Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 01 Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal Catalog link: https://jainqq.org/explore/010116/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच बोल नौ पदार्थ संयोग संयोगी भाव स्वभाव. त्रिकाली स्वभाव के साधन सिद्धत्व प्रजीव प्रास्रव बंध पुण्य-पाप जीब सम्वर निर्जरा मोक्ष चार काल अनादि अनन्त अनादि सांत 5 सम्यग्दर्शनादि प्राप्त पाँच भाव X प्रनादिप्रनन्त पारिणामिक भाव मुखदायक दुःखदायक प्रदयिक दुःखदायक भाव X सादिसांत पशमिक परम सुखदायक एकदेश धर्म का सुखदायक क्षायोपशमिक क्षायिक भाव सादिश्रनन्त पूर्ण क्षायिक पूर्ण देश भाव सुखदायक देवगुरु धर्म X X धर्म गुरू देव Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रने का सरल उपाय RY पांचप्रकार | पाँच प्रकार उत्तमक्षमा ईर्या समिति पांच प्रकार | बचन गुप्ति पांच प्रकार संच प्रकार | संयोग की पृथकत | सुधा-परिषह | नमस्कार... | प्रादि तीन बोल . जड जडं उत्तम क्षमा जड ईर्यासमिति जड वचन गुप्ति जड़ क्षुधा परिषह जड़ दि संयोग की नमस्कार पृथकता द्रव्य द्रव्य जड द्रव्य विभावरूप द्रव्य ईसमिति उत्तम क्षमा नमस्कार वचन गुप्ति क्षधा परिषह शक्ति रूप उत्तम क्षमा शक्तिरूप शक्ति रूप | शक्तिरूप शक्ति रूप | परम स्वभाव ईर्या| वचन- । क्षधा | नमस्कार | की सामर्थ्यता समिति ! गुप्ति | परिषह एकदेश | एकदेश | एकादेश | एकादेश | एकदेश | एकदेश भाव | भाव ईर्या भाव | भाव | भाव | स्वभाव की उत्तम क्षमा समिति वचनगुप्ति क्षुधापरिषह नमस्कार | सामर्थ्यता पूर्णदेश । पूर्णदेश | पूर्ण देश | पूर्णदेश | पूर्णदेश | पूर्णदेश भाव | भाव ईर्या, भाव | भाव | भाव- | स्वभाव की उत्तमक्षमा समिति | वचनगुप्ति | क्षधापरिषदा नमस्कार | सामर्थ्यना Page #4 -------------------------------------------------------------------------- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला ( प्रथम भाग ) प्रस्तावना सन् १९६९ श्रावण मास में प्रथम बार, पं० कैलाश चन्द्र जी बुलन्दशहर वालों को शुभ प्रेरणा से हमको अध्यात्म सत् पुरुष श्री कांजी स्वामी के दर्शन हुए। जगत के जोव दुःख से छुटने के लिए और सुख प्राप्त करने के लिये सतत् प्रयत्नशील हैं। परन्तु मिथ्यात्व के कारण जगत के जीवों के समस्त उपाय मिथ्या है । सुखी होने का उपाय एक मात्र अपने शुद्ध स्वरूप की पहिचान उसका नाम सम्यम्दर्शन है। ऐसे सम्यग्दशन का उपदेश ही श्री कांजी स्वामीके प्रवचनों का सार है। हमें लगता है भव्य जीवों के लिए इस युग में श्री कांजी स्वामी के उपकार करोड़ों जबानों से कहे नहीं जा सकते हैं । सोनगढ़ में श्री खेमचन्द भाई तथा श्री राम जी भाई से जो कुछ हमने सीखा पढ़ा है उसके अनुसार श्री कैलाश चन्द्र जो द्वारा गुन्थित प्रश्नोत्तर का हम बारम्बार मनन किया तो हमें ऐसा लगा कि हमारे जैसे तुच्छ बुद्धि जीवों की बहुलता है | अपना हित करने में निमित्त रूप से प्रश्नोत्तर के रूप में जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ होगा । हमने पंडित कैलाश चन्द्र जी से इस ग्रन्थ को छपा देने की इच्छा व्यक्त की । उनको अनुमति पाकर, मुमुक्षत्रों को सद्मार्ग पर चल कर अपना प्रात्महित करने का बल मिले ऐसी भावना से यह पुस्तक प्रापके हाथ में है । इस रत्नमाला में मुमुक्षुत्रों के अध्ययन के लिए अत्यन्त उपयोगी ऐसे द्रव्य, गुण, पर्याय, छह सामान्य गुण और चार अभाव लिए गये हैं। इसके अभ्यास से अवश्य ही पर में कर्ता - भोक्ता को खोटी बुद्धि का प्रभाव होकर जीवों को धर्म की प्राप्ति का अवकाश है। ऐसी भावना से ओतप्रोत होकर हम बात्मार्थियों से निवेदन करते हैं कि इस पुस्तक का अभ्यास कर अपने हितमार्ग पर आरूढ़ होवें । विनीत मुमुक्षु मन्डल श्री दिगम्बर जैन मन्दिर सरनीमल हाऊस, देहरादून । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति On w . कृपया शुद्धि ठोक करके पढ़े शुद्ध हिला पहला और सम्यग्दर्शनादि किसे कहते हैं ? इन सब में एकत्व का ज्ञान प्रगृहोत मिथ्याज्ञान है । । -एमा मानकर अपने पात्मा का प्राश्रम ले तो स्वयं की पहिबान हो। x १४ १८ सामन्य सामान्य ३४ कुज २० १७ ठहरने अवगाहन २२ ११ कार्मण कार्माण २८५ कामग कारण ३० सबसे उपर प्र० ५३ अज्ञानी हल्का भारी को जानकर रागद्वेष कसे करता है ? ३० १ प्र. ५३ उत्तर २३ कौन कौन है ? धम धर्म धर्म अधर्म धर्म अाकाश अधर्म धर्म द्रय द्रव्य अलाकाश प्रलोकाकाश लोककाश लोकाकाश प्रत्तर अन्तर अनंतनंत मनन्तानन्त ५४ १३ बष्टि वृद्धि ५४ एकमत्र एकमात्र उपशम औपशमिक GGC Aw x m woram Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ५५ पंक्ति १७ ५६ १७ कृपया शुद्धि ठोक करके पढ़े अशुद्ध शुद्ध मोर कसा करने से श्रावकपना प्राता है। द्रव्यो द्रव्य ४८ सम्पूरण सम्पूर्ण समननाति समानजातीय मिलने मिटाने नर्तमान वर्तमान ४६ २२ or m ११२Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग मुख्य विषय पाठ नं० प्रकरण ܐ ४ ७ ८ ε १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० तुम कौन हो ? विश्व जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्य धर्म और अधर्म द्रव्य प्रकाश द्रव्य काल द्रव्य द्रव्य गुण पर्याय अस्तित्व गुरण वस्तुत्व गुण द्रव्यत्व गुण प्रमेयत्व गुरण मगुरुलघुत्व गुरण प्रदेशत्व गुरण छह सामान्य गुणों को एक वाक्य पर कैसे लगाना ? चार प्रभाव मिले जुले प्रश्नोत्तर छह सामान्य गुरण के दोहे पृष्ठ १ ५ १४ २२ ३५ ४१ ४६ ४६ ६६ ७४ 5€ १०८ ११८ १२८ १४५ १५८ १६८ १७६ १८६ २०७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः॥ जैन सिद्धांत प्रवेश रत्नमाला णमो परहंतारणं, णमो सिद्धाणं, णमो पाइरियारणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ प्रात्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा, मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।। गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू पांय । बलिहारी गुरु कहान की, भगवन दियो बताय ।। पाठ पहिला प्र० १. तुम कौन हो? उ० मैं ज्ञान दर्शन चारित्र आदि अनन्त गुणों का प्रभेद पिण्ड प्रात्मा हूँ प्र० २. तुम कौन नहीं हो ? उ० अत्यन्त भिन्न पदार्थ, आंख, नाक, शरीर, मन, वाणी, पाठ कर्म शुभाशुभ विकार में नहीं हूं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ३. उ० प्र० १. उ० प्र० ५. उ० के कारण अनादिकाल से एक एक समय करके, अपनी मूर्खता से दुःखी हो रहा हूं । प्र० ६. उ० प्र० ७. उ० तुम कब से हो ? मैं तो जन्म मरण रहित श्रनादि अनन्त जीव हूं । जन्म मरण तो होता है, क्या यह बात असत्य है ? प्र० ८. शरीर का संयोग वियोग होता है, मेरा नहीं । तुम दुःखी क्यों हो ? ज्ञान दर्शनादि प्रभेद स्वयं को भूलकर, मोहरूपी शराब पीने मिथ्यात्व क्या है ? मिथ्यात्व जुना, मांस आदि सप्त व्यसनों से भी बड़ा पाप है । मिथ्यात्व सप्त व्यसनों से भी बड़ा पाप है यह कहाँ प्राया है ? मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १९१ में लिखा है "जिन धर्म में तो यह माम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया है, इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादिक से भी बड़ा पाप जानकर पहिले छुड़ाया है । इसलिए जो पाप के फल से डरते हैं, अपने आत्मा को दुःख समुद्र में डुबाना नहीं चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोड़ । सर्व प्रकार के मिथ्यात्व भाव को छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना योग्य है, क्योंकि संसार का मूल मिथ्यात्व है और मोक्ष का मूल सम्यकत्व है । प्र० ६. 딩 उ० अपनी मूर्खता क्या है ? मिथ्यात्व | मिथ्यात्व कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का है । (१) श्रगृहीत मिथ्या दर्शन ज्ञान चारित्र जो अनादिकाल से एक एक समय करके चला आ रहा है । (२) गृहीत मिथ्यादर्शन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान चारित्र जो मनुष्य जन्म पाने पर कुदेव, कुगुरु, कुधर्म से समय समय पर ग्रहण करता है। प्र० १०. अगृहीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र किसे कहते हैं ? उ० ज्ञान दर्शन चारित्र प्रादि अनंत गुणों के प्रभेद पिण्ड मेरी प्रात्मा के अलावा बाकी अनंत प्रात्माए जिसमें २४ तीर्थकर, देव, गुरू, स्त्रो,पुत्रादि द्रव्यकर्म सोना, चाँदो, मकान, दुकान, शरोर मन वाणी, धर्म, अधर्म, आकाश और लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्यों में चारो गतियों के शरीर व भावों में, ज्ञय से ज्ञान होता है और शुभाशुभ विकारी भावों में एकत्व को बुद्धि अगृहीत मिथ्यादर्शन है। इन सबमें एकत्व रूप आचरण अगृहोत मिथ्या चारित्र है। इन सबमें भिन्नत्व की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है । भिन्नत्व का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और भिन्नत्व का आचरण सम्यक चारित्र है । प्र० ११. तुमने आज तक क्या किया ? उ० पर पदार्थों को अपना मानकर मात्र मोह राग दंप किया । प्र० १२. अब क्या करू ? उ० ज्ञान दर्शन चारित्र आदि अनंन गुणों का पिण्ड जो स्वयं है उसको पहिचान कर। प्र० १३. अपनी पहिचान मैं कैसे करू? उ० मिथ्यादृष्टि को मर्यादा विकारी भावों तक है । ज्ञानियों की मर्यादा शुद्ध भावों तक है । परन्तु पर पदार्थों में ज्ञानी अज्ञानी कुछ भी नहीं कर सकता है। प्र. १४. संसार और मोक्ष क्या है ? उ. (१) प्रात्मा ज्ञातो दृष्टा के उपयोग को जब 'पर' पदार्थ को Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोर लक्ष्य करके पर में दृढ़ कर लेता है 'यह मैं' इसका नाम संसार है। (२) प्रात्मा ज्ञाता दृष्टा के उपयोग को जब स्व की ओर लक्ष्य करके स्व में दृढ़ कर लेता है 'यह मैं' इसका नाम मोक्ष है। प्र० १५. संसार का प्रभाव और मोक्ष की प्राप्ति के लिए क्या करें ? उ० अपनी प्रात्मा के आश्रय के बिना संसार का प्रभाव और मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती है । इसलिए अपने स्वभाव का आश्रय लें। प्र० १६. जिसको कुछ भी पता नहीं है, वह क्या करे, तो संसार का प्रभाव और मोक्ष की प्राप्ति का अवकाश हो । उ० (१) विश्व (२) द्रव्य (३) गुण (४) पर्याय (५) अस्तित्व आदि ६ सामान्य गुण और चार प्रभाव का पता चले तो कल्याण का अवकाश है । इसलिये इसमें क्रम से सबको प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा जाता है। इन सबको जानकर, श्रद्धान कर, स्थिरता करे तो धर्म की शुरूआत वृद्धि और कम से पूर्णता होकर मोक्ष का नाथ बन जावे । - - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १. उ० प्र० २. उ० प्र० ३. उ० उ० पाठ दूसरा विश्व प्र० ४. हमें तो विश्व में बहुत से द्रव्य दिखते हैं आप छह ही क्यों कहते हो ? जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं । संख्या अपेक्षा अनंतानंत हैं । विश्व किसे कहते हैं ? छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं । विश्व के पर्यायवाची शब्द क्या क्या हैं ? जगत, लोक, दुनिया, ब्रह्माण्ड, संसार, वर्ल्ड विश्व में कितने द्रव्य हैं ? छह द्रव्य हैं । उ० (६) काल प्र० ६. 영 प्र० ५. जाति अपेक्षा छह द्रव्य कौन २ से हैं ? (१) जीव (२) पुद्गल (३) धर्म (४) अधर्म ( ५ ) प्राकाश जीव कितने हैं और कहाँ २ पर रहते हैं ? जीव द्रव्य अनंत हैं और सम्पूर्ण लोकाकाश में भरे हुए हैं। प्र ७. पुद्गल द्रव्य कितने हैं और कहां २ पर रहते हैं ? उ० जीव द्रव्य से अनंत गुणा अधिक पुद्गल द्रव्य हैं और वे सम्पूर्ण लोकाकाश में भरे पड़े हैं । प्र० ८. धर्म अधर्म कितने कितने हैं और कहाँ २ पर रहते हैं ? Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० धर्म और अधर्म द्रव्य एक एक हैं और सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं। प्र०६. आकाश द्रव्य कितने हैं और कहां पर रहते हैं ? उ० प्राकाश द्रव्य एक है, लोकाकाश और अलोकाकाश में व्याप्त है । प्र० १०. काल द्रव्य कितने हैं और कहाँ पर रहते हैं ? . उ० लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्य हैं और वह लोकाकाश के एक-२ प्रदेश पर रत्नों की भांति जड़े हुये हैं। प्र० ११. विश्व में छह जातियों के द्रव्य हैं इसको जानने से हमें क्या लाभ है। उ० हम केवली भगवान के लघुनंदन बन जाते हैं। प्र० १३. विश्व में छह जातियों के द्रव्य हैं, इसको जानने से हम केवली . भगवान के लघुनंदन कैसे बन जाते हैं ? उ० जैसे हमारी तिजोरी में छह रुपये हैं, हमारे ज्ञान में मो छह रुपए हैं और हमारो कापी में भी छह रुपया लिखा है। जब तीनो स्थान बराबर ही हो तो हिसाब ठीक है, उसी प्रकार के वलो भगवान को दिव्यध्वनि में छह द्रव्य पाये, शास्त्रों में भी छह द्रव्य प्राये, और हमारे ज्ञान में भी छह द्रव्य प्राये । इस प्रकार जितना केवली भगवान जानते हैं उतना ही , हमने जाना, इस अपेक्षा हम केवलो के सच्चे लघुनंदन बन गये । प्र० १४. जितना केवली भगवान जानते हैं उतना ही हम जानते हैं, तो उनके और हमारे जानने में क्या फर्क रहा ? उ० जानने में कोई अन्तर नहीं; मात्र प्रत्यक्ष परोक्ष का ही भेद है । ऐसा समयसार ची गा० १४३ की टीका भावार्थ में तथा रहस्यपूर्ण, चिट्ठी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) में भी पाया है। प्र० १५. जब केवली के ज्ञान में सब द्रव्यों के सर्व गुण पर्याय ज्ञान में प्राते हैं और वैसा हो होता है वैसा ही हो रहा है, वैसा ही होता रहेगा. इसको जानने से हमें क्या लाभ है ? उ० (१) अनादि से जो पर मैं कर्ता भोक्ता को बुद्धि थी उसका प्रभाव हो जाता है। (२) मिथ्यात्व का प्रभाव होकर सम्यग्दर्शनादि को प्राप्ति कर मोक्ष की प्रोर गमन । प्र० १६. केवली भगवान सब द्रव्यों का भूत भविष्य वर्तमाम को एक समय में युगपत जानते हैं, कहां २ पर पाया है ? उ० चारों अनुयोगों के शास्त्रों में पाया है। (१) सर्व द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य (मोक्ष शास्त्र अध्याय १ सूत्र २६) (२) प्रवचनसार गा० ३७, ३८, ४७, ४८. २०० में पाया है । (३) धवला पुस्तक १३ पृष्ठ ३४६ से ३५३ तक । (४) छहढाला में-'सकल द्रव्य के गुण अनन्त, परजाय अनन्ता, जानै एक काल प्रगट केवलि भगबन्ता' । (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्लोक १३७ के भावार्थ में लिखा है जिस जोव के जिस देश में जिस काल में जिस विधान करके जन्म मरण का लाभ-अलाभ, सुख-दुःख होना जिनेन्द्र भगवान दिव्य ज्ञान कर जाना है, तिस जीव के तिस देश में, तिस काल में, तिस विधान करके जन्म मरण लाभ नियमते होय ही. ताहि दूर करने कूकू कोऊ इन्दमहमिन्द्र जिनेन्द्र समर्थ नाही है। ऐसे समस्त द्रव्यनि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० प्र० १६. फिर जब केवली के ज्ञान में आया है वैसा ही प्रत्येक द्रव्य का स्वतंत्र परिरणमन हो रहा है तब यह अज्ञानी जीव क्यों नहीं मानता ? अज्ञानी जीव को चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना अच्छा लगता है इसलिए नहीं मानता है । उ० ( प्र० १७. विश्व को जानने से तोमरा लाभ क्या रहा ? जैसे हमारी जेब में छह रुपए हैं इसके बदले कोई यह कहे कि यह तो एक रुपया है, तो श्राप क्या कहेंगे ? यह झूठा है । उसी प्रकार विश्व में एक मात्र भगवान ग्रात्मा है और कुछ नहीं ऐसी मान्यता वाला एक मत है और हमने छन् द्रव्य जाने, तो वह झूठा है यह तीसरा लाभ रहा । उ० ८ ) उ० को समस्त पर्यायनि जान है श्रद्धान करे है सो सम्यग्दृष्टि दार्शनिक श्रावक प्रथम पद धारक जानना । प्र० १८. विश्व को जानने से चौथा लाभ क्या रहा ? जैसे हमारी जेब में छह रुपए हैं उसके बदले कोई पांच कहे, तो प्राप क्या कहेंगे ? यह झूठा है । उसी प्रकार हमने छह द्रव्य जाने; इसके बदले एक मत ऐसा है कि बह काल द्रव्य को छोड़कर पांच ही द्रव्य हैं ऐसा मानता है तो हमें पता चला यह भी झूठा है यह चौथा लाभ रहा । प्र० १६. एक मात्र जीव द्रव्य को कौन मानता है ? उ० वेदान्त मत । प्र० २०. पांच द्रव्य को कौन मानता है ? श्वेताम्बर । उ० प्र ० २१. विश्व को जानने से पांचवा क्या लाभ रहा ? जैसे हमारे पास छह रुपए हैं उसे कोई कम कहे या ज्यादा कहे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( C ) तो हमें पता चल जाता है यह सब झूठे हैं; उसी प्रकार हमने विश्व में छह जाति के द्रव्य जाने, कोई कम ज्यादा कहता है वह झूठा है। एक मात्र हम ही सच्चे हैं ऐसा ज्ञान विश्व को जानने से हो जाता है । प्र० २२. छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहा है क्या वे आपस में मिले हुए हैं? उ० प्रत्येक द्रव्य पृथक २ रहकर अपना २ कार्य करता है वे प्रापस में मिले हुए नहीं है । प्र० २३. प्रत्येक द्रव्य अलग २ अपना २ कार्य करता है पूजा में कहीं श्राया है ? 'जड़ चेतन की सत्र परिणति प्रभु, प्रपने २ में होती है । अनुकूल कहें, प्रतिकूल कहें यही झूठो मन की वृत्ति है । ( देव गुरु शास्त्र की पूजा से ) प्र० २४. प्रत्येक द्रव्य अपना २ कार्य करता है क्या श्रीसमयसार जी में आया है ? उ० प्राया है- "लोक में सर्वत्र जो कुछ एकत्व निश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को प्राप्त होते हैं । 'वे सब पदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं— स्पर्श करते हैं, तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते । प्रत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाह रूप से तिष्ठ रहे हैं, तथापि वे सदा काल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते । पर रूप परिणमन न करने से अपनी अनन्त व्यक्ति नष्ट नहीं होती । इसलिए जो टंकीर्णं ती भाँति स्थिर रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा प्रविरुद्ध कार्य दोनों की हेतुता से वे विश्व का सदा उपकार करते हैं अर्थात् टिकाये रखते हैं । उ० श्री समयसार गा० ३ में जितने पदार्थ हैं वे सब निश्चय से Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० २५. प्रत्येक द्रव्य अपना २ हो स्वतन्त्र कार्य करता है ऐसा प्राचार्यकल्प पं० टोडरमल जी ने भी कहीं कहा है ? उ० मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५२ में लिखा है "अनादिनिधन वस्तुएं भिन्न २ अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं कोई किसी के प्राधीन नहीं है कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होतो और परिगणमाने का भाव मिथ्यादर्शन है।" प्र० २६. प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र रूप से परिणमन करता है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिगमित नहीं होता और परिण माने का भाव मिथ्यादर्शन है तो शास्त्रों में पाना है (१) कर्म चक्कर कटाता है, (२) ज्ञानावर्गी ज्ञान को रोकता है. (३) अघातियां कर्म परहंत भगवान को मोक्ष में नहीं जाने देते, (४) अखि कान नाक से ज्ञान होता है, (५) गुरु से ज्ञान होता है प्रादि ऐसा कथन शास्त्रों में क्यों प्राता है ? उ० वास्तव में यथार्थ बात कहने में नहीं पा सकती है इसलिए जितना ऐसा व्यवहार का कथन है वह घी के घड़े के समान जानना । और उसका अर्थ 'ऐसा है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । प्र० २७. छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इन छः द्रव्यों में कैसा सम्बन्ध है ? उ० एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। प्र० २८. सम्बन्ध कितने प्रकार का है ? उ० तीन प्रकार का है । (१) एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध (२) अनित्य तादात्म्य संबंध और (३) नित्य तादात्यम्य संबंध । प्र० २९. एकक्षेत्रावगाही संबंध किसका किसके साथ है ? Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( ११ ) (१) छह द्रव्यों का एक क्षेत्रावगाही संबंध है । ( २ ) शरीर और आठ कर्मों का एक क्षेत्रावगाही संबंध है । प्र० ३०. स्त्री पुत्र, धन, दुकान, मकान, सोना, चाँदी का इन तीनों संबंधों में से कौन सा संबंध है ? उ० स्त्री पुत्र प्रादि का तो किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है । जैसे वृक्ष पर पक्षी ग्राकर बैठ जाते हैं कोई एक घन्टे में कोई दो घन्टे में उड़ जाता है; उसी प्रकार स्त्री पुत्र मकान आदि का संबंध है अर्थात् किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है । प्र० ३१. जब स्त्री पुत्र प्रादि का किसो भो प्रकार का संबंध नही है तो यह मूर्ख जोव क्यों पागल हो रहा है ? अपने आपका पता न होने से, पर पदार्थों में इसके साथ किसी भी प्रकार का संबंध न होने से, वह अपनी मूर्खता से झूठा संबंध मानकर पागल बन रहा है । उ० प्र० ३२. यह पागलपन कैसे मिटे ? उ० विश्व में छह जाति के द्रव्य हैं। एक एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का कर्त्ता भोक्ता आदि किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है प्रत्येक द्रव्य क्रमबद्ध, क्रमनियमित कायम रहता हुआ स्वयं बदलता रहता है । मैं उनमें कुछ भी हेरफेर नहीं कर सकता हूं ऐसा जानकर अपने त्रिकाली भगवान का श्राश्रय ले तो पागलपन मिटे । प्र० ३३. जो अपनी मूर्खता है उसका श्रात्मा के साथ कैसा संबंध है ? उ० शुभाशुभ विकारी भावों के साथ श्रात्मा का अनित्य तादात्म्य संबंध है । प्र० ३४. जो जीव दयादान पूजा अणुव्रत महाव्रत प्रादि जो श्रमित्य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) तादात्म्य संबंध है इनसे मोक्षमार्ग माने तो क्या होगा ? उ० जैसे करेला कड़वा ऊपर से नीम चढ़ा; उसी प्रकार दिगम्बर धर्म धारण करने पर इन विकारी भावों से मोक्षमार्ग माने तो मिथ्यात्वादि की पुष्टि होकर निगोद में चला जावेगा। और शुभ भावों को पुण्यबन्ध का कारण माने तो उसका प्रभाव करके मोक्षमार्ग में प्रवेश कर सकता है । प्र० ३५. जिप्रका आत्मा से कभी भी प्रभाव ना हो, ऐसा कोई सम्बन्ध है? उ० प्रात्मा और ज्ञान दर्शन चारित्र आदि अनंत गुग्गों का प्रात्मा के गाथ नित्यतादात्म्य संबंध है ऐसा जानकर अभेद अपनो आत्मा का प्राश्रय ले तो सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती है। प्र० ३६. तीनों प्रकार के संबंध को जानने से क्या लाभ है ? (१) जो अत्यन्त भिन्न पदार्थ है उनसे मेरा किसी प्रकार का संबंध नहीं। (२) शरीर और कर्म का एक क्षेत्रावगाही संबंध है मेरा इसके साथ अत्यंताभाव है। (३) शुभाशुभ विकारी भावों के साथ अनित्य तादात्म्य सम्बन्ध है इनके प्राश्रय से जीव को दुःख होता है ऐसा जानकर (४) नित्यतादात्म्य सम्बन्ध जो प्रात्मा का अपने गुणों के साथ है उसका प्राश्रय ले तो मोक्षमार्ग को प्राप्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। प्र० ३७. छह द्रव्यों के समूह को एक नाम से क्या कहते हैं ? उ० विश्व । प्र० ३८. विश्व में छह द्रव्य हैं यह कथन कैसा है ? उ. व्यवहारनय का कथन है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) प्र० ३६. विश्व में छह द्रव्य हैं इसका निश्चय कथन क्या है ? उ० प्रत्येक द्रव्य अपने अपने क्षेत्र में है अर्थात् अपने २ द्रव्य क्षेत्र काल भाव में है यह निश्चयनय का कथन है । प्र० ४०. छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं ऐसा कौन जानता है ? उ० ज्ञानी जानते हैं अज्ञानी नहीं । प्र० ४१. विश्व को जानने वालों को किस किस नाम से कहा जाता है ? उ० (१) जिन (२) जिनवर (३) जिनवर वृषभ । प्र० ४२. क्या द्रव्यलिंगी मुनि छह द्रव्यों को नहीं जानता ? उ० नही जानता है । देखो कलश टीका पहिला कलश । प्र० ४३. छह द्रव्यों के समूह को क्या कहते हैं ? उ० विश्व । प्र० ४४. विश्व में कितने द्रव्य हैं ? उ० जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं। (१) जीव (२) पुद्गल (३) धर्म (४) अधर्म (५) अाकाश (६) काल । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १. उ० प्र० ३. 영 कहते हैं? प्र० २. चैतन्य किसका लक्षरण है ? उ० जीव द्रव्य का । चैतन्य से क्या तात्पर्य है ? चैतन्य से ज्ञान दर्शन गुरण का ग्रहण होता है । प्र० ४. क्या चैतन्य हो श्रात्मा का लक्षण है, उसके बाकी गुणों का क्या हुप्रा ? पाठ ३ जीव उo चैतन्य गुण जानने देखने का कार्य करता है और गुरण जानने देखने का कार्य नहीं करते हैं भोर चैतन्य कहते ही उसके बाकी सब गुग्ग साथ में ना जाते हैं ऐसा पात्र जीव जानता है । प्र० ५. नीव किसे कहते हैं ? जिसमें चेतना अर्थात् ज्ञान दर्शन रूप शक्ति हो उसे जीव श्री समयसार जी में आत्मा को 'ज्ञान' ही क्यों कहा है ? 'ज्ञान' कहते ही प्रात्मा का ग्रहरण हो जाता है इसलिए आत्मा को ज्ञान कहा है । ज्ञान कहते हो और गुरण भी साथ में आ जाते हैं । प्र० ६. जीव द्रव्य में सामान्य गुरण कितने हैं और कौन २ से ? अस्तित्व, वस्तुत्व श्रादि अनेक सामन्य गुरण है । प्र० ७. जीव द्रव्य में विशेष गुण कितने हैं और कौन से ? उ० उ० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) उ० जीव द्रव्य में चैतन्य (ज्ञान-दर्शन) श्रद्धा, चारित्र, सुख, क्रियावती शक्ति इत्यादि अनेक विशेष गुण हैं । प्र० ८. जब जोव द्रव्य में सामान्य और विशेष गुण अनेक हैं नो सबके नाम क्यों नहीं बताये ? उ० हमारा प्रयोजन मोक्षमार्ग की सिद्धि करना है । सो जिन सामान्य विशेष गुणों को श्रद्धान करने से मोक्ष हो, और जिनका श्रद्धान किये बिमा मोक्ष ना हो उन्हीं का यहां हमने वर्णन किया है । Fok: जीव कितने हैं ? उ० अनन्त हैं। प्र० १०. जीव अनन्त हैं कब माना ? उ० मैं एक जीव हूं दूसरे भी पृथक २ अनन्त जीव हैं। प्रत्येक जीव अपने गुण पर्यायों सहित अपने अपने द्रव्य क्षेत्र-काल भाव में ही वर्त रहा है वर्तेगा और वर्तता रहा है। अनन्त जीवों के द्रव्य गुण पर्याय पृथक पृथक ज्ञान में आवे तब जीव अनन्त है ऐसा माना । प्र० ११. जीव अनन्त हैं ऐसा मानने वाले को क्या २ प्रश्न नहीं उठेगा। उ० (१) मैं दूसरे जीवों का भला कर दू (२) दसरे जीव मेरा भला कर दें। (३) भगवान देव गुरू मेरा भला करदें, कोई दुश्मन मेरा बुरा करदे आदि प्रश्न नहीं उठ सकते हैं क्योंकि जीव अनन्त है और प्रत्येक जीब का स्वचतुष्टय पृथक पृथक प्र० १२. जीव अनन्त हैं इसके जानने से दूसरा लाभ क्या रहा ? उ० जैसे वेदान्ती मानता है एक प्रात्मा है। और हमने जाना जीव अनन्त है एक मात्र प्रात्मा कहने वाला मूठा है ऐसा पता चल गया। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) प्र. १३ मेरा लक्षण ज्ञान दर्शनादि अनन्त गुण स्वरूप है इसके जानने मे क्या लाभ ? उ० मैं प्रात्मा (१) शरीर आंख नाक कान आदि; (२) पाठ कर्मों रूप (३) विकार रूप (४) परद्रव्यों रूप नही हूँ ऐसा पता चल गया। प्र. १४ मैं प्रात्मा शरीर, कान, पाठकर्म,पर द्रव्यों रूप, और विकार रूप मही हूं ऐसा जानने से क्या लाभ रहा ? उ० अनादिकाल मे नोव को मैं शरीर प्रांख नाक और शरीर को हिला डुला सकता हूं कर्म मुझे सुखी दुखी करते हैं । अशुभ भाव बुरा शुभ भाव अच्छा है ऐमी खोटो मान्यता का प्रभाव हो जाता है क्योंकि जब मैं इन रूप नही हूं तो इनमें करने धरने की बुद्धि का प्रभाव हो जाता है। प्र० १५ जो जीव ऐसा कहता है कि हमें तो उपयोग लक्षण वाला जीव दिखाई नहीं देता है हमें तो शरीर प्रादि रूप ही दिखाई देता है उससे प्राचार्य भगवान ने क्या कहा है ? उ० समयसार गा. ३४ में कहा है कि "नित्य उपयोग लक्षण वाला जीव द्रव्य कभी शरीर प्रांख नाक मन वाणी कर्म विकार रूप होता हुप्रा देखने में नही पाता और नित्य जड़ लक्षण वाला शरीर आदि पुद्गल द्रव्य कभी जीव द्रव्य रूप होता हम्रा देखने में नहीं प्राता, क्योंकि उपयोग और जड़त्व के एकरूप होने में प्रकाश पोर अन्धकार की भांति विरोध है। जड़ चेतन कभी भी एक नही हो सकते । वे सर्वथा भिन्न ही हैं । इसलिए हे भव्य तू सब प्रकार से प्रसन्न हो। अपना चित्त उज्जवल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही "यह मेरा है" ऐसा अनुभव कर । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) प्र. १६ 'जीव का लक्षण उपयोग है' कहाँ पाया है । उ० समस्त शास्त्रों में पाया है । (१) उपयोगो लक्षणम् (तत्वार्थ सूत्र अध्याय दूसरा सूत्र ८) (२) समयसार गा० २४ (३) छः ढाला में "चेतन को है उपयोग रूप" प्र० १७ जीव के कितने प्रदेश हैं ? उ० असंख्यात प्रदेश है । प्र० १८ संकोच विस्तार किसमें होता है ? उ० जीव के प्रदेश संकोच और विस्तार को प्राप्त होते है इसीलिए लोक के असम्यानवे भाग से लेकर समस्त लोक के अवगाह रूप से है । प्र० १६ जीव के प्रदेश असंख्यात हैं तो और किमी द्रव्य के भी प्रसंख्यात प्रदेश हैं ? उ० धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य एक जीव और लोकाकाश के प्रसंख्यात प्रदेश है। प्र० २० जीव तथा धर्म अधर्म के असंख्यात प्रदेशों में कुछ अंतर है ? उ० धर्म अधर्म समस्त लोकाकाश में व्याप्त है जबकि जीव के प्रदेश संकोच विस्तार को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार अवगाह में अन्तर है ? प्र० २१ जीव में क्रियावती शक्ति है और उसका काम क्या है ? उ० जीव में क्रियावती शक्ति नाम का गुण है उस कियावती शक्ति का गतिरूप और स्थिति रूप दो प्रकार का परिणमन है । प्र. २२ जीव का लक्षण शरीर कहें तो क्या दोष पाता है ? उ० असंभव दोष आता है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) प्र० २३ जोव का लक्षण भावकर्म कहें तो क्या दोष आता है ? उ० (१) अध्यात्म की अपेक्षा असम्भव दोप आता है । (२) आगम की अपेक्षा अव्याप्ति दोष प्राता है क्योंकि दसवें गुण स्थान तक भावकम है बाद के जीवों में नहीं है । प्र. २४ जीव का लक्षण मति थ त ज्ञानी कहे तो कुछ दोप पाता है ? उ0 अव्याप्ति दोष पाता है । प्र० २५ जीव का लक्षण केवल ज्ञान कहें तो कुज दोप नहीं पाता ? उ० अव्याप्ति दोप पाता है। प्र० २६ जीव का लक्षण कान नाक से ज्ञान करना कहें तो क्या दोष प्राता है ? उ० असम्भव दोष आता है । प्र० २७ जीव का लक्षण अंगो मांडना कहे तो क्या दोप पाता है ? उ० प्रव्याप्ति दोष आता है । प्र० २८ जीव का लक्षण इन्द्रियाँ और मन कहें तो क्या दोष पाता है ? उ० प्रसम्भव दोष प्राता है । प्र. २६ जीव का लक्षण अरूपी कहें तो क्या दोष प्राता है ? उ० प्रतिव्याप्ति दोष पाता है। प्र० ३० जीव का लक्षण बाहरी तपस्या और नग्न रहना है ना ? उ० असम्भव दोष पाता है । प्र० ३१ जोव का लक्षण क्रियावती शक्तिवाला कहें तो ठीक है ना ? उ० प्रतिव्याप्ति दोष पाता है। प्र० ३२ जीव का लक्षण पर का भला बुरा करना, सत्य बोलना, देश का Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) उपकार करना, बाल बच्चों का और स्त्री का पालन पोषण करना, रुपया कमाना कहें तो ठीक है ना ? उ० असम्भव दोष प्राता है। प्र० ३३ प्रात्मा का लक्षण दयादान पूजा अगावत महावतादि कहें तो? उ० अव्याप्ति दोष पाता है। प्र० ३४ आत्मा का लक्षण सम्यग्दर्शन कहें तो क्या दोष प्राता है ? उ० अव्याप्ति दोष पाता है । प्र० ३५ सच्चे लक्षण की क्या पहिचान है ? उ० जो लक्ष्य में तो सर्वत्र पाया जावे और अलक्ष्य में किसी भी स्थान पर ना हो वही सच्चे लक्षण की पहिचान है । प्र० ३६ ग्रात्मा का लक्षण 'चैतन्य' कहें तो क्या दोष आता है ? उ० कोई भी दोष नहीं पाता क्योंकि निगोद से लगाकर सिद्ध दशा तक सब जीवों में निरन्तर पाया जाता है, अमात्मा में नहीं पाया जाता इसलिए चैतन्य लक्षण आत्मा है इसमें कोई भी दोष नहीं आता है । प्र० ३७ तुम्हारी सत्ता कितनी है ? उ० मेरा प्रारमा गुगा और पर्याय मेरी सत्ता है । प्र० ३८ मेरी सत्ता मेरा आत्म गुण पर्याय है इसको जानने से क्या लाभ उ० (१) शरीर की सत्ता (२) पाठ कर्मों की सत्ता (३) विकारी भावों को सत्ता मेरी सत्ता नहीं है ऐसा जानकर अपनी सत्ता पर दृष्टि देवे तो धर्म की शुरुअात वृद्धि होकर पूर्णता होवे। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) प्र० ३९ असंख्यात प्रदेशी वह आत्मा, कोई दोष माता है ? प्रतिव्याप्ति दोप आता है। उ० प्र० ४० तेरा पर से होता है, तेरा तेरे से नहीं, क्या दोष जाता है ? उ० असंभव दोष आता है । प्र० ४१ लोक व्यापक सो ग्रात्मा, क्या दोष आता है ? उ० प्र० ४२ लोक में रहे सो ग्रात्मा क्या दोष आता है ? प्रतिव्याप्ति दोष आता है । 0 प्र० ४३ नित्य सो ग्रात्मा क्या दोप ग्राता है ? प्रतिव्याप्ति दोष आता है । उ० प्र० ४४ गमन करे सो जीव क्या दोष आता है ? प्रतिव्याप्ति दोष आता है । प्र० ४५. जीव के गमन में कौन निमित्त है ? धर्म द्रव्य | उ० उ प्रतिव्याप्ति दोष आता है । अव्याप्ति दोप भी आता है । प्र० ४६. जीव के स्थिर होने में कौन निमित्त है ? धर्म द्रव्य । उ० प्र० ४७. जीव के ठहरने में (अवकाश दान) कौन निमित्त है ? उ० लोकाकाश | प्र० ४८. जीव के परिणमन में कौन निमित्त है ? उ० काल । प्र० ४६. जो कानून जीव पर लागु हो वह सब द्रव्यों पर भी लागू हो उनके नाम बतायो ? Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( २१ ) (१) द्रव्य का लक्षण अस्तित्व है सब द्रव्यों पर लागू होता है । (२) त्रिकाल कायम रहकर प्रत्येक समय में पुरानी अवस्था का ज्यय और नई अवस्था का उत्पन्न करना । सब द्रव्यों पर लागू होता है। (३) द्रव्य अपने गुगा अवस्था वाला है, सब द्रव्यों पर लागू होता (४) द्रव्य के निजभाव का नाश नहीं होता इसलिए नित्य है और परिगा मन करता है इसलिए अनित्य है। यह भी सब द्रव्यों पर लागू होता है । प्र० ५०. जीव का लक्षण अगुव्रत पालना, क्या दोष पाता है ? उ० अव्याप्ति दोप पाता है। प्र० ५१. जीव का लक्षण मामान्य विगेप गुणवाला कहें तो? उ० प्रतिव्याप्ति दोप पाता है । प्र० ५२. जीव का लक्षण उत्पादव्यय ध्र व वाला कहें तो? उ० अतिव्याप्ति दोप पाता है । प्र० ५३. छः ढाला में जीव का लक्षण क्या कहा है ? उ० जीव का लक्षगग जाता दृष्टा है, अाँख, नाक, शरीर मूर्तिक नहीं है चैतन्यरुपा उसकी मूर्ति है, उपमारहित है, पुद्गल आकाश धर्म अधर्म काल से जीव का कुछ भी संबंध नही है ऐसा बताया है। प्र० ५४. अपना लक्षण चे न्यि माने तो क्या होगा ? उ० चैतन्य लक्षण वाला मैं हूं ऐसा मानते ही सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती है सुख का पता चल जाता है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४ पुदगल द्रत्य प्र० १. पुद्गल किसे कहते हैं ? उ० जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाया जाये उसे पुद्गल कहते हैं । प्र० २. पुद्गल के कितने भेद हैं ? उ० दो भेद हैं । (१) परमाणु और (२) स्कंध प्र० ३. परमाणु किसे कहते हैं ? उ० जिसका दूसरा विभाग नहीं हो सकता ऐसे सबसे छोटे पुद्गल को परमाणु कहते हैं। प्र० ४. स्कंध किसे कहते हैं । उ० दो या दो से अधिक परमाणुषों के बन्ध को स्कंध कहते हैं । प्र० ५. स्कंध के कितने भेद हैं ? उ० पाहार वगंणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा, कार्मण वर्गणा इत्यादि २२ भेद हैं। प्र० ६. बंध किसे कहते हैं। उ० जिस सम्बन्ध विशेष से अनेक वस्तुओं में एकपने का ज्ञान होता है उस संबंध विशेष को बंध कहते हैं। प्र० ७. बंध की परिभाषा में क्या २ बात माई ? Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) उ० (१) अनेक वस्तु होनी चाहिएं। (२) एक देखने में आये । (३) परन्तु ज्ञान में सच्ची बात ध्यान में हो, तब बंध का सच्चा ज्ञान होता है। प्र. ८. स्पर्श क्या है ? २० पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है । प्र० ६. स्पर्श की कितनी पर्याय हैं ? उ० हल्का, भारी, ठण्डा, गर्म, रूखा, चिकना, कड़ा, नरम आठ हैं । प्र० १०. रस क्या है और रस की कितनी पर्याय हैं ? उ० रस पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है ओर खट्टा; मीठा, कड़ वा, चरपरा, कषायला रम की ५ पर्याये हैं। प्र० ११. गंध क्या है और उसकी कितनी पर्याय हैं ? उ० गंध पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है । इसकी सुगन्ध और दुर्गन्ध २ पर्याय हैं । प्र० १२. वर्ण क्या है और उसकी कितनी पर्याय हैं ? उ० वर्ग पुद्गल द्रव्य का विशेप गुण है और इसकी काला, पीला, नीला, लाल, सफेद ५ पर्याय हैं। प्र० १३. पुद्गल की २० पर्याय के जानने से क्या लाभ है ? उ0 अनादिकाल से अज्ञानी एक एक समय करके पुद्गल की जो बीस पर्यायें हैं इन्हें अपनी मानकर पागल हो रहा है उसके पागलपन मिटाने के लिए २० पर्यायों का मालिक पुद्गल है, जीव नहीं । अर्थात् हे प्रात्मा! तेरा इनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध नहीं है। ऐसा जानकर अपनी ओर दृष्टि करे तो पुद्गल की बीस पर्यायों का ज्ञान सच्चा है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) ५० १४. पुद्गल से जीव का सम्बन्ध नहीं है यह कहाँ आया है ? पूज्यपाद भगवान ने इप्टोपदेश की ५० वीं गाथा में कहा है कि "जीव जुदा, पुद्गल जुदा, यही तत्व का सार । अन्य कछु व्याख्यान जो, सब याही का विस्तार | उ० प्र० १५. पुद्गलास्तिकाय का शाब्दिक अर्थ क्या है ? (१) पुद - जुड़ना, (२) गल = बिछुड़ना, विखरना ( ३ ) ग्रस्ति = होना, (४) काय समूह अर्थात् इकट्ठा होना । S उ० प्र० १६. पुद्गल द्रव्य का पूरा नाम क्या है ? पुद्गल । स्तिकाय । उ० प्र० १७. पुद् अर्थात् जुड़ना से क्या तात्पर्य है ? (१) जैसे चार सौ पन्नों की किताब मैंने जोड़ दी, इसमें किताब जुड़ी पुद्द के कारण, मानी मैंने जोड़ी तो उसने पुद्गलास्तिकाय के 'पु' को उड़ा दिया । (२) मैंने रुपया कमाया, कमाया गया 'पुद्' के कारण, माना मैंने कमाया, तो पुद्गलास्तिकाय के 'पुद्द' को नहीं माना । उ० प्र० १८. 'पुद्' को कब माना । उ० (१) मैंने भाड़ दी, (२) मैंने दाने इकट्ठे कर दिये (३) मैंने कमीज के टुकड़ों को जोड़ दिया आदि कथनों में झाड़ आना, दाना इकट्ठा करना, टुकड़ों को जोड़ना आदि 'पुद्' से हुआ मेरे से नहीं, तब 'पुद्' को माना । प्र० १६. 'गल' अर्थात बिखरना से क्या तात्पर्य है ? उ० जैसे बच्चे के हाथ में कांच का गिलास था, उसमें दूध था वह गिर गया, प्रज्ञानी को क्या लगता है, कि बच्च े ने सावधानी नहीं रक्खी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) इसलिए दूध मिट्टी में मिल गया (बिखर गया) परन्तु दूध जो बिखरा वह पुद्गलास्तिकाय के 'गल' के कारण । ऐसा न मानकर बच्चे को प्रसावधानी दूढे तो उसने 'गल' को नहीं माना। प्र० २०. 'गल' को कब माना। उ० जैसे मैंने लड्डु के दो टुकड़े कर दिए, मैंने कलम के दो टुकड़े कर दिए , मैंने सावधानी न रक्खी तो दूध निकल गया प्रादि कथनों में लड्डु और कलम के टुकड़े करना, दूध निकलना-वह 'गल' के कारण निकला, मेरे कारण नहीं, ऐसा ज्ञान वर्ते तो पुद्गलास्तिकाय के 'गल' को माना । प्र. २१. 'अस्ति' अर्थात् होना से क्या तात्पर्य है ? उ० जैसे (१) मैं हूँ तो शरीर है। (२) मैं हूँ तो शरीर का कार्य होता है । (३) ज्ञान है तो प्रांख है प्रादि में अज्ञानी ऐसा मानता है कि शरीर है शरीर का कार्य है, अांख है यह सब प्रात्मा के कारण है तो उसने पुदगलास्तिकाय का 'मस्ति' पना नहीं माना । प्र० २२. 'अस्ति को कब माना ? उ० शरीर, प्रांख, कान, मन वाणो प्रादि के पुदगलास्तिकाय के प्रस्तिपने के कारण हैं मेरे कारण नहीं । तब 'प्रस्ति' को मामा । प्र० २३. काय अर्थात् समूह इकट्ठा होना से क्या तात्पर्य है ? उ० जैसे लड़की को शादी में हलवाई बून्दी बना देता है और भाई जाते है तो बून्दो के लड्डू बनाकर रख देते हैं । वास्तव में वह पुद्गलास्तिकाय के 'काय' के कारण बने। प्रज्ञानी मानता है मैंने बनाये तो उसने 'काय' को नहीं माना। प्र० २४. 'काय' को कब माना ? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) उ० (१) दस दवाई मिलाकर मैंने चूर्ग बनाया, (२) घो चीनो मे मैंने हलवा बनाया प्रदि कथनों में चूर्ग, हलवा पुद्गलास्तिकाय के 'काय' के कारण बना, मेरे कारण नहीं। तब पुद्गलास्तिकाय के 'काय' को न.ना। प्र० २५. पुद्गलास्तिकाय से क्या समझना चाहिए ? उ० (१) पुद् (२) गल (३) अस्ति (८) काय, यह सब पुद्गल का स्वभाव है इनमे मेरा किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है । लेकिन प्रज्ञानी पुद्गल का कार्य पुदगल से न मानकर पुद्गलास्तिकाय को उड़ाता है हम एसी गलती न करें । पुदगल का कार्य पुद्गल से ही जाने तो मिथ्यात्व का अभाव होकर धर्म की प्राप्ति हो । प्र० २६. पुद्गल द्रव्य कितने हैं ? उ० पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं । प्र. २७. पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं, कब माना ? उ०" एक २ परमाणु अनन्त गुण और पर्यायों का पिण्ड है। एक पर. मारगु का द्रव्य क्षेत्र काल भाव दूसरे परमाणु से पृथक है। जैसे एक किताब है, घड़ी है, लड़ है, यह स्कंध हैं इनमें एक २ परमाणु अपने अपने अनन्त गुग्गों पर्यापों महित वर्तता है ऐमा ज्ञान होवे और जब एक परमाणु दूसरे परमाणु में कुछ नहीं करता तो मेरे में करने धरने का प्रश्न ही नहीं तब पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं तब माना । प्र० २८. पुद्गल द्रव्य कितने प्रदेशी हैं ? उ० प्रत्येक पुद्गल एक प्रदेशी है । प्र०२६. पुद्गल द्रव्य रूपी है या अरूपी है ? उ० पुद्गल द्रव्य रूपी है अरूपी नहीं है क्योंकि जिसमें स्पर्श रस गंध Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण पाया जावे वह रूपी है । प्र० ३०. पुद्गलों में बंध क्यों होता है ? उ० पुद्गल के स्पर्श रस गंध वर्णादि विशेष गुणों में से स्पर्श गुण की दोश ही अधिक हो वहाँ स्निग्ध का स्निग्ध के नाथ, रुक्ष का रुक्ष के साम, तथा स्निग्ध रुक्ष का परस्पर बंध होता है और जिसमें अधिक गुण हों उस रूप से समस्त स्कंध हो जाता है । इस प्रकार पुद्गलों के बंध की बात है। पुद्गल के बन्ध में जीव से किसी भी प्रकार का कर्ता-कर्म भोक्ता - भोग्य संबंध नहीं है । तब उसने पुद्गल के बन्ध को जाना। ( २७ ) प्र० ३१. पुद्गलों का बन्ध कब नहीं होता है ? उ० जिस पुद्गल की स्निग्धता या रुक्षता जघन्य रूप से हो वह बंध के योग्य नहीं है । (२) एक समान गुणवाले पुद्गलों का बंध नहीं होता है प्र० ३२. तुम परमाणु हो या स्कंध ? उ० परमाणु और स्कंध पुद्गल के भेद हैं मैं तो जीव द्रव्य हूं । प्र० ३३. शरीरों के कितने भेद हैं ? उं० पांच हैं । १. औदारिक २. वैक्रियक ३. ग्राहारक ४. तेजस और ५ कार्मारण । उ० प्र० ३३. प्रौदारिक शरीर का कर्ता कौन है, श्रौर कौन नही ? दारिक शरीर का कर्ता आहार वर्गगा है, जीव नहीं । प्र० ३५. वैक्रियक शरीर का कर्ता कौन है, और कौन नहीं ? उ० उ० वैकियक शरीर का कर्ता श्राहार वगंगा है, और देव नारकी नहीं । प्र० ३६. आहारक शरीर का कर्ता प्रहारक ऋद्धिधारो मुनि है ना ? आहारक शरीर का कर्ता प्रहार बर्गरगा है, मुनि नहीं ? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) प्र० ३७. तेजस शरीर का कर्ता कौन है और कौन नहीं ? उ० तैजस शरीर का कर्ता तैजस वर्गणा है, जीव और दूसरी वर्ग गा नहीं । प्र० ३८. ज्ञानावर्णी दर्शनावर्णी प्रादि कर्मों का कर्ता कोन है, कौन नहीं ? उ. ज्ञानावर्णी आदि पाठ कर्मों का कर्ता कार्मण वर्गणा है, जोव और बाकी वर्गणा नहीं है। प्र० ३६. आपके कितने शरीर हैं ? उ० मैं तो प्रात्मा हूं मेरे कोई भी शरीर नहीं है । प्र० ४०. देव नारकियों के कितने २ शरीर है ? उ. देव नारको भी प्रात्मा हैं उसके कोई भी शरीर नहीं है । प्र. ४१. भाषा तो जीव बोलता है ना ? उ० भाषा का कर्ता भाषा वर्गणा है, जीव नहीं है। प्र० ४२. रोटी बनाने और रोटी खाने का कर्ता आत्मा है ना ? उ० रोटी बनाने और खाने का कर्ता प्राहार वर्गणा है, प्रात्मा नहीं है प्र० ४३. मोहनीय कर्म का क्षप किस जीव ने किया ? उ. मोहनीय कर्म के क्षय का कर्ता कार्मण वर्गणा है कोई भी जीव नहीं । प्र० ४४. किताब उठाने धरने का कर्ता जीव है ना ? उ० किताब उठाने और धरने का कर्ता प्राहार वर्गणा है जीव और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्र० ४५. सुबह उठना, टट्टी जाना, नहाना, कपड़े पहिनना, उतरना बिस्तर बिछाना, इकट्ठा करना, दुकान को सजाना, सोने का हार बनाना Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) रथ बनाना आदि कार्यों का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उ. इन सब कार्यो का कर्ता एक मात्र आहार वर्गणा है कोई जीव और दूसरी वर्गणा नहीं है । प्र० ४६ गेहूं का आटा बाई ने पीसा है ना ? उ० गेहूं का पाटा पाहार वर्गणा ने किया है । बाई और चक्की ने नहीं। प्र. ४७. दिव्य ध्वनि का कर्ता कौन २ से भगवान हैं ? उ० दिव्यध्वनि का कर्ता भाषावर्गग्गा है कोई भगवान और कोई दूसरी वर्गणा नहीं है। प्र० ४८. मन का कर्ता संजी जीव है या असंज्ञी ? । उ० मन का कर्ता मनोवर्गणा है कोई जीव और कोई दूसरी वर्गणा नहीं । प्र० ४६. पुद्गल के सामान्य गुगण कौन कौन से हैं और कितने हैं ? उ० अस्तित्व वस्तुत्व आदि पुद्गल के गुण अनेक हैं । प्र० ५०. पुद्गल की पर्यायों के नाम बतायो ? उ० (१) शब्द (२) बन्ध (३) मूक्ष्म (४) स्यूल (५) आकार (३)खंड (७) अन्धकार (८) छाया (६) उद्योत (१०) आताप, यह सब पुद्गल को पर्याय हैं इनका कर्ता पुद्गल ही है जीव नहीं है। प्र० ५१. तुम हल्के हो या भारी ? उ० मैं तो आत्मा हूं हल्का भारी तो स्पर्श गुग की पर्याय है। प्र० ५१. अज्ञानी हल्का भारी को जानकर क्या करता है ? उ० राग द्वेष Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) प्र० ५३. अपने ग्राप का पता न होने से अज्ञानी स्पर्श गुग्ण की हल्के भारी पर्याय को ही, (१) मैं हल्का है तो द्वेष करता है, और भारी होने के लिए पिस्ता, वादाम यादि खाता है तो राग करता है । (२) यदि अपने आपको भारी मानना है चला नहीं जाता है तो द्वेष करता है हल्का होने पर राग करत है । प्र० ५०. उस हल्का भारी में जो रागद्वेष होता है इसका प्रभाव कैसे हो ? मैं आत्मा, हल्का भारी स्पर्श रहित प्रस्पर्श स्वभावी हूं ऐसा जाने माने तो राग का अभाव हो । उ० प्र० ५४. ठण्डा गरम क्या है ? उ० ठंडा गर्म पुद्गल द्रव्य के स्पर्श गुण की पर्याय है ? प्र० ५५. प्रज्ञानी जीव ठंडा गरम को जानकर रागद्वेप कैसे करता है ? (१) मुझे ठण्डी का बुखार है, मुझे गर्मी का बुखार है ऐसा जानकर द्वेष करता है । उ० (२) किसी को हैजा हो जावे और बुखार हो जावे तो राग करता है । प्र० ५७. ठंडा गर्म संबंधी रागद्वेष का प्रभाव कैसे हो ? उ० मैं आत्मा, ठंडा गर्म स्पर्श गुरण रहित अस्पर्श स्वभावी भगवान आत्मा हूं ऐसा जाने माने तो रागद्वेष का प्रभाव हो । उ० प्र० ५८. रूखा, चिकना, कड़ा, नर्म क्या है ? पुद्गल की स्पर्श गुरण की पर्याय है । प्र० ५६. अज्ञानी जीव रूखा, चिकना, कड़ा, नर्म को जानकर रागद्वेष कैसे करता है ? Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) उ० मेरा बदन रूखा, कड़ा है ऐसा जानकर द्वेष करता है और चिकना नर्म से राग करता है । उ० प्र० ६०. रूखा चिकना, कड़ा, नर्म संबंधी रागद्वेष का प्रभाव कैसे हो ? मैं आत्मा रूखा, चिकना, वड़ा नर्म स्पर्श गुगण रहित अस्पर्श स्वभावो भगवान ग्रात्मा हूं ऐसा जाने माने तो रागद्वेष का प्रभाव हो । प्रo ६१. खट्टा मीठा, करवा, कपायला, चरपरा क्या है ? पुद्गल द्रव्य के रस गुण की पर्याय हैं । उ० प्र० ६२. अज्ञानी खट्टा मीठा, कडवा, चरपरा, कपायले को जानकर क्या करता है ? रागद्वेष करता है । प्र ६३. ग्रज्ञानी खट्टा मीठा, क ुवा, चरपरा कपायला को जानकर रागद्वेष कैसे करता है ? उ० मुझे नीम्बू खट्टा अच्छा लगता है, पेड़ा मीठा लगता है, नीम के पत्त कड़वे लगते हैं, आदि में जिसमें त्रि हो राग करता है और जिसमें अरुचि हो द्वेष करता है । उ प्रo ६८. रस की पर्याय से रागद्वेष का प्रभाव कैसे हो ? 30 मैं आत्मा, खट्टा मीठा, कड़वा, चम्परा, कपायला रस गुग्ण की पर्यायों से रहित ग्रम्म स्वभावी भगवान हूं ऐसा अनुभव ज्ञान करे तो रागद्वप का प्रभाव हो । प्रo ६५. सुगन्ध और दुगंध गंध गुग्गा की पर्यायों मे अज्ञानी रागद्वेप कैसे करता है ? (१) विटा आदि में द्वंप करता है (२) फूल यादि सुगंधी में राग करता है । उ० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) प्र. ६६. सुगंध दुर्गन्ध आदि में रागद्वेष का अभाव कैसे हो ? उ. मैं प्रात्मा अगन्ध स्वभावी हूं मेरा सुगन्ध दुर्गन्ध गुण से तथा पुद्गलों से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है ऐसा जाने माने तो रागद्वेष का अभाव हो। प्र० ६७. काला, पीला, नीला, लाल, सफेद क्या है ? उ० पुद्गल के वर्ण की गुण पर्याय हैं। प्र० ६८. काला पोला आदि वर्ण गुण की पर्यायों को जानकर अज्ञानी राग द्वेष कसे करता है ? उ० मैं कला हूं तो द्वेष करता है गोरा होने में राग करता है । मुझे गोरी घरवाली चाहिये काली नहीं चाहिए आदि भावों में पागल बना रहता है। प्र० ६६. काला गोरा रूप रागद्वेष का अभाव कैसे हो ? उ० मैं आत्मा अरूप स्वभावी भगवान हूं काला गोरा आदि पुद्गलों के वर्ण गुण की पर्यायों से मेरा संबंध नहीं है ऐसा जाने माने तो रागद्वेष का अभाव हो । प्र० ७०. पुद्गल जड़ है या नहीं ? उ० पुद्गल जड़ है । प्र° ७१. यदि हम पुद्गल का लक्षण जड़ कहे तो ठीक है ना ? उ° पुदगल का लक्षण जड़ मानने से अतिव्याप्ति दोष आता है । प्र० ७२. पुद्गल का लक्षण क्षेत्र क्षेत्रान्तर अर्थात् गति स्थिति रूप है ना? उ० प्रतिव्याप्ति दोष आता है। प्र० ७३. पुद्गल का लक्षण एक प्रदेशी है, ठीक है ना ? उ० प्रतिव्याप्ति दोष पाता है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) प्र० ७४. कोई पुद्गल का लक्षण चेतन कहे तो क्या दोष है ? उ० असम्भव दोष प्राता है । प्र० ७५. पुद्गल का लक्षरण गति हेतुत्व गुग्गु कहें तो क्या दोष प्राता है ? असम्भव दोष प्राता है । प्र ० ७६. जिसमें स्पर्श हो बाकी गन्ध रस व ना हो ऐसे पुद्गल का नाम बताओ । उ० उ७ जहाँ स्पर्श होगा वहां नियम से गन्ध व रस होगा ही इसलिए जिसमें स्पर्श हो बाकी गन्धादि न हो ऐसा पुद्गल होता ही नहीं । प्र० ७७. पुद्गल की शुद्ध दशा का क्या नाम है ? परमाणु | प्र० ७८. पुद्गल को अशुद्ध दशा का क्या नाम है ? उ० स्कंध | उ० प्रo ७९. जो पुद्गल में पाये जावें वह ही बातें दूसरे द्रव्यों में पाई जावें वह क्या है ? उ० (१) द्रव्य का लक्षण अस्तित्व है । वह पुद्गल में भी पाया जाता है बाकी द्रव्यों में भी (२) पुद्गल त्रिकाल कायम रहकर पुरानी अवस्था का व्यय और नई अवस्था का उत्पाद करता है, बाकी द्रव्यों में भी ऐसा होता है । (३) पुद्गल अपनी गुण अवस्था वाला है । बाकी द्रव्य भी हैं । (४) पुद्गल का नाश नहीं होता इसलिए नित्य है, और परिणमन करता है इसलिए अनित्य है । यह बात भी सब द्रव्यों पर लागू होती है । प्र० ८ सबसे ज्यादा संख्या में कौन द्रव्य है ? उ० पुद्गल । प्र० ८१. पुद्गल चलता है या नहीं, यदि चलता है तो इसमें निमित्त कौन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० (१) पुद्गल में क्रि यावती शक्ति होने से वह चलता है । (२) पुद्गल के चलने में निमित्त है धर्म द्रव्य। प्र० ८२. पुद्गल के ठहरने में निमित्त कौन है ? उ० अधर्म द्रव्य । प्र. ८३. पुद्गल को अवकाश देने में कौन निमित्त है ? उ० अाकाश द्रव्य । प्र० ८४. पुद्गल के परिणमन में कौन निमित है ? उ० कान द्रव्य । प्र० ८५. पुद्गल के कार्यों को अपना माने वह कौन है ? उ० मिथ्याप्टि, पापी, जिनमत से बाहर है। प्र० ८६. बंध को विटोपता क्या २ हैं ? (१) एक प्रदेश में अनेक रहते हैं । (२) लोकाकाश के एक प्रदेश में सब परमागु और सूक्ष्म स्कंध समा सकते हैं। (३) एक महा स्कंध लोक प्रमाण असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों को रोकता है। प्र० ८७. रूपी कौन है और रूपी कौन नहीं है ? उ० पुद्गल द्रव्य रूपी है बाकी द्रव्य रूपी नहीं है, अरूपी हैं । प्र० ८८. पूण्य पाप का फल जीव का कार्य है ना ? पुण्य पाप फल माटी, हरख बिलखौ मत भाई । यह पुद्गल पर जाय, उपजि विनमै थिर नाई । लाख बात की बात यही, निश्चय उर लावो । तोरि सकल जग दंद-फंद, नित प्रातम ध्यानो। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५ धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य प्र० १. धम द्रव्य किसे कहते है ? उ० जो स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को गमन करने में निमित्त हो उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। जैसे गमन करती हुई मछली को गमन करने में पानी | प्र ० २. अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं ? 30 स्वयं गति पूर्वक स्थिति रूप परिगणने ऐसे जीव और पुद्गलों को ठहरने में जो निमित्त हो उसे प्रथमं द्रव्य कहते हैं। जैसे पथिक को ठहरने के लिए वृक्ष की छाया । प्र० ३. अवमं द्रव्य की परिभाषा में 'गतिपुर्वक स्थिति करे उसे अधर्म द्रव्य निमित्त है, यदि 'गतिपूर्वक' शब्द निकाल दें तो क्या हानि होगी । यदि हम 'गतिपूर्वक' शब्द निकाल दें तो सदैव स्थिर रहने वाले धर्म अधर्म काल और स्वयं प्रथमं द्रव्य को भी स्थिति में अधर्म द्रव्य के निमित्तपने का प्रसंग उपस्थित होवेगा, मो गलत है । उ० प्र० ४. धर्म अर्थात् पुण्य और अवमं अर्थात् पाप, ऐसा है ना ? पुण्य पाप से यहां मतलब नहीं है यहाँ पर तो धर्म और अधर्म द्रव्य नाम के स्वतन्त्र द्रव्य हैं उनमे तात्पर्य है । प्र० ५. धर्म द्रव्य ही जीव पुद्गलों को चलाता है ना ? उ० उ० बिल्कुल नहीं । जीव पुद्गल अपनी २ क्रियावती शक्ति के गमन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) रूप परिणमन के कारण चलते हैं धर्म द्रव्य के कारण नहीं । धर्म द्रव्य तो निमित्त मात्र है । प्र० ६. उ० रूप परिणमन के कारण ठहरते हैं अधर्म द्रव्य के कारण नहीं । अधर्म द्रव्य तो निमित्त मात्र है । अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों को ठहराता है ना ? बिलकुल नहीं । जीव पुद्गल अपनी २ क्रियावती शक्ति के स्थिर प्र० ७. चलने और स्थिर होने की शक्ति कितने द्रव्यों में है ? मात्र पुद्मल श्रौर जीव में ही है और द्रव्यों में नहीं है । क्रियावती शक्ति किसे कहते हैं ? उ० प्र० ८. उ० जीव और पुद्गल में अपनी २ क्रियावती शक्ति नाम का गुरण है वह नित्य है, उसकी अपनी २ योग्यता से कभी गति रूप कभी स्थिर रूप पर्याय होती है । प्र० ६. उ० क्रियावती शक्ति गुण की कितने प्रकार को पर्याय होती हैं ? दो प्रकार की होती है— गमन रूप और स्थिति रूप । प्रo १०. जब जीव और पुद्गलों में स्वयं चलने और स्थिर होने को शक्ति है तब शास्त्रों में धर्म अधर्म द्रव्य का वर्णन क्यों किया । उ० ( १ ) उपादान निज गुण जहां तहां निमित्त पर होय । भेदज्ञान प्रवारण विधि, बिरला बूझ कोय ॥ (२) प्रवचनसार गा० ६५ में भी लिखा है कि " जिसके पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा ( उपादान ) द्रव्य भा जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य (निकटता, हाजरी) के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएं करता है ।" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) प्र ११. हम बम्बई से देहली आये, तो इसमे शरोर तो अपनी क्रियावतो शक्ति से आया लेकिन मेरा भाव निमित्त तो है ना ? उसने अधर्म द्रव्य को उड़ा दिया । उ० प्र० १२. हम ध्यान करने बैठे तो शरीर तो अपनी क्रियावती शक्ति के कारण स्थिर हुआ परन्तु मैं निमित्त तो हूं ना ? उसने अधर्म द्रव्य को उड़ा दिया । उ० प्र० ११. 'उपकार' शब्द का क्या अर्थ है ? उ० प्र० १४. धर्म द्रय अधर्म द्रव्य हमको दिखाई नहीं देते हैं इसलिए हम नहीं मानते हैं ? उपकार, निमित्त, सहायक आदि पर्यायवाची शब्द हैं । उ० अरे भाई, तुम्हारे पड़दादा दादा वर्तमान में तुम्हें दिखाई नहीं देते, वह थे या नहीं ? तो कहता है वह तो थे । सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में प्रत्यक्ष प्राये हैं और अनुमानादि से यह हैं ऐसा पात्र जीव भी जानता है इसलिए हमें दिखाई नहीं देते इसलिए हम नही मानते, यह गलत है । प्र० १५. धर्म अधर्म द्रव्य को अमूर्त स्वभावी क्यों कहा ? स्पर्श रस गंध व ना होने से अमूर्त स्वभावी कहा है । प्र० १६. धर्म द्रव्य का क्षेत्र कितना बड़ा है ? लोकव्यापक असंख्यात प्रदेशी है । उ० उ० प्र० १७ धर्म अधर्म द्रव्य के कितने २ हिस्से हो सकते हैं ? 30 जो द्रव्य है वह प्रखंड होता है उसके हिस्से नही हो सकते इस लिए धर्म अधर्म द्रव्य के हिस्से नहीं हो सकते हैं । प्र० १८. क्या धर्म अधर्म द्रव्य में भी उत्पाद व्यय श्रीव्यपना होता है ? होता है, क्योंकि द्रव्य का लक्षरण सत् है और जो सतु होता है उ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५) उसमें उत्पाद व्यय धौव्यपना होता ही है । प्रo १६. क्या धर्म द्रव्य गमन करता है ? नहीं करता क्योंकि इसमें कियावती यति नहीं है और ग्रनादि अनन्त स्थिर है | उ० प्र० २०. धर्म द्रव्य स्वयं गमन नहीं करता परन्तु जीव पुद्गलों को तो गमन कराता है ना ? बिलकुल नहीं, क्योंकि जो स्वयं गमन नहीं करता वह दूसरों को गमन कैसे करा सकता है ? कभी नही । उ० प्र० २१. अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को ठहराता है ना ? बिल्कुल नहीं । परन्तु जीव पुद्गल स्वयं अपनी कियावती शक्ति के गमन रूप से स्थिर होते हैं तब उसे निमित्त कहा जाता है । उ प्र° २२. अधर्म द्रव्य चलकर स्थिर हुआ है ना ? उ० प्रo २३. धर्म द्रव्य की पहिचान क्या है ? गति हेतुत्व इत्यादि । उ प्र० २४. अधर्म द्रव्य की पहिचान क्या है ? स्थितिहेतुत्व इत्यादि । प्र० २५. धर्म और अधर्म द्रव्य में क्या अन्तर है ? (१) दोनों स्वतंत्र द्रव्य हैं । (२) धर्म द्रव्य गति में निमित्त है और धर्म द्रव्य स्थिति में निमित्त है । उ० विल्कुल नहीं, अधर्म द्रव्य तो ग्रनादि ग्रनन्त स्थिर ही है । उ० प्र० २६. लोक अलोक का विभाग किससे होता है ? धर्म अधर्म द्रव्यों से । उ० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) प्र० २७. धर्म अवर्म द्रव्य का लक्षण जड़ कहें तो क्या दोष आता है ? उ० अतिव्याप्ति। प्र० २८. धर्म अधर्म द्रव्य को चेतन कहें तो क्या दोष पाता है ? उ० असभव । प्र० २६. धर्म अधर्म द्रव्य का लक्षण बह्मदेशी कहं तो ? उ० अतिव्याप्ति दोप पाता है । प्र.) ३०. धर्म अधर्म की विशेषता क्या है ? उ० (१) नित्य है, (२) अवस्थित है, (:) अरूपी है, (४) हलन चलन रहित है। प्र० २१. धर्म अधभ द्रव्य का लक्षग नित्य अवस्थित अरूपी और हलन चलन रहित कहें तो ठीक है ना ? उ० प्रतिव्याप्ति दोप अाता है । प्र० ३२. धर्म द्रव्य को चलाने में कौन निमित्त है ? उ० धर्म द्रव्य चलता ही नहीं तब निमित्त कौन है, यह प्रश्न भूटा है । प्र० ३३. धर्म अधर्म द्रव्य को ठहराने में कौन निमित्त है ? उ. यह तो अनादि अनन्त ठहरे हुए ही हैं उमलिए टहराने में कौन निमित्त है, यह प्रयन अविवेकपूर्ण है। प्र० ३४. धर्म अधर्म को जगह देने में कौन निमित्त है ? उ० ग्राकाग द्रव्य । प्र० : ५. धर्म अधर्म द्रव्य के परिगमाने में कौन निमित्त है ? उ० कालद्रव्य । प्र० ३६. सिद्ध जीव लोक के आगे क्यों नहीं जाते, तो कहा है "धर्म द्रव्य Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) के प्रभाव होने से" आप कहते हैं एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कुछ करता ही नहीं तो क्या तत्वार्थ सूत्र में गलत लिखा है ? उ० (१) जो जीव धर्म द्रव्य को मानते ही नहीं उसकी अपेक्षा कथन किया है । ( १ ) यह व्यवहार कथन है । प्र० ३७. तो फिर सिद्ध जीव अलोक में क्यों नहीं जाते ? सिद्ध जीव लोक का द्रव्य है इसलिए अलोक में नहीं जाता । प्र० ३८. धर्म अधर्म द्रव्य को जानने से क्या लाभ है ? (१) शास्त्रों के पढ़ने से पहिले अज्ञानी ऐसा मानता था कि मैं शरीर को चलाता हूं या शरीर मुझे चलाता है । ठहराता है । उ० उ० ( ३ ) शास्त्र पढ़कर अज्ञानी ने निकाला धर्म द्रव्य चलाता है और धर्म द्रव्य ठहराता है। सच्चा ज्ञान होने पर इस खोटी बुद्धि का प्रभाव हो जाता है । (३) मैं आत्मा हूं धर्म अधर्म द्रव्य से मेरा किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसा जानकर अपने में स्थिर होवे तो धर्म अधर्म को जाना । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६ भाकाश द्रत्य प्र० १. श्राका द्रव्य निमे कहते हैं ? उ० जो जोव दिक पांचों द्रव्यों को रहने के लिए स्थान देता है उसे आकाग द्रव्य कहते हैं । बाकाग द्रव्य सर्व व्यापक है, सर्वत्र है। प्र.) २. ग्राम य जगह देता है यह कथन कंमा है ? उ० व्यवसार कथ। .. ऐसा है नही, निमिनादि की अपेक्षा कथन किया है। २० ३. ग्राका के कितने भेद है ? उ० प्राकाम ही अखंड द्रव्य है। प्र. ४. लोकाका बार ग्रनो काकाग यह दो भेद क्यों किये ? 30 जिनने दिन में जीव पुद्गल धर्म अधर्म और काल रहते है उसे लोकाकान कहते हैं बाकी लोकाकाग में अमर्यादित अलोका काग है। प्र० ५. लोकाका बड़ा है या अलीकाकाय ? उ० लोकाकाय मे अमर्यादित बड़ा अलोकाकाश है । प्र. ६. लोका काम अलोकाकाग के द्रव्य क्षेत्र काल भाव में क्या अन्तर उ० दोनों का द्रव्य क्षेत्रकाल भाव एक ही है क्योंकि एक द्रव्य है। प्र० ७. लोकाकाश और अलोकाकाश के रंग में क्या अन्नर है ? उ० अाकाश द्रव्य अरूपी है लोकाकाश और अलोकाकाग में रंग होता ही नहीं क्योंकि रंग तो पुदगल का विशेष गुण है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) प्र० ८. अलोकाश में कितने द्रव्य हैं ? उ० एकमात्र आकाश ही शुद्ध द्रव्य है और नहीं। प्र० ६. आकाश द्रव्य के कितने प्रदेश हैं ? उ० प्रकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है । प्र० १०. अलोकाकाश में परिगामन होता है या नहीं ? यदि होता है तो उसके परिणमन में कौन निमित्त है ? उ० अलोकाकाश में परिणमन होता है, उसके परिणमन में काल द्रव्य निमित्त है। प्र० ११. जब अलोकाकाश में काल द्रव्य है ही नहीं, तब वह निमित्त होता है यह बात कहां से पाई ? उ० लोकाकाश में विद्यमान कालागु निमित्त है । ५० १२. लोकाकाश के प्रदेशों में एक ही प्रकार के दो द्रव्य कभी भी साथ नहीं रहते उस द्रव्य का क्या नाम है ? उ० काल द्रव्य है क्योंकि कालद्रव्य लोकाकाश के एक २ प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान अनादि अनन्त स्थिर है । प्र० १३. कोई आदमी कहता है देखो हमने तुम्हें जगह दी, नहीं तो तुम गाड़ी से रह जाते, क्या यह बात ठीक है ? उ० बिल्कुल गलत है । जैसे एक आदमी फर्स्ट क्लास के डिब्बे में बैठा है. एक आदमी पाया, बाबू जी जरा सी जगह मुझे भी दे दो। उसने कहा चल-चल । थोड़ी देर में बारिस आ गई और गाड़ी ने सीटी दे दी; तब उस आदमी ने हाथ जोड़कर कहा, बाबू जी बहुत जरूरी काम है जरा सी जगह दे दो। उसने कहा अच्छा आपो बैठ जायो, देखो हमने तुम्हें जगह दी है ना, देखो ऐसी मान्यता वाले ने आकाश द्रव्य को उड़ा दिया क्योंकि जगह देने में निमित्त प्रकाश द्रव्य है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) प्र० १४. आकाश द्रव्य की पहिचान क्या है ? अवगाहन हेतुत्व इत्यादि । प्र० १५. आकाश द्रव्य का द्रव्य क्षेत्र काल भाव क्या है ? (१) आकाश नाम का द्रव्य है । (२) अनन्त प्रदेशी प्रकाश का क्षेत्र है । (३) उसका परिणमन वह काल है । (४) उसके अनन्त गुरण वह उसका भाव है । प्र० १६. आकाश द्रव्य को मूर्तिक कहें तो क्या दोष आता है ? असंभव दोष आता है । उ० उ० उ० प्र० १७. आकाश का लक्षण मूर्तिक कहें तो ठीक है ना ? प्रतिव्याप्ति दोष आता है । उ० प्र० १८. आकाश को जगह देने में कौन निमित्त है ? स्वयं ही स्वयं को निमित्त है । उ० प्र० १६. आकाश को चलने में कौन निमित्त है ? आकाश चलता ही नहीं, तब कौन निमित्त, यह गलत है । प्र० २०. आकाश के ठहरने में तो अधर्म द्रव्य निमित्त है ना ? बिल्कुल नहीं। क्योंकि जो चलकर स्थिर हो ऐसे जीव और पुद्गल को ही अधर्म द्रव्य ठहरने में निमित्त है । जो अनादि अनन्त स्थिर है उसमें निमित्त कौन, यह गलत है क्योंकि उपादान हो तब निमित्त होता है । उ० उ० प्र० २१. आकाश के परिणमन में कौन निमित्त है ? काल द्रव्य । प्र० २२. प्रदेश किसे कहते हैं ? उ० उ० आकाश के सबसे छोटे भाग को प्रदेश कहते हैं । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) प्रo २३. प्रकाश द्रव्य को चेतन कहें तो क्या दोष आता है ? असम्भव दोष आता है । उ० प्र० २४. प्रकाश की विशेषता क्या है ? (१) नित्य ( २ ) अवस्थित ( ३ ) ग्ररूपी ( ४ ) हलन चलन रहित (५) अनंत प्रदेशी । उ० प्र० २५. प्रकाश को किसने बनाया है ? आकाश अनादि अनंत है जो अनादि अनंत है उसे किसने बनाया यह प्रश्न मूर्खता भरा है । उ० प्र० २६. लोकाकाश के प्रसंख्यात प्रदेश है, उसमें (लोकाकाश में) अनंत जीव, जीव से अनन्त गुरगा पुद्गल द्रव्य, एक एक धर्म अधर्म द्रव्य और असंख्य काल द्रव्य रहते हैं । तब अल्प प्रमाण वाले लोककाश में इतने अनन्त द्रव्य कैसे रह सकते हैं ? उ० (१) जैसे एक दीपक के प्रकाश में अनंत दीपकों का प्रकाश सभा जाता है | (२) गूढ़ रस से भरा हुआ शीशे के बर्तन में बहुत सा सोना रह सकता है; में (३) दूध से भरे हुए घड़े उतने ही प्रमाण में राख और सुईयां समा जाती हैं, उसी प्रकार लोकाकाश के विशिष्ट अवकाश दान शक्ति से अनन्त द्रव्य भी लोकाकाश में समा - जाते हैं इस में कोई बाधा नहीं आती है । प्र० २७. लोकाकाश का लक्षण असंख्यात प्रदेशी कहें तो क्या दोष श्राता है । उ० प्रतिव्याप्ति दोष आता है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) प्र० २८. आकाश का लक्षण हलन चलन रहित कहें तो क्या दोष आता उ० प्रतिव्याप्ति दोष पाता है , प्र० २६. अाकाश द्रव्य को जानने का क्या लाभ है ? उ. आकाश नाम का एक स्वतंत्र द्रव्य है। आकाश से मेरा किसो भी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसा जानकर अपनी ओर सन्मुख होकर धर्म की प्राप्ति होना यह प्राकाश को जानने का लाभ है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७ काल द्रव्य प्र. १. काल द्रव्य किसे कहते हैं ? उ० अपनी अपनी अवस्था रूप से स्वयं परिणमते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे काल द्रव्य कहते हैं। जैसे कुम्हार के चाक के घूमने के लिए लोहे को कोली। प्र० २. काल द्रव्य सब द्रव्यों को परिण माता है ना ? उ० बिल्कुल नहीं। सब द्रव्य अपनी २ अवस्थारूप से बदलते हैं तब उसमें निमित्त काल द्रव्य है। प्र० ३. जब सब द्रव्य अपनी २ अवस्थारूप से स्वयं परिणमते हैं तब काल द्रव्य निमित्त है उसे बताने की क्या आवश्यकता थी ? उ० जहां उपादान होता है वहाँ निमित्त होता ही है ऐसा वस्तु का स्वभाब हैं ऐसा ज्ञान कराने के लिए निमित्त को बतलाने की आवश्यकता है । प्र० ४. काल द्र व्य को समझाने के लिए कीली का दृष्टांत क्यों दिया है? उ० लोकाकाश के एक २ प्रदेश पर एक २ काल द्रव्य अनादि अनंत स्थिर है इसलिए कीलो का दृष्टांत दिया है। प्र० ५. कालद्रव्य के कितने प्रदेश है ? उ० एक प्रदेशी है बहुप्रदेशी नहीं है । प्र० ६. कई शास्त्रों में काल द्रव्य को 'अप्रदेशी' क्यों कहा है ? उ० एक गिनती में न आने से काल द्रव्य को अप्रदेशी कहा है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) कालद्रव्य का लक्षरण सत् कहें तो क्या दोष आता है ? प्रतिव्याप्ति दोष प्राता है । काल द्रव्य में उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना है या नहीं ? अवश्य ही है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद व्यय धौव्यपना होता है और काल द्रव्य भी है । उ० प्र० ७. उ० प्र० ८. प्र ० ६. काल द्रव्य के कितने भेद हैं ? उ० प्र० १०. निश्चयकाल किसे कहते हैं ? काल द्रव्य को निश्चयकाल कहते हैं । प्र० ११. व्यवहार काल किसे कहते हैं ? समय, पल, घड़ी, दिन महीना, उ० उ० कहते हैं । (१) निश्चयकाल ( २ ) व्यवहारकाल, दो भेद हैं । प्र० १२. काल द्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है ? उ० बहुप्रदेशी ना होने से अस्तिकाय नहीं है । काल द्रव्य की प्रस्ति है काना नहीं है । वर्ष आदि को व्यवहार काल प्र० १३. एक काल द्रव्य तथा दूसरे काल द्रव्य का क्षेत्र काल भाव एक ही है ना ? उ० पृथक है । प्र० १४. काल द्रव्य की विशेषता क्या २ है ? उ० बिल्कुल नहीं । सब काल द्रव्यों का द्रव्य क्षेत्रकाल भाव पृथक (१) प्रत्येक काल द्रव्य एक प्रदेशी है (२) श्ररूपी है, (३) श्रस्ति है, काय नही है, (४) नित्य (५) अवस्थित है। प्र० १५. कालद्रव्य को स्थान देने में कौन निमित्त है ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ í ral उ० आकाश द्रव्य । प्र० १६. काल द्रव्य किसको निमित्त है ? उ० स्वयं परिणमते हुए सब द्रव्यों को निमित्त है । प्र० १७. लोकाकाश के एक प्रदेश में रहने वाले अनंत द्रव्यों के परिणमन में कौन निमित्त है ? उ० वहां का काल द्रव्य ही निमित्त है । प्र० १८. काल द्रव्य को चलने और ठहरने में कौन निमित्त है ? उ० काल द्रव्य अनादि अनंत स्थिर है वह चले या चल कर ठहरे ऐसा उनमें होता ही नहीं है। प्र. १६. पंचम काल में मुक्ति नहीं होतो, ऐसा क्यों कहा है ? उ० (१) पंचम काल में दृष्टि-मुक्ति होती है और मोह-मुक्त, विदेह मुक्त, जीवन-मुक्त मुक्ति पंचम काल में उत्पन्न होने वाला इतना तीव्र पुरुषार्थ नहीं कर सकेगा इस लिए पचम काल में मुक्ति नहीं होती है। (२) जम्बू कुमार अादि पंचम काल में ही मोक्ष गये हैं और विदेह क्षेत्र के मुनि के कोई पूर्व भव का बैरी देव उठा लावे वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है । प्र० २० काल द्रव्य को जानने का क्या लाभ है ? उ. काल स्वतंत्र द्रव्य है इससे मेरा संबंध नहीं है ऐसा जानकर अपना पाश्रय ले तो काल द्रव्य को जाना। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८ द्रत्य प्र० १. द्रव्य किसे कहते हैं ? उ० गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । प्र० २. गुणों का समूह कौन है ? उ० प्रत्येक द्रव्य गुग्गों का समूह है । प्र० ३. द्रव्य अर्थात् रुपया, सोना, चान्दी है ना ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि रुपया, मोना, चान्दी तो अनंत अनंत पु, गलों का समूह है उनमें एक एक परमारणु वह गुणों का समूह है। प्र० ४. द्रव्य के पर्यायवाची शब्द क्या क्या हैं ? उ० वस्तु, पदार्थ, चीज, Things, सत् सब द्रव्य के पर्यायवाची है । प्र० ५. क्या सोना, चाँदी, रुपया गुणों का समूह नहीं हैं ? उ० सोना, चान्दी, रुपया एक स्कंध रूप पर्याय है इनमें अनंत २ परमाणु हैं और एक एक परमाणु गुणों का पिटारा है। इस अपेक्षा अनंत द्रव्य के गुणों के समूह को सोना चान्दो रुपया को द्रव्य कह सकते हैं। प्र० ६. प्रत्येक द्रव्य गुणों का समूह है इसमें "प्रत्येक द्रव्य" से क्या तात्पर्य है ? उ० अनन्त जीव, जीव से अनन्त गुणा पुद्गल द्रव्य, धर्म अधर्म, ग्राकाश, एकेक और लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्यों से हमारा मतलब 'प्रत्येक द्रव्य' से है-यह सब द्रव्य गुणों के समूह हैं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) प्र० ७. क्या मेरी आत्मा भी गुणों का समूह है ? उ० हां तुम्हारी प्रात्मा भी गुणों का समूह है। प्र० ८. सिद्ध भगवान की आत्मा भी गुणों का समूह है ? उ० हाँ, सिद्ध भगवान की प्रात्मा भी गुगगों समूह हैं । प्र० ६. फिर सिद्ध भगवान और हमारी आत्मा के गुणों में क्या फर्क रहा ? उ० बिल्कुल फरक नहीं है जितने गुगा सिद्ध भगवान में हैं उतने ही गुण हमारी आत्मा में हैं । प्र० १० क्या प्रत्येक परमाणु भी गुणों का समूह है ? उ० हां, एक एक परमाणु गुगणों का समूह है । प्र० ११. धर्म अधर्म अाकाश और असंख्यात काल द्रव्य भी गुणों का समूह हैं ? उ० हां यह सब गुणों के समूह हैं । प्र० १२. क्या प्रत्येक द्रव्य में गण समान हो हैं ? उ० कोई भी द्रव्य हो उसमें समान ही गगा हैं कम ज्यादा नहीं हैं। प्र० १३. एक द्रव्य गगगों का सम ह है तो एकेक में कितने गगा हैं ? उ० (१) जीव अनंत है । (२) जीव से अनंत गुणा पुद्गल द्रव्य हैं । (३) पुद्गल द्रव्य से अनंत गरणा अधिक तीन काल के समय हैं। (४) तीन काल के समयों से अनंत गणा अधिक आकाश द्रव्य के प्रदेश हैं । (५) आकाश द्रव्य के प्रदेशों से अनंत गुणा अधिक एक द्रव्य में गुण हैं। प्र० १४. आकाश द्रव्य के प्रदेशों से अनंत गुणा अधिक गुगा, क्या प्रत्येक प्रत्येक द्रव्य में हैं ? उ० हां प्रत्येक प्रत्येक द्रव्य में आकाश द्रव्य के प्रदेशों से अनन्त गुणा अधिक गुण प्रत्येक द्रव्य में हैं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) प्र० १५. जब सिद्ध भगवान में और हमारे गुग्गों में कुछ भी अन्तर नहीं है तो उनके और हमारे गुणों में क्या फरक रहा ? गुग्गों की अपेक्षा कोई अत्तर नहीं है । प्र० १६. हमारे में और सिद्ध भगवान में गुणों में अन्तर नहीं है तो अन्तर किसमें है ? उ० मात्र पर्याय में अन्तर है द्रव्य गुरण में ग्रन्तर नहीं प्र० १७. हम सिद्ध बनने के लिए पर्याय के अन्तर को कैसे दूर करें ? जैसा सिद्ध पर्याय में बनने से पहले सिद्ध भगवान ने किया वैसा करें तो पर्याय का अन्तर दूर होकर हम भी पर्याय में सिद्ध बन सकते हैं । प्र० १८. सिद्ध बनने से पूर्व सिद्ध की ग्रात्मा ने विकारी पर्याय को कैसे दूर किया ? उ० उ० उ० मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड हूं, पर राग विकार का पिण्ड नहीं हूँ ऐसा जानकर आपने अभेद पिण्ड का आश्रय लिया तो वह सिद्ध बन गये और विकार का प्रभाव हो गया । प्र० १६. अब हम सिद्ध बनने के लिए क्या करें ? अपने अनन्त गुणों के पिण्ड का आश्रय लेना चाहिए । प्र० २०. गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं जरा दृष्टांत देकर समझाइये ? जैसे यहां पर छह आदमी बैठे हैं प्रत्येक के पास अटूट २ धन है किसी के पास भी कम या ज्यादा नहीं है क्योंकि किसी के पास कम होवे, तो दूसरे से मांगना पड़े, और ज्यादा होवे तो दूसरे को देने की बात उ० उ० वे । उसी प्रकार विश्व में जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं प्रत्येक के पास अनन्त अनन्त गुणों का पिटारा है किसी पर भी कम ज्यादा गुण नहीं है । प्र० २१. प्रत्येक के पास अनन्त गुणों का पिटारा है किसी पर भी कम ज़्यादा गुण नहीं हैं इसको जानने से क्या लाभ है ? Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) उ. हम अपने अनन्त गुगों के पिटारे को ओर दृष्टि करें तो जीवन में सुख शान्ति की प्राप्ति होवे। प्र० २२. गुगों के समूह को द्रव्य कहते हैं इसको जानने से क्या लाभ है ? उ० जैसे एक गुफा में छह मुनि बैठे हैं (१) एक ध्यान में लीन है । (२) दूसरा स्वाध्याय में रत है । (३) तीसरा आहार के निमित्त जा रहा है । (४) चौथा पाठ कर रहा है। (५) पांचवां सामायिक कर रहा है। (६) छठे को सिंह खा रहा है। तो वहाँ पर एक को दूसरे से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार लोकाकाश रूपी गुफा में प्रत्येक द्रव्य अपने अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं तथापि एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते हैं। ऐसा जानकर अपने गगगों के सम ह की अोर सन्मुख होवे तो सम्यदर्शन ज्ञान चारित्र की प्राप्ति होवे, तो गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं समझ में पाया कहलावेगा अन्यथा तोते के समान रटन्त कार्यकारी नहीं है । प्र० २३. जब सब द्रव्यों के पास अनंत अनन्त गुग हैं तब यह जीव पर की ओर क्यों देखता है ? उ० (१) जिनेन्द्र भगवान की प्रोजा का विश्वास ना होने से और चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना अच्छा लगता है इसलिए पर और विकार की ओर देखता है । प्र० २४. जिनेन्द्र भगवान की प्राज्ञा का विश्वास करने के लिए और चारों गतियों से छूटने के लिए क्या करना ? उ० अपने अनन्त गुणों के पिण्ड का प्राश्रय श्रद्धान ज्ञान रमणता करनी चाहिये । ऐसा करने से संबर निर्जरा का प्राप्ति होकर निर्वाण की प्राप्ति होती है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) प्र० २५. भूतकाल में जितने आज तक मोक्ष गये हैं वह किस उपाय से मोक्ष गये हैं ? उ० एक मात्र गुणों के समूह अपने अभेद पिण्ड के आश्रय से ही मोक्ष गये हैं। प्र० २६. विदेह से जो जीव आजकल मोक्ष जा रहे हैं वह किस उपाय से? उ० एक मात्र गुग्गों के समूह अपने अभेद पिण्ड के आश्रय से हो मोक्ष जा रहे हैं। प्र० २७. भविष्य में जो मोक्ष जावेग, वह किस उपाय से ? उ० वह भी एक मात्र गुणों के समूह अपने अभेद पिण्ड के आश्रय से ही मोक्ष जावेंगे। प्र० २८. तो क्या तीनों काल में मोक्ष का उपाय एक ही है ? उ० भूत भविष्य वर्तमान में मोक्ष का उपाय एक ही है दूसरा नहीं। प्र० २६. तीनों कालों में मोक्ष का उपाय एक ही है ऐसा कहीं शास्त्रों में आया है ? (१) प्रवचनसार गा) ८२, १६६, २४२ में । (२) परमात्म प्रकाश अध्याय दूसरा गा० १११, १३३ । (३) धवल भाग १३वां, पृष्ठ २८४, २८३ पर। (४) तत्वार्थ सूत्र पहिले अध्याय का पहिला सूत्र । (५) नियमसार गा० ६० कलश १२१ तथा गा० ३ तथा गाo की टीका। (६) समयसार गा० १५६ । (६) छहढाला में तीसरी ढाल पहिला दोहा (८) रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० २, ३, उo Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) आदि सब अनुयोगों में मोक्ष का उपाय एक हौ है । प्र० ३०. कैसा करने से जीव कभी मुक्त नहीं होगा ? उ० (१) अपनी आत्मा के प्रलावा अनन्त आत्माओं का अनन्तनंत पुद्गलों का धर्म ग्रधर्म आकाश और लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्यों का ग्राश्रय लेने से कभी भी मुक्त नहीं होगा इसलिए हटाओ दृष्टि, पर द्रव्य के अस्तित्व से । (२) हिसादि अशुभभावों और दयादानपू, जा, यात्रा अणुव्रत महाव्रत व्यवहार रत्नत्रयादि के आश्रय से कभी भी मुक्त नहीं होगा, इसलिए हटाओ दृष्टि विकारी पर्याय के अस्तित्व से । (३) अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय एक समय की होती है इसलिए हटावो दृष्टि पूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय के अस्तित्व से । ( ४ ) एकमात्र अनन्त गुणों के पिण्ड ज्ञायक भगवान पर ही दृष्टि उ० देने से धर्म की शुरूआत वृष्टि और पूर्णता होती है इसलिए एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव के अस्तित्व पर दृष्टि लगावो तो कल्याण होगा । प्र० ३१. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र श्रेणी अरहंत सिद्ध दशा के लिए किसका आश्रय करें ? एकमत्र अपने अनंत गुणों के प्रभेद पिण्ड पर दृष्टि देने से ही सम्यग्दर्शनादि श्रेणी अरहंत और सिद्ध दशा की प्राप्ति होती है । प्र० ३२. जब मैं अनंत गुणों का अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान हूँ, ऐसा दृष्टि में लेते ही धर्म की शुरूआत, वृद्धि और क्रमश: पूर्णता होती है तो भगवान के दर्शन करो, पूजा करो, यात्रा करो, शास्त्र पढ़ो, अरणुव्रत महाव्रत व्यवहार रत्नत्रयादि पालों का उपदेश क्यों है ? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) उ० (१) प्रथम निर्विकल्प दशा शुद्धोपयोग की दशा में उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा चौथे गुणस्थान में देव गुरु शास्त्र की भक्ति आदि का विकल्प हेय बुद्धि से आता है । वैसे पांचवे गुणस्थान में अणुव्रतादि का,छठे गुणस्थान में महाव्रतादि का विकल्प हेय बुद्धि से आता है। (२) मोक्ष नहीं हुअा, परन्तु मोक्षमार्ग हुआ है तो वहां चारित्र गुगा की पर्याय में दो अंश हो जाते हैं, शुद्धि प्रश और अशुद्धि अश। तो अशुद्धि का ज्ञान कराकर स्वभाव का प्राश्रय पूर्ण करके उमका अभाव करे इसलिए भूमिकानुसार यात्रा अगुव्रतादि विकल्प होता है तो बोलने की भाषा में पालन करो-ऐसा कहा जाता है। प्र० ३३. कैसा करने से सम्यग्दर्शन होता है, और कैसा करने से सम्यग्दर्शन नहीं होता ? उ० मैं अनन्त गुग्गों का अभेद पिण्ड हूँ ऐसा अभेद का आश्रय करने मे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है और देव गुरु शास्त्र का दर्शन मोहनीय के क्षयादि की ओर दृष्टि करने से सम्यग्दर्शन नहीं होता है। प्र० ३४. कैसा करने से थावकपना नही पाता है ? उ० सम्यग्दर्शन के बाद अनन्त गगों के अभेद पिण्ड का प्राश्रय बढ़ाने से शुद्धोपयोग दशा में श्रावकपना पाता है और अणुव्रतादि बाहरी क्रियाओं और शूभभावों से कभी भी श्रावक पना नहीं पाता है। प्र० ३५. कैसा करने से मुनिपना थेगीपना आता है और कैसा करने से श्रेणोपना नहीं पाता है ? उ० सम्यग्दर्शनादि होने बाद चौथे या पांचवें गुणस्थान में अपने गुणों Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अभेद पिण्ड का विशेष प्राथय होने से शुद्धोपयोग दशा में मुनिपना आता है श्रेणीपना आता है और २८ मूलगुणादि बाहरी क्रियायों या विकारी भावों से कभी भी मुनिपना श्रेणीपना नहीं पाता है । प्र० ३४. तो मिथ्यादृष्टि पूजा पाठ यात्रा आदि ना करे, क्योंकि आप कहते हो सम्यग्दर्शन के बिना पूजा पाठ यात्रा आदि पर व्यवहार का आरोप भी नहीं पाता है ? उ० (१) पहिले गुणस्थान में जिज्ञासु जीवों को शास्त्राभ्यास, अध्ययन मनन, ज्ञानी पुरुषों का धर्मोपदेश श्रवण. निरन्तर उनका समागम, देव-दर्शन, पूजा भक्ति आदि शुभ भाव होते हैं किन्तु उनके व्रत तप आदि सच्चे नहीं होते हैं ? (२) व्रत दान पूजा अादि करने वाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी, यह जानना आवश्यक है। यदि अज्ञानी हैं तो उनके व्रत दान आदि होते नहीं, इसलिए उन्हें छोड़ने और करने ना करने का प्रश्न ही नहीं होता है । और यदि ज्ञानी हैं तो छद्मस्थ दशा में व्रत का त्याग करके अशुभ में जावे, ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है । परन्तु ऐसा हो सकता है क्रमशः शुभ भाव को दूर करके शुद्ध भाव की वृद्धि करे, सो ठीक ही है । प्र० ३७. मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान हूँ जबतक ऐसा अनुभव ना हो तो क्या करना ? उ० जैसे हमने देहली जाना है और किसी वजह से देहली जाना न बने तो क्या हम देहली जाने के बजाय बम्बई चले जावेंगे ? कभी नहीं, परन्तु देहली जाने का प्रयत्न करेंगे; उसी प्रकार मुझे अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड का अनुभव करना है यदि वह ना हो तो, मैं क्या करूँ ? अरे भाई ! Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) 'उसे अनुभव का प्रयत्न करना । और यदि उसके बदले बाहरी क्रियाओं विकारी भावों में लग जावे तो प्रात्मा का अनुभव नहीं होगा बल्कि चारों गलियों में घूमता हुअा निगोद चला जावेगा । प्र.) ३७. क्या प्रमात्मा का अनुभव हुषे बिना पूजा यात्रा अणुव्रतादि कुछ भी कार्यकारी नहीं है ? उ० प्रात्मा का अनुभव हुवे बिना अरण्यरोदन है, कुछ भी कार्यकारी नहीं है बलिक अनर्थकारी है। छहहाला में कहा है : (१) निव्रत धार यानंन बार ग्रीवक उपजायो, । पनिजाग ज्ञान बिना सूख लेश न पायो । (२) समयमारजी में १५४ गाथा में नपुंसक कहा है। (३) मोक्षमार्ग प्रकाशक में मिथ्याटि पापी असंयमी कहा है। (४) प्रवचनसार २७१ में संसार का नेता कहा है। (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में नीच कहा है। प्र० ३८. विश्व में अज्ञानी को कितने द्रव्य दिखते हैं ? उ० एक भी नहीं दिखता । (समयसार कलश पहला देखो) प्र० ३६. भगवान ने द्रव्य का स्वरूप पहिले क्यों बताया ? उ० अनादिकाल से चैतन्य प्रात्मा अपना द्रव्य है उसके संबंध में भूल है इसलिए द्रव्य को पहिले बताया है । प्र० ४७. अहानी लोग द्ररा किसे कहते हैं ? उ० रुपया, सोना, चान्दी को द्रव्य कहते हैं । प्र० ४१. भगवान ने द्रव्य किसे बताया ? उ० गुणों के समूह को द्रव्य कहा है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) प्र० ४२. आप गुणों के समूह को ही द्रव्य कहते हो, परन्तु भगवान ने (१) गुण पर्ययवत् द्रव्यम् । (मोक्षशास्त्र अध्याय ५ सूत्र ३८) (२) गुण पर्यय समुदायो द्रव्यम् (पचाध्यायी भाग १ ग! ७२) (३) गुण समुदायो द्रव्यम् । (पंचाध्यायी भाग १ गा० ७३) (४) तथा समगुण पर्यायो द्रव्यम् ( , ) (५) द्रव्यत्वयोगाद द्रव्यम् । द्रव्य की परिभाषा कहो है वह क्यों ? उ. इनमें से किसी एक को जब मुख्य करके कहा जाता है तब शेष लक्षण भी उसमें गभित रूप से आ ही जाते हैं इसलिए प्राचार्यों ने दूसरे प्रकार से द्रव्य का लक्षण कहा है। भाव सबका एक ही है-ऐसा जानना । प्र० ४३. अन्य मिथ्यादृष्टि लोग अपनी महिमा किस किस से मानते हैं ? उ० (१) मैं पुत्र वाला (२) मैं स्त्री वाला (३) मैं रुपया पैसा बाला (४) मैं सुन्दर रूप वाला (५) मैं क्षमावाला (६) मैं महाव्रती (७) मैं अणुव्रतो (८) मैं ऐलक क्षुल्लक मुनि हूँ (8) मैंने स्त्री पुत्रादि का त्याग किया है अदि अप्रयोजनभूत बातों में अपनी महिमा मानते हैं । मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भगवान हूँ इससे अपनी महिमा नहीं मानते हैं। प्र० ४४. भगवान ने आत्मा की महिमा किससे बताई है ? उ० गुणों के समूह से आत्मा की. महिमा बताई है, पर और विकारी भावों से नहीं। प्र० ४५. भगवान ने गुणों के अभेद पिण्ड को अनुभव करने से ही आत्मा की महिमा क्यों बताई ? उ० गुणों के अभेद पिण्ड को अनुभव करने से मिथ्यात्व का अभाव Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) और धर्म की शुरूआत वृद्धि और पूर्णता होती है इसलिए इसकी महिमा बताई है । और पर और विकार की महिमा करने से निगोद की प्राप्ति होती है । प्र० ४६. 'गुणों का समूह' वह द्रव्य है सो द्रव्य में गुरण किस प्रकार रहते हैं ? उ० जैसे चीनी में मिठास, अग्नि में उष्णता, सोने में पीलापन है, उसी प्रकार द्रव्य में गुण हैं । प्र० ४७. भगवान ने द्रव्य से गुणों का कैसा संबंध बताया है ? नित्य तादात्म्य संबंध बताया है । उ० प्र० ४८. जैसे घड़े में बेर है उसी प्रकार द्रव्य में गुण है ना ? बिल्कुल नहीं । उ० (१) जैसे घड़े में बेर डाले गये हैं और निकाले जा सकते हैं, उस प्रकार द्रव्य में गुग्ण डाले गये हैं और निकाले जा सकते हैं - ऐसा नहीं है । (२) बेर घड़ के सम्पूर्ण भाग में नहीं है जबकि गुरण द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में होता है । (३) बेर घड़े के सम्पूर्ण अवस्थाओं में नहीं है जबकि गुण द्रव्यी की सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहता है । (४) घड़ा फूट जावे तो वेर निकल जावेंगें जबकि द्रव्य में से गुरण कभी निकलते नहीं, विखरते नहीं हैं । प्र० ४६. ( १ ) जैसे एक थैली में सौ रुपया के पैसा भरकर मुंह बंद कर दिया वैसे ही द्रव्य में गुण है ना ? (२) एक थैली में नमक मिर्च हल्दी आदि भरकर उसका मुंह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६. ) बन्द कर दिया वैसे ही द्रव्य में गुण हैं ना ? जैसे एक बोरे में गेई भर दिया वैसे ही द्रव्य में गुग है ना? (४) जैसे एक थैले में चाय न भरकर उसका मुह बन्द कर दिया वैसे ही द्रव्य में गुग हैं ना ? (५) एक किताब में ५०० पत्र हैं उसी प्रकार द्रव्य में गुण है ना (६) जैसे एक कमरे में अनेक चीजें भरी हैं वैसे ही द्रव्य गगा हैं ना ? (७) जैसे कमरे में गरमी भर दी उसी प्रकार द्रव्य में गण हैं ना ? (५) जैसे इस कमरे में अनन्त जीव अनान्तनन्त पुद्गल और कालाणु भरे हैं उसी प्रकार द्रव्य में गुगा है ना ? (8) जैसे थैली में जेबर पर हैं उसी प्रकार द्रव्य में गगा हैं ना ? उ० इन सबका उत्तर प्रश्न ४६ के अनुसार जबानी दो। प्र० ५०. नित्य तादात्म्य संबंध को कब माना ? उ० जब सम्यग्यदर्शनादि की प्राप्ति करे तब माना। प्र० ५१. नित्य तादात्म्य संबंध को कर्ता-कर्म अधिकार समयसार में बिस नाम से कहा है ? और उसका फल क्या बताया ? उ० तादात्म्य सिद्ध संबंध बताया है उसका फल मस्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की प्राप्ति कहा है। प्र. ५२. विकारी भावों को कर्ताकर्म में किस नाम से कहा है, और उसका फल क्या बताया है ? उ० विकारी भावों के संबंध को संयोग सिद्ध संबंध नाम बताया है उसका फल मिथ्यादर्शनादि की प्राप्ति कहा है ? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) प्र० ५३. क्या शुभ भावों से निगोद की प्राप्ति होती है ? उ० नहीं ! शुभ भाव पुण्यबंध का कारण है । और शुभ भाव से मुझे मोक्ष मिलेगा, ऐसा माने तो निगोद की प्राप्ति होती है । प्र० ५४. विश्व में ऐसा कौन सा द्रव्य है जिसमें गुरण न हो ? उ० जिसमें गुण न हो ऐसा द्रव्य विश्व में है ही नहीं । प्र० ५५. गुणों को कौन नहीं मानता ? उ० श्वेताम्बर । है ? प्र० ५६. द्रव्य गुणा वेद रूप हैं या प्रद भेद रूप भी हैं और प्रभेद रूप भी हैं । प्र० ५७. द्रव्य गुणा भेद रूप कैसे हैं ? उ उ० प्र० ५८. द्रव्य गुण प्रभेद रूप कैसे हैं ? प्रदेशों की ग्रांक्षा, क्षेत्र की b2 s उ० सज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा भेद रूप है । है । अपेक्षा और काल की अपेक्षा प्रभेद प्र० ५६. द्रव्य, गुण, 'संना' अपेक्षा भेद रूप कैसे है ? उज् उ. एक नाम द्रव्य है दूसरे नाम गुग्गा हैं । यह संज्ञा भेद रूप है । प्र० ६०. द्रव्य, गुण, संख्या अपेक्षा भेद रूप कैसे है ? द्रव्य एक है गुगण अनेक हैं यह संख्या भेद रूप है । प्र० ६१. द्रव्य गुण लक्षरण की अपेक्षा भेद रूप कैसे हैं ? उ० (१) गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । (२) द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थामों में रहता है उसको गुण कहते हैं । यह लक्षण भेद रूप है । प्र. ६२. छह द्रव्यों को दो-दो भेद रूप में बांटो । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० (१) जीव, अजीव (२) रूपी, अरूपी (३) क्रियावती शक्ति भाववती शक्ति (४) बहुप्रदेशो और एक प्रदेशो (५) वैभाविक शक्ति सहित और वैभाविक शक्ति रहित (६) जड़ और चेतन (७) एक अनेक । प्र० ६३. जीव अजीव कौन २ है ? उ० जीव मात्र जीव, बाकी अजीव है । प्र० ६४. रूपी और अरूपी कौन २ हैं ? उ० पुद्गल रूपी है बाकी अरूपी है । प्र० ६५. क्रियावती शक्ति और भाववती शक्ति वाले कौन २ है ? उ० जीव पुद्गल क्रियावती शक्ति वाले और सब द्रव्य तथा जोव पुद्गल भी भाववती शक्ति वाले हैं। ५० ६६. बहुप्रदेशी और एक प्रदेशी कौन हैं ? उ० परमाणु और काल द्रव्य एक प्रदेशी हैं बाकी बहुप्रदेशी हैं । प्र० ६७. वैभाविक शक्ति सहित और रहित कौन २ हैं ? उ० जीव और पुद्गल वैभाविक शक्ति सहित है बाकी रहित हैं। प्र० ६८. अड़ चेतन कौन २ हैं ? उ० जीव चेतन बाकी अचेतन हैं । प्र० ६६. एक और अनेक कौन २ हैं ? उ० धर्म अधर्म आकाश एकेक हैं बाकी अनेक हैं। प्र० ७०. जीव के कितने भेद हैं ? उ० संसारी और सिद्ध दो भेद हैं । प्र० ७१. जगत में क्षेत्र की अपेक्षा सबसे बड़ा द्रव्य कौन सा है ? उ० आकाश द्रव्य है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) प्र० ७२. अस्तिकाय किसे कहते हैं ? उ० बहुप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहते हैं । प्र० ७३. छः द्रव्यों के वणन से क्या समझना चाहिए ? उ० (१) जीव सदा अरूपी होने से उसके गुण सदैव अरूपी हैं इस लिए किसी भी काल में निश्चय से या व्यवहार से हाथ पैर आदि का चलाना, स्थिर रखना, धर्म, अधर्म, आकाश काल आदि द्रव्यों से हे अात्मा तेरा किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसा निर्णय करे इसलिये छः द्रव्यों का वर्णन किया है। (२) अनादिनिधन छहों द्रव्य भिन्न २ अपनी २ मर्यादा सहित परिगमते हैं कोई किगी का परिणमाया परिणमता नहीं ऐसा जानकर भेद विज्ञान कर ज्ञाता स्वभाव की श्रद्धा करके ज्ञाता दृष्ष्टा रहना छः द्रव्यों के जानने का फल है । प्र०७४. (१) शास्त्रों में कर्म चक्कर कटाता है (२) जीव पुद्गल का और पुद्गल जीव का उपकार करता है (३) धर्म चलाता है (४) अधर्म ठहराता है (५) आकाश जगह देता है (६) काल परिणमाता है ऐसे कथन का क्या अर्थ है ? उ० निमित्तादि की अपेक्षा कथन किया है इसका अर्थ ऐसा है नहीं ? ) प्र० ७५. द्रव्य का लक्षण तत्वार्थ सूत्र में क्या बताया है ? उ० सत् द्रव्यलक्षणम उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त सत् (मो० शा० अ०५सू० २६-३०) प्र ७६. क्या तात्पर्य रहा ? Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० मान । प्र० ७७. किन-किन द्रव्यों का क्षेत्र समान है ? उ० जीव, धर्म, अधर्म द्रव्य का क्षेत्र असंख्यात देशी है । प्र ७८. सब असंख्य काल द्रव्यों का विकाल निमित्त किस-किस द्रव्य को है ? ( ६४ ) हे आत्मा ! तेरा अन्य द्रव्यों से कोई संबंध नहीं है ऐसा तू जान, उ० धर्म ग्रथमं और लोकाकान को है ? प्र० ७६. नीचे लिखे वाक्यों पर छ द्रव्यों को साबित करो । १ गिरनार पर्वत ऊपर से ( आकाश द्रव्य ) २ बाहुबलि स्वामी ( जीव द्रव्य ) ३ मैं ( जीव द्रव्य) ४ प्रभात समय में ( कालद्रव्य ) ५ स्वर्णपुरी में (आकाश) ६ आत्मा का हित (जीव ) ७ आठ वर्ष का ( काल द्रव्य ) ८ भगवान (जीव ) प्रभु ( जीव द्रव्य) ! नेमिनाथ भगवान भोक्ष पधारे ( जीव द्रव्य) चन्द्रगिरी पहाड़ खापन विराजे हैं। पर (आकाश) (धर्मास्तिकाय) सम्मेद शिखर की यात्रा को जाता (प्रकाश) (धर्मास्तिकाय) होकर वो (धर्मास्तिकाय) सुन्दर स्थित है (अधर्म द्रव्य ) मन्दिर ( श्राकाश) मानस्तम्भ (पुद्गल) तुरन्त करो ( काल द्रव्य ) मनुष्य (जीव ) सिद्धालय में (धर्मास्तिकाय) ( आकाश ) पावापुरी से (आकाश) महावदेह से (आका सादि अनन्त (काल) चौथे काल में (काल मोक्षजाता है (धर्मास्तिकाय) स्थित रहते हैं (अधर्मास्तिकाय) मोक्ष पधारे (अधर्मास्तिकाय) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) १० सीमवर प्रभु | समवशरण में | छः छः घड़ी | उपदेश देते हैं (जीव) | (आकाश) | (काल) । (पुद्गल) ११ गौतम स्वामो मानम्तम्भ के पास प्राये तो | हृदय पलटा (जीव) (पुद्गल) (धर्मास्तिकाय) | (काल द्रव्य) १२ इन्द्र | सदैव सुरालय मेंसे| तीर्थंकर देव के | दर्शन को पाते है ___(जीव) (काल) (आकाश) | (जीव-पुद्गल) (धर्मद्रव्य) १३ कुन्दकुन्दाचार्य | कुन्दनगिरी पर | निजध्यान में स्थित हैं (जीव) (आकाश) १४ मुनिवर ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ पर ध्यान में बैठे हैं (जीव) । (काल) | (अधर्मास्तिकाय) १५ नन्दीश्वर धाम में शाश्वत जिनमन्दिर स्थित हैं (आकाश) । (काल) (पुद्गल) (अधर्मास्तिकाय) १६ समोशरणमें बैठे हुए हों। | तब , जीवोंको तीव कषाय नहीं होती (प्राकाश) । (अधर्म द्रव्य) | (काल) १७ जीव | संसार से | मोक्ष पधारा (जीव द्रव्य) । (आकाश) I (धर्मास्तिकाय) (अधर्मा स्तिकाय) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६ गुण प्र. १. गुण किसे कहते हैं ? उ. जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है उसे गुण कहते हैं । प्र० २. गुण के पर्यायवाची शब्द क्या २ हैं ? उ० शक्ति, धर्म, स्वभाव आदि गुण के पर्यायवाची शब्द हैं । प्र० ३. गुण की व्याख्या में क्षेत्र वाचक' शब्द क्या हैं ? उ० सम्पूर्ण भागों में। प्र० ४. गुण की व्याख्या में 'काम वाचक' शब्द क्या है ? उ० सम्पूर्ण अवस्थाओं में। प्र० ५. गुण की व्याख्या में 'द्रव्य वाचक' शब्द क्या है ? उ० द्रव्य में। प्र० ६. गुण की व्याख्या में 'भाव वाचक' शब्द क्या हैं ? उ० उसे गुण कहते हैं। प्र० ७. गुण को व्याख्या में 'सम्पूर्ण भागों' में क्या सूचित करता है ? उ० (१) गुण द्रव्य के पूरे हिस्से में होता है कम ज्यादा में नहीं होता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ८. उ० प्र० ६. उ० उ० ( ६७ ) (२) जितना बड़ा गुरण है उतना ही बड़ा क्षेत्र (स्थान) द्रव्य का है । गुरण की व्याख्या में "सम्पूर्ण अवस्थाओं में" क्या सूचित करता है ? (१) गुरण द्रव्य से कभी भी, किसी भी समय पृथक नहीं होता है । (२) गुरण और द्रव्य दोनों अनादि अनन्त हैं । प्र० १०. द्रव्य पहले या गुरण पहले ? गुण की व्याख्या को द्रव्य क्षेत्र काल भाव में बांटो ? (१) जो द्रव्य ........ .. यह द्रव्य को सूचित करता है । (२) सम्पूर्ण भागों मैं.. .. यह क्षेत्र को सूचित करता है । (३) सम्पूर्ण अवस्थाओं में.. (४) उसको गुरण कहते हैं .. . यह काल को सूचित करता है । . यह भाव को सूचित करता है । उ० दोनों एक साथ प्रर्थात् प्रनादि अनन्त हैं । प्र० ११. द्रव्य में गुरण किस प्रकार हैं ? 30 जैसे गुड़ में मिठास, पानी में ठन्डक और अग्नि में उष्णता । है उसी प्रकार द्रव्य में गुण है । प्र० १२. द्रव्य में गुरण किस प्रकार नहीं है ? जैसे घड़े में बेर हैं उस प्रकार नहीं हैं । उ० प्र० १३. द्रव्य के पूरे हिस्से और सब हालतों में रहने वाले कौन हैं ? उसके गुण । प्र० १४. जिस प्रकार माचिस में सींक हैं उसीप्रकार द्रव्य में गुण हैं ना ? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि माचिस डिब्बी के पूरे भाग और सम्पूर्ण अवस्थाओं में नहीं है। प्र० १५. द्रव्य में गुण दूध में जल की तरह है ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि दूध और जल का संयोगसंबंध है जबकि द्रव्य गुण का नित्य तादात्म्य संबंध हैं । प्र० १६. एक गुण द्रव्य के कितने भाग में है ? उ० सम्पूर्ण भाग में । प्र० १७. गुण कितने प्रकार के हैं ? उ० सामान्य और विशेष दो प्रकार के हैं । प्र० १८. सामान्य गुण किसे कहते हैं ? उ० जो समस्त द्रव्यों में रहते हैं उन्हें सामान्य गुण कहते हैं । प्र० १६. विशेष गुण किसे कहते हैं ? उ० जो सब द्रव्यों में न रहकर अपने अपने द्रव्यों में रहते हैं उन्हे विशेष गुण कहते हैं। प्र० २०. सामान्य गुणों का क्षेत्र बड़ा है या विशेष गुणों का ? उ० दोनों का समान क्षेत्र है क्योंकि दोनों द्रव्य के सम्पूर्ण भागो में रहते हैं। प्र० २१. प्रत्येक द्रव्य में रहने वाले प्रत्येक गुण को भिन्न भिन्न किस आधार से करोगे ? उ. प्रत्येक गुण के भिन्न भिन्न लक्षण से । प्र० २२. द्रव्य से गुण किस अपेक्षा पृथक है ? Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) उ० किसी भी अपेक्षा से (निश्चय यो व्यवहार से) द्रव्य से गुण पृथक नहीं है। प्र० २३. ऐसे द्रव्यों के नाम बतानो जिसमें सामान्य गुण हों और विशेष गुण ना हों ? उ० ऐसा एक भी गुण नहीं है क्योंकि जहां सामान्य गुण होते हैं वहां विशेष गुण नियम से होते ही हैं। प्र० २४. द्रव्य में सामान्य गुण ना माने तो क्या नुकसान है ? उ० द्रव्यपना ही ना रहे प्रर्थात् द्रव्य के नाश का प्रसंग उपस्थित हो जावेगा। प्र० २५. द्रव्य में विशेष गुण ना माने तो क्या नुकमान है ? उ. एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से अलग न कर सकेगे ? प्र० २६. द्रव्य गुण में संख्या भेद है या नहीं ? उ० है । द्रव्य एक और गुण अनेक ऐसा प्रत्येक द्रव्य में है। प्र० २७. ज्ञान गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उ० ज्ञान गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थानों में त्रिकाल रहता है। प्र० २८. (१) रस गुण (२) चारित्र गुण (३) ज्ञान गुण (४) गति हेतुत्व गुण (५) वर्ण गुण (६) परिणमन हेतुत्व गुण (७) गंध गुण (८) प्रवगहन हेतुत्व गुण (6) प्रानन्द गुण (१०) अस्पर्श गुण प्रादि सबको गुण की परिभाषा में लगाकर बतायो ? उ० (१) रस गुण पुद्गल द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण प्रव स्थानों में त्रिकाल रहता है। इसी प्रकार जबानी ६ लगायो। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) प्र० २६. रस गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल पाया जाता है ? उ० ठीक नहीं है क्योंकि रस गुण पुद्गल द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थानों में पाया जाता है जीव द्रव्य में नहीं। प्र० ३०. (१) श्रद्धा गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाया जाता है। (२) कियावतीशक्ति द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अव स्थानों में पायी जाती है। (३) गति हेतुत्व गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण प्रवस्थानों में पाया जाता है। (४) चारित्र गुण जीव और पुद्गल के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थानों में पाया जाता है । (५) गंध गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाया जाता है। (६) ज्ञान गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाया जाता है। ऊपर के वाक्यों में गुण की परिभाषा जिस द्रव्य के साथ लगाई है वह ठीक है या नहीं। यदि गलत है तो ठीक बतायो ? उ० जबानी लगाकर बतानो [प्रश्न २६ के मुताबिक] प्र० ३१. गुणों के जानने से क्या लाभ है ? उ० मैं जीव द्रव्य हूँ और अपने अनन्त गुणों से भरपूर तीनों काल श्रीमंत हूँ, रंक नहीं हूं, ऐसा जानकर अपने में लीन होना यह गुणों के जानने का लाभ है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) प्र० ३२. छहों द्रव्यों में पाया जाता है उसे क्या कहते हैं ? सामान्य गुण । प्र० ३३. जो अपने अपने द्रव्य में पाया जाता है उसे क्या कहते हैं ? विशेष गुण । उ० उ० प्र० ३४. सामान्य गुण कितने है ? अनेक हैं लेकिन मुख्य छह हैं । उ० उ० प्र० ३५. सामान्य गुरण अनेक हैं उनमें छह को हो मुख्य क्यों किया ? यहां पर मोक्षमार्ग की सिद्धि करना है इसलिए इन छह सामान्य गुणों से मोक्षमार्ग की सिद्धि जानकर मुख्य किया है । २ से हैं ? प्रo ३६. मुख्य छह सामान्य गुण कौन १. अस्तित्व २. वस्तुत्व ३. द्रव्यत्व घुत्व ६. प्रदेशत्व । उ० हैं और कौन २ से हैं ? प्र ० ३७. जीव के विशेष गुण कितने जीव के विशेष गुण भी अनेक हैं । दर्शन ज्ञान चारित्र, मुख, क्रियावती शक्ति, वैभाविक शक्ति इत्यादि । उ० ४. प्रमेयत्व ५. गुरूल प्र० ३८. पुद्गल के विशेष गुण कितने हैं और कौन २ से हैं ? उ० उ० पुद्गल के विशेष गुण अनेक हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, क्रियावती शक्ति वैभाविक शक्ति इत्यादि । प्र० ३६. धर्म द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं और कौन २ से हैं ? धर्म द्रव्य के विशेष गुगा अनेक हैं । गति हेतुत्व इत्यादि । प्र० ४०. अधर्म द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं और कौन २ से हैं ? धर्म द्रव्य के विशेष गुण अनेक हैं । स्थिति हेतुत्व इत्यादि । उ० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) प्र० ४१. प्राकाश द्रव्ध के विशेष गुग्ग कितने हैं और कौन २ से हैं ? उ० आकाश द्रव्य के विशेष गुगा अनेक हैं । अवगाहन हेतुत्व इत्यादि प्र० ४२. काल द्रव्य के विशेष गुग्ग कितने हैं और कौन २ से हैं ? उ० काल द्रव्य के विशेष गुण अनेक हैं। परिगमन हेतुत्व इत्यादि । प्र० ४३. विशेष गुण में इत्यादि शब्द क्या मूचित करता है ? उ० और भी विशेष गुण हैं यह मूचित करता है । प्र० ४४. प्रत्येक गुण के कार्य क्षेत्र की मर्यादा कितनी है ? उ० प्रत्येक गुण अपना अपना ही कार्य करता है । एक द्रव्य में रहने वाले अनन्त गुण एक दूसरे का कुछ भी नहीं करते हैं। जैसे ज्ञान गुण ज्ञान का ही कार्य करेगा । श्रद्धा चारित्र का कार्य नहीं करेगा। प्र० ४५. छह द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायों को जानने का क्या फल ? १. स्व पर का भेद विज्ञान २. अनादि काल से जो पर में करने धरने की बुद्धि और पर को भोगने की बुद्धि का अभाव होना । ३. सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रमश: मोक्ष की ओर जाना। यह द्रव्य गुण पर्यायों के जानने का फल है। 