________________
परहियकरणुज्जयाणुकंपाए । बोहिंति सुत्तविहिणा पन्नवणिज्जं वियाणंता ॥१०॥ सोवि असग्गहचाया सुविसुध्धं दसणं चरित्तं च । आराहिउ समत्यो होइ मुहं उज्जुभावाओ ॥१०९॥ सुगइनिमित्तं चरणं तं पुण छक्कायसंजमो चेव। सो पालिउ न तीरइ विगहाइपमायजुत्तेहिं ॥११०॥ पव्वज्जं विज्जंपिव साहितो होइ जो पमाइल्लो । तस्स न सिज्झइ एसा करेइ गरूयं च अवयारं ॥११॥ पडिलेहणाइचेट्ठा छक्कायविधाइणी पमत्तस्स । भणिया सुयंमि तम्हा अपमाई सुविहिओ होइ ॥११२॥ रक्खइ वएसु खलियं उवउत्तो होइ समिइगुत्तीसु । वज्जइ अवज्जहेउ पमायचरियं सुथिरचित्तो ॥११३।। कालंमि अणूणहियं किरियंतरविरहिओ जहासुत्तं । आयरइ सव्वकिरिय अपमाई जो इह चरित्ती ॥११४॥ *संघयणादणुरूवं आरंभइ सक्कमेवणुट्ठाणं । बहुलाभमप्पच्छेयं सुयसारविसारओ सजई ॥११५।। जह तं बहुं पसाहइ निवडइ अस्संजमे दढं न जओ। जणिउज्जमं बहूणं विसेसकिरियं तहा ढवइ ॥११६।। गुरुगच्छुन्नइ. हे कयतित्थपभावणं निरासंसो। 5 अजमहागिरिचरियं समरंतो कुणइ सकिरियं ॥११७।। सक्रमि नो पमायइ असक्ककज्जे पवित्तिमकुणंतो । सकारंभो चरणं विसुद्धमणुपालए एवं ॥११॥ जो गुरुमवमन्नतो आरंभइ किर असक्कमवि किंचि । - सिवभूइव्व न एसो सम्मारंभो महामोहा ॥११९।। *जायइ गुणेसु रागो सुद्धचरित्तस्स नियमओ पवरो । परिहरइ तो दोसे गुणगणमालिन्नसंजणणे ॥१२०।। गुणलेसंपि पसंसइ गुरुगुणबुद्धीए परगयं एसो। दोसलवेणवि निययं गुणनिवहं निग्गुणं गणइ ॥१२१।। पालइ संपत्तगुणं गुणड्ढसंगे पमोयमुव्वहइ । उज्जमइ भावसारं गुरुतरगुणरयणलाभत्थी ॥१२२॥ सयणोत्ति व सीसोत्ति व उवगारित्ति व गणिव्वओ वत्ति । पडिबंधस्स न हेऊ नियमा एयस्स गुणहीणो