभ्यधिके प्रोक्त योगदृष्टया परैरपि ॥ ३॥ नाज्ञानिनो विशेष्येत यथेच्छाचरणे पुनः । ज्ञानी स्वलक्षणाभावात्तथा चोक्त परैरपि ॥ ४ ॥ बुद्धाऽद्वैतसतत्त्वस्य यथेच्छाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥५॥ अबुद्धिपूर्विका वृत्तिर्न दुष्टा तत्र यद्यपि । तथापि योगजादृष्टमहिना सा न सम्भवेत् ॥ ६॥ निवृत्तमंशुभाचाराच्छुभाचारप्रवृत्तिमत् । स्याद्वा चित्तमुदासीनं सामायिकवतो मुनेः ॥७॥ विधयश्च निषेधाश्च नत्वज्ञाननियन्त्रिताः । बालस्यैवागमे प्रोक्तो नोहेशः पश्यकस्य यत् ॥ ८ ॥ न च सामर्थ्ययोगस्य युक्त शास्त्र नियामकम् । कल्पातीतस्य मर्यादाप्यस्ति न ज्ञानिनः कचित् ॥ ९॥ भावस्य सिद्ध्यसिद्धिभ्यां यच्चाकिञ्चिकरी क्रिया । ज्ञानमेव क्रियामुक्त राजयोगस्तदिष्यताम् ॥ १० ॥ मैवं नाकेवली पश्यो नापूर्वकरणं विना । धर्मसंन्यासयोगी चेत्य Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ न्यस्य नियता क्रिया ॥ ११ ॥ स्थैर्याधानाय सिद्धस्यासिद्धस्यानयनाय च । भावस्यैव क्रिया शान्तचित्तानामुपयुज्यते ॥१२॥ क्रियाविरहितं हन्त ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ १३ ॥ स्वानुकूलां क्रियां काले ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः स्व(स?)प्रकाशो (शे?)ऽपि तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥ १४ ॥ बाह्यभावं पुरस्कृत्य ये क्रियाव्यवहारतः। वदने कवलक्षेप विना ते तृप्तिकाङ्क्षिणः ॥ १५ ॥ गुणवद्बहुमानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि ॥१६॥ क्षायोपशमिके भावे या क्रिया क्रियते तया । पतितस्यापि तद्भावप्रवृद्धिजर्जायते पुनः ॥ १७ ॥ गुणवृद्धयै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ॥ १८ ॥ अज्ञाननाशकत्वेन ननु ज्ञानं विशिष्यते । न हि रज्जावहिभ्रान्तिर्गमने न निवर्तते ॥ १९ ॥ सत्यं क्रियागमप्रोक्ता ज्ञानिनोऽप्युपयुज्यते । सञ्चितादृष्टनाशार्थ नासूरोऽपि यदभ्यधात् ॥ २० ॥ तण्डुलस्य यथा वर्म यथा ताम्रस्य कालिका । नश्यति क्रियया पुत्र पुरुषस्य तथा मलम् ।। २१ ॥ जीवस्य तण्डुलस्येव मलं सहजमप्यलम् । नश्यत्येव न सन्देहस्तस्मादुद्यमवान् भव ॥ २२ ।। अविद्या च दिदृक्षा च भवबीजं च वासना । सहजं च मलं चेति पर्यायाः कर्मणः स्मृताः॥२३॥ ज्ञानिनो नास्त्यष्टं चेद्भस्मसात्कृतकर्मणः। शरीरपातः किं न स्याज्जीवनादृष्टनाशतः ।। २४ ॥ शरीरमीश्वरस्येव विदुषोऽप्यवतिष्ठते । अन्यादृष्टवशनेति कश्चिदाह तदक्षमम् ॥२५।। शरीरं विदुषः शिष्याद्यदृष्टाद्यदि तिष्ठति । तदाऽसुहृद्दृष्टेन न नश्येदिति का प्रमा ॥ २६ ॥ न चोपादाननाशेऽपि क्षणं कार्य यथेष्यते । तार्किकैः स्थितिमत्तद्वच्चिरं विद्वत्तनुस्थितिः ॥ २७ ॥ निरुपादानकार्यस्य क्षणं यत्तार्किकैः स्थिति । नाशहेत्वन्तराभावादिष्टा न च स दुर्वचः ॥२८॥ अन्यादृष्टस्य तत्पातप्रतिबन्धकतां नयेत । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्रियमाणोऽपि जीव्येत शिष्यादृष्टवशागुरुः ॥ २९ ॥ स्वभावान्निरुपादानं यदि विद्वत्तनुस्थितिः । तथापि कालनियमे तत्र युक्तिन विद्यते ॥ ३० ॥ उच्छृङ्खलस्य तच्चिन्त्यं मतं वेदान्तिनो ह्यदः । प्रारब्धादृष्टतः किं तु ज्ञेया विद्वत्तनुस्थितिः ॥ ३१ । तत्प्रारब्धेतरादृष्टं ज्ञाननाश्यं यदीष्यते। लाधवेन विजातीयं तन्नाश्यं तत्प्रकलप्यताम् ॥ ३२ ॥ इत्थं च ज्ञानिनो ज्ञाननाश्यकर्मक्षये सति । क्रियैकनाश्यकौघक्षयार्थ सापि युज्यते ॥ ३३ ॥ सर्वकर्मक्षये ज्ञानकर्मणोस्तत्समुच्चयः । अन्योऽन्यप्रतिबन्धेन तथा चोक्त परैरपि ॥ ३४ ॥ न यावत्सममभ्यस्तौ ज्ञानसत्पुरुषक्रमौ । एकोऽपि मैतयोस्तावत्पुरुषस्येह सिध्यति ॥ ३५ ॥ यथा छाद्मस्थिके ज्ञानकर्मणी सहक(ग?)त्वरे। क्षायिके अपि विज्ञेये तथैव मतिशालिभिः ॥ ३६ ॥ सम्प्राप्तकेवलज्ञाना अपि यजिनपुङ्गवाः । क्रियां योगनिरोधाख्यां कृत्वा सिध्यन्ति नान्यथा ॥ ३७ ॥ तेन ये क्रियया मुक्ता ज्ञानमात्राभिमानिनः । ते भ्रष्टा ज्ञानकर्मभ्यां नास्तिका नात्र संशयः ॥ ३८ ॥ ज्ञानोत्पत्तिं समुद्भाव्य कामादीनन्यदृष्टितः । अपहुवानैलॊकेभ्यो नास्तिकैर्वश्चितं जगत् ।।३९ ॥ ज्ञानस्य परिपाकाद्धि क्रियाऽसङ्गत्वमङ्गति । न तु प्रयाति पार्थक्यं चन्दनादिव सौरभम् ॥ ४० ॥ प्रीतिभक्तिवचोऽसंगैरनुष्ठानं चतुर्विधम् । यत्पर्योगिभिगीतं तदित्थं युज्यतेऽखिलम् ॥ ४१ ॥ ज्ञाने चैव क्रियायां च युगपद्विहितादरः । द्रव्यभावविशुद्धः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥४२॥ क्रियाज्ञानसंयोगविश्रान्तचित्ताः समुद्भूतनिर्बाधचारित्रवृत्ताः । नयोन्मेषनिर्णीतनिःशेषभावास्तपःशक्तिलब्धप्रसिद्धप्रभावाः ॥ ४३ ॥ भयक्रोधमायामदाज्ञाननिद्राप्रमादोज्झिताः शुद्धमुद्रा मुनीन्द्राः । यशःश्रीसमालिङ्गिता वादिदन्तिस्मयोच्छेदहर्यक्षतुल्या जयन्ति ॥४४॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति पण्डितश्रीनयविजयगणिशिष्यपण्डितश्रोपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे क्रियायोगशुद्धिनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ॥३॥ ॥ ज्ञानक्रियाश्वद्वययुक्तसाम्य-रथाधिरूढः शिवमार्गगामी । न ग्रामपू:कण्टकजारतीनां जनोऽनुपानत्क इवातिमेति ॥१॥ आत्मप्रवृत्तावतिजागरूकः परप्रवृत्तौ बधिरान्धमूकः । सदा चिदानन्दपदोपयोगी लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी ॥२॥ परीषहैश्च प्रबलोपसर्गयोगाञ्चलत्येव न साम्ययुक्तः । स्थैर्याद्विपर्यासमुपैति जातु क्षमा न शैलैर्न च सिन्धुनाथैः ॥ ३ ॥ इतस्ततो नारतिवह्रियोगादुड्डीय गच्छेद्यदि चित्तसूतः । साम्यैकसिद्धौषधमूच्छितः सन् कल्याणसिद्धेन तदा विलम्बः ॥ ४ ॥ अन्तर्निमग्नः समतासुखाब्धी बाह्ये सुखे नो रतिमेति योगी । अटत्यटव्यां क इवार्थलुब्धो गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे ॥ ५ ॥ यस्मिन्नविद्यार्पितबाह्यवस्तुविस्तारजभ्रान्तिरुपैति शान्तिम् । तस्मिंश्चिदेकार्णवनिस्तरङ्गस्वभावसाम्ये रमते सुबुद्धिः ॥ ६ ॥ शुद्धात्मतत्त्वप्रगुणा विमर्शा स्पर्शाख्यसंवेदनमादधानाः । यदान्यबुद्धिं विनिवर्तयन्ति तदा समत्वं प्रथतेऽवशिष्टम् ॥ ७ ॥ विना समत्वं प्रसरन्ममत्वं सामायिकं मायिकमेव मन्ये । आये समानां सति सद्गुणानां शुद्ध, हि तच्छुद्धनया विदन्ति ॥ ८ ॥ निशानभोमन्दिररत्नदीप्रज्योतिर्मिरुद्दयोतितपूर्वमन्तः । विद्योतते तत्परमात्मतत्त्वं प्रसृत्वरे साम्यमणिप्रकाशे ।।९।। एकां विवेकाङ्कुरितां श्रिता यां निर्वाणमापुर्भरतादिभूपाः। सैवर्जुमार्गः समता मुनीनामन्यस्तु तस्या निखिल: प्रपञ्चः ॥ १० ॥ अल्पेऽपि साधुन कषायवगावह्नाय विश्वासमुपैति भीतः । प्रवर्धमानः स दहेद्गणौघं साम्याम्बुपूरैर्यदि नापनीतः ॥ ११॥ प्रारब्धजा ज्ञानवतां Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कषाया आभासिका इत्यभिमानमात्रम् । नाशो हि भावः प्रतिस ङ्ख्यया यो नाबोधवत्साम्यरतौस तिष्ठेत् ॥ १२ ॥ साम्यं विना यस्य तपःक्रियादेर्निष्ठा प्रतिष्ठार्जनमात्र एव ॥ स्वर्धेनुचिन्तामणिकामकुम्भान् करोत्यसौ काणकपर्दमूल्यान् ॥ १३ ॥ ज्ञानी क्रियावान् विरतस्तपस्वी ध्यानी च मौनी स्थिरदर्शनश्च । साधुर्गणं तं लभते न जातु, प्राप्नोति यं साम्यसमाधिनिष्ठः ॥ १४ ॥ दुर्योधनेना. भिहतश्चकोप न पाण्डवैर्यो न नुतो जहर्ष । स्तुमो भदन्तं दमदन्तमन्तःसमत्ववन्तं मुनिसत्तमं तम् ॥ १५ ॥ यो दह्यमानां मिथिलां निरीक्ष्य शक्रेण नुन्नोऽपि नमिः पुरी स्वाम् । न मेऽत्र किञ्चिज्ज्वलतीति मेने साम्येन तेनोरुयशो वितेने ॥ ९६ ॥ साम्यप्रसादास्तवपुर्ममत्वाः सत्त्वाधिकाः स्वं ध्रुवमेव मत्वा । न सेहिरेऽत्ति किमु तीव्रयन्त्रनिष्पीडिताः स्कन्धकसूरिशिष्याः ॥ १७ ।। लोकोत्तरं चारुचरित्रमेतन्मतार्यसाधोः समतासमाधेः । हृदाप्यकुप्यन्न यदाचमबद्धेऽपि मूर्धन्ययमाप तापम् ॥ १८ ॥ जज्बाल नान्तश्च सुराधमेन प्रोज्ज्वालितेऽपि ज्वलनेन मौलौ । मौलिमनीनां स न कैर्निषेव्यः कृष्णानुजन्मा समताऽमृताब्धिः ॥ १९ ॥ गङ्गाजले यो न जहौ सुरण विद्धोऽपि शूले समतानुवेधम् । प्रयागतीर्थोदयकृन्मुनीनां मान्यः स सूरिस्तनुजोऽनिकायाः ॥ २० ॥ स्त्रीभ्रूणगोब्राह्मणघातजातपापादधःपातकृताभिमुख्याः । दृढप्रहारिप्रमुखाः क्षणेन साम्यावलम्बात्पदमुच्चमापुः ॥ २१ ॥ अप्राप्तधर्माऽपि पुराऽऽदिमाहन्माता शिवं यद्भगवत्यवाप । नाप्नोति पारं वचसोऽनुपाधिसमाधिसाम्यस्य विजृम्भितं तत् ॥ २२ ॥ इति शुभमतिर्मत्या साम्यप्रभावमनुत्तरं य इह निरतो नित्यानन्दः कदापि न खिद्यते । विगलदखिलाविद्यः पूर्णस्वभावसमृद्धिमान , स खलु लभते भावारीणां जयेन यशःश्रियम् ॥२३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ इति पण्डितश्रीनयविजयगणिशिष्यपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे साम्ययोगशुद्धिनामा चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः ॥ ४ ॥ ॥ समाप्तमिदं यशः श्रयङ्कमध्यात्मोपनिषत्प्रकरणम् ॥ ॥ श्रीमन्त्राधिराजगभिंतश्रीगौतमस्वामिस्तवनम् ॥ नमोऽस्तु श्री ही धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मीविलासैकनिकेतनाय । श्री वीरपट्टाम्बरभास्कराय लोकोत्तमाय प्रभुगौतमाय ॥ १ ॥ ॐकारमक्षीणमहानसानां श्रीमन्तमुज्जृम्भतपः प्रभावैः । ह्रींमन्तमात्मानुगवन्दनेनाऽर्हन्तं नमस्यामि तमिन्द्रभूतिम् ॥ २ ॥ उन्निद्रसौवर्णसइस्रपत्रगर्भस्थ सिंहासनसंनिषण्णम् । दिव्यातपत्रं परिवीज्यमानं सचामरैश्वाऽमरराजसेव्यम् ॥ ३ ॥ कल्पद्रुचिन्तामणिकामधेनुसमाननामानममानशक्तिम् । अनेकलोकोत्तरलब्धिसिद्ध श्रीगौतमं धन्यतमाः स्मरन्ति ॥ ४ ॥ एकै षड्दर्शन कनीनिका पुराणवेदागमजन्मभूमिका । आनन्दचित्रह्ममयी सरस्वती सदेन्द्रभूतेश्वरणोपसेविनी ॥ ५ ॥ सदा चतुष्षष्टिसुरेन्द्रमानसव्यामोहिनी पद्महृदाधिवासिनी । सर्वाङ्गशृङ्गारतर - ङ्गितद्युतिः श्रीगौतमं श्रीरपि वन्दते त्रिधा || ६ || जयाजयन्ती - विजयापराजितानन्दा सुभद्राप्रमुखः सुरीजनः । प्रतिक्षणोज्जागरभूरिविभ्रमः श्रीगौतमं गायति गाढगौरवः ॥ ७ ॥ मानुषोत्तर गिरेः शिरः स्थिता, दोः सहस्रसुभगा महाप्रभा । गीतगौतमगुणा त्रिविष्ट - पस्वामिनी शिवशतं दधातु मे ॥ ८ ॥ यक्षषोडशसहस्रनायको दिव्यविंशतिभुजो महाबलः । द्वादशाङ्गसमयाधिदेवता गौतमस्मृति Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुषां शिवङ्करः ॥९॥ ईशाननाथेन समं शतक्रतुः सनत्कुमाराधिपतिः सुरान्वितः । श्रीब्रह्मलोकाधिपतिश्च सेवते सगौतमं मन्त्रवरं पदे पदे ॥ १० ॥ अष्टनागकुलनायको मणिप्रोल्लसत्फणसहस्रभासुरः । गौतमाय धरणः कृताञ्जलिमन्त्रराजसहिताय वन्दते ॥ ११ ॥ . रोहिणीप्रभृतयः सुराङ्गना वासवा अपि परे सदाश्रवाः । गौतम मनसि यक्षयक्षिणीश्रेणयोऽपि दधती मुनीश्वरम् ॥ १२॥ सन्जलानधनभोगधृतीनां लब्धिरद्भुततमेहभवे स्यात् । गोतमस्मरणतः परलोके भूभुवःस्वरपवर्गसुखानि ॥१३॥ आँक्राँश्रीही मन्त्रतो ध्यानकाले पार्वे कृत्वा प्राञ्जलिः सर्वदेवान् । कायोत्सर्गंधूपकपुरवासैः पूजां कुर्यात् सर्वदा ब्रह्मचारी ॥१४॥ जितेन्द्रियः स्वल्पेजलाभिषेकवान् शुद्धाम्बरो गुप्तिसमित्यलङ्कृतः । श्रीइन्द्रभूतेरुपर्वणवं गुणान स्मरन्नरः स्याच्छुतसिन्धुपारगः ॥१५॥ तं श्रयन्ति पुरुषार्थसिद्धयो भूष्यते विशदसाहसेन सः । गौतमः प्रणयिभुक्तिमुक्तिदो यस्य भाविविभवस्य नाथते ॥ १६ ॥ वाचकेन्द्रोमास्वातिविरचितं श्रीप्रशमरतिप्रकरणम । नाभेयाद्याः सिद्धार्थराजसूनुचरमाश्चरमदेहाः । पञ्च नव दश च, दशविधधर्मविधिविदो जयन्ति जिनाः ॥१॥ जिनसिद्धाचार्योपाध्यायान् प्रणिपत्य सर्वसाधूंश्च । प्रशमरतिस्थैर्यार्थ वक्ष्ये जिनशासनात्किञ्चित् ॥२॥ यद्यप्यनन्तगमपर्यायार्थहेतुनयशब्दरत्नाढ्यम् । सर्वज्ञशासनपुरं प्रवेष्टुमबहुश्रुतैःदखम् ॥ ३॥ श्रुतबुद्धिविभवपरिहीणकस्तथाप्यहमशक्तिमविचिन्त्य । द्रमक इवावयवोञ्छकमन्वेष्टुं तत्प्रवेशेप्मुः ॥४॥ बहुभिर्जिनवचनार्णवपारगतैः कविवृषैर्महामतिभिः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वमनेकाः प्रथिताः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयः ॥५॥ ताभ्यो विसृताः श्रुतवाक्पुलाकिकाः प्रवचनाश्रिताः काश्चित् । पारम्पर्यादुच्छेषिकाः कृपणकेन संहृत्य ॥ ६ ॥ तद्भक्तिबलार्पितया मयाप्यविमलाल्पया स्वमतिशक्त्या । प्रशमेष्टतयानुसृता विरागमार्गकपदिकेयम् ॥ ७ ॥ यद्यप्यवगीतार्था न वा कठोरप्रकृष्ठभावार्था । सिद्भिस्तथापि मय्यनुकम्पैकरसैरनुग्राह्याः ॥ ८ ॥ कोऽत्र निमित्तं वक्ष्यति निसर्गमतिसुनिपुणोऽपि वा ह्यन्यत् । दोषमलिनेऽपि सन्तो यद्गुणसारग्रहणदक्षाः ॥ ९ ॥ सद्भिः सुपरिगृहीतं यत्किश्चिदपि प्रकाशतां याति । मलिनोऽपि यथा हरिणः प्रकाशते पूर्णचन्द्रस्थः ॥ ९० ॥ बालस्य यथा वचनं काहलमपि शोभते पितृसकाशे । तद्वत्सज्जनमध्ये प्रलपितमपि सिद्धिमुपयाति ॥ ११ ॥ ये तीर्थकृत्प्रणीता भावास्तदनन्तरैश्च परिकथिताः। तेषां बहुशोऽप्यनुकीर्तनं भवति पुष्टिकरमेव ॥ १२ ॥ यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति । तद्वद्रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥ १३ ॥ यद्वदुपयुक्तपूर्वमपि भैषजं सेव्यतेऽर्त्तिनाशाय । तद्वद्रागातिहरं बहुशोऽप्यनुयोज्यमर्थपदम् ॥ १४ ॥ वृत्यर्थ कर्म यथा तदेव लोकः पुनः पुनः कुरुते । एवं विरागवार्ताहेतुरपि पुनः पुनश्चिन्त्यः ॥ १५॥ दृढतामुपैति वैराग्यभावना येन येन भावेन । तस्मिँस्तस्मिन् कार्य: कायमनोवाग्भिरभ्यासः ॥ १६ ॥ माध्यस्थ्यं वैराग्यं विरागता शान्तिरुपशमः प्रशमः । दोषक्षयः कषायविजयश्च वैराग्यपर्यायाः ॥ १७ ॥ इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गाय ममत्वमऽभिनन्दः। अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि ॥ १८ ॥ ईर्ष्या रोषो दोषो द्वेषः परिवादमत्सरासूयाः । वैरप्रचण्डनाद्या नैके द्वेषस्य पर्यायः ॥ १९॥ रागद्वेषपरिगतो मिथ्यात्वोपहतकलुषया दृष्टया । पञ्चास्रवमलबहुलातरौद्रतीब्राभिसन्धानः ॥ २०॥ कार्याकार्यविनिश्चयसडेक्लेशविशुद्धिलक्षणैर्मुढः । आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाकलिग्रस्तः ॥ २१ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ क्लिष्टाष्टकर्मबन्धनबद्धनिकाचितगुरुर्गतिशतेषु । जन्ममरणैरजस्त्र बहुविधपरिवर्तनाभ्रान्तः ।। २२ ।। दुःखसहस्रनिरन्तरगुरुभाराक्रान्तकर्षितः करुणः । विषयसुखानुगततृषः कषायवक्तव्यतामेति ॥२३॥ स क्रोधमानमायालो भैरतिदुर्जयैः परामृष्टः । प्राप्नोति याननर्थान् कस्तानुद्देष्टुमपि शक्तः ॥ २४ ॥ क्रोधात्प्रीतिविनाशं मानाद्विनयोपघातमाप्नोति । शाठ्यात्प्रत्यग्रहानिं सर्वगुणविनाशनं लोभात् ||२५|| क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ॥ २६ ॥ श्रुतशीलविनयसंदूषणस्य धर्माकामविघ्नस्य मानस्य कोऽवकाशं मुहूर्तमपि पण्डितो दद्यात ॥। २७ ॥ मायाशीलः पुरुषो यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोपहतः ॥ २८ ॥ सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यस नैकराजमार्गस्य । लोभस्य को 'मुखगतः क्षणम दुःखान्तरमुपेयात् ॥ २९ ॥ एवं क्रोधो मानो माया लोभश्च दुःखहेतुत्वात् । सत्त्वानां भवसंसारदुर्गमार्गप्रणेतारः ॥ ३० ॥ ममकाराहङ्कारावेषां मूलं पदद्वयं भवति । रागद्वेषावित्यपि तस्यैवान्यस्तु पर्यायः ॥ ३१ ॥ मायालोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोघो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ||३२|| मिथ्यादृष्ट्य विरमणप्रमादयोगास्तयोर्बलं दृष्टम् । तदुपगृहीतावष्टविधकर्मबन्धस्य हेतू तौ ॥ ३३ ॥ स ज्ञानदर्शनावरणवेद्यमोहायुषां तथा नाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोऽष्टधा मौलः ॥ ३४ ॥ चनवद्वयष्टाविंशतिकश्चतुःषट्कसप्तगुणभेदः । द्विपञ्चभेद इति सप्तनवतिभेदास्तथोत्तरतः ॥ ३५ ॥ प्रकृतिरियमनेकविधा स्थित्यनुभावप्रदेशतस्तस्याः । तीव्रो मन्दो मध्य इति भवति बन्धोदयविशेषः ||३६|| तत्र प्रदेशबन्धो योगात्तदनुभवनं कषायवशात् । स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण ॥ ३७ ॥ ताः कृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुकूलनामान: । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३८ ॥ कर्मोदयाद् भवगतिर्भवगतिमूला शरीरनिर्वृत्तिः । देहादिन्द्रियविषया विषयनिमित्ते च सुखदुःखे ॥ ३९ ॥ दुःखद्विट् सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥ ४० ॥ कलरिभितमधुरगान्धर्वतूर्ययोषिद्विभूषणरवाद्यैः । श्रोत्रावबद्धहृदयो हरिण इव विनाशमुपयाति ॥ ४१ ॥ गतिविभ्रमेङ्गिताकारहास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः । रूपावेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विवशः ॥ ४२ ॥ स्नानाङ्गरागवतिकवर्णकधूपाधिवासपटवासैः । गन्धभ्रमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥ ४३ ॥ मिष्टान्नपानमांसौदनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा । गलयन्त्रपाशबद्धो मीन इव विनाशमुपयाति ॥४४॥ शयनासनसम्बाधनसुरतस्नानानुलेपनासक्तः । स्पर्शव्याकुलितमतिर्गजेन्द्र इव बध्यते मूढः ॥ ४५ ॥ एवमनेके दोषाः प्रणष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम् । दुनियमितेन्द्रियाणां भवन्ति बाधाकरा बहुशः ॥ ४६ ॥ एकैकविषयसङ्गाद्रागद्वेषातुरा विनष्टास्ते । किं पुनरनियमितात्मा जीवः पञ्चेन्द्रियवशातः ॥४७॥ न हि सोऽस्तीन्द्रियविषयो येनाभ्यस्तेन नित्यतृषितानि । तृप्तिं प्राप्नुयुरक्षाण्यनेकमार्गप्रलीनानि ॥ ४८ ।। कश्चिच्छुभोऽपि विषयः परिणामवशात्पुनर्भवत्यशुभः । कश्चिदशुभोऽपि भूत्वा कालेन पुनः शुभीभवति ॥ ४९ ॥ कारणवशेन यद्यत् प्रयोजनं जायते यथा यत्र । तेन तथा तं विषयं शुभमशुभं वा प्रकल्पयति ॥ ५० ॥ अन्येषां यो विषयः स्वाभिप्रायेण भवति तुष्टिकरः । स्वमतिविकल्पाभिरतास्तमेव भूयो द्विषन्त्यन्ये ॥५१॥ तानेवार्थान्द्विषतस्तानेवार्थान्प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ॥ ५२ ।। रागद्वेषोपहतस्य केवलं कर्मबन्ध एवास्य । नान्यः स्वल्पोऽपि गुणोऽस्ति यः परत्रेह च श्रेयान् ॥५३॥ यस्मिन्निन्द्रियविषये शुभमशुभं वा निवेशयति भावम् । रक्तो वा द्विष्टो वा स बन्धहेतुर्भवति तस्य ॥ ५४ ॥ स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥ ५५ ॥ एवं रागद्वेषौ मोहो मिथ्यात्वमविरतिश्चैव । एभिः प्रमादयोगानुगैः समादीयते कर्म ॥ ५६ ॥ कर्ममयः संसारः संसारनिमित्तकं पुनदुःखम् । तस्माद्रागद्वेषादयस्तु भवसन्ततेर्मूलम् ॥ ५७ ॥5 एतद्दोषमहासञ्चयजालं शक्यमप्रमत्तेन । प्रशमस्थितेन घनमप्युद्वेष्टयितुं निरवशेषम् ॥ ५८ ॥ अस्य तु मूलनिबन्धं ज्ञात्वा तच्छेदनोद्यमपरस्य । दर्शनचारित्रतपःस्वाध्यायध्यानयुक्तस्य ॥ ५९ ॥ प्राणवधानृतभाषणपरधनमैयुनममत्वविरतस्य । नवकोटयुद्गमशुद्धोञ्च्छमात्रयात्राधिकारस्य ॥ ६०॥ जिनभाषितार्थसद्भावभाविनो विदितलोकतत्त्वस्य । अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारणकृतप्रतिज्ञस्य ॥ ६१ ॥ परिणाममपूर्वमुपागतस्य शुभभावनाध्यवसितस्य । अन्योऽन्यमुत्तरोत्तरविशेषमभिपश्यतः समये ॥ ६२ ।। वैराग्यमार्गसम्प्रस्थितस्य संसारवासचकितस्य । स्वहितार्थाभिरतमतेः शुभेयमुत्पद्यते चिन्ता-॥६३॥ भवकोटीभिरसुलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे । न च गतमायुर्भूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्थ ॥ ६४ ॥ आरोग्यायुर्बलसमुद्याश्वला वीर्यमनियतं धर्मे । तल्लब्ध्वा हितकार्ये मयोद्यमः सर्वथा कार्यः ॥ ६५ ॥ शास्त्रागमाइते न हितमस्ति न च शास्त्रमस्ति विनयमृतेः। तस्माच्छास्त्रागमलिप्सुना विनीतेन भवितव्यम् ॥ ६६ ॥ कुलरूपवचनयौवनधनमित्रैश्वर्यसम्पदपि पुंसाम् । विनयप्रशमविहीना न शोभते निर्जलेव नदी ॥६७॥ न तथा सुमहाध्यैरपि वस्त्राभरणैरलङ्कृतो भाति । श्रतशोलमलनिकषो विनीतविनयो यथा भाति ॥ ६८ ॥ गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद्गुर्वाराधनपरेण हितकाक्षिणा भाव्यम् ॥ ६९ ॥ धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणधर्मनिर्वापी । गुरुवदनमलयनिसृतो वचनसरसचन्दनस्पर्शः ॥७॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः ॥ ७१ ॥ *विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ ७२ ॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्मास्क्रिीयानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ ७३ ॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ७४ ॥ विनयव्यपेतमनसो गुरुविद्वत्साधुपरिभवनशीलाः। त्रुटिमात्रविषयसङ्गादजरामरवनिरुद्विग्नाः ॥१५॥ केचित्सातद्धिरसातिगौरवात्साम्प्रतक्षिणः पुरुषाः । मोहात्समुद्रवायसवदामिषपरा विनश्यन्ति ॥ ७६ ॥ ते जात्यहेतुदृष्टान्तसिद्धमविरुद्धमजरमभयकरम् । सर्वज्ञवायसायनमुपनीतं नाभिनन्दन्ति ॥७७|| यद्वत्कश्चित् क्षीरं मधुशर्करया सुसंस्कृतं हृद्यम् । पित्तादि तेन्द्रियवाद्वितथमतिर्मन्यते कटुकम् ॥ ७० ॥ तद्वन्निश्चयमधुरमनुकम्पया सद्भिरभिहितं पथ्यम् । तथ्यमवमन्यमाना रागद्वेषोदयोवृत्ताः ॥७९॥ जातिकुलरूपबललाभबुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतमदान्धाः । क्लीबाः परत्र चेह च हितमप्यर्थ न पश्यन्ति ॥ ८० ॥ ज्ञात्वा भवपरिवर्ते जातीनां कोटिशतसहस्रेषु । हीनोत्तममध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥ ८१ ॥ नैकाञ्जातिविशेषानिन्द्रियनिवृत्तिपूर्वकान्सत्त्वाः । कर्मवशागच्छन्त्यत्र कस्य का शाश्वती जातिः ॥ ८२ ।। रूपबलश्रुतमतिशीलविभवपरिवर्जितांस्तथा दृष्ट्वा । विपुलकुलोत्पन्नानपि ननु कुलमानः परित्याज्यः ॥ ८३ ॥ यस्याशुध्धं शीलं प्रयोजनं तस्य किं कुलमदेन । स्वगुणाभ्यलङ्कृतस्य हि किं शीलवतः कुलमदेन ।। ८४ ॥ कः शुक्रशोणितसमुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य । रोगजरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ॥ ८५॥ नित्यं परिशीलनीये त्वङ्मांसाच्छादिते कलुषपूर्णे। निश्चयविनाशधर्मिणि रूपे मदकारणं किं स्यात् ॥ ८६ ॥ बलसमुदितोऽपि यस्मान्नरः क्षणेन विबलत्व Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ मुपयाति । बलहीनोऽपि च बलवान् संस्कारवशात्पुनर्भवति ॥ ८७ ॥ तस्मादनियतभावं बलस्य सम्यग्विभाव्य बुद्धिबलात् । मृत्युबले चाबलतां मदं न कुर्याद्वलेनापि ॥ ८८ ॥ उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्यकौ मत्वा । नालाभे वैक्लव्यं न च लाभे विस्मयः कार्यः ॥ ८९ ॥ परशक्त्यभिप्रसादात्मकेन किञ्चिदुपभोगयोग्येन । विपुलेनापि यतिवृषा लाभेन मदं न गच्छन्ति ॥ ९० ॥ ग्रहणो - ग्राहणनवकृतिविचारणार्थावधारणाद्येषु । बुद्धधङ्गविधिविकल्पेष्वनन्तपर्यायवृध्धेषु ।। ९९ ।। पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथ स्वबुद्धया मदं यान्ति ॥ ९२ ॥ द्रमकैरिव चाटुकर्मकमुपकारनिमित्तकं परजनस्य । कृत्वा यद्वाल्लभ्यकमवाप्यते को मदस्तेन ॥ ९३ ॥ गर्व परप्रसादात्मकेन वाल्लभ्यकेन यः कुर्यात् । तं वाल्लभ्यकविगमे शोकसमुदयः परामृशति ॥ ९४ ॥ माषतुषोपाख्यानं श्रुतपर्यायप्ररूपणां चैव । श्रुत्वातिविस्मयकरं च विकरणं स्थूलभद्रमुनेः ।। ९५ ।। सम्पर्कोद्यमसुलभं चरणकरणसाधकं श्रुतज्ञानम् । लब्ध्वा सर्वं मदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ॥९६॥ एतेषु मदस्थानेषु निश्चये न च गुणोऽस्ति कश्चिदपि । केवलमुन्मादः स्वहृदयस्य संसारवृद्धिश्च ।। ९७ ।। जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति दुःखितश्वेह । जात्यादिहीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ।। ९८ ।। सर्वमदस्थानानां मूलोद्घातार्थिना सदा यतिना । आत्मगुणैरुत्कर्षः परपरिवादश्च सन्त्याज्यः ॥ ९९ ॥ परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥ १०० ॥ कर्मोदयनिर्वृत्तं हीनोत्तममध्यमं मनुष्याणाम् । तद्विधमेव तिरश्चां योनिविशेषान्तरविभक्तम् ॥ १०१ ॥ देशकुलदेहविज्ञानायुर्बलभोगभूतिवैषम्यम् । दृष्ट्वा कथमिह विदुषां भवसंसारे रतिर्भवति ॥ १०२ ॥ अपरिगणितगुणदोषः स्वपरोभयबाधको भवति यस्मात् । पब्चेन्द्रियबलविबलो रागद्वेषोदयनिबद्धः Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १०३ ॥ तस्माद्रागद्वेषत्यागे पञ्चेन्द्रियप्रशमने च । शुभपरिणामावस्थितिहेतोर्यत्नेन घटितव्यम् ॥ १०४॥ तत्कथमनिष्टविषयाभिकाङ्क्षिणा भोगिना वियोगो वै। सुव्याकुलहृदयेनापि निश्चयेनागमः कार्यः ॥ १०५ ॥ आदावत्यभ्युदया मध्ये शृङ्गारहास्यदीप्तरसाः । निकषे विषया बीभत्सकरुणलज्जाभयप्रायाः ॥ १०६ ॥ यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः । किंपाकफलादनवद् भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥ १७ ॥ यद्वच्छाकाष्टादशमन्नं बहुभक्ष्यपेयवत्स्वादु । विषयंयुक्त मुक्त विपाककाले विनाशयति ॥१०८।। तद्वदुपचारसम्भृतरम्यकरागरससेविता विषयाः । भवशतपरम्परास्वपि दुःखविपाकानुबन्धकराः ॥ १०९ ॥ अपि पश्यतां समक्षं 'विषयपरिणामनियतं पदे पदे मरणम् । येषां विषयेषु रतिर्भवति न तान्मानुषान् गणयेत् ॥ ११० ॥ विषयपरिणामनियमो मनोऽनुकूलविषयेष्वनुप्रेक्ष्य । द्विगुणोऽपि च नित्यमनुग्रोऽनवद्यश्च सश्चिन्त्यः॥१११॥ इति गुणदोषविपर्यासदर्शनाद्विषयमूर्च्छितो ह्यात्मा । भवपरिवर्तनभिरुभिराचारमवेक्ष्य परिरक्ष्यः ॥११२॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोवीर्यात्मको जिनैः प्रोक्तः। पञ्चविधोऽयं विधिवत्साध्वाचारः समनुगम्यः ॥ ११३ ॥ ॥ षड्जीवकाययतना लौकिकसन्तानगौरखत्यागः । शीतोष्णादिपरीषहविजयः सम्यक्त्वमविकम्प्यम् ॥११४॥ संसारादुद्वेगः क्षपणोपायश्च कर्मणां निपुणः । वैयावृत्त्योद्योगः तपोविधिोषितां त्यागः ॥ ११५ ॥ विधिना भैक्ष्यग्रहणं स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता शय्या । ईर्याभाषाम्बरभाजनैषणावग्रहाः शुद्धाः ॥ ११६ ॥ स्थाननिषद्याव्युत्सर्गशब्दरूपक्रियाः परान्योऽन्या । पञ्चमहाव्रतदाव्य विमुक्तता सर्वसङ्गेभ्यः ॐ ॥ ११७ ॥ साध्वाचारः खल्वयमष्टादशपदसहस्रपरिपठितः । सम्यगनुपाल्यमानो रागादीन्मूलतो हन्ति ॥ ११८ ॥ आचाराध्ययनोक्तार्थभावनाचरण1-नियतमनियतं इति पाठा. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्तहृदयस्य । न तदस्ति कालविवरं यत्र कचनाभिभवनं स्यात् ॥ ११९ ॥ पैशाचिकमाख्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वाः । संयमयोगैरात्मा निरन्तरं व्यापृतः कार्यः ॥ १२० ॥ क्षणविपरिणामधर्मा मानामृद्धिसमुदयाः सर्वे । सर्वे च शोकजनकाः संयोगा विप्रयोगान्ताः ॥ १२१ ॥ भोगसुखैः किमनित्यैर्भयबहुलैः काङ्क्षितैः परायत्तैः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥१२२॥ यावत्स्वविषयलिप्सोरऽक्षसमूहस्य चेष्ट्यते तुष्टौ । तावत्तस्यैव जये वरतरमशठं कृतो यत्नः ॥ १२३ ॥ यत्सर्वविषयकाङ्क्षोद्भवं सुखं प्राप्यते सरागेण । तदनन्तकोटिगुणितं मुधैव लभते विगतरागः ॥१२४ । इष्टवियोगाप्रियसम्प्रयोगकाङ्क्षासमुद्भवं दुःखम् । प्राप्नोति यत्सरागो न संस्पृशति तद्विगतरागः ॥ १२५ ॥ प्रशमितवेदकषायस्य हास्यरत्यरतिशोकनिभृतस्य । भयकुत्सानिरभिभवस्य यत्सुखं तत्कुतोऽन्येषाम् ॥ १२६ ॥ सम्यग्दृष्टिानी ध्यानतपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं लभते न गुणं यं प्रशमगुणमुपासितो लभते ॥१२७॥ नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १२८ ॥ सन्त्यज्य लोकचिन्तामात्मपरिज्ञानचिन्तनेऽभिरतः । जितलोभरोषमदनः सुखमास्ते निर्जरः साधुः ॥ १२९ ॥ या चेह लोकवार्ता शरीरवार्त्ता तपस्विनां या च । सद्धर्मचरणवार्तानिमित्तकं तवयमपीष्टम् ॥ १३० ॥ लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च सन्त्याज्यम् ॥ १३१॥ देहो नासाधनको लोकाधिनानि साधनान्यस्य । सद्धर्मानुपरोधात्तस्माल्लोकोऽभिगमनीयः ॥ १३२ ।। दोषेणानुपकारी भवति परो येन येन विद्विष्टः । स्वयमपि तहोषपदं सदा प्रयत्नेन परिहार्यम् ॥ १३३ ॥ पिण्डैषणानिरुक्तः कल्प्याकल्प्यस्य यो विधिः सूत्रे । ग्रहणोपभोगनियतस्य तेन नैवाऽऽमयभयं स्यात् ॥ १३४ ॥ व्रणलेपाक्षोपाङ्गवदसङ्गयोगभर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं पुत्रपलवञ्च ॥ १३५ ॥ गुणवदमूर्छितमनसा तद्विपरीतमपि चाप्रदुष्टेन। 'दारुपमधृतिर्भवति कल्प्यमास्वाद्यमास्वाद्यम् ॥ १३६ ॥ कालं क्षेत्रं मात्रां सात्म्यं द्रव्यगुरुलाघवं स्वबलम् । ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य मुङ्क्ते किं भेषजैस्तस्य ॥ १३७॥ पिण्ड: शय्या क्षणादि पात्रषणादि यच्चान्यत् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ॥ १३८ ॥ कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः संविग्नसहायको विनीतात्मा। दोषमलिनेऽपि लोके प्रविहरति मुनिनिरुपलेपः ।। १३९ ।। यद्वत्पङ्काधारमपि पङ्कजं नोपलिप्यते तेन । धर्मोपकरणधृतवपुरपि साधुरलेपकस्तद्वत् ॥ १४० ॥ यद्वत्तरगः सत्स्वप्याभरणविभूषणेष्वनभिषक्तः । तद्वदुपग्रहवानपि न सङ्गमुपयाति निर्ग्रन्थः ॥ १४१ ॥ ग्रन्थः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं संयतते यः स卐 निर्ग्रन्थः ॥ १४२ ॥ यज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चये यत्तत्कल्प्यमकल्प्यमवशेषम् (-शिष्टम् ? ) ॥१४३ ॥ यत्पुनरुपघातकरं सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमप्यकल्प्यं प्रवचनकुत्साकरं यच्च ॥ १४४ ।। किञ्चिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यास्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्र पात्र वा भेषजाचं वा ।। १४५ ॥ देशं कालं पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्पते कल्प्यम् ॥ १४६ ॥ तञ्चिन्त्यं तद्भाष्यं तत्कार्य भवति सर्वथा यतिना । नात्मपरोभयबाधकमिह यत्परतश्च सर्वाद्धम् ॥ १४७ ॥ सर्वार्थेष्विन्द्रियसङ्गतेषु वैराग्यमार्गविघ्नेषु । परिसङ्घयानं कार्य कार्य परमिच्छता नियतम् ॥ १४८ ॥ *भावयितव्यमऽनित्यत्वमऽशरणत्वं तथैकताऽन्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्मास्रवसंवरविधिश्च ।। १४९ ॥ निर्जरणलोकविस्तरधर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभत्वं च भावना 1-दारुपमधृतिना भ. इति पाठा. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ द्वादश विशुद्धाः || १५० ॥ इष्टजनसंप्रयोगर्द्धिविषयसुखसंपदस्तथारोग्यम् । देव यौवनं जीवितं च सर्वाण्यनित्यानि ॥ १५१ ॥ जन्मजरामरणभयैरभिद्रते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके ॥ १५२ ॥ एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥ १५३ ॥ अन्योऽहं स्वजनात्परिजनाश्च विभवाच्छरीरकाच्चेति । यस्य नियता मतिरिय न बाधते तं हि शोककलिः ॥ १५४ ॥ अशुचिकरणसामर्थ्यादाद्युत्तरकारणाशुचित्वाच्च । देहस्याशुचिभावः स्थाने स्थाने भवति चिन्त्यः ॥ १५५ ॥ माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥ १५६ ॥ मिथ्यादृष्टिरविरतः प्रमादवान् यः कषायदण्डरुचिः । तस्य तथाश्रवकर्मणि यतेत तन्निग्रहे तस्मात् ॥ १५७ ॥ या पुण्यपापयोरग्रहणे वाक्कायमानसी वृत्तिः । सुसमाहितो हितः संवरो वरददेशितश्चिन्त्यः ॥ १५८ ॥ यद्वद्विशोषणादुपचितोऽपि यत्नेन जीर्यते दोषः । तद्वत्कर्मोपचितं निर्जरयति संवृतस्तपसा ।। १५९ ।। लोकस्याधस्तिर्यग्विचिन्तयेदूर्ध्वमपि च बाहुल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे रूपिद्रव्योपयोगांश्च ॥ १६० ॥ धर्मोऽयं स्वाख्यातो जगद्धितार्थं जिनैर्जितारिगणैः । येऽत्र रतास्ते संसारसागरं लील - योत्तीर्णाः ॥ १६१ ॥ मानुष्यकर्मभूम्यार्यदेशकुलकल्पतायुरुपलब्धौ । श्रद्धाकथकश्रवणेषु सत्स्वपि सुदुर्लभा बोधिः ॥ १६२ ॥ तां दुर्लभां भवशतैर्लब्ध्वाप्यतिदुर्लभा पुनर्विरतिः । मोहाद्रागात्कापथविलोकनाद्वौरववशाच्च ॥ १६३ ॥ तत्प्राप्य विरतिरत्नं विरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः । इन्द्रियकषायगौरवपरीषद् सपत्नविधुरेण ॥ १६४ ॥ तस्मात्परीषहेन्द्रियगौरवगणनायकान्कषायरिपून् । क्षान्तिबलमार्दवा - र्जवसन्तोषैः साधयेद्वीरः ॥ १६५ ॥ सचिन्त्य कषायाणामुदयनिमित्तमुपशान्तिहेतुं च | त्रिकरणशुद्धमपि तयोः परिहारा सेवने कार्ये Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ ॥ १६६ ॥ सेव्यः क्षान्तिर्मार्दवमार्जवशौचे च संयमत्यागौ सत्यतपो ब्रह्माकिञ्चन्यानीत्येष धर्मविधिः || १६७ || धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दयां समादत्ते । तस्माद्यः क्षान्तिपरः स साधयत्युत्तमं धर्मम् ॥ १६८ ॥ विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः । यस्मिन्मादेवमखिलं स सर्वगुणभाक्त्वमाप्नोति ॥ १६९ ॥ नानार्जवो विशुध्यति न धर्ममाराधयत्यशुद्धात्मा । धर्माते न मोक्षो मोक्षात्परमं सुखं नान्यत् ॥ १७० ॥ यद्रव्योपकरणभक्तपानदेहाधिकारकं शौचम् । तद्भवति भावशौचानुपरोधाद्यत्नतः कार्यम् ॥ १७१ ॥ पचास्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १७२ ॥ बान्धवधनेन्द्रियसुखत्यागात्त्यक्तभयविग्रहः साधुः । त्यक्तात्मा निर्ग्रन्थस्त्यक्ताहङ्कारममकारः ॥ १७३ ॥ अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥ १७४॥ अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बाह्य तपः प्रोक्तम् ॥ १७५ ॥ प्रायश्चित्तध्याने वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः | स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमाभ्यंतरं भवति ।। १७६ ।। दिव्यात्कामरतिसुखात्त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकं । औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ||१७७ || अध्यात्मविदो मूछ परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः । तस्माद्वैराग्येसोराकिञ्चन्यं परो धर्मः || १७८ ।। दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढघनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन * ।। १७९ ।। ममकाराहङ्कारत्यागादतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् । इन्ति परीषहगौरव कषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥ १८० ॥ प्रवचनभक्तिः श्रुतसम्पदुद्यमो व्यतिकरश्च संविग्नैः । वैराग्यमार्ग सद्भाव भावधी स्थैर्यजनकानि ॥ १८१ ।। आक्षेपणी विक्षेपणी विमार्गबाधनसमर्थविन्यासा । श्रोतृजनश्रोत्रमनः प्रसादजननी यथा जननी || १८२ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ 1 संवेदनीं च निर्वेदनीं च धर्म्या कथां सदा कुर्यात् । स्त्रीभक्तचौरजनपदकथाश्च दूरात्परित्याज्याः ।। १८३ ।। यावत्परगुणदोषपरिकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुध्वे ध्याने व्यमं मनः कर्तम् ॥ १८४ ॥ शास्त्राध्ययने चाध्यापने च सचिन्तने तथात्मनि च । धर्मकथने च सततं यत्नः सर्वात्मना कार्यः ।। १८५ ।। शास्वति वाग्विधिविद्भिर्धातुः पापठ्यतेऽनुशिष्टयर्थः । त्रैङिति च पालनार्थे विनिश्चितः सर्वशब्दविदाम् || १८६ ॥ यस्माद्रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । सन्त्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ।। १०७ ।। शासनसामर्थ्येन तु सन्त्राणबलेन चानवद्येन युक्त यत्तच्छास्त्रं तच्चैतत्सर्वविद्वचनम् ॥ १८८ ॥ जीवाऽजीवाः पुण्यं पापास्रवसंवराः सनिर्जरणाः । बन्धो मोक्षश्चैते सम्यक् चिन्त्या नव पदार्थाः ॥ १८९ ॥ जीवा मुक्ताः संसारिणश्च संसारिणस्त्वनेकविधाः । लक्षणतो विज्ञेया द्वित्रिचतुःपञ्चषभेदाः ।। १९० ।। द्विविधाश्चराचराख्यास्त्रिविधाः स्त्रीपुंनपुंसका ज्ञेया: । नारकतिर्यग्मानुषदेवाश्चतुर्विधाः प्रोक्ताः ।। १९१ ।। पञ्चविधास्त्वेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियास्तु निर्दिष्टाः । क्षित्यम्बुवह्निपवनतरवस्त्रसाश्चेति षड्भेदाः ॥। १९२ ॥ एवमनेकविधानामेकैको विधिरनन्तपर्यायः । प्रोक्तः स्थित्यवगाहज्ञानदर्शनादिपर्यायैः ॥ १९३ || सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् । साकारोऽनाकारश्च सो ऽष्टभेदचतुर्धा च ॥ १९४ ॥ ज्ञानाज्ञाने पञ्चत्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः । चक्षुरचक्षुरवधि केवलदृग्विषयस्त्वनाकारः + ॥ १९५ ॥ fभावा भवन्ति जीवस्यौदायिकः पारिणामिकश्चैव । औपशमिक: क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्च पञ्चैते । १९६ ॥ ते चैकविंशतित्रिद्विनवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः । षष्ठश्च सान्निपातिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः।।। १९७ ।। एभिर्भावैः स्थानं गतिमिन्द्रियसंपदः सुखं दुःखम् । सम्प्राप्नोतीत्यात्मा * सोऽष्टविकल्पः समासेन ॥ १९८ ॥ द्रव्यं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाययोगावुपयोगो ज्ञानदर्शने चेति । चारित्रं वीर्य चेत्यष्टविधा मार्गणा तस्य ॥ १९९ ॥ जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् ॥२०॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् * ॥२०१॥ द्रव्यात्मेत्युपचारः सर्वद्रव्येषु नयविशेषेण । आत्मादेशात्मा भवत्यानात्मा परादेशात् ।। २०२ ॥ एवं संयोगाल्पबहुत्वाचैनै कशः स परिमृग्यः । जीवस्यैतत्सर्व स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दष्टम् ॥ २०३ ॥ उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि । सदसद्वा भवतीत्यन्यथापितानर्पितविशेषात् ॥ २०४ ॥ योऽर्थो यस्मिन्नाभूत् साम्प्रतकाले च दृश्यते तत्र । तेनोत्पादस्तस्य विगमस्तु तस्माद्विपर्यासः ॥ २०५ ॥ साम्प्रतकाले चानागते च यो यस्य भवति सम्बन्धी । तेनाविगमस्तस्येति स नित्यस्तेन भावेन ॥ २०६ ॥ धर्माधर्माकाशानि पुद्गलाः काल एव चाऽजीवाः । पुद्गलवर्जमरूपं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः ।। २०७ ॥ ब्यादिप्रदेशवन्तो यावदनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः । परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीयः ॥ २०८ ॥ भावे धर्माधर्माम्बरकालाः पारिणामिके ज्ञेयाः । उदयपरिणामि रूपं तु सर्वभावानुगा जीवाः ॥२०९ ॥ *जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम्। वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ २१० ॥ तत्राधोमुखमल्लकसंस्थानं वर्णयन्त्यधोलोकम् । स्थालमिव च तिर्यग्लोकमूर्ध्वमथ मल्लकसमुद्गम् ॥ २११ ॥ सप्तविधोऽधोलोकस्तिर्यग्लोको भवत्यनेकविधः। पञ्चदशविधानः पुनरूख़लोकः समासेन ॥२१२। लोकालोकव्यापकमाकाशं मर्त्यलौकिकः कालः । लोकव्यापि चतुष्टयमवशेषं त्वेकजीवो वा ॥ २१३ ॥ धर्माधर्माकाशान्येकैकमतः परं त्रिकमनन्तम् । कालं विनास्तिकाया जीवमृते चाप्यकर्तणि ॥२१४॥ धर्मो गतिस्थितिमतां द्रव्याणां गत्युपग्रहविधाता । स्थित्युपकर्ताऽध Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० र्मोऽवकाशदानोपकद्गनम् ॥ २१५ ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णाः शब्दो बन्धश्च सूक्ष्मता स्थौल्यम् । संस्थानं भेदतमश्छायोद्योतातपचेति ॥ २१६ ॥ कर्मशरीरमनोवागूविचेष्टितोच्छ्वासदुःखसुखदाः स्युः । जीवितमरणोपग्रहकराश्च संसारिणः स्कन्धाः ॥ २९७ ॥ परिणाम वर्तनाविधिपरापरत्वगुणलक्षणः कालः । सम्यत्त्वज्ञानचारित्र वीर्यशिक्षागुणा जीवाः * ॥ २२८ ॥ पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥ २१९ ॥ योगः शुद्धः पुण्याश्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाक्कायमनोगुप्तिर्निराश्रवः संवरस्तूक्तः ॥ २२० ॥ संवृततपउपधानात्तु निर्जरा कर्मसन्ततिबन्धः । बन्धवियोगो मोक्षस्त्विति संक्षेपान्नवपदार्थाः ॥ २२१ ॥ एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतत्तु तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।। २२२ ।। शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थिकान्यधिगमस्य । एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभाव' चः ॥ २२३ ॥ एतत्सम्यग्दर्शनमनधिगमविपर्ययौ तु मिथ्यात्वम् । + ज्ञानमथ पञ्चभेदं तत्प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥ २२४ ॥ तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिबोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं त्ववधिमनःपर्यायौ केवलं चेति ।। २२५ ।। एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । * एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुर्भ्य इति ।। २२६ ॥ * सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति नियमतः सिद्धम् । आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिध्यात्वसंयुक्तम् ।। २२७ ॥ सामायिकमित्याद्यं छेदोपस्थापनं द्वितीयं तु । परिहारविशुद्धिः सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातम् ॥ २२८ ।। इत्येतत्पञ्चविधं चारित्रं मोक्षसाधनं प्रवरम् । अनैकैरनुयोगनयप्रमाणमार्गः समनुगम्यम् ।। २२९ ॥ सम्यक्त्त्वज्ञानचारित्र सम्पदः साधनानि मोक्षस्य । तास्वेकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः ।। २३० ।। पूर्वद्वयसम्पद्यपि तेषां भजनीयमुत्तरं भवति । पूर्वद्वयलाभ: पुन Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुत्तरलाभे भवति सिद्धः ।। २३१ ॥ धर्मावश्यकयोगेषु भावितात्मा प्रमादपरिवर्जी । सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणामाराधको भवति ॥२३२।। आराधनास्तु तेषां तिस्रस्तु जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः । जन्मभिरष्ठत्येकैः सिध्यन्त्याराधकास्तासाम् ॥ २३३ ।। तासामाराधनतत्परेण तेष्वेव भवति यतितव्यम् । यतिना तत्परजिनभक्त्युपग्रहसमाधिकरणेन ॥ २३४ ॥ स्वगुणाभ्यासरतमतेः परवृत्तान्तान्धमूकबधिरस्य । मदमदनमोहमत्सररोषविषादैरधृष्यस्य ॥ २३५ ।। प्रशमाव्याबाधसुखाभिकाङ्क्षिणः सुस्थितस्य सद्धर्मे । तस्य किमौपम्यं स्यात् सदेवमनुजेऽपि लोकेऽस्मिन् ॥ २३६ ॥ स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न च व्ययप्राप्तम् ॥ २३७ ॥ निजितमदमदनानां वाकायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ।। २३८ ॥ शब्दादिविषयपरिणाममनित्यं दुःखमेव च ज्ञात्वा । ज्ञात्वा च रागद्वेषात्मकानि दुःखानि संसारे ॥ २३९ ॥ स्वशरीरेऽपि न रज्यति शत्रावपि न प्रदोषमुपयाति । रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥ २४० ॥ धर्मध्यानाभिरतस्त्रिदण्डविरतस्त्रिगुप्तिगुप्तात्मा । सुखमास्ते निद्वद्वो जितेन्द्रियपरीषहकषायः ॥२४१।। विषयसुखनिरभिलाषः प्रशमगुणगणाभ्यलङ्कतः साघुः । द्योतयति यथा न तथा सर्वाण्यादित्यतेजांसि ॥ २४२ ।। (सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी विरतितपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं न लभते गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते) ॥ सम्यग्दृष्टिानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः । शीलाङ्गसहस्राष्टादशकमयत्नेन साधयति ॥ २४३ ॥ ॐधर्माद्भूम्यादीन्द्रियसंज्ञाभ्यः करणतच योगाच्च । शीलाङ्गसहस्त्राणामष्टादशकस्यास्ति निष्पत्तिः ॥२४४|| शीलार्णवस्य पारं गत्वा संविग्नसुगममार्गस्य । धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यं प्राप्नुयाद्योग्यम् ॥ २४५ ॥ आज्ञाविचयमपायविचयं च सद्धयानयोगमुपसृत्य । तस्माद्विपाकवि HTHHTHHTHH Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चयमुपयाति संस्थानविचयं च ॥ २४६ ॥ आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरवपरीषहाद्यैरपायस्तु ॥ २४७ ॥ अशुभशुभकर्मविपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचयःस्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ॥ २४८ ॥ जिनवरवचनगुणगणं सञ्चिन्तयतो वधाद्यपायां च । कर्मविपाकान् विविधान संस्थानविधीननेकांच ॥ २४९ ॥ नित्योद्विग्नस्यैवं क्षमाप्रधानस्य निरभिमानस्य । धुतमायाकलिमलनिर्मलस्य जितसर्वतृष्णस्य ॥ २५० ॥ तुल्यारण्यकुलाकुलविविक्तबन्धुजनशत्रुवर्गस्य । समवासीचन्दनकल्पनप्रदेहादिदेहस्य ॥ २५१ ॥ आत्मारामस्य सतः समतृणमणिमुक्तलेष्टुकनकस्य । स्वाध्यायध्यानपरायणस्य दृढमप्रमत्तस्य ॥ २५२ ॥ अध्यवसायविशुद्धेः प्रशस्तयोगैर्विशुद्धयमानस्य । चारित्रशुद्धिमत्र्यामवाप्य लेश्याविशुद्धिं च ।। २५३ ॥ तस्यापूर्वकरणमथ घातिकर्मक्षयैकदेशोत्थम् । ऋद्धिप्रवेकविभववदुपजातं जातभद्रस्य ॥ २५४ ॥ सातर्द्धिरसेष्वगुरुःप्राप्यर्द्धिविभूतिमसुलभामन्यैः । सक्तः प्रशमरतिसुखे न भवति तस्यां मुनिः सङ्गम् ॥ २५५ ॥ या सर्वसुरवरद्धिविस्मयनीयापि साऽनगार?: । नार्घति सहस्रभागं कोटिशतसहस्रगुणितापि ॥ २५६ ॥ तजयमवाप्य जितविघ्नरिपुभवशतसहस्रदुष्प्रापम् । चारित्रमथाख्यातं संप्राप्तस्तीर्थकृत्तुल्यम् ॥ २५७ ॥ शुक्लध्यानाद्यद्वयमवाप्य, कर्माष्टकप्रणेतारम् । संसारमूलबीजं मूलादुन्मूलयति मोहम् ॥ २५८ ॥ पूर्व करोत्यनन्तानुबन्धिनाम्नां क्षयं कषायाणाम् । मिथ्यात्वमोहगहनं क्षपयति सम्यक्त्वमिथ्यात्वम् ॥२५९ ॥ सम्यक्त्त्वमोहनीयं क्षपयत्यष्टावत: कषायांश्च । क्षयपति ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदमथ तस्मात् ॥२६०॥ हास्यादि ततः षट्कं क्षयपति तस्माच पुरुषवेदमपि । संज्वलनानपि हत्वा प्राप्नोत्यथ वीतरागत्वम् ॥ २६१ ॥ सर्वोद्धातितमोहो निहतक्लेशो यथा हि सर्वज्ञः । भात्यनुपलक्ष्यराहशोन्मुक्तः पूर्णचन्द्र Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ इत्र ॥ २६२ ॥ सर्वेन्धनैक राशीकृत संदीप्तो ह्यनन्तगुणतेजाः । ध्यानानलस्तपःप्रशमसंवरहविर्विवृद्धबलः || २६३ || क्षपकश्रेणिमुपगतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्मसङ्क्रमः स्यात्परकृतस्य ।। २६४ ॥ परकृतकर्मणि यस्मान्नाक्रामति संक्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वेद्यम् ॥ २६५ ॥ मस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत्कर्म - विनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥ २६६ ॥ छद्मस्थवीतरागः कालं सोऽन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा । युगपद्विविधावरणान्तरायकर्मक्षयमवाप्य ॥ २६७ ।। शाश्वतमनन्तमनतिशयमनुपममनुत्तरं निरवशेषम् । संपूर्णमप्रतिहतं सम्प्राप्तः केवलं ज्ञानम् || २६८ ।। कृत्स्ने लोकालोके व्यतीतसाम्प्रतभविष्यतः कालान् । द्रव्यगुणपर्यायाणां ज्ञाता दृष्टा च सर्वार्थैः ।। २६९ ॥ क्षीणचतुष्कर्मांशो वेद्यायुर्नामगोत्रवेदयिता । विहरति मुहूर्तकालं देशोनां पूर्वकोटिं वा ॥ २७० ॥ तेनाभिन्नं चरमभवायुर्भेदमनपवर्तित्वात् । तदुपग्रहं च वेद्यं तत्तुल्ये नामगोत्रे च ॥ २७९ ॥ यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषो ऽतिरिक्ततरम् । स समुद्धातं भगवानथ गच्छति तत्समीकर्तम् ।। २७२ ॥ दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापि चतुर्थे तु ॥ २७३ ॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ २७४ ॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु || २७५ || कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चके तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २७६ ॥ स समुद्घातनिवृत्तोऽथ मनोवाक्काययोगवान् भगवान् । यतियोग्ययोगयोक्ता योगनिरोधं मुनिरुपैति ॥ २७७ ॥ पचेन्द्रियोऽथ संज्ञी यः पर्याप्तो जघन्ययोगी स्यात् । निरुणद्धि मनोयोगं ततोऽप्यसंख्येय Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणहीनम् ॥ २७८ ॥ द्विन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छवासावधो जयति तद्वत् । पनकस्य काययोगं जघन्यपर्याप्तकस्याधः ।। २७९ ॥ सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाती काययोगोप-योगतो (गस्ततो?) ध्यात्वा । विगतक्रियमनिवर्तित्वमुत्तरं ध्यायति परेण ॥ २८० ॥ चरमभवे संस्थानं यादृग्यस्योच्छयप्रमाणं च। तस्मात्रिभागहीनावगाहसंस्थानपरिणाहः ॥ २८१ ॥ सोऽथ मनोवागुच्छवासकाययोगक्रियार्थविनिवृत्तः । अपरिमितनिर्जरात्मा संसारमहार्णवोत्तीर्णः ॥ २८२ ॥ ईषह्रस्वाक्षरपञ्चकोगिरणमात्रतुल्यकालीयाम् । संयमवीर्याप्तबल: शैलेशीमेति गतलेश्यः ॥२८३ ॥ पूर्वरचितं च तस्यां समयश्रेण्यामथ प्रकृतिशेषम् । समये समये क्षपयत्यसंख्यगुणमुत्तरोत्तरतः ॥२८४ । चरमे समये संख्यातीतान्विनिहत्य चरमकमांशान् । क्षपयति' युगपत् कृत्स्नं वेदायुर्नामगोत्रगणम ॥ २८५ ॥ सर्वगतियोग्य. संसारमूलकरणानि सर्वभावीनि । औदारिकतैजसकार्मणानि सर्वात्मना त्यक्त्त्वा ॥२८६॥ देहत्रयनिर्मुक्तः प्राप्यर्जुश्रेणिवीतिमस्पर्शाम् । समयेनैकेनाविग्रहेण गत्वोर्ध्वगतिमप्रतिघः ॥ २८७ ॥ सिद्धिक्षेत्रे विमले जन्मजरामरणरोगनिर्मक्तः । लोकाग्रगतः सिध्यति साकारेणोपयोगेन' ॥ २८८ ॥ सादिकमनन्तमनुपममव्याबाधसुखमुत्तमं प्राप्तः । केवलसम्यक्त्त्वज्ञानदर्शनात्मा भवति मुक्तः ॥२८९।। मुक्तः सन्नाऽभावः स्वालक्षण्यात्स्वतोऽर्थसिध्धेश्च । भावान्तरसंक्रान्तेः सर्वज्ञाज्ञोपदेशाच्च ॥ २९० ॥ त्यक्त्त्वा शरीरबन्धनमिहैव कर्माष्टकक्षयं कृत्वा । न स तिष्ठत्यनिबन्धादनाश्रयादप्रयोगाच्च ॥२९१।। नाधो गौरवविगमादशक्यभावाच्च गच्छति विमुक्तः । लोकान्तादपि न परं लवक इवोपग्रहाभावात् ॥ २९२ ॥ योगप्रयोगयोश्चाभावात्तिर्यग् न तस्य गतिरस्ति । सिद्धस्योर्ध्व मुक्तस्यालोकान्ताद्गतिर्भवति ॥२९३॥ पूर्वप्रयोगसिध्धेर्बन्धच्छेदादसङ्गभावाच्च । गतिपरिणामाच तथा सिद्धस्योवं गतिः सिद्धा ॥२९४ ॥ देहमनोवृत्तिभ्यां भवतः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारीरमानसे दुःखे । तदभावात्तदभावे सिद्ध सिद्धस्य सिद्धिसुखम् ॥ २९५ ॥ यस्तु यतिर्घटमानः सम्यक्त्त्वज्ञानशीलसंपन्नः । वीर्यमनिगूहमानः शक्त्त्यनुरूपं प्रयत्नेन ॥ २९६ ॥ संहननायुर्बलकालवीर्यसंपत्समाधिवैकल्यात् । कर्मातिगौरवाद्वा स्वार्थमकृत्वोपरममेति ॥२९७ ॥ सौधर्मादिष्वन्यतमकेषु सर्वार्थसिद्धिचरमेषु। स. भवति देवो वैमानिको महर्द्धिधुतिवपुष्कः ॥ २९८ ॥ तत्र सुरलोकसोख्यं चिरमनुभूय स्थितिक्षयात्तस्मात् । पुनरपि मनुष्यलोके गुणवत्सु मनुष्यसंघेषु ॥ २९९ ॥ जन्म समवाप्य कुलबन्धुविभवरूपबलबुद्धिसंपन्नः । श्रद्धासम्यक्त्त्वज्ञानसंवरतपोबलसमग्रः ॥ ३०० ॥ पूर्वोक्तभावनाभावितान्तरात्मा विधूतसंसारः। सेत्स्यति ततः परं वा स्वर्गान्तरितत्रिभवभावात् ॥ ३०१ ॥ यश्वेह जिनवरमते गृहाश्रमी निश्चितः सुविदितार्थः । दर्शनशीलव्रतभावनाभिरभिरञ्जितमनस्कः ॥ ३०२ ॥ स्थूलवधानृतचौर्यपरस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम् । दिव्रतमिह देशावकाशिकमनर्थविरतिं च ॥ ३०३ ॥ सामायिकं च कृत्वा पौषधमुपभोगपारिमाण्यं च । न्यायागतं च कल्प्यं विधिवत्पात्रेषु विनियोज्यम् ॥३०४॥ चैत्यायतनप्रस्थापनानि च कृत्वा शक्तितः प्रयतः। पूजाश्च गन्धमाल्याधिवासधूपप्रदीपाद्याः ॥ ३०५ ॥ प्रशमरतिनित्यतृषितो जिनगुरुसाधुजनवन्दनाभिरतः । संलेखनां च काले योगेनाराध्य सुविशुद्धाम् ॥ ३०६ ॥ प्राप्तः कल्पेविन्द्रत्वं वा सामानिकत्वमन्यद्वा । स्थानमुदारं तत्रानुभूय च सुखं तदनुरूपम् ।। ३०७ ॥ नरलोकमेत्य सर्वगुणसंपदं दुर्लभां पुनर्लब्ध्वा । शुद्धः स सिद्धिमेष्यति भवाष्टकाभ्यन्तरे नियमात् ॥३०॥ इत्येवं प्रशमरतेः फलमिह स्वर्गापवर्गयो'च शुभम् । संप्राप्यतेऽनगारैरगारिभि चोत्तरगुणाव्यः ॥ ३०९ ॥ जिनशासनार्णवादाकृष्ट धर्मकथिकामिमां श्रुत्वा । रत्नाकरादिव जरत्कपर्दिकामुद्धृतां भक्त्त्या ॥ ३१० ॥ सद्भिर्गुणदोषज्ञैर्दोषानुत्सृज्य गुणलवा ग्राह्या । सर्वा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्मना च सततं प्रशमसुखायैव यतितव्यम् ॥ ३११ ॥ यच्चासमंजसमिह छन्दःशब्दसमयार्थतो(मया?)ऽभिहितम् । पुत्रापराधवन्मम मर्षयितव्यं बुधैः सर्वम् ॥ ३१२ ॥ सर्वसुखमूलबीजं सर्वार्थविनिचयप्रकाशकरम् । सर्वगुणसिद्धिसाधनधनमईच्छासनं जयति ॥ ३१३ ॥ . ॥ समाप्तमिदं श्रीवाचकेन्द्रोमास्वामिविरचितं श्रीप्रशमरतिप्रकरणम् ॥ श्रीहृदयप्रदीपषट्त्रिंशिका । शब्दादिपञ्चविषयेषु विचेतनेषु, योऽन्तर्गतो हृदि विवेककलां व्यनक्ति । यस्माद् भवान्तरगतान्यपि चेष्टितानि प्रादुर्भवन्त्यनुभवं तमिमं भजेथाः ॥ १ ॥ जानन्ति केचिन्नतु कर्तुमीश , कतु क्षमा ये न च ते विदन्ति । जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कतु ते केऽपि लोके विरला भवन्ति ॥ २ ॥ सम्यग् विरक्तिर्ननु यस्य चित्ते, सम्यग् गुरुर्यस्य च तत्त्ववेत्ता । सदानुभूत्या दृढनिश्चयो यस्तस्यैव सिद्धिर्न हि चापरस्य ॥३॥ विग्रहं कृमिनिकायसङ्कलं दुखदं हृदि विवेचयन्ति ये । गुप्तिबन्धमिव चेतनं हि ते, मोचयन्ति तनुयः त्रयन्त्रितम् ॥ ४ ॥ भोगार्थमेतद् भविनां शरीरम्, ज्ञानार्थमेतत् किल योगिनां वै । जाता विषं चेद्विषया हि सम्यग-ज्ञानात्ततः किं कुणपस्य पुष्ट्या ॥ ५॥ त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषमूत्रपूर्णेऽनुरागः कुणपे कथं ते । दृष्टा च वक्ता च विवेकरूपत्स्वमेव साक्षात् किमु मुखसीत्थम् ॥ ६ ॥ धनं न केषां निधनं गतं वै, दरिद्रिणः के धनिनो न दृष्टाः । दुःखैकहेत्वत्र धनेऽतितृष्णां त्यक्त्त्वा सुखी स्यादिति मे विचारः ॥ ७ ॥ संसारदुःखान्न परोऽस्ति रोगः, सम्यग्विचारात् परमौषधं न । तद्रोगदुःखस्य विनाशनाय, सच्छा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ स्वतोयं क्रियते विचारः || ८ || अनित्यताया यदि चेत् प्रतीतिस्तत्त्वस्य निष्ठा च गुरुप्रसादात् । सुखी हि सर्वत्र जने वने च, नो चेद्वने चाथ जनेषु दुःखी || ९ || मोहान्धकारे भ्रमतीह तावत्, संसारदुःखैश्च कदर्थ्यमानः । यावद्विवेकार्कमहोदयेन, यथास्थितं पश्यति नात्मरूपम् ॥ १० ॥ अर्थो ह्यनर्थो बहुधा मतोऽयम्, स्त्रीणां चरित्राणि शवोपमानि । विषेण तुल्या विषयाश्च तेषां येषां हृदि स्वात्मलयानुभूतिः ।। ११ । कार्य च किं ते परदोषदृष्ट्या, कार्यं च किं ते परचिन्तया च । वृथा कथं खिद्य बालबुध्धे कुरु स्वकार्य त्यज सर्वमन्यत् ॥ १२ ॥ यस्मिन् कृते कर्मणि सौख्यलेशो दुःखानुबन्धस्य तथास्ति नान्तः । मनोऽभितापो मरणं हि यावत् मूर्खोऽपि कुर्यात् खलु तन्न कर्म ॥ १३ ॥ यदर्जितं वै वयसाऽखिलेन, ध्यानं तपो ज्ञानमुखं च सत्यम् । क्षणेन सर्व प्रदत्यो तत्, कामो बलि प्राप्य बलं (छलं ? ) यतीनाम् ॥ १४ ॥ बलादसौ मोहरिपुर्जनानां ज्ञानं विवेकं च निराकरोति । मोहाभिभूतं हि जगद्विनष्टं तत्त्वावबोधादपयाति मोहः ।। १५ ।। सर्वत्र सर्वस्य सदा प्रवृत्तिर्द:खस्य नाशाय सुखस्य हेतोः । तथापि दुःखं न विनाशमेति सुखं न कस्यापि भजेत् स्थिरत्वम् ॥ १६ ॥ यत् कृत्रिमं वैषयिकादि सौख्यम्, भ्रमन् भवे को न लभेत मर्त्यः । सर्वेषु तच्चाधममध्यमेषु यद् दृश्यते तत्र किमद्भुतं च ॥ १७ ॥ क्षुधातृषा कामविकाररोषहेतुश्च तद् भेषजवद्वदन्ति । तदस्वतन्त्रं क्षणिकं प्रयासकृत्, यतीश्वरा दूरतरं त्यजन्ति ॥ १८ ॥ गृहीतलिङ्गस्य च चेद्धनाशा, गृहीतलिङ्गो विषयाभिलाषी । गृहीतलिङ्गो रसलोलुपश्चेद्, विडम्बनं नास्ति ततोऽधिकं हि ॥ १९ ॥ ये लुब्धचित्ता विषयार्थभोगे बहिर्विरागा हृदि बद्धरागाः । ते दाम्भिका वेषधराश्च धूर्ताः मनांसि लोकस्य तु रञ्जयन्ति ॥ २० ॥ मुग्धच लोकोऽपि हि यत्र मार्गे निवेशितस्तत्र रतिं करोति । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्तस्य वाक्यैः परिमोहितानां केषां न चित्तं भ्रमतीह लोके ॥२१॥ ये निःस्पृहास्त्यक्तसमस्तरागास्तत्त्वैकनिष्ठा गलिताभिमानाः । सन्तोषपोषकविलीनवाब्छास्ते रञ्जयन्ति स्वमनो न लोकम् ॥२२॥ तावद्विवादी जनरञ्जकञ्च, यावन्न चैवात्मरसे सुखशः । चिन्तामणिं प्राप्य वरं हि लोके, जने जने कः कथयन् प्रयाति ॥ २३ ॥ षण्णां विरोधोऽपि च दर्शनानाम् , तथैव तेषां शतशश्च भेदाः । नानापथे सर्वजनः प्रवृत्तः, को लोकमाराधयितुं समर्थः ॥ २४ ॥ तदेव राज्यं हि धनं तदेव, तपस्तदेवेह कला च सैव । स्वस्थे भवेच्छीतलताशये चेन्नो चेद् वृथा सर्वमिदं हि मन्ये ॥ २५ ॥ रुष्टैर्जनैः किं यदि चित्तशान्तिस्तुष्टैर्जनैः किं यदि चित्ततापः । प्रीणाति नो नैव दुनोति चान्यान, स्वस्थः सदोदासपरो हि योगी. ॥ २६ ॥ एकः पापात् पतति नरके, याति पुण्यात् स्वरेकः, पुण्यापुण्यप्रचयविगमात् मोक्षमेकः प्रयाति । संगान्नूनं न भवति सुखम् , न द्वितीयेन कार्यम् , तस्मादेको विचरति सदानन्दसौख्येन पूर्णः ॥ २७ ॥ त्रैलोक्यमेतद् बहुभिर्जितं यैर्मनोजये तेऽपि यतो न शक्ताः । मनोजयस्यात्र पुरो हि तस्मात् , तृणं त्रिलोकीविजयं वदन्ति ॥ २८ ॥ मनोलयानास्ति परो हि योगो ज्ञानं तु तत्त्वार्थविचारणाच । समाधिसौख्यान्न परं च सौख्यम् , संसारसारं प्रयमेतदेव ॥ २९ ॥ या सिद्धयोऽष्टावपि दुर्लभा ये, रसायनं चाञ्जनधातुवादाः । ध्यानानि मन्त्राश्च समाधियोगाश्चित्ते प्रसन्ने विषवद् भवन्ति ॥ ३० ॥ विन्दन्ति तत्त्वं न यथास्थितं बै, सङ्कल्पचिन्ताविषयाकुला ये । संसारदुःखैश्व कदर्थितानाम् , स्वप्नेऽपि तेषां न समाधिसौख्यम् ।। ३१ ।। श्लोको वरं परमतत्त्वपथप्रकाशी, न ग्रन्थकोटिपठनं जनरञ्जनाय । सञ्जीवनीति वरमौषधमेकमेव, व्यर्थःश्रमप्रजननो न तु मूलभारः ॥ ३२ ॥ तावत् सुखेच्छा विषयादिभोगे, यावन् मनः स्वास्थ्यसुखं न वेत्ति । लब्धे मनः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यमुखैकलेशे, त्रैलोक्यराज्येऽपि न तस्य वान्छा ॥ ३३ ॥ न देवराजस्य न चक्रवर्तिनस्तद्वै सुखं रागयुतस्य मन्ये । यद्वीतरागस्य मुनेः सदात्मनिष्ठस्य चित्ते स्थिरतां प्रयाति ॥ ३४ ॥ यथा यथा कार्यशताकुलं वै, कुत्रापि नो विश्रमतीह चित्तम् । तथा तथा तत्त्वमिदं दुरापं हृदिस्थितं सारविचारहीनैः ॥ ३५ ॥ शमसुखरसलेशात् द्वेष्यतां संप्रयाता विविधविषयभोगात्यन्तवाञ्छाविशेषाः । परमसुखमिदं यद् भुज्यतेऽन्तः समाधौ, मनसि यदि तदा ते शिष्यते किं वदान्यत् ॥ ३६ ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यचरणकजचश्चरीकगुर्जरसम्राट्श्रीकुमारपालविरचितं साधारणजिनस्तवनम् ॥ नम्राखिलाखण्डलमौलिरत्नरश्मिच्छरापल्लवितांहिपीठ। विध्वस्तविश्वव्यसनप्रबन्ध, त्रिलोकबन्धो जयताजिनेन्द्र ॥१॥ मूढोऽस्म्यहं विज्ञपयामि यत्त्वामपेतरागं भगवन् कृतार्थम् । नहि प्रभूणामुचितस्वरूपनिरूपणाय क्षमतेऽर्थिवर्गः ॥ २ ॥ मुक्तिं गतोऽपीश विशुद्धचित्ते गुणाधिरोपेण ममासि साक्षात् । भानुदेवीयानपि दर्पणेऽशुसङ्गान्न किं द्योतयते गृहान्तः ॥ ३ ॥ तव स्तवेन क्षयमङ्गभाजां भजन्ति जन्मार्जितपातकानि । कियच्चिरं चण्डरुचेमरीचिस्तोमे तमांसि स्थितिमुद्वहन्ति ॥ ४ ॥ शरण्य कारुण्यपरः परेषां निहंसि मोहज्वरमाश्रितानाम् । मम त्वदाज्ञां वहतोऽपि मूर्ना शान्तिं न यात्येष कुतोऽपि हेतोः ॥ ५ ॥ भवाटवीलङ्घनसार्थवाहं त्वामाश्रितो मुक्तिमहं यियासुः । कषायचौरैर्जिन लुप्यमानं रत्नत्रयं मे तदुपेक्षसे किम् ॥ ६ ॥ लब्धोऽसि स त्वं मयका महात्मा भवाम्बुधौ बंभ्रमता कथंचित् । आः पापपिण्डेन नतो न भक्त्त्या , न पूजितो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथ न तु स्तुतोऽसि ॥ ७ ॥ संसारचक्रे भ्रमयन् कुबोधदण्डेन मां कर्ममहाकुलालः । करोति दुःखप्रचयस्थभाण्डम् , ततः प्रभो रक्ष जगच्छरण्य ॥ ८॥ कदा त्वदाज्ञाकरणाततत्त्वस्त्यक्त्त्वा ममत्वादि भवैककन्दम् । आत्मैकसारो निरपेक्षवृत्तिर्मोक्षेऽप्यनिच्छो भवितास्मि नाथ ॥ ९ ॥ तव त्रियामापतिकान्तिकान्तैर्गुणैनियम्यास्ममनःलवङ्गम् । कदा त्वदाज्ञाऽमृतपानलोलः, स्वामिन् परब्रह्मरति करिष्ये ॥ १० ॥ एतावती भूमिमहं त्वदंहिपद्मप्रसादाद्तवानधीश । हठेन पापास्तदपि स्मराया ही मामकार्येषु नियोजयन्ति ॥ ११ ॥ भद्र न किं त्वय्यपि नाथनाथे, सम्भाव्यते मे यदपि स्मराद्याः । अपाक्रियन्ते शुभभावनाभिः, पृष्ठिं न मुश्चन्ति तथापि पापाः ॥१२॥ भवाम्बुराशौ भ्रमतः कदापि, मन्ये न मे लोचनगोचरोऽभूः । निस्सीमसीमन्तकनारकादिदुःखातिथित्वं कथमन्यथेश ॥ १३ ॥ चक्रासिचापाकुशवजमुख्यैः, सल्लक्षणैर्लक्षितमंह्रियुग्मम्। नाथ त्वदीयं शरणं गतोऽस्मि, दुर्वारमोहादिविपक्षभीतः ॥ १४ ॥ अगण्यकारुण्य शरण्य पुण्य, सर्वज्ञ निष्कण्टक विश्वनाथ । दीनं हताशं शरणा. गतं च, मां रक्ष रक्ष स्मरभिल्लभल्लेः ॥ १५ ॥ त्वया विना दुष्कृतचक्रवालं नान्यः क्षयं नेतुमलं ममेश । किंवा विपक्षप्रतिचक्रमूलम् , चक्रं विना च्छेत्तुमलम्भविष्णुः ॥ १६॥ यदेवदेवोऽसि महेश्वरोऽसि, बुद्धोऽसि विश्वत्रयनायकोऽसि । तेनान्तरङ्गारिगणाभिभूतस्तवाग्रतो रोदिमि हा सखेदम् ॥ १७ ॥ स्वामिन्नधर्मव्यसनानि हित्वा, मनः समाधौ निदधामि यावत् । तावत्क्रुधेवान्तरवैरिणो मामनल्पमोहान्ध्यवशं नयन्ति ॥ १८ ॥ त्वदागमाद्वेद्मि सदैव देव, मोहादयो यन्मम वैरिणोऽमी । तथापि मूढस्य पराप्त बुद्धया तत्सन्निधौ ही न किमप्यकृत्यम् ॥ १९ ॥ म्लेच्छर्नशंसैरतिराक्षसैश्च, विडम्बितोऽमीभिरनेकशोऽहम् । प्राप्तस्त्विदानी भुवनैकवीर, त्रायस्व मां यत्तव पादलीनम् ॥ २०॥ हित्वा स्वदेहेऽपि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वबुद्धिं श्रद्धापवित्रीकृतसद्विवेकः । मुक्तान्यसङ्गः, समशत्रुमित्रः, स्वामिन् कदा संयममातनिष्ये ॥२१॥ त्वमेव देवो मम वीतराग, धर्मो भवदर्शितधर्म एव । इति स्वरूपं परिभाव्य तस्मान्नोपेक्षणीयो भवति स्वभृत्यः ॥ २२ ॥ जिता जिताशेषसुरासुरागः, कामादयः कामममी त्वयेश । त्वां प्रत्यशक्तास्तव सेवकं तु, निघ्नन्ति हि मां परुषं रुपैव ॥ २३ ॥ सामर्थ्यमेतद्भवतोऽस्ति सिद्धिं सत्त्वानशेषानपि नेतुमीश । क्रियाविहीनं भवदंहिलीनम् , दीनं न किं रक्षसि मां शरण्य ॥ २४ ॥ त्वत्पादपद्मद्वितयं जिनेन्द्र, स्फुरत्यजस्र हृदि यस्य पुंसः । विश्वत्रयीश्रीरपि नूनमेति, तत्राश्रयार्थ सहचारिणीव ॥२५॥ अहं प्रभो निर्गुणचक्रवर्ती, क्रूरो दुरात्मा हतकः सपाप्मा । ही दुःखराशौ भववारिराशौ, यस्मान्निमग्नोऽस्मि भवद्विमुक्तः ॥ २६ ।। स्वामिनिमग्नोऽस्मि सुधासमुद्रे, यन्नेत्रपात्रातिथिरद्य मेऽभूः । चिन्तामणौ स्फूर्जति पाणिपझे, पुंसामसाध्यो नहि कश्चिदर्थः ॥ २७ ॥ त्वमेव संसारमहाम्बुराशौ, निमजतो मे जिन यानपात्रम् । त्वमेव मे श्रेष्ठसुखैकधाम, विमुक्तिरामाघटनाभिरामः ॥ २८ ॥ चिन्तामणिस्तस्य जिनेश पाणौ, कल्पद्रमस्तस्य गृहाङ्गणस्थः । नमस्कृतो येन सदापि भक्त्त्या, स्तोत्रैः स्तुतो दामभिरर्चितोऽसि ॥२९॥ निमील्य नेत्रे मनसः स्थिरत्वं विधाय यावजिन चिन्तयामि । त्वमेव तावन्न परोऽस्ति देवो निःशेषकर्मक्षयहेतुरत्र ॥३०॥ भक्त्त्या स्तुता अपि परे परया परेभ्यो मुक्तिं जिनेन्द्र ददते न कथञ्चनापि । सिक्ताः सुधारसघटैरपि निम्बवृक्षा विश्राणयन्ति नहि चूतफलं कदाचित् ॥ ३१ ॥ भवजलनदिमध्यानाथ निस्तार्य कार्यः, शिवनगरकुटुम्बी निर्गुणोऽपि त्वयाऽहम् । नहि गुणमगुणं वा संश्रितानां महान्तो निरुपमकरुणााः सर्वथा चिन्तयन्ति ॥ ३२ ॥ प्राप्तस्त्वं बहुभिः शुभैत्रिजगतश्रूडामणिर्देवता, निर्वाणप्रतिभूरसावपि गुरुः श्रीहेमचन्द्रप्रभुः । तन्नातः परमस्ति वस्तु किमपि स्वामिन् Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ यदभ्यर्थये, किन्तु त्वद्वचनादरः प्रतिभवम् , स्ताद्वर्द्धमानो मम ॥ ३३ ॥ इति साधारणजिनस्तवनम् ।। श्रीरत्नाकरपञ्चविंशतिका श्रेयः श्रियां मङ्गलकेलिसद्म! नरेन्द्रदेवेन्द्रनतांघ्रिपद्म!। सर्वज्ञ! सर्वातिशयप्रधान ! चिरं जय ज्ञानकलानिधान ! ॥१॥जगत्त्रयाधार! कृपावतार ! दुर्वारसंसारविकारवैद्य ! । श्री वीतराग ! त्वयि मुग्धभावाद्विज्ञप्रभो! विज्ञपयामि किश्चित् ॥२॥ किं बाललीलाकलितो न बालः, पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः । तथा यथार्थ कथयामि नाथ ! निजाशयं सानुशयस्तवाने ॥ ३ ॥ दत्तं न दानं परिशीलितं च न शालि शीलं न तपोऽभितप्तम् । शुभो न भावोऽप्यभवद्भवेऽस्मिन् विभो ! मया भ्रान्तमहो मुधैव ॥ ४ ॥ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दष्टो, दुष्टेन लोभाख्यमहोरगेण । प्रस्तोऽभिमानाजगरेण, माया-जालेन बद्धोऽस्मि कथं भजे त्वाम् ॥ ५ ॥ कृतं मयाऽमुत्र हितं न चेहलोकेऽपि लोकेश! सुखं न मेऽभूत् । अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश! जज्ञे भवपूरणाय ॥ ६ ॥ मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्तं, त्वदास्यपीयूषमयूखलाभात् । द्रुतं महानंदरसं कठोरमस्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ॥ ७ ॥ त्वत्तः सुदुःप्राप्यमिदं मयाप्तं रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण । प्रमादनिद्रावशतो गतं तत् , कस्यापतो नायक ! पूत्करोमि ॥ ८ ॥ वैराग्यरङ्गोऽपरवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय । वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत्, कियद् ब्रुवे हास्यकरं स्वमीश ! ॥ ९ ॥ परापवादेन मुखं सदोषम्, नेत्रं परस्त्रीजनवीक्षणेन । चेतः पराऽपायविचिन्तनेन कृतं भविष्यामि कथं विभोऽहम् ॥ १०॥ विउम्बितं यत्स्मरघस्म Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ रार्तिदशावशात्स्वं विषयान्धलेन । प्रकाशितं तद्भवतो हियैव, सर्वज्ञ ! सर्व स्वयमेव वेत्सि ।। ११ ।। ध्वस्तोऽन्यमन्त्रैः परमेष्ठिमन्त्रः, कुशास्त्रवाक्यैर्निहतागमोक्तिः । कतु वृथा कर्म कुदेवसङ्गावाञ्छि ही ( है ) नाथ मतिभ्रमो मे || १२ || विमुच्य हगूलक्ष्यगतं भवन्तम्, ध्याता मया मूढधिया हृदन्तः । कटाक्षवक्षोजगभीरनाभिकटीतटीयाः सुदृशां विलासाः || १३ || लोलेक्षणावसूत्रनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः । न शुद्धसिद्धान्तपयोधिमध्ये, धौतोऽप्यगात्तारक ! कारणं किम् ॥ १४ ॥ अङ्ग न चङ्ग न गणो गुणानां, न निर्मल: कोऽपि कलाविलासः । स्फुरत्प्रभा न प्रभुता च कापि, तथाप्यहङ्कारकदर्थितोऽहम् ।। १५ ।। आयुर्गलत्याशु न पापबुद्धिर्गतं वयो नो विषयाभिलाषः । यत्नश्च भैषज्यविधौ न धर्मे, स्वामिन्महामोहविडम्बना मे ॥ १६ ॥ नात्मा न पुण्यं न भवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयम् । अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, पुरः स्फुटे सत्यपि देव ! धिङ् माम् ॥ १७ न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः । लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं कृतं मयाऽरण्यविलापतुल्यम् ॥ १८ ॥ चक्रे मयाऽसत्स्वपि कामधेनुकल्पद्रु चिन्ताणिषु स्पृहातिः । न जैनधर्मे स्फुटशर्मदेऽपि, जिनेश ! मे पश्य विमूढभावम् ॥ १९ ॥ सद्भोगलीला न च रोगकीला, धनागमो नो निधनागमश्च । दारा नकारा नरकस्य चित्ते, व्यचिन्ति नित्यं मयकाऽधमेन || २० || स्थितं न साधोहृदि साधुवृत्तात्, परोपकारान्न यशोऽज्जिंतं च । कृतं न तीर्थोद्धरणादि कृत्यं, मया मुधा हारितमेव जन्म ॥ २१ ॥ वैराग्यरङ्गो न गुरुदितेषु, न दुर्जनानां वचनेषु शान्तिः । नाऽध्यात्मलेशो मम कोऽपि देव, तार्यः कथङ्कारमयं भवान्धिः || २२ || पूर्वे भवेऽकारि मया न पुण्यमागामिजन्मन्यपि नो करिष्ये । यदीदृशोऽहं मम तेन नष्टा भूतोद्भवद्भाविभवत्रयीश ! ॥ २३ ॥ किं वा मुधाऽहं बहुधा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सुधाभुपूज्य त्वदमे चरितं स्वकीयम् । जल्पामि यस्मात् त्रिजगत्स्वरूपनिरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ॥ २४ ॥ दीनोद्धारधुरन्धरस्त्वदपरो नास्ते मदन्यः कृपापात्रं नात्र जने जिनेश्वर ! तथाऽप्येतां न याचे श्रियम् । किंत्वई न्निदमेव केवलमहो सद्वोधिरत्नं शिवं, श्रीरत्नाकर ! मङ्गलैकनिलय ! श्रेयस्करं प्रार्थये ।। २५ ।। इति श्रीरत्नाकरपचविशतिका ॥ वाचकेन्द्रोमास्वातिविरचितं स्वोपज्ञभाष्यगतसम्बन्धकारिका दियुतं श्रीतत्त्वार्थाधिगमाख्यं महाशास्त्रम् । सम्यग्दर्शनशुद्धं यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति । दुःखनिमित्तमपीदं तेन लब्धं भवति जन्म ॥ १ ॥ जन्मनि कर्मक्लेशैरनुबधेऽस्मिँस्तथा प्रयतितव्यम् । कर्मक्लेशाभावो यथा भवत्येष परमार्थः ॥ २ ॥ परमार्थालाभे वा दोषेष्वारम्भकस्वभावेषु । कुशलानुबन्धमेव स्यादनवद्य यथा कर्म ॥ ३ ॥ कर्माहितमिह चामुत्र चाधमतमो नरः समारभते । इहफलमेव त्वधमो विमध्यमस्तूभयफलार्थम् ॥ ४ ॥ परलोकहितायैव प्रवर्तते मध्यमः क्रियासु सदा । मोक्षायैव तु घटते विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः ॥ ५ ॥ यस्तु कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव ॥ ६ ॥ तस्मादईति पूजामवोत्तमोत्तम लोके । देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्यो ऽप्यन्यसत्त्वानाम् ॥ ७ ॥ अभ्यर्चनादईतां मनःप्रसादस्ततः समाधिश्च । तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥ ८ ॥ तीर्थप्रवर्तनफलं यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकर नाम । तस्योदयात्कृतार्थोऽप्यस्तीर्थं प्रवर्तयति ॥ ९ ॥ तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥१०॥ यः शुभकर्मासेवनभावितभावो भवेष्वनेकेषु । जज्ञे ज्ञातेवाकुषु सिद्धार्थनरेन्द्रकुलदीपः ॥ ११ ॥ ज्ञानैः पूर्वाधिगतैरप्रतिपतितैर्मतिश्रुतावधिभिः । त्रिभिरपि शुद्धयुक्तः शैत्यद्युतिकान्तिभिरिवेन्दुः ॥ १२ ॥ शुभसारसत्त्वसंहननवीर्यमाहात्म्यरूपगुणयुक्तः । जगति महावीर इति त्रिदशैगुणतः कृताभिख्यः ॥ १३ ॥ स्वयमेव बुद्धतत्वः सत्त्वहिताभ्युद्यताचलितसत्त्वः । अभिनन्दितशुभसत्त्वः सेन्र्लोकान्तिकैर्देवैः ॥ १४ ॥ जन्मजरामरणात जगदशरणमभिसमीक्ष्य निःसारम् । स्फीतमपहाय राज्यं शमाय धीमान् प्रवव्राज ॥ १५ ॥ प्रतिपद्याशुभशमनं निःश्रेयससाधकं श्रमणलिङ्गम् । कृतसामायिककर्मा व्रतानि विधिवसमारोप्य ॥१६॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंवरतपःसमाधिबलयुक्तः । मोहादीनि निहत्याशुभानि चत्वारि कर्माणि ।। १७ ।। केवलमधिगम्य विभुः स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनन्तम् । लोकहिताय कृतार्थोऽपि देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १८ ॥ द्विविधमनेकद्वादशविधं महाविषयममितगमयुक्तम् । संसारार्णवपारगमनाय दुःखक्षयायालम् ॥१९॥ ग्रन्थार्थवचनपटुभिः प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिर्निपुणैः । अनभिभवनीयमन्यैर्भास्कर इव सर्वतेजोभिः ॥२०॥ कृत्वा त्रिकरणशुद्ध तस्मै परमर्षये नमस्कारम् । पूज्यतमाय भगवते वीराय विलीनमोहाय ॥ २१ ॥ तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥ महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य । कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कतम् ॥ २३ ॥ शिरसा गिरि बिभित्सेदुञ्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोाम् । प्रतितीच्च समुद्र भित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ॥ २४ ॥ व्योम्नीन्दु चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेञ्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ।। खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिबुभूषेच्च भास्करं मोहात् । योऽतिमहाग्रन्थार्थ जिनवचनं संजिघृक्षेत Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २६ ॥ एकमपि तु जिनवचनाद्यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः ॥ २७ ॥ तस्मात्तत्प्रामाण्यात समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विचारं ग्राह्य धार्य च वाच्यं च ॥ २८ ॥ न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । अवतोऽनुग्रहबुद्धया वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥२९॥ श्रममविचिन्त्यात्मगतं तस्माच्छेयः सदोपदेष्टव्यम्। आत्मानं च परं च हि हितोपदेष्टानुगृहणाति ॥ ३० ॥ नर्ते च मोक्षमार्गाद्धितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥ इति सम्बन्धकारिकाः । श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहः प्रथमोऽध्यायः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः ॥ ५ ॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥ निर्देशस्वामित्वसाध. नाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७ ॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८ ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९ ॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आये परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥१३॥ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ अवग्रहेहापायधारणाः ॥१५॥ बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥ अर्थस्य ॥ १७ ॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥ श्रुतं मतिपूर्व ब्यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ द्विविधोऽवधिः ॥२१॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ॥ २२ ॥ यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २३ ॥ ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः ॥ २४ ॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२५॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः ॥२६॥ मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २७ ॥ रूपिष्ववधेः ॥२८॥ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ॥२९॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ ३० ॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्थ्यः ॥ ३१ ॥ मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३३ ॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ ३४ ॥ आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ॥ ३५ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थधिगमेऽहत्प्रवचनसमहे प्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १ ॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ।। २ ।। सम्यक्त्वचारित्रे ॥ ३ ॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुखित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥ गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनासंयतासिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्थ्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥ ६॥ जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥ ७ ॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ समनस्कामनस्काः ॥ ११ ॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ पृथिव्यबवनस्पतय स्थावराः ॥ १३ ॥ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः ॥ १४ ॥ पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ द्विविधानि ॥ १६ ॥ निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥१८॥ उपयोगः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ स्पर्शादिषु ॥ १९ ॥ स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ २० ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥ २१ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २२ ॥ वाय्वन्तानामेकम् ॥ २३ ॥ कृमिपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २४ ॥ संज्ञिनः समनस्काः ॥ २५ ॥ विग्रहगतौ कर्म - योगः ॥ २६ ॥ अनुश्रेणि गतिः ||२७|| अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ।। २९ ।। एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ एकं द्वौ नाहारकः ॥ ३१ ॥ सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म ।। ३२ ।। सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राचैकशस्तद्योनयः ॥ ३३ ॥ जराखंडपोतजानां गर्भः ॥ ३४ ॥ नारक देवानामुपपातः ।। ३५ ।। शेषाणां संमूर्च्छनम् ॥ ३६ ॥ औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३७ ॥ तेषां परं परं सूक्ष्मम् ||३८|| प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३९ ॥ अनन्तगुणे परे ॥४०॥ अप्रतिघाते ॥ ४१ ॥ अनादिसंबंधे च ॥ ४२ ॥ सर्वस्य ||४३|| तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्या चतुर्भ्यः ॥ ४४ ॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥ गर्भसंमूर्छन जमाद्यम् ॥ ४६ ॥ वैक्रियमौपपातिकम् ।। ४७ ।। लब्धिप्रत्ययं च ॥ ४८ ॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४९ ॥ नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न दे॒वाः ।। ५१ । औपपातिकचरम देहोत्तमपुरुषासंख्येवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥ ५२ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽत्प्रवचनसङ्ग्रहे द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायः रत्नशर्करावालुकापंकधूम तमोमहातमः प्रभा भूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ॥ १ ॥ तासु नरकाः ॥ २ ॥ नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम देहवेदनाविक्रियाः ॥ ३ ॥ परस्परोदी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ रितदुःखाः ॥ ४॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जंबूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥ ७॥ द्विढिविष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥ ८ ॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कंभो जंबूद्वीपः ॥ ९ ॥ तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ।। १० ।। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥ ११ ॥ द्विर्धातकीखंडे ॥ १२ ॥ पुष्करार्धे च । १३ ।। प्राग्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ १४ ॥ आर्या म्लिशश्च ॥ १५ ॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ १६ ।। नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तमुहूर्ते ॥ १७ ॥ तिर्यगयोनीनां च ॥ १८ ॥ . इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः देवाश्चतुर्निकायाः ॥१॥ तृतीयः पीतलेश्यः ॥ २॥ दशाष्ट. पश्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ।।३।। इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकश : ॥४॥ त्रायास्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः॥५॥ पूर्वयोज़न्द्राः ॥ ६ ॥ पीतान्तलेश्याः ॥७॥ कायप्रवीचारा आ ऐषानात् ॥ ८ ॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः ॥ ९ ॥ परेऽप्रवीचाराः ॥ १० ॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥ ११ ॥ व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगान्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ १२ ॥ ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णतारकाश्च ॥ १३ ॥ मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नलोके ॥१४॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १५ ॥ बहिरवस्थिताः ॥१६॥ वैमानिकाः ॥ १७ ॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १८ ॥ उपर्यपरि ॥१९॥ सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु प्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिध्धे च ॥२०॥ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२१॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २२॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २३ ॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥ सारस्वतादित्यवहायरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतः (अरिष्टाश्च) ॥२६॥ विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २७ ॥ औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्य.. ग्योनयः ॥ २८ ॥ स्थितिः ॥ २९ ॥ भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् ॥ ३० ॥ शेषाणां पादोने ॥ ३१ ॥ असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ॥ ३२ ॥ सौधर्मादिषु यथाक्रमम् ॥ ३३ ॥ सागरोपमे ॥३४॥ अधिके च ॥३५॥ सप्त सानत्कुमारे ॥३६॥ विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च ॥ ३७ ॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिध्धे च ॥३८॥ अपरा पल्योपममधिकं च ॥३९॥ सागरोपमे ॥४०॥ अधिके च ॥ ४१ ॥ परतः परतः पूर्वो पूर्वानन्तरा ॥ ४२ ॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ४३ ॥ दशवर्षसहस्त्राणि प्रथमायाम् ॥ ४४ ॥ भवनेषु च ॥ ४५ ॥ व्यन्तराणां च ॥ ४६ ॥ परा पल्योपमम् ॥ ४७ ।। ज्योतिष्काणामधिकम् ॥४८॥ ग्रहाणामेकम ॥ ४९ ॥ नक्षत्राणामर्धम् ॥ ५० ॥ तारकाणां चतुर्भागः ॥५१॥ जघन्या त्वष्टभागः ॥ ५२ ॥ चतुर्भागः शेषाणाम् ॥ ५३ ।। इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे चतुर्थोऽध्यायः Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पञ्चमोऽध्यायः अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ द्रव्याणि जीवाश्च ॥२॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥३॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ४ ॥ आऽऽकाशादेकद्रव्याणि ॥५॥ निष्क्रियाणि च ॥६॥ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥ ७ ।। जीवस्य च ॥ ८॥ आकाशस्यानन्ताः ॥ ९ ॥ संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।। १० ॥ नाणोः ।। ११ ।। लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७ ॥ आकाशस्यावगाहः ।। १८ ।। शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। १९ ॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ।। परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ॥ स्पर्शरसगन्धवणेवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ शब्दबन्धसोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमच्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ।। अणवः स्कन्धाश्च ।। २५ ।। संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भेदादणुः ॥ २७ ॥ भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ॥ २८ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ २१ ॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३० ॥ अर्पितानर्पितसिद्धः ॥ ३१ ॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः ॥३२॥ न जघन्यगुणानाम् ॥३३॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४ ॥ व्यधिकादिगुणानां तु ॥ ३५ ॥ बन्धे समाधिको पारिणामिकौ ॥ ३६ ।। गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ३७ ॥ काल चेत्येके ॥ ३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ३९ ॥ द्रव्याश्रया निर्गणा गुणाः ॥ ४० ॥ तद्भावः परिणामः ।। ४१ ॥ अनादिरादिमांश्च ॥४२॥ रूपिष्वादिमान् ॥४३॥ योगोपयोगी जीवेषु ॥४४॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसझहे पञ्चमोऽध्यायः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ षष्ठोऽध्यायः कायवाङमनःकर्म योगः॥१॥ स आस्रवः॥२॥ शुभः पुण्यस्य ॥ ३॥ अशुभः पापस्य ॥ ४ ॥ सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः ॥ ५ ॥ अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ६ ॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ७ ॥ अधिकरणं जीवाजीवाः ॥ ८ ॥ आद्य संरंभसमारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैत्रिलिखिश्चतुश्चै कशः ॥ ९॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ १० ॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ ११ ॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥ १२ ॥ भूतव्रत्यनुकंपा दानं सरागसंयमादि योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १३ ॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १४ ॥ कषायोदयात्तीवात्मपरिणामश्वारित्रमोहस्य ॥१५॥ बह्वारंभपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥१६॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥ १७ ॥ अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ॥१८॥ निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥ १९ ॥ सरागसंयमसंयमासंयमाकामानिर्जराबालतपांसि दैवस्य ॥२०॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ॥ विपरीतं शुभस्य ॥ २२ ॥ दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी संघसाधुसमाधिवैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ २३ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२५॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२६॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसडआहे षष्ठोऽध्यायः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ सप्तमेोऽध्यायः हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ||१|| देशसर्वतोऽमी || २ || तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥ ३ ॥ हिंसादिविहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥ ४ ॥ दुःखमेव वा ॥ ५ ॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥ ६॥ जगत्का स्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ॥ ७ ॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ८ ॥ असदभिधानमनृतम् ॥९॥ अदत्तादानं स्तेयम् ||१०|| मैथुनमब्रह्म || ११ || मूर्च्छा परिग्रहः ॥ १२ ॥ निः शल्यो व्रती || १३|| अगार्थनगारश्च ॥१४॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ १५ ॥ दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपर भोगतिथिसंविभागतसंपन्नश्च ॥ १६ ॥ मारणान्तिकीं संखेलनां जोषिता ॥ १७॥ शंकाकांक्षा विचिकित्साम्यदृष्टि प्रशंसासंस्तत्राः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ १८ ॥ व्रतशीलेषु पश्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ १९ ॥ बन्धवधछविच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥ २० ॥ मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यान कूटलेखक्रियान्यासापहार साकारमंत्रभेदाः ।। २१ ।। स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमद्दीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहाराः || २२ || परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीडातीत्रकामाभिनिवेशाः || २३ || क्षेत्रत्रास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कुण्य प्रमाणातिक्रमाः ॥ २४ ॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ २५ ॥ आनयनप्रेष्य प्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ २६ ॥ कंदर्प कौकुच्य मौखर्या समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ॥ २७ ॥ योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २८ ॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेप संस्तारोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २९ ॥ सचित्तसंबद्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः ॥ ३० ॥ सचित्त निक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकाला Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ तिक्रमाः ॥ ३१ ॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानकरणानि ॥ ३२ ॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३३ ॥ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः ॥ ३४ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽईत्प्रवचनसंग्रहे सप्तमोऽध्यायः ·() अष्टमोऽध्यायः मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १ ॥ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ॥ २ ॥ स बन्धः ॥ ३ ॥ प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ४ ॥ भद्यो ज्ञान - दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुकनामगोत्रान्तरायाः ॥ ५ ॥ पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद् द्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ६ ॥ मत्यादीनाम् ॥ ७ ॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रच लाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ॥ ८ ॥ . सदसद्वेद्ये ||९|| दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषाय वेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिध्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पा' चैकशः क्रोधमानमायालोभा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः ॥ १० ॥ नारकतैर्य - ग्योनमानुषदेवानि ॥ ११ ॥ गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माण बन्धनसंघातसंस्थान संहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलधूपघातपराघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर ससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥ १२ ॥ उच्चैर्नीचैश्च || १३ || दानादीनाम् ॥ १४ ॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः परा स्थितिः ।। १५ ।। सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १६ ॥ नामगोत्रयोविंशतिः ॥ १७ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्या Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ युष्कस्य ॥ १८ ॥ अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १९ ॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥ २० ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ २१ ॥ विपाकोऽनुभावः ॥ २२ ॥ स यथानाम ॥२३॥ ततश्च निर्जरा ।।२४ ॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २५ ॥ सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २६ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे अष्टमोऽध्यायः नवमोऽध्यायः आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १ ॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥ २ ॥ तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥ ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥ ५ ॥ उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनागन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥९॥ सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयो चतुर्दश ।। १० ॥ एकादश जिने ॥११॥ बादरसंपराये सर्वे ॥ १२॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१३।। दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ॥ १५ ॥ वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ एकादयो भाज्या युगपदेकोनविंशतः ॥ १७ ॥ सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातानि चारि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रम् ।। १८ ।। अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानर सपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ॥ १९ ॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ।। २१ ।। आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि ॥ २२ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः || २३ || आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानगणकुलसंघसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।। २५ ।। बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ उत्तमसंहननस्यैकाप्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ भ मुहूर्तात् ॥ २८ ॥ आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ॥ २९ ॥ परे मोक्षहेतू ॥ ३० ॥ आर्तममनोज्ञानां संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः || ३१ || वेदनाया'च ॥ ३२ ॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥ निदानं च ॥ ३४ ॥ तद्विरत देशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः || ३६ || आज्ञापायविपाक संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।। ३७ ।। उपशान्तक्षीणकषायो || ३८ || शुक्ले चाद्ये ॥ ३९ ॥ परे केवलिनः ||४०|| पृथक्त्यैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवृत्तीनि ॥४१॥ तत् त्र्येककाययोगायोगानाम् ॥ ४२ ॥ एकाश्रये सवितर्फे पूर्वे ॥ ४३ ॥ अविचारं द्वितीयम् ॥ ४४ ॥ वितर्कः श्रुतम् ॥ ४५ ॥ विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥ ४६ ॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा: ॥ ४७ ॥ पुलाकबकुशकुशील निर्ग्रन्थस्नातका निर्मन्थाः ॥ ४८ ॥ संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिंग लेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४९ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽईत्प्रवचनसङग्रहे नवमोऽध्यायः :: Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ दशमोऽध्यायः मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥ १ ॥ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥ २ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥ ३ ॥ औपशमिकादि भव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः || ४ || तदनन्तरमुदुर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ||५|| पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धविच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः ॥ ६ ॥ क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसं ख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥ ७ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसङग्रहे दशमोऽध्यायः 000 अथ भाष्यप्रशस्तिः · एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशम् । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ॥ १ ॥ पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कार्त्स्न्येन मोहनीयं प्रहीयते ॥ २ ॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ ३ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा तालो विनश्यति । तथा कर्म क्षयं याति मोहनीये क्षयं गते ॥ ४ ॥ ततः क्षीणचतुःकर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धननिर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ॥ ५ ॥ शेषकर्मफलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली ॥ ६ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्वं निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वह्निर्निरुपादानसन्ततिः ॥ ७ ॥ दग्धे बोजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्करः ॥ ८ ॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वबन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः ॥ ९ ॥ कुलालचक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेद्द तथा 1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सिद्धिगति स्मृता ॥१०॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः । कर्मसङ्गविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धिगतिः स्मृता ॥ ११ ॥ एरण्डयन्त्रपेडासु बन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदासिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ १२ ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥ १३ ॥ यथाधस्तिर्यगूर्व च लोष्टवाय्वग्निवीतयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोर्ध्व गतिरात्मनाम् ॥ १४ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यमेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच प्रयोगाश्च तदिष्यते ॥ १५ ॥ अधस्तिर्यगर्थोध्वं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव तु तद्धर्मा भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ १६ ॥ द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीतयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिमोक्षभवक्षयाः ॥१७॥ उत्पत्तिश्च विनाशश्व प्रकाशतमसोरिह । युगपद्भवतो यद्वत् तथा निर्वाणकर्मणोः ॥ १८ ॥ तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ १९ ॥ नृलोकतुल्यविष्कम्भा सितच्छत्रनिभा शुभा । ऊर्ध्व तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ॥ २० ॥ तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शनैः। सम्यक्त्वसिद्धतावस्था हेत्वभावाच निष्क्रियाः ॥ २१ ॥ ततोऽप्यूवं गतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परः ॥ २२ ॥ संसारविषयातीतं मुक्तानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ २३ ॥ स्यादेतदशरीरस्य जन्तोनष्टाष्टकर्मणः। कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ॥ २४ ॥ लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाऽभावे विपाके मोक्ष एव च ॥ २६ ॥ सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाऽभावे च पुरुषः सुखीतोऽस्मीति मन्यते ॥ २६ ॥ पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥ २७ ॥ सुस्वप्नसुप्तवत्के. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ चिदिच्छन्ति परिनिर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्त्वात्सुखानुशयतस्तथा ।। २८ ।। श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च सम्भवात् । मोहोत्पत्तेविपाकाच दर्शनघ्नस्य कर्मणः ।। २९ ।। लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपगीयेत तद्येन तस्मान्निरुपमं सुखम् ॥ ३० ॥ लिङ्गप्रसिद्धः प्रामाण्यादनुमानोपमानयोः । अत्यन्तं चाप्रसिद्ध तद्यत्तेनानुपमं स्मृतम् ॥ ३१ ॥ प्रत्यक्षं तद्भगवता - मतां तैश्व भाषितम् । गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न च्छद्मस्थपरीक्षया ॥ ३२ ॥ 品 節 品 यस्त्विदानीं सम्यग्दर्शनज्ञानचरणसंपन्नो भिक्षुर्मोक्षाय घटमानः काल संहननायुर्दोषादल्पशक्तिः कर्मणां चातिगुरुत्वादकृतार्थ एवोपरमति, स सौधर्मादीनां सर्वार्थसिद्धान्तानां कल्पविमानविशेषाणामन्यतमस्मिन्देवतयोपपद्यते । तत्र सुकृतकर्मफलमनुभूय स्थितिक्षयात्प्रच्युतो देशजातिकुलशीलविद्याविनयविभवविषयविस्तरविभूतियुक्तेषु मनुष्येषु प्रत्यायातिमवाप्य पुनः सम्यग्दर्शनादिविशुद्धबोधमवाप्नोति । अनेन सुखपरम्परायुक्तेन कुशलाभ्यासानुबन्धक्रमेण परं त्रिर्जनित्वा सिद्धयतीति ॥ 5 ॥ वाचक मुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः || १ || वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपाद शिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥ २ ॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनार्घ्यम् ॥ ३ ॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखार्तं च दुरागमविहत मतिं लोकमवलोक्य ॥ ४ ॥ इदमुच्चैर्नागरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५ ॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यति च तत्रोक्तम् । सोऽ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० व्याबाधसुखाख्यं प्राप्यस्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६ ॥ इति भाष्यप्रशस्तिः ॥ श्री तत्त्वार्थमहाशास्त्रं संपूर्णम् सहस्रावधानिश्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचितोऽध्यात्मकल्पद्रुमः । " जयश्रीरांतरारीणां लेभे येन प्रशांतितः । तं श्रीवीरजिनं नत्वा, रसः शांतो विभाव्यते ॥ १ ॥ सर्वमंगलनिधौ हृदि यस्मिन् संगते निरुपमं सुखमेति । मुक्तिशर्म च वशीभवति द्राक्, तं बुधा भजत शांतरसेंद्रम् ॥ २ ॥ समतैकलीनचित्तो, ललनापत्यस्वदेहममतामुक् । विषयकपायाद्यवशः शास्त्रगुणैर्दमितचेस्कः || ३ || वैराग्यशुद्धधर्मा देवादिसतत्त्वविद्विरतिधारी । संवरवान् शुभवृत्तिः साम्यरहस्यं भज शिवार्थिन् ॥ ४ ॥ युग्मम् ॥ अथ प्रथमः समताधिकार : चित्तबालक मा त्याक्षीरजस्र भावनौषधीः । यत्त्वां दुर्ध्यानभूत छलयन्ति छलान्विषः ॥ ५ ॥ यदिंद्रियार्थैः सकलैः सुखं स्यान्नरेन्द्रचक्रित्रिदशाधिपानाम् । तदुबिंदवत्येव पुरो हि साम्यसुधबुधेस्तेन तमाद्रियस्व ॥ ६ ॥ अदृष्टवैचित्र्यवशाज्जगज्जने, विचित्रकर्माशयवाग्वि संस्थुले । उदासवृत्तिस्थितचित्तवृत्तयः, सुखं श्रयंते यतयः क्षतार्तयः ||७|| विश्वजंतुषु यदि क्षणमेकं साम्यतो भजसि मानस मैत्रीम् । तत्सुखं परममंत्र परत्राप्यनुषे न यदभूतव जातु ॥ ८ ॥ न यस्य मित्रं न च कोऽपि शत्रुर्निजः परो वापि न वा । न चेन्द्रियार्थेषु रमेत चेतः, कषायमुक्तः परमः स योगी ॥ ९ ॥ भजस्व मैत्रीं जगदङ्गिराशिषु, प्रमोदमा · Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ स्मन् गुणिषु त्वशेषतः । भवार्तिदीनेषु कृपारसं सदाप्युदासवृत्ति खलु निगुणेष्वपि ॥ १० ॥ मैत्री परस्मिन् हितधीः समग्रे, भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः । कृपा भवार्ते प्रतिकर्तुमीहोपेक्षव माध्यस्थ्यमवार्यदोषे ॥ ११ ॥ परहितचिन्तामैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ १२ ॥ मा कार्षीत्कोऽपि पापानि, मा चाभूत्कोऽपि दुःखितः मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमैत्री निगद्यते ॥ १३ ॥ अपास्ताशेष. दोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥ १४ ॥ दोनेष्वार्तेषु भीतेषु, याचमानेषु जीवीतम् । प्रतिकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते ॥ १५॥ क्रूरकर्मसु निशंकं देवतागुरुनिदिषु । आत्मशसिषु, योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥ १६ ॥ चेतनेतरगतेष्वखिलेषु, स्पशरूपरवगंधरसेषु । साम्यमेष्यति यदा तव चेतः, पाणिगं शिवसुखं हि यदात्मन् ॥ १७ ॥ के गुणास्तव यतः स्तुतिमिच्छस्य दुतं किमकथा मदवान् यत् । कैर्गता नरकभीः सुकृतैस्ते, किं जितः पितृपतिर्यदचिन्तः ॥ १८ ॥ गुणस्तवैर्यो गुणिनां परेषामाकोशनिंदादिभिरात्मनश्च । मनः समं शीलति मोदते वा, खिद्येत च व्यत्ययतः स वेत्ता ॥ १९ ॥ न वेत्सि शत्रून सुहृद च नैव, हिताहिते स्वं न परं च जन्तोः । दुखं द्विषन् वांछसि शर्म चैतनिदानमूढः कथमाप्स्यसीष्टम् ॥ २० ॥ कृती हि सर्व परि णामरम्यं, विचार्य गृह्णाति चिरस्थितीह । भवान्तरेऽनन्तसुखाप्तये तद् आत्मन् किमाचारमिमं जहासि ॥ २१ ॥ निजः परो वेति कृतो विभागो, रागादिभिस्तत्वरयस्तवात्मन् । चतुर्गतिक्लेशविधानतस्तत् प्रमाणयन्नस्यरिनिर्मितं किम् ।। २२ ॥ अनादिरात्मा न. निजः परो वा, कस्यापि कश्चिन्न रिपुः सुहृद्वा । स्थिरा न देहाकृतयोऽणवश्व, तथापि साम्यं किमुपैषि नैषु ॥ २३ ॥ यथा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ विदां लेप्यमया न तत्त्वात्, सुखाय मातापितृपुत्रदाराः । तथा परेऽपीह विशीर्णतत्तदाकारमेतद्धि समं समग्रम् ॥ २४ ॥ जानन्ति कामान्निखिलाः ससंज्ञाः, अर्थ नराः केऽपि च केऽपि धर्मम् । जैनं च केचिद् गुरुदेवशुद्ध, केचित् शिवं केऽपि च केsपि साम्यम् || २५ ।। स्निह्यन्ति तावद्धि निजा निजेषु, पश्यन्ति यावन्निजमर्थमेभ्यः । इमां भवेऽत्रापि समीक्ष्य रीतिं, स्वार्थे न कः प्रेत्य हि यतेत || २६ || स्वप्नेंद्र जालादिषु यद्वदाप्तै रोषश्च तोषश्च मुधा पदार्थैः । तथा भवेऽस्मिन् विषयैः समस्तैरेवं विभाव्यात्मलयेऽवहि ।। २७ ।। एष मे जनयिता जननीयं, बन्धवः पुनरिमे स्वजनाश्च । द्रव्यमेतदिति जातममत्वो, नैव पश्यसि कृतांतवशत्यम् ॥ २८ ॥ नो धनैः परिजनैः स्वजनैर्वा, दैवतैः परिचितैरपि मन्त्रैः। रक्ष्यतेऽत्र खलु कोऽपि कृतांतान्नो विभावयसि मूढ कीमेत्रम् ॥ २९ ॥ तैर्भवेऽपि यदहो सुखमिच्छंस्तस्य साधनतया प्रतीभातैः । मुह्यसि प्रतिकलं विषयेषु, प्रीतिमेषि न तु साम्यसतत्त्वे || ३० ।। (अर्थतो युग्मम् ) ॥ किं कषायकलुषं कुरुषे स्वं, केषु चीत्रनु मनोऽरीधियात्मन् । तेऽपी ते हि जनकादीकरूपैरीष्टतां दधुरनन्तभवेषु ॥ ३१ ॥ यांश्च शोचसि गताः कीमिमे मे, स्नेहला इती धिया विधुरात्मा । तैर्भवेषु नीहतस्त्वमनंतेष्वेव, तेऽपि निहता भवता च ॥ ३२ ॥ त्रातुं न शक्या भवदुःखतो ये, त्वया न ये त्वामपि पातुमीशाः । ममत्त्रमेतेषु दधन्मुधात्मन्, पदे पदे किं शुचमेषि मूढ ॥ ३३ ॥ सचेतना: पुद्गलपिंड जीवा, अर्थाः परे चाणुमया द्वयेऽपि । दधत्यनंतान् परीणामभावांस्तत्तेषु कस्त्वति रागषौ ॥ ३४ ॥ अथ द्वितीयः स्त्रीममत्वमोचनाधिकारः मुह्यसि प्रणयचारुगिरासु, प्रीतितः प्रणयिनीषु कृतिस्त्वम् । किं न वेत्सि पततां भववाद्ध, ता नृणां खलु शिला गलबद्धाः Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ॥१॥ चर्मास्थिमजान्त्रवसास्रमांसामेध्यायशुच्यस्थिरपुद्गलानाम् । स्त्रीदेहपिंडाकृतिसंस्थितेषु, स्कंधेषु किं पश्यसि रम्यमात्मन् ॥२॥ विलोक्य दूरस्थममेध्यमल्पं, जुगुप्ससे मोटितनासिकस्त्वम् । भृतेषु तेनैव विमूढ योषावपुःषु तत्किं कुरुषेऽभिलाषम् ॥ ३ ॥ अमेध्यमांसास्रवसात्मकानि, नारीशरीराणि निषेवमाणाः । इहाप्यपत्यद्रविणादिचिंतातापान परत्र प्रति दुर्गतींश्च ॥ ४ ॥ अङ्गेषु येषु परिमुद्यसि कामिनीनां, चेतः प्रसीद विश च क्षणमंतरेषाम् । सम्यक् समीक्ष्य विरमाशुचिपिंडकेभ्यस्तेभ्यश्च शुच्यशुचिवस्तुविचारमिच्छन् ॥५॥ विमुह्यसि स्मेरदृशः सुमुख्या, मुखेक्षणादीन्यभिवीक्षमाणः। समीक्षसे नो नरकेषु तेषु मोहोद्भवा भाविकदर्थनास्ताः ॥ ६ ॥ अमेध्यभना बहुरंध्रनिर्यनमलाविलोद्यत्कृमिजालकीर्णा । चापल्यमायानृतवंचिका स्त्री, संस्कारमोहानरकाय भुक्ता ॥ ७॥ निभूमिर्विषकंदली गतदरी व्याघ्री निराह्वो महाव्याधिमृत्युरकारणश्च ललनाऽनभ्रा च वाशनिः । बंधुस्नेहविघातसाहसमृषावादादिसंतापभूः, प्रत्यक्षापि च राक्षसीति बिरुदैः ख्याताऽऽगमे त्यज्यताम् ।।८।। अथ तृतीयोऽपत्यममत्वमोचनाधिकारः मा भूरपत्यान्यवलोकमानो, मुदाकुलो मोहनपारिणा यत् । चिक्षिप्सया नारकचारकेऽसि, दृढं निबद्धो निगडैरमीभिः ॥ १ ॥ आजीवितं जीव भवान्तरेऽपि वा, शल्यान्यपत्यानि न वेत्सि किं हृदि । चलाचलैर्विविधार्तिदानतोऽनिशं निहन्येत समाधिरात्मनः ॥२॥ कुक्षौ युवत्याः कृमयो विचित्रा, अप्यस्रशुक्रप्रभवा भवन्ति । न तेषु तस्या नहि तत्पतेश्च, रागस्ततोऽयं किमपत्यकेषु ॥ ३ ॥ त्राणाशक्तेरापदि संबंधानंत्यतो मिथोंऽगवताम् । संदेहाचोपकृतेपित्येषु स्निहो जीव ॥ ४ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अथ चतुर्थो धनममत्वमोचनाधिकारः याः सुखोपकृतिकृत्वधिया त्वं, मेलयनसि रमा ममताभाक् । पाप्मनोऽधिकरणत्वत एता, हेतवो ददति संसृतिपातम् ॥ १ ॥ यानि द्विषामप्युपकारकाणि, सर्पोन्दुरादिष्वपि यैर्गतिश्च । शक्या च नापन्मरणामयाद्या, हन्तुं धनेष्वेषु क एव मोहः ॥ २॥ ममत्वमात्रेण मनःप्रसादसुखं धनैरल्पकमल्पकालम् । आरंभपापैः सुचिरं तु दुःखं, स्यादुर्गतौ दारुणमित्यवेहि ॥ ३ ॥ द्रव्यस्तवात्मा धनसाधनो न धर्मोऽपि सारंभतयातिशुद्धः । निःसंगतात्मा त्वतिशुद्धयोगात्, मुक्तिश्रियं यच्छति तद्भवेऽपि ॥ ४ ॥ क्षेत्रवास्तुधनधान्यगवावैर्मेलितैः सनिधिभिस्तनुभाजाम् । क्लेशपापनरकाभ्यधिकः म्यात्को गुणो न यदि धर्मनियोगः ॥ ५ ॥ आरंभैर्भरितो निमजति यतः प्राणी भवांभोनिधावीहंते कुनपादयश्च पुरुषा येन च्छलाद्वाधितुम् । चिंताव्याकुलताकृतेश्च हरते यो धर्मकर्मस्मृति, विज्ञा! भूरिपरिग्रहं त्यजत तं भोग्यं परैः प्रायशः ॥ ६॥ क्षेत्रेषु नो वपसि यत्सदपि स्वमेतद्यातासि तत्परभवे किमिदं गृहीत्वा । तस्यार्जनादिनिताघचयार्जितात्ते, भावी कथं नरकदुःखभराच मोक्षः ॥ ७ ॥ अथ पंचमो देहममत्वमोचनाधिकारः पुष्णासि यं देहमघान्यचिंतयंस्तवोपकारं कमयं विधास्यति । कर्माणि कुर्वन्निति चिंतयायतिं, जगत्ययं पंचयते हि धूर्तराट् ॥१॥ कारागृहाद्बहुविधाशुचितादिदुःखान्निर्गतुमिच्छति जडोऽपि हि तद्विभिद्य । क्षिप्तस्ततोऽधिकतरे वपुषि स्वकर्मवातेन तद्रढयितुं यतसे किमान्मन् ॥ २॥ चेद्वांछसीदमवितुं परलोकदुःखभीत्या Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ततो न कुरुषे किमु पुण्यमेव । शक्यं न रक्षितुमिदं हि न दुःखभीतिः पुण्यं विना क्षयमुपैति च वञिणोऽपि ॥ ३ ॥ देहे विमुह्य कुरुषे किमघं न वेत्सि, देहस्थ एव भजसे भवदुःखजालम् । लोहाश्रितो हि सहते घनघातमग्निर्बाधा न तेऽस्य च नभोवदनाश्रयत्वे ॥ ४ ॥ दुष्टः कर्मविपाकभूपतिवशः कायाह्वयः कर्मकृत् , बद्ध्वा कर्मगुणैर्हृषीकचषकैः पीतप्रमादासवम् । कृत्वा नारकचारकापदुचितं त्वां प्राप्य चाशु च्छलं, गन्तेति स्वहिताय संयमभरं तं वाहयाल्पं ददत् ॥ ५॥ यतः शुचीन्यप्यशुचीभवन्ति । कृम्याकुलात्काकशुनादिभक्ष्यात् । द्रागभाविनो भस्मतया ततोऽगात्, मांसादिपिंडात् स्वहितं गृहाण ॥ ६ ॥ परोपकारोऽस्ति तपो जपो वा, विनश्वराद्यस्य फलं न देहात् । सभाटकादल्पदिनाप्तगेहमृम्पिडमूढः फलमश्रुते किम् ॥ ७॥ मृत्पिंडरूपेण विनश्वरेण, जुगुप्सनीयेन गदालयेन । देहेन चेदात्महितं सुसाध, धर्मान्न किं तद्यतसेऽत्र मूढ ! ॥ ८ ॥ अथ षष्ठो विषयप्रमादत्यागाधिकारः अत्यल्पकल्पितसुखाय किमिन्द्रियार्थस्त्वं मुह्यसि प्रतिपदं प्रचुर प्रमादः। एते क्षिपन्ति गहने भवभीमकक्षे, जंतुन्न यत्र सुलभा शिवमार्गदृष्टिः ।। १॥ आपातरम्ये परिणामदुःखे, सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि । जडोऽपि कार्य रचयन् हितार्थी, करोति विद्वन् यदुदकतर्कम् ॥२॥ यदिन्द्रियार्थैरिह शर्म बिंदुवद्यदर्णवत्स्वःशिवगं परत्र च । तयोमिथोऽस्ति प्रतिपक्षता कृतिन् , विशेषदृष्टयान्यतरद् गृहाण तत् ॥ ३ ॥ भुंक्ते कथं नारकतिर्यगादिदुःखानि देहीत्यवधेहि शास्त्रैः । निवर्तते ते विषयेषु तृष्णा, बिभेषी पापप्रचयाच येन ॥ ४ ॥ गर्भवासनरकादिवेदनाः, पश्यतोऽनवरतं श्रुतेक्षणैः । नो Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कषायविषयेषु मानसं, श्लिष्यते बुध विचिंतयेति ताः ॥ ५ ॥ वध्यस्य चौरस्य यथा पशोर्वा, संप्राप्यमाणस्य पदं वधस्य । शनैः शनैरेति मृतिः समीपं, तथाखिलस्येति कथं प्रमादः ॥ ६ ॥ बिभेषि जंतो ! यदि दुःखराशेस्तदिद्रियार्थेषु रतिं कृथा मा । तदुद्भवं नश्यति शर्म यद्राक, नाशे च तस्य ध्रुवमेव दुःखम् ॥७॥ मृतः किमु प्रेतपतिर्दरामया, गताः क्षयं किं नरकाश्च मुद्रिताः । ध्रुवाः किमायुर्धनदेहबंधवः, सकौतुको यद्विषयैर्विमुह्यसि ॥ ८ ॥ विमोहसे किं विषयप्रमादैर्धमात्सुखस्यायतिदुःखराशेः । तद्र्धमुक्तस्य हि यत्सुखं ते गतोपमं चायतिमुक्तिदं तत् ॥ ९ ॥ अथ सप्तमः कषायत्यागाधिकारः रे जीव ! सेहिथ सहिष्यसि च व्यथास्तास्त्वं नारकादिषु पराभवभूः कषायैः । मुग्धोदितैः कुवचनादिभिरप्यतः किं, क्रोधानिहंसि निजपुण्यधनं दुरापम् ॥ १ ॥ पराभिभूतौ यदि मानमुक्तिस्ततस्तपोऽखंडमतः शिवं वा। मानादृतिदेवचनादिभिश्चेत्तपःक्षयस्तन्नरकादि दुःखम् ॥ २ ॥ वैरादि चात्रेति विचार्य लाभालाभौ कृतिन्नाभवसंभविन्याम् । तपोऽथवा मानमवा(था?)भिभूताविहास्ति नूनं हि गतिधैिव ॥ ३ ॥ श्रुत्वाक्रोशान् यो मुदा पूरितः स्यात् , लोष्टाधैर्यश्चाहतो रोमहर्षी । यः प्राणान्तेऽप्यन्यदोषं न पश्यत्येष श्रेयो द्राग् लभेतैव योगी ॥ ४ ॥ को गुणस्तव कदा च कषायैनिर्ममे भजसि नित्यमिमान् यत् । किं न पश्यसि दोषममीषां, तापमत्र नरकं च परत्र ॥५॥ यत्कषायजनितं तव सौख्यं, यत्कषायपरिहानिभवं च । तद्विशेषमथवैतदुदक, संविभाव्य भज धीर विशिष्टम् ॥ ६ ॥ सुखेन साध्या तपसां प्रवृत्तिर्यथा तथा नैव तु मानमुक्तिः । आद्या न दत्तेऽपि शिवं परा तु, निदर्शनाबाहुबले: Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iltale १२७ प्रदत्ते ॥ ७ ॥ सम्यग्विचार्येति विहाय मानं, रक्षन् दुरापाणि तपांसि यत्नात् । मुदा मनीषी सहतेऽभिभूतीः, शूरः क्षमायामपि नीचजाताः ।। ८ ॥ पराभिभूत्याल्पिकयापि कुप्यस्यधैरपीमां प्रतिकर्तुमिच्छन् । न वेत्सि तिर्यनरकादिकेषु, तास्तैरनंतास्त्वतुला भवित्रीः ॥९॥ धत्से कृतिन् ! यद्यपकारकेषु, क्रोधं ततो घेडरिषट्क एव । अथोपकारिष्वपि तद्भवार्तिकृत्कर्महन्मित्रबहिर्विषत्सु ॥ १० ॥ अधीत्यनुष्ठानतपःशमाद्यान , धर्मान् विचित्रान् विदध. समायान् । न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेहक्लेशाधिकं तांश्च भवांतरेषु ॥ ११ ॥ सुखाय धत्से यदि लोभमात्मनो, ज्ञानादिरत्नत्रितये विधेहि तत् । दुःखाय चेदत्र परत्र वा कृतिन् , परिग्रहे तबहिरांतरेऽपि च ॥ १२ ॥ करोषि यत्प्रेत्यहिताय किंचित् , कदाचिदल्पं सुकृतं कथंचित् । माऽजीहरस्तन्मदमत्सरायैर्विना च तन्मा नरकातिथिर्भूः॥ १३ ॥ पुरापि पापैः पतितोऽसि संसृतौ, दधासि रे किं गुणिमत्सरं पुनः । न वेत्सि किं घोरजले निपात्यसे, नियंत्र्यसे शृंखलया च सर्वतः ॥ १४ ॥ कष्टेन धर्मो लवशो मिलत्ययं, क्षयं कषायैर्युगपत् प्रयाति च । अतिप्रयत्नार्जितमर्जुनं ततः, किमज्ञ ! ही हारयसे नभस्वता ॥ १५ ॥ शत्रूभवन्ति सुहृदः कलुषीभवन्ति, धर्मा यशांसि निचितायशसीभवन्ति । स्निह्यन्ति नैव पितरोऽपि च बांधवाश्च, लोकद्वयेऽपि विपदो भविनां कषायैः ॥ १६ ॥ रूपलाभकुलविक्रमविद्याश्रीतपोवितरणप्रभुताद्यैः । किं मदं वहसि वेत्सि न, मूढाऽनंतशः स्वभृशलाघवदुःखम् ॥ १७ ॥ विना कषायान्न भवार्त्तिराशिर्भवेद्भवेदेव च तेषु सत्सु । मूलं हि संसारतरोः कषायास्तत्तान् विहायैव सुखी भवात्मन् ॥ १८ ॥ समीक्ष्य तिर्यनरकादिवेदनाः, श्रुतेक्षणैर्धर्मदुरापतां तथा। प्रमोदसे यद्विषयैः सकौतुकैस्ततस्तवात्मन् ! विफलैव चेतना ॥ १९ ॥ चौरस्तथा कर्मकरैगृहीते, दुष्टैः स्वमात्रेऽप्युपतप्यसे त्वम् । पुष्टः Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रमादेस्तनुभिश्च पुण्यधनं न किं वेत्स्यपि लुट्यमानम् ॥ २० ॥ मृत्योः कोऽपि न रक्षितो न जगतो दारिद्यमुत्रासितं, रोगस्तेनन्पादिजा न च भियो निर्णाशिताः षोडश । विध्वस्ता नरका न नापि सुखिता धर्मैत्रिलोकी सदा, तत्को नाम गुणो मदश्च विभुता का ते स्तुतीच्छा च का ॥ २१ ॥ अथाष्टमः शास्त्रगुणाधिकारः शिलातलाभे हृदि ते वहंति, विशंति सिद्धान्तरसा न चान्तः । यदत्र नो जीवदयार्द्रता ते, न भावनांकुरततिश्च लभ्या ॥ १ ॥ यस्यागमांभोदरसैन धौतः, प्रमादपंकः स कथं शिवेच्छुः । रसायनैर्यस्य गदाः क्षता नो, सुदुर्लभं जीवितमस्य नूनम् ॥ २ ॥ अधीतिनोऽर्चादिकृते जिनागमः, प्रमादिनो दुर्गतिपापतेमधा । ज्योतिर्विमूढस्य हि दीपपातिनो, गुणाय कस्मै शलभस्य चक्षुषी ॥ ३ ॥ मोदन्ते बहुतर्कतर्कणचणाः केचिजयाद्वादिनां, काव्यैः केचन कल्पितार्थघटनैस्तुष्टाः कविख्यातितः । ज्योतिर्नाटकनीतिलक्षणधनुर्वेदादिशास्त्रैः परे, ब्रूमः प्रेत्यहिते तु कर्मणि जडान कुक्षिभरीनेव तान् ॥ ४ ॥ किं मोदसे पंडितनाममात्रात्, शास्त्रेध्वधीती जनरंजकेषु । तत्चिनाधीष्व कुरुष्व चाशु, न ते भवेद्येन भवाब्धिपातः ॥ ५ ॥ धिगागमैर्माद्यसि रंजयन् जनान् , नोद्यच्छसि प्रेत्यहिताय संयमे । दधासि कुक्षिभरिमात्रतां मुने, क ते क तत् क्वैष च ते भवांतरे ॥ ६ ॥ धन्याः केऽप्यनधीतिनोऽपि सदनुष्ठानेषु बद्धादरा, दुःसाध्येषु परोपदेशलवतः श्रद्धानशुद्धाशयाः । केचित्त्वागमपाठिनोऽपि दधतस्तत्पुस्तकान् येऽलसाः अत्रामुत्रहितेषु कर्मसु कथं ते भाविन प्रेत्यहाः ॥ ७ ॥ धन्यः स मुग्धमतिरप्युदितार्हदाज्ञारागेण यः सृजति पुण्यमदुर्विकल्पः । पाठेन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ किं व्यसनतोऽस्य तु दुर्विकल्पैर्यो दुःस्थितोऽत्र सदनुष्ठितिषु प्रमादी ॥ ८ ॥ अधीतिमात्रेण फलंति नागमाः, समीहितैर्जीव सुखैर्भवान्तरे । स्वनुष्ठितैः किंतु तदीरितैः खरो, न यत्सिताया वहनश्रमात्सुखी ॥ ९ ॥ दुर्गेधतो यदणुतोऽपि पुरस्य मृत्युरायूंषि सागरमितान्यनुपक्रमाणि । स्पर्शः खरः कचतोऽतितमामितश्च, दुःखावनंतगुणितौ भृशशैत्यतापौ ॥ १० ॥ तीव्रा व्यथाः सुरकृता विविधाश्च यत्रानंदारवैः सततमभ्रभृतोऽप्यमुष्मात् । किं भाविनो न नरकात्कुमते बिभेषि, यन्मोदसे क्षणसुखैर्विषयैः कषायी ॥११॥ युग्मम् ॥ बंधोऽनिशं वाहनताडनानि, क्षुत्तृड्दुरामातपशीतवाताः । निजान्यजातीयभयापमृत्युदुःखानि तिर्यश्विति दुस्सहानि ॥ १२ ॥ मुधान्यदास्याभिभवाभ्यसूया भियोऽन्तगर्भस्थितिदुर्गतीनाम् । एवं सुरेष्वप्यसुखानि नित्यं, किं तत्सुखैर्वा परिणामदुःखैः ॥ १३ ॥ सप्तभीत्यभीभवेष्टविसवानिष्टयोगगददुःसुतादिभिः । स्याचिरं विरसता नजन्मनः, पुण्यतः सरसतां तदानय ॥ १४ ॥ इति चतुगैतिदुःखततीः कृतिन्नतिभयास्त्वमनंतमनेहसम् । हृदि विभाव्य जिनोक्तकृतांततः, कुरु तथा न यथा स्युरिमास्तव ॥ १५ ॥ आत्मन् परस्त्वमसि साहसिकः श्रुताक्षैर्यद्भाविनं चिरचतुर्गतिदुःखराशिम् । पश्यन्नपीह न बिभेषि ततो न तस्य, विच्छित्तये च यतसे विपरीतकारी ॥ १६ ॥ अथ नवमश्चित्तदमनाधिकारः कुकर्मजालैः कुविकल्पसूत्रजैर्निबध्य गाढं नरकाग्निभिश्विरम् । विसारवत् पक्ष्यति जीव ! हे मनःकैवर्तकस्त्वामिति मास्य विश्वसीः : ॥ १ ॥ चेतोऽर्थये मयि चिरत्नसखे ! प्रसीद, किं दुर्विकल्पनिकरैः Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० क्षिपसे भवे माम् । बद्धोंऽजलिः कुरु कृपां भज सद्विकल्पान्, मैत्रीं कृतार्थय यतो नरकादिबभेमि ॥ २ ॥ स्वर्गापवर्गों नरकं तथान्तर्मुहूर्तमात्रेण वशावशं यत् । ददाति जन्तोः सततं प्रयत्नात्, वशं तदंतःकरणं कुरुष्व ॥ ३ ॥ सुखाय दुःखाय च नैव देवा, न चापि कालः सुहृदोऽरयो वा भवेत्परं मानसमेव जंतोः, संसारचक्रभ्रमणैकहेतुः || ४ || वशं मनो यस्य समाहितं स्यात्, किं तस्य कार्य नियमैर्यमैश्च ? । हतं मनो यस्य च दुर्विकल्पैः, किं तस्य कार्यं नियमैर्यमैश्च ? ॥ ५ ॥ दानश्रुतध्यानतपोऽर्चनादि, वृथा मनोनिग्रहमंतरेण । कषायचिंताकुलतोज्झितस्य, परो हि योगो मनसो वशत्वम् ॥ ६ ॥ जपो न मुक्त्यै न तपो द्विभेदं, न संयमो नापि दमो न मौनम् । न साधनाद्यं पवनादिकस्य, किंत्वेकमंत:करणं सुदान्तम् ॥ ७ ॥ लब्ध्वापि धर्मं सकलं जिनोदितं, सुदुर्लभं पोतनिभं विहाय च । मनः पिशाचग्रहिलीकृतः पतन्, भवांबुधौ नातिदृग् जडो जनः ॥ ८ ॥ सुदुर्जयं ही रिपवत्यदो मनो, रिपूकरोत्येव च वाक्तनू अपि । त्रिभिर्हतस्तद्रिपुभिः करोतु किं, पदीभवन् दुर्विपदां पदे पदे ।। ९ ।। रे चित्त ! वैरि ! तव किं नु मयापराद्ध, यद्गतौ क्षिपसि मां कुविकल्पजालैः । जानासि मामयमपास्य शिवेऽस्ति गंता तत्किं न सन्ति तव वासपदं ह्यसंख्याः || १० || पूतिश्रुतिः वेव रतेविंदरे, कुष्टीव संपत्सुदृशामनर्हः । श्वपाकवत्सद्गतिमंदिरेषु, नार्हेत्प्रवेशं कुमनोहतोऽङ्गी ॥ ११ ॥ तपोजपाद्याः स्वफलाय धर्मा, न दुर्विकल्पैर्हतचेतसः स्युः । तत्खाद्यपेयैः सुभृतेऽपि गेहे, क्षुधातृषाभ्यां म्रियते स्वदोषात् || १२ || अकृच्छ्रसाध्यं मनसो वशीकृतात् परं च पुण्यं, न तु यस्य तद्वशम् । स वंचितः पुण्यचयैस्तदुद्भवैः फलैश्व ही ! ही ! हतकः करोतु किम् १ || १३ || अकारणं यस्य च दुर्विकल्पैर्हतं मनः शास्त्रविदोऽपि घोरैरन| यिम् धैर्निश्चितनारकायुमृत्यो प्रयाता Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरके स नूनम् ॥ १४॥ योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः, परं निदानं तपसश्च योगः । तपश्च मूलं शिवशर्मवल्या, मनःसमाधिं भज तत्कथंचित् ॥ १५ ॥ स्वाध्याययोगैश्वरणक्रियासु, व्यापारणैादशभावनाभिः । सुधीस्त्रियोगीसदसत्प्रवृत्तिफलोपयोगैश्च मनो निरुंध्यात् ॥ १६ ॥ भावनापरिणामेषु, सिंहेष्विव मनोवने । सदा जाग्रत्सु दुर्ध्यानसूकरा न विशंत्यपि ॥ १७ ॥ अथ दशमो वैराग्योपदेशाधिकारः. किं जीव माद्यसि हसस्ययमीहसेऽर्थान् , कामांश्च खेलसि तथा कुतुकैरशंकः । चिक्षिप्सु घोरनरकावटकोटरे त्वामभ्यपतल्लघु विभावय मत्युरक्षः ॥१॥ आलंबनं तव लवादिकुठारघाता: छिंदंति जीविततरुन हि यावदात्मन् । तावद्यतस्व परिणामहिताय तस्मिन् , छिन्ने हि कः क च कथं भविता स्वतंत्रः ॥२॥ त्वमेव मोग्धा मतिमान त्वमात्मन, नेष्टाप्यनेष्टा सुखदुःखयोस्त्वम् । दाता च भोक्ता च तयोस्त्वमेव, तचेष्टसे किं ? न यथा हिताप्तिः ॥ ३ ॥ कस्ते निरंजन ! चिरं जनरंजनेन, धीमन् ! गुणोऽरित परमार्थदृशेति पश्य । तं रंजयाशु विशदैश्चरितैर्भवाब्धी, यस्त्वां पतंतमबलं परिपातुमीष्टे ॥ ४ ॥ विद्वानहं सकललब्धिरहं नृपोऽहं, दाताहमद्भुतगुणोऽहमहं गरीयान् । इत्याद्यहंकृतिवशा परितोषमेषि, नो वेत्सि किं परभवे लघुतां भवित्रीम् ॥ ५ ॥ वेत्सि स्वरूपफलसाधनबाधनानि, धर्मस्य, तं प्रभवसि स्ववशश्च कर्तुम् । तस्मिन् यतस्व मतिमन्नधुनेत्यमुत्र, किंचित्त्वया हि नहि सेत्स्यति भोत्स्यते वा ॥ ६॥ धर्मस्याऽवसरोऽस्ति पुद्गलपरावरनंतैस्तवाऽऽयातः संप्रति जीव हे प्रसहतो दुःखान्यनंतान्ययम् । स्वल्पाहः पुनरेष दुर्लभतमश्चास्मिन् यतस्वाहतो, धर्म कर्तुमिमं विना हि नहि ते Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दुःखक्षयः कर्हि चित् ॥ ७ ॥ गुणस्तुतीवाछसि निर्गुणोऽपि, सुखप्रतिष्ठादि विनापि पुण्यम् । अष्टांगयोगं च विनापि सिद्धीर्वातूलता कापि नवा तवात्मन् ॥ ८॥ पदे पदे जीव ! पराभिभूतिः, पश्यन् किमीय॑स्यधमः परेभ्यः । अपुण्यमात्मानमवैषि किं न, तनोषि किं वा नहि पुण्यमेव ॥ ९ ॥ किमर्दयन्निर्दयमंगिनो लघून , विचेष्टसे कर्मसु ही प्रमादतः । यदेकशोऽप्यन्यकृतार्दनः सहत्यनंतशोऽप्यंग्ययमर्दनं भवे ॥ १०॥ यथा सर्पमुखस्थोऽपि, भेको जंतूनि भक्षयेत् । तथा मृत्युमुखस्थोऽपि, किमात्मन्नर्दसेंऽगिनः ॥११॥ आत्मानमल्पैरिह वंचयित्वा, प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यः। भवाधमे किं जन ! सागराणि, सोढासि ही नारकदुःखराशीन ॥ १२ ॥ उरभ्रकाकिण्युदबिंदुकाम्रवणित्रयीशाकटभिक्षुकाद्यैः । निदर्शनारितमर्त्यजन्मा, दुःखी प्रमादैर्बहु शोचितासि ॥ १३ ॥ पतंगभूगैणखगाहिमीनद्विपद्विपारिप्रमुखाः प्रमादैः । शोच्या यथा स्युम॒तिबंधदुःखैश्विराय भावी त्वमपीति जंतो! ॥ १४ ॥ पुरापि पापैः पतितोऽसि दुःखराशौ पुनर्मूढ ! करोषि तानि । मजन्महापंकिलवारिपूरे, शिला निजे मूनि गले च धत्से ॥ १५ ॥ पुनः पुनर्जीव ! तवोपदिश्यते, बिभेषि दुःखात्सुखमीहसे चेत् । कुरुष्व तत्किंचन येन वांछितं, भवेत्तवास्तेऽवसरोऽयमेव यत ॥ १६ ॥ धनांगसौख्यस्वजनानसूनपि, त्यज त्यजैक न च धर्ममाईतम् । भवन्ति धर्माद्धि भवे भवेऽर्थितान्यमून्यमीभिः पुनरेष दुर्लभः ॥ १७ ॥ दुःखं यथा बहुविधं सहसेऽप्यकामः, कामं तथा सहसि चेत्करुणादिभावैः । अल्पीयसापि तव तेन भवांतरे स्यादात्यंतिकी सकलदुःखनिवृत्तिरेव ॥१८॥ प्रगल्भसे कर्मसु पापकेष्वरे, यदाशया शर्म न तद्विनानितम् । विभावयंस्तञ्च विनश्वरं द्रुतं, बिभेषि किं दुर्गतिदुःखतो नहि ? ॥ १९ ॥ कर्माणि रे जीव ! Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ करोषि तानि, यैस्ते भवित्र्यो विपदो ह्यनंताः । ताभ्यो भिया तद्दधसेऽधुना किं ?, संभाविताभ्योऽपि भृशाकुलत्वम् ॥ २० ॥ ये पालिता वृद्धिमताः सहैव, स्निग्धा भृशं स्नेहपदं च ये ते । यमेन तानप्यदयं गृहीतान , ज्ञात्वापि किं न त्वरसे हिताय ? ॥ २१ ॥ यैः क्लिश्यसे त्वं धनबंध्वपत्ययशःप्रभुत्वादिभिराशयस्थैः । कियानिह प्रेत्य च तैगुणस्ते, साध्यः किमायुश्च विचारयैवम् ॥ २२ ॥ किमु मुह्यसि गत्वरैः पृथक् , कृपणैबंधुवपुःपरिग्रहैः । विमृशस्व हितोपयोगिनोऽवसरेऽस्मिन् परलोकपांथ ! रे ॥ २३ ॥ सुखमास्से सुखं शेषे, भुंक्षे पिबसि खेलसि । न जाने त्वग्रतः पुण्यैर्विना ते किं भविष्यति ? ॥ २४ ॥ शीतात्तापान्मक्षिकाकतृणादिस्पर्शाद्युत्थात्कष्टतोऽल्पाबिभेषि । तास्ताश्चैभिः कर्मभिः स्वीकरोषि, श्वभ्रादीनां वेदना धिग् धियं ते ॥२५॥ कचित्कषायैः कचन प्रमादैः, कदाग्रहैः कापि च मत्सराद्यैः । आत्मानमात्मन् कलुषीकरोषि, बिभेषि धिङ् नो नरकादधर्मा ॥ २६ ॥ 00% अथैकादशो धर्मशुद्धयुपदेशाधिकारः भवेद्भवापायविनाशनाय यः, तमज्ञ ! धर्म कलुषीकरोषि किम् ? । प्रमादमानोपधिमत्सरादिभिर्न मिश्रितं ह्यौषधमामयापहम् ॥ १ ॥ शैथिल्यमात्सर्यकदाग्रहक्रुधोऽनुतापदंभाविधिगौरवाणि च। प्रमादमानौ कुगुरुः कुसंगतिः, 'लाघार्थिता वा सुकृते मला इमे ॥ २ ॥ यथा तवेष्टा स्वगुणप्रशंसा, तथा परेषामिति मत्सरोज्झी। तेषामिमां संतनु यल्लभेथास्तां नेष्टदानादि(द्धि?) विनेष्टलाभः ॥३॥ जनेषु गृहणत्सु गुणान् प्रमोदसे, ततो भवित्री गुणरिक्तता तव । गृहणत्सु दोषान् परितप्यसे च चेद्, भवन्तु दोषास्त्वयि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सुस्थिरास्ततः ॥ ४ ॥ प्रमोदसे स्वस्य यथान्यनिमितैः स्तवैस्तथा चेत्प्रतिपंथिनामपि । विगर्हणैः स्वस्य यथोपतप्यसे, तथा रिपूणामपि चेत्ततोऽसि वित् ॥ ५ ॥ स्तवैर्यथा स्वस्य विगर्हणैश्च, प्रमोदतापौ भजसे तथा चेत् । इमौ परेषामपि तैश्चतुर्ध्वप्युदासतां वासि ततोऽर्थवेदी ॥ ६ ॥ भवेन्न कोऽपि स्तुतिमात्रतो गुणी, ख्यात्या न बह्व्यापि हितं परत्र च । तदिच्छुरीर्ष्यादिभिरायति ततो, मुधाभिमानग्रहिलो निहंसि किम् ॥ ७ ॥ सृजन्ति के के न बहिर्मुखा जनाः प्रमादमात्सर्यकुबोधविप्लुताः । दानादिधर्माणि मलीमसान्यमृन्युपेक्ष्य शुद्ध सुकृतं चराऽण्वपि ॥ ८ ॥ भच्छादितानि सुकृतानि यथा दध॑ते, सौभाग्यमत्र न तथा प्रकटीकृतानि । व्रीडानतानन सरोजसरोजनेत्रावक्षःस्थलानि कलितानि यथा दुकूलैः . ॥ ९ ॥ स्तुतैः श्रुतैर्वाप्यपरैर्निरीक्षितैर्गुणस्तवात्मन् ! सुकृतैर्न कश्चन । फलन्ति नैव प्रकटीकृतैर्भुवो, द्रुमा हि मूलैर्निपतंत्यपि त्वधः ॥ १० ॥ तपः क्रियावश्यकदानपूजनैः, शिवं न गंता गुणमत्सरी जनः । अपश्यभोजी न निरामयो भवेद्रसायनैरप्यतुलैर्यदातुरः ॥ ११ ॥ मन्त्रप्रभारत्नरसायनादिनिदर्शनादरूपमपीह शुद्धम् । दानाचेनावश्यक पौषधादि, महाफलं पुण्यमितोऽन्यथान्यत् ॥ १२ ॥ दीपो यथाल्पोऽपि तमांसि हन्ति, लवोऽपि रोगान् हरते सुधायाः । तृण्यां दहत्याशु कणोऽपि चाग्नेर्धर्मस्य लेशोऽप्यमलस्तथाँहः ॥१३॥ भावोपयोगशून्याः, कुर्वन्नावश्यकीः क्रियाः सर्वाः देहक्लेशं लभसे, फलमाप्स्यसि नैव पुनरासा ॥ १४ ॥ अथ द्वादशो देवगुरुधर्मशुद्धचधिकारः तत्त्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं हितार्थधर्मा हि तदुक्तिसाध्याः । श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ !, धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथैव ॥ १ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवी न धर्मैरविधिप्रयुक्तैर्गमी शीबं येषु गुरुर्न शुद्धः । रोगी हि कल्यो न रसायनैस्तैर्येषां प्रयोक्ता भिषगेव मूढः ॥ २ ॥ समाश्रितस्तारकबुद्धितो यो, यस्यास्त्यहो मजयिता स एव । ओचं तरीता विषमं कथं स, तथैव जंतुः कुगुरोर्भवाब्धिम् ॥ ३ ॥ गजा वपोतोक्षरथान् यथेष्टपदाप्तये भद्र ! निजान परान् वा । भजति विज्ञाः सुगुणान् भजैवं, शिवाय शुद्धान् गुरुदेवधर्मान ॥ ४ ॥ फलाद् वृथा स्युः कुगुरुपदेशतः, कृता हि धर्मार्थमपीह सूद्यमाः । तदृष्टिरागं परिमुच्य भद्र ! हे, गुरु विशुद्ध भज चेद्धितार्थ्यसि ॥ ५ ॥ न्यस्ता मुक्तिपथस्य वाहकतया श्रीवीर ! ये प्राक् त्वया, लुटाकास्त्वदृतेऽभवन बहुतरास्त्वच्छासने ते कलौ। बिभ्राणा यतिनाम तत्तनुधियां मुष्णंति पुण्यश्रियः, पूत्कुर्मः किमराज्यके ह्यपि तलारक्षा न किं दस्यवः ? ॥ ६ ॥ माद्यस्यशुध्धैर्गरुदेवधर्मेंर्धिग् दृष्टिरागेण गुणानपेक्षः । अमुत्र शोचिष्यसि तत्फले तु, कुपथ्यभोजीव महामयातः ॥ ७ ॥ नानं सुसिक्तोऽपि ददाति निंबकः, पुष्टा रसैवध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥ ८ ॥ कुलं न जातिः पितरौ गणो वा, विद्या च बंधुः स्वगुरुर्धनं वा । हिताय जंतोर्न परं च किंचित् , किंत्वादृताः सद्गुरुदेवधर्माः ॥ ९ ॥ माता पिता स्वः सुगुरुश्च तत्त्वात्, प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे । न तत्समोऽरिः क्षिपते भवाब्धौ, यो धर्मविघ्नादिकृतेश्च जीवम् ॥१०॥ दाक्षिण्यलज्जे गुरुदेवपूजा, पित्रादिभक्तिः सुकृताभिलाषः । परोपकारव्यवहारशुद्धी, नृणामिहामुत्र च संपदे स्युः ॥ ११॥ जिनेष्वभक्तियतिनामवज्ञा, कर्मस्वनौचित्यमधर्मसंगः । पित्राापेक्षा परवंचनञ्च, सृजन्ति पुंसां विपदः समन्तात् ॥ १२ ॥ भक्त्यैव नार्चसि जिनं सुगुरोश्च धर्म, नाकर्णयस्यविरतं विरतीन धत्से । सार्थ निरर्थमपि च प्रचिनोष्यघानि, मूल्येन केन तदमुत्र समीहसे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ शम् ? ॥ १३ ॥ चतुष्पदैः सिंह इव स्वजात्यैर्मिलन्निमांस्तारयतीह कश्चित् । सहैव तैर्मजति कोऽपि दुर्गे, शृगालवच्चेत्यमिलन् वरं सः ॥ १४ ॥ पूर्णे तटाके तृषितः सदैव, भृतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः । कल्पद्रुमे सत्यपि ही दरिद्रो, गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥१५॥ न धर्मचिंता गुरुदेवभक्तिर्येषां न वैराग्यलवोऽपि चित्ते । तेषां प्रसूक्लेशफल: पशूनामिवोद्भवः स्यादुदरंभरीणाम् ॥१६॥ न देवकार्ये न च संघकार्य, येषां धनं नश्वरमाशु तेषाम्। तदर्जनाद्यैर्वजिनैर्भवांधी, पतिष्यतां किं त्ववलंबनं स्यात् ? ॥१७॥ अथ त्रयोदशो यतिशिक्षोपदेशाधिकारः ते तीर्णा भववारिधिं मुनिवरास्तेभ्यो नमस्कुर्महे, येषां नो विषयेषु गृध्यति मनो नो वा कषायैः सुतम् । रागद्वेषविमुक् प्रशांतकलुषं साम्याप्तशर्माद्वयं, नित्यं खेलति चात्मसंयमगुणाक्रीडे भजद्भावनाः ॥ १ ॥ स्वाध्यायमाधित्ससि नो प्रमादैः, शुद्धा न गुप्तीः समितीश्च धत्से । तपो द्विधा नार्जसि देहमोहादल्पेऽपि हेतौ दधसे कषायान् ॥ २ ॥ परीषहान्नो सहसे न चोपसर्गान्न शीलांगधरोऽपि चासि । तन्मोक्ष्यमाणोऽपि भवाब्धिपारं, मुने ! कथं यास्यसि वेषमात्रात् ॥ ३॥ युग्मम् ॥ आजीविकार्थमिह यद्यतिवेषमेष, धत्से चरित्रममलं न तु कष्टभीरुः । तद्वेत्सि किन्न ? न बिभेति जगजिघृक्षुमृत्युः कुतोऽपि नरकश्च न वेषमामात्रात् ॥ ४ ॥ वेषेण माद्यसि यतेश्वरणं विनात्मन् !, पूजां च वांछसि जनाद्बहुधोपधिं च । मुग्धप्रतारणभवे नरकेऽसि गंता, न्यायं बिभर्षि तदजागलकर्तरीयम् ॥ ५ ॥ जानेऽस्ति संयमतपोभिरमीभिरात्मन्नस्य प्रतिग्रहभरस्य न निष्क्रयोऽपि । किं दुर्गतौ निपततः शरणं तवास्ते ?, सौख्यं च दास्यति परत्र किमित्यवेहि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ ॥ ६॥ किं लोकसत्कृतिनमस्करणार्चनाद्यै, रे मुग्ध तुष्यसि विनापि विशुद्धयोगान् । कृतन भवांधुपतने तव यत्प्रमादो, बोधिद्रुमाश्रयमिमानि करोति पर्शन् ॥ ७ ॥ गुणांस्तवाश्रित्य नमंत्यमी जना, ददत्युपध्यालयभैल्यशिष्यकान् । विना गुणान् वेषमृषेबिभर्षि चेत् , ततष्ठकानां तव भाविनी गतिः ॥ ८॥ नाजीविकाप्रणयिनीतनयादिचिन्ता, नो राजभीश्च भगवत्समयं च वेत्सि । शुद्ध तथापि चरणे यतसे न भिक्षो ?, तत्ते परिग्रहभरो नरकार्थमेव ॥ ९ ॥ शास्त्रज्ञोऽपि धृतव्रतोऽपि गृहिणीपुत्रादिबंधोज्ज्ञितोऽप्यंगी यद्यतते प्रमादवशगो न प्रेत्यसौख्यश्रिये । तन्मोहद्विषतत्रिलोकजयिनः काचित्परा दुष्टता, वद्धायुष्कतया स वा नरपशुनूनं गमी दुर्गतौ ॥ १० ॥ उच्चारयस्यनुदिनं न करोमि सर्व, सावद्यमित्यसकृदेतदथो करोषि । नित्यं मृषोक्तिजिनवंचनभारितात्तत् , सावद्यतो नरकमेव विभावये ते ॥ ११ ॥ वेषोपदेशाद्युपधिप्रतारिता ददत्यभीष्टानृजवोऽधुना जनाः । भुंक्षे च शेषे च सुखं विचेष्टसे, भवांतरे ज्ञास्यसि तत्फलं पुनः ॥ १२ ॥ आजीविकादिविविधात्तिभृशानिशार्ताः, कृच्छ्रेण केऽपि महतैव सृजन्ति धर्मान् । तेभ्योऽपि निर्दय ! जिघृक्षसि सर्वमिष्ट, नो संयमे च यतसे भविता कथं ही ॥ १३ ॥ आराधितो वा गुणवान् स्वयं तरन् , भवाब्धिमस्मानपि तारयिष्यति । श्रयन्ति ये त्वामिति भूरिभक्तिभिः, फलं तवैषां च किमस्ति निर्गण ! ॥ १४ ॥ स्वयं प्रमादैनिपतन भवांबुधौ, कथं स्वभक्तानपि तारयिष्यसि ? । प्रतारयन् स्वार्थमजून शिवार्थिनः, स्वतोऽन्यतश्चैव विलुप्यसेंऽहसा ॥१५।। गृहणासि शय्याहतिपुस्तकोपधीन , सदा परेभ्यस्तपसस्त्वियं स्थितिः। तत्ते प्रमादाद्भरितात्प्रतिग्रहैऋणार्णमग्नस्य परत्र का गतिः ? ॥१६॥ न कापि सिद्धिर्न च तेऽतिशायि, मुने ! क्रियायोगतपःश्रुतादि । तथाप्यहंकारकदर्थितस्त्वं, ख्यातीच्छया ताम्यसि धिङ् मुधा किम् ? ॥१७॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ हीनोऽप्यरे भाग्यगुणैर्मुधात्मन् , वांछंस्तवार्चाद्यनवाप्नुवंश्च। ईय॑न् परेभ्यो लभसेऽतितापमिहापि याता कुगतिं परत्र ॥ १८ ।। गुणैविहीनोऽपि जनानतिस्तुतिप्रतिग्रहान् यन्मुदितः प्रतीच्छसि । लुलायगोऽश्वोष्ट्रखरादिजन्मभिर्विना, ततस्ते भविता न निष्क्रयः ॥ १९ ॥ गुणेषु नोद्यच्छसि चेन्मुने ! ततः, प्रगीयसे यैरपि वंद्यसेऽय॑से । जुगुप्सितां प्रेत्य गतिं गतोऽपि तैर्हसिष्यसे चाभिभविष्यसेऽपि वा ॥२०॥ दानमाननुतिवंदनापरैर्मोदसे, निकृतिरंजितैर्जनः । न त्ववैषि सुकृतस्य चेल्लवः, कोऽपि सोऽपि तव लुट्यते हि तैः ॥ २१ ॥ भवेद् गुणी मुग्धकृतैर्न हि स्तवैन ख्यातिदानार्चनवंदनादिभिः । विना गुणान्नौ भवदुःखसंक्षयस्ततो गुणानर्जय किं स्तवादिभिः ॥ २२ ॥ अध्येषि शास्त्र सदसद्विचि. त्रालापादिभिस्ताम्यसि वा समायैः । येषां जनानामिह रंजनाय, भवांतरे ते क मुने ! क च त्वम् ॥ २३ ॥ परिग्रहं चेद्वन्यजहा गृहादेस्तत्किं नु धर्मोपकृतिच्छलात्तम् । करोषि शय्योपधिपुस्तकादेगरोऽपि नामांतरतोऽपि हंता ॥ २४ ॥ परिग्रहात्स्वीकृतधर्मसाधनाभिधानमात्रात्किम मूढ ! तुष्यसि । न वेत्सि हेनाप्यतिभारिता तरी, निमज्जयत्यंगिनमंबुधौ द्रुतम् ॥ २५ ॥ येऽहःकषायकलिकर्मनिबंधभाजनं, स्युः पुस्तकादिभिरपीहितधर्मसाधनैः । तेषां रसायनवरैरपि सर्पदामयैरात्मिनां गदहृतेः सुखकृत्तु किं भवेत् ॥२६॥ रक्षार्थ खलु संयमस्य गदिता येऽर्था यतीनां जिनैर्वासःपुस्तकपात्रकप्रभृतयो धर्मोपकृत्यात्मकाः । मूर्छन्मोहवशात्त एव कुधियां संसारपाताय धिक् , स्वं स्वस्यैव वधाय शस्त्रमधियां यदुष्प्रयुक्तं भवेत् ॥ २७ ॥ संयमोपकरणच्छलात्परान्भारयन् यदसि पुस्तकादिभिः। गोखरोष्ट्रमहिषादिरूपभृत्तच्चिरं त्वमपि भारयिष्यसे ॥ २८ ॥ वस्त्रपात्रतनुपुस्तकादिनः, शोभया न खलु संयमस्य सा । आदिमा च ददते भवं परा, मुक्तिमाश्रय तदिच्छयैकिकाम् ॥२९॥ शीतातपा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ द्यान्न मनागपीह, परीषहांश्चेत्क्षमसे विसोढुम् । कथं ततो नारकगर्भवासदुःखानि, सोढासि भवांतरे त्वम् ? ॥ ३० ॥ मुने! न किं नश्वरमस्वदेहमृत्पिंडमेनं सुतपोव्रताद्यैः । निपीड्य भीतिर्भवदुःखराशेर्हित्वात्मसाच्छैवसुखं करोषि ? ॥ ३१ ॥ यदत्र कष्टं चरणस्य पालने, परत्र तिर्यङनरकेषु यत्पुनः । तयोमिथः सप्रतिपक्षता स्थिताविशेषदृष्ट्यान्यतरजहीहि तत् ॥ ३२ ॥ शमत्र यबिन्दुरिव प्रमादजं, परत्र यच्चाब्धिरिव द्युमुक्तिजम् । तयोमिथः सप्रतिपक्षता स्थिता, विशेषदृष्ट्यान्यतरद् गृहाण तत् ॥ ३३ ॥ नियंत्रणा या चरणेऽत्र तिर्यस्त्रीगर्भकुंभीनरकेषु या च । तयोमिथः सप्रतिपक्षभावाद्विशेषदृष्ट्यान्यतरां गृहाण ॥३४॥ सह तपोयमसंयमयंत्रणां, स्ववशतासहने हि गुणो महान् । परवशस्त्वति भूरि सहिष्यसे, न च गुणं बहुमाप्स्यसि कंचन ॥ ३५ ॥ अणीयसा साम्यनियंत्रणाभुवा, मुनेऽत्र कष्टेन चरित्रजेन च । यदि क्षयो दुर्गतिगर्भवासगाऽसुखावलेस्तकिमवापि नार्थितम् ? ॥ ३६ ॥ त्यज स्पृहां स्वःशिवशर्मलाभे, स्वीकृत्य तिर्यङ्नरकादिदुःखम् । सुखाणुभिश्चेद्विषयादिजातैः, संतोष्यसे संयमकष्टभीरुः ॥ ३७॥ समग्रचिन्तातिहृतेरिहापि, यस्मिन्सुखं स्यात्परमं रतानाम् । परत्र चेन्द्रादिमहोदयश्रीः, प्रमाद्यसीहापि कथं चरित्रे ? ॥ ३८ ॥ महातपोध्यानपरीषहादि, न सत्त्वसाध्यं यदि धतुमीशः । तद्भावनाः किं समितीश्च गुप्तीर्धत्से शिवार्थिन न मनःप्रसाध्याः ॥ ३९ ॥ अनित्यताद्या भज भावनाः सदा, यतस्व दुःसाध्यगुणेऽपि संयमे । जिघृत्सया ते त्वरते ह्ययं यमः, (ह्यसंयमः?) श्रयन् प्रमादान्न भवाबिभेषि किम् ? ॥ ४० ॥ हतं मनस्ते कुविकल्पजालैर्वचोऽप्यवद्यैश्च वपुः प्रमादैः । लब्धीश्च सिद्धीश्च तथापि वांछन् , मनोरथैरेव हहा !! हतोऽसि ॥ ४१ ॥ मनोवशस्ते सुखदुःखसंगमो, मनो मिलेद्यैस्तु तदात्मकं भवेत् । प्रमादचोरैरिति वार्यतां Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलच्छीलांगमित्रैरनुषञ्जयानिशम् ॥४२॥ ध्रुवः प्रमादैर्भववारिधौ मुने!, तव प्रपातः परमत्सरः पुनः । गले निबद्धोरुशिलोपमोऽस्ति चेत् कथं तदोन्मजनमप्यवाप्स्यसि ? ॥ ४३ ॥ महर्षयः केऽपि सहंत्युदीर्याप्युग्रातपादीन्यदि निर्जरार्थम् । कष्टं प्रसंगागतमप्यणीयोऽपीच्छन् शिवं किं सहसे न भिक्षो ! ॥४४॥ यो दानमानस्तुतिवंदनाभिर्न मोदतेऽन्यैर्न तु दुर्मनायते । अलाभलाभादिपरीपहान् सहन् , यतिः स तत्त्वादपरो विडंबकः ॥ ४५ ॥ दधद् गृहस्थेषु ममत्वबुद्धिं, तदीयतप्त्या परितप्यमानः । अनिवृतांतःकरणः सदा स्वैस्तेषां च पापैर्धमिता भवेऽसि ॥ ४६ ॥ त्यक्त्वा गृहं स्वं परगेहचिंतातप्तस्य को नाम गुणस्तवर्षे ! । आजीविकास्ते यतिवेषतोऽत्र, सुदुर्गतिः प्रेत्य तु दुर्निवारा ॥४७॥ कुर्वे न सावधमिति प्रतिज्ञां, वदन्नकुर्वन्नपि देहमात्रात् । शय्यादिकृत्येषु नुदन गृहस्थान् , हृदा गिरा वाऽसि कथं मुमुक्षुः ॥ ४८ ॥ कथं महत्त्वाय ममत्वतो वा, सावद्यमिच्छस्यपि संघलोके । न हेममय्यप्युदरे हि शस्त्री, क्षिप्ता क्षणोति क्षणतोऽप्यसन् किम् ? ॥ ४९ ॥ रंकः कोऽपि जनाभिभूतिपदवीं त्यक्त्वा प्रसादाद्गुरो-वैषं प्राप्य यते: कथंचन कियच्छाखं पदं कोऽपि च । मौखर्यादिवशीकृत जनतादानार्चनैर्गर्वभा-गात्मानं गणयन्नरेंद्रमिव धिग् गंता द्रुतं दुर्गतौ ॥ ५० ॥ प्राण्यापि चारित्रमिदं दुरापं, स्वदोषजैर्यद्विषयप्रमादैः । भवांबुधौ धिक् पतितोऽसि भिक्षो!, हतोऽसि दुःखैस्तदनंतकालम् ॥ ५१ ॥ कथमपि समवाप्य बोधिरत्नं, युगसमिलादिनिदर्शनादुरापम् । कुरु कुरु रिपुवश्यतामगच्छन् , किमपि हितं लभसे यतोऽर्थितं शम् ।। ५२ ॥ द्विषस्त्विमे ते विषयप्रमादा, असंवता मानसदेहवाचः । असंयमाः सप्तदशापि हास्यादयश्च विभ्यश्चर नित्यमेभ्यः ।। ५३ ॥ गुरूनवाप्याप्यपहाय गेहमधीत्य शास्राण्यपि तत्त्ववांचि । निर्वाहचिंतादिभराद्यभावेऽप्यूषे ! न किं प्रेत्यहिताय Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ यत्नः ? ॥ ५४ ॥ विराधितैः संयमसर्वयोगैः, पतिष्यतस्ते भवदुःखराशौ। शास्त्राणि शिष्योपधिपुस्तकाद्या, भक्ताश्च लोकाः शरणाय नालम् ॥ ५५ ॥ यस्य क्षणोऽपि सुरधामसुखानि पल्य-कोटीनृणां द्विनवती ह्यधिकां ददाति । किं हारयस्यधम ! संयमजीवितं तत् , हा हा प्रमत्त ! पुनरस्य कुतस्तवाप्तिः ? ॥ ५६॥ नाम्नापि यस्येति जनेऽसि पूज्यः, शुद्धात्ततो नेष्टसुखानि कानि । तत्संयमेऽस्मिन् यतसे मुमुक्षोऽनुभूयमानोरुफलेऽपि किं न ? ॥ ५७ ॥ अथ चतुर्दशो मिथ्यात्वादिनिरोधाधिकारः मिथ्यात्वयोगाविरतिप्रमादान , आत्मन् ! सदा संवृणु सौख्यमिच्छन् । असंवृता यद्भवतापमेते, सुसंवृता मुक्तिरमां च दद्युः ॥ १॥ मनः संवृणु हे विद्वन् !, असंवृतमना यतः । याति तंदुलमत्स्यो द्राक् , सप्तमी नरकावनीम् ॥ २ ॥ प्रसन्नचंद्रराजर्षेमनःप्रसरसंवरौ । नरकस्य शिवस्यापि, हेतुभूतौ क्षणादपि ॥३॥ मनोऽप्रवृत्तिमात्रेण, ध्यानं नैकेन्द्रियादिषु । धर्म्यशुक्लमनःस्थैर्यभाजस्तु ध्यायिनः स्तुमः ॥ ४ ॥ सार्थ निरर्थकं वा यन्-मनः सुध्यानयंत्रितम् । विरतं दुर्विकल्पेभ्यः, पारगांस्तान स्तुवे यतीन् ॥ ५ ॥ वचोऽप्रवृत्तिमात्रेण, मौनं के के न बिभ्रति । निरवयं वचो येषाम् , वचोगुप्तांस्तु तान् स्तुवे ॥ ६॥ निरवद्य वचो बहि, सावधवचनैर्यतः । प्रयाता नरकं घोरं, वसुराजादयो द्रुतम् ॥७॥ इहाऽमुत्र च वैराय, दुर्वाचो नरकाय च । अग्निदग्धा प्ररोहन्ति, दुर्वाग्दग्धाः पुनर्न हि ॥ ८ ॥ अत एव जिना दीक्षाकालादाकेवलोद्भवम् । अवद्यादिभिया ब्रूयुर्ज्ञानत्रयभृतोऽपि न ॥ ९ ॥ कृपया संवृणु स्वांगं, कूमज्ञातनिदर्शनात् । संवृतासंवृतांगा यत् , सुखदुःखान्यवाप्नुयुः ॥ १० ॥ कायस्तंभान्न के के स्युस्तरुस्तंभादयो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ यताः । शिवहेतुक्रियो येषां, कायस्तांस्तु स्तुवे यतीन् ॥ ११ ॥ श्रुतिसंयममात्रेण, शब्दान् कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १२ ॥ चक्षुःसंयममात्रात् के, रूपालोकांस्त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १३ ॥ घ्राणसंयममात्रेण, गंधान कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन् मुनिः ॥१४॥ जिह्वासंयममात्रेण, रसान् कान् के त्यजन्ति न । मनसा त्यज तानिष्टान् , यदीच्छसि तपःफलम् ।। १५ ।। त्वचःसंयममात्रेण, स्पर्शान् कान् के त्यजन्ति न। मनसा त्यज तानिष्टान् यदीच्छसि तपःफलम् ।। १६॥ बस्तिसंयममात्रेण, ब्रह्म के के न बिभ्रते । मनःसंयमतो धेहि, धीर! चेत्तत्फलार्थ्यसि ॥ १७॥ विषयेंद्रियसंयोगाभावात्के के न संयताः। रागद्वेषमनोयोगाभावात्के तु स्तवीमि तान् ॥ १८ ॥ कषायान् संवृणु प्राज्ञ, नरकं यदसंवरात् । महातपस्विनोऽप्यापुः, करटोत्करटादयः ॥ १९ ॥ यस्यास्ति किंचिन्न तपोयमादि, ब्रूयात्स यत्तत्तुदतां परान् वा । यस्यास्ति कष्टाप्तमिदं तु किं न, तभ्रंशभी: संवृणुते स योगान् ॥ २०॥ भवेत्समग्रेष्वपि संवरेषु, परं निदानं शिवसंपदां यः । त्यजन् कषायादिजदुविकल्पान् , कुर्यान्मनःसंवरमिद्धधीस्तम् ॥२१॥ तदेवमात्मा कृतसंवरः स्यात् , निःसंगताभाक सततं सुखेन । निःसंगभावादथ संवरस्तद्वयं शिवार्थी युगपद्भजेत ।। २२ ॥ - अथ पंचदशः शुभवृत्तिशिक्षोपदेशाधिकारः आवश्यकेष्वातनु यत्नमाप्तोदितेषु शुद्धेषु तमोऽपहेषु । न हत्यभुक्तं हि न चाप्यशुद्धं, वैद्यौतमप्यौषधमामयान् यत् ॥ १ ॥ तपांसि तन्याद्विविधानि नित्यं, मुखे कटून्यायतिसुंदराणि । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ निघ्नन्ति तान्येव कुकर्मराशिं, रसायनानीवदुरामयान् यत् ॥ २ ॥ विशुद्धशीलांगसहस्रधारी, भवानिशं निर्मितयोगसिद्धिः । सहोपसर्गास्तनुनिर्ममः सन् , भजस्व गुप्तीः समितीश्च सम्यक् ॥ ३ ॥ स्वाध्याययोगेषु दधस्व यत्नं, मध्यस्थवृत्त्यानुसरागमार्थान् । अगारवो भैक्षमटाऽविषादो, हेतौ विशुद्ध वशितेंद्रियौधः ॥४॥ ददस्व धर्मार्थितवैव धान् , सदोपदेशान् स्वपरादिसाम्यान् । जगद्धितैषी नवभिश्च कल्पैमे कुले वा विहराऽप्रमत्तः ॥ ५ ॥ कृताकृतं स्वस्य तपोजपादि, शक्तीरशक्तीः सुकृतेतरे च । सदा समीक्षस्व हृदाथ साध्ये यतस्व हेयं त्यज चाव्ययार्थी ॥६॥ परस्य पीडापरिवर्जनात्ते, त्रिधा त्रियोग्यप्यमला सदास्तु । साम्यैकलीनं गतदुर्विकल्पं, मनो वचश्वाप्यनघप्रवृत्ति ॥ ७ ॥ मैत्री प्रमोदं करुणां च सम्यक् , मध्यस्थतां चानय साम्यमात्मन् । सद्भावनास्वात्मलयं प्रयत्नात् , कृताविरामं रमयस्व चेतः ! ॥ ८ ॥ कुर्यान्न कुत्रापि ममत्वभावं, न च प्रभो ! रत्यरती कषायान् । इहापि सौख्यं लभसेऽप्यनीहो, ह्यनुत्तरामर्त्यसुखाभमात्मन् ! ॥ ९ ॥ इति यतिवरशिक्षा योऽवधार्य व्रतस्थ-श्चरणकरणयोगानेकचित्तः श्रयेत । सपदि भवमहाब्धि क्लेशराशिं स तीर्खा, विलसति शिवसौख्यानंत्यसायुज्यमाप्य ॥१०॥ अथ षोडशः साम्यसर्वस्वाधिकारः एवं सदाभ्यासवशेन सात्म्यं, नयस्व साम्यं परमार्थवेदिन !। यतः करस्थाः शिवसंपदस्ते, भवन्ति सद्यो भवभीतिभेत्तुः ॥१॥ त्वमेव दुःखं नरकस्त्वमेव, त्वमेव शर्मापि शिवं त्वमेव । त्वमेव कर्माणि मनस्त्वमेव, जहीह्यविद्यामवधेहि चात्मन् ! ॥२॥ निःसंगतामेहि सदा तदात्मन्नर्थेष्वशेषेष्वपि साम्यभावात् । अवेहि विद्वन् ! ममतैव मूलं, शुचां सुखानां समतैव चेति ॥ ३ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ स्त्रीषु धूलिषु निजे च परे वा, संपदि प्रसरदापदि चात्मन् !। तत्त्वमेहि समतां ममतामुग, येन शाश्वतसुखाद्वयमेषि ॥ ४ ॥ तमेव सेवस्व गुरु प्रयत्नादधीष्व, शास्त्राण्यपि तानि विद्वन् ! । तदेव तत्त्वं परिभावयात्मन् !, येभ्यो भवेत्साम्यसुधोपभोगः ॥ ५॥ समग्रसच्छास्त्रमहार्णवेभ्यः, समुद्धतः साम्यसुधारसोऽयम् । निपीयतां हे विबुधा ! लभध्वमिहापि मुक्तेः सुखवर्णिकां यत् ॥ ६ ॥ शांतरसभावनात्मा, मुनिसुंदरसूरिभिः कृतो ग्रंथः । ब्रह्मस्पृहया ध्येयः, स्वपरहितोऽध्यात्मकल्पतरुरेषः ॥ ७ । इममिति मतिमानधीत्य चित्ते, रमयति यो विरमत्ययं भवाद्वाक् । स च नियतमतो रमेत चास्मिन् , सह भववैरिजयश्रिया शिवश्रीः ॥ ८ ॥ इति सहस्रावधानिश्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचितः षोडशाधिकारात्म कोऽध्यात्मकल्पद्रुमः समाप्तः । न्यायविशारदमहोपाध्यायश्रीयशोविजयविरचितं श्रीज्ञानसारसूत्रम् । पूर्णाष्टकम्-ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन लीलामग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन :पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥ पूर्णता या परोपाधेः सा याचितकमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव जात्यरत्नविभानिभा ॥२॥ अवास्तवी विकल्पैः स्यात् पूर्णताब्धेरिवोर्मिभिः । पूर्णानन्दस्तु भगवांस्तिमितोदधिसन्निभः ॥ ३ ॥ जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत् तृष्णा कृष्णाहिजाडगुली। पूर्णानन्दस्य तत्किं स्यादैन्यवृश्चिकवेदना ॥ ४ ॥ पूर्यन्ते येन कृपणास्तुदुपेक्षैव पूर्णता । पूर्णानन्दसुधास्निग्धा दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ॥ ५ ॥ अपूर्णः पूर्णतामेति पूर्यमाणस्तु हीयते । पूर्णानन्दस्वभावोऽयं जगदद्भुतदायकः ॥ ६ ॥ परस्वत्वकृतोन्माथा भूनाथा न्यूनतेक्षिणः । स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ न्यूनता न हरेरपि ॥ ७ ॥ कृष्ण पक्षे परिक्षीणे शुक्ले च समुदश्चति । द्योतते सकलाध्यक्षा पूर्णानन्दविधोः कला ॥ ८ ॥ . मग्नाष्टकम्-प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूहं समाधाय मनो निजम् । दधञ्चिन्मात्रविश्रान्तिर्मग्न इत्यभिधीयते ॥ १ ॥ यस्य ज्ञानसुधासिन्धौ परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसञ्चारस्तस्य हालाहलोपमः ॥ २ ॥ स्वभावसुखमग्नस्य जगत्तत्त्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां साक्षित्वमवशिष्यते ॥ ३ ॥ परब्रह्मणि मग्नस्य लथा. पौगलिकी कथा । कामी चामीकरोन्मादाः स्फारा दारादरा क च ? ॥ ४ ॥ तेजोलेश्याविवृद्धिर्या साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ सेत्थम्भूतस्य युज्यते ॥ ५ ॥ ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म तद्वक्तुं नैव शक्यते । नोपमेयं प्रिया लेषैर्नापि तचन्दनद्रवैः ॥६॥ शमशैत्यपुषो यस्य विप्रषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे तत्र सर्वाङ्गमग्नता॥७॥ यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिगिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने ॥ ८ ॥ . . स्थिरताष्टकम्-वत्स! किं चञ्चलस्वान्तो भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि ? । निधिं स्वसन्निधावेव स्थिरता दर्शयिष्यति ॥ १ ॥ ज्ञानदुग्धं विनश्येत लोभविक्षोभकूर्चकैः । अम्लद्रव्यादिवास्थैर्यादिति मत्वा स्थिरो भव ॥२॥ अस्थिरे हृदये चित्रा वाङ्नेत्राऽऽकारगोपना । पुंश्चल्या इव कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता ॥३॥ अन्तर्गतं महाशल्यमस्थैर्य यदि नोद्धृतम् । क्रियौषधस्य को दोषस्तदा गुणमयच्छतः ? ॥४॥ स्थिरता वाङमनःकायैर्येषामङ्गाङ्गिता गता । योगिनः शमशीलास्ते प्रामेऽरण्ये दिवानिशि ॥ ५ ॥ स्थैर्यरत्नप्रदीप चेद् दीप्रः संकल्पदीपजैः । तद्विकल्पैरलं धूमैरलंधूमैम्तथाश्रवैः ॥ ६ ॥ उदीरयिष्यसि स्वान्तादस्थैर्यपवनं यदि । समाधेर्धर्ममेघस्य घटा विघटयिष्यसि ॥ ७ ॥ चारित्रं स्थिरता, रूपमेतत्सिद्धेष्वपीष्यते। यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धयेला Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहाष्टकम्-अहं-ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नपूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ १॥ शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं शुद्धज्ञानं गुणो मम । नान्योऽहं न ममान्ये चेत्यदो मोहालमुल्बणम् ॥२॥ यो न मुह्यति लग्नेषु भावेष्वौदयिकादिषु। आकाशमिव पडून नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥ ३ ॥ पश्यन्नेव परद्रव्यनाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरस्थोऽपि नामूढः परिखिद्यते ॥ ४ ॥ विकल्पचषकैरात्मा पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोचतालमुतालप्रपञ्चमधितिष्ठति ॥ ५ ॥ निर्मलं स्फटिकस्येव सहजं रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो जडस्तत्र विमुह्यति ॥ ६ ॥ अनारोपसुखं मोहत्यागादनुभवन्नपि । आरोपप्रियलोकेषु वक्तुमाश्वर्यवान् भवेत् ॥ ७ ॥ यश्चिद्दर्पणविन्यस्तसमरताचारचारुधीः । क नाम स परद्रव्येऽनुपयोगिनि मुह्यति ॥ ८ ॥ ज्ञानाष्टकम्-मजत्यज्ञः किलाज्ञाने विष्ठायामिव शूकरः । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने मराल इव मानसे ॥ १॥ निर्वाणपदमप्येकं भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥२॥ स्वभावलाभसंस्कारकारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्तथा चोक्तं महात्मना ॥ ३॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद् गतौ ॥ ४॥ स्वद्रव्यगुणपर्याय-चर्या वर्या परान्यथा । इति दत्तात्मसन्तुष्टिमष्टिज्ञानस्थितिर्मुनेः ॥ ५ ॥ अस्ति चेद् ग्रन्थिभिज्ज्ञानं किंचित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः ? । प्रदीपाः कोप्युज्यन्ते ? तमोघ्नी दृष्ठिरेव चेत् ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिज्ज्ञानदम्भौलिशोभितः । निर्भयः शक्रवद् योगी नन्दत्यानन्दनन्दने ॥ ७ ॥ पीयूषमसमुद्रोत्थं रसायनमनौषधम्। अनन्यापक्षमैश्वयं ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥८॥ शमाष्टकम्-विकल्पविषयोत्तीर्णः स्वभावाऽऽलम्बनः सदा। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्य परिपाको यः स शमः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ भनिच्छन् कर्मवैषम्यं ब्रह्मांशेन समं जगत् । आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षङ्गमी शमी ॥ २ ॥ आरुरुक्षुर्मनिर्योगं श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । योगारूढः शमादेव शुद्धथत्यन्तर्गतक्रियः ॥३॥ ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः शमपूरे प्रसर्पति । विकारतीरवृक्षाणां मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥४॥ ज्ञानध्यानतपःशीलसम्यक्त्वसहितोऽप्यहो !। तं नाप्नोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वित ॥ ५ ॥ स्वयम्भूरमणस्पर्द्धिवर्धिष्णुसमतारसः । मुनियेनोपमीयेत कोऽपि नासौ चराचरे ॥ ६॥ शमसूक्तसुधासिक्तं येषां नक्तं दिनं मनः । कदापि ते न दह्यन्ते रागोरगविषोर्मिभिः ॥ ७ ॥ गर्जज्ज्ञानगजोत्तुङ्गरङ्गद्धयानतुरङ्गमाः। जयन्ति मुनिराजस्य शमसाम्राज्यसम्पदः ॥ ८॥ __इन्द्रियजयाप्टकम्-बिभेषि यदि संसारान्मोक्षप्राप्तिं च काङक्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥ १ ॥ . वृद्धास्तष्णाजलापूर्णैरालवालैः किलेन्द्रियैः। मूर्छामतुच्छां यच्छन्ति विकारविषपादपाः ॥ २ ॥ सरित्सहस्रदुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान्नेद्रियग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥ ३ ॥ आत्मानं विषयैः पाशैर्भववासपराङ्मुखम् । इन्द्रियाणि निबध्नन्ति मोहराजस्य किङ्कराः ॥ ४ ॥ गिरिमृत्नां धनं पश्यन् धावतीन्द्रियमोहितः । भनादिनिधनं ज्ञानं धनं पार्श्वे न पश्यति ॥ ५ ॥ पुरः पुरः स्फुरत्तष्णामृगतृष्णानुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु पावन्ति त्यक्त्वा ज्ञानामृतं जडाः ॥ ६ ॥ पतङ्गभृङ्गमीनेभसारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् एकैकेन्द्रियदोषाश्चेद् दुष्टस्तैः किं न पञ्चभिः ? ॥ ७ ॥ विवेकद्विपहर्यक्षैः समाधिधनतस्करै । इन्द्रियैर्न जितो योऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ॥ ८ ॥ त्यागाप्टकम-संयमात्मा श्रयेच्छुद्धोपयोगं पितरं निजम् । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ धृतिमम्बां च पितरौ तन्मा विसृजतं ध्रुवम् ॥ १ ॥ युष्माकं सङ्गमोऽनादिर्बन्धवोऽनियतात्मनाम् । ध्रुवैकरूपान् शीलादिबन्धूनित्यधुनाश्रये ॥ २ ॥ कान्ता मे समतैवैका, ज्ञातयो मे समक्रिया । बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा धर्मसंन्यासवान् भवेत् ॥ ३ ॥ धर्मास्याज्याः सुसङ्गोत्थाः क्षायोपशमिका अपि । प्राप्य चन्दनगन्धाभं धर्मसंन्यासमुत्तमम् ||४|| गुरुत्वं स्वस्य नोदेति शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन तावत्सेव्यो गुरुत्तमः || ५ || ज्ञानाचारादयो sपीष्टाः शुद्धस्वस्वपदावधि । निर्विकल्पे पुनस्त्यागे न विकल्पो न च क्रियाः || ६ || योगसंन्यासतस्त्यागी योगानप्यखिलांस्त्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म परोक्तमुपपद्यते ।। ७ ।। वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं त्यक्त्वात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव 11 2 11 क्रियाष्टकम् - ज्ञानी क्रियापरः शान्तो भावितात्मा जितेन्द्रियः । स्वयं तीर्णो भवाम्भोधेः परांस्तारयितुं क्षमः ॥ १ ॥ क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ २ ॥ स्वानुकूलां क्रियां काले ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः सप्रकाशोऽपि तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥ ३ ॥ बाह्यभावं पुरस्कृत्य ये क्रियाव्यवहारतः । वदने कवलक्षेपं विना ते तृप्ति - काङ्क्षिणः ॥ ४ ॥ गुणवद्बहुमानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि || ५ || क्षायोपशमिके भावे या क्रिया क्रियते तया । पतितस्यापि तद्भावप्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥ ६ ॥ गुणवृद्धयै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ||७|| वचोऽनुष्ठानतोऽसङ्गक्रियासङ्गतिमङ्गति । सेयं ज्ञानक्रियाभेदभूमिरानन्दपिच्छला ॥ ८ ॥ तृप्त्यष्टकम् - पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा क्रियासुरलताफलम् । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ साम्यताम्बूलमास्वाद्य तृप्तिं याति परां मुनिः ॥ १ ॥ स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी । ज्ञानिनो विषयैः किं तैर्भवेत्तृप्तिरित्वरी ॥२॥ या शान्तैकरसास्वादाद्भवेत्तृप्तिरतीन्द्रिया सा न जिहवेन्द्रियद्वारा षड्रसास्वादनादपि ॥ ३ ॥ संसारे स्वप्नवन्मिथ्या तृप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य सात्मवीर्यविपाककृत् ॥ ४ ॥ पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतृप्तिसमारोपो ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥ ५ ॥ मधूराज्यमहाशाखाग्राह्ये बाधे च गोरसात् । परब्रह्मणि तृप्तिर्या जनास्तां जानतेऽपि न ॥६॥ विषयोर्मिविषोद्गारः स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यानसुधोदारपरम्परा ॥ ७ ॥ सुखिनो विषयातृप्ता नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो। भिक्षुरेकः सुखी लोके ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः ।। ८ ।। निलेपाष्टकम्-संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कजलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोको ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥ १॥ नाऽहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयितापि न । नानुमन्तापि चेत्यात्मा ज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥ २ ॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो न लिप्ये पुद्गलैरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव ध्यायन्निति न लिप्यते ॥ ३ ॥ लिप्तता ज्ञानसम्पातप्रतिघाताय केवलम् । निर्लेपज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ४ ॥ तपःश्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसंपन्नो निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥ ५ ॥ अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥ ६ ॥ ज्ञानक्रियासमावेशः सहैवोन्मीलने द्वयोः । भूमिकाभेदतस्त्वत्र भवेदेकैकमुख्यता ॥ ७ ॥ सज्ञानं यदनुष्ठानं न लिप्तं दोषपङ्कतः । शुद्धबुद्धस्वभावाय तस्मै भगवते नमः ॥ ८ ॥ निस्पहाष्टकम्-स्वभावलाभाकिमपि प्राप्तव्यं नावशिष्यते। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० इत्यात्मैश्वर्यसम्पन्नो निस्पृहो जायते मुनिः ॥ १ ॥ संयोजितकरैः के के प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहैः। अमात्रज्ञानपात्रस्य निस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ २ ॥ छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण स्पृहाविषलतां बुधाः । मुखशोकं च मूच्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ॥ ३ ॥ निष्कासनीया विदुषा स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः । अनात्मरतिचाण्डाली. सङ्गमङ्गीकरोति या ॥ ४ ॥ स्पृहावन्तो विलोक्यन्ते लघवस्तृणतूलवत् । महाश्चर्य तथाप्येते मज्जन्ति भववारिधौ ॥ ५ ॥ गौरवं पौरवन्द्यत्वात्प्रकृष्ठत्वं प्रतिष्ठया । ख्यातिं जातिगुणात् स्वस्य प्रादुःकुर्यान्न निस्पृहः ॥ ६॥ भूशय्या भैक्षमशनं जीणं वासो वनं गृहम् ! तथापि निस्पृहस्याहो चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम् ॥ ७ ॥ परस्पृहा महादुःखं निस्पृहत्वं महासुखम । एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ ८ ॥ मौनाष्टकम्-मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः। सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव च ॥ १॥ आत्मात्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना । सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः ॥२॥ चारित्रमात्मचरणाज्ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः। शुद्धज्ञाननये साध्यं क्रियालामात् क्रियानये ॥३॥ यतः प्रवृत्तिन मणौ लभ्यते वा न तत्फलम् । अतात्त्विकी मणिज्ञप्तिर्मणिश्रद्धा च सा यथा ॥ ४ ॥ तथा यतो न शुद्धात्मस्वभावाचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा न तज्ज्ञानं न दर्शनम् ॥ ५ ॥ यथा शोफस्य पुष्टत्वं यथा वा वध्यमण्डनम् । तथा जानन् भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६॥ सुलभं वागनुचारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगानां मौनमुत्तमम् ॥७॥ ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वापि चिन्मयी।यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥८॥ विद्याष्टकम्-नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ अविद्यातत्त्वधीविद्यायोगाचार्यैः प्रकीर्तिता ।।१।। यः पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसङ्गमम् । छलं लब्धं न शक्नोति तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ २ ॥ तरङ्गतरलां लक्ष्मीमायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनुध्यायेदभ्रवद्भरं वपुः ॥ ३ ॥ शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थेऽशुचिसम्भवे । देहे जलादिना शौ वभ्रमो मूढस्य दारुणः ॥ ४ ॥ यः सात्वा समताकुण्डे हित्वा कश्मलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥ ५ ॥ आत्मबोधो नवः पाशो देहगेहधनादिषु। यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु स्वस्य बन्धाय जायते ॥ ६॥ मिथो युक्तपदार्थानामसङक्रमचमक्रिया । चिन्मात्रपरिणामेन विदुषैवानुभूयते ॥ ७ ॥ अविद्यातिमिरध्वंसे दृशा विद्याञ्जनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मानमात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८ ॥ विवेकाष्टकम्-कर्मजीवं च संश्लिष्टं सर्वदा क्षीरनीरवत् । विभिन्नीकुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥ १ ॥ देहात्माद्यविवेकोऽयं सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यापि तद्भेदविवेकस्त्वतिदुर्लभः ॥ २ ॥ शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिरानेखाभिर्मिश्रता यथा । विकारैमिश्रता भाति तथात्मन्यविवेकतः ॥ ३ ॥ यथा योधैः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्यविवेकेन कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ॥ ४ ॥ इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण पीतोन्मत्तो यथेक्षते । आत्माभेदभ्रमस्तद्वदेहादावविवेकिनः ॥ ५ ॥ इच्छन्नपरमान भावान् विवेकाद्रः पतत्यधः । परमं भावमन्विष्यन्नाविवेके निमज्जति ॥ ६ ॥ आत्मन्येवात्मनः कुर्याद्यः षट्कारकसङ्गतिम् । काविवेकज्वरस्यास्य वैषम्यं जडमज्जनात् ॥ ७ ॥ संयमास्त्रं विवेकेन शाणेनोत्तेजितं मुनेः । धृतिधारोल्बणं कर्मशत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥ ८ ॥ माध्यस्थ्याष्टकम्-स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तरात्मना । कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां बालचापलम् ॥१॥ मनोवत्सो Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ युक्तिगवीं मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥ २ ॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥ ३ ॥ स्वस्वकर्मकृतावेशाः स्वस्वकर्मभुजो नराः। न रागं नाऽपि च द्वेषं मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥४॥ मनः स्याद् व्यापृतं यावत्परदोषगुणग्रहे । कार्य व्यग्रं वरं तावन्मध्यस्थेनाऽऽत्मभावने ॥ ५ ॥ विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरिताभिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥६॥ स्वागमं रागमात्रेण द्वेषमात्रात्परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा किन्तु मध्यस्थया दशा ॥७॥ मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनबन्धकादिषु । चारिसञ्जीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् ॥ ८ ॥ निर्भयाष्टकम-यस्य नास्ति परापेक्षा स्वभावाद्वैतगामिनः । तस्य किं न भयभ्रान्तिक्लान्तिसन्तानतानवम् ॥१॥ भवसौख्येन किं भूरिभयज्वलनभस्मना । सदा भयोज्झितं ज्ञानं सुखमेव विशिष्यते ॥२॥ न गोप्यं कापि नारोप्यं हेयं देयं च न क्वचित् । क भयेन मुनेः स्थेयं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ॥ ३ ॥ एकं ब्रह्मास्त्रमादाय निघ्नन्मोहचमं मुनिः । बिभेति नैव सङग्रामशीर्षस्थ इव नागराट् ॥ ४ ॥ मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां न तदानन्दचन्दने ॥५॥ कृतमोहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिभर्ति यः । क्व भीस्तस्य क्व वा भङ्गः कर्मसङ्गरकेलिषु ॥६॥ तूलवल्लघवो मूढा भ्रमन्त्यभ्रे भयानिलैः। नैकं रोमापि तैनिगरिष्ठानां तु कम्पते ॥ ७ ॥ चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम् । अखण्डज्ञानराज्यस्य तस्य साधोः कुतो भयम् ? ॥ ८ ॥ अनात्मशंसाष्टकम्-गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्कृतमात्मप्रशंसया ॥१॥ श्रेयोद्रुमस्य मूलानि स्वोत्कर्षाम्भःप्रवाहतः । पुण्यानि प्रकटीकुर्वन् फलं किं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ समवाप्स्यसि ? || २ || आलम्बिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः । अहो स्वयं गृहीतास्तु पातयन्ति भवोदधौ ॥ ३ ॥ उच्च दृष्टिदोषोत्थस्त्रोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो भृशं नीचत्वभावनम् ॥ ४ ॥ शरीररूपलावण्यप्रामारामधनादिभिः । उत्कर्षः परपर्यायैश्चिदानन्दघनस्य कः || ५ | शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन पर्यायाः परिभाविताः । अशुद्धाश्चापकृष्टत्वान्नोत्कर्षाय महामुनेः ॥ ६ ॥ क्षोभं गच्छन्समुद्रोऽपि स्वोत्कर्षपवनेरितः । गुणौघान् बुबुदीकृत्य विनाशयसि किं मुधा ? ॥ ७ ॥ निरपेक्षानवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्त्तयः । योगिनो गलितोत्कर्षापकर्षानल्पकल्पनाः 11 2 11. तच्च दृष्ट्यष्टकम् - रूपं रूपवती दृष्टिर्दृष्ट्वा रूपं विमुह्यति । मज्जत्यात्मनि नीरूपे तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ।। १ ।। भ्रमवाही बर्हिष्टि मच्छाया तदीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाऽऽशया || २ || प्रामाऽऽरामादि मोहाय यद् दृष्टं बाह्यया दृशा । तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्तर्नीतं वैराग्यसम्पदे || ३ || बाह्यदृष्टेः सुधासारघटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वदृष्टेस्तु सा साक्षाद्विण्मूत्रपिठरोदरी || ४ || लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यग् । तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ॥ ५ ॥ गजाश्वैर्भूपभुवनं विस्मयाय बहिर्दशः । तत्रा' वेभवनात्कोऽपि भेदस्तत्त्वदृशस्तु न ॥ ६ ॥ भस्मना केशलोचेन वपुर्धृतमलेन वा । . महान्तं बाह्यग् वेत्ति चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ॥ ७ ॥ न विकाराय विश्वस्योपकारायैव निर्मिताः । स्फुरत्कारुण्यपीयूषवृष्टय स्तत्त्वदृष्टयः || ८ ॥ सर्वसमृद्धयष्टकम् – बाह्यदृष्टिप्रचारेषु मुद्रितेषु महात्मनः । अन्तरेवावभासन्ते स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः || १ || समाधिर्नन्दनं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ धैर्य, दम्भोलिः समता शची । ज्ञानं महाविमानं च वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २ ॥ विस्तारितक्रियाज्ञानचर्मच्छत्रो निवारयन् । मोहम्लेच्छमहावृष्टिं चक्रवर्ती न किं मुनिः ॥ ३ ॥ नवब्रह्मसुधाकुण्डनिष्ठाधिष्ठायको मुनिः । नागलोकेशवद्भाति क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ ४ ॥ मुनिरध्यात्मकैलाशे विवेकवृषभस्थितः । शोभते विरतिज्ञप्तिगङ्गागौरीयुतः शिवः ॥ ५ ॥ ज्ञानदर्शनचन्द्रार्कनेत्रस्य नरकच्छिदः । सुखसागरमग्नस्य किं न्यूनं योगिनो हरेः ? ॥ ६ ॥ या सृष्टिर्ब्रह्मणो बाह्या बाह्यापेक्षावलम्बिनी । मुनेः परानपेक्षान्तगुणसृष्टिस्ततोऽधिका || ७ || रत्नैस्त्रिभिः पवित्रा या स्रोतोभिरिव जाह्नवी | सिद्धयोगस्य साप्यईत्पदवी न दवीयसी ॥ ८ ॥ कर्म विपाकचिन्तनाष्टकम् - दुखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः । मुनिः कर्मविपाकस्य जानन्परवशं जगत् ॥ १ ॥ येषां भ्रूभङ्गमात्रेण भज्यन्ते पर्वता अपि । तैरहो कर्मवैषम्ये भूपैर्भिक्षापि नाप्यते ॥ २ ॥ जातिचातुर्यहीनोऽपि कर्मण्यभ्युदयावहे | क्षणाद्रक्कोऽपि राजा स्यात् छत्रच्छन्नदिगन्तरः ॥ ३ ॥ विषमा कर्मणः सृष्टिष्टा करभपृष्ठवत् । जात्यादिभूतिवैषम्यात् का रतिस्तत्र योगिनः ? ॥ ४ ॥ आरूढाः प्रशम श्रेणि श्रुतकेवलिनोऽपि च । भ्राम्यन्ते ऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥ ५ ॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री श्रान्तैव परितिष्ठति । विपाकः कर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति || ६ || असावचरमावर्त्ते धर्मं हरति पश्यतः । चरमावर्त्तिसाधोस्तु च्छलमन्विष्य दुष्यति ॥ ७ ॥ साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन् । स एव स्याचिदानन्दमकरन्दमधुव्रतः ॥ ८ ॥ भवोद्वेगाष्टकम् - यस्य गम्भीर मध्यस्याऽज्ञानवत्रमयं तलम्। रुद्धा व्यसनशैलौघैः पन्थानो यत्र दुर्गमाः || १ || पाताल कलशा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ यत्र भृतास्तृष्णामहानिलैः । कषायाश्चित्तसङ्कल्पवेलावृद्धिं वितन्वते ॥ २ ॥ स्मरौर्वाग्निर्बलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसङ्कुलः ॥ ३ ॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैर्विार्वातगर्जितैः । यत्र सांयात्रिका लोकाः पतन्त्युत्पातसङ्कटे ॥ ४ ॥ ज्ञानी तस्माद्भवाम्भोधेर्नित्योद्विनोऽतिदारुणात् । तस्य सन्तरणोपायं सर्वयत्नेन काङक्षति ॥ ५ ॥ तैलपात्रधरो यद्वद् राधावेधोद्यतो यथा । क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्भवभीतस्तथा मुनिः ॥ ६ ॥ विषं विषस्य वह्निश्च वढेरेव यदौषधम् । तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः ॥ ७ ॥ स्थैर्य भवभयादेव व्यवहारे मुनिव्रजेत् । स्वात्मारामसमाधौ तु तदप्यन्तर्निमज्जति ॥ ८ ॥ लोकसंज्ञात्यागाष्टकम्-प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिलछन्नम् । लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥ १ ॥ यथा चिन्तामणिं दत्ते बठरो बदरीफलैः । हहा जहाति सद्धर्म तथैव जनरञ्जनैः ।। २ ।। लोकसंज्ञामहानद्यामनुस्रोतोऽनुगा न के। प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः ॥ ३ ॥ लोकमालम्ब्य कर्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् । तदा मिथ्यादृशां धर्मो न त्याज्य: स्यात्कदाचन ॥ ४ ॥ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो लोके लोकोत्तरे न च । स्तोका हि रत्ववणिजः स्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः ॥ ५ ॥ लोकसंज्ञाहता हन्त ! नीचैर्गमनदर्शनैः। शंसयन्ति स्वसत्त्यागमर्मघातमहाव्यथाम् ॥६॥ आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ किं लोकयात्रया। तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शनम् ॥ ७ ॥ लोकसंज्ञोज्झितः साधुः परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोहममतामत्सरज्वरः ।। शास्त्राष्टकम्-चर्मचक्षुर्भूतः सर्वे देवाश्चावधिचक्षुष : । सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः साधवः शास्त्रचक्षुषः ॥ १ ॥ पुरःस्थितानिबोर्ध्वाधस्तिर्यगलोकविवर्तिनः । सर्वान भावानवेक्षन्ते झानिनः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ शास्त्रचक्षुषा ॥ २ ॥ शासनात्राणशक्तेश्च बुधैश्शास्त्रं निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य तत्त नान्यस्य कस्यचित् ॥३॥ शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्नियमात् सर्वसिद्धयः ॥ ४ ॥ अदृष्टार्थे नु धावन्तः शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ॥ ५ ॥ शुद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् । भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिवारणम् ॥६॥ अज्ञानाहिमहामन्त्रं स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्घनम् । धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुमहर्षयः ॥७॥ शास्त्रोक्ताचारकर्ता च शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः । शास्त्रैकहग् महायोगी प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ८ ॥ परिग्रहाष्टकम्-न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः ॥ १ ॥ परिग्रहग्रहावेशावर्भाषितरजःकिराः । श्रूयन्ते विकृताः किं न ? प्रलापा लिङ्गिनामपि। २॥ यस्त्यक्त्वा तृणवबाह्यमान्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदाम्भोज पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥ ३ ॥ चित्तेऽन्तर्ग्रन्थिगहने बहिनिग्रन्थता वृथा । त्यागातकचुकमात्रस्य भुजगो नहि निर्विषः ॥४॥ त्यक्ते परिग्रहे साधोः प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव सरसः सलिलं यथा। ५।। त्यक्तपुत्रकलत्रस्य मूर्छा मुक्तस्य योगिनः । चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य का पुद्गलनियन्त्रणा ॥ ६ ॥ चिन्मात्रदीपको गच्छेनिर्वातस्थानसन्निभैः । निष्परिग्रहता स्थैर्य धर्मोपकरणैरपि ॥७॥ मूर्छाछन्नधियां सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानान्तु जगदेवापरिग्रहः ॥ ८॥ अनुभवाष्टकम्-सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवलश्रुतयोः पृथक् । बुधैरनुभवो दृष्टः केवलार्कारुणोदयः ॥ १॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां दिक्प्रदर्शनमेव हि । पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥ २ ॥ अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रयुक्तिशतेनापि न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥ ३ ॥ ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥ ४ ॥ केषां न कल्पनादर्वी शास्त्रक्षीरानगाहिनी । विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्ववा ॥ ५॥ पश्यन्ति ब्रह्मनिर्द्वन्द्वं निर्द्वन्द्वानुभवं विना । कथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी ॥ ६ ॥ न सुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्पविश्रान्तेस्तुर्यैवानुभवे दशा ॥ ७ ॥ अधिगत्याखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः । स्वसंवेद्य परंब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥ ८ ॥ योगाष्टकम्-मोक्षण योजनाद्योगः सर्वोऽप्याचार इज्यते विशिष्य स्थानवालम्बनैकाग्र्यगोचरः ॥१॥ कर्मयोगद्वयं तत्र ज्ञानयोगत्रयं विदुः । विरतेष्वेव नियमाद्वीजमात्रं परेष्वपि ॥२॥ कृपानिर्वेदसंवेगप्रशमोत्पत्तिकारिणः । भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः ॥ ३ ॥ इच्छा तद्वत्कथाप्रीतिः प्रवृत्तिः पालनं परम् । स्थैर्य बाधकभीहानिः सिद्धिरन्यार्थसाधनम् ॥ ४ ॥ अर्थालम्बनयोश्चैत्यवन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिनः स्थानवर्णयोर्यत्र एव च ॥ ५ ॥ आलम्बनमिह ज्ञेयं द्विविधं रूप्यरूपि च । अरूपि गुणसायुज्ययोगोऽनालम्बनं परम् ॥ ६॥ प्रीतिभक्तिवचोऽसङ्गैः स्थानाद्यपि चतुर्विधम् । तस्मादयोगयोगाप्तिर्मोक्षयोगः क्रमाद्भवेत् ॥ ७ ॥ स्थानाधयोगिनस्तीर्थोच्छेदाद्यालम्बनादपि । सूत्रदाने महादोष इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ८ ॥ नियागाष्टकम्-यः कर्म हुतवान् दीप्ते ब्रह्माग्नौ ध्यानध्यायया ! स निश्चितेन यागेन नियागप्रतिपत्तिमान् ॥ १ ॥ पापध्वंसिनि निष्कामे ज्ञानयज्ञे रतो भव । सावधेः कर्मयज्ञैः किं ? भूतिकामनयाविलैः ॥ २॥ वेदोक्तत्वान्मनःशुद्धथा कर्मयज्ञोऽपि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ योगिनः । ब्रह्मयज्ञ इतीच्छन्तः श्येनयागं त्यजन्ति किम् ? ॥३॥ ब्रह्मयज्ञः परं कर्म गृहस्थस्याधिकारिणः । पूजादि वीतरागस्य शानमेव तु योगिनः ॥४॥ भिन्नोद्देशेन विहितं कर्म कर्मक्षयाऽक्षमम् । क्लप्तभिन्नाधिकारं च पुढेष्टयादिवदिष्यताम् ॥ ५ ॥ ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ॥ ६ ॥ ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो ब्रह्मदृग्ब्रह्मसाधनः । ब्रह्मणा जुह्वदब्रह्म ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ॥ ७॥ ब्रह्माध्ययननिष्ठावान् परब्रह्मसमाहितः । ब्राह्मणो लिप्यते नाधैर्नियागप्रतिपत्तिमान् ॥८॥ भावपूजाष्टकम्-दयाम्भसा कृतस्नानः सन्तोषशुभवस्त्रभृत् । विवेकतिलकभ्राजी भावनापावनाशयः ॥ १ ॥ भक्तिश्रद्धानघुसृणोन्मिश्रकश्मीरजद्रवैः । नवब्रह्मांगतो देवं शुद्धमात्मानमर्चय ॥२॥ क्षमापुष्पस्रजं धर्मयुग्मक्षौमद्वयं तथा । ध्यानाभरणसारं च तदङ्गे विनिवेशय ॥ ३ ॥ मदस्थानभिदात्यागैलिखाग्रे चाष्टमङ्गलीम् । ज्ञानाग्नौ शुभसङ्कल्पकाकतुण्डं च धूपय ॥ ४ ॥ प्राग्धर्मलवणोत्तारं धर्मसंन्यासवह्निना । कुर्वन् पूरय सामर्थ्यराजन्नीराजनाविधिम् ॥ ५ ॥ स्फुरन्मङ्गलदीपं च स्थापयानुभवं पुरः । योगनत्यपर(स्तु) स्तौर्यत्रिकसंयमवान् भव ॥ ६॥ उल्लसन्मनसः सत्यघण्टां वादयतस्तव । भावपूजारतस्येत्थं करक्रोडे महोदयः ॥ ७ ॥ द्रव्यपूजोचिता भेदोपासना गृहमेधिनाम् । भावपूजा तु साधूनामभेदोपासनामिका ॥ ८ ॥ ध्यानाष्टकम्-ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रयं यस्यैकतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य तस्य दुःखं न विद्यते ॥ १ ॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्रसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥ २॥ मणौ बिम्बप्रतिच्छाया सभापत्तिः परात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले ॥ ३ ॥ आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थकृत्कर्मबन्धतः । तद्भावाभिमुखत्वेन सम्प Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तिश्च क्रमाद्भवत् ॥४॥ इत्थं ध्यानफलाद्युक्तं विंशतिस्थानकाद्यपि । कष्टमात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवे ।। ५ ॥ जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥६॥ रुद्धबाह्यमनोवृत्तेरिणाधारया रयात् । प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दसुधालिहः ॥ ७ ॥ साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव वितन्वतः । ध्यानिनो नोपमा लोके सदेव मनुजेऽपि हि ॥ ८॥ तपोऽष्टकम्-ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तापनात्तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम ॥ १॥ आनुश्रोतसिकी वृत्तिर्बालानां सुखशीलता । प्रातिश्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां परमं तपः ।। २ ।। धनार्थिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्सहम् । तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानार्थिनामपि ॥ ३ ॥ सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥ ४ ॥ इत्थं च दुःस्व रूपत्वात्तपो व्यर्थमितीच्छताम् । बौद्धानां निहता बुद्धिर्बोद्धानन्दापरिक्षयात् ॥ ५ ॥ यत्र ब्रह्म जिनार्चा च कषायाणां तथा हृतिः । सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥६॥ तदेव हि तपः कार्य दुर्ल्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा ।। ७ ।। मूलोत्तरगुणश्रेणिप्राज्यसाम्राज्यसिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं तपः कुयोन्महामुनिः ॥ ८ ॥ सर्वनयाश्रयणाष्टकम्--धावन्तोऽपि नयाः सर्वे स्युर्भाव कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ॥ १ ॥ पृथग्नया मिथः पक्षप्रतिपक्षकदर्थिताः । समवृत्तिसुखास्वादी ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥ २ ।। नाप्रमाणं प्रमाणं वा सर्वमप्यविशेषितम् । विशेषितं प्रमाणं स्यादिति सर्वनयज्ञता ॥ ३॥ लोके सर्वनयज्ञानां ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः । स्यात् पृथङ् नयमूढानां स्मयार्तिर्वाप्यतिग्रहः ॥५॥ श्रेयः सर्वनयज्ञानां विपुलं धर्मवादतः । शुष्कवादविवादाच्च Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० परेषां तु विपर्ययः ॥ ५ ॥ प्रकाशितं जिनानां यैर्मतं सर्वनयाश्रितम् । चिते परिणतं चेदं येषां तेभ्यो नमो नमः ॥ ६॥ निश्चये व्यवहारे च त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एकपाक्षिकवि लेषमारूढाः शुद्धभूमिकाम् ॥ ७ ॥ अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविजिताः । जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः ॥ ८ ॥ उपसंहारार्थे सर्वाष्टकानां भावनाभिधानाख्याननिर्देशः पूर्णो मग्नः स्थिरोऽमोहो ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो निलेपो निस्पृहो मुनिः ॥ १ ॥ विद्याविवेकसम्पन्नो मध्यस्थो भयवर्जितः । अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टि: सर्वसमृद्धिमान ॥ २ ॥ ध्याताकर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधेः । लोकसंज्ञाविनिर्मुक्त: शास्त्रहम् निष्परिग्रहः ॥ ३ ॥ शुद्धानुभववान् योगी नियागप्रतिपत्तिमान । भावार्चाध्यानतपसां भूमिः सर्वनयाश्रितः ॥ ४॥ स्पष्टं निष्टङ्कितं तत्त्वं अष्टकैः प्रतिपन्नवान् । मुनिमहोदयं ज्ञानसारं समधिगच्छति ॥ ५ ॥ निर्विकारं निराबाधं ज्ञानसारमुपेयुषाम् । विनिवृत्तपराशानां मोक्षोऽत्रैव महात्मनाम् ॥ ६ ॥ चित्तमार्दीकृतं ज्ञानसारसारस्वतोर्मिभिः । नाप्नोति तीव्रमोहाग्निप्लोषशोषकदर्थनाम् ॥ ७ ॥ अचिन्त्या कापि साधूनां ज्ञानसारगरिष्ठता । गतिर्ययोर्ध्वमेव स्यादधःपातः कदापि न ॥ ८ ॥ क्लेशक्षयो हि मण्डूकचूर्णतुल्यः क्रियाकृतः । दग्धतवर्णसदृशो ज्ञानसारकृतः पुनः ॥ ९ ॥ ज्ञानपूतां परेऽप्याहुः क्रियां हेमघटोपमाम् । युक्तं तदपि तद्भावं न यद्भग्नापि सोज्झति ॥ १० ॥ क्रियाशून्यं च यज्झानं ज्ञानशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव ॥ ११ ॥ चारित्रं विरतिः पूर्णा ज्ञानस्योस्कर्ष एव हि । ज्ञानाद्वैतनये दृष्टिया तद्योगसिद्धये ॥ १२ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ एतच्छास्त्ररचनाकालक्षेत्रादि-सिद्धिं सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धवहे लब्धवान् । चिद्दीपोऽयमुदारसारमहसा दीपोत्सवे पर्वणि । एतद्भावनभावपावनमनश्चञ्चच्चमत्कारिणां तैस्तैर्दीपशतैः सुनिश्चयमतैर्नित्योऽस्तु दीपोत्सवः ।। १३ ॥ केषाञ्चिद्विषयज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदककुतर्कमूछितमथान्येषां कुवैराग्यतः । लग्नालकमबोधकूपपतितं चास्तेऽपरेषामपि स्तोकानां तु विकारभाररहितं तज्ज्ञानसाराश्रितम् ॥ १४ ॥ ग्रन्थाभ्यासरूपफलम्-जातोद्रे कविवेकतोरणततेर्धावल्यमातन्यते, हृद्रोहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः । पूर्णानन्दघनस्य किं सहजया तद्भाग्यभङ्गया भवन्नैतद्ग्रन्थमिषात्करग्रहमहश्चित्रश्चरित्रश्रियः ॥१५॥ भावस्तोमपवित्रगोमयरसैः सिक्तेव भूः सर्वतः, संसिक्ता शमतोदकैरथ पथि न्यस्ता विवेकस्रजः । अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशचक्रेऽत्र शास्त्रे पुरः पूर्णानन्दघने पुरं प्रविशति स्वीयं कृतं मङ्गलम् ॥ १६ ॥ गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः । तत्सातीर्थ्य भतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशोः, श्रीमन्यायविशारदस्य कृतिनामेषा कृतिः प्रीतये ॥ १७ ॥ श्रीधर्मदासगणिविरचिता उपदेशभाला नमिऊण जिणवरिंदे, इंदनरिंदच्चिए तिलोअगुरू । उवएसमालमिणमो, वुच्छामि गुरूवएसेणं ॥ १ ॥ जगचूडामणिभूओ, उसभो वीरो तिलोअसिरितिलओ । एगो लोगाइच्चो, एगो चक्खू तिहुअणस्स ॥ २ ॥ संवच्छरमुसभजिणो, छम्मासा वद्धमाणजि। णचंदो । इअ विहरिआ निरसणा, जइज एओवमाणेणं ॥ ३ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ I जइ ता तिलोअनाहो, बिसहर बहुआइँ असरिसजणस्स । इअ जीअंतकराई, एस खमा सव्वसाहूणं ॥ ४ ॥ न चइज्जइ चालेडं, महइमहावद्धमाणजिणचंदो । उवसग्गसहस्सेहिवि, मेरू जह वायगुंजाहिं ॥ ५ ॥ भदो विणीअविणओ, पढमगणहरो समत्तसुअनाणी । जाणतोऽवि तमत्थं, विम्हिअहिअओ सुणइ सव्वं ॥ ६ ॥ जं आणवेइ राया, पगईओ तं सिरेण इच्छंति । इअ गुरुजणमुहभणिअं, कयंजलिउडेहिं सोअव्वं ॥ ७ ॥ जह सुरगणाण इंदो, गहगणतारागणाण जह चंदो । जह य पयाण नरिंदो, गणस्सवि गुरू तहाणंदो ॥ ८ ॥ बालुत्ति महीपालो, न पया परिभवइ एस गुरु उवमा । जं वा पुरओ काउं, विहरंति मुणी तहा सोवि ॥ ९ ॥ पडिवो तेयस्सी, जुगप्पहाणागमो महुरवको गंभीरो धीमंतो, उबएसपरो अ आयरिओ ॥ १० ॥ अपरिस्सावी सोमो, संगहसीलो अभिग्गहमई य । अविकत्थणो अचवलो, पसंतहियओ गुरू होइ ॥ ११ ॥ कइयावि जिणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहुं दाउ | आयरिएहिं पवयणं, धारिज्जइ संपयं सयलं ॥ १२ ॥ अणुगम्मए भगवई, रायसुअज्जासह स्सविंदेहं । तहवि न करेइ माणं, परियच्छइ तं तहा नूणं ॥ १३ ॥ दिदिक्खिअस्स दमगस्स, अभिमुहा अज्ज - चंदणा अज्जा । नेच्छइ आसणगहणं, सो विणओ सव्वअज्जाणं ॥ १४ ॥ वरिससयदिक्खिआए, अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू | अभिगमणवंदणनमंसणेण विणण सो पुज्जो ॥ १५ ॥ धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओ, पुरिसजिट्ठो । लोएवि पहू पुरिसो, किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ? || १६ || संवाहणस्स रण्णो, तइया वाणारसीऍ नयरीए । कन्नासहस्समहिअं, आसी किर रुववंतीणं ॥ १७ ॥ तहविय सा रायसिरी, उल्लुट्टांती न ताइया ताहिं । उयरट्ठिएण इक्केण, ताइया अंगवीरेण ॥ १८ ॥ महिलाण सुबहुआणवि, मज्झाओ इह समत्तघरसारो। रायपुरिसेहिं निज्जइ, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ जणेऽवि पुरिसो जहिं नत्थि ।। १९ ॥ किं परजणबहुजाणावणाहिं वरमप्पसक्खियं सुकयं । इह भरहचक्कवट्टी, पसन्नचंदो य दिटुंता ॥ २० ॥ वेसोऽवि अपमाणो, असंजमपहेसु वट्टमाणस्स । किं परिअत्तिअवेसं, विसं न मारेइ खज्जतं ? ॥२१ ॥ धम्म रक्खइ वेसो, संकइ वेसेण दिक्खिओ म्हि अहं । उम्मग्गेण पडतं, रक्खइ राया जणवउव्व ॥ २२ ॥ अप्पा जाणइ अप्पा, जहडिओ अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावहं होइ ॥ २३ ॥ जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समये, सुहासुहं बंधए कम्म ॥ २४ ॥ धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सीउण्हवायविज्झडिओ । संवच्छरम (रं अ) णसिओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२५॥ निगमइविगप्पिअचिंतिएण सच्छंदबुद्धिरइएणं । कत्तो पारत्तहिरं कीरइ गुरुअणुवएसेणं ? ॥ २६ ॥ थद्धो निरोवयारी, अविणीभो गविओ निरुवणामो । साहुजणस्स गरहिओ, जणेऽवि वयणिजयं लहइ ॥ २७ ॥ थोवेणवि सप्पुरिसा, सणंकुमारुव्व केइ बुझंति । देहे खणपरिहाणी, जं किंर देवेहिं से कहिया ॥ २८ ॥ जइ ता लवसत्तमसुरविमाणवासीवि परिवडंति सुरा। चिंतिज्जंतं सेसं, संसारे सासयं कयरं ? ॥ २९ ॥ कह तं भण्णइ सुक्खं ? मुचिरेणवि जस्स दुक्खमल्लिअइ । जं च मरणावसाणे, भवसंसाराणुबंधिं च ॥ ३० ॥ उवएससहस्सेहिवि, बोहिज्जतो न बुज्झइ कोई । जह बंभदत्तराया, उदायिनिवमारओ चेव ॥ ३१ ॥ गयकण्णचंचलाए, अपरिश्चत्ताऍ रायलच्छीए । जीवा सकम्मकलिमलभरियभरा तो पडंति अहे ॥ ३२ ॥ वुत्तूणवि जीवाणं, सुदुक्कराइंति पावचरिआई । भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥ ३३ ।। पडिवजिऊण दोसे, निभए सम्मं च पायवडिआए। तो किर मिगावईए, उप्पन्न केवलं नाणं ॥ ३४ ॥ किं सका Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ " वुत्तुं जे सरागधम्मम्मि कोइ अकसाओ ? । जो पुण धरिज घणिभं दुव्वयणुज्जालिए स मुणी ।। ३५ ।। कडुअकसायतरूणं, पुफ्फं च फलं च दोऽवि विरसाई । पुप्फेण झाइ कुविओ, फलेण पाव समायरइ || ३६ || संतेऽवि कोऽवि उज्झइ, asa असंतेऽवि अहिलसइ भोए । चयइ परपच्चएणऽवि, पभवो दट्ठूण जह जंबुं ॥ ३७ ॥ दीसंति परमघोरावि पवरधम्मप्पभावपडिबुद्धा । जह सो चिलाइपुत्तो, पडिबुद्धो सुंसुमाणा ॥ ३८ ॥ पुष्फियफलिए तह पिउघरम्मि तहा छुहा समणुबद्धा । ढंढेण तहा विसढा, विसढा जह सफलया जाया ॥ ३९ ॥ आहारेसु सुहेसु अ, रम्माव सहेसु काणणेसुं च । साहूण नाहिगारो अहिगारो धम्मक - ज्जे ॥ ४० ॥ साहू कांतार महाभए अवि जणवएव मुइअम्मि | अवि ते सरीरपीडं, सहंती न लहं (यं) तिय विरुद्ध ं ॥ ४१ ॥ जंतेहि पीलीयावि हु, खंद्गसीसा न चैव परिकुविया | विइयपरमत्थसारा, खमंति जे पंडिआ हुंति ॥ ४२ ॥ णिवयणसुइसकण्णा, अवगयसंसारघोरपेयाला । बालाण खमंति जई, जइति किं इत्थ अच्छेरं ? ॥ ४३ ॥ न कुलं इत्थ पहाणं, हरिएसबलस्य किं कुलं आसी ? । आकंपिया तवेणं, सुरावि जं पज्जुवासंति ॥ ४४ ॥ देवो नेरइउत्ति य, कीड पयंगुत्ति माणुसो aar | रूसी अ विरूवो, सुहभागी दुक्खभागी अ ।। ४५ ।। उत्तिय दमगुत्तिय, एस सपागुत्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुज्जो, खलत्ति अघणो धणवइति ॥ ४६ ॥ नवि इथ कोऽवि नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिसकयजिट्ठो । अन्नुन्नरूववेसो, नडुव्व परियत्तए जीवो ॥ ४७ ॥ कोडीसएहिं धणसंचयस्स गुणसुभरियाऍ कन्नाए । नवि लुद्धो वयर रिसी, अलोभया एस साहूणं ॥ ४८ ॥ अंतेउरपुर बलवाहणेहिं वरसिरिघ रेहिं मुणिवसहा । कामेहि बहुविहेहि य, छंदिज्जंतावि नेच्छति ॥ ९४ ॥ छेओ भेओ वसणं, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ आयासकिलेसभयविवागो अ । मरणं धम्मभंसो, अरई अत्थाउ सव्वाइं ॥ ५० ॥ दोससयमूलजालं, पुवरिसिविवज्जियं जई वंतं । अत्थं वहसि अणत्थं, कीस अणत्थं तवं चरसि ? ॥ ५१ ॥ वहबंधणमारणसेहणाओ काओ परिग्गहे नत्थि । तं जइ परिग्गहुच्चिय, जइधम्मो तो नणु पवंचो ॥ ५२ ॥ किं आसि नंदिसेणस्स कुलं जं हरिकुलस्स विउलस्स । आसी पियामहो सच्चरिएण वसुदेवनामुत्ति ॥ ५३ ॥ विज्जाहरीहिं सहरिसं, नरिंददुहियाहि अहमहंतीहिं । जं पत्थिज्जइ तइया, वसुदेवो तं तवस्स फलं ॥ ५४ ॥ सपरक्कमराउलवाइएण सीसे पलीविए निअए । गयसुकुमालेण खमा, तहा कया जह सिवं पत्तो ॥ ५५ ॥ रायकुलेसुऽवि जाया, भीया जरमरणगब्भवसहीणं । साहू सहति सव्वं, नीयाणऽवि पेसपेसाणं ॥ ५६ ॥ पणमंति य पुव्वयरं कुलया, न नमंति अकुलया पुरिसा। पणओ इह पुवि जइजणस्स जह चकवट्टिमुणी ।। ५७ ॥ जह चकवट्टिसाहू सामाइअसाहुणा निरुवयारं । भणिओ न चेव कुविओ, पणओ बहुअत्तणगुणेणं ॥५८|| ते धन्ना से साहू, तेसि नमो जे अकज्जपडिविरया । धीर वयमसिहारं, चरंति जह थूलिभद्दमुणी ॥ ५९ ॥ विसयासिपंजरंमिव, लोए असिपंजरम्मि तिक्खम्मि । सिंहा व पंजरगया, वसंति तवपंजरे साहू ॥ ६० ॥ जो कुणइ अप्पमाणं, गुरुवयणं न य लएइ उवएसं । सो पच्छा तह सोअइ, उवकोसघरे जह तवस्सी ॥ ६१ ॥ जिट्ठव्वयपव्वयभरसमुव्वहणववसिअस्स अच्चंतं । जुवइजणसंवइयरे, जइत्तणं उभयओ भट्ठ ॥ ६२ ॥ जइ ठाणी जइ मोणी, जइ मुंडी वक्कली तवस्सी वा । पत्थन्तो अ अबभं, बंभावि न रोयए मज्झं ।।६३॥ तो पढियं तो गुणियं, तो मुणियं तो अ चेइओ अप्पा । आवडियपेल्लियामंतिओऽवि जइ न कुणइ अकजं ॥६४॥ पागडियसव्वसल्लो, गुरुपागमूलम्मि लहइ साहु Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयं । अविसुद्धस्स न वड्ढइ, गुणसेढी तत्तिया ठाइ ॥ ६५ ॥ जइ दुक्करदुक्करकारउत्ति भणिओ जहट्ठिओ साहू । तो कीस अज्जसंभूअविजयसीसेहिं नवि खमिकं ॥ ६६ ।। जइ ताव सव्वओ सुंदरुत्ति कम्माण उवसमेण जई। धम्मं वियाणमाणो, इयरो किं मच्छरं वहइ ? ॥ ६७ ॥ अइसुटिओत्ति गुणसमुइओत्ति जो न सहइ जइपसंसं । सो परिहाइ परभवे, जहा महापीढपीढरिसी ॥ ६८ ॥ परपरिवायं गिण्हइ, अट्ठमयविरल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुक्खिओ निश्चं ॥ ६९ ॥ विग्गहविवायरुइणो, कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स । नत्थि किर देवलोएवि देवसमिईसु अवगासो ॥ ७० ॥ जइ ता जणसंववहारवज्जियमकज्जमायरइ अन्नो । जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स वसणेण सो दुहिओ ॥ ७१ ।। सुठुवि उज्जव (म) माणं, पंचेव करिति रित्तयं समणं । अप्पथुई परनिंदा, जिभोवत्था कसाया य ॥ ७२ ।। परपरिवायमईओ, दूसइ वयणेहिं जेहिं जेहिं परं । ते ते पावइ दोसे, परपरिवाई इअ अपिच्छो ॥ ७३ ॥ थद्धा छिद्दप्पेही, अवण्णवाई सयंमई चवला । वंका कोहणसीला, सीसा उव्वेअगा गुरुणो ॥५४॥ जस्स गुरुम्मि न भत्ती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं । नवि लज्जा नवि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स ? ॥ ७५ ॥ रुसइ चोइज्जतो, वहई हियएण अणुसयं भणिओ । न य कम्हि करणिज्जे, गुरुस्स आलो न सो सीसो ॥ ७६ ॥ उव्विल्लणसूअणपरिभवेहिं अइभणियदुटुभणिएहिं । सत्ताहिया सुविहिया, न चेव भिंदंति मुहरागं ॥ ७७ ॥ माणंसिणोवि अवमाणवंचणा ते परस्स न करंति। सुहदुक्खुग्गिरणत्थं, साहू उअहिव्व गंभीरा ॥ ७८ ॥ मउआ निहुअसहावा, हासदवविवजिया विगहमुक्का । असमंजसमइबहुअं, न भणंति अपुच्छि आ साहू ॥ ७९ ॥ महुरं निउणं थोवं, कज्जावडिअं अगव्वियमतुच्छं । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ पुवि मइसंकलियं, भांति जं धम्मसंजुत्तं ॥ ८० ॥ सट्ठि वाससहस्सा, तिसत्तखुत्तोदयेण धोरण | अणुचिण्णं तामलिणा, अन्नातत्ति अप्पफलो ॥ ८१ ॥ छज्जीवकायवहगा, हिंसकसत्थाइँ उवइति पुणो । सुबहुपि तवकिलेसो, बालतवस्सीण अप्पफलो ॥ ८२ ॥ परियच्छंति अ सव्वं, जहट्ठियं भवितं असंदिद्धं । तो जिणत्रयणविहिन्नू सहति बहुअस्स बहुआई ॥ ८३ ॥ जो जस्स वट्टइ हियए सो तं ठावेइ सुंदरसहावं । वग्धी छावं जणणी, भद्द सोमं च मन्नेइ ॥ ८४ ॥ मणिकणगरयणधणपूरियम्मि भवणश्मि सालिभद्दोऽवि । अन्नो किर मज्झवि सामिभत्ति जाओ विगयकामो ॥ ८५ ॥ न करंति जे तवसंजमं च तुल्लपाणिपायाणं । पुरिसा समपुरिसाणं, अवस्स पेसत्तणमुर्विति ॥ ८६ ॥ सुंदर सुकुमाल होइएण विविहेहिं तव विसेसेहिं । तह सोसविभो अप्पा जह नवि नाओ सभवणेऽवि ॥ ८७ ॥ दुरमुद्धोसकरं, अवंतिसुकुमालमह रिसीचरियं । अप्पावि नाम तह तज्जइत्ति अच्छेरयं एभं ॥ ८८ ॥ उच्छूढसरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नंति । धम्मस्स कारणे सुविहिया सरीरंपि छति ॥ ८९ ॥ दिवसंपि जीवो, पव्वज्जमुवागओ अनन्नमणो । जइवि न पावइ मुक्खं, rate dमाणिओ होइ ॥ १० ॥ सीसावेढेण सिरम्मि वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि । मेयज्जस्स भगवओ, न य सो मणसावि परिकुवि ॥ ९१ ॥ जो चंदणेण बाहुं, आलिंपइ वासिणा व तच्छेइ । संथुणइ जो अ निंदइ, महरिसिणो तत्थ समभावा ॥ ९२ ॥ सिंहगिरिसीसाणं, भद्दं गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही वायणत्ति न विकोविअं वयणं ।। ९३ ॥ मिण गोणसंगुलीहिं, गणेहि वा दंतचक्कलाई से । इच्छंति भाणिऊणं, (भाणियव्वं ) कज्जं तु ते एव जाणंति ||१४|| कारणविऊ कयाई, सेयं कायं वयंति आयरिया । तं तह सहहिअव्वं भविभव्वं Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कारणेण तहिं ।। ९५ ।। जो गिण्हइ गुरुवयणं, भण्णतं भावओ विसुद्धमणो । ओसहमिव पिज्जंतं, तं तस्स सुहावहं होइ || ९६ || अणुवत्तगा विणीआ, बहुक्खमा निच्चभत्तिमता य । गुरुकुलवासी अमुई, धन्ना सीसा इह सुशीला ॥ ९७ ॥ जीवंतस्स इह जसो, कित्ती य मयस्स परभवे धम्मो । सुगुणस्स य, निगुणस्स य अजसाऽकित्ती अहम्मो य ॥ ९८ ॥ वुड्ढावासेऽवि ठियं, अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति । दत्तव्य धम्मवीमंसएण दुस्सिक्खियं तंपि ||९९|| आयरियभत्तिरागो, कस्स सुनक्खत्तमरिसी सरिसो । अवि जीविअं वर्षासिभं, न चेव गुरुपरिभवो सहिओ ॥ १०० ॥ पुण्णेहिं चोइआ पुरक्खडेहिं सिरिभायणं भविअसत्ता । गुरुमागमेसिभद्दा, देवयमित्र पज्जुवासंति ॥ १०१ ॥ बहुसुक्खसय सहस्सान दायगा मोअगा दुइसयाणं । आयरिआ फुडमेअं, के सिपएसीअ (व) ते हेऊ ॥ १०२ || नरयगइगमणपsिहत्थए कए तह परसिणा रण्णा । अमर विमाणं पत्तं तं आयरिअप्पभावेणं ॥ १०३ || धम्ममइएहिं भइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं, सीसं चोइ आयरिओ ॥ १०४ ॥ जीअं काऊण पणं, तुरमिणिदत्तस्स कालिअज्जेणं । अविअ सरीरं चत्तं न य भणिअमहम्म संजुतं ॥ १०५ ॥ फुडपागडमकतो, जहद्विअं बोहिलाभमुवहणइ । जह भगवओ विसालो, जरमरणमहोअही असि ।। १०६ ।। कारुण्णरुण्णसिंगारभावभय जीविअंतकरणेहिं । साहू अविभ मरंति, न य निअनिअमं विराहंति ।। १०७ ।। अप्प हियमायरंतो अणुमोअंतो अ सुग्गई लहइ । रह्कारदाणअणुमोअगो मिगो जह य बलदेवो ॥ १०८ ॥ जं तं कयं पुरा पूरणेण अइदुकरं चिरं कालं । जइ तं दयावरो इह, करिंतु तो सफल हुतं ।। १०९ ।। कारणनीयावासी, सुठुयरं उज्जमेण जइयव्वं । जह ते संगमथेरा, सपा डिहेरा तथा आसी ॥ ११० ॥ एगंतनियावासी, घरसरणाईसु " - Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ जइ ममत्तंपि । कह न पडिहांत कलिकलुसरोसदोसाण आवाए ॥ १११ ॥ अव कत्तिऊण जीवे, कत्तो घरसरणगुत्तिसंठप्पं । अवि कत्ति य तं तह, पडिभा अस्संजयाण पहे ॥ ११२ ॥ थोवोऽवि गिहिपसंगो, जइणो सुद्धस्स पंकमावहई । जह सो वारत्तरिसी, हसिओ पज्जोअनरवइणा ||११३ || सब्भावो वीसंभो, हो रइवइयरो अ जुवइजणे । सयणघरसंपसारो, तबसीलवयाई फेडिज्जा ॥ ११४ ॥ जोइसनिमित्तभक्खरकोउआएस भूइकमेहिं । करणाणुमोअणाहि अ, साहुस्स तबक्खओ होइ ॥ ११५ ॥ जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ । थोत्रो होइ बहुओ, न य लहइ धिरं निरुभंतो ॥ ११६ ॥ जो चयइ उत्तरगुणे मूलगुणेऽवि अचिरेण सो चयइ । जह जह कुणइ पमायं पिल्लिजइ तह कसाएहिं ॥ ११७ ॥ जो निच्छएण गिन्हs, देहच्चावि न य धिइं मुअइ । सो साहेइ सकज्जं, जह चंद डिंसओ राया ॥ ११८ ॥ सीउन्हखुप्पिवासं दुरिसज्ज - परीसहं किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तवं चरइ ।। ११९ ।। धम्ममिणं जाणंता, गिहिणोऽवि दढव्वया किमु साहू ? | कमलामेलाहरणे, सागरचंद्रेण इत्युवमा || १२० ॥ देवेहिं कामदेवो, गिहीवि नवि चालिओ ( चाइओ । तवगुणेहिं । मत्तगयंदभुयंगमरक्खसधोरट्टहासेहिं ॥ १२१ ॥ भोगे अभुंजमाणावि केइ मोहा पति अहरगई । कुविओ आहारत्थी, जत्ताइ जणस्स दमगुव्व ।। १२२ ।। भवसयसहस्सदुलहे, जाइजरामरणसागरुत्तारे । जिणवयणम्मि गुणायर ! खणमवि मा काहिसि पमायं ॥ १२३ ॥ जं न लहइ सम्मत्तं, लद्धृणवि जं न एइ संवेगं । विसयसुहेसु य रज्जइ, सो दोसो रागदोसाणं ॥ १२४ ॥ तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं न हु वसमागंतव्वं, रागद्दोसाण पावाणं ॥ १२५ ॥ नवि तं कुणइ भमित्तो, सुठुवि सुविराहिलो सम " Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० त्थोऽवि । जं दोऽवि अणिग्गहिया, करंति रागो अ दोसो अ ॥१२६॥ इहलोए आयासं अजसं च करंति गुणविणासं च । पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥ १२७ ।। धिद्धी अहो अकजं, जं जाणंतोऽवि रागदोसेहि । फलमउलं कडुअरसं, तं चेव निसेवए जीवो ॥ १२८ ॥ को दुक्खं पाविज्जा ! कस्स व सुक्खेहि विम्हओ हुज्जा ? । को व न लभिज मुक्खं ? रागहोसा जइ न हुज्जा ॥ १२९ ॥ माणी गुरुपडिणीओ, अणत्थभरिओ अमग्गचारी य । मोहं किलेसजालं, सो खाइ जहेव गोसालो ॥ १३० ॥ कलहणकोहणसीलो, भंडणसीलो विवायसीलो य । जीवो निच्चुज्जलिओ, निरत्थयं संयमं चरइ ॥ १३१ ॥ जह वणदवो वणं दवदवस्स जलिओ खणेण निदहइ । एवं कसायपरिणओ, जीवो तवसंजमं दहई ॥ १३२ ॥ परिणामवसेण पुणो, महिओ ऊणयरओ व हुज्ज खओ। तहवि ववहारमित्तेण, भण्णइ इमं जहा थूलं ॥ १३३ ॥ फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो अहणइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो असामपणं ॥ १३४ ॥ अह जीविषं निकिंतइ, तूण य संजमं मलं चिणइ । जीवो पमायबहुलो, परिभमइ अ जेण संसारे ॥ १३५॥ अकोसणतजणताडणा य अवमाणहीलणाओ म । मुणिणो मुणियपरभवा दढप्पहारिव्व विसहति ॥ १३६ ॥ अहमाहओत्ति न य पडिहणंति सत्ताऽवि न य पडिसवंति । मारिज्जंताऽवि जई; सहंति साहस्समल्लुव्व ॥ १३७ ॥ दुजणमुहकोदंडा, वयणसरा पुव्वकम्मनिम्माया । साहूण ते न लग्गा, खंतीफलयं वहताणं ॥ १३८ ॥ पत्थरेणाहओ कीवो, पत्थरं डक्कुमिच्छइ । मिगारिओ सरं पप्प, सरुप्पत्तिं विमग्गइ ।। १३९ ॥ तह पुटिव किं न कयं, न बाहए जेण मे समत्थोऽवि ? । इण्हि किं कस्स व कुप्पिमुत्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥ १४० ॥ अणुराएण जइस्सऽवि, सियायपत्तं Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पिया धरावेइ । तहवि य खंदकुमारो, न बंधुपासेहिं पडिबद्धो ॥ १४१ ॥ गुरु गुरुतरो अ अइगुरु, पियमाइअवच्च पियजणसि हो । चितिज्जमाणगुविलो, चत्तो अइधम्मतिसिएहिं ॥ १४२ ॥ अमुणियपरमत्थाणं. बंधुजणसिणेहवइयरो होइ । अवगयसंसारसहावनिच्छ्याणं समं हिययं ॥ १४३ ॥ माया पिया य भाया, भज्जा पुत्ता सुही य नियगा य । इह चेव बहुविहाई, करंति भयवेमणस्साई || १४४ || माया नियगमविगप्पियम्मि अत्थे अपूरमाणम्मि । पुत्तस्स कुणइ वसणं, चुलणी जह बंभदत्तस्स || १४५|| सांगोवंगविगत्तणाओ जगडणविहेडणाओ अ । कासी य रज्जतिसिओ पुत्ताण पिया कणयकेऊ ।। १४६ ।। विसय सुहरागवसओ, घोरो भायाऽवि भारं हणइ । आहाविओ वहत्थं, जह बाहुबलिस भरवई ॥ १४७ ॥ भज्जाऽवि इंदिय विगारदोसनडिया करेइ पपात्रं । जह सो पसिराया सूरियकंताई तह वहिओ ।। १४८ || सासयसुक्खतरस्सी, नियअंगसमुब्भवेण पित्त । जह सो सेणियराया, काणियरण्णा खयं नीओ ॥ १४९ ॥ लुद्धा सकज्जतुरिभा, सुहिणोऽवि विसंवयंति कयकज्जा । जह चंदगुत्तगुरुणा, पव्त्रयओ घाइओ राया ॥ १५० ॥ निययाऽवि निययकज्जे, विसंवयंतम्मि हुति खरफरुसा। जह रामसुभूमकओ, बंभक्खत्तस्स आसि खओ ।। १५१ ।। कुलघरनिययसुहेसु अ, सयणे अ जणे अनिच्च मुणिवसहा । विहरंति अणिस्साए, जह अज्जमहागिरी भयवं ।। १५२ ।। रूवेण जुव्वणेण य कन्नाहि सुहेहिं वरसिरीए य । न य लुब्भंति सुविहिया, निदरिसणं जंबुनामुत्ति ॥ १५३ ॥ उत्तमकुलप्पसूया, रायकुलवडिंसगाऽवि मुणिवसहा | बहुजणजइसंघट्ट, मेहकुमारुव्व विसति ॥ १५४ ॥ अवरुप्परसंवाह, सुक्खं तुच्छं सरीरपीडा य । सारण वारण चोयण, गुरुजणभायत्तया य गणे ॥ १५५ ॥ इक्कस्स कओ धम्मो ?, सच्छंद गईमई Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पयारस्स । किं वा करेइ इक्को ?, परिहरउ कहूं अकज्जं वा ? ॥ १५६ ॥ तो सुत्तथागम, पडिपुच्छण चोयणा व इक्स्स । विणओ वेयावचं, आराहणया य मरणंते ? || १५७ || पल्लिज्जेसणमिक्को, पइन्नपमयाजणाउ निश्च भयं । काउमणोऽवि भकज्जं, न तरइ काऊण बहुमज्झे || १५८ ॥ उच्चारपासवणवंतपित्तमुच्छाइमोहिओ इको । सद्दवभाणविहत्थो, निक्खिवइ व कुणइ उड्डाहं ।। १५९ ।। एगदिवसेण बहुआ, सुहा य असहाय जीवपरिणामा । इक्को असुहपरिणओ, चइज्ज भालंबणं लधुं ।। १६० ॥ सव्वजिणप्पडकुठं, अणवत्था थेरकम्पभेओ अ । इक्को अ सुआउत्तोऽवि हणइ तवसंजमं अइरा ॥ १६९ ॥ वेसं जुण्णकुमारिं, पउत्थवइअं च बालविहवं च । पासंडरोहमसई, नवतरुणि थेरभज्जं च ॥ १६२ ॥ सविडंकुब्भडरूवा, दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी । आयहियं चिंतंता, दूरयरेणं परिहरति ॥ १६३ ॥ सम्मट्ठीवि कयागमोवि अइविसयरागसुहवसओ। भवसकडम्म पविस, इत्थं तुह सच्चइ नायं ॥ १६४ ॥ सुतवस्सियाण पूया, पणामसक्कारविणयकज्जपरो । बद्धंपि कम्ममसुहं, सिढिलेइ दसारनेया व ।। १६५ ।। अभिगमणवंदणनमंसणेण पडिपुच्छणेण साहूणं । चिरसंचियंऽपि कम्मं, खणेण विरलत्तणमुवेइ ॥ १६६ ॥ इ सुसीला सुहमाइ सज्जणा गुरुजणस्सऽवि सुसीसा । विलं जति सद्धं जह सीसो चंडरुदस्स ।। १६७ || अंगारजीववहगो, कोई कुगुरू सुसीसपरिवारो । सुमिणे जईहि दिट्ठो, कोलो गयकलहरिकिणो || १६८ || सो उग्गभवसमुद्दे, सयंवरमुवागए हि एहिं । करहोवक्खरभरिओ, दिट्ठो पोराणसीसेहिं ॥ १६९ ॥ संसारवंचना नवि, गणंति संसारसूभरा जीवा । सुमिणगएणऽवि केई, बुज्झति पुष्फचूला वा ।। १७० ।। जो अविकलं तवं संजमं च साहू करिज पच्छावि । अन्नि सुयन्त्र सो नियगमद्रुमचिरेण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ साहेइ ॥ १७१ ॥ सुहिओ न चयइ भोए, चयइ जहा दुक्खिओत्ति अलियमिणं । चिक्कणकम्मोलित्तो न इमो न इमो परिचयई ॥ १७२ ।। जह चयइ चक्कवट्टी, पवित्थरं तत्तियं मुहुत्तेणं । न चयइ तहा अहन्नो, दुब्बुद्धी खप्परं दमओ ॥ १७३ ॥ देहो पिवीलियाहिं, चिलाइपुत्तस्स चालणी व्व कओ। तनुओवि मणपओसो, न चालिओ तेण ताणुवरिं ॥ १७४ ॥ पाणच्चएऽवि पावं, पिवीलियाण्डवि जे न इच्छंति । ते कह जई अपावा, पावाइँ करंति अन्नस्स ? || १७५ ॥ जिणपहअपंडियाणं, पाणहराणंऽपि पहरमाणाणं । न करंति य पाबाई, पावस्स फलं वियाणंता ॥ १७६ ॥ वहमारणअभक्खाणदाणपरधनविलोवणाईणं । सव्वजहन्नो उदओ, दसगुणिओ इक्कसि कयाणं ॥ १७७ ॥ तिव्वयरे उ पओसे, सयगुणिओ सयसहस्सकोडिगुणो । कोडाकोडिगुणो वा, हुज्ज विवागो बहुतरो वा ॥ १७८ ॥ केइत्थ करतालंबणं इमं तिहुयणस्स अच्छेरं । जह नियमा खवियंगी, मरुदेवी भगवई सिद्धा ।। १७९ ॥ किंपि कहिंपि कयाई, एगे लद्धीहि केहिऽवि निभेहिं । पत्तेअबुद्धलाभा, हवंति अच्छेरयम्भूया ॥१८०॥ निहिसंपत्तमहन्नो, पत्थितो जह जणो निरुत्तप्पो । इह नासइ तह पत्तेअबुद्धलद्धिं(च्छि)पडिच्छं तो ॥ १८१ । सोऊण गई सुकुमालिए तह ससगभसगभइणीए । ताव न वीससियव्वं, सेयठ्ठी धम्मिओ जाव ॥ १८२ ।। खरकरहतुरयवसहा, मत्तगइंदाऽवि नाम दम्मति । इक्को नवरि न दम्मइ, निरंकुसो अप्पणो अप्पा ।। १८३ ॥ वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहि अ ॥ १८४ ॥ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोए परत्थ य ॥ १८५ ॥ निच्चं दोससहगओ जीवो अविरहियमसुहपरिणामो । नवरं दिन्ने पसरे, तो देइ पमायमयरेसु ॥ १८६ ॥ अच्चिय Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ बंदिय पूइअ, सक्कारिय पणमिओ महग्यविओ । तं तह करेइ जीवो, पाडेइ जहप्पणो ठाणं ॥ १८७ ॥ सीलव्वयाइं जो बहुफलाइँ हंतूण सुक्खमहिलसइ । धिइदुब्बलो तवस्सी, कोडीए कागिणिं किणई ॥ १८८ ॥ जीवो जहामणसियं, हियइच्छियपथिएहि सुक्खेहिं । तोसेऊण न तीरई, जावजीवेण सव्वेण ॥ १८९ ॥ सुमिणंतराणुभूयं, सुक्खं समइच्छियं जहा नत्थि । एवमिमंपि अईयं, सुक्खं सुमिणोवमं होई ॥ १९० ॥ पुरनिद्धमणे जक्खो, महुरामंगू तहेव सुयनिहसो । बोहेई सुविहियजणं, विसूरइ बहुं च हियएण ॥ १९१ ॥ निग्गंतूण घराओ, न को धम्मो मए जिणक्खाओ । इढिरससायगुरुयत्तणेण न य चेइओ अप्पा ॥ १९२ ॥ ओसन्नविहारेणं, हा जह झीणम्मि आउए सव्वे। किं काहामि अहन्नो संपइ सोयामि अप्पाणं ॥ १९३॥ हा जीव ! पाव भमिहिसि, जाईजोणीसयाई बहुयाई । भवसयसहस्सदुलहंपि जिणमयं एरिसं लड़े ॥ १९४ ॥ पावो पमायवसओ, जीवो संसारकजमुज्जुत्तो । दुक्खेहिं न निविण्णो सुक्खेहिं न चेव परितुट्ठो ॥ १९५ ॥ परितप्पिएण तणुओ, साहारो जइ घणं न उज्जमइ । सेणियराया तं तह, परितप्पंतो गओ नरयं ॥ १९६ ।। जीवेण जाणि विसज्जियाणि जाईसएसु देहाणि । थोवेहिं तओ सयलंपि तिहुयणं हुज्ज पडिहत्थं ॥ १९७ ॥ नहदंतमंसकेसट्ठिएसु जीवेण विप्पमुक्केसु । तेसुवि हविज्ज कइलासमेरुगिरिसन्निभा कूडा । १९८ ॥ हिमवंतमलयमंदरदीवोदहिधरणिसरिसरासीओ। अहिअयरो आहारो, छुहिएणाहारिओ होज्जा ॥ १९९ ॥ ज णेण जलं पीयं, घम्मायवजगडिएण तंपि इहं । सध्वेवि अगडतलायनईसमुहेसु नवि हुन्जा ॥ २०० ॥ पीयं थणयच्छीरं सागरसलिलाओ होज्ज बहुअयरं । संसारम्मि अणंते, माऊणं अन्नमनाणं ॥ २८१ ॥ पत्ता य कामभोगा, कालमणंतं इहं सउवभोगा । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ अप्पुव्वं पिव मन्नई, तहवि य जीवो मणे सुक्खं ॥२०२॥ जाणइ अ जहा भोगिढिसंपया सव्वमेव धम्मफलं । तहवि दढमूढहियो, पावे कम्मे जणो रमई ।। २०३ ॥ जाणिजइ चिंतिजइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं । न य विसएसु विरजई, अहो सुबद्धो कवडगंठी । २०४ ।। जाणइ य जह मरिजइ, अमरंतंपि हु जरा विणासेई । न य उव्विग्गो लोओ, अहो रहस्सं सुनिम्मायं । २०५ ॥ दुपयं चउप्पयं बहुपयं च अपयं समिद्धमहणं वा । अणवकएऽवि कयंतो, हरइ हयासो अपरितंतो ॥ २८६ ॥ न य नजइ सो दियहो, मरियव्वं चाऽवसेण सव्वेण । आसापासपरद्धो, न करेइ य जं हिय बोझो (बोद्दो) ॥ २०७ ॥ संझरागजलबुब्बुओवमे, जीवीए अ जलबिंदुचंचले । जुव्वणे य नइवेगसंनिभे, पाव जीव ! किमयं न बुज्झसि ? ॥ २०८ ॥ जं जं नजइ असुई, लज्जिज्जइ कुच्छणिज्जमेयंति । तं तं मग्गइ अंगं, नवरमणंगुत्थ पडिकलो ॥ २०९ ॥ सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी । कामग्गहो दुरप्पा, जेणभिभूयं जगं सव्वं ॥ ११० ॥ जो सेवइ किं लहइ, थामं हारेइ दुव्बलो होइ । पावेइ वेमणस्सं, दुक्खाणि अ अत्तदोसेणं ॥ २११ ॥ जह कच्छुल्लो कच्छं, कंडुयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति ॥ २१२ ॥ विसयविसं हालहलं, विसयविसं उक्कडं पियंताणं । विसयविसाइन्नंपिव, विसयविसविसूइया होई ॥ २१३ ॥ एवं तु पंचहिं आसवेहिं रयमायणित्तु अणुसमयं । चउगइदुहपेरंतं, अणुपरियटुंति संसारे ॥२१४॥ सव्वगईपक्खंदे, काहंति अणंतए अकयपुण्णा । जे य न सुणंति धम्म, सोऊण य जे पमायति ।। २१५ ॥ अणुसिट्ठा य बहुविहं, मिच्छहिट्ठी य जे नरा अहमा । बद्धनिकाइयकम्मा, सुगंति धम्मं न य करंति ॥ २१६ ॥ पंचेव उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊण भावेणं । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिगइमणुत्तरं पत्ता ॥ २१७ ॥ नाणे दंसणचरणे, तवसंजमसमिइगुत्तिपच्छित्ते । दमउस्सग्गववाए, दवाइअभिग्गहे चेव ॥ २१८ ॥ सदहणायरणाए निचं उज्जुत्त एसणाइ ठिओ । तस्स भवोअहितरणं, पव्वज्जाए य (स) म्मं तु ॥२१९॥ जे घरसरणपसत्ता, छक्कायरिऊ सकिंचणा अजया । नवरं मुत्तण घरं, घरसंकमणं कयं तेहिं ॥ २२० ॥ उस्सुत्तमायरंतो, बंधइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवड्ढइ, मायामोसं च कुव्वह य ॥ २२१ ॥ जइ गिण्हइ वयलोवो, अहव न गिण्हइ सरीरबुच्छेओ । पासत्थसंगमोऽविय, वयलोवो तो वरमसंगो ॥२२२।। आलावो संवासो, वीसंभो संथवो पसंगो अ । हीणायारेहि सम, सव्वजिणिंदेहिं पडिकुट्ठो ॥ २२३ ॥ अन्नुन्नजंपिएहिं हसिउद्धसिएहिं खिप्पमाणो अ । पासत्थमज्ज्ञयारे, बलाऽवि जइ बाउलीहोइ ॥ २२४ ॥ लोएऽवि कुसंसग्गीपियं जणं दुनियच्छमइबसणं । निंदइ निरुज्जमं पियकुसीलजणमेव साहुजणो ॥ २२५ ॥ निचं संकिय भीओ गम्मो सव्वस्स खलियचारित्तो। साहुजणस्स अवमओ, मओऽवि पुण दुग्गइं जाइ ॥ २२६ ॥ गिरिसुअपुप्फसुआणं, सुविहिय ! आहरणकारणविहन्नु । वज्जेज्ज सीलविगले उज्जुयसीले हविज्ज जई ॥ २२७ ॥ ओसन्नचरणकरणं, जइणो बंदंति कारणं पप्प । जे. सुविइयपरमत्था, ते वंदंते निवारंति ॥२२८ ॥ सुविहिय वंदावतो, नासेई अप्पयं तु सुपहाओ । दुविहपहविप्पमुक्को, कहमप्प न याणई मूढो ॥ २२९ ॥ 卐 वंदइ उभओ कालंपि चेइयाइं थइथुई (थवत्थुई) परमा । जिणवरपडिमाघरधूवपुप्फगंधच्चणुज्जुत्तो ॥ २३० ॥ सुविणिच्छियएगमई, धम्मम्मि अनन्नदेवओ अ पुणो । न य कुसमए स रज्जइ, पुवावरबाहियत्थेसु ॥२३१॥ दठूण कुलिंगीणं, तसथावरभूयमद्दणं विविहं। धम्माओ न चालिज्जइ देवेहिं सइंदएहिंपि ॥ २३२ ॥ वंदइ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिपुच्छइ पज्जुवासई साहुणो सययमेव । पढइ सुणइ गुणेइ अ, जणस्स धम्म परिकहेइ ॥ २३३ ॥ दृढसीलव्वयनियमो, पोसहआवस्सएसु अक्खलिओ । महुमज्जमंसपंचविहबहुवीयफलेसु पडिक्कतो ॥ २३४ ॥ नाहम्मकम्मजीवी, पञ्चक्खाणे अभिक्खमुज्जुत्तो । सव्वं परिमाणकडं, अवरज्ज्ञइ तंपि संकेतो ॥ २३५ ॥ निक्खमणनाणनिव्वाणजम्मभूमीउ वंदइ जिणाणं । न य वसइ साहुजणविरहियम्मि देसे बहुगुणेऽवि ॥ २३६ ॥ परतित्थियाण पणमण, उम्भावण थुणण भत्तिरागं च । सकारं सम्माणं, दाणं विणयं च वज्जेइ ॥ २३७ ॥ पढमं जईण दाऊण, अप्पणा पणमिऊण पारेइ । असई अ सुविहिआणं, भुंजई कयदिसालोओ ॥ २३८ ॥ साहूण कप्पणिज्जं, जं नवि दिन्न कहिंपि किंचि तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भंजंति ॥ २३९ ॥ वसहीसयणासणभत्तपाणभेसजवत्थपत्ताइ । जइऽवि न पज्जत्तधणो थोवाऽविहु थोवयं देई ॥ २४० ॥ संवच्छरचाउम्मासिएसु अट्ठाहियासु अ तिहीसु। सव्वायरेण लग्गइ जिणवरपूयातवगुणेसु ॥ २४१ ॥ साहूण चेइयाण य पडिणीयं तह अवण्णवायं च । जिणपवयणस्स अहिरं सव्वत्थामेण वारेई ॥ २४२ ॥ विरया पाणिवहाओ, विरया निच्च च अलियवयणाओ । विरया चोरिकाओ, विरया परदारगमणाओ ॥ २४३ ॥ विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ । बहुदोससंकुलाओ नरयगइगमणपंथाओ ॥ २४४ ॥ मुक्का दुज्जणमित्ती, गहिया गुरुवयणसाहुपडिवत्ती । मुक्को परपरिवाओ गहिओ जिणदेसिओ धम्मो ॥२४५।। तवनियमसीलकलिया, सुसावगा जे हवंति इह सुगुणा, तेसिं न दुल्लहाई, निव्वाणविमाणसुक्खाई 5 ॥ २४६ ॥ सीइज्ज कयावि गुरू, तंपि सुसीसा सुनिउणमहुरेहिं । मग्गे ठवंति पुणरवि, जह है सेलगपंथगो नायं ॥ २४७ ॥ दस दस दिवसे दिवसे, धम्मे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ बोहेइ अहव अहिअयरे । इअ नंदिसेणसत्ती, तहविय से संजमविवत्ती ॥ २४८ ॥ कलुसीकओ अ किट्टीकओ अ खयरीकओ मलिणिओ अ । कम्मेहिं एस जीवो, नाऊणऽवि मुज्झई जेणं ॥ २४९ ॥ कम्मेहिं वज्जसारोवमेहिं जउनंदणोऽवि पडिबुद्धो । सुबहुंपि विसूरंतो, न तरइ अप्पक्खमं काउं ।। २५० ॥ वाससहस्संऽपि जई, काऊणं संजमं सुविउलंपि । अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीउ व्व ॥ २५१ ॥ अपेणऽवि कालेणं, केइ जहागहियसीलसामण्णा । साहति निययकज्जं, पुंडरियमहारिसिव्व जहा ॥२५२॥ काऊण संकिलिट्ठ, सामण्णं दुल्लहं विसोहिपयं। सुज्झिज्जा एगयरो, करिज्ज जइ उज्जमं पच्छा ॥२५३ ॥ उज्झिज्ज अंतरि च्चिय, खंडिय सबलादउ व्व हुज्ज खणं । ओसन्नो सुहलेहड न तरिज्ज व पच्छ उज्जमिउं ॥ २५४ ॥ अवि नाम चक्कवट्टी, चइज्ज सव्वंपि चक्रवट्टिसुहं । न य ओसन्नविहारी, दुहिओ ओसन्नयं चयई ॥ २५५ ॥ नरयत्थो ससिराया, बहु भणई देहलालणासुहिओ । पडिओ मि भए भाउअ ! तो मे जाएह तं देहं ॥ २५६ ।। को तेण जीवरहिएण, संपयं जाइएण हुज्ज गुणो ? । जइऽसि पुरा जायंतो, तो नरए नेव निवडतो ॥ २५७ ॥ जावाऽऽउ सावसेसं, जाव य थोवोऽवि अत्थि ववसाओ । ताव करिज्जप्पहियं, मा ससिराया व सोइहिसि ॥ २५८ ।। चित्तूणऽवि सामण्णं, संजमजोगेसु होइ जो सिढिलो । पडइ जई वयणिज्जे सोअइ अ गओ कुदेवत्तं ॥ २५९ ॥ सुच्चा ते जिअलोए जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चाणवि ते सुच्चा. जे नाऊणं नवि करेंति ॥ २६० ॥ दावेऊण धणनिहिं. तेसिं उप्पाडियाणि अच्छीणि । नाऊणऽवि जिणवयणं, जे इह विहलंति धम्मधणं ॥ २६१ ॥ ठाणं उच्चच्चयरं, मझं हीणं च हीणतरगं वा । जेण जहिं गंतव्वं, चिट्ठाऽवि से तारिसी होई ॥२६२ ॥ जस्स गुरुम्मि Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ परिभवो, साहूसु अणायरो खमा तुच्छा । धम्मे य अणहिलासो, अहिलासो दुग्गईए उ ॥२६३ ॥ सारीरमाणसाणं, दुक्खसहस्साण वसणपरिभीया । नाणंकुसेण मुणिणो, रागगइंदं निरंभंति ॥ २६४ ॥ सुग्गइमग्गपईवं, नाणं दितस्त हुज्ज किमदेयं ? । जह तं पुलिंदएणं, दिन्नं सिवगस्स नियगच्छि ॥ २६५ ॥ सिंहासणे निसण्णं सोवागं सेणिओ नरवरिंदो । विज्जं मग्गइ पयओ इअ साहुजणस्स सुअविणओ ॥ २६६ ॥ विज्जाए कासवसंतिआए दगसूअरी सिरिं पत्तो । पडिओ मुसं वयंतो, सुअनिण्हवणा इय अपत्था ॥ २६७ ॥ सयलम्मिऽवि जियलोए, तेण इह घोसिओ अमाधाओ । इकऽपि जो दुहत्तं. सत्तं बोहेइ जिणवयणे ॥ २६८ ॥ सम्मत्तदायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहुएसु । सव्वगुणमेलियाहिऽवि, उवयारसहस्सकोडीहिं ।। २६९ ॥ सम्मत्तम्मि उ लद्धे, ठइयाइं नरयतिरियदाराइं । दिव्वाणि माणुसाणि य मोक्खसुहाई सहीणाई ॥ २७० ॥ कुसमयसुईण महणं, सम्मत्तं जस्स मुट्ठियं हियए । तस्स जगुज्जोयकरं नाणं चरणं च भवमहणं ॥ २७१ ॥ सुपरिच्छियसम्मत्तो, नाणेणालोइयऽत्थसम्भावो । निव्वणचरणाउत्तो, इच्छियमत्थं पसाहेइ ॥ २७२ ॥ जह मूलताणए पंडुरम्मि दुव्वण्णरागवण्णेहिं । बीभच्छा पडसोहा, इय सम्मत्तं पमाएहिं ।। २७३ ॥ नरएसु सुरवरेसु य, जो बंधइ सागरोवमं इक्क । पलिओवमाण बंधइ कोडिसहस्साणि दिवसेण ॥ २७४ ॥ पलिओवमसंखिज्ज, भागं जो बंधई सुरगणेसु । दिवसे दिवसे बंधइ, स वासकोडी असंखिज्जा ॥ २७५ ।। एस कमो नरएसुऽवि, बुहेण नाऊण नाम एयंमि । धम्मम्मि कह पमाओ, निमेसमित्तंपि कायव्वो ॥ २७६ ॥ दिव्वालंकारविभूसणाई रयणुज्जलाणि य घराई । रूवं भोगसमुदओ; सुरलोगसमो कओ इहयं ? ॥ २७७ ॥ देवाण देवलोए जं सुक्खं तं नरो HHHHHI Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सुभणिओऽवि । न भणइ वाससएणऽवि जस्सऽवि जीहासयं हुज्जा ॥ २७८ ॥ नरएस जाइं अइकक्खडाइँ दुक्खाइँ परमतिक्खाई । को वण्णेही ताई ?, जीवंतो वासकोडीऽवि ॥ २७९ ॥ कक्खडदाह सामलिअसिवणवेयरणिपहरणसएहिं । जा जायणाउ पावंति, नारया तं अहम्मफलं ॥ २८० ॥ तिरिया कसंकुसारानिवायवहबंधमारणसयाई । नऽवि इहयं पावेंता, परत्थ जइ नियमिया हुता ॥ २६१ ॥ आजीव संकिलेसो, सुक्खं तुच्छं उवद्दवा बहुया । नीयजणसिट्ठणावि य, अणिट्ठवासो अ मागुस्से ॥२८२॥ चारगनिरोहवहबंधरोगधणहरणमरणवसणाई । मणसंतावो अजसो. विग्गोवणया य माणुस्से ।। २८३ ॥ चिंतासंतावेहि य, दरिहरूआहिं दुप्पउत्ताहिं । लघृणऽवि मागुस्सं, मरंति केई सुनिधिण्णा ॥ २८४ ॥ देवाऽवि देवलोए, दिव्याभरणाणुरंजियसरीरा । जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसिं ।। २८५ ॥ तं सुरविमा णविभवं, चिंतिय चवणं च देवलोगाओ । अइबलियं चिय जं नवि, फुटइ सयसकरं हिययं ।।२८६॥ ईसाविसायमयकोहमायालोभेहिं एवमाईहिं । देवाऽवि समभिभूया, तेसिं कत्तो सुहं नाम ? ॥२८७॥ धम्मपि नाम नाऊण, कीस पुरिसा सहति पुरिसाणं?। सामित्ते साहीणे, को नाम करिज्ज दासत्तं ? ॥२८८ ॥ संसारचारए चारए व्व आवीलियस्स बंधेहिं । उव्विग्गो जस्स मणो, सो किर आसन्नसिद्धिपहो ॥ २८९ ॥ आसन्नकालभवसिद्धियस्स जीवस्स लक्खणं इणमो । विसयसुहेसु न रज्जइ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥ २९० ॥ हुज्ज व न व देहबलं, धिइमइसत्तेण जइ न उज्जमसि । अच्छिहिसि चिरं कालं, बलं च कालं च सोअंतो ॥ २९१ ॥ लद्धिल्लियं च बोहिं, अकरितोऽणागयं च पत्थितो । अन्न दाइं बोहिं, सब्भिसि कयरेण मुल्लेण ? ॥ २९२ ॥ संघयणकालबलदूसमारुयालंबणाई धित्तूणं । सव्वं चिय नियमधुरं, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ निरुज्जमाओ पमुच्चंति ॥ २९३ ॥ कालस्स य परिहाणी, संजमजोगाई नत्थि खित्ताई। जयणाई वट्टियव्वं नहु जयणा भंजए अंगं ॥ २९४ ॥ समिईकसायगारवइंदियमयबंभचेरगुत्तीसु । सज्झायविणयतवसत्तिओ अ जयणा सुविहियाणं ॥ २९५ ॥ जुगमित्तंतरदिट्ठी, पयं पयं चक्खुणा विसोहितो । अव्यक्खित्ताउत्तो, इरियासमिओ मुणी होई ॥ २९६ ।। कज्जे भासइ भासं, अणवज्जमकारणे न भासइ य । विगहविसुत्तियपरिवज्जिओ अ जइ भासणासमिओ ॥ २९७ ॥ बायालमेसणाओ, भोयणदोसे य पंच सोहेइ । सो एसणाइसमिओ, आजीवी अन्नहा होइ ॥ २९८ ॥ पुट्विं चक्खु परिक्खिय, पमज्जिउ जो ठवेइ गिण्हइ वा । आयाणभंडनिक्खेवणाइ समिओ मुणी होइ ॥ २९९ ॥ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणए य पाणविही । सुविवेइए पएसे. निसिरंतो होइ तस्समिओ ॥ ३०० ॥ कोहो माणो माया, लोभो हासो रई य अरई य । सोगो भयं दुगुंछा, पञ्चक्खकली इमे सव्वे ।। ३०१ ॥ कोहो कलहो खारो, अवरुप्परमच्छरो अणुसओ अ । चंडत्तणमणुवसमो, तामसभावो अ संतावो ॥ ३०२ ।। निच्छोडण निभंछण निरागुवत्तित्तणं असंवासो । कयनासो अ असम्म, बंधइ घणचिक्कणं कम्मं ॥ ३०३ ॥ युग्मम् ॥ माणो मयऽहंकारो, परपरिवाओ अ अत्तउक्करिसो । परपरिभवोऽवि य तहा, परस्स निंदा असूआ य ॥ ३०४ ॥ हीला निरुवतारित्तणं निरवणामया अविणओ अ । परगुणपच्छायणया, जीवं पाडंति संसारे ॥ ३०५ ॥ युग्मम् ॥ माया कुडंग पच्छन्नपावया कूड कवड वंचणया । सव्वत्थ असम्भावो, परनिक्खेवावहारो अ ॥ ३०६ ॥ छल छोम संवइयरो, गूढायारत्तणं मई कुडिला । वीसंभघायणं पिय भवकोडिसएसुवि नडंति ॥ ३०७ ॥ युग्मम् ॥ लोभो अइसंचयसीलया य किलिट्ठत्तणं अइममत्तं । कप्पन्नमपरि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगो, नढविनतु य आगल्लं ॥ ३०८ ॥ मुच्छा अइबहुधणलोभया य तब्भावभावणा य सया । बोलंति महाघोरे, जरमरणमहासमुदंमि ॥ ३०९ ।। युग्मम् ॥ एएसु जो न वट्टिज्जा ( पट्टे ), तेणं अप्पा जहडिओ नाओ । मणुआण माणणिज्जो, देवाणवि देवयं हुज्जा ॥ ३१० ॥ जो भासुरं भुअंगं, पयंडदाढाविसं विघट्टेइ । तत्तो चिय तस्संतो रोसभुअंगोवमाणमिणं ॥ ३११ ॥ जो आगलेइ मत्तं, कयंतकालोवमं वणगइंदं । सो तेणं चिय छुज्जइ, माणगई देण इत्थुवमा ॥ ३१२ ॥ विसवल्लिमहागहणं, जो पविसइ साणुवायफरिसविसं । सो अचिरेण विणस्सइ, माया विसवल्लिगहणसमा ॥ ३१३ ।। घोरे भयागरे सागरम्मि तिमिमगरगाहपउरम्मि । जो पविसइ सो पविसइ, लोभमहासागरे भीमे ॥ ३१४ ॥ गुणदोसबहुविसेसं, पयं पयं जाणिऊण निसेसं। दोसेसु जणो न विरज्जइत्ति कम्माण अहिगारो ॥ ३१५ ॥ अट्टहासकेलीकिलत्तणं हासखिडजमगरुई । कंदप्पं उवहसणं, परस्स न करंति अणगारा ॥ ३१६ ॥ साहूणं अप्परुई, ससरीरपलोअणा तवे अरई । सुत्थिअवन्नो अइपहरिसो य नत्थी सुसाहूणं ॥ ३१७ ॥ उव्वेयओ अ अरणामओ अ अरमंतिया य अरई य । कलिमलओ अ अणेगग्गया य कत्तो सुविहियाणं ? ॥ ३१८ ॥ सोगं संतावं अधिई च मन्नुं च वेमणस्सं च । कारुन्न रुन्नभावं, न साहु धम्मम्मि इच्छंति ॥ ३१९ ॥ भयसंखोह विसाओ, मग्गविभेओ विभीसियाओ अ । परमग्गदसणाणि य, दृढधम्माणं कओ हुँति ? ॥३२०॥ कुच्छा चिलीणमलसंकडेसु ऊवेयओ अणिठेसु । चक्खुनियत्तणमसुभेसु नत्थि व्वेसु दंताणं ॥ ३२१ ॥ एयपि नाम नाऊण, मुज्झियव्वंति नूण जीवस्स । फेडेऊण न तीरइ. अइबलिओ कम्मसंघाओ ॥ ३२२ ।। जह जह बहुस्सुओ सम्मओ अ सीसगणसंपरिवुडो अ । अविणिच्छिओ अ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ HEATRAHHATTA समऐ, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥ ३२३ ॥ पवराई वत्थपायासणोवगरणाइँ एस विभवो मे । अविय महाजणनेया, अहंति अह इड्ढिगारविओ ॥ ३२४ ॥ अरसं विरसं लूहं जहोववन्नं च निच्छए भुत्तुं । निद्धाणि पेसलाणि य, मग्गइ रसगारवे गिद्धो ॥ ३२५ ॥ सुस्सूसई सरीरां, सयणासणवाहणापंसगपरो । सायागारवगुरुओ दुक्खस्स न देइ अप्पाणं ॥ ३२६ ॥ तवकुलछाया: भंसो, पंडिच्चप्फसणा अणिट्ठपहो । वसणाणि रणमुहाणि य, इंदियवसगा अणुहवंति ॥ ३२७ ॥ सहेसु न रंजिज्जा, रूपं दट्ठ पुणो न इक्खिज्जा । गंधे रसे अ फासे, अमुच्छिओ उजमिन्ज मुणी ॥ ३२८ ॥ निहयाणि हयाणि य इंदियाणि घाएहऽणं पयतेणं । अहियत्थे निहयाई, हियकज्जे पूयणिज्जाइ ॥ ३२९ ॥ जाइकुलरूवबलसुअतवलाभिस्सरिय अट्ठमयमत्तो । एयाई चिय बंधइ, असुहाइँ बहुं च संसारे ॥ ३३० ॥ जाईए उत्तमाए, कुले पहाणम्मि रुवमिस्सरियं । बलविज्जाय तवेण य, लाभमएणं च जो खिंसे ॥ ३३१ ॥ संसारमणवयग्गं नीयट्ठाणाई पावमाणो य । भमइ अणंतं कालं, तम्हा उ मए विवज्जिज्जा ॥ ३३२ ।। युग्मम् ॥ सुटुंऽपि जई जयंतो, जाइमयाईसु मज्जइ जो उ । सो मेअज्जरिसि जहा हरिएसबलु व्व परिहाई ॥ ३३३ ॥ इत्थिपसुसंकिलिट्ठ, वसहिं इत्थीकहं च वजंतो। इत्थिजणसंनिसिज्जं, निरुवणं अंगुवंगाणं ॥३३४॥ पुव्वरयाणुस्प्तरणं इथिजणविरहरूवविलवं च । अइबहुअं अइबहुसो, विवज्जयंतो अ आहारं ॥ ३३५ ॥ वज्जंतो अ विभूसं, जइज्ज इह बंभचेरगुत्तीसु । साहु तिगुत्तिगुत्तो, निहुओ दंतो पसंतो अ ॥ ३३६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ गुज्झोरुवयणकक्खोरुअंतरे तह थणंतरे दर्छ । साहरइ तओ दिटिं, न य बंधइ दिहिए दिहि ॥ ३३७ ॥ सज्झाएण पसत्थं, झाणं जाणइ य सव्वपरमत्थं । सज्झाए वट्टतो, खणे खणे जाइ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ वेरग्गं ॥ ३३८ ॥ उड्ढमहतिरियलोए, जोइसवेमाणिया य सिद्धी य । सम्वो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पञ्चक्खो ।। ३३९ ।। जो निच्चकाल तवसंजमुज्जओ नवि करेइ सज्झायं । अलसं सुहसीलजणं, नवि तं ठावेइ साहुपए ॥ ३४० ॥ विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस, कओ धम्मो को तवो ? ॥ ३४१ ॥ विणओ आवहइ सिरिं, लहइ विणीओ जसं च कित्तिं च । न कयाइ दुग्विणीओ, सकज्जसिद्धिं समाणेइ ॥ ३४२ ॥ जह जह खमइ सरीरं, धुवजोगा जह जहा न हायति । कम्मक्खओ अ विउलो, विवित्तया इंदियदमो अ ॥ ३४३ ॥ जइ ता असकणिज्जं, न तरसि काऊण तो इमं कीस। अप्पायत्तं न कुणसि, संजमजयणं जईजोगं ? ॥ २४४ ॥ जायम्मि देहसंदेहयम्मि जयणाइ किंचि सेविज्जा । अह पुण सज्जो अ निरुज्जमो अ तो संजमो कत्तो ? ॥ ३४५ ॥ मा कुणउ जइ तिगिच्छं, अहियासेऊण जइ तरइ सम्मं । अहियासिंतस्स पुणो, जइ से जोगा न हायति ॥ ३४६ ॥ निच्च पवयणसोहाकराण चरणुज्जुआण साहूणं । संविग्गविहारिणं, सवपयत्तेण कायव्यं ॥ ३४७ ॥ हीणस्सऽवि सुद्धपरूवगस्स नाणाहियस्स कायव्वं जणचित्तग्गहणत्थं, करिति लिंगावसेसेऽवि ॥ ३४८ ॥ दगपाणं पुप्फफलं, अणेसणिज्जं गिहत्थकिच्चाई । अजया पडिसेवंती, जइ. वेसविडंबगा नवरं ॥ ३४९ ।। ओसन्नया अबोही, पवयणउब्भावणा य बोहिफलं । ओसन्नोऽवि वरंपिहु पवयणउब्भावणापरमो ॥३५०॥ गुणहीणो गुणरयणायरेसु जो कुणइ तुल्लमप्पाणं । सुतवस्सिणो अहीलइ, सम्मत्तं कोमलं तस्स ॥ ३२१ ॥ ओसन्नस्स गिहिस्स व, जिणपवयणतिव्वभावियमइस्स । कीरइ जं अणवज्जं, दढसम्मतस्सऽवत्थासु ॥ ३५२ ॥ पासत्थोसन्नकुसीलनीयसंसत्तजणमहाच्छंदं । नाऊण तं सुविहिया, सवपयत्तेण वज्जति ॥ ३५३ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ बायालमेसणाओ, न रक्खई धाइसिजपिंड च । आहारइ अभि क्खं, विगईओ सन्निहिं खाई ॥ ३५४ सूरप्पमाणभोजी, आहारेई अभिक्खमाहारं । न य मंडलीइ भुंजइ, न य भिक्खं हिंडई अलसो ॥ ३५५ ॥ कीवो न कुणइ लोअं, लजई पडिमाइ जल्लमवणेइ । सोवाहणो अ हिंडइ, बंधइ कडिपट्टयमकज्जे ॥३५६।। गामं देसं च कुलं, ममायए पीठफलगपडिबद्धो । घरसरणेसु पसज्जइ, विहरइ य सकिंचणो रिक्को ॥ ३५७ ॥ नहदंतकेसरोमे जमेइ उच्छोलधोअणो अजओ । वाहेइ य पलियंकं, अइरेगपमाणमत्थुरइ ॥ ३५८ ॥ सोवइ य सव्वराई, नीसठुमचेयणो न वा झरइ । न पमज्जंतो पविसइ, निसिहीयावस्सियं न करे ॥३५९॥ पाय पहे न पमजइ, जुगमायाए न सोहए इरियं । पुढवीदगअगणिमारुअयणस्सइतसेसु निरविक्खो ॥३६०॥ सव्वं थोवं उवहिं, न पेहए न य करेइ सज्झायं। सद्दकरो, झंझकरो लहुओ गणभेयतत्तिल्लो ॥३६१ ॥ खित्ताईयं भुंजइ, कालाईयं तहेव अविदिन्नं गिण्हइ अणुइयसूरे, असणाई अहव उबगरणं ।। ३६२ ॥ ठवणकुले न ठवेई, पासत्थेहिं च संगयं कुणई । निच्चमवज्झाणरओ, न य पेहपमज्जणासीलो ।। ३६३ ॥ रीयइ य दवदवाए, मूढो परिभवइ तहय रायणिए । परपरिवायं गिण्हई, निटूरभासा विगहसीलो ॥ ३५४ ॥ विज्ज मंतं जोगं, तेगिच्छं कुणइ भूइकम्मं च । अक्खरनिमित्तजीवी, आरंभपरिग्गहे रमइ ।। ३६५ ।। कज्जेण विणा उग्गहमणुजाणावेइ दिवसओ सुअइ । अज्जियलाभं भुंजइ, इत्थिनिसिज्जासु अभिरमइ ॥ ३६६ ।। उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए अणाउत्तो । संथारग उबहीणं, पडिक्कमइ वा सपाउरणो ॥३६७।। न करेइ पहे जयणं, तलियाणं तह करेइ परिभोगं । चरइ अणुबद्धवासे, सपक्खपरपक्खओमाणे ।।३६८ ।। संजोअइ अइबहुरं इंगाल सधूमगं अणट्ठाए । भुंजइ रुवबलट्ठा, न धरेइ अ पाय Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंछणयं ॥ ३६९ ॥ अट्ठम छ? चउत्थं, संवच्छर चाउमास पक्खेसु । न करेइ सायबहुलो, न य विहरइ मासकप्पेणं ॥३७०॥ नीयं गिण्हइ पिंडं, एगागी अच्छए गिहत्थकहो । पावसुआणि अहिज्जइ, अहिगारो लोगगहणम्मि ॥ ३७१ ॥ परिभवइ उग्गकारी, सुद्धं मग्गं निगूहए बालो । विहरइ सायागुरुओ, संजमविगलेसु खित्तेसु ॥ ३७२ ॥ उग्गाइ गाइ हसई, असंवुडो सइ करेइ कंदप्पं । गिहिकज्जचिंतगोऽविय, ओसन्ने देह गिण्हइ वा ॥३७३॥ धम्मकहाओ अहिज्जइ, घरा घरं भमइ परिकहंतो अ । गणणाइ पमाणेण य, अइरित्तं वहइ उवगरणं ॥ ३७४ ॥ बारस बारस तिण्णि य, काइयउच्चारकालभूमीओ। अंतो बहिं च अहियासि अणहियासे न पडिलेहे ॥ ३७५ ॥ गीयत्थं संविग्गं, आयरिश्र मुअइ वलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचिवि देइ गिण्हइ वा ॥ ३७६ ॥ गुरुपरिभोगं भुंजइ, सिज्जासंथारउवकरणजायं । किन्तिय तुमंति भासई, अविणीओ गव्विसो लुद्धो ॥३७७॥ गुरुपचक्खाणगिलाणसेहबालाउलस्स गच्छस्स । न करेइ नेव पुच्छइ, निद्धम्मो लिंगमुवजीवी ॥ ३७८ ॥ पहगमणवसहिआहारसुयणथंडिल्लविहिपरिट्ठवणं । नायरइ नेव जाणइ, अज्जावट्टावणं चेव ॥ ३७९ ॥ सच्छंदगमणउठाणसोअणो अप्पणेण चरणेण । समणगुणमुक्कजोगी, बहुजीवखयंकरो भमइ ॥ ३८० ॥ वत्थिव्व वायपुण्णो, परिभमई जिणमयं अयाणंतो। थद्धो निम्विन्नाणो, नय पिच्छइ कंचि अप्पसमं ॥ ३८१ ॥ सच्छंदगमणउट्ठाणसोअणो भुंजई गिहीणं च । पासत्थाइट्ठाणा, हवंति एमाइया एए ॥३४२॥ जो हुज्ज उ असमत्थो, रोगेण व पिल्लिओ झरियदेहो। सव्वमवि जहाभणियं, कयाइ न तरिज काउंजे ॥ ३८३ ॥ सोऽविय निययपरक्कमववसायधिईबलं अगृहंतो। मुत्तण कूडचरियं, जई जयंतो अवस्स जई ॥ ३८४ ॥ युग्मम् ॥ अलसो सढोऽ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ वलित्तो, आलंबणतप्परो अइपमाई । एवंठिओऽवि मन्नई. अप्पाणं सुठ्ठिओमि (म्हि) त्ति ॥३८५।। जोऽवि य पाडेअणं माय-मोसेहिं खाइ मुद्धजणं । तिग्गाममज्झवासी, सो सोअइ कवडखवगु व्व ॥ ३८६ ।। एगागी पासत्थो, सच्छंदो ठाणवासि ओसन्नो । दुगमाईसंजोगा, जह बहुआ तह गुरू हुँति । ३८७ ॥ गच्छगओ अणुओगी, गुरुसेवी अनियओ गुणाउत्तो। संजोएण पयाणं, संजमआराहगा भणिया ॥ ३८८ ॥ निम्ममा निरहंकारा, उवउत्ता नाणदंसणचरित्ते । एगखि (क्खे) त्तेऽवि ठिया, खवंति पोराणयं कम्म ॥ ३८९ ॥ जियकोहमाणमाया, जियलोहपरीसहा य जे धीरा । वुड्ढावासेऽवि ठिया, खवंति चिरसंचियं कम्मं ॥ ३९० ॥ पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे । वाससयंपि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया ॥ ३९१ ॥ तम्हा सव्वाणुना, सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखि व्य वाणियओ ।। ३९२ ॥ धम्मम्मि नत्थि माया, न य कवडं आणुवत्तिभणियं वा । फुडपागडमकुडिल्लं धम्मवयणमुज्जुयं जाण ॥ ३९३ ॥ नवि धम्मस्स भडका, उक्कोडा वंचणा व कवडं वा। निच्छम्मो किर धम्मो सदेवमणुआसुरे लोए ।। ३९४ ।। भिक्खू गीयमगीए, अभिसेए तहय चेव रायणिए । एवं तु पुरिसवत्थु, दव्वाइ चउब्विहं सेसं ॥ ३९५ ॥ चरणइयारो दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे छठ्ठाणा, पढमो पुण नवविहो तत्थ ॥३९६॥ सेसुक्कोसो मज्झिम जहन्नओ वा भवे चउद्धा उ । उत्तरगुणऽणेगविहो, दसणनाणेसु उट्ठऽ8 ॥३९७।। जं जयइ अगीयत्थो जं च अगीयत्थनिस्सिओ जयइ । वडावेइ य गच्छं, अणंतसंसारिओ होइ ॥ ३९८ ॥ कह उ ? जयंतो साहू, वट्टावेई य जो उ गच्छं तु । संजमजुत्तो होउ, अणंतसंसारिओ होइ ? ॥३९९॥ दव्वं खित्तं कालं, भावं पुरिस पडिसेवणाओ य । नवि जाणइ अग्गीओ, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ उस्सग्गववाइयं चेत्र || ४०० || जहठियदव्त्र न याणइ, सच्चित्ताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जुग्गं वा जस्स जं होई ॥ ४०२ ॥ जहठियखित्त न जाणइ, अद्धाणे जणवए अ जं भणियं । कालंपि अ नवि जाणइ, सुभिक्खदुभिक्ख जं कप्पं ॥ ४०२ ॥ भावे हट्ठगिलाणं, नवि याणइ गाढऽगाढकप्पं च । सहुअसहुपुरिसरूवं, वत्थुमवत्थं च नवि जाणे ॥ ४०३ || पडिसेवणा चउद्धा, आउट्टिपमायदष्पकप्पेसु । नवि जाणइ अग्गीओ, पच्छित्तं चेव जं तत्थ ।। ४०४ ॥ जह नाम कोइ पुरिसो, नयणविहूणो अदेसकुसलो य | कंताराडविभीमे, मग्गपणट्ठस्स सत्यस्स || ४०५ || इच्छइ य देसियत्तं, किं सो उ समत्य देसियत्तस्स ? । दुग्गाइँ अयाणतो, नयणविहूणो कहं देसे ? ॥ ४०६ ॥ युग्मम् ॥ एवमगीयत्थोऽविहु, जिणवयणपईवचक्खुपरिहीणो । दव्वाइँ भयाणतो, उस्सग्गववाइयं चेव ।। ४०७ || कह सो जयउ अगीओ ? कह वा कुणऊ अगीयनिस्साए ? । कह वा करे उ गच्छं ? सबालवुड्ढा - उलं सो उ ॥ ४०८ ॥ सुत्ते य इमं भणियं, अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं । पच्छित्ते अइमत्तं, आसायण तस्स महई उ ॥ ४०९ ॥ आसायण मिच्छत्तं, आसायणवज्जणा उ सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥ ४१० ॥ एए दोसा जम्हा, अगीय जयंतस्सऽगीयनिस्साए । वट्ठावय गच्छस्स य, जो अ गणं देयगीयस्स || ४११ ।। अबहुस्सुओ तवस्सी, विहरिउकामो अजाणिऊण पहं । अवर । हपयसयाई, काऊणवि जो न याणेइ ॥ ४९२ ॥ देसि - यराइयसोहिय, वयाइयारे य जो न याणेइ । अविसुद्धस्स न बढइ, गुणसेढी तत्तिया ठाइ ॥ ४१३ ॥ युग्मम् । अप्पागमो किलिस्सइ, जइवि करेइ भइदुक्करं तु तवं । सुंदरबुद्धीइ कयं, बहुपि न सुंदरं होई ॥। ४१४ ॥ अपरिच्छियसुयनिहसस्स केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जमेणऽवि कयं, अन्नाणतवे बहु पई Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ ।। ४१५ ।। जह दाइयम्मिऽवि पहे, तस्स विसेसे पहस्सऽयाणंतो । पहिओ किलिस्सइ च्चिय, तह लिंगायारसुभमित्तो ॥ ४१६ ॥ कप्पा एसणमणेसणं चरणकरणसेविहिं । पायच्छित्तविहिंऽपि य, दव्त्राइगुणेसु अ समग्गं ।। ४१७ ।। पञ्चावणविहिमुठ्ठावणं च अजाविहिं निरवसेसं । उस्सग्गववायविहिं, अयाणमाणो कहूं जयउ ? ।। ४१८ ।। सीसायरियकमेण य, जणेण गहियाइँ सिप्प - सत्थाई | नज्जंति बहुविहारं न चक्खुमित्ताणुसरियाई ॥ ४१९ ॥ जह उज्जमिउ जाणइ, नाणी तव संजमे उवायविऊ । तह चक्खुमित्तदरि सणसामायारी न याति ।। ४२० ॥ सिप्पाणि य सत्थाणि य, जाणतोऽवि नय जुंजइ जो ऊ । तेसिं फलं न भुंजद्द, इअ अजयंतो जई नाणी ॥। ४२१ || गारवतियपडिबद्धा, संजम - करज्जमम्मि सीअंता । निग्गंतूण गणाओ ( घराओ ) हिंडंति पमायरण्णम्मि ।। ४२२ || नाणाहिओ वरतरं हीणोऽविहु पत्रयणं पभावंतो । नय दुकरं करतो, सुठुवि अप्पागमो पुरिसो ॥ ४२३ ।। नाणाहियस्स नाणं, पुज्जइ नाणा पवत्तए चरणं । जस्स पुण दुह इक्कंपि नत्थि तस पुज्जए काई || ४२४ || नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीणं च तवं, जो चरड़ निरत्थयं तस्स ।। ४२५ || जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदनस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गई || ४२६ || संपागउपडि सेवी, कासु वसु जो न उज्जमई । पवयणपाडणपरमो, सम्मत्त कोमलं तर स ॥ ४२७ ॥ चरणकरणपरिहीणो, जइवि तवं चरइ सुठु अइगुरुभं । सो तिल्ल व किणंतो कंसियबुद्दो मुणेयवो ॥ ४२८ ॥ छज्जीवनिकाय महन्त्रयाण परिपालणाइ जइधम्मो । जइ पुण ताइँ न रक्खर, भणाहि को नाम सो धम्मो ? ॥ ४२९ ।। छज्जीवनिकायद्याविवजिओ नेव दिकिखओ न गिड़ी। जधम्माओ चुक्को, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चुकइ गिहिदाणधम्माओ ॥ ४३० ॥ सव्वाओगे जह कोइ, अमच्चो नरवइस्स धित्तणं । आणाहरणे पावइ, वहबंधण व्वहरणं च ॥ ४३१ ॥ तह छक्कायमहव्वयसव्वनिवित्तीउ गिहिऊण जई । एगमवि विराहतो, अमच्चरणो हणइ बोहिं ॥४३२॥ तो हयबोही य पच्छा, कयावराहाणुसरिसमियममियं । पुणवि भवोअहिपडिओ, भमइ जरामरणदुग्गम्मि ॥ ४३३ ॥ जइयाऽणेणं चत्तं, अप्पणयं नाणदंसणचरित्तं । तइया तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु ॥ ४३४ ॥ छक्कायरिऊण अस्संजयाण लिंगावसेसमित्ताणं । बहुअस्संजमपवहो, खारो मइलेइ सुठुअरं ॥ ४३५ ॥ किं लिंगमिडुरीधारणेण कज्जमि अट्ठिए ठाणे । राया न होइ सयमेव, धारयं चामराडोवे ॥ ४३६ ॥ जो सुत्तत्थविणिच्छियकयागमो मूलउत्तरगुणोहं । उन्वहइ सयाऽखलिओ सो लिक्खइ साहुलिक्खम्मि ॥ ४३७ ॥ बहुदोससंकिलिट्ठो, नवरं मइलेइ चंचलसहावो । सुट्ठवि वायामितो, कायं न करेइ किंचि गुणं ॥४३८ ॥ केसिंचि वरं मरणं, जीवियमन्नेसिमुभयमन्नेसिं । ददुरदेविच्छाए, अहियं केसिंचि उभयपि ॥ ४३९ ॥ केसिंचि य परलोगो, अन्नेसिं इत्थ होइ इहलोगो । कस्सवि दुण्णिवि लोगा, दोऽवि हया कस्सई लोगा ॥ ४४० ।। छज्जीवकायविरओ, कायकिलेसेहिं सुठु गुरुएहिं । नहु तस्स इमो लोगो, हवइऽस्सेगो परो लोगो ॥४४१॥ नरयनिरुद्धमईणं, दंडियमाईण जीवियं सेयं । बहुवायम्मिऽवि देहे, विसुज्झमाणस्स वर मरणं ।। ४४२ ॥ तवनियममुट्ठियाणं, कल्लाणं जीविअंपि मरणंपि । जीवंतऽऽज्जति गुणा, मयाऽवि पुण सुग्गई जंति ॥ ४४३ ।। अहियं मरणं अहिरं च जीवियं पावकम्मकारीणं । तमसम्मि पडंति मया, वेरं वडढंति जीवंता ॥ ४४४ ॥ अवि इच्छंति अ मरणं, नय परपीडं करंति मणसाऽवि । जे सुविइयसुगइपहा, सोयरियसुओ जहा सुलसो ॥ ४४५ ॥ मूलग Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ कुदंडगा दामगाणि उच्छूलघंटिभाओ य। पिंडेइ अपरिततो, चडप्पया नत्थि य पसूऽवि ॥ ४४६ ॥ तह वत्थपायदंडगवगरणे जयणकज्जमुज्जुत्तो । जस्सऽट्ठाए किलिस्सई, तं चिय मूढो नऽवि करेई || ४४७ ॥ अरिहंता भगवंतो, अद्दियं व हियं व नवि इहं किंचि । वारंति कारवेंति य, धित्तूण जणं बला हत्थे ॥ ४४८ ॥ उवएसं पुण तं दिंति जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं । देवाणऽवि हुति पहू, किमंग पुण मणुअमित्ताणं ? ॥ ४४९ ॥ वरमउडकिरीडधरो, चिंचइभ चवलकुंडलाहरणो । सको हिभवएसा, | रावणवाहणो जाओ ।। ४५० ॥ रयणुज्जलाइँ जाई, बत्तीसवीमाणसयसहस्साईं । वज्जहरेण वराइँ, हिओवएसेण लद्धाई ।। ४५१ ।। सुरवरसमं विभूई, जं पत्तो भरहचक्कवट्टीऽवि । माणुसलोगस्स पहू, तं जाण हिओवएसेण ॥। ४५२ ॥ लधूण तं सुइसुहं, जिणवयणुवएसममयबिंदुसमं । अप्पहियं कायव्वं, अहिएसु मणं न दायां ॥ ४५३ ॥ हियमप्पणी करितो, कस्स न होइ गरुओ गुरू गणो ! | अहियं समायरंतो, कस्स न विप्पञ्चओ होइ ? ॥ ४५४ ॥ जो नियमसीलतवसंजमेहिं जुत्तो करेइ अप्पहियं । सो देवयं व पुज्जो, सीसे सिद्धत्थओ व्व जणे ।। ४५५ ।। सव्वो गुणेहिं गण्णो, गुणाहिअस्स जह लोगवीरस्स । संभंतमउड विडवो, सहस्सनयणो सययमेइ ॥ ४५६ ॥ चोरिक्कवंचणाकूड कवडपरदारदारुणमइस्स । तस्स च्चिय तं अहियं पुणोऽवि वेरं जणो वहइ ॥ ४५७ ॥ जइ ता तणकंचणलुट्ठ (लिडु?) रयणसरिसोवमो जणो जाओ । तइया नणु वुच्छिन्नो, अहिलासो दव्वहरणम्मि ||४५८ || आजीवगगणनेया, रज्जसिरिं पयहिऊण य जमाली । हियमप्पणो करिंतो, नय वयणिज्जे इह पडतो ।। ४५९ ॥ इंदियकसायगाव एहिं सययं किल्लिट्ठपरिणामो । कम्मघणमहाजालं, अणुसमयं बंधई जीवो ॥ ४६० ।। परपरिवायविसाला, अणेगकंदप्पविसय Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ भोगेहिं । संसारत्था जीवा, अरइविणोअं करतेवं ॥ ४६१ ।। आरंभपायनिरया, लोइअरिसिणो तहा कुलिंगी अ । दुहओ चुक्का नवरं, जीवंति दरिद्दजियलोए ॥ ४६२ ॥ सव्वो न हिंसीयत्वो, जह महिपालो तहा उदयपालो । नय अभयदाणवइणा, जणोवमाणेण होयव्वं ॥ ४६३ ॥ पाविजइ इह वसणं, जणेण तं छगलओ असत्तुति । न य कोइ सोणियबलिं, करेइ वग्घेण देवाणं ॥ ४६४ ॥ वच्चइ खणेण जीवो, पित्तानिलधाउसिंभखोभेहिं । उज्जमह मा विसीअह, तरतमजोगो इमो दुलहो ॥ ४६५ ॥ पंचिंदियत्तणं माणुसत्तणं आरिए जणे सुकुलं । साहुसमागम सुणणा, सदहणाऽरोग पव्वज्जा ॥ ४६६ ॥ आउ संविल्लंतो, सिढिलंतो बंधणाइँ सव्वाइं । देहट्ठिअं मुयंतो, झायइ कलुणं बहुं जीवो ॥ ४६७ ॥ इक्कऽपि नस्थि जं सुटु सुचरियं जह इमं बलं मज्झ। को नाम दढक्कारो, मरणंते मंदपुण्णस्स ? ॥ ४६८ ।। युग्मम् ॥ मूलविसअहिविसूईपाणीसत्थग्गिसंभमेहिं च । देहतरसंकमणं, करेइ जीवो मुहुत्तेण ॥ ४६९ ॥ कत्तो चिंता सुचरियतवस्स गुणसुट्ठियस्स साहुस्स ? । सोगइगमपडिहत्थो, जो अच्छइ नियमभरियभरो ॥ ४७० ॥ साहंति अ फुडयिअडं, मासाहससउणसरिसया जीवा । न य कम्मभारगरुयत्तणेण तं आयरंति तहा ॥ ४७१ ॥ वग्धमुहम्मि अहिगओ, मंसं दंतंतराउ कड्ढेइ । मा साहसंति जंपइ, करेइ न य तं जहाभणियं ॥ ४७२ ॥ परिअट्टिऊण गंथत्थवित्थरं निहसिऊण परमत्थं । तं तह करेह जह तं, न होइ सव्वंपि नडपढियं ॥ ४७३ ॥ पढइ नडो वेरग्गं, निव्विज्जिज्जा य बहुजणो जेण । पढिऊण तं तह सढो, जालेण जलं समोअरइ ॥ ४७४ ॥ कह कह करेमि कह मा करेमि कह कह कयं बहुकयं मे । जो हिययसंपसारं, करेइ सो अइकरेइ हियं ॥४७५ ॥ सिढिलो अणायरकओ, अवसवसकओ तहा कयावकओ। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सययं पमत्तसीलस्स, संजमो केरिसो होज्जा ? ॥ ४७६ ॥ चंदुव्व कालपक्खे, परिहाइ पए पए पमायपरो । तह उग्घरविघरनिरंगणो य णय इच्छियं लहइ ॥ ४७७ ॥ भीओव्विग्ग निलुक्को, पागडपच्छन्नदोससयकारी । अप्पच्चयं जणंतो, जणस्स धी जीवियं जियइ ॥४७८॥ न सहि दिवसा पक्खा, मासा वरिसावि संगणिज्जंति ।जे मूलउत्तरगुणा, अक्खलिया ते गणिज्जति ॥ ४७९ ॥ जो नवि दिणे दिणे संकलेइ के अन्ज अज्जिया मि गुणा ? । अगुणेसु अ नहु खलिओ, कह सो उ करिज अप्पहिलं ? ॥ ४८० ॥ इय गणियं इय तुलियं इय बहुआ दरिसियं नियमियं च । जइ तहवि न पडिबुज्झइ, किं कीरइ ? नूण भवियव्वं ॥४८१॥ किमगं तु पुणो जेणं, संजमसेढी सिढिलीकया होई । सो तं चित्र पडिवजह. दुक्खं पच्छा उ उज्जमई ॥ ४८२ ॥ जइ सव्वं उवलद्ध, जह अप्पा भाविओ उवसमेणं । कायं वायं च मणं, उप्पहेणं जह न देई ।। ४८३ ।। हत्थे पाए निखिवे, कायं चालिज्ज तंपि कज्जेणं । कुम्मो व्व सए अंगे, अंगोवंगाई गोविज्जा ॥ ४८४ ॥ विकई विणोयभासं अंतरभासं अवकभासं च । जं जस्स अणिट्ठिमपुच्छिओ य भासं न भासिज्जा ॥ ४८५ ॥ अणवट्ठियं मणो जस्स, झायइ बहुयाइं अट्टमट्टाई । तं चिंतिथं च न लहइ, संचिणइ भ पावकम्माई ॥ ४८६ ॥ जह जह सव्वुवलद्ध, जह जह सुचिरं तवो वणे वुच्छं । तह तह कम्मभरगुरू, संजमनिब्वाहिरो जाओ ॥ ४८७ ॥ विजप्पो जह जह ओसहाई पिज्जेइ वायहरणाई । तह तह से अहिययरं, वारणाऊरिअं पुट्ट ॥ ४८८ ॥ दडढजउमकज्जकर, भिन्नं संखं न होइ पुण करणं । लोहं च तंबविद्ध न एइ परिकम्मणं किंचि ॥ ४८९ ॥ को दाही उवएसं, चरणालसयाण दुविअड्ढाणं ?। इंदस्स देवलोगो, न कहिजइ जाणमाणस्स ॥४९०॥ दो चेव जिणवरेहि, जाइजरामरणविप्पमुक्केहिं । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वाऽवि ॥ ४९९ ॥ भावच्चणमुग्गविहारया य दव्वञ्चणं तु जिणपू । भाववणाउ भट्ठो, हविज्ज दव्वचणुजुत्तो ॥ ४९२ ॥ जो पुण निरञ्चणो विभ सरीरसुहकज्जमित्ततल्लिच्छो । तस्स नहि बोहिलाभो, न सुग्गई नेय पर लोगो ॥ ४९३ ॥ कंचणमणिसोवाणं, थंभसहस्सू सिअं सुवण्णतलं । जो कारिज्ज जिणहरं, तभऽवि तवसंजमो अहिओ ।। ४९४ ॥ निब्बी दुब्भिवखे, रण्णा दीवंतराभो अन्नाओ । आऊणं बी, इह दिन्न कासवजणस्स ॥। ४९५ ॥ केहिवि सव्वं खइयं, पइन्नमन्नेहिं सव्वमद्ध ं च । वृत्तं गयं च केई, खित्ते खुट्टति संतस्था ॥ ४९६ ॥ राया जिणवर चंदो, निब्बीयं धम्मविरहिओ कालो । खित्ताइ कम्मभूमी, कासववग्गो य चत्तारि ।। ४९७ ।। अस्संजएहिं सव्वं, खइअं भद्ध च देसविरहिं । साहूहिं धम्मबीअं, उत्तं नीभं च निष्पत्तिं ॥ ४९८ ॥ जे ते सव्वं हिउ, पच्छा खुट्टति दुब्बलधिईया । तवसंजम परितंता इह ओहरिअसीलभरा ॥ ४९९ ॥ आणं सव्वजिणाणं, भंजइ दुविहं पहुं अइक तो, आणं च अइतो भ्रमइ जरामरणदुग्गमि ||५०० || जइ न तरसि धारेउ, मूलगुणभरं सउत्तरगुणं च । मुत्तूण त तिभूमी, सुसावगत्तं वरतरागं ।। ५०१ ।। अरिहंतचे आणं, सुसा हुपूयारओ दढाया | सुस्सावगो वरतरं न साहुवेसेण चुअधम्मो ।। ५०२ ॥ सव्वंति भाणिऊणं, विरई खलु जस्स सव्विया नत्थि । सो सव्वविरइवाई, चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥ ५०३ ॥ जो जहवायं न कुणइ, मिच्छहिट्टी तओ हु को अन्नो ? वड्ढेइ अ मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥ ५०४ ॥ आणाए चिय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गंति ? | आणं च अइकंतो, कस्साए सा कुण सेसं ? ॥ ५०५ ॥ संसारो अ अणंतो, भट्ठचरित्तस्स लिङ्गजीविस्स | पंचमहव्वयतुंगो, पागारो भल्लिभ जेण ॥ ५०६ || Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ न करेमित्ति भणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो पावं । पञ्चक्खमुसावाई, मायानियडीपसंगो य ॥ ५८७ ॥ लोएऽवि जो ससूगो, अलिभं सहसा न भासए किंचि । अह दिक्खिओऽवि अलियं, भासइ तो किंच दिक्खाए ? ।।५०८॥ महव्वयअणुव्वयाई, छंडेउ जो तवं चरइ अन्नं । सो अन्नाणी मूढो, नावाबु (छु ) हो मुणेयव्वो ॥ ५०९ ।। सुबहुं पासत्थजणं, नाऊणं जो न होइ मज्झत्थो । नय साहेइ सकज्ज, कागं च करेइ अप्पाणं ॥५१०।। परिचिंतिऊण निउणं, जइ नियमभरो न तीरए वोढुं । परचित्तरंजणेणं, न वेसमित्तेण साहारो ॥५११॥ निच्छयनयस्स चरणस्सुवघाए नाणदंसणवहोऽवि । ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा उ सेसाणं ॥ ५१२ ॥ सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओऽवि गुणकलिओ। ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुई ॥५१३।। संविग्गपक्खियाणं, लक्खणमेयं, समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणाऽवि जेण कम्मं विसोहंति ॥ ५१४ ॥ सुद्ध सुसाहुधम्म, कहेइ निंदइ य निययमायारं । सुतवस्सियाण पुरओ, होइ य सव्वोमरायणीओ ॥ ५१५ ॥ वंदइ नय वंदावइ, किइकम्मं कुणइ कारवे नेय । अत्तट्ठा नवि दिक्खइ, देइ सुसाहूण बोहेउ ।।५१६।। ओसन्नो अत्तट्ठा, परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो। तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डुइ सयं च ॥ ५१७ ।। जह सरणमुवगयाणं, जीवाण निकिंतए सिरे जो उ । एवं आयरिओऽविहु, उस्सुत्तं पन्नवंतो य ॥ ५१८ ॥ सावजजोगपरिवजणा उ सव्वुत्तमो जईधम्मो । बीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खपहो । ५१९ । सेसा मिच्छट्टिी, गिहिलिङ्गकुलिङ्गदव्वलिङ्गेहिं । जह तिण्णि य मुक्खपहा संसारपहा तहा तिण्णि ॥ ५२० ॥ संसारसागरमिणं, परिन्भमंतेहिं सबजीवेहिं । गहियाणि य मुक्काणि य अणंतसो दवलिङ्गाई ।। ५२१ ॥ अथणुरत्तो जो पुण, न मुयइ बहुसोऽवि पन्नविज्जंतो। PEECHHOLLY Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ संविग्गपक्खियत्तं, करिज लम्भिहिसि तेण पहं ॥ ५२२ ।। कंताररोहमद्धाणओमगेलन्नमाइकज्जेसु । सव्वायरेण जयणाइ कुणइ जं साहुकरणिज्जं ॥ ५२३ ।। आयरतरसंमाणं सुदुक्करं माणसंकडे लोए । संविग्गपक्खियत्तं, आसन्नेणं फुडं काउ॥ ५२४ । सारणचइआ जे गच्छनिग्गया पविहरंति पासस्था। जिणवयणबाहिराऽवि य, ते उ पमाणं न कायव्वा ।। ५२५ ।। हीणस्सऽवि सुद्धपरूवगस्स संविग्गपक्खवायस्स । जा जा हविज्ज जयणा, सा सा से निजरा होइ ॥ ५२६ ।। सुक्काइयपरिसुद्ध, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चिढं। एमेव य गीयत्थो, आयं दट्ठं समायरइ ॥ ५२७ ॥ आमुक्कजोगिणो चिअ, हवई थोवाऽवि तस्स जीवदया । संविग्गपक्वजयणा, तो दिट्टा साहुबग्गस्स ।। ५२८ ॥ किं मूसगाण अत्थेण ? किं वा कागाण कणगमालाए ? । मोहमलखलिआणं, किं कज्जुवएसमालाए ? ।। ५२९ ।। चरणकरणालसाणं, अविणयबहुलाण सययऽ. जोगमिणं । न मणी सर साहस्सो, आबज्झइ कुच्छ भासरस । ५३०।। नाउण करयलगयाऽऽमलं व सम्भावओ पहं सव्वं । धम्मम्मि नाम सीजइत्ति कम्माइ गुरुआई ॥ ५३१ ॥ धम्मत्थकाममुकलंसु जस्स भावो जहिं जहिं रमइ । वरग्गेगंतरसं न इमं सव्वं सहावेह ।। ५३२ ॥ संजमतवालसाणं, वेरग्गकहा न होइ कण्ण सुहा । संविग्गपक्खियाणं, हुज व केसिंचि नाणीणं ॥ ५३३ ।। सोऊण पगरणमिणं, धम्मे जाओ न उज्जमो जस्स । न य जणियं वेरग्गं, जाणिज्ज अणंतसंसारी ।। ५३४ ॥ कम्माण सुबहुआणुवसमेण उवगच्छई इमं सव्यं । कम्ममलचिक्कणाणं, वञ्चइ पासेण भन्नंतं ॥ ५३५ ।। उवएसमालमेयं जो पढइ सुणइ कुणइ वा हियए । सो जाणइ अप्पहियं नाऊण सुहं समायरई ॥ ५३६ ।। धंतमणिदामससिगयणिहिपयपढमक्खराभिहाणेणं । उवएसमालप.. गरणमिणमो रइरं हिअट्टाए ॥ ५३७ ॥ जिणवयणकप्परक्खो, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ अणेगसुत्तत्थसालविच्छिन्नो । तवनियमकुसुमगुच्छो, सुग्गइफलबंधणो जयइ ॥ ५३८ ॥ जुग्गा सुसाहुवेरग्गिआण परलोगपत्थिआणं च । संविग्गपक्खिआणं, दायव्वा बहुसुआणं च ॥ ५३९ ॥ इय धम्मदासगणिणा जिणवयणुवएसकजमालाए। मालव्व विविहकुसुमा, कहिआ य सुसीसवग्गस्स ।। ५४०।। संतिकरी वुढिकरी, कल्लाणकरी सुमंगलकरी य । होइ कहगस्स परिसाए, तह य निव्वाणफलदाई ॥ ५४१ ॥ इत्थ समप्पइ इणमो, मालाउवएसपगरणं पगयं । गाहाणं सव्वाणं, पंचसया चेव चालीसा ॥५४२॥ जाव य लवणसमुदो, जाव य नक्खत्तमंडिओ मेरू । ताव य रइया माला, जयम्मि थिरथावरा होउ ॥ ५४३ ॥ अक्खरमत्ताहीणं, जं चिय पढियं अयाणमाणेणं । तं खमह मज्झ सव्वं, जिणवयणविणिग्गया वाणी ।। ५४४ ॥ ॥ इति श्रीधर्मदासगणिविरचितमुपदेशमालाप्रकरणम् ।। श्री जिनस्तवनम् शान्तो वेष: शमसुखफलाः श्रोत्ररम्या गिरस्ते, कान्तं रूपं व्यसनिपु दया साधुषु प्रेममुच्चैः । इत्थम्भूते हितकृतिपरे त्वय्यमंगावबोधे, प्रेमस्थाने किमिति कृपणा द्वेषमुत्पादयन्ति ॥ १ ॥ अतिशयवती सर्वा चेष्ठा, वचो हृदयंगम, शमसुखफल: प्राप्तो धर्मः, स्फुटशुभसंश्रयः । मनसि करुणा स्फीता, रूपं परं नयना. मृतम् , किमिति सुमते तद्यन्न स्यात्प्रसादकरं सताम् ॥ २ ॥ निरस्तदोषे पितरीव वत्सले, कृपात्मने त्रातरि सौम्यदर्शने । हितोन्मुखे त्वय्यपि ये पराङ्मुखाः पराङ्मुखास्ते ननु सर्वसंपदाम् ॥ ३ ॥ सर्वसत्त्वहितकारिणि नाथे, न प्रसीदति मनस्त्वयि यस्य। मानुषाकृतितिरस्कृतमूर्तेरन्तरं किमिह तस्य पशोर्वा ॥ ४ ॥ त्वयि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कारुणिके न यस्य भक्तिर्जगदभ्युद्धरणोद्यतस्वभावे । नहि तेन समोऽधमः पृथिव्यामथवा नाथ न भाजनं गुणानाम् ॥ ५ ॥ एवंविधे शास्तरि वातदोष, महाकृपालौ परमार्थवैद्ये । मध्यस्थभावोऽपि हि शोच्य एव, त्वद्वेषदग्धेषु क एव वादः ॥६॥ न तानि चक्षूषि न यैनिरीक्ष्यसे, न तानि चेतांसि न यैर्विचिन्त्यसे । न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणा, न ते गुणा ये न भवंतमाश्रिताः ॥ ७ ॥ तच्चक्षुद्देश्यसे येन, तन्मनो येन चिन्त्यसे । सज्जनानंदजननी, सा वाणी स्तूयसे यया ॥ ८॥ न तव यान्ति जिनेन्द्र गुणाः क्षयम् , मम तु शक्तिरूपैति परिक्षयम् । निगदितैर्बहुभिः किमिहापरैरपरिमाणगुणोऽसि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥ श्रीपञ्चपरमेष्ठिस्तवनम् नम्रामरेश्वर किरीटनिविष्टशोणरत्नप्रभापटलपाटलितांघ्रिपीठाः । तीर्थेश्वराः शिवपुरीपथसार्थवाहा निःशेषवस्तुपरमार्थविदो जयन्ति ॥ १ ॥ लोकाग्रभावभवना भवभीतिमुक्ता ज्ञानावलोकितसमस्तपदार्थसार्थाः । स्वाभाविकस्थिरविशिष्टसुखैः समृद्धाः सिद्धा विलीनघनकर्ममला जयन्ति ॥ २॥ आचारपंचकसमाचरणप्रवीणाः सर्वज्ञशासनभरैकधुरंधरा ये । ते सूरयो दमितदुर्दमवादिवृन्दा विश्वोपकारकरणप्रवणा जयन्ति ॥ ३ ॥ सूत्रं यतीनतिपटुस्फुटयुक्तियुक्त युक्तिप्रमाणनयभंगगमैर्गभीरम् । ये पाठयन्ति वरसूरिपदस्य योग्यास्ते वाचकाश्चतुरचारुगिरो जयन्ति ॥ ४ ॥ सिद्धयगनासमसमागमबद्धवाचाः, संसारसागरसमुत्तरणैकचिंताः । ज्ञानादिभूषणविभूषितदेहभागा रागादिघातरतयो यतयो जयन्ति ॥ ५ ॥ अईतस्त्रिजगद्वन्द्यान् त्रिलोकेश्वरपूजितान् । त्रिकालभावसर्वज्ञान त्रिविधेन Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमाम्यहं ॥ ६॥ सर्वजगदर्चनीयान् सिद्धान् लोकाग्रसंस्थितान् । अष्टविधकर्ममुक्तान , नित्यं वंदे शिवालयान् ॥ ७ ॥ पंचविधाचाररतान व्रतसंयमनायकान् । आचार्यान् सततं वंदे शरण्यान भवदेहिनाम् ॥ ८ ।। द्वादशांगोरुपूर्वाख्यश्रुतसागरपारगान । उपदेष्टनुपाध्यायान् उभयोः संध्ययोस्स्तुमः ॥ ९ ॥ निर्वाणसाधकान् साधून , सर्वजीवदयापरान् । व्रतशीलतपोयुक्तान वन्दे सद्गतिकां-- क्षिणः ।।१०॥ एवं पंचनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः । मंगलानाञ्च सर्वेषां प्रथमो भवतु मंगलम् ॥ ११ ॥ श्रीनाभेयस्तवनम् प्रणतनरामरभुजगेंद्रमौलिमालाभिरचितांघ्रियुगम् । वंदे युगादिनाथं भक्तिप्रणतोत्तमांगेन ॥१॥ एतत्तव जन्मदिने जगदानंदेन पूरितं नाथ । किल मयि नाथविहीने जातो नाथोऽयमिति बुद्धया ॥ २ ॥ उपलभ्य केवलालोकभानुना धर्मरत्नमकलङ्कम् । लोके प्रकटितमादी, जिनेन्द्र भवतैव मोहांधे ।। ३ ।। मूभ्रिममुपनीते भुवने रागादिकालकूटेन । अमृतायितममलेन त्वदीयवचनेन हे नाथ ॥ ४ ॥ भवदीयवचनरज्जुः प्रभुरगुणाय यदि भवेदियं नैव । जायेत नरककूपात्थकमुत्तारः प्रभो जगतः ॥ ५ ॥ चिन्तामणिकल्पतरू दूरत एवाधरीकृती भवता । चिन्ताकल्पनयोगाते हि दाने न तो दत्तः ॥ ६ ॥ भक्तिभरनिर्भरमना भवाम्यहमनारतं यथा भवति । कारुणिक कृपां कृत्वा महतीं कुरु मां तथा नाथ ।। ७ ।। इति वहमध्यगताक्षरविरहितवचनैरभिस्तुतो भक्त्या । संबोधिलाभमतुलं ददातु भक्ताय नाभेय ॥ ८ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सिरिवद्धमाणसामिथवो नमिऊण संखसत्थियचक्कुसकमलंपतिदुल्ललियं । भवियाण भवविणासं कमजुयलें वद्धमानस्स ॥१॥ तस्सय पणईयणवच्छलस्स दालिद्ददुक्खदलणस्स । वीरस्स मोक्खपहदायगस्स विन्नत्तियं काहं ॥२॥ भयवं अणाइसंसारसागरे भीसणे भतेण । वयणंपि न तुम्ह सुयं अच्छउ ता दंसणं नाह ॥ ३ ॥ जइ पुण कहंपि जयगुरू अन्नभवे सामि वंदिओ हुँतो । ता हं दुहसयपउरे संसारे नेय हिंडतो ॥ ४ ॥ नारयतिरिनरामरभवेसु दुक्खाइं सामि विसहंतो । भमिओ अहं अणाहो तुह दसणविरहिओ नाह ॥ ५ ॥ अन्नाणमोहमूढो सामिय तुह सासणं अयाणंतो । छज्जीवकायमझे निहओ नियकम्मदोसेणं ॥ ६ ॥ चुलसीइजोणिलक्खेसु नाह दुक्खाई जाइं सहियाइं । ताई तुमंचिय, जाणइ, को अन्नो साहिउं तरई ।। ७ ।। पयडो सि तुमं जयगुरू तुममेवय सयलतिहुयणाभोओ । मोहंधेण न दिट्ठो उल्लुएणं दिणयरोव्व जहा ॥ ८ ॥ कह कह वि दंसणावरणकम्म उवसमखएण जइ नाह । दिट्टो अदिठ्ठपुव्वो भवसयमहणो तुमं देव ।। ९ ।। ता सुकयत्तो सामिय अन्ज महानिव्वुई अहं पत्तो । जं सयलसुक्खजणओ दिट्ठो तं कप्परुक्खोव्व ॥ १० ॥ जह मरुभूमिमझे तण्हासुसिएण केणवि नरेण । लन्भई पवरजलोहो तह सामि तुमं मए पत्तो ॥ ११ ।। भवगिरिनईए जरमरणसलिल अणवरय हीरमाणेण । तडितरुवर पालंबोव्व नाह तं पाविओ इहिणं ॥१२॥ दालिहदुक्खसंताविएण पुरिसेण झीणविहवेण । जह लब्भइ पवरनिही तह सामि तुम मए पत्तो ॥ १३ ॥ संसारोयहिमज्झे मोहमहावत्तभंगुरतरंगे । बुटुंतेण महायस लद्धो तं जाणवतंव ॥ १४॥ किं नाह महारयणं किं वा चिन्तामणिव्व तं वीर । जेण तुह दंसणेणं अउव्वतोसो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ महं जाओ || १५ || जंपि नाह भुत्तं बहुसो देवत्तणं मए पत्तं । नय एरिसो मोओ जाओ जह दंसणे तुम्ह ॥ १६ ॥ ता पसिय पसिय सामिय सफलं महमिययदंसणं कुणसु । तिहुअण अन्भहिएणं सासयसिवसोक्खदाणेणं ॥ १७ ॥ इय विन्नत्तो सिरिवद्धमाण सुरअसुरखयरपमुद्देहिं । धावहि कम्ममलोहं नियबोहपयच्छणजलेणं ॥ १८ ॥ जइवि तुमं गयनेहो जइवि तुमं सयलमुक्कवावारो । तहवि तुमं चिय सरणं सामिय संसारभीयाणं ॥ १९ ॥ भयवं तुह गुणसवणे अं सुहं होइ भव्वसत्ताणं । कत्तो बंभपुरंदरहरि - हरहदंसणेणावि || २० ॥ कलिकाल सर्वज्ञ - श्री हेमचन्द्राचार्यविरचितम् श्रीवीतरागस्तोत्रम् " यः परात्मा परब्ज्योतिः परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्णं तमसः परस्तादामनन्ति यम् ॥ १ ॥ सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूला: क्लेशपादपाः । मूर्ध्ना यस्मै नमस्यन्ति, सुरासुरनरेश्वराः ॥ २ ॥ प्रावर्त्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भाविभूतभावावभासकृत् || ३ || यस्मिन्विज्ञानमानन्दं ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥ ४ ॥ तेन स्यां नाथघाँस्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः । ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः || ५ || तत्र स्तोत्रेण कुर्यां च पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे, जन्मिनां जन्मनः फलम् ||६|| काहं पशोरपि पशु-र्वीतरागस्तवः क च ? । उत्तितीर्षुररण्यानीं, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ पद्धयां परिवारम्यतः ॥ ७ ॥ तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विश्रृङ्खलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥ ८ ॥ श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥ ९ ॥ इति प्रथमप्रकाशः प्रियङ्ग-स्फटिक-स्वर्ण-पद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभोः तवाधौतशुचिः, कायः कमिव नाक्षिपेत् ॥ १॥ मन्दारदामवन्नित्य-मवासितसुगन्धिनि । तवाङ्ग भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ।।२।। दिव्यामृतरसास्वाद-पोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ !, नाङ्ग रोगोरगव्रजाः ॥३॥ त्वय्यादर्शतलालीन-प्रतिमाप्रतिरूपके। क्षरत्स्वेदविलीनत्व-कथाऽपि वपुषः कुत: ? ॥ ४ ॥ न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव । वपुःस्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥ ५ ॥ जगद्विलक्षणं किं वा, तवान्यद्वक्तुमीश्महे ? । यदविस्रमबीभत्सं, शुभ्रंमांसमपि प्रभो ! ॥ ६ ॥ जलस्थलसमुदभूताः, सन्त्यज्य सुमनःस्रजः । तव नि:श्वाससौरभ्य-मनुयान्ति मधुव्रताः ।। ७ ॥ लोकोत्तरचमत्कारकरी तव भवस्थितिः । यतो नाहारनीहारौ, गोचरश्चर्मचक्षुषाम् ॥ ८ ॥ इति-द्वितियप्रकाश . सर्वाभिमुख्यतो नाथ ! तीर्थकृन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्व-भानन्दयसि यत्प्रजाः ॥ १ ॥ यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । सम्मान्ति कोटिशस्तियग्नृदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥ तेषामेव स्वस्वभाषा-परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥ ३ ॥ साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ गदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोर्मिभिः ॥ ४ ॥ नाविर्भवन्ति यद्भूमौ, मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवेतयः ।। ५॥ स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवो, यद्वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावत-वर्षादिव भुवस्तले ॥६॥ त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ ! मारयो भुवनारयः ।। ७ ।। कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि वि'वैकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥ ८ ॥ स्वराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो, यक्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात, सिंहनादादिव द्विपाः ॥ ९ ॥ यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वादभूतप्रभावाढ्ये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥ १०॥ यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे, जितमार्तण्डमण्डलम् । मा भूद्वपुर्द रालोकमितीवोत्पिण्डितं महः ॥ ११ ॥ स एप योगसाम्राज्य-महिमा विश्वविश्रतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् ! कस्य नाश्चर्यकारणम् ? ॥ १२ ॥ अनन्तकालप्रचितमनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नान्यः कमेकक्षमुन्मूलयति मूलतः ॥ १३ ॥ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथानिच्छ. न्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥ १४ ॥ मैत्री पवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ इति तृतीयप्रकाशः म मिथ्यादृशां युगान्तार्कः, सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकृल्लक्ष्म्याः , पुरश्चक्रं तवैधते ॥ १ ॥ एकोऽयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुच्छिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात्तर्जनी जम्भविद्विषा ॥ २ ॥ यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरासुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजाच्छियं पळूजवासिनीम् ॥ ३ ॥ दानशीलतपोभाव-भेदाद्धर्म चतुर्विधम् । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद्भवान् ॥ ४ ॥ त्वयि दोपत्रयात्त्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रुत्रयोऽपि त्रिदिवौकसः ॥ ५ ॥ अधोमुखाः कण्टकाः स्युर्धात्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ॥ ६ ॥ केशरोमनखश्मश्रु, तवावस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाप्तस्तीर्थकरैः परैः ॥ ७ ॥ शब्दरूपरसस्पर्श-गन्धाख्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदने तार्किका इव ॥ ८ ॥ त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत्पर्यपासते । आकालकृतकन्दर्प-साहायकभयादिव ॥९॥ सुगन्ध्युडकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा पूजयन्ति भुवं सुराः ॥१०॥ जगत्प्रतीक्ष्य त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् । का गतिमहतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः ? ॥ ११ ॥ पञ्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं, क भवेद्भवदन्तिके ? । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुश्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥ १२ ॥ मूर्ना नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत्कृतार्थ शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्या दृशां पुनः ॥ १३ ॥ जघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः। भाग्यसम्भारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते ॥ १४ ॥ इति चतुर्थप्रकाशः गायन्निवालिविरुतै-नृत्यन्निव चलैर्दलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ, मोदते चैत्यपादपः ॥ १ ॥ आयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदध्नीः सुमनसो, देशनोव्यां किरन्ति ते ॥ २ ॥ मालवकैशिकीमुख्य-ग्रामरागवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो हर्षाग्रीवै गैरपि ॥ ३॥ तवेन्दुधामधवला, चकास्ति चमरावली। हंसालिरिव वक्त्राब्ज-परिचर्यापरायणा ॥ ४॥ मृगेन्द्रासनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ सेवितुम् ॥ ५ ॥ भासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । कोराणामिव दृशां ददासि परमां मुदम् || ६ || दुन्दुमिर्विश्वविश् वेश !, पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥ ७ ॥ तवोर्ध्वमूर्ध्व पुण्यर्द्धि क्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवन - प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ||८|| एतां चमत्कारकारी प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा, नाथ ! मिध्यादृशोऽपि हि ? || ९ || इति पञ्चमप्रकाशः लावण्यपुण्यवपुषि त्वयि नेत्रामृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौः स्ध्याय, किं पुनद्वेषविप्लवः ? ।। १ ।। तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि किं जीवन्ति विवेकिनः ? || २ || विपक्ष विरक्त ' चेत्स त्वमेवाथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं खद्योतो द्युतिमालिनः १ || ३ || स्पृहयन्ति त्वद्योगाय, यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कथैव का ? ॥ ४ ॥ त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो ह न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥ ५ ॥ स्वयं मलीमसाचारैः, प्रतारणपरैः परैः । वच्यते जगदप्येतत्कस्य पूत्कुर्महे पुरः ? ॥ ६ ॥ नित्यमुक्तान् जगज्जन्म - क्षेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान् को देवांश्चेतनः श्रयेत् ॥ ७ ॥ कृतार्था जठरोपस्थदुः स्थितैरपि देवतैः । भवादृशान्निहनुवते, हाहा ! देवास्तिका: परे ।। ८ ।। स्वपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च । सम्मान्ति देहे गेहे वा न गेहेनर्दिनः परे ॥ ९ ।। कामरागस्नेहरागा - वीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ।। १० ।। प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढ़, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥ ११ ॥ तिष्ठेद्वायुर्द्व 1 " " Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ वेदद्रि-ज्वलेजलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागाधर्नाप्तो भवितुमर्हति ॥ १२ ॥ इति षष्ठप्रकाशः ____ धर्माधर्मी विना नाङ्गं, विनाङ्गेन मुखं कुतः ? । मुखाद्विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? ॥१॥ अदेहस्य जगत्सर्गे, प्रवृत्तिरपि नोचिता। न च प्रयोजनं किञ्चित्स्वातन्त्र्यान्न पराज्ञया ॥ २ ॥ क्रिडया चेत्प्रवर्तेत, रागवान्स्यात्कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥ ३ ॥ दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ? ॥४॥ कर्मापेक्षः स चेत्तहि, न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना? ।।५॥ अथ स्वभावतो वृत्ति-रविता महेशितुः । परीक्षकाणां तयेष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥ सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥७॥ सृष्टिवादकुहेवाकमुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते, येषां नाथ ! प्रसीदसि ॥ ८ ॥ इति सप्तम्प्रकाशः । सत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे, कृतनाशाकृतागमौ । स्यातामेकान्तनाशेऽपि. कृतनाशाकृतागमौ ॥ १ ॥ आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान्न भोगः सुखदुःखयो एकान्तानित्यरूपेऽपि, न भोगः सुख दुःखयोः ॥ २॥ पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, नानित्यैकान्तदर्शने ॥ ३ ॥ क्रमाक्रमाभ्यां Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ नित्यानां, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥ ४॥ यदा तु नित्यानित्यत्व-रूपता वस्तुनो भवेत् । यथात्थ भगवन्नैव, तदा दोषोऽस्ति कश्चन ॥ ५॥ गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागरभेपजे ॥६॥ द्वयं विरुद्ध नैकत्राऽसत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि, दृष्टो मेचकवस्तुषु ॥७॥ विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४॥ चित्रमेकमनेकं च, रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ९ ॥ इच्छन्प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्वैगम्फितं गुणैः । सांख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१०॥ विमतिः सम्मतिपि, चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु, यस्य मुह्यति शेमुषी ॥११॥ तेनोत्पादव्ययस्थेमसम्भिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् । १२ ॥ । इत्यष्टमप्रकाशः । यत्राल्पेनापि कालेन, त्वद्भक्तैः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः ॥ ९ ॥ सुषमातो दुःषमायां, कपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, 'लाध्या कल्पतरोः स्थितिः ॥ २॥ श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्य-मेक छत्रं कलावपि ॥३॥ युगान्तरे. ऽपि चेन्नाथ !, भवन्त्युच्छङ्खलाः खलाः । वृथैव तर्हि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥ कल्याणसिद्धयै साधीयान, कलिरेख कषोपलः । विनाग्नि गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥ ५ ॥ निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं, मरौ शाखी हिमे शिखी । कलौ दुरापः Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ प्राप्तोऽयं त्वत्पादाब्जरजःकणः || ६ || युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वद्दर्शनविनाकृतः । नमोऽस्तु कलये यत्र त्वद्दर्शनमजायत ॥ ७ ॥ बहुदोषो दोषहीनात्त्वत्तः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्फणीन्द्र इव रत्नतः ॥ ८॥ । इति नवमप्रकाशः । मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥ १ ॥ निरीक्षितं रूपलक्ष्मीं, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥ २ ॥ संशयान् नाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतः परोऽपि किं कोऽपि गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुत: ? ॥ ३ ॥ इदं विरुद्ध श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः ? | आनन्दसुखसक्तिश्व, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥ ४ ॥ नाथेयं घट्यमानापि दुर्घटा घटतां कथम् ? । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु परमा चोपकारिता ॥ ५ ॥ द्वयं विरुद्ध ं भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता ॥ ६ ॥ नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुं क्षमः ? ॥ ७ ॥ शमोऽ तोऽद्भुतं रूपं सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ८॥ " । इति दशमप्रकाशः । निघ्नन्परीषहचमू - मुपसर्गान्प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥ १ ॥ अरक्को भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ॥२॥ सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥ ३ ॥ दत्तं न किचित्कस्मैचिन्नात्तं किनि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ त्कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्कला कापि विपश्चिताम् ॥ ४ ॥ यद्देहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ !, पादपीठे तवालुठत् ॥ ५ ॥ रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना । भीमकान्तगुणेनोच्चः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥ ६ ॥ सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिध्या, तत्प्रमाणं सभासदः ॥७॥ महीयसामपि महान् , महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥८॥ इत्येकादशप्रकाशः पट्वभ्यासादरैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सात्मीभावमागमत् ॥ १ ॥ दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥ विवेकशाणैर्वैराग्य-शस्त्र शातं त्वया तथा । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षादकुण्ठितपराक्रमम् ॥ ३ ॥ यदा मरुन्नरेन्द्र श्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥ ४ ॥ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥ ५॥ सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे। तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवान् ? ॥ ६ ॥ दुःखगर्ने मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥ ७ ॥ औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिघ्नाय, तायिने परमात्मने ॥ ८ ॥ इति द्वादशप्रकाशः Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥ १॥ भनक्तस्निग्धमनसममृजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां, शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ अचण्डवीरवृत्तिना, शमिना शमवर्त्तिना । त्वया काममकुट्यन्त, कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥ ३ ॥ अभवाय महेशाया-गदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद्भवते नमः ॥ ४ ॥ अनुक्षितफलोदग्रा-दनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥ ५ ॥ असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्त्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः ॥ ६॥ अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे। अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयापितः ॥७॥ फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किङ्कतव्यजडे मयि ॥ ८ ॥ इति त्रयोदशप्रकाशः मनोवचःकायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम् ॥१॥ संयतानि न चाक्षाणि, नैवो. च्छङ्खलितानि च । इति सम्यकप्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥ २ ॥ योगस्याष्टाङ्गता नूनं, प्रपश्चः कथमन्यथा ? । आबालभावतोऽप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥ ३ ॥ विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यदृष्टेऽपि, स्वामिन्नदमलौकिकम् ॥ ४ ॥ तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणि भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥ ५ ॥ हिंसका अप्युपकृता आश्रिता अप्युपेक्षिताः। इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् ? ॥६॥ तथा समाधौ परमे, त्वयात्मा विनिवेशितः । सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति, यथा न प्रतिपन्नवान् ॥ ७ ॥ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं, कथं श्रद्धीयतां परैः ? ॥ ८॥ इति चतुर्दशप्रकाशः जगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥ १ ॥ मेरुस्तृणीकृतो मोहात्पयोधि:ष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः, पाप्मभिस्त्वमपोहितः ॥२॥ च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा । यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानै त्मसात्कृतम् ॥ ३ ॥ यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ॥४॥ त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं. तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥ ५॥ अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदर्काय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥६॥ तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान्समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसैयेरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥ ७ ॥ भुवे तस्यै नमो यस्यां, तव पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, महे किमतः परम् ? ॥८॥ जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पट: ॥ ९ ॥ इति पञ्चदशप्रकाशः -:*:त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ ! परमानन्दसम्पदम् ॥ १॥ इतश्चानादिसंस्कारमूञ्छितो मूर्च्छयत्यलम् । रागोरगविषावेगो हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ रागाहिगरलाघातोऽकार्षे यत्कर्मवैशसम् । तद्वक्तुमपश्यतोऽस्मि, धिग्मे प्रच्छन्नपापताम् ॥ ३ ॥ क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः, क्षणं क्रद्धः Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ क्षणं क्षमी | मोहाद्यैः क्रीडयैवाहं कारितः कपिचापलम् ॥ ४ ॥ प्राप्यापि तव सम्बोधिं, मनोवाक्कायकर्मजैः । दुश्चेष्टितैर्मया नाथ !, शिरसि ज्वलितोऽनलः ॥ ५ ॥ त्वय्यपि त्रातरि त्रातर्यन्मोहादि - मलिम्लुचैः । रत्नत्रयं मे हियते, हताशो हा! इतोऽस्मि तत् || ६ || अन्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः । तत्तवाङ्ग्रौ विलग्नोऽस्मि नाथ ! तारय तारय ॥ ७ ॥ भवत्प्रसादेनैवाहमियतीं प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानीं तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥ ८ ॥ 'ज्ञाता तात ! त्वमेवैकस्त्वत्तो नान्यः कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥ ९ ॥ इति पोडशप्रकाशः स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन्, सुकृतं चानुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः ॥ १ ॥ मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतिकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूयादपुनः क्रिययान्वितम् ॥२॥ यत्कृतं सुकृतं किञ्चिद्रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमात्रानुसार्यपि ॥ ३ ॥ सर्वेषामहदादीनां यो योऽत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं सर्वं तेषां महात्मनाम् ||४|| त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धांस्त्वच्छासनरतान्मुनीन्, त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः || ५ || क्षमयामि सर्वान्सत्त्वान्सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्रयस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे || ६ || एकोऽहं नास्ति मे कचिन्न चाहमपि कम्यचित् । त्वदङ्घ्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥ ७ ॥ यावन्नाप्नोमि पदवीं, परां त्वदनुभावआम । तावन्मयि शरण्यत्वं मा मुञ्च शरणं भिते ॥ ८ ॥ इति सप्तदशप्रकाशः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ न परं नाम मृद्वेव, कठोरमपि किञ्चन । विशेषज्ञाय विज्ञप्यं स्वामिने स्वान्तशुद्धये ॥१॥ न पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविग्रहः । न नेत्रगात्रवकत्रादिविकारविकृताकतिः ॥२॥ न शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लवः । नाङ्गनाकमनीयाङ्गपरिष्वङ्गपरायणः ॥३॥ न गर्हणीयचरितप्रकम्पितमहाजनः । न प्रकोपप्रसादादिविउम्बितनरामरः ॥४॥ न जगजननस्थेमविनाशविहितादरः । न लास्यहास्य. गीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः ॥५॥ तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ? ॥६॥ अनुश्रोतः सरत्पर्णतणकाष्ठादियुक्तिमत् । प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ? ॥७॥ अथवाऽलं मन्दबुद्धिपरीक्षकपरीक्षणैः । ममापि कृतमेतेन, वैयात्येन जगत्प्रभो ! ॥८॥ यदेव सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणम् । परीक्षन्तां कृतधियस्तदेव तव लक्षणम् ॥९॥ क्रोधलोभभयाक्रान्तं, जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां, वीतराग ! कथञ्चन ॥१०॥ इत्यष्टादशप्रकाशः 卐 तव चेतसि वर्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा। मञ्चित्ते वर्तसे वेत्त्वमलमन्येन केनचित् ॥ १॥ निगृह्य कोपतः कांश्चित् , कांश्चित्तुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥ २ ॥ अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं, फलमेतदसङ्गतम् ? । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतनाः ? ॥ ३ ॥ वीतराग ! सपर्यातस्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥ ४ ॥ आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा। आश्रवः सर्वथा हेय, उपादेय च संवरः ॥ ५ ॥ आश्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहतीमुष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ इत्याज्ञाराधनपरा, अनन्ताः परिनिर्वृताः। निर्वान्ति चान्ये क्वचन, निर्वास्यन्ति तथाऽपरे ॥ ७ ॥ हित्वा प्रसादनादैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥ ८ ॥ इत्येकोनविंशतितमप्रकाशः पादपीठलुठन्मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् ॥ १॥ मद्दशौ त्वन्मुखासक्ते, हर्षबाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षणात्क्षालयतां मलम् ॥२॥ त्वत्पुरो लुठनै यान्मद्भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य, प्रायश्चित्तं किणावेलिः ॥ ३ ॥ मम त्वद्दर्शनेोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्थामसद्दर्शनवासनाम् ॥४॥ त्वद्वक त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयर्लोचनाम्भोजः, प्राप्यतां निनिमेषता ॥ ५ ॥ त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥ ६ ॥ कण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तहि, स्वस्त्येतस्यै किमन्यया ? ॥ ७॥ तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रवे ॥८॥ श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥ ९ ॥ इति विंशतितमप्रकाशः ॥ इति श्रीवीतरागस्तोत्रम् ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WWW WWW WWW WA WWWWWWWWW wwwww