10 ४६. द्रव्य के सामान्य और विशेष गुणों पर से द्रव्य की परिभाषा बनायो? उ० सामान्य और विशेष गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । प्र० ४७. चैतन्य गुण गति कर सकता है ? Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) उ० जब जीव क्षेत्रान्तर रूप गमन करता है तब चैतन्य गुण जीव के साथ प्रभेद होने से उसका भी गमन होता है, उसमें जीव की क्रियावती शक्ति अन्तरंग निमित्त है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ По उ० पाठ १० पर्याय उ० १. पर्याय किसे कहते हैं ? गुणों के विशेष कार्य को पर्याय कहते हैं । Я о २. दर्शन मोहनीय के क्षय से सम्यक्त्व हुआ तो पर्याय को कब माना ? कब नहीं ? सम्यक्त्व हुआ। यह पर्याय है श्रद्धा गुण में से बाई तब पर्याय को माना और दर्शन मोहनीय के क्षय से ग्राई तो पर्याय को नहीं माना । По ३. (१) केवल ज्ञानावर्णी के प्रभाव से केवल ज्ञान होता है । (२) श्रख से ज्ञान होता है । ( ३ ) गुरू से ज्ञान होता है । ( ४ ) दिव्यध्वनि से ज्ञान की प्राप्ति होती है । (५) चारित्र मोहनीय के क्षय से चारित्र होता है । (६) बाल बच्चों से सुख मिलता है । ( ७ ) भगवान के ग्राश्रय से सम्यक्त्व होता है । (८) कुम्हार घड़ा बनाता है। (६) बाई रोटी बनाती है । (१०) कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार बनाया आदि वाक्यों में पर्याय को कब माना और कब नहीं ? 1 उ० (१) केवल ज्ञानावरण के प्रभाव से केवल ज्ञान होता है । इस वाक्य में, जिसको गुणों के विशेष कार्य को पर्याय कहते हैं. ऐसा ज्ञान होगा वह जानता है ज्ञान गुण क. विशेष कार्य केवल ज्ञान है केवल जानावर्णी के प्रभाव से नहीं है । और केवल ज्ञानावर्णी का प्रभाव पर्याय है । यह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) कारण वर्गणा का कार्य है । ऐसा ज्ञान वर्ते तो पर्याय को माना कहा जावेगा। और कोई ज्ञानावर्णी के अभाव से ही केवल ज्ञान होता है ऐसा माने तो उसने गुणों के विशेष कार्य को पर्याय कहते हैं, नहीं माना। इसी प्रकार : वाक्यों में जबानी लगाकर बतायो । प्र. ४. पर्याय का सच्चा ज्ञान हो, तो क्या हो ? उ० पर से मेरी पर्याय आती है - ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है । पर्याय का सच्चा ज्ञान सम्यग्दृष्टि को ही होता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं।। प्र० ५. पर्याय के कितने भेद हैं ? उ० व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय यह दो भेद हैं। प्र० ६. पर्याय किससे होती है ? द्रव्य और गुणों से पर्याय होती है। प्र० ७. द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? उ० अनेक द्रव्यों में एकपने का ज्ञान होना द्रव्य पर्याय है । प्र० ८. द्रव्य पर्याय के कितने भेद होते हैं ? उ० दो भेद हैं। (१) समानजाति द्रव्य पर्याय (२) असमानजाति द्रव्य पर्याय । प्र० ६. समान जाति द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? उ० एक जाति के अनेक द्रव्यों में एकपने का ज्ञान समानजाति द्रव्य पर्याय है। प्र. १०. असमानजाति द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) उ० दो या अनेक जाति के द्रव्यों में एकपने का ज्ञान असमानजाति द्रव्य पर्याय है। प्र० ११. समानजाति द्रव्य पर्याय के कुछ नाम बतायो ? उ० (१) बिस्तरा (२) कम्बल (३) रोटी (४) हलवा (५) मेज (६) किताब । इसमें अनेक पुद्गलों में एकपने का ज्ञान होता है। यह समान जाति द्रव्य पर्याय के उदाहरण हैं। प्र० १२. असमान जाति द्रव्य पर्याय के कुछ नाम बतायो ? उ० आत्मा, द्रव्य कर्म और शरीर के संबंध को असमानजाति द्रव्य पर्याय कहते हैं। प्र० १३. समानजाति और असमानजाति द्रव्य पर्याय का ज्ञान कब कहा जावेगा। उ० (१) बिस्तरा कहते ही अनन्त पुद्गल परमारों में एकएक परमाणु अपने २ गुण पर्याय सहित पृथक-पृथक कार्य कर रहा है तब बिस्तरा को समान जाति द्रव्य पर्याय कहा जावेगा । (२) मनुष्य कहते ही प्रात्मा पृथक, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक शरीर भाषा और मन में एक २ परमाणु स्वतंत्र रूप से परिणमन कर रहा है तथा आत्मा का पुदगलों से कोई सम्बन्ध नहीं है । तब मनुष्य को असमानजाति द्रव्य पर्याय कहा जावेगा। इसका ज्ञान सम्यग्दृष्टि को ही होता; है मिथ्यादृष्टि को नहीं । प्र० १४. गुरण पर्याय किसे कहते हैं ? उ० गुण के कार्य को गुण पर्याय कहते हैं। प्र० १५. गुण पर्याय के कितने भेद हैं ? Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) उ. व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय यह दो भेद हैं । प्र० १६. व्यंजन पर्याय किसे कहते हैं ? उ० द्रव्य के प्रदेशत्व गुण के विशेष कार्य को व्यंजन पर्याय कहते प्र० १७. अर्थ पर्याय किसे कहते हैं ? उ० प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण गुणों के विशेष कार्य को अर्थ पर्याय कहते हैं। प्र० १८. व्यंजन पर्याय के कितने भेद हैं ? उ. दो भेद हैं । स्वभाव व्यंजन पर्याय और विभाव व्यंजन पर्याय प्र० १६. स्वभाव व्यंजन पर्याय किसे कहते हैं ? उ० पर द्रव्य के संबध रहित द्रव्य का जो प्राकार हो उसे स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे सिद्ध भगवान का प्राकार और परमाणु का आकार स्वभाव व्यंजन पर्याय है । प्र० २०. विभाव व्यंजन पर्याय किसे कहते है ? उ० पर निमित्त के संबंध वाले द्रव्य का जो प्राकार हो उसे विभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे जीव की नर-नारकादि पर्याय । प्र. २१. अर्थ पर्याय के कितने भेद हैं ? उ. दो भेद हैं-स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय । प्र. २२. स्वभाव अर्थ पर्याय किसे कहते हैं ? पर निमित्त के संबंध रहित जो अर्थ पर्याय होती है उसे स्वभाव अर्थ पर्याय कहते हैं जैसे जीव का केवलज्ञान, क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि । उ० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( ७८ ) प्र० २३. विभाव अर्थ पर्याय किसे कहते हैं ? उ० पर निमित के संबध वाली जो अर्थ पर्याय होती है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं। जैसे जीव में रागद्व पादिक । प्र० २४. मिथ्य दृष्टि संसारी जीवों में कौन २ सी पर्यायें होती हैं ? उ० विभाव व्यंजन पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय ही होती है। प्र० २५. सिद्ध भगवान में कौन २ सी पर्याय होती है ? उ० स्वभाव व्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्याय ही होती हैं। प्र० २६. चौथे गुगास्थान से १४वें गुगण स्थान तक कौन २ सी पर्याय होती हैं ? विभाव व्यंजन पर्याय, स्वभाष अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय इसी प्रकार तीन प्रकार को पर्यायें होती हैं। प्र० २७. चौथे से १४वे गुणस्थान तक तीन पर्याय एक सी होती हैं या कुछ अन्तर है ? उ० चौथे गुणस्थान से १४वें गुणस्थान तक जितनी शुद्धि है वह स्वभाव अर्थ पर्याय है और जो अशुद्धि है वह विभाव अर्थ पर्याय है। विभाव व्यंजन पर्याय में अन्तर नहीं है । प्र० २८. मिथ्यादृष्टि के अस्तित्व आदि गुण शुद्ध कहे जाते हैं उसकी उनके स्वभाव अर्थ पर्याय क्यों नहीं कही जाती है ? उ० जैसे किसी के पास होरा जवाहरात सोना चांदी दबा पड़ा है परन्तु उसे मालूम नहीं है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को अपना पता न होने से स्वभाव अर्थ पर्याय नहीं कही जाती है । प्र० २६. परमाणु में कौन २ सी पर्यायें होती हैं ? Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) स्वभाव व्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्याय ही होती है । उ० प्र० ३०. स्कंध दशा में कौन २ सी पर्यायें होती हैं ? उ० विभाव व्यंजन और विभाव अर्थ पर्यायें ही होती हैं । प्र० ३१. जैसे ग्रात्मा में चौथे गुणस्थान से स्वभाव अर्थ पर्याय, विभाव अर्थ पर्याय में अन्तर हो जाता है क्या ऐसा स्कंध में नहीं होता है ? 30 स्कंध में नहीं होता है | प्र० ३२. चारों प्रकार की पर्यायें किस द्रव्य में संभव है ? जीव और पुद्गल में ही संभव है बाकी में नहीं । उ० उ० प्र ० ३३. धर्म अधर्म ग्राकाश और काल में कौन २ सी पर्याय होती हैं ? स्वभाव व्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्यायें हो ग्रनादि अनन्त होती रहती हैं इनमें कभी विभाव होती ही नहीं हैं । प्र० ३४. द्रव्यलिंगी मुनि को कौन सी पर्याय होती हैं ? विभाव व्यंजन और विभाव अर्थ पर्याय ही होती हैं । उ० उ० प्र० ३५. प्रत्येक द्रव्य में व्यंजन पर्याय कितनी और अर्थ पर्याय कितनी ? प्रत्येक द्रव्य में व्यंजन पर्याय एक ही होती है और अर्थ पर्यायें अनेक ही होती हैं । प्र० ३६. प्रत्येक द्रव्य में व्यंजन पर्याय एक क्यों है ? उ० प्रत्येक द्रव्य में प्रदेशत्व गुण एक ही है उसके परिगमन को व्यंजन पर्याय कहते हैं इसलिये प्रत्येक द्रव्य में व्यंजन पर्याय एक एक ही है । प्र० ३७. अर्थ पर्याय अनेक क्यों हैं ? उ० प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी गुणों के परिणमन को अर्थ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ० ) पर्याय कहते हैं इसलिये प्रदेशत्व गुण के परिणमन को छोड़ कर बाकी जितने गुण हैं उतनी अर्थ पर्याय हैं इसलिए अर्थ पर्याय अनेक हैं। प्र. ३८. तुम्हारे प्रात्मा में व्यंजन पर्याय कितनी होती है और अर्थ पर्याय कितनी ? उ० मेरी आत्मा में व्यंजन पर्याय एक और अर्थ पर्यायें अनेक हैं। प्र० ३६. किताब में अर्थ पर्याय कितनी और व्यंजन पर्याय कितनी हैं ? उ० किताव परमाणुओं की समानजाति द्रव्य पर्यायें है इसलिये किताब में जितने परमाणु हैं उतनी व्यंजन पर्याय हैं और एक २ परमाणु में अनेक अनेक अर्थ पर्याय हैं। प्र० ४०. जीव द्रव्य में विभाव व्यंजन पर्याय कहाँ तक होती हैं ? उ. १४वें गुणस्थान तक विभाव व्यंजन पर्याय होती है । प्र० ४१. सादि अनन्त स्वभाव व्यंजन पर्याय किस द्रव्य में होती है ? उ0 सिद्ध दशा में सादि अनन्त स्वभाव व्यंजन पर्याय जीव में होती प्र. ४२. स्वभाव व्यंजन पर्याय में अन्तर और स्वभाव अर्थ पर्याय में समानता , क्या कभी ऐसा होता है ? उ सिद्ध दशा में आकार अलग अलग अर्थात किसी का सात हाथ, किसी का ५०० धनुष होने से स्वभाव व्यंजन पर्याय में अन्तर होता है और स्वभाव अर्थ पर्याय में समानता होती है ।। प्र० ४३. स्वभाव व्यंजन पर्याय में समानता और स्वभाव अर्थ पर्याय मैं अन्तर होता हो क्या ऐसा कभी होता है ? उ० परमाणु में सबका आकार एक प्रदेशी होने से स्वभाव ब्लॉजन Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पर्याय में समानता है और स्वभाव अर्थ पर्याय में अन्तर होता है । प्र० ४४. पहले अर्थ पर्याय शुद्ध हो फिर व्यंजन पर्याय शुद्ध हो, ऐसा उ० किन द्रव्यों में होता है ? किसी किसी गुगा की अर्थ द्रव्य के सब गुग्गों की अर्थ पर्याय व्यंजन पर्याय भी शुद्ध हो जाती है । पर्याय पहले शुद्ध होती है जब जीव परिपूर्ण शुद्ध हो जाय उसी समय प्र० ४५. स्वभाव व्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्याय किस द्रव्य में एक साथ होती है ? उ० पुद्गल परमाणु में होती है । प्र० ४६. नीम्बू के पेड़ में कौन कौन सी, कैसे २ पर्याय घट सकती हैं ? (१) नीम्बू का पेड़, आत्मा, कार्मारण, तंजस, श्रदारिक शरीर की अपेक्षा देखें तो ग्रसमानजाति द्रव्य पर्याय है । उ० ( २ ) ग्रात्मा से रहित नीम्बू को विचारे तो समानजाति द्रव्य पर्याय है । (३) नीम्बू को आकार की अपेक्षा विचारें तो विभाव व्यंजन पर्याय है । ( ४ ) नीम्बू को प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी गुणों की अपेक्षा विचारें तो विभाव अर्थ पर्याय हैं । कथन करने वाले के अभिप्राय की अपेक्षा यह बात है । प्र० ४७. ( १ ) दाल (२) किताब ( ३ ) महावीर भगवान (४) शब्द ( ५ ) मन (६) मकान (७) सोना (८) केवल ज्ञान ( 2 ) क्षायिक सम्यकत्व (१०) दर्शन मोहनीय का क्षय ( ११ ) ज्ञानावर्णी का उदय में समनजाति द्रव्य पर्याय, असमान जाति द्रव्य पर्याय, व्यंजन पर्याय, अर्थ पर्याय जो लग सकती हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) उसे लपाकर समभायो ? उ० (१) दाल अनेक पुद्गलों परमाणुत्रों का पिण्ड होने से ममान जाति द्रव्य पर्याय है। (२) आकार की अपेक्षा विभाव व्यंजन पर्याय है । (३) प्रदेशव गुगा को छोड़कर बाकी गृगों की अपेक्षा विभाव अर्थ पर्याय हैं। इसी प्रकार वाकी ह लगायो। प्र० ४८. प्रचेतन दाल का कर्ता कौन है । कौन नहीं है ? उ० दाल का कर्ता अाहार वर्गगा है, जीव और दूसरी वर्गगगा नहीं प्र० ४६. समयसार का कर्ता कौन है, कौन नहीं है ? उ० सपयसार का कर्ता शब्दों की अपेक्षा भाषा वर्गणा और पत्र की अपेक्षा प्राहार वर्गरणा है । श्री कुन्दकुन्द भगवान अमृतचन्द्राचार्य भगवान पौर दूसरी वर्गणा नहीं हैं ? प्र० ५०. रोटी का कर्ता कौन है, कौन नहीं है ? उ० रोटी का कर्ता आहार वर्गग्गा है. वाई चकला, बेलन, तवा और दूगरी वर्गणा नहीं है। प्र. ५१. शब्द का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? शब्द का कर्ता भाषा वर्गणा है, जीव और दूसरी वर्गणा नहीं उ० प्र० ५२. मन का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उ० मन का कर्ता मनोवर्गणा है, जीव और दूसरी वर्गणा नहीं है , Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " Sc ५३. मकान का कर्ता कौन है, कौन नहीं है ? उ० मकान का कर्ता आहार वर्गणा है, पैसा, सेठ, कारीपर और दुसरी वर्गणा नहीं है। प्र० ५४. बर्फ का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उ० वर्फ का कर्ता आहार वर्गणा है, जीव, बिजली, प्राईसपास और दूसरी वर्गरणा नहीं हैं। प्र० ५५. कपड़े का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? कपड़े का कर्ता आहार वर्गणा है मिल-मालिक, पशी और दूसरी वर्गग्गा नहीं है। प्र० ५६. आलमारी का कर्ता बढ़ई है या कौन है ? उ० अलमारी का कर्ता अाहार वर्गग्गा है बढ़ई, औजार प्रोर दूसरी वर्गगगा नहीं है। प्र० ५७. (१) सम्यक दर्शन (२) सम्यग्ज्ञान (३) सभ्यग्चारिष (४) केवलज्ञान (५) केवल दर्शन (६) पलंग (७) मीठा पाम (८) तंजर शरीर (8) कार्माण शरीर (१०) ज्ञानावर्णी का क्षयोपशम (११) दिव्य ध्वनि (१२) रसगुल्ला (१३) धोती (१४) कपड़ा मैला से साफ हुआ (१५) सिद्ध दशा (१६) कम्पन का अभाव (१७)वीर्य को पूर्ण प्रगटता (१८) यथास्यात चारित्र (१६) शुक्ल लेश्या (२०) नामकर्म 1 इनमें यह क्या है, II इनका कर्ता कौन है, III इनका कता कौव पहीं है IV पर्याय को कव माना, V पर्याय को कब नहीं माना इत्यादि वाक्यों को समझायो? उ० सम्यग्दर्शन स्वभाव अर्थ पर्याय है । सम्यग्दर्शन का कर्ता प्रात्मा का श्रद्धा गुगण है । सम्यग्दर्शन का कर्ता दर्शन मोहनीय के उपशमादि और Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) देव गुरू नहीं हैं । सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण में मे पाया तव पर्याय को माना और सम्यग्दर्शन दर्शन मोहनीय के उपगमादि से पाया तो पर्याय को नहीं माना। इसी प्रकार ? ६ वाक्यों का जवाब दो । प्र० ५८. समानजाति द्रव्य पर्यायों के नाम कहां आये हैं उनके कुछ नाम बतायो ? उ० (१) द्रव्य संग्रह के अजीव अधिकार में तथा तत्वार्थ सूत्र में नाये हैं। (२) टान्द, बंध,स्थूल,संस्थान,तम, छाया, अाताप, उद्योत इत्यादि प्र० ५६. (१) शाहारक शरीर (२) तैजस शरीर (३) कार्मा शरीर (४) वैक्रियक गरीर (५) प्रौदारिक शरीर I क्या है, II इनका कर्ता कौन हैं, || इनका कर्ता कौन नहीं है, IV पर्याय को कब माना, V पर्याय को कब नहीं माना इत्यादि का उत्तर दो ? उ० (१) आहारक शरीर मुनि की अपेक्षा विचार तो असमान जाति द्रव्य पर्याय है । और शरीर की अपेक्षा विचार समान जाति द्रव्य पयाय है। इसका कर्ता अाहार वर्गरणा है ऋद्धिधारी भूनि और दूसरी वर्गगगा नहीं है । आहार व गरीर का कर्ता पाहार वर्गणा है तब पर्याय को माना । .. आहारक शरीर का कर्ता मनि को माने या और वगंगा को माने तो पर्याय को नहीं माना। इसी प्रकार नार वाक्यों का जबाब दो । प्र. ६.. (१) पतिज्ञान (२) श्रु त ज्ञान (३) चक्षु दर्शन (४) अवग्रह Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) (५) ध्वनि (६) छाया (७) मिथ्यादर्शन (८) मिथ्याज्ञान ( ९ ) मिथ्याचारित्र (१०) क्रोध (११) लोभ (१२) दया (१३) दान का भाव आदि का I कर्ता कौन है ? II कर्ता कौन नहीं है ? III यह क्या है ? IV पर्याय को कब माना ? V और पर्याय को कब नहीं माना ? I मतिज्ञान का कर्ता ग्रात्मा का ज्ञान गुण है, II श्रौर कोई दूसरा गुण कर्म या विकार नहीं है, III यह पर्याय है IV ज्ञान गुरण में से श्राया तब पर्याय को माना V कहीं और से माने तो पर्याय को नहीं माना बाकी १२ का उत्तर इसी प्रकार दो । उ० प्र ० ६१. जीव द्रव्य की पर्याय कितनी बड़ी है ? जितना बड़ा जीव द्रव्य है उतनी ही बड़ी उसकी पर्याय है । अर्थात् संख्ययात प्रदेशी ग्रात्मा है और असंख्यात प्रदेशी उसके गुण श्रौर पर्याय हैं । उ० प्रo ६२. प्रत्येक द्रव्य की पर्याय कितनी बड़ी है और क्यों है ? उ० जितना बड़ा द्रव्य है उतनी ही बड़ी पर्याय है क्योंकि पर्याय भी द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में होती है । ० ६३. प्रत्येक पर्याय की स्थिति कितनी है ? उ० कोई भी पर्याय हो उसकी स्थिति एक समय मात्र ही होती है । प्र ० ६४. १- शक्कर २ बर्फ ३- अन्धेरा ४- उजाला ५- - समोशरण ६- बादलों में रंग का बदलना ७- मेघ गर्जना स्याही प्रतिविम्व यह क्या है ? ६- शीशे का उ० ८ १- शक्कर:- पुद्गल द्रव्य के रस गुरण की विभाव अर्थ पर्याय है। २- बर्फ :- पुद्गल द्रव्य के स्पर्श गुग्गा की ठंडी विभाव अर्थ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) पर्याय है। ३- अन्धेरा:- पुद्गल के घर्ग गुण को विभाव अर्थ पर्याय है। 1. उजाला:- पुद्गल के वर्ण गुण की विभाव पर्थ पर्याय है । ५- सपोशरणः- पुद्गल के प्रदेशत्व गुण की विमाव घ्यंजन पर्याय है। ६. बादलों का रंग:- पुद्गल के वर्ग गुण की विमाव अर्थ पर्याय है। ७- मेघ गर्जना:- भापा वर्गणा के शब्द रूप समारजाति द्रव्य पर्याय है। ८- स्याही:- पुद्गल के वर्ग गुण को विभाव अर्थ पर्याय है। ६- शीशे का प्रतिबिम्बः पुद्गल के वर्ग गुगा को विभाव अर्थ पर्याय है। प्र० ६५. पहिले प्रथे पर्याय शुद्ध हो फिर व्यंजन पर्याय शुद्ध हो ऐसा किन द्रव्यों में होता है ? माव जीव द्रव्य में ही होता है प्रौरों में नहीं। १. चौथे गुरण स्थान में श्रद्धा गुण की अर्थ पर्याय शुद्ध होती २- १२वें गुरणस्थान में चारिव गुण की अर्थ पर्याय शुद्ध होती है ३. १३वें गुणस्थान में ज्ञावदर्शन सुख और वीर्य गुणों की प्रथं पर्याय परिपूर्ण शुद्ध होती हैं । ४. १४वें गुणस्थान में योय गुण की प्रथं पर्याय शुद्ध होती है। ५- सिद्ध दशा होने पर वैभाविक गुण, क्रियावती शक्ति तथा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६६. द्रव्य गुरण पर्याय तीनों सत् हैं ? उ० उ० प्र० ६७. वर्तमान प्रज्ञान दूर लगता है ? उ० ( ७ ) अव्याबाध, अवागाहनत्व, प्रगुरुलघुत्व, सूक्ष्मत्व प्रादि प्रतिजीवी गुणों की प्रर्थं पर्यायें शुद्ध होती हैं । और उसी समय व्यंजन पर्याय शुद्ध होती है । एक समय । प्र० ६८. द्रव्य की भूतकाल की पर्यायों की संख्या अधिक है या भविष्य काल की पर्यायों की ? उ० द्रव्य गुण त्रिकाल सत् हैं । पर्याय एक समय का सत् है । होकर सच्चा ज्ञान होने में कितना समय То उ० प्र० ६६. ज्ञान गुण और दर्शन गुग्गा की पर्यायों के नाम बताओ ? १. मति श्रुत, प्रवधि, मनः पर्याय, केवलज्ञान. कुमति, कुश्रुत, कुप्रवत्रि पाठ पर्याय हैं । २. चक्षु, प्रचक्षु, प्रवधि, केवल यह दर्शन गुण की चार पर्यायें हैं । ७०. द्रव्य की भूत की पर्यायें प्रनन्त हैं भविष्य की पर्याय उनसे भी नन्न गुनी अधिक हैं । की शुद्ध चारित्र गुण पर्यायों के नाम बताओ ? १ - स्वरूपाचरण चारित्र २ - देश चारित्र ३ - सकल चारित्र ४- ययाख्यात चारित्र । प्र० ७१. चारित्र गुण का परिणमन कितने प्रकार का है ? उ० शुद्ध और अशुद्ध । अशुद्ध के दो भेद-शुभ और अशुभ हैं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) प्र० ७२. रस गण का परिगगमन कितने प्रकार का है ? उ० पांच प्रकार का है । प्र० ७३. १. गंध २. स्पर्श ३. वर्गा ४. क्रियावती शक्ति ५. वभाविक शक्ति ६. श्रद्धा ७. गति हेतुत्व ८. स्थिति हेतृत्व ६. अानन्द गुण १०. योग गुण - इनका परिगामन कितने प्रकार का है ? उ० १. गंध गुण का परिगामन मुगंध और दुर्गध दो प्रकार का है । इसी प्रकार के उत्तर दो। प्र. ७४. पर्याय को कब जाना ? उ० अपने स्वभाव का आश्रय लिया तो पर्याय को जाना । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ११ अस्तित्व गुण प्रः १. अस्तित्व गुण क्या है ? उ. प्रत्येक द्रव्य का मामान्य गृगग है । प्र० २. अस्तित्व गुगा वि से कहते हैं ? उ० जिम शक्ति के कारगा मे द्रव्य का कभी नाश ना हो और किसी मे भी उत्पन्न ना हो उस शक्ति को अस्तित्व गुण कहते हैं । प्र० ३. अस्तित्व गुरण को गुण की परिभाषा में बतायो ? उ० अस्तित्व गुण छहों द्रव्यों के सम्पूर्ण भागों में ग्रौर सम्पूर्ण अवस्थानों में त्रिकाल रहता है । प्र० ४. अस्तित्व गुगा छहों द्रव्यों के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अव स्थानों में त्रिकाल रहता है इसको जानने मे हमें क्या लाभ है? उ० (१) किसी भी द्रव्य का (चाहे जड़ हो या चेतन) कभी भी ___ नाश नहीं होता और ना कभी उत्पन्न ही होता है। (२) सभी द्रव्य अजर अमर हैं, ऐसा पता चल जाता है। प्र० ५. जब कोई द्रव्य का नाश और उत्पन्नपना नहीं होता और सब अजर अमर हैं, इससे हमें क्या लाभ है ? उ० जब कोई भी द्रव्य का नाम नहीं होता और उत्पन्न भी नहीं Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) होता और सब अजर अमर हैं नो मेग भी कभी नाश नहीं होता है । कभी उत्पन्न भी नहीं होता है इसलिए मैं अजर अमर भगवान हूं, गेमा पता चला। प्र० १. अस्तित्व गृगा को जानने में दूसरा लाभ क्या रहा ? उ० सात प्रकार के भयों का अभाव हो गया क्योंकि मैं कमी उत्पन्न और नाश नहीं होता। प्र. ७. सात प्रकार के भय कौन कौन से हैं ? उ० (१) इस लोक का भय (२) परलो का भय (३) वेदना भय (४) परक्षा भय (५) अगुप्ति भय (६) मरण भय (७) प्राकस्मिक भय । प्र० ८. प्रस्तित्व गुगग जानने से तीसरा लाभ क्या रहा ? उ० अनादिकाल से मिथ्या दृष्टि को ईश्वर रक्षा करता है, बनाता है नाश करता है ऐसी बुद्धि थी। अस्तित्व गुगण को जानने से अब किसी का नाश उत्पन्नपना नहीं होता, भव अनादि अनन्त हैं तब ईश्वर रक्षा करता है, बनाता है. प्रौर नाग करने की खोटो बुद्धि का प्रभाव हो गया। प्र. ९. प्रस्तित्व गुग को जानने से चौथा लाभ क्या रहा ? उ० प्रनादि काल में दिगम्बर धर्म धागा करने पर भी वर्म बन ता है, कर्म रक्षा करता है, कर्म नाय करता है, "मी खोटी बुद्धि थी। अस्तित्व गुगा को जानने से जब किसी का बनना, रक्षा, नाश होता ही नहीं, सब अनादि अनन्त हैं तब कर्म बनाता है, रक्षा करता है और नाश करता है इस खोटी बुद्धि का प्रभाव हो या । H० १०. जिस समय आदिनाथ भगवान थे, उस समय तुम थे या नहीं ? Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० अस्तित्व गृगग के कारण हमें पता चला उस काल में हम किसी भी क्षेत्र में थे। प्र० ११. क्या ईश्वर जगत का कर्ता है ? 10 बिल्कुल नहीं, क्योंकि अस्तित्व गुण के कारण छहों द्रव्य स्वयं सिद्ध अनादि अनन्त है, तब ईश्वर जगत का कर्ता है यह बात पसत्य है। प्र० १२. क्या ईश्वर जगत की रक्षा करता है ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि (१) प्रत्येक वस्तु अपनी अनन्त शक्ति से स्वयं रक्षित है । (२) प्रत्येक द्रव्य में अस्तित्व गुण होने से ईश्वर जगत की रक्षा करता है यह बात अमत्य है । प्र० १३. क्या ईश्वर जगत का नाग करता है ? । उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि अस्तित्व गुण के कारण किसी भी द्रव्य का नाश नहीं होता तो ईश्वर जगत का नाश करता है यह वास असत्य है। प्र० १४. क्या कर्म जगत का कर्ता है ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि अस्तित्व गुण के कारण छहों द्रव्य स्वयंसिद्ध अनादि अनन्त हैं तब कर्म जगत का कर्ता हैं यह बात प्रसत्य है । प्र० १५. क्या कर्म जगत की रक्षा करता है ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी अनन्त शक्तियों से स्त्रयं रक्षित है और प्रत्येक द्रव्य में अस्तित्व गुगा होने से कर्म जमत की रक्षा करता है यह बात असत्य है। प्र० १६. क्या कर्म जगत का नाश करता है ? उ० विल्कुल नहीं, क्योंकि अस्तित्व गुण के कारण किसी भी द्रव्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) का नाश नहीं होता तो कर्म जगत का नाश करता है यह बात अपत्य है। प्र० १७. अम्नित्व गुग को जानने का बड़ा पांचवा लाभ क्या रहा ? उ० (१) अनादिकाल की पर में करने कराने की. भोक्ता-भोग्य की बुद्धि का प्रभाव हो गया। (२) मिथ्यात्व का प्रभाव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति यह पांचवां लाभ है। प्र० १८. अस्तित्व गूगग कितने हैं ? उ० जिनने द्रव्य हैं उतने अस्तित्व गुगा हैं। प्र. १६. जितने द्रव्य हैं उतने अस्तित्व गगा क्यों हैं ? उ० प्रत्येक द्रव्य में एक एक अस्तित्व गुण होने से जितने द्रव्य हैं उतने अस्तित्व गुरग हैं। प्र० २०. द्रव्य का लक्षणा 'सत्' क्यों कहां ? उ० अस्तित्व गुगग के कारण । प्र० २१. मैं हमेशा रहूंगा या नहीं ऐसी शंका वाला क्या भूलता है ? उ। अस्तित्व गुगण को भूलता है । प्र० २२. अस्तित्व गुगा की अपेक्षा छहों द्रव्यों को क्या कहते हैं ? उ0 सत् कहते हैं। प्र० २३. सत् क्या है ? उ० द्रव्य का लक्षण है । (मत् द्रव्यलक्षगगम्' तत्वार्थ मूत्र पांचवाँ अध्याय सूत्र २६) प० २४. सत् किसे कहते हैं ? Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) उ० उत्पाद व्यय ध्रौव्य सहित हो उसे मत् कहते हैं। इसलिये प्रत्येक द्रव्य में अपने ही कारण पर्याय अपेक्षा नई अवस्था की उत्पत्ति, पूर्व पर्याय का व्यय और द्रव्य की अपेक्षा प्रौव्य रहना ऐसी स्थिति प्रत्येक द्रव्य और गुग में त्रिकाल हो रही है। प्र० २५. क्या उत्पाद व्यय ध्रौव्य का सनय गृथक पृथक है ? उ० तीनों का समय एक ही है आगे पीछे नहीं । प्र. २६. क्या प्रत्येक द्रव्य में और गण में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य त्रिकाल होता है ? हां प्रत्येक द्रव्य और गुगा में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य. त्रिकाल होता है। प्र० २७. द्रव्य के उत्पाद व्यय ध्रौव्य को समझायो ? (१) मनुप्य पर्याय का अभाव, देवपने की प्राप्ति, आत्मा कायम । (२) अयोगी दगा का प्रभाव, सिद्ध दशा की प्राप्ति, प्रात्मा कायम । (३) ग्राम में ग्वट्ट पने का प्रभाव, मीटेपने की प्राप्ति, प्राम कायम । इसी प्रकार समझ लेना। प्र० २८. गुण में उत्पाद, व्यय, धौव्य एक २ समय में किस प्रकार हैं ? उ० (१) मिथ्यात्व का अभाव, सम्यक्त्व की प्राप्ति, श्रद्धा गुण कायम । (२) ठंडे का अभाव, गर्म की उत्पत्ति, स्पर्श गुग्ग कायम । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) (३) श्रुत ज्ञान का प्रभाव, केवल ज्ञान की प्राप्ति, ज्ञान गुण कायम | प्रत्येक गुण में एक एक समय में उत्पाद, व्यय, धीव्य हुआ है, होता रहेगा धोर हो रहा है ऐसा वस्तु स्वभाव है । प्र० २६ ( १ ) चारित्र ( २ ) ज्ञान गुग्गा ( ३ ) आयिक सम्यक्त्व ( ४ ) गति हेतुत्व गुण (५) गंध (६) वर्गा (७) मीठा (८) ठंडा (8) चारित्रमोहनीय का प्रभाव (१०) ज्ञानावरण का प्रभाव ( ११ ) श्रुतज्ञान की प्राप्ति प्रादि में उत्पाद व्यय धौव्य लगाओ ? उ० ( १ ) चारित्र गुण कायम, पहली पर्याय का व्यय, नई पर्याय का उत्पाद | (२) ज्ञान की पहली पर्याय का व्यय, नवीन पर्याय की उत्पत्ति ज्ञान गुण ध्रुव । (३) क्षयोपशम सम्यक्त्व का व्यय, क्षायिक सम्यक्त्व का उत्पाद श्रद्धा गुण ध्रुव । ( ४ ) पहली पर्याय का व्यय, दूसरी पर्याय का उत्पाद, गति हेतुत्व गुण घ्र ुव । (५) सुगंध का ध्यय, दुर्गंध का उत्पाद, गंध गुण ध्रुव (६) काले का व्यय, सफेद का उत्पाद, वर्ण गुण ध्रुव । (७) खट्टे का व्यय, मीठे का उत्पाद, रस गुगा ध्रुव । (८) गर्म का व्यय, ठंडे का उत्पाद, स्पर्श गुण ध्रुव । (e) चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम का व्यय, चारित्र मोहनीय के क्षय का उत्पाद, कार्मारण वर्गरणा ध्रुव । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( ६५ ) (१०) ज्ञानावर्णी क्षयोपशम का व्यय, ज्ञानावर्णी के क्षय का उत्पाद, कारण धगंगा ध्र व । (११) मतिज्ञान का व्यय, श्रु तज्ञान का उत्पाद, ज्ञान गुण ध्र व प्र० ३०. (१) क्रियावती शक्ति (२) देखकर ज्ञान हुग्रा (३) घखकर ज्ञान हुआ इन में उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगायो ? (१) गमन रूप परिणमन का प्रभाव, स्थिररूप परिणमन का उत्पाद प्रौर क्रियावती शक्ति ध्रुव । (२) ज्ञान की पहली पर्याय का प्रभाव, नवीन पर्याय की उत्पत्ति, ज्ञान गुण धव। (३) ऐसा ही तीसरे नम्बर में है | दूसरे नम्बर के समान] प्र० ३१. अस्तिपना घस्तु का लक्षण क्या सिद्ध करता है ? उ० विश्व में जानि अपेक्षा छः द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में प्रनंत २ गुण हैं । हरएक गक्ति की स्वत: गमय समय पर अवस्था बदलती रहती है । शक्ति कायम रहती है जैसे ''सत् द्रव्य लक्षण म्'। अपनी अवस्थानों को पलटते पलटते ही द्रव्य अनादि अनंत कायम रहता है। इसकी सिद्धि के किये "उत्पाद व्यय ध्रौव्य युवत सत्' अर्थात् वस्तु प्रत्येक समय अपनी सत्ता कायम रखते हुए भी पूर्व अवस्या का व्यय नवीन अवस्था की उत्पत्ति करता रहता है। प्र० ३२. अस्तित्व गुण से सिद्ध होता है सब द्रव्यों के गुणों की पर्याय क्रमबद्ध क्रम-नियमित है उसमें जरा भी हेर फेर नहीं हो सकता? उ० १. मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है. "अनादि निधन वस्तु जुदी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ह६ ) जुदी अपनी २ मर्यादा लिये परिणमै है कोई किसी का परिणमाया परिणमता नाही " ऐसा वस्तु स्वभाव है और दूसरे को परिरणमाने का भाव मिथ्यादर्शन है २. रावण ने सीता को जैसा राम पर प्यार करती है वैसा मुझे प्यार करे ऐसे भाव के कारण तीसरे नरक गया, और जो किसी भी द्रव्य के परिणामाने का भाव करता है वह निगोद का पात्र है । प्र० ३३. जो वस्तु है कायम रहकर बदलना ही उसका स्वभाव है तब हम इसका ऐसा कर दें, वैसा कर दें, ऐसी मान्यता क्यों पाई जाती है ? १. उसे चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना अच्छा लगता उ० प्रo ३४. जब सब क्रमबद्ध है हमारा कार्य क्या रहा ? मात्र ज्ञाता दृष्टा ही रहा । उ० प्र० ३५. यदि हमारा कार्य सिद्ध भगवान के समान ज्ञाना दृष्टा ही रहा तो हमारे में सिद्ध भगवान में क्या फरक रहा ? कुछ भी फर्क नहीं रहा । उ० २. वह जिनेन्द्र भगवान को आज्ञा से बाहर निगोद का पात्र है। प्र० ३६. तो विश्व की व्यवस्था सब व्यवस्थित ही है ? प्रवचनसार गा० ९३ में "पारमेश्वरी व्यवस्था" कहा है विश्व की व्यवस्था सब व्यवस्थित ही है इसमें जरा भी हेर फेर नहीं हो सकता । उ० प्र० ३७. तो निमित से उपादान में कुछ होता है ऐसा लोग क्यों कहते हैं ? चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना है इसलिए कहते हैं । उ० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) प्र. ३८. उत्पाद किसे कहते हैं ? उ० द्रव्य में नवीन पर्याय को उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं। प्र० ३६. व्यय किसे कहते हैं ? पूर्ण पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं। प्र० ४०. ध्रौव्य किसे कहते हैं ? उ० उत्पाद और व्यय में द्रव्य गुण का सहरतारूप स्थायी रहना उसे ध्रौव्य कहते हैं। प्र० ४१. (१) कुम्हार ने घड़ा बनाया (२) बाई ने रोटी बनाई (३) कारीगर ने बैटरी बनाई (४) बाई ने अग्नि मे पानी गर्म किया (५) मैंने किताब बनाई (६) धर्म द्रव्य ने जीय पुद्गलों को ठहराया (७) केवलदर्शनावर्णी के अभाव से वे वलदर्शन हुअा (८) उसने गाली दी तो क्रोध प्राया (6) मैंने झाडू दी ग्रादि वाक्यों में से (१) घड़ा वना (२) रोटी (३) बैटरी बनी (४) पानी गर्म हुग्रा (५) किताब बनाई (६) जीव पुद्गल ठहरे (७) केवलदर्शन हुग्रा (८) क्रोध पाया (6) झाड़ दी। इनमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाकर यह बतायो इनमे पापको क्या लाभ रहा ? उ० (१) कुम्हार ने घड़ा बनाया-पिण्ड का प्रभाव, घड़े की उत्पत्ति, मिट्टी कायम रही। कुम्हार चाक उण्डे से बना इस खोटी मान्यता का अभाव हो गया। इसी प्रकार ८ वाक्यों में लगायो। प्र० ४२. अस्तित्व गुगण की जाति कितने प्रकार की है ? उ० छह प्रकार की हैं क्योंकि विश्व में छह ही जाति के द्रव्य हैं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) प्र. ४३. अस्तित्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा ? और क्यों ? उ. जितना द्रव्य का हैं उतना है। क्योंकि अस्तित्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में पाया जाता है। प्र० ४४. जीव के अस्तित्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा है ? उ० असंख्यात प्रदेशी है । प्र० ४५. जीव के अलावा और किसी द्रव्य के अस्तित्व गुग का क्षेत्र असंसात प्रदेगी है ? उ० धर्म, अधर्म के अस्तित्व का क्षेत्र भी असंख्यात देशी है। प्र० ४६. काल और परमाणु के अस्तित्व गुग का क्षेत्र क्या है ? उ० एक प्रदेशो है। प्र० ४७. ग्राकारा के अस्तित्व गगा का क्षेत्र क्या है ? उ) अनन्त प्रदेशी है। प्र० ४८. अस्तित्व गुगण का काल कितना है ? उ० जितना द्रव्य का काल है उतना ही अस्तित्व गगा का है अर्थात अनादि अनन्त है क्योंकि अस्तित्व गुगा द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्थानों में त्रिकाल रहता है। प्र० ४६. अस्तित्व गूगा को प्रथम नम्बर पर क्यों रखा ? उ० प्रथम वस्तु में 'वैय्यातीपना'' ''मौजूदगीपना" है ऐसा निर्णय होने पर ही और धर्म हो सकते हैं इसलिए अस्तित्व गुगा को प्रथम रक्खा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( εε ) प्र० ५०. ज्ञानी अस्तित्व गुग्गा को कैसा जानत है अज्ञानी कैंस! जानता है ? उ प्र० ५१. ऐसी कौन सी खोटी मान्यता है जिससे सम्यक्त्व नहीं होता है ? अपने अस्तित्व को स्वीकार नहीं करके, पर के अस्तित्व से अपना अस्तित्व मानने के कारण सम्यग्दर्शन नहीं होता है । उ० प्र० ५२. अस्तित्व कितने प्रकार का है ? चार प्रकार का है । उ० (१) मेरा अस्तित्वपना मेरे द्रव्य गुगा पर्याय से है पर से नहीं ऐसा ज्ञानी जानता है । (२) मेरा अस्तित्वपना पर से है ऐसा अज्ञानी मानता है । प्र० ५३. किस किसके अस्तित्व से धर्म की प्राप्ति नहीं होती और किसके स्तित्व से होगी ? ) ( १ ) पर के अस्तित्व से ( २ (३) पूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय के अस्तित्व से होगी । एक मात्र अपने त्रिकाल स्वभाव के की शुरूआत वृद्धि और पूर्णता होती है । उ० प्र० ५४. अस्तित्व गुण जड़ है या चेतन है ? श्रौर क्यों ? उ० उ० विकारी पर्याय के अस्तित्व से कभी भी धर्म की प्राप्ति नहीं अस्तित्व के ग्राश्रय से ही धर्म प्र० ५५. मैं अजर अमर हूँ कैसे जाना ? अस्तित्व गुण से जाना । दोनों हैं । जीव का चेतन है वाकी द्रव्य का अस्तित्व गुण जड़ है । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (...१०० ) प्र० ५६. मेरा कभी नाग नहीं होता. ना कभी उत्पन्नपना होता है, कैसे जाना ? उ.. . अस्तित्व गुण से जाना। . प्र० ५७. कोई ईश्वर को सृष्टि का कर्ता,रक्षा, नाश करने वाला कहे तो? उ० अस्तित्व गुगा को नहीं माना। . प्र. ५८. कोई कर्म को सृष्टि का कर्ता, रक्षा, नाग करने वाला कहे तो? उ० अस्तित्व गुगा को नहीं माना । प्र० ५६. अस्तित्व युग्ण रूपी है या अरूपी ? और क्यों ? उ० दोनों है। पुद्गल का अस्तित्व गण रूपी बाकी द्रव्यों का अम्पी है। प्र० ६०. किन द्रव्यों का अस्तित्व गुगण गति करता है ? उ0 जीव और पुद्गल का । प्र० ६१. धर्म अधर्म आकाश और काल द्रव्यों का अस्तित्व गुण गति क्यों नहीं करता है ? उ० धर्मादि द्रव्यों में क्रियावती शक्ति नाम का गुण न होने से इसका अस्तित्व गुगण गति नहीं करता है। प्र० ६२. अस्तित्व गुगा को समझने से अन्य मत की किस किस मान्यता का अभाव हो जाता है ? उ० (१) ईश्वर रक्षा, उत्पन्न, नाश करता है। (२) कर्म रक्षा, उत्पन्न, नाश करता है ऐसी अन्य मत की खोटो मान्यता का नाश हो जाता प्र. ६३. अस्तित्व गुण किस द्रव्य में नहीं है ? Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.० प्र ० ६४. त्रिकाल कायम कौन रहता है ? प्रत्येक द्रव्य और उसके गुण । उ० प्र ० ६५. प्रत्येक द्रव्य गुण त्रिकाल कायम क्यों रहते हैं ? अस्तित्व गुण के कारण | उ० ( १०१ ) ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है जिसमें अस्तित्व गुरण न पाया जावे क्योकि अस्तित्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है । प्र० ६६. इस लोक का भय परलोक का भय मिलने के लिए किस गुण का मर्म जानना चाहिए ? उ० अस्तित्व गुण का मर्म जानना चाहिये । प्र ० ६७. कोई द्रव्य पहले न हो और बाद में उत्पन्न हो जाये क्या ऐसा होता है ? उ उ० बिल्कुल नहीं क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अस्तित्व गुण के कारण अनादि अनंत है । प्र० ६८. संसार में किसी भी द्रव्यं का कभी भी नाग नहीं होता है और कभी भी उत्पन्न नहीं होता इसकी सिद्धि कितने प्रकार से हो सकती है ? करोंड़ों प्रकार से हो सकती हैं प्रथमानुयोग के शास्त्रों में तो पृष्ठ पृष्ठ पर यह बात लिखी है । प्र० ६६. ग्रस्तित्व की सिद्धि करोड़ों प्रकार से हो सकती है तो कुछ अस्तित्व की सिद्धि सदैव है ? उदाहरण देकर समझायो । पार्श्वनाथ भगवान से ( ३ ) जो (५) सर्प से (६) राग निकल से (८) प्रथमानुयोग से ( ६ ) p 영 (१) भगवान महावीर मे (२) करता है वही भोगता है ( ४ ) व्यन्तरों में जाता है ज्ञान रहता है (७) वृद्धपना Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) चरगानुयोग से (१०) करणानुयोग से (११) द्रव्यानुयोग से होती है । प्र० ७०. भगवान महावीर से अतिस्त्व की सिद्धि किस प्रकार होती है ? उ० जो ग्रादिनाथ भगवान के समय में मारीच था। वह ही कितने वार निनोद गया। वह ही शेर बना और शेर पर्याय में सम्यक्त्व प्राप्त किया। उसी जीव में नन्द राजा के भव में तीर्थंकर गोत्र बाधा । वह ही जीव महावीर २४वा तीर्थकर कहलाया। वह ही मोक्ष गया । देखो आत्मा वह का वह रहा तो अस्तित्व की सिद्धि हो गई। मिथ्यादृष्टि पर्याय दृष्टि करक पागल बना रहता है ज्ञानी स्वभावदृष्टि करके मोक्ष चला जाता है। प्र० ७१. पार्श्वनाथ भगवान मे अस्तित्व की सिद्धि किस प्रकार होती है ? उ० (१) मरूभूति के भाव में कमठ के पत्थर गिराने से मृत्यु हुई (२) यही (उमी ने) हाथी की पर्याय में सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और सर्प के काटने से मृत्यु हुई (३) वही अग्निवेग मुनि हुया वहां पर अजगर निगल गया (४) वही ब्रजनाभि चक्रवर्ती बना (५) वही पानंद मुनि बना । (६) वही पाराधना करते २ तेईसवां तीर्थकर पाई वनाथ झा । मरूभूति से लेकर सिद्ध दशा तक वही आत्मा रहा । देखो इससे अस्तित्व की सिद्धि हो गई। प्र. ७२. जो करता है वही भोगता है इस पर से अस्तित्व की सिद्धि उ० जैसे मनुष्य भव में शुभ भाव किये उसका फलदेव पर्याय में भोगा । द्रव्य दृष्टि से देखा जावे तो जो करता है वही भोगता है । जैसे मनुष्य पर्याय में निस जीव में शुभ भाव किये उसी जीव द्रव्य ने देवादि 'पर्याय में स्वयं किये गये फल को भोगा। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) इसलिये भूतकाल में जिम जीव के जैसे भाव किये। वही जीव वर्तमान में भोगता है दूसरा नहीं। इस पर से अस्तित्व की सिद्धि हो गई। प्र० ७३. व्यन्तरों से अस्तित्व की सिद्धि कैसे ? उ० किसी वाई को व्यंतर अाता था वह बोलती थी 'मैं इसकी जिठानी हूं'' यह मेरा सब माल ग्वा गई है मैं इसे नहीं छोड़ गीं। इस पर से सिद्ध हुया पहले जिठानी का जीव था वही वर्तमान में व्यंतर हा । जीव जो जिठानी में था वही व्यंतर में रहा इस प्रकार व्यंतगें से अस्तित्व की सिद्धि होती है। प्र० ७४. "अस्तित्व की सिद्धि" () मई मे (२) राग निकल जाता है जान रह जाता है (३) वृद्धपने से (८) प्रथम नुयोग से (५) नरगा। नयांग से (६) करगानुयोग से (७) द्रव्यानुयोग से (८) कमट से (६) ग्रादिनाथ भगवान में करो ? उ० सबका उत्तर जबानी दो। प्र० ७५. अस्तित्व गुगग की मिद्धि अनेक प्रकार में की। तो अभी तक जितने लाभ अस्तित्व गृगा का जानन में पाये हे जर। वायो ? (2) मैं अजर अमर भगवान है। (२) मान प्रकार के भयों का प्रभाव हो गया। (३) ईश्वर जगत की रक्षा उत्पन्न, नान करता है इग खोटी मान्यता का अभाव। (४) कर्म जगत की रक्षा, उत्प-न, नाग करता है इस ग्वाटी मान्यता का अभाव । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) (५) सर्व द्रव्य अनादि अनन्त है किसी किसी भी समय प्रभाव नहीं होता है। (६) अपने अस्तित्व की अोर दृष्टि करके धर्म की प्राप्ति होना यह अस्तित्व गुण को जानने का लाभ है । प्र० ७६. अस्तित्व का क्या अर्थ है ? उ० अस्ति अर्थात् होना। त्व अर्थात् पाना । होना पाना! प्र० ७७. जो है उसका नाश नहीं होता और उत्पन्न नहीं होता कैसे जाना ? उ० अस्तित्व गुग्ण से जाना। प्र० ७६. छहों द्रव्य भूतकाल में थे, नर्तमान में हैं और भविष्य में रहेंगे कैसे जाना? उ० अस्तित्व गुगग से जाना। प्र० ७६: मैं हूँ और जगत भी है। मैं अपने से हूँ, जगत जगत से है, कैसे जाना ? उ० अस्तित्व गुण से जाना । प्र० ८० मुझे कोई मार जिला नहीं सकता कैसे जाना ? उ० अस्तित्व गुण से जाना ? प्र० ८१ मैं स्वतन्त्र अनादिअनन्त अपने ही कारण हूं, मेरा किसी से नाश और उत्पत्ति नहीं होती है यह कैसे जाना ? . उ० अस्तित्व गुरण से जाना। प्र० ८२. अस्तित्व गुण का रहस्य बताने वाला कोई दोहा है ? उ० हां है Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) कर्ता जगत का मानता जो कर्म या भगवान को । वह भूलता है लोक में, अस्तित्व गुगा के ज्ञान को ।। उत्पाद-व्यययुत वस्तु है फिर भी सदा ध्रुवता घरे । अस्तित्व गुगा . योग मे घोई नहीं जग में मरे ।। प्र. ८३. 'उत्पाद-व्यययुन वस्तु है फिर भी सदा ध्र वता धरे' इस कथन का शनादि ने परवृषभ, जिववर और जिन ने तथा वर्तमान में पूज्य कांजीवामी ने क्या प्राध्यातिपक रहस्य बताया है ? उ० प्रत्येक द्रव्य एक समय में जाने उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप विस्वभाव । स्पर्श करता है, उसी समय निमित्त होने पर भी द्रव्य उनका स्पर्श नहीं करते। सन्यग्दागन हया वहां पाना उग सम्यग्दर्शन के उत्पाद को, • मिथ्यात्व के व्यय को पौर श्रद्धारूप अपनी अवना को स्पर्श करता है, किन्तु मम्यक्त्व के निमिनभूत ऐमे देव,गुरु या शास्त्र को स्पर्श नहीं, करता, वे मो भिनास्वभावी पदार्थ है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति, मिथ्यात्व का व्यय तथा श्रद्धापने का खण्डतारूप ध्र वता-इन तीनों का प्रात्मा में ही समाबेग होता है, किन्तु इनके अतिरिक्त जो वाद्य निमित्त हैं उनका समावेश यात्मा में नगें होता। प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्र वतारूप द्रव्य का अपना • स्वभाव है और उस स्वभाव का ही प्रत्येक द्रव्य स्पर्श करता है, यानी अपने स्वभावरूप ही वतंता ने; किन्तु परद्रव्य के कारण किसी के उत्पादव्यय-ध्र व नहीं है। परद्रव्य भी उसके अपने ही उत्पाद व्यय-ध्र व स्वभाव में अनादिअनंत वर्तता है और यह मात्मा भी अपने उत्पाद-व्यय-ध्र व स्वभाव में ही अनादिप्रचंत वतंता है; ऐसा समझने वाले ज्ञानी को अपने आत्मा के उत्पाद-व्यय-ध्र व के अतिरिक्त बाह्य में कोई भी कार्य किचित् Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) मात्र अपना भासिन नहीं होता, इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्र वस्वरूप अपना जो आत्मा है उसके ग्राश्रय से निर्मलता का ही उत्पाद होता है मलिनता का व्यय होता जाता है और ध्रुवता का अवलम्बन बना ही रहता है-इसका नाम धर्म है। अजीव द्रव्य भी अपने उत्पाद-व्यय-भ्र वरूप त्रिस्वभाव का . स्पर्ग करता है, परका स्पर्ग नहीं करता जैसे नि.-मिट्टी के पिण्ड में स घड़ा हुया; वहां पिण्ड अवस्था के व्यय को, घट अवस्था के उत्पाद को और मिट्टीपने की ध्रुवताको वह मिट्टी स्पर्श करती है, किन्तु वह कुम्हार को, चाक को, डोरी को या अन्य किसी परद्रव्य को स्पर्ग नहीं करती और कुम्हार भी हाथ के हलन-चलनरूप अपनी अवस्था का जो उत्पाद हुया उस उत्पाद को स्पर्ग करता है किन्तु अपने मे बाह्य ऐसे घड़े को वह स्पर्श नहीं करता। जगत में छहों द्रव्य एक ही क्षेत्र में विद्यमान होने पर भा कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य के स्वभाव को स्पर्श नहीं करता: अपने अपने उत्पाद व्यय ध्रुवतारूप स्वभाव में हो जक द्रव्य वर्तता इसलिये वह अपने स्वभाव को ही स्पर्श करता है। देखो यह सर्वनदेव कथित वीतरागी भेदज्ञान ! निमित्त -उपादान का स्पष्टीकरण भी इसमें प्रा जाता है । उपादान और निमित्त यह दोनों पदार्थ एक साथ प्रवर्तमान होने पर भी उपादानरूप पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय-भ्र वतारूप स्वभाव का ही स्पर्श करता हैनिमित्त का किंचित भी स्पर्श नहीं करता। और निमित्तभूत पदार्थ भी उसके अपने उत्पाद-व्यय-ध्र वतारूप स्वभाव का ही स्पर्श करता है उपादान का वह किचित् स्पर्श नहीं करता। उपादान और निमित्त दोना Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) पृथक पृथक अपने अपने स्वभाव में ही वर्तते है, परिगगमन करते हैं। अहो ! पदार्थों का यह एक उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव भलिभांति पहिचान ले तो भेदनान होकर स्व-द्रव्य के ही पाश्रय से निर्मल पर्याय का उत्पाद और मलिनता का व्यय हो:-उसका नाम धर्म है और वही "सर्वज्ञ भगवान के सर्व उपदेग का तात्पर्य है ।- वीर सं० २४८१ पासोज मामका प्रात्मधर्म अक पत्र ३०१-२ मे उद्घत ] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ До उ० प्र० उ० प्र० उ० То उ० पाठ १२ वस्तुत्व गुण १. वस्तुत्व गुण द्रव्य हैं या पर्याय ? वस्तुत्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है द्रव्य और पर्याय नहीं है । २. वस्तुत्व गुण किसे कहते हैं ? जिस शक्ति के कारण से द्रव्य में अर्थत्रिया कारिव हो उसको वस्तुत्व गुण कहते हैं । ३. अर्थ क्रिया कारित्व से क्या प्रयोजन है ? प्रयोजनभूत क्रिया । ४. प्रयोजनभूत क्रिया का मतलब भी हम नहीं समझे ? अपना अपना कार्य । Яо ५. मापने वस्तुत्वगुण की परिभाषा में 'प्रर्थक्रिया कारित्व, प्रयोजनभूत, क्रिया, 'वना २ कार्य' बताया परन्तु वस्तुत्व गुण का प्रयोजन हमारी समझ में नहीं आया ? उ० जैसे हमारे घर में छह आदमी हैं। स्त्री, लड़का, लड़की, बहन, बुआ और भाई हैं इन सब में से हरएक अपना अपना, जैसा जैसा संबंध Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) है, वैगा ही करता है उसी प्रकार संसार में जाति प्रपेक्षा यह द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य अपना अपना ही कार्य करता है इसका नाम पर्थक्रिया कारित्व, प्रयोजनभूत क्रिया है । Яс ६. वस्तुत्व गुण की बात समझ में नहीं प्राई, जरा स्पष्ट कीजिए ? जैसे (१) प्रांख देखने का कार्य करता है (२) नाक सूंघने उ० (५) हाथ स्पर्श प्रत्येक द्रव्य में 1 का ही (३) कान सुनने का ही (४) मुँह घखने का ही का ही कार्य करता है, उसी प्रकार जीव द्रव्य में तथा अनन्त अनन्त गुण है वह अपना अपना ही कार्य करते हैं । जैसे जीव का श्रद्धा गुण श्रद्धा का ही कार्य करेगा । ज्ञान गुण ज्ञान का ही कार्य करेगा । पुष्ट्रगल का स्पर्श गुग्ण स्पर्श का ही कार्य करेगा और गंध गुग्गा गंध का कार्य करेगा । Я. ७. प्रत्येक द्रव्य में अनंत अनंत गुण हैं, श्या प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक गुण अपना अपना प्रयोजनभूत कार्य करता ही रहता है कोई भी गुगा एक समय के लिए भी प्रयोजनभूत क्रिया रहित नहीं होता है ? उ० हां प्रत्येक गुण अपना अपना प्रयोजनभूत कार्य करता ही रहता हैं, कोई भी गुण एक ममय के लिये भी प्रयोजनभूत क्रिया रहित नहीं होता है। प्र • उ० ८. निल भगवान में पूर्गा आर्थिकपना प्रगट हो गया है तो प्रव उनका प्रयोजनभूत कार्य समाप्त हो गया है ना ? बिल्कुल नहीं, क्योंकि उनके अनन्त गुणों में से प्रत्येक समय निर्मल स्वभाव रूप परिणामन प्रयोजनभूत कार्य होता ही रहता है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ До उ० Я с उ० ( ११० ) कहते हैं ? ९. द्रव्य को वस्न वस्तुत्व गुण के कारण । प्र० १० गोमट्टसार में वस्तु किसे कहा है ? उ० ( गौमट्टसार जीव काण्ड गा० ६७२ को टीका में) ( 2 ) जिसमें गुग्गा पर्याय बसते हैं उसे वस्तु कहा है । (२) जिसमें सामान्य विशेष स्वभाव हो उसे वस्तु कहते हैं । (३) प्रत्येक द्रव्य अपना अपना प्रयोजनभूत कार्य करता है इसलिए प्रत्येक द्रव्य को वस्तु कहते हैं । ११. वस्तु क्या सूचित करती है ? प्रत्येक वस्तु 永 गुण पर्याय अपने में ही बसते हैं एक दूसरे में नहीं । प्र० १२. प्रत्येक वस्तु के गुण पर्याय अपने में ही बसते हैं एक दूसरे में नहीं इससे, हमको क्या लाभ है? उ० मेरे गुण पर्याय मेरे में ही बसते हैं शरीर से अथवा पर द्रव्यों में नहीं बसते, ऐसा जानकर अपने गुण पर्याय रूप प्रभेद वस्तु है उसका आश्रय ले तो धर्म की प्राप्ति हो । प्र० १३. ( १ ) ज्ञान गुण (२) चारित्र गुरण ( ३ ) स्पर्श गुण ( ४ ) रस गुरण (५) गतिहेतुत्व गुरण ( ६ ) श्रद्धा गुण ( (७) अस्तित्व गुण ( ८ ) दर्शन गुण (६) गंध गुण (१०) वर्ण गुरण ( ११ ) क्रियावती शक्ति ( १२ ) अवगाहन - हेतुत्व आदि गुणों का प्रयोजनभूत कार्य क्या २ है ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १११ ) ( १ ) ज्ञान गुण का प्रयोजनभूत कार्य मतिज्ञानादि ८ प्रकार का है। (२) चारित्र गुण का प्रयोजनभूत कार्य शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार का है। (३) स्पर्श गुग्गा का प्रयोजनभूत कार्य आठ प्रकार का है। (४) रस गुण का प्रयोजनकार्य ५ प्रकार ह (५) गतिहेतुत्व का प्रयोजनभूत कार्य उसका समय २ परिण मन हैं । (६) श्रद्धा गुण का प्रयोजनभूत कार्य मिथ्यात्व सम्यक्त्व रूप है | (७) त्रिगुण का प्रपोज कार्य उसकी पर्याय है । 1 (८) दर्शन गुगण का प्रयोजनकार्य चार प्रकार का है। (2) गंगा का प्रयोजन भनवार्य दो प्रकार का है। (१०) वर्ष गुरु का प्रयोजनभत कार्य ५ प्रकार का है। (११) क्रियावती शक्ति का प्रयोजनभत कार्य दो प्रकार का (१२) वाह गुण का कार्य परिणमन में अब न रूप होना है। है 1 प्र० १४. (१) मतिज्ञान (२) सम्यग्दर्शन (३) केवलज्ञान (४) खट्टा (५) गर्म (६) काला (2) गुगन्ध (=) चिकना ( 2 ) शुभ (१०) युद्ध (११) केवलदर्शन यह प्रयोजन भूत कार्य किस २ गुगा का है ? Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. ( ११२ ) (१) मनिज्ञान बानगुण का प्रयोजन भूत कार्य है। इसी प्रकार १० वाक्यों के उत्तर दो। :: १५. किसी द्रव्य का, गण का किसी भी समय प्रयोजनमत कार्म समाप्त होता है या नहीं ? उ, प्रयोजनभूत कार्य का मतलब कभी भी ममाप्त न होना है; क्योंकि कोई द्रव्य या गुण निकम्मा नहीं: जो एक सच भी प्रयोजन मल पार रहित होवे । प्र० १६. यह मेज पड़ी है इसमें प्रयोजन भूत कार्य क्या हो रहा है ? उ० यह मेज अनन्त पुद्गल परमागुलों क स्कंध है । मेज में एक र परमाणु अपने अनन्त गुणों सहित प्रपनी प्रयोजन भर क्रिया कर रहा प्र० १७. वस्तुत्व गुण क्या बताता है ? प्रत्येक द्रव्य अपना प्रयोजनमत कार्य करता ही रहता है । एक समय मात्र भी ऐसा नहीं जो अपने प्रयोजनभूत कार्ग से रहित हो जावे। प्र. १८. वस्तुत्व गुण से को जानने क्या नाम रहा ? (१) प्रत्येक द्रव्य अपना अपना प्रयोजन भूत कार्य करता ही रहता है । तब मेरा का ज्ञाता-दृष्टा है ऐसा अनुभव ज्ञान होना। (२) प्रनादि से पर में करने परने पौर भोक्ता-भोग्य बुष्टि का Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११३ ) अभाव होकर अपना हो करना भोगना का अनुभव ज्ञान रमता होना। (३) मियात्व का प्रभाव मभ्यग्दर्शन की प्राप्ति । (४) अपने अन्दर अपूर्व गान्ति की प्राप्ति होना । (५) मान को पोर अग्रसर होना । (६) के पलो के मनान जान -ष्टा की प्राप्ति वस्तुत्व गुण को जानने का लाभ ।। प्र० १६. जिनको सम्यग्दर्शन नहीं है क्या उगने वस्तुत्व गुगण को नहीं जाना ? उ० नहीं जाना, क्योंकि अाने बाप को जाने विना अरण्यरोदन है । प्र. २०. यास्त्रों में पाता है यह जीव अनंत बार ११ अंग ६ पूर्व का पाठी बना और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई तो क्या उसे भी वस्तुत्व गुग का रस्य पता नहीं है ? उ० हांगरे भी वस्तु व गुगा को नहीं जाना । प्र० २१. क्या द्रव्यलिंगी मुनि ने वस्तुत्व गुग्ग का रहस्य नहीं जाना ? उ० नहीं जाना क्योंकि श्री कुन्दकुन्द भगवान ने द्रव्यलिंगी मुनि को संमार का नेता कहा है और मोक्ष मार्ग प्रकाशक में द्रव्यलिंगी मुनि को मिथ्याइष्टि असंयमी पापी कहा है। प्र. २२. समयसार गा० २७३ में जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार बन समिति आदि का पालन किया क्या उगने भी वन्तुन्य गुगण का रहस्य नहीं जाना ? Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) उ० नहीं जाना, क्योंकि वस्तुत्व गुण का रहस्य जानते ही मोक्ष का पथिक बन जाता है। प्र० २३. क्या द्रव्यलिंगी मुनि मोक्ष का पथिक नहीं है ? उ वह चारों गतियों में घूमता हुअा निगोद का पथिक है । प्र० २४. विश्व में ऐसी वस्तु का नाम बताओ जो अपना प्रयोजनभूत कार्य नहीं करती हो ? उ० ऐसी वस्तु विश्व में है ही नहीं। प्र० २५. अपने कार्य के लिये दूसरे की मदद चाहने वाला किस गुण का मर्म नहीं जानता ? उ० वस्तुत्व गुण का मर्म नहीं जानता। प्र० २६. मेरा हित मेरे से है उसने किसको माना ? उ० वस्तुत्व गुण को माना । प्र० २७. वस्तुत्व गुण का रहस्य न जाने तो क्या होगा ? (१) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कभी नहीं होगी। (२) जब सम्यग्दर्शन नहीं होगा तो मोक्ष का प्रश्न ही नहीं रहा । (३) पर में करने धरने की मान्यता कर करके निगोद चला जावेग (४) दूसरा मेरा भला बुरा करे या मैं दूसरों का भला बुरा करू ऐसी भाकुलता में ही जलता रहेगा । (५) समय समय दुःख बढ़ता जावेगा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) प्र० २८. वस्तुत्व गुण को न जानने वाले को किस की उपेक्षा और किस की अपेक्षा होती है ? अपनी उपेक्षा औौर पर की ग्रपेक्षा रहती है । उ० प्र ० २६. वस्तुत्व गुरण को जानने वाले को किसकी उपेक्षा और किसकी पेक्षा रहती है ? अपनी अपेक्षा और पर की उपेक्षा रहती है । उ० प्र० ३०. वस्तुत्व गुण कितने हैं ? जितने द्रव्य हैं एक वक्तुत्व गुण पाया जाता है । उ० वस्तुत्व गुण है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में एक प्र० ३१. वस्तुत्व गुरण रूपी है या अरूपी ? उ० दोनों हैं । पुद्गल का वस्तुत्व गुग्गा रूपी है बाकी द्रव्यों का वस्तुत्व गुरण अरूपी है । प्र ० ३२. वस्तुत्व गुण जड़ है या चेतन ? उ० उ० दोनों हैं । जीव का वस्तुत्व गुग्गा चेतन है बाकी द्रव्यों का जड़ है 1 प्र० ३३. वस्तुत्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा है ? उ० जितना द्रव्य का क्षेत्र हैं उतना ही क्षेत्र वस्तुत्व गुण का है क्योंकि वस्तुत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में होता है । प्र ० ३४. वस्तुत्व गुरण का काल कितना है ? जितना द्रव्य का काल है उतना ही वस्तुत्व गुरण का काल है। क्योंकि वस्तुत्व गुण द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) रहना है अर्थात् वस्तुत्व गुगण का काल अनादिअनंत है । प्र० ३५. जीव का प्रयोजन क्या है ? उ० दुःख ना हो, सुख हो यही प्रयोजन है। प्र० ३६. अस्तित्व और वस्तुत्व गुगण में क्या अन्नर है ? उ० (१) अस्तित्व गगा अनादिअनंत कायमपने को सूचित कर है। (२) वस्तुत्व गुण प्रयोजनभूत कार्य को मूचित करता है प्र० ३७. अस्तित्व गुगा और वस्तुत्व गुग जानने का क्या लाभ है ? प्रत्येक द्रव्य कायम रहता हुया अपना अपना प्रयोजन कायं करता ही रहता है तब मेरा प्रयोजनभूत कार्य ज्ञात दृष्टा है ऐसा अनुभव करे तो अस्तित्व गुगा, वस्तुत्व गुण व जाना। उo प्र० ३८. प्रयोजन भूत कार्य कितने हैं ? उ० जाति अपेक्षा छः हैं । प्र० ३६. संख्या अपेक्षा प्रयोजनभूत कार्य कितने हैं ? उ) जिनन गुगण हैं उतने ही एक समय में प्रयोजनभूत कार्य हैं। प्र० ४०. अस्तित्व गुग्ग बड़ा या वस्तुत्व पुराग । उ० दोनों समान हैं क्योंकि प्रत्येक गुण द्रव्य के बराबर होता है । प्र० ४१. अनादिअनंतपना वस्तुत्व गुण सिद्ध करता है ना? उ. बिल्कुल नहीं; अनादिअनंतपना तो अस्तित्व गुण सिद्ध कर है वस्तुत्व गुण नहीं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७ ) प्र० ४२. प्रयोजनभूत किया को अस्तित्व गुण सिद्ध करता है ना ? उ० बिल्कुल नहीं ! प्रयोजनभूत क्रिया को वस्तुत्व गुण सिद्ध करता है अस्तित्व गुग नहीं । प्र० ४३. ऐसे द्रव्य का नाम बतानो जिसमें अस्तित्व गुण तो हो पौर वस्तत्व गुण ना हो ? उ० ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है क्योंकि वस्तुत्व गुगा सामान्य गुण है। प्र. ४४. मोक्ष की प्राप्ति कैमे हो ? वस्तुत्व गुग के योग मे, हो द्रव्य में स्व-स्व क्रिया । स्वाधीन गूगा पर्याय का ही, पान द्रव्यों ने किया । सामान्य और विशेषता से, कर रहे निज काम को । यों मानकर वस्तुत्व को पायो, विमल शिवधाम को ।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पाठ १३ द्रत्यत्व गुण प्र० १. द्रव्यत्व गुण, द्रव्य है या पर्याय है ? उ० द्रव्यत्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है। द्रव्य और पर्याय नहीं है। प्र. २. द्रव्यत्व किसे कहते हैं ? उ० जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्थायें निरन्तर बदलती रहती हैं उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं । प्र० ३. द्रव्यत्व गुण क्या सूचित करता है ? उ० "निरन्तर परिणमन" को सूचित करता है । प्र. ४. 'निरन्तर परिणमन' से क्या तात्पर्य है ? उ० एक समय मात्र भी पर्याय नहीं रुकती है अर्थात हर समय कार्य नया नया होना यह बताता है । प्र० ५. नब सब द्रव्यों में निरन्तर पर्याय होती ही रहती हैं किसी को एक समय भी रुकने का अवकाश नहीं है ऐसा वस्तु स्वरूप है तब फिर जीवों को पर का कर दू या भोगू ऐसी बुद्धि क्यों पाई जाती है ? Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) उ० द्रव्यत्व गुण का मर्म न जानने के कारगा । F. ६. वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण में क्या अन्तर है ? उ० (१) वस्तुत्व गुण द्रव्य गगण में प्रयोजनभूत क्रिया को बतात है और (२) द्रव्यत्व गगा रस प्रयोजनमत क्रिया को "निरन्तर बदलने के बात को बताता है। प्र० ७. अस्तित्व, वस्तुत्व यौर द्र व्यत्व गुण का क्या रहस्य है ? उ० (१) प्रत्येक द्रव्य अनादिअनंत कायम रहता है (२) कायम रहता हुआ अपनी २ प्रयोजनभूत क्रिया को करता ही रहता है (३) वह क्रिया निरन्तर बदलती रहती है। ऐसा द्रव्य का स्वभाव है । इस बात को जाने तो दृष्टि स्वभाव पर होती है योर पर को बदल दं, पर को कायम रक्खू, किसी के कार्य को करू, किसी के कार्य को बदलाऊं प्रादि खोटी बुद्धियों का प्रभाव हो जाता है ज्ञाता-इटा स्वभाव प्रगट हो जाता है । प्र. ८. वस्तु को द्रव्य क्यों कहा है ? उ. द्रव्यत्व गुण के कारण । प्र. ९. क्या प्रत्येक गुगण कायम रहता हुया, अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करता हुप्रा, निरन्तर बदलता ही रहता है ? उ० हां ऐसा ही घस्तु स्वभाव है । यह पारमेश्वरी व्यवस्था है। प्र० १०. प्रत्येक द्रव्य गुण में निरन्तर नई नई पर्याय होती है उसे द्रव्य त्व गुगा करता है या काल द्रव्य करता है ? उ० प्रत्येक द्रव्य गुण में निरन्तर नई २ पर्याय होती है वह पर्याय Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) अपनी २ योग्यता से ही होती है उसमें अंतरंग निमित्त द्रव्यत्व गुरए है और बाहर का निमित्त काल द्रव्य है । प्र ० ११. द्रव्य और द्रव्यत्व गुण में क्या अन्तर है ? उ० प्र० १२. व गुण को सामान्य गुण क्यों कहा है ? उ० Я о उ० (१) द्रव्य तो अनंत गुणों का प्रभेद पिण्ड है । ( २ ) और द्रव्य त्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है । Я о उ० सव द्रव्यों में पाया जाता है इसलिये सामान्य गुगा कहा है । १३. द्रव्यत्व गुण द्रव्य में क्या सूचित करता है ? निरन्तर बदलने को सूचित करता है । प्र ० १४. जीव में प्रज्ञान दशा सदैव एक सी नहीं है ? रहती क्या कारण । द्रव्यत्व गुरण के कारण । उ० १५. द्रव्यत्व गुण से क्या क्या समझना चाहिए ? (१) सर्व द्रव्यों की अवस्थाओं का निरन्तर परिवर्तन उसका अपने कारण से उसी में होता है दुसरा कोई पर द्रव्य या निमित्त कुछ नहीं कर सकता है । (२) जीव की कोई भी पर्याय दूसरे जीवों से प्रजीवों से कर्म शरीरादि से नहीं बदलती है । (३) दूसरे जीवों की, अजीवों की, कमं, शरीर आदि की पर्याय भी मेरे से नहीं बदलती है । (४) जीव में प्रज्ञान दशा सदैव एक सी नहीं रहती है । (५) पहिले अल्प ज्ञान था बाद में ज्यादा हुआ वह उस समय की योग्यता से ही हुआ है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) (६) ज्ञान का विकास ज्ञानगुण से ही होता है किसी शास्त्र से. गुरू मे, दिव्यध्वनि, कर्म, शुभ भाव से और गुणों से नहीं आता है। (७) जो पर्याय हुई उसका उसी गुण की पहली पाली पर्याय मे भी संबंध नहीं है। प्र० १६. श्र नज्ञान से केवल ज्ञान हुना, किस कारण ? उ० द्रव्यत्व गृगग के कारण । प्र० १७. द्रव्य को सर्वथा कूटस्थ मानने वाला किस गुगण का मर्म नहीं जानना ? उ० द्रव्यत्व गुण का मर्म नहीं जानता। प्र० १८. मिथ्यात्व का अभाव सम्यक्त्व की प्राप्ति किस कारण ? उ० द्रव्यत्व गुण के कारण । प्र० १६. संसार का अभाव सिद्ध दशा की प्राप्ति किस गुगण को बताता उ० द्रव्यन्व गुरण को बताता है । प्र० २०. पात्र जीव द्रव्यत्व गुण से क्या जानता है ? उ० संसार का प्रभाव और मुक्ति हमारे हाथ में है किसी दूसरे के कारण संसार या मोक्ष नहीं है । प्र० २१. प्रत्येक गुण की पर्याय क्यों बदलती है ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १२२ ) बदलती ग्रपनी योग्यता से है उसमें अन्तरंग निमित्त द्रव्यत्व गुण है । प्र० २२. दुःख का प्रभाव और सुख प्राप्त करने के लिये किसका मर्म जानना चाहिए ? द्रव्यत्व गुण का मर्म जानना चाहिये । उ० ४० २३. सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है उसके लिये पर की सेवा करें सम्मेद शिखर जावें, माला जपें, कोई पाठ करें, या व्रत उपवासादि करें तो प्राप्ति हो ? उ० जैसे छोटा बच्चा है उसे 'अ आ इ ई' पढ़ाना है वह उसके लिये उपवास करे, दान करें यात्रा करे ग्राप कहेंगे इन कार्यों से 'अ ' पढ़ना नहीं होगा वह 'ग्र ग्रा' का हाथ से अभ्यास करे तो 'ग्र ग्रा' पढ़ना लिखना श्रावेगा; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये पर की सेवा करें, सम्मेद शिखर जावें. माला जपें तो उससे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होगी । एक मात्र अपने ग्रनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड भगवान का आश्रय लें तो द्रव्यत्व गुण के कारण मिथ्यात्व का प्रभाव होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो । - प्र० २४. एक गुण में कितनी पर्याय होती हैं ? उ० तीन काल के जितने समय उतनी २ पर्याय प्रत्येक गुण की होती हैं । प्र ० २५. हमारे जीवन में द्रव्यत्व गुण को समझने से भी कुछ लाभ है ? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९३ ) 30 भगवान की ग्रावानुसार द्रव्यत्व गग्ग को समझ तो लौकिक में भी प्रशान्ति न आवेगी और अपना अनुभव कर ले तो मोक्ष रूपो लक्ष्मी का नाथ बन जावे । प्र ० २६. द्रव्यत्व गुण को जानने से लौकिक में शान्ति कैसे अवे ? ( १ ) ५० लाख का नुकसान या लाभ हो गया (२) लड़का मर गया या हो गया (३) मकान बन गया या गिर गया (४) शरीर में बीमारी आ गई या ठीक हो गई। यह सब द्रव्यत्व गुण के कारण पर्याय पलट गई दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है तो तुरन्त शान्ति प्रावेगी । उ० उ० प्र० २७. शरीर में बीमारी थी, दवा खाने से ठीक हो गई है वा ? बिल्कुल नहीं । घरीर की अवस्था द्रव्यत्व गुण के कारण बदल गई तो द्रव्यत्व गुण को माना और दवाई से वदली तो द्रव्यत्व गुण को नहीं माना । ने प्र० २८. ( १ ) मैंने होशियारी नहीं रखी तो दूध फट गया (२) कुम्हार घड़ा बनाया (३) उसने गाली दी तो क्रोच ग्राया ( ४ ) मैंने मकान बनाया (५) बच्चे ने सावधानी नहीं रखी तो गिलास गिरकर फूट गया ( ६ ) मैंने लकड़ी से श्रालमारी बनाई (७) मैंने किताव बनाई ( ८ ) ज्ञानावर्णी के अभाव से केवलज्ञान हुग्रा (2) दर्शन मोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ (१०) ग्रांख से ज्ञान हुआ आदि वाक्यों में द्रव्यत्व गुग्गा को कब माना और कब बहीं माना ? उ० (१) मैंने होशियारी नहीं रखी तो दूध फट गया-दूध फटाद्रव्यत्व गुण के कारण फटने रूप अवस्था हुई ऐसा जाने माने तो द्रव्यत्व - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) गुण को माना । फिर यह कि मैंने होशियारी नहीं रक्खी यह बात उड़ गयी । और द्ध फटा मेरी होशियारी न रखने से तो उसने द्रव्यत्व गुण को नहीं माना। इसी प्रकार | वाक्यों को लगायो ? प्र० २६. द्रव्यत्व गुण के जानने वाले को कैसे २ प्रश्न नहीं उठेंगे ? उ० (१) ऐसा क्यों हुअा, (२) इससे यह (३) ऐपा हो, ऐसा न हो, आदि प्रश्न नहीं उठ सकते हैं क्योंकि द्रव्यत्व गुगा के कारण पर्याय बदलती है तब ऐसा क्यों आदि प्रश्नों का अवकाश ही नहीं है उ० प्र० ३०. द्रव्यत्व गुण से क्या २ बात का निर्णय होना चाहिए ? (१) प्रत्येक द्रव्य गुण की अवस्था निरन्तर स्वयं बदलती है । (२) एक द्रव्य गुण की पर्याय दूसरा द्रव्य गुण नहीं बदल सकता है। (३) जीव की पर्याय प्रजीवों से नहीं बदलती। स्वयं बदलती (४) अजीवों की पर्याय जीवों से नहीं बदलती। स्वयं बदलती (५) अज्ञान दशा का प्रभाव एक समय में हो सकता है। (६) संसार एक समय का है । (७) मोक्ष भी एक समय का है । अ० ३१. आम खट्टे से मोठा पाल में दबाने से हुअा ना ? उ० बिलकली बिल्कुल नहीं; द्रव्यत्व गुण के कारण खट्टे से मीठा हुआ , Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल के कारण नहीं प्र० ३२. क्या ( १ ) केवलज्ञान ( २ ) केवल दर्शन ( ३ ) सिद्ध दशा (४) संसार दशा सब एक २ समय की है ? ( १२५ ) | उ० हां सब एक २ समय की है। वास्तव में एक २ समय की पर्याय वह भव है । सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा चारों गति भी एक २ समय की हैं । प्र० ३३. यदि द्रव्यत्व गुरण न माने तो क्या नुकसान हो ? उ उ. प्र ० ३४. संसार और मोक्ष एक २ समय का है इसको जानने से क्या लाभ है ? (१) द्रव्य गुण को कूटस्थापने का प्रसंग उपस्थित होवेगा । (२) संसार और मोक्ष का प्रश्न ही नहीं रहेगा । हे ग्रात्मा तू नादिअनंत भगवान है उसका अ श्रय ले तो एक समय के संसार का प्रभाव करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । उ. प्र० ३५. मैं बड़ा पापी हूँ, मेरा पाप जन्मों जन्मों दुख देगा - क्या यह ठीक है ? बिल्कुल गलत । द्रव्यत्व गुण के कारण पर्याय बदल गई तब दुःख का प्रश्न ही नहीं उठता है । प्र० ३६. वस्तुत्व गुण के बाद द्रव्यत्व गुरण बताने के पीछे क्या रहस्य है ? Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) बस्तु अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करती है ऐसा वस्तुत्व गुण ने बताया तो द्रव्यत्व गुण बताने के पीछे यह रहस्य है कि वह प्रयोजनभूत कार्य 'निरन्तर बदलता' ही रहता है । उ० प्र० ३७. द्रव्यत्व गुण का कार्य कब पूरा होगा ? उ० प्र० ३८. क्या जीव की पर्याय प्रजीव से बदलती है ? कोई ऐसा माने तो ? विल्कुल नहीं (१) जीव के द्रव्यत्व गुण को नहीं माना । (२) जीव को परिणमन रहित माना । उ० प्र० ३६. द्रव्यत्व गुरण त्रिकाल रहता है ? किस कारण ? अस्तित्व गुण के कारण | उ० निरन्तर परिगमन होना ही द्रव्यत्व गुण का कार्य है फिर कार्य पूरा होने का प्रश्न ही नहीं रहता है । प्र ० ४०. द्रव्यत्व गुण अपना प्रयोजनभूत कार्य करता है, किस कारण ? वस्तुत्व गुण के कारण । उ० प्र० ४१. द्रव्यत्व गुण विरन्तर बदलता है, द्रव्यत्व गुण के कारण । ತ್ उ० किस कारण ? प्र ० ४२. अस्तित्व, वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण का क्या मर्म है ? प्रत्येक वस्तु कायम रहती हुई पपना २ प्रयोजनभूत कार्य Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) करती हुई निरन्तर बदलतो है ऐमा द्रव्य का स्वभाव है। ऐसा जाने माने तो संसार का प्रभाव मोक्ष की प्राप्ति होती है। उ० प्र० ४३. मोक्षार्थी को क्या जानमा चाहिये ? द्रव्यत्व गुण इस वस्तु को, जग में पलटता है सदा । लेकिन कभी भी द्रव्य तो तजता म लक्षण सम्पदा ।। स्वद्रव्य में मोक्षार्थी हो, स्वधीन सुख लो सर्वदा । हो नाश जिससे ग्राजतक की दु:खदायी भव कथा ।। प्र० ४४. वस्तु जग में पलटती है लेकिन घस्तु का नाश नहीं होता, तब हम क्या करें। अपने द्रव्य में द प्टि करें तो तमाम दु:ख का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि पूर्वक मोक्ष के भागी बने । उ० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Яо उ० 510 उ० По उ० पाठ १४ До प्रमेयत्व गुण Яо उo ३. जगत में कोई ऐसा पदार्थ है जिसमें प्रमेयत्व गुण न हो ? जगत में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जिसमें प्रमेयत्व गुरण न हो क्योंकि प्रमेयत्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुरण है । १. प्रमेयत्व गुरण किसे कहते हैं ? जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय हो उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं । २. " किसी न किसी ज्ञान" से क्या मतलब है ? मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, और केवलज्ञान इन पांचों में से कोई भी एक । ४. प्रमेयत्व का मतलब क्या है ? ज्ञात होने योग्य, जानने योग्य, ज्ञेय, Knowable ५. प्रमेयत्व का व्युत्पत्ति अर्थ क्या है ? प्र = अर्थात् विशेष रूप से । मेय = अर्थात ज्ञान में आने Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Яс उ० बिल्कुल गलत है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य प्रमेयस्व गुण वाला हैं । प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी ज्ञान का विषय होता है इसलिए रूपी और रूपी दोनों पदार्थ अवश्य ही बराबर ज्ञात होते हैं । उ० Яо ७. ज्ञान करने की और ज्ञात होने की यह दोनों शक्तियां एक साथ किसमें हैं ? एक मात्र जीव द्रव्य में ही हैं । ( १२६ ) योग्य | त्व = अर्थात पना । विशेष रूप से ख्याल में प्राने योग्य पना । उ० ६. रूपी पदार्थ ज्ञान में ज्ञात होते हैं । प्ररूपी पदार्थ ज्ञात नहीं होते । क्या यह बात ठीक है ? Я о ८. पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में भी यह दोनों शक्तियां हैं ना ? То उ० नहीं है क्योंकि मात्र ज्ञेयपने की शक्ति पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल में है, ज्ञान करने की नहीं है । ६. हम ऐसा कार्य करे किसी को भी पता न चले, ऐसा कहने वाला क्या भूलता है ? (१) प्रेम यत्व गुरण को भूलता है । (२) भरहंत सिद्ध को नहीं मानता क्योंकि संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो अरहंत सिद्ध ना जानते हो । (३) प्रवधिज्ञानी, मन:पर्यय ज्ञानी को नहीं माना । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) (४) ज्ञानी द्यदमस्थ भावभुत ज्ञानी को भी नहीं माना । प्र. १०. प्रमेयत्व गुण को जानने से क्या लाभ है ? उ० सब पापों से छूट जाता है । प्र. ११. प्रमेयत्व गुण को जानने से सब पापों से कैसे छूट जाता है ? उ० जो जीव पाप करता है वह यह जानकर करता है कि उसे कोई देखता नहीं है । यदि उसे यह पता लग जावे अरहंत सिद्ध ग्रादि भगवान सब जानते हैं तो वह उन पापों को न करे। प्र. १२. प्रमेयत्व गुण के रहस्य को जानने वाला सब पापों से कैसे छूट जाता है दृष्टांत देकर समझायो ? उ० एक आदमी ने ५० भैसें खरीदी, उसने दूध निकाल कर जमा करके घी निकाल कर बेचने का काम शुरू किया। घी का भाव बाजार में ८ रुपया सेर, तो वह सात रुपया बेचता। बाजार में लोग जानते हैं कि मिलावट का होता है और इसने तो भंसें रख रक्खी है और एक रुपया सेर कम बेचता है तो उसका घी रोज का रोन सुबह ही बिक जाता । और वह जल्दी हो मालदार हो गया। एक दिन उसका खास रिस्तेदार पाया-अरे भाई तुम घो एक सेर एक रुपये कम में बेचते हो तब तुम इतने मालदार कैसे हो गये। उसने कहा-देखो मुझे सब इमानदार जानते हैं। मैं रोज १ कनस्तर असली घी और ५ कनस्तर नकली घी मिलाकर रात को ख देता हैं वह सुबह ही सब बिक जाता है । इस बात को कोई नहीं जानता । इस तरह से मैं मालदार जल्दी बन गया हूँ। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) उसने कहा भाई तुम तो जैन हो । अरहंत भगवान सिद्ध भगवान तो इस बात को जानते हैं और अवधि, मन:पर्यय ज्ञानी भी बतला सकते हैं तब तुम कैसे कहते हो इस बात को कोई नहीं जानता । उस दिन से उसने यह बेईमानी का कार्य छोड़ दिया क्योंकि उसने प्रमेयत्व गुरण का रहस्य जान लिया । प्र० १३. (१) मैं जुग्राँ खेलता हूँ कोई नहीं जानता है; (२) मैं दूसरों की मां बहिनों को छेड़ता हूँ इसे कोई नहीं जनता; (३) मैं इन्कम टैक्स की चोरी करता हूँ कोई नहीं जानता, (५) मैं सिगरेट पीता हूँ किसी को क्या पता है; (६) मैं शराब पीता हूँ लेकिन किसी को पता नहीं, (७) मैं वेश्या के यहां जाता हूँ परन्तु कोई देखता नहीं है; (८) मेरे घर पर दूसरों की स्त्रियां आती है मैं उनसे मनोरंजन करता हूँ कोई नहीं जानता है; (६) मैं हिंसा झूठ चोरी करता हूँ किसी को पता नहीं चलता; (१०) मैं नकल करता हूँ किसी को पता नहीं चलता; ( ११ ) मैं व्यापार में सबको उल्लू बना देता हूँ कोई नहीं जानता है; (१२) मैं ऐसी चार सौ बीस करता हूँ सब दंग रह जाते हैं; (१३) मैंने अलेक्सन में तमाम बोट अपनी पेटी में डाल दिये किसी ने देखा ही नहीं; Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १३२ ) आदि काक्यों में (१) प्रमेयत्व गुगण को कब माना और कब नहीं माना ? (२) प्रमेयत्व गुण मानने वाले ने किस २ को माना प्रमेयत्व गुण न मानने वाले ने किस २ को नहीं माना आदि का उत्तर दो? (१) मैं जुओं खेलता हूं कोई नहीं जानता है ऐसी मान्यता वाले ने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । अरंहत सिद्ध प्रादि पंच परमेष्ठियों का निरादर किया। (२) मैं आत्मा हूँ मैं जुआ खेल हो नहीं सकता हूँ; जुओं खेलने का कार्य मेरे ज्ञान का ज्ञेय है मैं तो ज्ञायक हूँ ऐसा माने तो उसे जुयां खेलने का भाव भी नहीं आवेगा तब प्रमेयत्व गुण को माना। (३) यदि अज्ञानी भी जो जुनां खेलता है क्योंकि कोई नहीं जानता। जब उसे किसी ज्ञानी ने बताया भाई परमेष्ठी यह बात जानते हैं तो वह भी जुनां न खेलेगा। लौकिक रूप से शान्ति प्रा जावेगी और यदि अज्ञानी यह जान जावे कि मेरा कार्य तो ज्ञान है तो ज्ञानी बन जावे तब प्रमेयत्व गुण को माना। इसी प्रकार १२ वाक्यों में लगायो । उ० प्र. १४. मैं रोटी खाता हूँ ऐसा माने तो क्या नुकसान है ? उसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना क्योंकि रोटो तो ज्ञान का शेय है ऐ पा न मानकर मैं खाता हूँ उसने प्रमेयत्व गुण को नहीं म.ना । मैं प्रात्मा ज्ञापक रोटी मेरे ज्ञन का शेय है ऐसा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) माने तो प्रमेयत्व गुण को माना । प्र. १५. (१) मैं रथ बनाता हूं (२) मैं शरीर की सेवा करता हूँ (३) मैं नहाता, धोता, कपड़े पहनता हूं (४) मैं बोझा उठाता हूँ (५) मैं पांच इन्द्रियों का भोग लेता हूँ (६) मैं दुकान चलाता हूँ (७) मैं घर की देख भाल करता हूं (८) मैं हूं तो उसके सब काम ठोक हो गये (6) मैं कर्मो का प्रभाव करता हूं आदि वाक्यों में (१) प्रमेयत्व गुण को कब माना और (२) इससे क्या लाभ रहा (३) प्रमेयत्व गुण को कब नहीं माना (३) इससे क्या नुकसान रहा इत्यादि स्पष्ट करो ? उ० (१) मैं रोटी खाता हूं। रोटी मेरे ज्ञान का शेय है इसके बदले मैं खाता हूं तो मैंने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना। रोटी अनंत पुद्गल परमाणुओं का स्कंध है में उनका कर्ता भोक्ता बन गया । अनन्त द्रव्यों का कर्ता भोक्तापने का भाव निगोद का कारण है । प्र० निगोद का प्रभाव कैसे हो ? उ० में प्रात्मा ज्ञायक रोटी मेरे ज्ञान का ज्ञेय है। जय जायक संबध है कर्ता भोक्ता का संबंध नहीं है तब प्रमेयत्व गुगण को मोना तब मोक्ष का अधिकारी बना। इसी प्रकार बाकी के ८ वाक्यों को लगायो । प्र० १६. (१) में मनुष्य (२) मैं देव (३) में नारकी (४) मैं नियंच (५) मैं चार इन्द्रिय आदि में प्रमेयत्व गुण को कब नहीं माना उसका और फल क्या है ? उ० में मनुष्य हूं। मैं हूँ अनंत गुणों का अभेद पिण्ड भगवान । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १३४ ) प्र० में हैं आत्मा इसके बदले मैं मनुष्य ऐसा माने तो क्या हो ? उ० उसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । प्र. मैं मनुष्य हूं ऐसा मानने से क्या नुकसान हुआ ? उ० कार्मरण शरीर, तैजस शरीर, औदारिक शरीर आदि का कर्ता बन गया इसका फल निगोद है । प्रo १७. दिगम्बर धर्मी कौन हैं ? उनका कार्य क्या है ? ज्ञानी दिगम्बर धर्मी है उसका कार्य ज्ञाता दृष्टा है । प्र० क्या करे तो निगोद का प्रभाव हो ? उ० मैं आत्मा हूं कार्मारण शरीर, तैजस शरीर, प्रौदारिक शरीर, मन, वाणी यह सब मेरे ज्ञान का ज्ञेय हैं ऐसा जाने माने तब प्रमेयत्व गुण को माना और सब शरीर में एक २ परमाणु अपनी २ मर्यादा में परिणमन कर रहा है उसमें कर्ता बुद्धि का अभाव होकर मोक्ष का पथिक बन गया । इसी प्रकार बाकी चार प्रश्नों का उत्तर दो । उ० प्र० १८. जो सप्तव्यसन का सेवन करते हैं हिंसादि झूठ बोलते हैं वह अपने को दिगम्बर धर्मी कहते हैं क्या यह ठीक है ? वह सब दिगम्बर धर्मी नहीं है और चारों गतियों में घूमते हुए निगोदगामी हैं। चारों गति के भक्त हैं पंचम गति के भक्त नहीं हैं । प्र० १६. विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों के साथ श्रात्मा का कैसा संबंध है ? Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १३५ ) एक मात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है और किसी प्रकार का संबंध नहीं है । उ० प्र ० २०. कोई संसार के पदार्थों के साथ करने भोगने का संबंध माने तो ? जैसे माता का पुत्र के साथ जैसा संबंध है वैसा ही माने तो ठीक है यदि उल्टा संबंध माने तो निन्दा का पात्र होता है । उसी प्रकार संसार के पदार्थों के साथ ज्ञ ेय-ज्ञायक संबंध है इसके बदले कर्ता-भोक्ता का संबंध माने तो जिनवाणी माता के साथ अनर्थ है और वह निगोद का पात्र है । प्र० २१. ज्ञेय-ज्ञायक संबंध किसने माना, किसने नहीं माना ? ज्ञानी ने माना अज्ञानी ने नहीं माना । उ० प्र. २२. प्रमेयत्व गुण रूपी है या अरूपी ? और क्यों ? उ० दोनों है। पुद्गल का प्रमेयत्व गुरण रूपी है बाकी के द्रव्यों का अरुपी है । प्र ० २३. प्रमेयत्व गुण जड़ है या चेतन है और क्यों ? उ० 1 दोनों है । जीव का प्रमेयत्व गुण चेतन है बाकी का जड़ है । प्र. २४. प्रमेयत्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा है और क्यों ? उ० जितना द्रव्य का है उतना बड़ा क्षेत्र प्रमेयत्व गुण का है क्योंकि प्रमेयत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में पाया जाता है । प्र० २५. प्रमेयत्व गुण का काल कितना है और क्यों ? Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) उ० जितना द्रव्य का काल है उतना ही प्रमेयत्व गुरण का है क्योंकि प्रमेयत्व गुरण द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल रहता है । प्र ० २६. पुद्गल परमाणु भी क्या ज्ञान का शेय हो सकता है ? वह भी ज्ञान का ज्ञ ेय है उसमें भी प्रमेयत्व गुरण है । परमाणु अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञानी के ज्ञान का ज्ञ ेय हो जाता है । उ. प्र. २७. सभी द्रव्यों के गुणों की भूत भविष्यत वर्तमान सब पर्यायें ज्ञान का ज्ञेय हो सकती हैं ? हां वह सब केवलज्ञानी के केवलज्ञान की पर्याय में एक समय में एक साथ ज्ञेय हैं ? प्र० २५. सब द्रव्यों की भूत भविष्यत वर्तमान पर्याय केवलज्ञानी केवलज्ञान में एक साथ एक समय में जानते हैं यह कहाँ पाया है ? चारों अनुयोगों में प्राया है ? उ० (१) प्रवचनसार गा० ३७, ३८, २१, ४७ तथा २०० में (२) तत्वार्थ सूत्र ध्याय पहला सूत्र २६वां (३) रत्नकरण्ड श्रावकाचार पहला श्लोक (४) छहढाला में चौथी ढाल में : - सकल द्रव्य के गुण अनंत पर्जाय श्रनन्ता । जाने एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता ॥ (५) घवला पुस्तक १३ पृ० ३४६ से ३५३ तक । प्र० २६. कितने ही पंडित नाम घराने वाले, त्यागी नाम धराने वाले Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० ( १३७ ) दिगम्बर धर्मी कहलाने पर भी ऐसा क्यों कहते हैं कि (१) केवली भगवान भूत और वर्तमान पर्यायों को हो जानते हैं और भविष्यत पर्यायों को वह हो तब जानते हैं, (२) सर्वज्ञ भगवान अपेक्षित धर्मों को नहीं जानते; (३) केवली भगवान भूत भविष्यत पर्यायों को सामान्य रूप से जानते हैं किन्तु विशेष रूप से नहीं जानते । (४) केवली भगवान भविष्य की पर्यायों को समग्र रूप से जानते हैं भिन्न २ रूप से नहीं जानते । (५) ज्ञान मात्र ज्ञान को ही जानता है । ( ६ ) सर्वज्ञ के ज्ञान में पदार्थ झलकते हैं किन्तु भूत भविष्य की पर्यायें स्पष्ट रूप से नहीं झलकती । क्या उन त्यागी पंडित नाम धराने वालों का कहना ठीक है या गलत है ? बिल्कुल गलत है । ( १ ) शास्त्र तमाम भवलिंगी मुनियों के बनाये हुए हैं उनमें भूत प्रौर भविष्यत की पर्यायों का स्पष्ट उल्लेख है जबकि प्रवधिज्ञानी, मन:पर्यय ज्ञानी तो भूत भविष्य की पर्यायों को जाने केवली ना जाने देखो कितना अनर्थ है । (२) भरत जी ने भूत भविष्यत वर्तमान चौबीसो की स्थापना की, वह कहां से आई; (३) मारीच २४वा तीर्थकर होगा; द्वारिका में १२ वर्ष बाब भाग लगेगी - यह कहां से श्राई; Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) (४) करणानुयोग में जीव ऐसे भाव करता है तव ऐसा २ का का निमित्त-नैमित्तिक संबंध होगा, यह कहां से आया है (५) चरणानुयोग में जीवने ऐसे व्रत का भाव किया है उस फल से देव हुआ, यह कहां से आया; (६) प्रथमानुयोग तो भूत भविष्यत वर्तमान सबको बताता यह इसका जीता जागता प्रमाण है । (७) समयसार गा० ३०७ मे ३११ तक स्पट पाया है। इस लिए वास्तव में आजकल भगवान की आज्ञा न मानने पंडितों त्यागियों में सर्वज्ञ के विपय में उल्टो धारणा है इसलिए उनको वर्तमान में सच्चे शानियों का समाग करके अपनी भूल मिटा लेनी चाहिए। प्रश्न में जो ६ बातें आई है उन्होंने सर्वज्ञ को अल्प माना यह उनकी चारों गतियों में घूमने की बात है। प्र. ३०. जब ज्ञान में अनादि और अनन्त पर्यायें एक साथ पा जाती तब तो उनका आदि और अन्त भी आ गया ? नहीं पाया। अनादि कहने से आदि नहीं है और अनन कहने से अन्त यह अर्थ नहीं है । प्र० ३१. अनादि कहने से आदि क्यों नहीं ? अनंत कहने से अन्त क नहीं? उ. केवलज्ञानी अनादि को अनादि रूप से और अनंत को अन रूप से जानते हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ : 2 ) प्र ० ३२. जिसमें ज्ञान गुण हो उसमें प्रमेयत्व गुण होगा या नहीं ? उ० अवश्य ही होगा । प्र० ३३. ज्ञानी मुखी क्यों है ? ज्ञानी दुःखी क्यों है ? 30 ज्ञानी संसार के पदार्थों के साथ ज्ञेय-ज्ञायकता है इसलिये सुखी है और ज्ञानी पर पदार्थों के साथ कर्ता कर्य, भोक्ता भोग्य संबंध मानता है इसलिये दुःखी है । प्र० ३४. सातवें तक में सम्यगृष्टि जीव सुखी है उन्होंने शेय-नायक संबन्ध माना ? हां। उन्होंने ज्ञेय - ज्ञायक संबन्ध माना है तभी तो बागी बने । उ० प्र० ३५. हमको तो पदार्थों के साथ कर्ता कर्न, भोक्ता-पीय संव ही जान पड़ता है ज्ञयज्ञायक नहीं, इसका क्या कारण है ? (१) अज्ञानी को पीलिया रोग हो गया इसलिये जो उल्टा मालूम पड़ता है । (२) जैसे रेल में पेड़ चलते दिखते हैं, उसी प्रकार प्रज्ञादी को पर द्रव्यों के साथ कर्ता-कर्म, भोक्ता भोग्य संबंध दिखता है । वास्तव में रेल चलती है पेड़ नहीं चलते उसी प्रकार वास्तव में ज्ञय-ज्ञायक संबन्ध है । (३) "बछेरे के ग्रण्डे के ससान ग्रात्मा ने किया ऐसा मानता है । बछेरे के ग्रण्डे का दृष्टान्त निम्न प्रकार से है: एक बार एक दरवार दो सुन्दर घोड़े के बछेरों को खरीदने 30 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) के लिये बाहर निकला। दरबार पहले कभी महल से बाहर नहीं निकला था, इसलिये उसे दुनिया का कोई अनुभव नहीं था। वह बछेरे खरीदने एक गांव से ढमरे गांव में जा रहा था। बीच में उसे कुछ ठग मिले। बातचीत में उन ठगों ने जान लिया कि दरवार बिल्कुल अनुभवहीन है पौर बछेरे खरीदने बहार निकला है । उन ठगों ने दरबार को ठगने का निश्चय किया और दो काशीफल लेकर एक पेड़ पर टांग दिये । उसी पेड़ के पास वाली झड़ो में दो खरगोश के बच्चे छिपे बैठे थे। उन ठगों ने दरवार से कहा हमारे पास बछेरों के दो मुन्दर अण्डे हैं इनमें से दो सुन्दर बछेरे मिलने । दरबार से सौदा तय करके दो हजार रुपये ले लिये । फिर उस पेड़ पर छिपाकर रखे हुए दोनों काशीफलों को नीचे गिरा दिया। नीचे गिरते हो वे फट गये और जोर से धड़ाका हुआ। उस धड़ाके का आवाज सुनकर वे खरगोश के बच्चे झाड़ी में से निकल कर भागे । तब वे ठग ताली बजाकर हंसे और बोले-महाराज ! महार!ज ! अन्डे तो फूट गये । वे तुम्हारे दोनों बछेरे भागे जा रहे हैं। पकड़ो, पकड़ो। दरबार उन्हें सचमुच बछेरे जानकर उन्हें पकड़ने दौड़ा। परन्तु वे खरगोश किसी झाड़ी में छिप गये। हाथ न आए, दरबार मन मास र घर आ गया । घर आकर अन्त:पुर के लोगों ने पूछा कि महाराज, बछेरों का क्या हुप्रा । तब दरबारने अन्डे खरीदने की समस्त वार्ता कह सुनाई और कहने लगा कि इतने सुन्दर बछेरे निकले कि निकलते हो दौड़ पड़े : अन्त:पुर के लोगों ने कहा कि महाराज आप मूर्ख हो गये हैं-कहीं बछेरों के अन्डे भी होते हैं परन्तु दरबार ने कहा अरे! मैंने अपनी प्रांखों से देखें हैं । परन्तु कोई पूछे, परे ! जब बछेरे के अन्डे होते ही नहीं तो तुमने देखे कहाँ से हैं; उसी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) प्रकार अज्ञानी जीव कहता है कि "प्रात्मा पर द्रव्य के कार्य को करता देखा जाता है। अरे भाई, जब आत्मा परद्रव्य का वृछ कर ही नहीं सकता तो तूने देखा कहां से । खोटी दृष्टि से अज्ञानी को जड़ की क्रिया चेतन करता हुमा भासित होता है । प्रात्मा ने यह क्रिया की, यह तो नजर नहीं आता। यह देखो हाथ में लकड़ी है। अब यह ऊची हो गयी, इसमें प्रात्मा ने क्या किया। प्रात्मा ने यह जाना तो सही कि लकड़ी पहले नीचे थी और अब ऊपर हो गई है । परन्तु प्रात्मा लकड़ी को ऊंचा करने में समर्थ नहीं हैं। अज्ञानी मानता है मैंने लकडी को ऊंची की है सो विपरीत मान्यता है। इनलिए (१) एक आत्मा दूसरी आत्मा का कुछ नहीं कर सकता है (२) एक प्रात्मा जड़ का कुछ नहीं कर सकता है (३) एक पुद्गल दूसरे पुद्गल का कुछ नहीं कर सकता है (४) एक पुद्गल प्रात्मा का कुछ नहीं कर मकता है ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है इससे उल्टा मानना महान पाप मिथ्यात्व है। प्र. ३६. जय-ज्ञायक संबन्ध किसने माना और जाना? उ० जिसने अपने प्राश्रय से सम्यग्दर्शनादि प्रगट किये उसने माना। प्र. ३७. संसार में ज्यादातर जनता कर्ता-कर्म भोक्ता-भोग्य की ही बातें __करतो है क्या यह सब पामम है ? वास्तव में निगोद मे मगाकर द्रव्य लिंगी मुनि तक सब पागम Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) प्र० ३८. मैं सबको कैसे जान सकता हूं ऐसी मान्यता वाला क्या भूलता है ? प्रमेयत्व गुरण को भूलता है । उ० प्र० ३६. मैं शरीर का बाल बच्चोंग कर सकता हूँ ऐसी मान्यता वाला क्या भूलता है ? प्रमेयत्व गुण को भूलना क्योंकि शरीर के साथ, बाल बच्चों के साथ संबन्ध है ज्ञयपने का, माना कर्तापने का | उ० प्र० ४०. मैं पर का उ० भोगता हूँ ऐसी मान्यता वाला कौन है ? उ० (१) जिनमत से बहार विक्रिया दी है। (२) पर के साथ ज्ञेय-ज्ञापक संबंध है माना कर्ता और भोगता का तो उसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । प्र० ४१. श्रात्मा का और द्रव्य कर्मों का कर्ता-कम संबंध है ना ? विल्कुल नहीं । मात्र ज्ञ ेय-ज्ञायक संबंध है । अथवा निमित्तनैमित्तिक संबंध है जो दोनों की स्वतंत्रता का ज्ञान कराता है । प्र० ४२. शास्त्रों में कथन प्राता है कि ( १ ) कर्म जीव को चक्कर कटाता है, (२) ज्ञानावर्णी के प्रभाव से केवलज्ञान होता है ( ३ ) दर्शन मोहनीय के सद्भाव से मिथ्यात्व रहता है और प्रभाव से क्षायिक सम्यक्त्व होता है क्या यह कथन झूठा है ? उ० यह व्यवहार कथन है इसका अर्थ ऐसा है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा कथन किया है ऐसा जानना चाहिए | Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) प्र० ४३. लड़का प्राज्ञा न माने, स्त्री हमारे मुताविक न चले तो क्या क्रोध नहीं आवेगा? उ० लड़का प्राज्ञा न माने, स्त्री हमारे मुताबिक न चले, वह हमारे ज्ञान का ज्ञेय है ऐसा माने तो क्रोध नहीं ग्रावेगा, तब प्रमेयत्व गुण को माना और उनके कारण क्रोध माना तो प्रमेयत्व गुण को नहीं माना। प्र० ४४. प्रमेयत्व गुण का मर्म समझने के लिये किसका आदर्श रक्खें ? उ० (१) द्धि भगवानों का । मन्दिर जी में अरहंत भगवान को अपना आदर्श माने तो प्रमेयत्व गुण का मर्म समझ में आवे। जैसे मन्दिर में कोई चोरी करे, किसी का बुरा विचारे तो भगवान अरहंत कहते हैं जानों और देखो क्योंकि वह तुम्हारे ज्ञान का ज्ञय है । साक्षात समोशरण में अनेक जीव होते हैं विरोध भी होता है तो क्या भगवान नहीं जानते ? जानते तो हैं उन्हें क्रोधादि क्यों नहीं पाता ? उन्हें वह जय जानते हैं । हम भी सबको ज्ञेय माने तो भगवान की प्राज्ञा मानी और प्रमेयत्व गुण को माना। प्र० ४५. देव गुरू शास्त्र क्या बताते हैं ? उ० तेरा संसार के पदार्थों के साथ मात्र ज्ञ य-ज्ञायक संबंध हैं कर्ता-कर्म , भोक्ता-भोग्य संबंध नहीं है: सकल ज्ञय ज्ञायक तदपि, निजनंद रस लीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित,अरि रज रहस विहीन । प्र० ४६. संसार में जीव दुःखो क्यों है ? उ० भगवान की आज्ञा न मानने से । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ ) अनादिकाल से पाजतक भगवान की प्राज्ञ नुसार चला हो नहीं असो पत्ति के अनुसार भगवान की प्राज्ञा का पालन अनन्त बार किया, परन्तु भगवान की प्राज्ञानुसार प्राज्ञा का पालन एक समय भी ना किया इसनिए जीव संसार में दुःखी है । प्र. ४७. प्रमेयत्वपना किस २ में है ? उ. प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय में प्रमेयत्वपना है । प्र. ४८. प्रमेय (ज्ञ य) क्या २ है ? उ० (१) छह द्रव्य उनके गुण और पर्याय हैं। (२) विकारी भाव पोर प्रपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय सब ज्ञेय हैं । ज्ञानी तो अपनी और पर की परणति को जानता हा प्रवर्तता है। प्र. ४६. हमें भगवान से प्रौर शुभ भावों से लाभ है ना ? 50 उसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना क्योंकि भगवान और शुभ भाव ज्ञान का जय हैं। माना लाभ, तो प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । प्र० ५०. ज्ञानी क्या जानता है ? सब द्रव्य गुण प्रमेय से, बनते विषय हैं ज्ञान के । रुकता न सम्यग्ज्ञान परसे, जानियों यों घ्याम से ।। प्रात्मा अरूपी शेय निज, यह ज्ञान उसको जानता। है स्व-पर सत्ता विश्व में, सूदष्टि उनको जानता ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १५ आरूलधुत्व गुण प्र० १. अगुरूलघुम्ब गुग्ण किसे कहते हैं ? उ० जिस शत्ति के कारण द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहे । अर्थात् (१) एक द्रध्य दुसरे द्रव्य रूप नहीं होता है। (२) एक गुगण दूसरे गृण रूप नहीं होता हैं। (३) द्रव्य में विद्यमान अनन्त गुण विखरकर अलग २ ना हो जावें उस शक्ति को अगुरूलघुत्व गुण कहते हैं । प्र० २. अपने जीव द्रव्य में अगुरूलघुत्व गुण के कारण उसके द्रव्य क्षेत्र काल भाव की मर्यादा बतायो ? उ० (१) अनन्त गुणों का पिण्ड मेरे जीव द्रव्य का स्वद्रव्यपना स्थायी रहता है, वह कभी भी दूसरे अनन्त जीवरूप, अनंतानंत पुद्गल रूप, धर्म, अधर्म, प्राकाश और कालरूप, द्रव्य कर्म रूप, प्रांख, नाक, शरीररूप, मन, वाणी रूप नहीं होता है। (२) मेरे जीव द्रव्य का असंख्यात प्रदेशी स्वक्षेत्र अपने क्षेत्र में रहता है, वह कभी भी दूसरे जीवों के क्षेत्ररूप, द्रव्यकर्म के क्षेत्ररूप, पुद्गल आदि दूसरे द्रव्यों के क्षेत्ररूप, यांग्त्र, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६ ) कान, शरीर के क्षेत्ररूप, सम्मेदशिखर, गिरनार क्षेत्ररूप कभी भी नहीं होता हैं। । (३) मेरे जीव के गुणों को पर्याय अपने अपने रूप होती है द्रव्यों के गुणों की पर्यायरूप नहीं होती है। मेरे एक की पर्याय दूसरे गुण की पर्याय रूप नहीं होती है । गुण की पर्याय है वह पर्याय आगे पीछे नहीं होती है (४) मेरे जीव द्रव्य के अनंत गुग्ग हैं वह जिस रूप हैं काल उसी रूप रहते हैं कभी भी बिखरकर अलग होते हैं। प्र० ३. यह तो आपने अपने जीव द्रव्य में प्रगुरूलघुत्व मुण के क द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की बात करी । अब पाप प्रत्येक द्रव्य के विष क्या मर्यादा है, जरा स्पष्ट रूप से समझायो ? उ० विश्व में जीव अनंत, जीव से अनंत गुणा अधिक पुद्गल हैं-धर्म, अधर्म, आकाश एक २ और लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्य इनका एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य का किसी भी प्रकार का संबन्ध नहीं एक द्रव्य दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा अद्रव्य, प्रक्षेत्र, अकाल और प्रभार है। जैसे एक पुद्गल परमाणु है उसका दूसरे पुद्गलों, जीवों, बाकी । से कोई संबन्ध नहीं है, क्योंकि अनादिनिधन वस्तु ज दी २ अपनी २ मा लिये परिणम है कोई किसी का परिणम या परिणमता नाही। प्र. ४. छहों द्रव्यों और उनके गुण पर्यायों की स्वतंत्रता जानने से लाभ है ? उ० (१) एक द्रव्य अपने स्वचतुष्टय से है पर चतुष्टय से नहीं Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) ऐसा जानकर अपना हित और भहित अपने से ही होता है ऐसा यथार्थ ज्ञान हो जाता है। (२) मुझे संसार का कोई भी द्रव्यकर्म, नोकर्म हाणि लाभ नहीं कर सकता। (३) ऐसा जानकर मैं अनादि अनंत भगवान हूँ मेरा किसी से भी संबन्ध नहीं है, अपने स्वभाव का प्राश्रय ले तो धर्म की प्राप्ति हो। प्र. ५. क्या द्रव्यकर्म के अनुसार जीवों में कार्य होता है ? उ. बिल्कुल नहीं । (१) दो द्रव्यों को स्वतंत्र भिन्न नहीं जाना। (२) द्रव्य में प्रगुरूलघुत्व गुण को नहीं माना । प्र. ६. छहों द्रव्यों की गुण पर्यायों की मर्यादा की स्वतंत्रता किस गुण उ० अगुरूलघुत्व गुण से है। प्र. ७. अगुरूलघुत्व गुण से क्या २ पता चलता है ? (१) एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पृथक पृथक है। (२) एक द्रव्य में अनंत २ गुण हैं उन अनंत गुणों का प्रापस में भी संबंध नहीं है क्योंकि प्रत्येक गुण का भाव पृथक २ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र ० ( १४८ ) (३) एक द्रव्य में अनंत २ गुण है वह विपर कर लग २ नहीं होते हैं क्योंकि उन गुणों का द्रव्य, क्षेत्र, काल एक ही है । (४) एक गुण की पर्याय का उसी गुण की भूत, भविष्य पर्यायों से संबंध नहीं है। इस प्रकार अगुरुलघुत्व गुरण से स्वतंत्रता का पता चलता है । ८. क्या एक द्रव्य में रहने वाले गुण परस्पर एक दूसरे का कार्य करते हैं ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि दूसरे गुणरूप नहीं होता इसलिये नहीं जाता है । गुरुलघुत्व गुरम के कारण एक मुरल एक गुण का कार्यक्षेत्र दूसरे गुण में Я. ६. एक गुण दूसरे गुरण में कार्यं क्यों नहीं करता ? उ० प्रत्येक गुरण नित्य परिरणमन स्वभावी होने से प्रति समय अपनी नई नई पर्यायें उत्पन्न करता है इस प्रकार एक द्रव्य के प्राश्रित गुणों में भी स्वतंत्रता होने से एक गुण का दूसरे गुण के साथ कर्ता - कर्म संबंध नहीं है। प्र० १०. एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से संबंध नहीं है परन्तु अन्दर अनंत गुणों से भी संबंध नहीं है इस बात को स्पष्ट करिये ? (१) जैसे किसी जीव को सम्यग्दर्शन हो गया तो वहां चारित्र, ज्ञान, दर्शन, वीर्य गुरण में कमी है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) (२) चारित्र गण पूर्ण हो गया तो ज्ञान,दर्शन, केर्य अपूर्ण है। (३) ज्ञान, दर्शन, बीर्य पूर्ण हो गया तो योग गुण विकारी है। (४) योग गुण शुद्ध होगया, क्रियावती शक्ति प्रादि गुणों में अशुद्धि है। पुद्गल मै स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं। ग्राम खट्टा हो ऊपर से पीला हो, और मीठा हो ऊपर से हरा हो। इसलिये एक गुण का दूसरे पुरण से संबंध नहीं है, पी जानकर अपने स्वभाव का आश्रय लेना पात्र जीव का कर्तव्य है। प्र० ११. (१) गुरू से ज्ञान की प्राप्ति हुई (२) मैं चश्मे मे पुस्तक को पढ़कर ज्ञान करता हूं (३) ब्राह्मी तेल के योग से ज्ञान बढ़ता है (४) दूध में दही मिलाने से सब दही जम जाता है (५) शास्त्र से झाब होता है । पादि वाक्यों में कौनसे गुण को नहीं माना और कब माना स्पष्ट करो ? उ० (१) गुरू से ज्ञान की प्राप्ति हुई:-गुरू और शिष्य की प्रारमा में एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य का संबंध नहीं है तो अगरूलघुत्व गुण को नहीं माना। और ज्ञान की प्राप्ति अपने शान गुण में से हुई गुरू से नहीं तव अगुरूलघुत्व गुण को माना। (२) मैं चश्मे से पुस्तक पढ़कर ज्ञान करता है-मेरी प्रात्मा का चश्मे पुस्तक से संबंध नहीं है। इससे न होता है तो अगुहलघुत्व गुण को नहीं मामा । ज्ञान ज्ञान गुण से होता है, चश्मा किताव से नहीं तब प्रगुरूलघुत्व गुण को माना। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) (३) ब्राह्मी के तेल से ज्ञान बढ़ता है - अगुरुलघुत्व गुण को नहीं माना । ज्ञान ज्ञान से बढ़ता है, तेल से नहीं तब अगुरूलघुत्व को माना है । (४) दूध में दही मिलाने से पूरा दही जमता है अगुरुलघुत्व गुण को नहीं माना । दूध श्रपनी योग्यता से जमता है, दही से नहीं तब गुरूलघुत्व को माना । (५) शास्त्र से ज्ञान होता है - अगुरुलघुत्व गुण को नहीं माना । ज्ञान ज्ञान से होता है, शास्त्र से नहीं तब प्रगुरुलघुत्व गुण को माना । उ. प्र. १२. जीव पुद्गल में करता है ऐसा माने तो क्या २ दोष प्राते हैं ? (१) नीव पुद्गल का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पृथक २ हैं । जब द्रव्य में रहने वाले अनंत गुरण प्रापस में कुछ नहीं करते तब पृथक २ द्रव्य करें यह बात झूठी है । (२) ऐसी मान्यता वाले ने अगुरुलघुत्व गुरण को नहीं माना । (३) जीव अपना अस्तित्व रखता हुआ अपना प्रयोजनभूत कार्य करता हुआ निरन्तर बदलता है तब दोनों के (जीव पुदुगल के ) प्रस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुरण को नहीं माना । प्र० १३. एक द्रव्य में अनंत २ गुण हैं उनका द्रव्य क्षेत्र काल एक ही है तब एक गुरण दूसरे गुरण में क्यों नहीं कर सकता । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) उ० प्रत्येक गुण के भाव में अन्तर होने से एक गुण दूसरे गुण में . .कुछ नहीं कर सकता है। प्र. १४. द्रव्य में विद्यमान अनंत गुण बिखर कर अलग २ नहीं होते ऐसा क्यों है ? उ. प्रत्येक द्रव्य के गुणों का द्रव्य, क्षेत्र, काल एक होने से वह द्रव्य से विखरकर अलग २ नहीं हो सकते हैं । प्रै० १५. (१) आदिनाथ भगवान ने दूसरे जीवों का कल्याण किया (२) मैं दूसरों का भला कर सकता हूँ (३) दिव्यध्वनि से ज्ञान की प्राप्ति होती है (४) नेमिनाथ भगवान ने राजुल का भला किया (५) धर्म द्रव्य हमको चलाता है (६) दर्शन मोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है (७) अन्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक वीर्य प्रगट होता है (८) अांखों से ज्ञान प्राप्त होता है (8) श्रद्धा गुण स ज्ञान गुण में कार्य होता है (१०) चारित्र गुण से श्रद्धा में काम होता है (११) ग्राम मीठा हो तो रंग पीला होता है (१२) निमित्त से उपादान में कार्य होता है । प्रादि वाक्यों के मानने में क्या २ दोष आता है और ऐसा मानने से कोन २ से गुण को नहीं माना पौर कसा २ माने तो कौन २ से गुण को माना ? उ० (१) आदिनाथ भगवान ने दूसरे जीवों का भला किया (I) आदिनाथ भगवान और दूसरे जीवों का द्रव्य, क्षेत्र,काल, भाव पृथक २ हैं। यदि भगवान दूसरे जीवों का कुछ भला करें तो भगवान की सत्ता के प्रभाव का प्रसंग उपस्थित Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) होता है। (II) जब स्वयतुष्टय भगवान की प्रात्मा का अलग है और दूसरे द्रव्यों का अलग है तो आदिनाथ भगवान ने किया तो अगुप्लघुस्व गुण को नहीं माना। (ii) भादिनाथ भगवान कायम रहते हुये अपनी प्रयोजनभूत दिया करते हुये निरन्तर बदलते हैं और दूसरे जीव अपनी क्रिया करते हुये निरन्तर पदलते हैं; दोनों का कार्य अपमे २ अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण से हो रहा है उसके बदले आदिनाथ भगवान ने किया तो भगवान के अस्तित्व, बस्तुत्व, द्रव्यत्व गृग को उड़ा दिया और दूसरे जीवों के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण को भी उड़ा दिया। प्र. तो क्या करें ? उ० प्रादिनाथ भगवान ने दूसरे जीवों का भला किया ही नहीं तब दोनों की सत्ता भिन्न २ मानी। अग रूलघुत्व गण को माना। प्रत्येक द्रव्य के अस्तित्व, घस्तुत्व, द्रव्यत्व गण को माना। इसी प्रकार ११ वाक्यों में लपायो । उ० प्र० १६. एक परमाणु दूसरे परमारपु में करता है वा ? (१) एक परमाणु का दूसरे परमाणु से द्रव्य क्षेत्र काल भाव पृथक २ है। (२) एक पपमाणु दूसरे परमाणु का करता है अगरूलघुत्व Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) गण को नहीं माना। (३) एक परमाणु कायम रहता हुपा, बदलता हुअा माना प्रयोजनभूत कार्य करता है। ऐसे ही दूसरा परमाणु करता है, इसके बदले एक एक परमाणु दूसरे परमाणु में करता है तो दोनों परमाणुओं के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण को उड़ा दिया। प्र० १७. निमित से उपादान में कार्य होता है ना। उ० बिल्कुल नहीं। (१) निमित्त उपादान का द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव अलग २ है तव निमिच ने उपादान में किया तो एक के प्रभाव का प्रसंग उपस्थित होता है। (२) निमित्त ने उपादान में किया तो दोनों के अगुरूलघुरख गुण को नहीं माना। (३) दोनों के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण को उड़ा दिया। प्र. १८. श्रद्धा पूर्ण होते ही चरित्र पूर्ण हो जाना चाहिए ऐसो मान्यता वाला क्या भूलता है ? उ० (१) अगुरूलघुत्व गुण के दूसरे पाखड़े को भूलता है। (२) श्रद्धा पूर्ण होते ही चारित्र पूर्ण हो जाना चाहिए तो उसने श्रावक, मुनि, श्रेणो को भी उड़ा दिया। म. १९. जब जिनेन्द्र भगवान ने द्रव्य गुण पर्याय की इतनी स्वतंत्रता बताई है तब यह अज्ञानी क्यों विश्वास नहीं करता है ? Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) 1. चारों गतियों में घूमकर निगोद में लाना अच्छा लगता है। प्र० २०. एका गुण दूसरे गुग में कुछ नहीं करता है तो अस्तित्व : कायम रखता है, वस्तुत्व गुण सबको प्रयोगनभूत क यं कराता है, द्रव्यत्व मुग निरन्तर चलना है ऐमा क्यों कहा जाता है ? 1. यह व्यवहार कथन है। एक मग को वर्तमान पर्याय होने से ' दूसरे गुण की वर्तमान पर्याय नि मत्त कहलाती है। 1० २१. एक गुण को पर्याय का दूसरे गुग को पर्याय के नाय कसा सबंध उ० -नैमित्तिक संबंध है, कर्ना-चर्म नहीं है । . २२. निमित्त नैमित्तिक संबंध तो दोनों की स्वतंत्र पर्यायों के बीच . पहले अपने बनाया था, अब पापन में गुला की पर्याय का दूसरे गुण की पर्याय में भी निमित्त-नैमित्तिक संबन्धका कटने हो ? उ० हां ऐना हो । प्र० २३. ज्ञान गुणा कायम अस्तित्व गुण से है ना ? उ. ज्ञान गुण कायम अपने से है अस्तित्व गुण निमित्त है। प्र० २४. ज्ञानगुण प्रयोजनभूत कार्य वस्तु व गुल से करता है ना ? । शालगुण प्रयोजनभूत कार्य : पने से करता है वस्तुत्व गुरंग निमित्त है। प्र. २५. ज्ञानगुण निरन्तर बदलता है वह द्रव्यत्व गुण ने है ना ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० प्र० २६. (१) श्रद्ध कुरा कायम अस्तित्व गुण से है ? (२) श्रद्धागुण का प्रयोजनभूत कार्य वस्तुत्व गुग्गा से है ना ? (३) क्या श्रद्धागुण निरन्तर द्रव्यत्व गुण से बदलता है ? (४) शुभ भाव से चरित्र की शुद्धि होती है ना? (५) सब गुण ज्ञ ेय प्रमेवत्व गुण से है ना ? उ ( १५५ ) ज्ञानरण स्वयं से बदलता है उसमें द्रव्यत्व गुण निमित्त है । उ० प्र० २७. (१) आयु के शुरू होने पर सर ग्रात्मा एक होकर रहते हैं ? (२) क्या भाषा जीव बालता है ? (३) क्या सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान होता हैं ? (४) वया पुण्य से धर्म होता है ? (५) क्या श्रुतज्ञान से केवलज्ञान होता है ? (६) क्या ग्रईसक्रीम खाने से शान्ति मिलती है ? इनमें प्रगुरुलघुत्व गुग्ग के जौन २ हिस्से लगते हों लगायो ? (१) क्या ऋयु के शुरू होने पर शरीर आत्मा एक होकर रहते हैं ? इसमें एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से संबंध नहीं है इस बात को नहीं माना, लघुत्व गुण का पहला नम्बर उड़ा दिया । इसी प्रकार बाकी लगाओ । (१) श्रद्धा कायम अपने से है अस्तित्व गुण निमित्त है । बाकी प्रश्नों के उत्तर जब नी दो । उ० प्र० २८. अनुरुलघुत्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा है और क्यों ? जितना बड़ा द्रव्य का है उतना क्षेत्र प्रगुरुलघुत्व गुण का है क्योंकि गुरुलघुत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में होता है । प्र० २६. प्रगुरूलघुत्व गुरण का काल कितना श्रोर क्यों ? Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) जितना काल द्रव्य का है उतना ही काल प्रगुरुलघुत्व गुण का है क्योंकि गुरुलघुत्व गुण द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्था त्रों में त्रिकाल पाया जाता है । ० ३०. एक परमाणु के अगुरुलघुत्व गुण काक्षेत्र कितना बड़ा है ? एक प्रदेशी है । ४० ० ३१. प्रकाश के प्रगुरुलघुत्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा है ? अनन्त प्रदेशी है । ० • ३२. धर्मादि द्रश्यों में भी अगुरुलघुत्व गुरण है ? हां है, क्योंकि धर्मादि द्रव्य भी द्रव्य हैं और अगुरुलघुत्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है इसलिये धर्मादि में भी है । प्र. ३३. संसार दशा में गुण कम हों, सिद्ध दगा होने पर ज्यादा हो जावें क्या ऐसा होता है ? कभी नहीं । ( १ ) क्योंकि द्रव्य में प्रगुरुलघुत्व गुण होने से गुणों की संख्या और शक्ति कम ज्यादा नहीं होती है । (२) गुरण सर्व अवस्थाओं में जितने हैं उतने ही रहते हैं । प्र० ३४. प्रघुरुलघुत्व गुरण क्या बताता है ? შე यह गुण गुरुलघु भी, सदा रखता है महत्ता महा । गुण द्रव्य को पररूप, यह होने न देता है श्रहा । निज गुरण- पर्यय सर्व ही, रहते सतत् निजभाव में । कर्ता न हर्ता अन्य कोई, यो लखो स्व-स्वभाव में । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ३५. एक द्रव्य के गुण परसर में कुछ नहीं करते कहां कहा है ? उ. पंवाध्यायो अध्याय दूसरा गाथा २००८ से १०१० में भी कहा है 'कोई भी गुण किसी प्रकार दूसरे गुण में अंतर्भूत नहीं होता'. 'सभी गुण अपनी २ शक्तियों से स्वतंत्र हैं और वे भिन्न २ लक्षण वाले अनेक है, नपापि स्वद्रव्य के साथ एकमेक हैं । चेतावनी स्वत: परिणमती वस्तु के, क्यों कर्ता बनते जाते हो। कुछ समझ नहीं पाती तुमको, नि:सत्व बने ही नाते हो। परे कौन निकम्मा जग में है, जो पर का करने जाते हो। सब अपने अन्दर रमते हैं, तब किस विधि करण रचाते हो। वस्तु की मालिक वस्तु है, जो मालिक है वही कर्ता है। फिर मालिक के मालिक बनकर, क्यों नीति न्याय गमाते हो । सत् सब स्वयं परिणमता है, वह नहीं किसी को सुनता है। यह माने विन कल्याण नहीं, कोई से ही कुछ कहता हो। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६ प्रदेशाप जप प्र. १. प्रदेशत्व गुण किसे कहते हैं ? २. जिस शक्ति के कारण मे द्रव्य कः कोई न कोई प्राकार अवश्य रहता है उस शक्ति को प्रदेशत्व गुगा कहते हैं । ० २. प्रदेशत्व गुण क्या है ? उ० प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है । प्र० ३. सिद्ध भगवान निराकार हैं या साकार हैं ? । 6. सिद्ध भगवान दोनों हैं । क्योंकि पुद्गल जगा प्राकार महीं है इस अपेक्षा सिद्ध भगवान निराकार हैं और प्रदेशत्व गुण के कारण उनका प्राकार है इसलिए साकार हैं। प्र. ४. प्रत्येक आत्मा साकार निराकार किस प्रकार है ? उ० (१) प्रदेशत्व गण के कारण प्रत्येक प्रात्मा का अरूपी पाकार है इसलिए साकार है। और आत्मा का रूपी माकार नहीं है इसलिए निराकार है। ५. ५. क्या द्रव्य, गुण, पर्याय-तीनों का भिन्न भिन्न अथवा छोटा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) बड़ा प्राकार है ? नहीं । द्रव्य का आकार ही गुण पर्याय का प्राकार है । तीनों का क्षेत्र एक है इसलिये द्रव्य गुल और पर्याय का प्राकार एक समान है छोटा बड़ा नहीं है। ५० ६. द्रव्य गुग अनादि अनंत है पर्याय एक समय की है तो उसमें विसका आकार बड़ा है ? दोनों का आकार एक सा है । 3. प्र. ७. कुछ चीजों का आकार दीर्घकाल तक एकसा दिखाई देता है, तो उसे परिवर्तित होने में कितना समय लगता है ? प्रति समय निरन्तर वरलते ही रहते हैं, किन्तु स्थूल दृष्टि से उनका प्राकार दीर्घकाल तक एक सा दिखाई देता है। प्र. ८. सोने में ने मुस्ट बना तो उगों कौनसा गुण कारण है। 30 (१) नकार वदला प्रदेशत्व गुण कारण है। (२) पुरानी अवस्था वदलो इसमें द्रव्यत्व गुण कारण है । प्र. १. प्रदेशत्व गुण का शुद्ध परिणमन प्रनादि अनंत पिस द्रव्य में होता है ? उ० धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल में अनादि अनंत होता है। प्र. १७. प्रदेशत्व गुण के परिणमन को क्या कहते हैं ? 7. व्यंजन पर्याय । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 (१६० ) प्र. ११. प्रदेशत्व गुण का सादि अनंत शुद्ध परिणमन किस द्रव्य में, किस समय ? जोव द्रव्य में १४वें गुणस्थान के बाद सिद्ध दशा में सादि अनंत शुद्ध परिणमन प्रदेशत्व गुण का होता है । 1० १२. सादिसान्त शुद्ध परिण मन प्रदेशत्व गुण का कब किस समय ? परमाणु में । १० १३. परहंत दशा में प्रदेशत्व गुण का परिण मन कैसा है ? २० विभाव रूप है। 1. १४. जीव द्रव्य में प्रदेशत्व गुण का विभाव रूप परिणमन कब से कहां तक ? २० निगोद से लगाकर १४वें गुण स्थान तक। ० १५. किस द्रव्य में किस प्रवस्था में प्रदेशत्व गुण का परिणमन विभाव रूप ही रहता है। २० पुद्गल के स्कंध रूप दशा में और संसारी जीवों में । १० १६. प्रत्येक द्रव्य में व्यं नन पर्याय कितनी होती हैं ? ० एक ही होती है। १० १७. क्या सिद्ध दशा में प्रदेशत्व गुण का परिण मन सबका एक सा होता है ? नहीं । क्योंकि सिद्ध दशा में सबका साकार पलग २ है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. ८. परमाणु के प्रदेशत्व गुण का प्राकार एक सा है ? ३. सब परमाणुनों का प्राकार एक सा ही है । प्र० १६. प्रदेशत्व गुण का क्षेत्र कितना बड़ा, और क्यों ? उ. जितना द्रव्य का है रतना हो क्षेत्र प्रदेशत्व गुण का है प्रदेशत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में होता है । कि प्र. २०. प्रदेशत्व गुण का काल शितना है और क्यों है ? उ. जितना द्रव्य का है उतना ही नाल प्रदेशत्व गुण का है ५योकि प्रदेशत्व गुण द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्यायों में त्रिकाल रहता है। प्र० २१ मैंने रोटी बन ई इसमें कौन २ से गुण को नहीं माना ? उ० मरा प्राकार रोटी रूप हो जावे तो ऐसा कहा जा सकता है मैंने रोटी बनाई । सो होता नहीं है । जो ऐसा मानता है मैंने रोटी बनाई उसने प्रदेशत्व गुग को नहीं माना । और रोटी का प्रकार अलग है मेरा ग्राकार अलग है. मैं रोटी बना ही नहीं सकता पर प्रदेशत्व गुण को माना। प्र० २२. (2) कुम्हार ने घड़ा बनाया (२) में मनुष्य हूँ (३) मैं मेज बनाता हूं (४) मैं मकान बनाता हूं (५) दर्जी ने कपड़े सिले (६) हलवाई ने मिठाई बनाई (७) मैंने किताब बनाई (८) मैंने कर्मों का नाश किया (8) सिद्ध भगवान ने पाठों कर्मों का नाश किया (१०) सम्यग्दृष्टि जीव ने दर्शन मोहनीय का क्षय किया प्रादि में प्रदेशत्व गुण को कब नहीं माना, और उसका फल क्या है ? और प्रदेशत्व गुण को कब माना और उसका. फल क्या है ? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२ ) उ. कुम्हार ने घड़ा बनाया = कुम्हार घड़े रूप हो जावे अर्थात् कुम्हार का प्राकार घड़े रूप हो जावे तो कहा जा सकता है कि कुम्हार ने घड़ा बनाया। प्र. कुम्हार ने घड़ा बनाया ? उ. प्रदेशत्व गुण को नहीं माना क्योंकि घड़े का प्राकार पृथक है प्रात्मा का प्राकार पृथक ऐसा न मानकर एक माना तो प्रदेशत्व गुण को नहीं माना। प्र० कुम्हार ने घड़ा बनाया इसमें प्रदेशत्व गुण न मानने से क्या हुआ ? २. घड़ा अनन्त द्रव्यों का पिण्ड है प्रनन्त द्रव्यों का कर्ता बन गया। मिथ्यात्व का महान पाप हुआ । प्र. कुम्हार ने घड़ा बनाया इस में मिथ्यात्व का प्रभाव कैसे हो ? उ. मैं प्रात्मा असंख्यात प्रदेशी आकार वाला हूँ। घड़े का प्राकार तो अनन्त पुद्गलों का एक २ प्रदेशी आकार है मेरा उससे सम्बन्ध नही है, तब प्रदेशत्व गुण को माना। प्र. प्रदेशत्व गुण को मानने से क्या लाभ रहा ? उ. अपने प्रसंख्यात प्रदेशी स्वभाव का माश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति यह इसका फल है। इसी प्रकार | वाक्यों को लगायो । प्र० २३. पात्मा में कितने प्रदेशत्व गुण हैं ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) प्र. २४. शरीर में कितने प्रदेशत्व गुण हैं ? जितने परमाणु है उतने प्रदेशत्व गुण हैं क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में एक प्रदेशब्द गुण होता है। प्र० २५. प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी गुणों के परिणमन को क्या कहते हैं ? अर्थ पर्याय । प्र० २६. प्रदेशत्व गुण क्या सूचित करता है ? उ. प्रत्येक द्रव्य के आकार को बताता है । प्र. २७. यह मेज है क्या इसका एक ही प्राकार है ? उ० नहीं । मेज में जितने परमाणु हैं उतने प्राकार है। प्र. २८. प्रदेशत्व गुण रूपी है या अरूपी ? उ० पुद्गल का प्रदेशत्व गुण रूपो है बाकी द्रव्यों का प्ररूपी है। प० २९. प्रदेशत्व गुण जड़ है या चेतन ? उ. दोनों है । प्रात्मा का प्रदेशत्व गुण चेतन बाकी द्रव्यों का जड़ है ? प्र० ३०. प्रदेशत्व गरण के पर्यायवाची शब्द क्या २ हैं ? उ० प्राकार कहो, क्षेत्र कहो, किलेवन्दो कहो एक ही बात है । प्र. ३१. क्या लकड़ी के टुकड़े में कितने ही परमाणु एक दूसरे में घुस गये हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ १ उ० बिल्कुल नहीं । पंचास्तिकाय गा० ८१ में कहा है लकड़ी के टुकड़ो में एक २ परमाणु पृथक-पृथक अपने २ गुण पर्यायों में वर्त रहा है ऐसा ज्ञानी जानते हैं ? प्र) ३२. क्या निमित्त उपादान में घुसकर काम करता है ? 영 प्र० ३३. शस्त्रों में प्राता है जहां एक सिद्ध बिराजमान है वहां पर प्रनन्त सिद्ध विराजमान हैं क्या सिद्ध जीव एक दूसरे में मिल गये हैं ? विल्कुल नहीं। प्रत्येक सिद्ध जीव अपने २ प्रसंख्यात प्रदेशी प्राकार में रहता है एक दूसरे में मिलता नहीं है । कोई कहे मिल जाता है तो पदे त्वगुण को नहीं माना । उ० निमित्त उपादान का आकार अलग है इसमें निमित्त उपादान में घुलकर काम करता है, प्रदेशत्व गुण को नहीं माना । प्र० ३४. महावीर का प्राकार सात हाथ का आदिनाथ भगवान का ५०० धनुष का, वह क्यों ? प्रदेशत्व गुरण के कारण । उ प्र० ३५. जिस स्थान में धर्म द्रव्य है उसी स्थान में प्रधर्म द्रव्य है क्या दोनों एक दूसरे में मिल गये हैं ? उ० बिल्कुल नहीं। दोनों अपने २ प्रसंख्यात प्रदेशी श्राकार में अपने २ द्रव्य क्षेत्रकाल भाव में रह रहे हैं। कोई कहे मिल गये हैं तो प्रदेशत्व गुण को नहीं माना । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) प्र. ३६. किन २ द्रव्यों का प्राकार नहीं ह ना ? उ. ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है जिसका प्राकार न हो क्योंकि प्रदेशत्व गुण प्रत्येक द्रव्य का सामान्य गुण है। प्र० ३७. परमाणु पौर काल का प्रदेशत्व गुण कितना बड़ा है ? एक प्रदेशी है। प्र. ३८. . प्राकार रूपी है या प्ररूपो ? उ० पुद्गल का प्राकार रूपी हैं बाकी द्रव्यों का प्राकार प्ररूपी है । प्र० ३६. प्राकार की अपेक्षा सबसे बड़ा कौन है ? आकाश द्रव्य है। प्र० ४०. प्राकार की अपेक्षा सामान्य द्रव्य कोन २ हैं ? धर्म अधर्म जीव द्रव्य का प्रसंख्यात प्रदेशी प्राकार है। ४१. जीव का प्राकार तो छोटा बड़ा होता है वह धर्म अधर्म द्रव्य के समान कसे ? प्राकार तो एक सा हो है परन्तु नीव द्रव्य में संकोच विस्तार की शक्ति है। संकोच विस्तार होने पर भी जीव हमेशा असंख्यात प्रदेशी ही होता है । ५० ४२. प्रदेशत्व गुण और द्रव्यत्व गुण में क्या अन्तर है ? उ. . प्रदेशत्व गुण प्राकार को बताता है और द्रव्यत्व गुण निरन्तर परिणमन को बताता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) प्र० ४३. सब पाकार कितने हैं ? उ० जितने द्रव्य हैं उतने ही प्राकार है। ५० ४४. जीव का प्राकार बड़ा हो तो लाभ हो और छोटा हो तो नुरु. सान हो, क्या ऐसा होता है ? बिल्कुल नहीं । प्राकार सुख दुःख का कारण नहीं है। प्र. ४५. जीव का प्रदेशत्व गुण शुद्ध हो जावे और गुणों में प्रशुद्धता रहे, क्या ऐसा होता है ? 3. बिल्कुल नहीं । सिद्ध दशा में प्रदेशत्व गुण शुद्ध होता है। इसमें पहले सब गुणों का परिणमन शुद्ध हो जाता है प्र० ४६. प्रदेशत्व गुण को जानने से क्या लाभ है ? प्रदेशत्व गुण की शक्ति से, प्राकार द्रव्यों को धरे। निजक्षेत्र में व्यापक रहे, प्राकार भी स्वाधीन है। माकार हैं सबके अलग, हो लीन अपने ज्ञान में। जानों इन्हें सामान्य गुण, रक्खो सदा श्रद्धान में। अपने असंख्यात प्रदेशों में एकत्व बुद्धि करके लीन हो जाना प्रदेशत्व गुण को जानने का लाभ है। प्र० ४७. प्रदेशत्व गुण क्या बताता है ? उ. कोई वस्तु अपने स्वक्षेत्र रूप प्राकार बिना नहीं होती, और प्राकार छोटा हो या बड़ा हो, वह हानि या लाभ का कारण नहीं है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) तथापि प्रत्येक द्रव्य की स्व-प्रवगाहनारूप अपना स्वतंत्र माकार अवश्य हो। है। एक के प्राकार से दूसरे के आकार का सम्बन्ध नहीं है ऐसा जानकर अपने प्राकार की भोर दृष्टि कर और भगवान बन । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १७ छह समान्य गुणों को एक २ वाव्य पर लगाना . प्र० १. मैं मनुष्य है इस पर छान्य गुण लगाओ । प्रत्येक का पूरा २ स्पष्टीकरण करो ? सामान्य गुणों को उल्टे नम्बर से शुरू करो ? उ० विचारियेगा । ध्यान पूर्व रु जब समझ में प्रावेगा । यदि एक वाक्य पर छः सामान्य गुरण लगाने श्रा गये तो जीवन में शान्ति प्राये बिना रहेगी महीं । प्र ० २. ए० 'मैं मनुष्य हूं' इस पर प्रदेशत्व गुग्ण लगाम्रो ? (१) मैं आत्मा असंख्यात प्रदेशी मेरा प्रकार है । (२) द्रव्यकर्म - प्रनन्त पुद्गल परमाणुत्रों के अनंत प्रकार हैं ( ३ ) तेजस शरीर - अनंत पुद्गल परमाणुत्रों के प्रनन्त श्राकार हैं । (४) श्रदारिक शरीर - अनन्त पुद्गल परमाणुओं के अनन्त श्राकार हैं । मैं प्रात्म प्रसंख्यात प्रदेशी एक मेरा प्राकार है और द्रव्य, कर्म, तेजस, शरीर, प्रौदारिक शरीर अनंत पुद्गलों के अनन्त प्रकार हैं। यदि मैं अपना प्रकार छोड़कर इन सब रूप हो जाऊं तब तो मैं मनुष्य हूँ, ऐसा कहा जा सकता है । इसलिए जो यह मानता है मैं मनुष्य हूं तो उसने प्रदेशत्व Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) गुण प्रत्येक द्रव्य का पृथक २ माकार बनता है उसको नहीं माना । प्र ० ३. प्रदेशत्व गुण को न मानने से क्या नुकसान रहा ? उ. A मैंन अनंत द्रव्यों के एक एक देशी प्रकार को अपना प्राकार माना । उनका अपना आकार मानना, यह मिथ्यात्व है इसका फल चारों गतियों में घूमकर निगोद का पात्र है । То ४. अनंत पुद्गलों के सर की खोटी मान्यता कैसे छूटे तो हमने प्रदेशत्व गुण को माना ? उ० मैं संख्या देशी एक श्रावार वाला हूँ इन पुद्गलों के आकार से मेरा किसी भी प्रकार का कोई संवन्ध नहीं है ऐसा जानकर अपने असंख्यात प्रदेशी प्रभेद एक आकार का आश्रय ले तो प्रदेशत्व गुण को माना कहलाया । O ५. ग्रपने प्रसंख्यान प्रदेशी प्रभेद एक का आश्रय लेने से क्या होता है ? सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को प्राप्ति होकर मोक्ष का पथिक बन जाता है | उ० Яо ६. तो क्या अनादि से इसने पुद्गलों के आकार को अपना प्राकार माना और प्रदेशत्व गुण का रहस्य नहीं जाना, इसीलिए संसार में घूमता है ? हां, इस जीव ने अनादि से एक २ समय करके अपने आकार का निरादर किया और पर के आकार को अपना माना इसलिये चारों उ० Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) गतियों का पात्र होता हुआ अनंतबार निगोद हो आया । अब यदि प्रदेशत्व गुरण को समझ ले तो मोक्ष का पथिक बन जावे । Я. ७. 'मैं उ० और प्रौदारिक शरीर मनुष्य हूं' इस पर अगुरुलघुत्व गुरण को लगाओ ? (१) मैं प्रात्मा ज्ञान दर्शन चारित्र आदि प्रनंत गुणों का पिण्ड ज्ञायक भगवान हूँ । (२) द्रव्यकर्म, तेजस शरीर अनंत पुद्गल द्रव्य हैं इनसे मेरी श्रात्मा का कोई भी बदले इन सबमें 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसा माने तो उसने नहीं माना । संबंध नहीं है। इसके प्रगुरुलघुत्व गुण को Яо उ० ८. मैं आत्मा और अनंत पुद्गलों में अपनापना मानने के कारण अगुरुलघुत्व गुरण को नहीं माना, तो इसका क्या फल होगा ? अनंत द्रव्यों को अपना मानना निगोद का कारण है । जैसे कोई दूसरे की स्त्री को अपना मान ले तो सिर पर जूते पड़ते हैं और उसका काला मुंह करके गधे पर चढ़ाकर देश निकाला होता है; उसी प्रकार जो अनंत द्रव्यों से अपनापना मानता है वह चारों गतियों में घूमता हुआ निगोद चला जाता है । По ६. अनंत द्रव्यों को अपना मानने वाली खोटी बुद्धि कैसे छूटे तब हमने गुरुलघुत्व गुण को माना कहलाये ? मैं आत्मा अनंत गुणों का अभेद पिण्ड हूं यह सब पुद्गल परमाणु हैं इनसे मेरा स्वचतुष्टय अलग है, इनका स्वचतुष्टय अलग है इन सबमें और मेरे में अत्यन्त भिन्नता है ऐसा जानकर अपने स्वभाव की ओर उ० Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) दृष्टि करे तो गुरुलघुत्व गुण को माना । प्र० १०. 'मैं मनुष्य हूँ' इसमें प्रगुरुलघुत्व गुण को मानने से क्या लाभ है ? उ० मैं अनंत गुणों का प्रभेद पिण्ड हूं उसकी दृष्टि होते ही सम्यदर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है और पंच परमेष्ठियों में उसकी गिनती होने लगती है संसार के कारणों का और पंच परावर्तन का प्रभाव हो जाता है। प्र० ११. यह जीव अनन्त बार कहलाया और ११ अग ६ पूर्व का रहस्य नहीं जाना ? द्रयलिंग धारण करके जैन साधु पाठी हुआ, वया अगुरुलघुत्व गुरण का उ० यदि एक बार प्रगुरुलघुत्व गुण का रहस्य समझले तो तुरन्त द्रव्यलिंग का, और बाहरी परलक्षी ज्ञान का प्रभाव होकर भावलिंग और सम्यज्ञान की प्राप्ति हो जावे । परन्तु इतना होने पर भी नहीं समझा, तो समझलो वह अभव्य है | प्र० १२. 'मैं मनुष्य हूँ' इस पर प्रमेयत्व गुण को समझायो ? उ० मैं श्रात्मा ज्ञायक हूँ । द्रव्यकर्म, नोकर्म श्रादि सब मेरे ज्ञान का ज्ञय है। मेरी आत्मा का पर पदार्थों के साथ ( द्रव्यकमं तैजस, शरीर, कार्मारण शरीर) ज्ञ ेय ज्ञायक संबंध है । इसके बदले मैं मनुष्य हूँ तो इसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । प्र० १३. आत्मा और द्रव्यकर्म, तैजस शरीर, प्रौदारिक शरीर के साथ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) जय-ज्ञायक संवन्ध न मानने से क्या इसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना? उ0 प्रात्मा, शरीरादि का ज्ञ य-ज्ञायक संबंध न मानने से और कर्ता कर्म भोक्ता-भोग्य संबंध मानने से यह जीव निगोद का पात्र होता है अनन्त जन्म मरण करता हुआ दुःखो रहता है। प्र. १४. अात्मा शरीर का ज्ञ य-ज्ञायक संबध न मानने मे यह दु:खो हो रहा है और प्रमेयत्व गुण का निरादर कर रहा है ऐसी अवस्था में प्रमेयत्व गुण को कैसे माने ताकि दुःख का प्रभाव हो ? उ० मैं आत्मा ज्ञायक हूँ. शरीरादि ज्ञान का ज्ञय है इनमें मेरा कर्ताकर्म, भोक्ता-भोग्य का संबंध नहीं है ऐसा जानकर अपनी ओर दृष्टि करे तो प्रमेयत्व गुण को माना। प्र० १५. 'मैं मनुष्य । इसमें प्रमेयत्व गुण मानने से क्या लान रहा ? उ. मैं प्रात्मा जायक हूँ, शरीरादि ज्ञ य हैं, तब शरीर में कुछ होजैसे सुकुमाल को स्यालनी खा रही थी, मजसुकुमार के सिर पर अंगीठी रक्खी थी उन्होंने उन सबको ज्ञेय जाना तो उनको धर्म की प्ति हुईयह प्रमेयत्व गुण को जानने का लाभ है। सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि रज रहस विहीन ।। अतः प्रमेयत्व गुण को मानने से परहंत सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । प्र० १६. तो क्या इस नीव ने प्रमेयत्व गुण को अनादि से नहीं माना ? उ. अहो,अहो,प्राश्चर्य है,वर्तमान में दिगम्बर धर्म धारण करने पर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ । भगवान को पूजा, यात्रा, शास्त्र पढ़ता हुमा भी, इस जोव ने अनादि से एक समय भी प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । यदि मान लेता तो आज इसका मोक्ष हो गया होता । हे प्रात्मा तू जायक, तमाम संसार ज्ञ य, इतना हो संबंध है। मन्दिर शास्त्र देव गरू यही बतलाते हैं। यह अज्ञानी निको हाथ जोड़ता है परन्तु उनकी प्राज्ञा नहीं मानता । मन्दिर को प्रतिमा यह बताती है कि मैंने तमाम संसार के पदों को होय माना तो मुझे इस पद की प्राप्ति हुई है, और तैने नही माना इमलिये तू दुःखी हो रहा है अब तू संसार के पदार्थों का ज्ञाता-दृष्टा बन जा, तब तो इसने भगवान के दर्शन किये तभी ज्ञ य-ज्ञायक संबंध को माना प्र० १७. 'मैं मनुप्य है इसमें अस्तित्व, वस्तुत्व, व्यत्व गगा को लगायो। उ० (१) मैं अात्मा अनंन गुणों का पिण्ड अनादिअनंत कायम रहता हुमा प्रयोजनभूत कार्य को करता हुग्रा. निरन्तर बदलता हूं। (२) द्रव्य कर्म, तं जम गरीर, प्रीरिक शरीर में अनंत गुद्गल परमारण हैं । वह हमेशा कायम रहते हए अपना अपना प्रयोजन भूत कर्स करते हुये निरन्तर बदल रहे हैं, ऐभा वस्तु स्वभाव है। प्र. १८. प्रात्मा और परमागग मब कायम रहते हुये, अपना योजनभूत कार्य करते हुये, निरन्तर क्यों बदल रहे हैं ? उ० अस्तित्व, वस्तृत्व, द्रव्यत्व गुगा के कारण ऐसा हो रहा है ऐसा वस्तु स्वभाव है यह पारमेश्वरी व्यवस्था है, इसको बदलने को देव इन्द्र जिनेन्द्र भी समर्थ नहीं हैं। ऐसा होने पर भी अज्ञानी 'मैं मनुष्य ' ऐसा मानता है. इस Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ मान्यता वाले ने दूसरे द्रव्यों के अस्तित्व, वस्तुत्व, और द्रव्यत्व गुरण को नहीं माना और साथ ही अपने अस्तित्व, वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को उड़ा दिया । उ० प्र० १६. अपनी आत्मा का और दूसरे अनंत पुद्गलों के अस्तित्व, बस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को न मानने से क्या नुकसान हुआ ? सच्चा वस्तु स्वभाव न मानने के कारण और दूसरे के प्रस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व से अपना अस्तित्वपना आदि मानने से एक २ समय करके अनादि से आकुलताको माप्त कर बहुत दुःखी होता है और उसका फल निगोद होता है । प्र ० २०. अपने अस्तित्व, वस्तुत्व और द्रव्यत्व को और दूसरे के अस्तित्व, वस्तुत्व द्रव्यत्व को कब माना । उ० मेरा अस्तित्व अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड से है, वह प्रभेद पिण्ड अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करता हुआ, निरन्तर बदलता हुआ, कायम रहता है । और द्रव्यकर्म, तैजस शरीर, प्रादरिक शरीर में भी एक एक परमाणु कायम रहता हुआ, अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करता हुआ, निरतर बदलता रहता है, ऐसा जानकर अपने अस्तित्व की ओर दृष्टि करे तो इसने अस्तित्व वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को माना । १० २१. अपने और पर के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण को मानने का क्या फल है ? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) उ० पर के अस्तित्व को अपना न माने और अपने अस्तित्व को ओर दृष्टि दे तो प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । फिर श्रावक, मुनि, श्रेणी की प्राप्ति कर प्ररहंत सिद्ध की प्राप्ति होती है । प्र. २२. छ: सामान्य गुणों का रहस्य इतना है, तो जोव क्यों नहीं विचारता ? उ० इसे चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना अच्छा लगता है. इसलिये नहीं विचारता है । प्र० २३. (१) कुम्हार ने घड़ा बनाया (२) मैं देव हूँ (३) मैं तिर्यच हूँ (४) मैं लड़का हूँ (५) मुझे कर्म दुःख देते हैं (६) मेरा ज्ञान ज्ञानावर्गीकर्म ने रोक रक्खा है (७) मैं किताब उठाता हूँ (८) मुझे ज्ञान की प्राप्ति शास्त्र से होती है (६) मुझे ज्ञान की प्राप्ति दिव्यध्वनि से होती है (१०) मैं जोर शोर से बोलता हूं । (११) मैं बाल बच्चों का पालन पोपण कर सकता हूँ । (१२) अरहंत भगवान को अघातिकर्म मोक्ष में जाने से रोकते हैं । प्रादि १२ वाक्यों में छह सामान्य गुगा इस प्रकार लगायो जैसे १७वें पाठ में लगायें हैं ? उ० देखो इनमें छ: मामान्य गुग लगाने के लिये १७वाँ पाठ देखो। १७ वें पाठ के अनुसार लगाने से यदि अपने स्वभाव को दृष्टि करले, तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होकर, वृद्धि होकर, पूर्णता को प्राप्त कर ले। ___ अहो अहो । छ: सामान्य गुणों का रहस्य बताने वाले जिन, जिनवर और जिनवर वृपभों को अगणित नमस्कार । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १८ चार अभाव प्र. १. अभाव किसे कहते हैं ? 30 एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में अस्तित्व न होने को प्रभाव कहते हैं। प्र० २. प्रभाव के कितने भेद हैं ? उ० चार भेद हैं। (१) प्रागभाव (२) प्रध्वंताभाव( ३) अन्योन्या भाव (४) अत्यन्ताभाव । प्र० ३. प्रागभाव किसे कहते हैं ? उ. वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में अभाव, सो - Iगभाव है। प्र० ४. प्रध्वंसाभाव किसे कहते हैं। एक द्रव्य की वर्तमान पर्याय का उसी द्रव्य की आगामी (भविष्य की) पर्याय में प्रभाव, सो प्रध्वंसाभाव है । प्र० ५. अन्योन्याभाव किसे कहते हैं ? एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय में जो प्रभाव, सो अन्योन्याभाव है । उ० र० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) प्र० ६. अत्यन्ताभाव किसे कहते हैं ? उ० एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में (त्रिकाल) अभाव सो अत्यंताभाव प्र० ७. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव किसमें लगते हैं ? उ. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव दोनों एक ही द्रव्य को पर्यायों को लागू होते हैं। प्र० ८. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव दोनों एक ही द्रव्य को पर्यायों में कैसे लगते हैं, समझाइये ? (१) जैसे-वाय का ईहा में प्रभाव सो प्रागभाव है। और अवाय का धारगणा में प्रभाव सो प्रध्वंमाभाव है। (२) जैसे-क्षयोपटान सम्यक्त्व का क्षायिक सम्यक्त्व में प्रभाव सो प्रध्वंनाभाव है। प० . (१) लाडू (२) श्रुतबान (३) केवलज्ञान (४) दही (५) रोटी (६) सिटदा (5) शब्द (८) प्रौपगमिक सम्यक्त्व (६) ज्ञानावर्णी कर्म का क्षयोपशम (१०) दर्शन मोहनीय का उपशम (११) रसगुल्ला (१२) अपूर्वकरण ग्रादि में प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव लगायो ? उ० (१) लाडू का पूर्व की पर्याय में प्रभाव प्रागभाव है। और लाडू का भविष्य की पर्याय में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है । (२) श्रु तज्ञान का मतिज्ञान में प्रभाव प्रागभाव है और श्रु तज्ञान का केवलज्ञान में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है । (३) (वर्तमान का)केवलज्ञान का श्रुतज्ञान में प्रभाव प्रागभाव है Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 178 ) और केवलज्ञान का भविष्य के केवलज्ञान में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। (4) दही का दूध में अभाव सो प्रागभाव है और दही का मट्ठ की पर्याय में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। (5) रोटी का लोई में प्रभाव पागभाव है और रोटी का उल्टी में प्रभाव सो प्रध्वंसाभाव है। (6) सिद्ध दशा का संसार दशा में प्रभाव सो प्रागभाव है और सिद्ध दशा का भविष्य की सिद्ध दशा में प्रभाव सो प्रध्वंसाभाव है। (7) 'शब्द हुना' का पूर्व को पर्याय में प्रागभाव है और शब्द का भविष्य की पर्याय में प्रभाव सो प्रध्वंसाभाव है। (8) प्रोपरामिक सम्यक्त्व का मिथ्यात्व में प्रभाव प्रागभाव है और प्रौपरामिक सम्यक्त्व का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। (8) ज्ञानावर्गी कर्म के क्षयोपशम का ज्ञान वर्गी के उदय में अभाव सो प्रागभाव है और ज्ञानावर्णी कर्म के क्षयोपशम का ज्ञानावर्णी के अभाव में प्रध्वंसाभाव है। (10) दर्शन मोहनीय के उपशम का दर्शन मोहनीय के उदय में प्रभाव सो प्रागभाव है और दर्शन मोहनीय के उपशम का दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम में प्रध्वंसाभाव है। (11) रसगुल्ला को पूर्व पर्याय में प्रभाव सो प्रागभाव है और रसगुल्ले का भविष्य की उल्टो पर्याय में प्रभाव प्रध्वनाभाव है। (12) अपूर्वकरण का अधःकरण में प्रभाव प्रागभाव है / और अपूर्वकरण का अनिवृत्तिकरण में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 176 ) प्र. 10. एक पुद्गल की वर्तमान पर्याय का दूसरे पुद्गल को वर्तमान पर्याय में प्रभाव मो अन्योन्याभाव है यह हमारी समझ में नहीं पाया ? उ० जैसे दूध, दही और मट्ठा यह तीनों वर्तमान बस्तु है यह तीनों पुदग न द्रव्य की अलग 2 पर्याय हैं इनमें अन्योन्याभाव है / प्र० 11. अन्योन्याभाव के दृष्टांत देकर समझायो ? उ. जसे रोटी वाई ने बनाई, तो रोटी का तो बाई के साथ प्रत्यन्ताभाव है परन्तु हाथ चकला बेलन नवे ने तो बनाई ? कहते हैं, नहीं क्योंकि हाथ चकला बेलन रोटी यह सब वर्तमान वस्तुए है. इनमें अन्योन्याभाव है ? प्र० 12. क्या छप्पर को दिवार का आधार है ? उ० छप्पर और दिवार दोनों अलग पुद्गलों की वर्तमान अवस्थाए हैं इनमें अन्योन्याभाव है। इसलिए छ. नर को दिवार का आधार माने तो अन्योन्या भाव को नहीं माना / और दोनों अलग अलग हैं तो अन्योन्याभाव को माना। प्र० 13. (1) तेजस, कामरण शरीर में (2) घड़ा, चाक, डन्डा में (3) किताब, हाथ, पैन में (8) अग्नि पानी पतीला में (5) हाथ, स्टूल, औजारों में कौन सा अभाव है ? (1) तेजस तथा कार्मरण दोनों पुदगल की वर्तमान पर्याय हैं इनमें अन्योन्याभाव है। (2) घड़ा, चाक, डन्डा तीनों पुद्गल की वर्तमान पर्याय हैं / इनमें अन्योन्याभाव है। उ० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (160 ) (3) किताब, हाथ, पैन तीनों पुद्गल की वर्तमान पर्याय है / प्रन्योन्याभाव है / (4) अग्नि, पानी, पतीला तीनों पुद्गल की वर्तमान पर्याय है। अन्योन्याभाव है / (5) हाथ, स्टूल, औजार तीनों पुद्गल की वर्तमान पर्याय है। अन्योन्याभाव है। प्र. 14. अन्योन्याभाव कितने द्रव्यों में लागू होता है ? उ० परस्पर पुद्गल द्रव्यों की वर्तमान पर्यायों मे ही लागू होता है / और द्रव्यों में नहीं लगता है / प्र० 15. एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव सो अत्यंताभाव है सो कैसे है ? उ० (1) जैसे मेरी आत्मा का बाकी सब द्रव्यों में प्रभाव अत्यंताभाव (2) कुम्हार और घड़े में अत्यंताभाव है / प्र. 16 अत्यन्ताभाव कितने द्रव्यों में लगता है ? उ० छहो द्रव्यों में लगता है / प्र. 17. चारों प्रभाव किस किस द्रव्य में लागू हो सकते हैं ? उ० पुद्गल में चारों अभाव लग सकते हैं। बाकी द्रव्यों में तीन लगते हैं। प्र० 18. जीव धर्म अधर्म प्राकाश और काल में कौनसा अभाव नहीं लगता है ? अन्योन्याभाव नहीं लगता क्योंकि अन्योन्याभाव मात्र पुद्गल को पर्यायों में ही लगता हैं / उ० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) प्र० 16. इन चार अभानों में से पर्याय सूचक कौन 2 अभाव हैं ? उ० प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव पर्याय सूचक हैं / प्र० 20. इन चार प्रभावों में से द्रव्य सूचक कौन 2 से प्रभाव हैं ? उ० मात्र अत्यन्ताभाव द्रव्य सूचक है / प्र० 21. प्रागभाव कितने द्रव्यों में लागू होता है ? उ० छहों द्रव्यों को वर्तमान पर्याय का भूत की पर्यायों में लागू होता है। प्र. 22. प्रध्वंसाभाव कितने द्रव्यों में लागू होता है ? छहों द्रव्यों की वर्तमान पर्याय का भविष्य की पर्यायों में लागू होना है। प्र० 23. प्रागभाव ना माने तो क्या होगा ? उ० कार्य अनादि का मिद्ध होगा। प्र. 24. प्रध्वंमाभाव ना माने तो क्या होगा ? 