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( १०७ ) पृथक पृथक अपने अपने स्वभाव में ही वर्तते है, परिगगमन करते हैं।
अहो ! पदार्थों का यह एक उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव भलिभांति पहिचान ले तो भेदनान होकर स्व-द्रव्य के ही पाश्रय से निर्मल पर्याय का उत्पाद और मलिनता का व्यय हो:-उसका नाम धर्म है और वही "सर्वज्ञ भगवान के सर्व उपदेग का तात्पर्य है ।- वीर सं० २४८१ पासोज मामका प्रात्मधर्म अक पत्र ३०१-२ मे उद्घत ]