20 कार्य अनन्तकाल तक रहेगा। प्र० 25. अन्योन्याभाव न माने तो क्या होगा ? उ० एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का दूसरे पुद्गल की वर्त मान पर्याय में प्रभाव है वह नहीं रहेगा। प्र० 26. अत्यन्ताभाव न माने तो क्या होगा ? प्रत्येक पदार्थ की भिन्नता नहीं रहेगी। जगत के सर्व द्रव्य एक Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 182 ) रूप होने का प्रसंग उपस्थित होवे / / 50 27. प्रागभाव से धर्म संबन्धी क्या लाभ है ? उ० अनादि काल से जीव अज्ञान मिथ्यात्व और रागदि नये नये दोष करता पा रहा है; उसने धर्म कभी नहीं किया। लो भी वर्तमान में नये पुरुषार्थ से धर्म कर सकता है क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पीय में अभाव वर्तता है। प्र० 28. प्रध्वंसाभाव से धर्म संबन्धी क्या लाभ है ? उ० वर्तमान अवस्था में धर्म नहीं किया है फिर भी जीव नवीन पुरुषार्थ से अधर्म दशा का तुरन्त ही प्रभाव करके अपने में सत्य धर्म प्रगट कर सकता है। कोई कहे मैंने तो वहत पाप किये हैं ग्रागे पाप का उदय या गया तो क्या होगा ? भगवान कहते हैं कि भाई वर्तमान पर्याय का भविष्य की पर्याय में प्रभाव है तू तुरन्त धर्म कर, देर मत कर / प्र. 29. अन्योन्याभाव से धर्म संबंधी क्या लाभ है ? उ० एक पुद्गल की वर्तमान पर्याय दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का कुछ नहीं कर सकती है / जब पुद्गल की अवस्था सजाति में कुछ नहीं कर सकती है तो पुद्गल जीव का कुछ भी लाभ हानि कैसे कर सकता है अर्थात् कुछ नहीं कर सकता। प्र. 30. अत्यन्ताभाव से धर्म संबंधी क्या लाभ है ? प्रत्येक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में त्रिकाल प्रभाव है / इसलिये एक द्रव्य अन्य द्रव्य की पर्याय का कुछ नहीं कर सकता है। उ० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 183 ) प्र. 31. अपना कल्याण करने के लिये क्या करना चाहिए ? 70 चार अभाव का रहस्य जानना चाहिये / प्र 32. सबसे पहले कौन 2 से प्रभाव को जानना चाहिये ? उ० वैसे तो चारों को जानना चाहिये / मुख्य रूप से प्रथम अत्यन्ताभाव को फिर अन्योन्याभाव को फिर वाकी को समझकर अपनी ओर सन्मुख होना चाहिए। प्र० 33. च र प्रभावों को समझने से हमारा कल्याण कैसे हो सीधे सादे शब्दों में बतायो ? उ० (1) मैं अात्मा अनंत गुणों का पिण्ड ज्ञायफ स्वभावी हूँ मेरा मेरे इस ज्ञायक स्वभाबी भगवान से, अलग अन न जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, धर्म, अधर्म, अाकाश, लोक प्रमाण असंन्यात काल द्रव्य हैं इनसे किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है इसलिए हटावो इष्टि अत्यंत भिन्न पदार्थों से, शरीर, मन, वाणी से। (2) जब एक पद्गल की वर्तमान पर्याय दूसरे पुद्गल वर्तमान पर्याय में कुछ नहीं कर सकती है तो पाठ कम मुझे दुःप दंगे या सुख देंगे ऐसी बुद्धि का अभाव हो जाना चाहिये / तो दृष्टि उठावो द्रव्यकर्मों से / (3) अब विचारो पर मे द्रव्य कम से तो संबंध ही नहीं रहा / अपनी प्रात्मा की अोर देखो-तुम्हारी जो वर्तमान पर्याय है उसका भूत पर्याय से कोई संबंध नहीं है / जब वह है ही नहीं तो दृष्टि उठावो पिछली पर्यायों से। (4) भविष्य की पर्याय पाई है नहीं। तो अब तुम अपनी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 184 ) वर्तमान पर्याय को कहाँ ले जानोगे? पर, द्रव्यकर्म, पूर्व, भविष्य को पर्यायों से तो संबंध रहा ही नहीं। तो एक मात्र जो स्वभाव है उस पर दृष्टि देवें तो सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्र० 34. (1) कुम्हार ने घड़ा बनाया (2) मैंने इच्छा की तो भाषा निकली (3) चश्मे से ज्ञान होता है (4) हमें शरीर और वस्त्रों की रक्षा करनी चाहिए (5) बाई ने चकला बेलन से रोटी बनाई (6) घाती कर्म के नाश से अरहंत दशा की प्राप्ति होती है. (7) प्रात्मा पर का कर सकता है ना ? (8) कर्म के उदय से रागादि उत्पन्न होते हैं (8) कर्म के उदय से औदयिक भाव होते हैं (10) मोहनीय उपशम से प्रोपरामिक भाव होते हैं (11) कर्म के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक भाव होते हैं (12) कर्म के क्षय से क्षायिक भाव होते हैं (13) निमित से नैमित्तिक कार्य होता हैं (14) निमित्त से उपादान में कार्य होता है (15) इन सबमें जिस तरह से चारों अभाव लग सकते हैं लगायो / 1 तथा ऐसा माने तो, इस अभाव को नहीं माना। Il और ऐसे मानो, तो इस प्रभाव को माना इत्यादि बतायो। (1) कुम्हार ने घड़ा बनाया (1) कुम्हार का घडे में प्रभाव अत्यन्ताभाव है। (2) हाथ डन्डा कीली चाक डोरा घड़े का अन्योन्याभाव है (3) घड़े का पूर्व पिण्ड पर्याय में प्रागभाव है। (4) घड़े का भविष्य की ठीकरी में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। कुम्हार ने घड़ा डन्डा कीली से ही बनाया ऐसा मानने वाले ने उ० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 185 ) अत्यन्ताभाव अन्योन्याभाव को नहीं माना और घड़ा बना उसमें पहली पिछली पर्याय भी कुछ करती हैं ऐसी मान्यता वाले ने प्रागभाव प्रध्वंसाभाव को नहीं माना। पड़ा उस समय की योग्यता से ही बना है उसमें कुम्हार का इन्डा चाक प्रादि का तथा पिण्ड का या भविष्य को पर्यायों का संबंध नहीं है। ऐसा माना तो चारो प्रभाव को माना / इसी प्रकार 13 वाक्यों का उत्तर दो। प्र० 35. अन्योन्याभाव की क्या आवश्यकता थी ? उ० जैसे सुनार ने जेवर बनाया तो सुनार जेवर का तो अत्यन्ताभाव हो गया। इसके बदले कोई कहे सुनार ने तो नहीं बनाया परन्तु हाथ हथौड़ा आदि से तो बना तो उससे कहते हैं कि भाई पुद्गलों की वर्तमान पर्यायों में प्रभाव है ऐसा अन्योन्याभाव बताता / जब पुद्गल की पर्याय दूसरे पुद्गल की पर्याय में कुछ नहीं कर सकती है तो तू तो विजातीय है / यह बताने के लिए अन्योन्याभाव को बताने को आवश्यकता थी। प्र० 36. जीव दूसरे का तो न करे परन्तु पुद्गल तो पुद्गल का करता है ना? उ० अन्यान्योभाव को नहीं माना / प्र. 37. जीव से तो भाषा नहीं निकली परन्तु होंठ से तो निकली है ना? उ. अन्योन्याभाव को नहीं माना / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 16 छः द्रत्य, विश्व, छः सामान्य गुणों, चार अभावों पर मिले जुले प्रश्नोत्तर प्र. 1. द्रव्य गुण पर्याय किस अपेक्षा समान है और किस अपेक्षा समान नहीं है। उ. क्षेत्र से समान है और भाव से समान नहीं है। प्र. 2. द्रव्य गुण पर्याय में, काल अपेक्षा समान कौन है और कौन नहीं काल अपेक्षा द्रव्य गुण समान है / पर्याय एक समय की होने से समान नहीं है। प्र० 3. द्रव्य गुण पर्यायों में संख्या अपेक्षा समान कौन हैं ? उ० गुण और पर्याय संख्या में समान हैं / प्र. 4. गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं इसमें लक्षण क्या और लक्ष्य क्या ? उ० गुणों का समूह लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है / प्र. 5. द्रव्य में निरन्तर पर्याय होने का क्या कारण है ? Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (187) उ.. व्यत्व गुण। . 6. तुम आत्मा को कैसे जानते हो ? 50 प्रमेयत्व गुण के कारण / प्र० 7. ज्ञान का लक्षण क्या है ? उ0 स्व पर प्रकाशक ज्ञान का लक्षण है / प्र० 8 संख्या अपेक्षा कौन 2 द्रव्य समान हैं ? उ० धर्म, अधर्म, आकाश तीनों एकेक हैं / प्र. 6. क्षेत्र अपेक्षा कौन 2 द्रव्य समान हैं ? उ० (1) धर्म, अधर्म और जीव क्षेत्रप्रपेक्षा असंख्यात प्रदेशी होने से समान हैं। (2) कालाणु और परमाणु क्षेत्र अपेक्षा एक प्रदेशी हैं / प्र० 10. निश्चय से प्रस्तिकाय कौन कौन है ? उ० जीव, धर्म, अधर्म, आकाश / प्र० 11. व्यवहार से अस्तिकाय कौन हैं ? उ० पुद्गल स्कंध / प्र. 12. लोकाकाश, प्रलोकाकाश यह प्राकाश का भेद निश्चय से या व्यवहार से ? उ० व्यवहार से प्र० 13. ऐसे गुणों का नाम बताओ जो जीव पुद्गलों में हों ब गो Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (188) में नहीं ? उ० क्रियावती शक्ति, वैभाविक शक्ति प्र. 14. ज्ञानी को राग में कैसी बुद्धि होती है ? उ० हेय बुद्धि होती है। प्र० 15. अज्ञानी को शुभभावों में कैसी बुद्धि होती है ? उ० उपादेय बुद्धि होती है / प्र० 16. ज्ञानी राग को क्या जानता है ? उ. ज्ञानी राग को तपेदिक की बीमारी के समान जानता है / प्र० 17. क्रियावती शक्ति जानने का क्या लाभ है ? उ० (1) घर में से रुपया, सोना, चांदी डाकू ले गये तो ज्ञानी जानते हैं वह अपनी क्रियावती शक्ति के कारण गया डाकूओं के कारण नहीं। (2) मेरा रुकना और गमन, शरीर के कारण, धर्म, अधर्म द्रव्य के कारण नहीं होता है मात्र क्रियावती शक्ति के कारण होता है। ऐसा जानने से आकुलता मिट जाती है / प्र० 18. क्या शरीर आगे पीछे जीव करता है ? / उ० बिल्कुल नहीं / क्रियावती शक्ति के कारण होता है / प्र. 16. जीव क्यों नहीं बोलता है ? उ० जीव और शब्द में प्रत्यंताभाव है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (186) प्र० 20. क्या मुंह से तो शब्द निकलता है ? उ० नहीं, क्योंकि शब्द और मुह में अन्योन्याभाव है / प्र. 21. क्या देव अपने शरीर को छोटा बड़ा कर सकता है ? उ. बिल्कुल नहीं, क्योंकि देव और शरीर में अत्यन्ताभाव हैं / प्र. 22. जीव के दो भेद कौन कौन से हैं ? उ. संसारी और सिद्ध प्र. 23. संसारी के दो भेद कौन कौन से हैं ? 20 छद्मस्थ और सर्वज्ञ / प्र. 24. छद्मस्थ के दो भेद कौन 2 से हैं ? उ. साधक और बाधक / प्र. 25. बाधक के दो भेद कौन 2 से हैं ? भव्य और अभव्य प्र० 26. भव्य के दो भेद कौन 2 से हैं ? उ० मोक्ष प्राप्त करने वाला और मोक्ष प्राप्त न करने वाला। प्र० 27. परमाणु की दो जातियों का क्या नाम है ? उ० 1. कारण परमाणु 2. कार्य परमाणु / प्रह 28. कारण परमाणु किसे कहते हैं ? स्कंध में जुड़ने की शक्ति वाले परमाणु को कारण परमाणु कहते हैं। 1 . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 160 ) प्र० 26. कार्य परमाणु किसे कहते हैं ? उ० स्कंधों से पृथक होने वाले परमाणु को कार्य परमारण कहते हैं 0 30. शरीर पोर जीव में और शरीर और वस्त्र में कौन सा प्रभाव ? उ० शरीर और जीव में अत्यंताभाष है। शरीर और वस्त्र में अन्योन्याभाव है। प्र० 31. जीव और चैतन्य में कौन सा प्रभाव है ? उ० कोई भी नहीं / प्र० 32. पवन ध्वजा को हिलाता है ना ? उ० बिल्कुल नहीं, क्योंकि पवन और ध्वजा में अन्योन्याभाव है / प्र० 33. ध्वजा किससे हिलती है ? उ. अपनी क्रियावती शक्ति से हिलती है, पवन से नहीं / प्र० 34. सादिअनंत एक क्षेत्र में रहने वाला कौन है ? उ० सिद्ध भगवान प्र० 35. पर्याय की अपेक्षा द्रव्य को क्या कहते हैं ? उ० पर्यायी या पर्यायवान कहते हैं / प्र० 36. चैतन्य सामान्य है या विशेष ? उ. छह द्रव्यों में से मात्र जीव द्रव्य में है औरों में नहीं इस अपेक्षा विशेष है और सब जीव द्रव्यों में है इस अपेक्षा सामान्य है। 5. 37. ज्ञान गुण और सुख गुण की संख्या बतायो ? Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 191) . - - उ० जितने जीव द्रव्य हैं उतने ही ज्ञान और सुख गुण हैं / प्र० 38. अपने को कूटस्थ मानने वाला किस गुण का मर्म नहीं जानता ? उ० द्रव्यत्व गुण का / प्र. 36. मैं पर का शरीरादि का करने वाला क्या भूलता है ? उ० अगुरुलघुत्व गुण और अ यंताभाव को भूलता है। प्र० 40. ज्ञानावर्णी कर्म ने ज्ञान को दबाया, क्या यह ठीक है ? 20 गलत है, क्योंकि दोनों में अत्यंताभाव है। प्र. 41. क्रियावती शक्ति के गमन और स्थिति के निमित्त में क्या अन्तर उ० गति में निमित्त धर्म द्रव्य और स्थिति में अधर्म द्रव्य हैं / 42. सिद्ध भगवान को किसका निमित्त छूट गया और किसका सादि अनंत हो गया ? उ० धर्म द्रव्य का निमित्त छूट गया और सादि अनंत अधर्म द्रव्य का हो गया। प्र. 43. अनंत गुणों का द्रव्य के साथ कैसा संबंध है ? उ. नित्यतादात्म्य संबंध है। प्र. 44. शुभाशुभ भावों का गुण भेद का प्रात्मा के साथ कैसा संबंध है ? उ अनित्य तादात्म्य संबंध है। प्र० 45. छह द्रव्य किस 2 अपेक्षा समान नहीं हैं ? Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 162 ) उ० (1) विशेष गुणों (2) क्षेत्र (3) और संख्या अपेक्षा सम.न नहीं है / प्र० 46. किन द्रव्यों में संकोच विस्तार होता है ? उ० मात्र जीव द्रव्य में ही होता है / प्र. 47. पाठ भेद वाला कौन सा शरीर है ? उ० कार्मरण शरीर / प्र० 48. पाँचों शरीर का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उ० पाचों शरीर का कर्ता पुद्गल द्रव्य है और जीव नहीं है / प्र० 46. अविनाभाव संबंध किसे कहते हैं और उसके उदाहरण दो ? उ० एक पदार्थ के साथ दूसरे का होना अविनाभाव संबंध है। जैसे (1) जहां कार्मण शरीर होता है वहां तैजस शरीर होता ही है (2) जहाँ मतिज्ञान होता है वहां श्रुतज्ञान होता ही है (3) जहां रंग होता है वहां स्पर्श रस गंध होता ही है (4) जहां 2 ज्ञान होता है वहां सुख होता ही है। प्र. 50. अनादिअनंत एक क्षेत्र में रहने वाले कौन 2 द्रव्य हैं ? उ० धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य हैं। प्र० 51. सब द्रव्यों के एक क्षेत्र में रहते हुए कौन सा प्रभाव है ? उ. अत्यंताभाव है। प्र. 52. तुम किस प्रपेक्षा एक हो ? उ. मैं अपने जीव द्रव्य की अपेक्षा एक हूं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (193) प्र. 53. तुम किस प्रपेक्षा असंख्य हो। उ. मैं अपने प्रदेशों की अपेक्षा असंख्य हूँ। प्र० 54. तुम किस प्रपेक्षा अनंत हो ? उ० मैं अपने गुणों की अपेक्षा अनंत हूं। प्र० 55. चक्षुदर्शन का द्रव्य गुण पर्याय क्या है ? 30 चक्षुदर्शन स्वयं पर्याय है। जीव द्रव्य के दर्शन गुण की विभाव र्य पर्याय है। प्र० 56. सम्यग्दर्शन और चक्षुदर्शन में क्या है ? उ० दोनों अलग 2 गुण की पर्याय हैं इसलिए गुण भेद है। प्र. 57. सम्यग्दर्शन और चक्षुदर्शन दोनों किसको होते हैं ? 70 साधक जीव को होते हैं। प्र. 58. चक्षुदर्शन हो और सम्यग्दर्शन ना हो क्या ऐसा होता है ? 10 (१)मिथ्यादृष्टि को चक्षुदर्शन होता है सभ्यग्दर्शन नहीं होता है (2) चक्षुदर्शन तीन इन्द्रिय वाले जीवों को भी नहीं होता है। प्र. 56. सम्यग्दर्शन हो चक्षुदर्शन ना हो, क्या ऐसा हो सकता है ? उ. देव (प्ररहंत सिद्ध) को सम्यग्दर्शन होता है और चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि उनको केवलदर्शन होता है। प्र. 60. अस्तित्व पोर वस्तुत्व गुण का द्रव्य क्षेत्र काल भाव एक ही है है ना? Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 194 / उ. दोनों के भावों में अन्तर है द्रव्य क्षेत्र काल एक ही है / प्र० 61. कूड़े को बाहर फेंक दिया क्या वह निकम्मा है ? 30 तृ व गुण के कारण कूड़ा भी अपनी प्रयोजनभूत क्रिया करता है निकम्मा नहीं है / प्र० 62. क्या मैं चुपचाप ऐसा कार्य करू किसी को पता न चले यह ठीक है ? उ० प्रमेयत्व गुण को नहीं माना / प्र. 63. अगुरुलघुत्व गुण के कारण एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता, वह एक द्रव्य की बात है या पृथक पृथक द्रव्यों की बात है ? उ० एक ही द्रव्य को बात है। प्र. 64. मोक्ष होने पर 'तेज में तेज मिल जाता है' इस प्रकार सब एक हो जाते है क्या यह ठीक है ? उ. अगुरुलघुत्व गुण को नहीं माना / प्र० 65. ज्ञ य-ज्ञायक संबंध कौनसा गुण बताता है ? 10 प्रमेयत्व गुण बताता है / प्र. 66. कौन सा द्रव्य अक्रिय है ? उ. कोई भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व होता रहता है। 50 67. ज्ञान और मतज्ञिान में क्या अन्तर है ? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 195 ) उ० ज्ञान गुण है और मतिज्ञान ज्ञान गुण की पर्याय है / प्र. 68. क्या तुम यहाँ रेल से पाये हो ? उ० मैं अपनी क्रियावती शक्ति से पाया हूँ रेल, शरीर और धर्म द्रव्य के कारण नहीं पाया हूँ। प्र. 66. क्या रुपये का एक ही प्राकार है ? उ० नहीं ! जितने परमाणु हैं उतने प्राकार हैं / प्र. 70. गेहूँ का आटा चक्की से हरा या बाई से ? उ० किसी से भी नहीं / क्योंकि बाई और प्राटे का अत्यन्ताभाव है और गेहूं और चक्की में अन्योन्याभाव है / द्रव्यत्व गुण के कारण पर्याय बदल गई है। प्र. 71. काल द्रव्य की क्या पहिचान है ? उ० परिणमन हेतुत्व इत्यादि। प्र० 72. स्कंध होने का सच्चा कारण क्या है ? उ० उस समय की योग्यता। परमाणु की स्निग्धरू६. अवस्था . . रूप बनने में कारण है। प्र० 73. कुए से पानी खींचा ? उ० बिल्कुल गलत है / पानी अपनी क्रियावती शक्ति से प्राया है / प्र. 74. प्राहारवर्गणा तेजस, भाषा, मन और कार्मराम का क्या कारण है ? Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 196) उ० (1) जीव को प्रथम अपने संयोगरूप शरीर का ज्ञान होता है अत: प्रथम नम्बर प्राहारवर्गणा रक्खी / (2) पश्चात शरीर के तेज का पता चलता है अत: दूसरा नम्बर तैजसवर्गणा रक्खी। (3) फिर दो तीन इन्द्रियों के भाषा प्रकट होती है अत: तीसरा नम्बर भाषावर्गणा रक्खी है। (4) मन मात्र संज्ञी जीवों के ही होता है मतः चौथा नम्बर मनोवर्गणा रक्खी है / (5) कार्मण शरीर को सूक्ष्मपने के कारण पांचवा नम्बर कार्मण वर्गणा का रक्सा। प्र० 75. प्राम हरे से पीला हो गया तो द्रव्य गुण पर्याय में से क्या बदला? उ. मात्र वर्ण गुण की पर्याय बदली। प्र० 76. किस 2 द्रव्य के टुकड़े हो सकते हैं ? उ० किसी द्रव्य के टुकड़े नहीं हो सकते हैं। प्र. 77. एक क्षेत्र में एक जाति के दो द्रव्य कभी न पावें ऐसे द्रव्य का क्या नाम है ? उ. काल द्रव्य / प्र० 78. अपना विशेष गुण प्रपने को निमित्त न बने ऐसे द्रव्य कौन है ? उ. धर्म और अधर्म द्रव्य हैं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (197) प्र० 76. घड़ी की सुई कौन फेरता है ? उ० प्रपनी क्रियावतो शक्ति के कारण फिरती है। प्र. 80. घड़ी की सुई निश्चय काल है या व्यवहार काल ? उ० दोनों नहीं हैं क्योंकि घड़ी की सुई तो पुद्गलों का पिण्ड है / प्र० 81. दुःखी करने का भाव और सुखी करने का भाव क्या है और क्या नहीं है ? उ. दुःखी सुखी करने का भाव चारित्र गुण की विभावअर्थपर्याय है। स्वभावअर्थपर्याय नहीं है। प्र. 82. (1) प्रकाश हुप्रा (2) ममवान ने सिद्ध पद पाया (3) घी ताया (4) ठंड पड़ो (5) सम्यग्दर्शन प्रगटा उनमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगानो। प्रधकार का व्यय, प्रकाश का उत्पाद वर्ण गुण कायम / इसी प्रकार बाकी के चार लगाओ। प्र. 83. (1) मिथ्यादर्शन (2) पुरुषाकार (3) मेघ गर्जना (4) परिणमन हेतुत्व (5) गति हेतुत्व (6) केवल ज्ञान (7) रुपया (8) शुभ भाव (9) गंध (10) श्रद्धा, यह क्या है ? उ० (1) मिथ्यादर्शन जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण को विभावअर्थ पर्याय है। इसी प्रकार 6 का उत्तर दो। प्र. 84. सामान्य गुण पहिले या विशेष गुण ? Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 198 ) उ० दोनों साथ 2 हैं आगे पीछे नहीं अर्थात् अनादिअनंत हैं। प्र. 85. अस्तित्व गुण जानने योग्य है ? उ० हाँ ! प्रमेयत्व गुण के कारण से जानने योग्य है / प्र० 86. प्रयोजनभूत कार्य किस में होता है किसमें नहीं ? उ० पर्याय में होता है द्रव्य गुण में नहीं। प्र० 87. अगुरुलघुत्व गुण का क्या कार्य है ? उ० प्रत्येक द्रव्य जैसा का तैसा रहे / छोटा बड़ा ना होवे। यह अगुरुलघुत्व गुण का कार्य है / प्र. 88. विश्व के तीन भेद कौन कौन से हो सकते हैं ? उ० (1) द्रव्य गुण पर्याय (2) उत्पाद व्यय ध्रौव्य / प्र. 86. गति हेतुत्व और स्थिति हेतुत्व में कौन कौनसा अभाव है ? उ. प्रत्यंताभाव है। प्र० 60. सूत में प्रागभाव प्रध्वंसाभाव बतामो ? 30 सूत का पूणी में प्रभाव प्रागभाव है और सूत का कपड़े में अभाव प्रध्वंसाभाव है। प्र. 61. धारणा का प्रध्वंसाभाव में क्या मायेगा ? 7. श्रुतज्ञान प्रावेगा। प्र. 62. जीव पुद्गल में परस्पर मिलान करो? उ० (1) संख्या से जीव अनंत-पुद्गल जीव से अनंत गुणा अधिक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 166 ) (2) क्षेत्र से जीव असंख्यात प्रदेशी-पुद्गल एक प्रदेशो है / (3) जीव अमूर्त है = पुद्गल मूर्त है (4) जीव चेतन है = पुद्गल जड़ है (5) जीव पुद्गल दोनों में क्रियावती तथा वैभाविक शक्ति है / प्र० 63. एक सिद्ध को दूसरे सिद्ध भगवान की अपेक्षा है ऐसा कहें तो? उ० प्रगुरुलघुत्व गुण को नहीं माना। प्र० 64. 'मैं अपने में बसता हूँ' कौन 2 गुण को माना ? उ० वस्तुत्व गुण को माना / प्र० 65. सम्यग्दर्शन होते ही तुरन्त वीतरागता होनी चाहिये, किस गुण का मर्म नहीं जानता ? उ० अगुरुलघुत्व का नही जानता / प्र० 66. ध्रुव रहता हुआ निरन्तर बदलना है कौनसा गुण दृष्टि में आया ? उ० अस्तित्व, द्रव्यत्व गुण दृष्टि में प्राता है / प्र० 67. सीमंधर भगवान की मुद्रा प्रति भव्य है ? उ० प्रदेशत्व गुण प्र० 68. प्रभाव अभावरूप है या मद्भाव रूप है ? उ० सद्भाव रूप है क्योंकि भावों की प्रस्ति है। प्र. 66. सिद्ध भगवान को कितने प्रभाव लग सकते हैं ? Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 200) उ. अन्योन्याभाव को छोड़कर तीनों लग सकते हैं ? म० 100. कर्मोदय के कारण राग हुमा, तो कौन से प्रभाव को भूलता है ? उ० प्रत्यंताभाव को भूलता है। प्र० 1.1. द्रव्यलिंग से भावलिंग प्रकट होता है, तो किस प्रभाव को भूला ? उ० प्रत्यंताभाव को भूलता है / म. 102. मुनिराज बाह्य पांच समिति गुप्ति को पालते हैं,तो किस प्रभाव कों भूला ! उ० अत्यंताभाव को भूलता है। प्र. 103. दो द्रव्यों का कर्ता एक है, तो किस प्रभाव को भूला ? उ० अत्यंताभाव को भूलता है / प्र० 104. क्रमबद्ध पर्याय को न मानने वाला किस प्रभाव को भूलता है? उ० प्रागभाव मोर प्रध्वंसाभाव को भूलता है। प्र० 105. मागभाव पौर प्रध्वंसाभाव को न माने तो कोन सामान्य गुण उर जाता है? उ० व्यत्व गुण उड़ जाता है। म. 106. अत्यंताभाव को न माने तो कौनसा सामान्य गुण पड़ जाता उ. मगुरुलघुत्व गुण उड़ पाता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (201) No 107. पहिले था अब नहीं है इससे कौनसा प्रभाव ध्यान में पाता उ० प्रागभाव ध्यान में प्राता है / प्र० 108. चारों प्रभाव रूपी है या अरूपी ? उ० पुद्गल के रूपी हैं और बाकी द्रव्यों के प्रल्पी हैं। प्र० 106. घाति कर्म और अघाति कर्म में कौन सा प्रभाव है ? उ० प्रन्योन्याभाव है। प्र० 110. दंड चक्र से घड़ा बना, तो कौनसे प्रभाव को भूला ? उ० प्रन्योन्याभाव को भूला है / प्र० 111. भगवान के जिनबिम्ब के दर्शन करने से सम्यग्दर्शनादि प्रगट होते हैं, क्या यह बात ठीक है ? यह व्यवहार कयन है; व्यवहार कथन को सचा मानने वाले ने अगुरुलघुत्वगुण और प्रत्यंताभाव को नहीं माना / प्र० 112. द्रव्यत्वगुण के कारण ज्ञान में क्या होता है ? उ० ज्ञान गुण में निरन्तर समय 2 पर नया 2 परिणमन होता है। प्र० 113. प्रगुरुलघुत्व गुण के कारण, ज्ञान में क्या होता है ? / 30 ज्ञानगुण, वर्णादि पुद्गलों के गुणों में नहीं जाता और ज्ञान गुण श्रद्धा, चारित्र प्रादि दूसरे गुणों रूप नहीं होता है / प्र. 114. (1) जीव (2) शरीर (3) बुखार (4) सिद्ध(५ ) दया (6) उ० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 202 ) धर्म (7) स्पर्श (8) गतिहेतुत्व (6) पुण्य-पाप (10) दुःख (11) अवगाहनहेतुत्व (12) उपवास (13) भक्ति पूजा (14) नाचना (15) पूजा की सामग्री (16) दान (17) कर्म (18) भावकर्म (16) ज्ञान (20) केवलज्ञान (21) मोक्ष (22) संसार (23) चारित्र (24) श्रावक (25) मुनिपना (26) दौड़ना (27) बैठना (28) मिथ्यात्व (26) सम्यक्त्व (30) रस (31) खट्टा (32) जैन (33) कषाय (34) परिणमनहेतुत्व (३५)बुखार (36) बुखार पर द्वेष (37) पाहारक शरीर (38) प्रौदारिक शरीर (36) मेज (40) सुगंध / I यह क्या है ? यदि पर्याय है तो किस गुण को है ? और यदि गुण है तो किस द्रव्य का हैं ? स्पष्ट खुलासा करो ? उ० (1) जीव-द्रव्य है, और चैतन्य जीव का लक्षण है। (2) शरीर-पर्याय है / अनंत पुद्गलों की स्कंधरूप पर्याय है / (3) बुखार =पुद्गल द्रव्य के स्पर्श गुण की विभाव अर्थ पर्याय (4) सिद्ध =जीव द्रव्य के सम्पूर्ण गुणों की स्वभाव अर्थ पर्याय और एक स्वभावव्यंजन पर्याय है / (5) दया -जीव द्रव्य के चारित्र गुण को विभाव अर्थ पर्याय (6) धर्म=I धर्म नाम का एक द्रव्य है। II सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावों को धर्म कहा है / III वस्तु स्वभाव को धर्म कहते हैं। (7) स्पर्श-पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 201) (8 गति हेतुत्व-धर्म द्रव्य का विशेष गुण है / (6) पुण्य पाप का भाव-जीव द्रव्य के चारित्र गुण को विभाव-- अर्थ पर्याय है। (10) दुःख-जोव द्रव्य के सुख गुण की विभावप्रर्थ पर्याय है। (11 अवगाहनहेतुत्व-प्राकाश द्रव्य का विशेष गुण है। (12 उपवास का भाव-l जीव द्रव्य के चारित्र गुण की विभाव अर्थ पर्याय है / II उप 'माने समीप','वास'-रहना प्रात्मा के समीप रहना वह सच्चा उपवास है। III जहां कषाय, विषय तथा प्राहार का त्याग किया जाता है उसे उपवास कहते हैं। यह चारित्र गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय है। (13) भक्तिपूजा का भाव-जीव द्रव्य के चारित्र गुण की विभावअर्थ पर्याय है। (14) नाचना-असमानजातीय द्रव्य पर्याय है। (15) सामग्री-सामानजाति द्रव्य पर्याय है। (16) 'दान' I पैसा आदि देना पुदगल द्रव्य की विभावअर्थ पर्याय हैं / II दान का भाव, चारित्र गुण की विभाव अर्थ पर्याय है। III सच्चादान वीर्य गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय है। (17) कर्म-I द्रव्य कर्म II नोकर्म III भाव कर्म IV कर्म कारक V कर्म अर्थात् कार्य। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 204 ) (18) भावकर्म-चारित्र गुण की विभाव अर्थ पर्याय है / (19) I ज्ञान अर्थात् प्रात्मा, I ज्ञान गुण, III ज्ञानी के सम्यर ज्ञान को ज्ञान कहते हैं। (20) केवल ज्ञान-जीव द्रव्य के ज्ञान गुण को स्वभावअर्थ पर्याय है। (21) मोक्ष--जीव द्रव्य के सब गुणों की स्वभावप्रर्थ पर्याय पौर स्वभाव व्यंजन पर्याय / (22) संसार-I अपने भगवान का पता न होना II मिथ्यात्व, वह संसार है। (23) चारित्र--जीव द्रव्य का गुण / (24) श्रावक-जीव द्रव्य के चारित्र गुण की एक देश स्वभाव अर्थ पर्याय / (25) मुनिदशा--जीव द्रव्य के चारित्र गुण की सकल स्वभाव पर्थ पर्याय / (26) दौड़ना-पुद्गल द्रव्य के क्रियावती शक्ति की विभावअर्थ पर्याय / (27) बैठना-पुदगल द्रव्य के क्रियावती शक्ति की विभावअर्थ पर्याय / (28) मिथ्यात्व-जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण की विभावप्रर्थ पर्याय / (२९)सम्यक्त्व-जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय (30) रस-पुदगल द्रव्य का विशेष गुण / (31) खट्टा-पुद्गल द्रव्य के रस गुण की विभाव अर्थ पर्याय / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 205 ) (32) जन-अपने शुद्धात्मा के प्राश्रय से मोह, राग द्वष को जीतने वाली निर्मल परिणति जिसने प्रगट की है उसे जैन कहते हैं / सच्चे जैन तीन हैं-1 उत्तम-परहंत सिद्ध II मध्यम-सातवें से बारहवें गुणस्थान तक III जघन्य चौथा, पांचवां व छटा गुणस्थान / (33) कषाय-कष' अर्थात् संसार, प्राय प्रर्थात् लाभ, जिस भाव से संसार का लाभ हो उसे कषाय कहते हैं / यह जीव द्रव्य के चारित्र गुण की विभावअर्थ पर्याय है। (34) परिणमन हेतुत्व-काल द्रव्य का विशेष गुण / (35) बुखार-पुद्गल द्रव्य के स्पर्श गुण को विभावअर्थ पर्याय / (36) बुखार पर द्वेष-चारित्र गुण की विभाव अर्थ पर्याय / (37) आहारक शरीर-पाहार वर्गणा का कार्य है / (38) प्रौदारिक शरीर-आहार वर्गणा का कार्य / (36) मेज-समानजाति द्रव्य पर्याय / (४०)सुगंध-पुद्गल द्रव्य के गंध गुण को विभाव अर्थ पर्याय / प्र० 115. भगवान की वाणी सुनकर ज्ञान हुआ इसमें कौनसे प्रभाव को भूलता है ? अत्यन्ताभाव को भूलता है। उ० प्र. 116. साता वेदनीय से पैसा प्राता है कोनसे प्रभाव को नहीं माना? Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 206 ) उ. अन्योन्याभाव को नहीं माना / प्र० 117. क्या नामकर्म से शरीर की रचना होती है ? उ० अन्योन्याभाव को नहीं माना। प्र. 118. बक्सा आत्मा ने तो नहीं उठाया, हाथों ने तो उठाया ? अन्योन्याभाव को नहीं माना। प्र० 116. मैं टट्टी जाता हूं कौनसे प्रभाव को नहीं माना ? अत्यन्ताभाव को नहीं माना। प्र० 120. शरीर तो टट्टी जाता है ना ? उ० अन्योन्याभाव को नहीं माना। प्र० 121. (1) सम्यग्दर्शन (2) केवल ज्ञान (3) घड़ा बना (4) बिस्तर बिछा (5) हाथ उठाया (6) खिड़की खोली (7) प्रकाश हुमा, इन में प्रागभाव प्रध्वंसाभाव बताओ? उ० जबानी बताओ। म. 122. जीव को साता के उदय से सामग्री मिली, इसमें चार प्रभाव लगायो ? 1. जीव का.... 'सामग्री में प्रभाव, अत्यन्ताभाव है। 2. साता के उदय का और..... 'सामग्री के होने में, अन्योन्या भाव है। 3. सामग्री आई का.... 'पूर्व पर्याय में प्रभाव, प्रागभाव है। 4. सामग्री का, भविष्य की पर्याय में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सर्वज्ञदेव कथित छहों द्रव्यों की स्वतन्त्रता दर्शक सामान्य गुण 1. अस्तित्वगण कर्ता जगत का मानता जो 'कर्म या भगवान को, वह भूलता है लोक में, अस्तित्वगुण के ज्ञान को; उत्पाद व्यययुत वस्तु है, फिर भी सदा ध्रुवता धरे, अस्तित्व गुण के योग से कोई, नहीं जग में मरे / 2. वस्तुत्व गुण : वस्तुत्वगुण के योग से, हो द्रव्य में स्व-स्वक्रिया, स्वाधीन गुण-पर्याय का ही, पान द्रव्यों ने किया; सामान्य और विशेषता से कर रहे निन काम को, यों मानकर वस्तुत्व को, पामो विमल शिवधाम को / 3. द्रव्यत्वगुगा : द्रव्यत्वगुण इस वस्तु को, जग में पलटता है सदा, लेकिन कभी भी द्रव्य तो; तजता न लक्षण सम्पदा; स्वद्रव्य में मोक्षाथि हो, स्वाधीन सुख लो सर्वदा / हो नाश जिससे आजतक की दुःखदायी भवकथा / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 208) 4. प्रमेयत्वगुण : सब द्रव्य-गुण प्रमेय से बनते विषय हैं ज्ञान के, रुकता न सम्यग्ज्ञान पर से जानियो यों ध्यान से; मात्मा प्ररूपी ज्ञय निज यह ज्ञान उसको जानता; है स्व-पर सत्ता विश्व में सुदृष्टि उनको जानता। 5. प्रगुरुलघुत्व गुण : यह गुण अगुरुलघु भी सदा रखता महत्ता है महा, गुण द्रव्य को पररूप यह होने न देता है प्रहा; निज गण-पर्यय सर्व ही रहते सतत निजभाव में कर्ता न हर्ता अन्य कोई यों लखो स्व-स्वभाव में / 6. प्रदेशत्वगुण : प्रदेशत्वगुण की शक्ति से आकार द्रव्यों को घरे, निज क्षेत्र में व्यापक रहे प्राकार भी स्वाधीन है; प्राकार हैं सबके अलग, हो लीन अपने ज्ञान में, जानों इन्हें सामान्य गुण रक्खो सदा श्रद्धान में। जिन, जिनवर और जिनवर वृषभ कथित जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग सम्पूर्ण // जय गुरुदेव Page #217 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय महावीर, जय गुरुदेव आत्म स्वरूप को भुलाने वाले सप्त व्यसन क्या है ? जुना प्रामिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी परनारी। एही सात व्यसन दुखदाई, दुरित मूल दुर्गति के भाई। दवित ये सातों व्यसन; दुराचार दुखधाम / भावित अन्तर - कल्पना, मृषा मोह परिणाम / अशुभ में हार शुभ में जीत यही है छ त कर्म / देह की मगनताई, यहै मांस भखिबो। मोह की गहल सों अनान यहै सुरापान / कुमति की रीति गणिका को रस चखिबो। निर्दय ह प्राण घात करबो यह शिकार / पर - नारी संग पर - बुद्धि को परखिबो। प्यार सों पराई सौंज गहिबे की चाह चोरी / एई सातों व्यसन विडारी ब्रह्म लखिबो। -बनारसी दास 1. जुमा-शुभ में जीत तथा अशुभ में हार मानना भाव जुआ है / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. मांस खाना-देह में मगन रहना प्रर्यात् शरीर के पुष्ट होने पर अपनी प्रात्मा का हित और शरीर के दुबले होने पर अपनी प्रात्मा का अहित मानना, भाव मांस खाना है। 3. मदिरापान-मोह में पड़कर प्रात्मस्वरूप से अनजान रहना, भाव मदिरापान है। 4. वेश्या गमन करना-खोटी बुद्धि में रमने का भाव अर्थात् अपनी आत्मा को छोड़कर विषय-कषाय में बुद्धि रखना ही भाव वेश्या रमरण है। 5. शिकार खेलना-तीव्र रागवश ऐसे कार्य करने के भावों द्वारा अपने चैतन्य प्राणों का घात करना, यह भाव रुप से शिकार खेलना है। 6. परस्त्री रमण-तत्त्व को समझने का यत्न ना करके दूसरों की बुद्धि की परख में ही ज्ञान का सदुपयोग मानना, भाव परस्त्री रमण है / 7. चोरी करना- मोहभाव से पर वस्तु को अपनी मानना ही भाव चोरी है। जिसे संसार के दु:खों से प्ररूचि हुई हो पौर प्रात्मस्वरूप प्राप्त कर सच्चा सुख प्राप्त करना हो उसे इन सप्त व्यसनों को त्याग कर देना चाहिए /