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________________ ( १०६ ) मात्र अपना भासिन नहीं होता, इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्र वस्वरूप अपना जो आत्मा है उसके ग्राश्रय से निर्मलता का ही उत्पाद होता है मलिनता का व्यय होता जाता है और ध्रुवता का अवलम्बन बना ही रहता है-इसका नाम धर्म है। अजीव द्रव्य भी अपने उत्पाद-व्यय-भ्र वरूप त्रिस्वभाव का . स्पर्ग करता है, परका स्पर्ग नहीं करता जैसे नि.-मिट्टी के पिण्ड में स घड़ा हुया; वहां पिण्ड अवस्था के व्यय को, घट अवस्था के उत्पाद को और मिट्टीपने की ध्रुवताको वह मिट्टी स्पर्श करती है, किन्तु वह कुम्हार को, चाक को, डोरी को या अन्य किसी परद्रव्य को स्पर्ग नहीं करती और कुम्हार भी हाथ के हलन-चलनरूप अपनी अवस्था का जो उत्पाद हुया उस उत्पाद को स्पर्ग करता है किन्तु अपने मे बाह्य ऐसे घड़े को वह स्पर्श नहीं करता। जगत में छहों द्रव्य एक ही क्षेत्र में विद्यमान होने पर भा कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य के स्वभाव को स्पर्श नहीं करता: अपने अपने उत्पाद व्यय ध्रुवतारूप स्वभाव में हो जक द्रव्य वर्तता इसलिये वह अपने स्वभाव को ही स्पर्श करता है। देखो यह सर्वनदेव कथित वीतरागी भेदज्ञान ! निमित्त -उपादान का स्पष्टीकरण भी इसमें प्रा जाता है । उपादान और निमित्त यह दोनों पदार्थ एक साथ प्रवर्तमान होने पर भी उपादानरूप पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय-भ्र वतारूप स्वभाव का ही स्पर्श करता हैनिमित्त का किंचित भी स्पर्श नहीं करता। और निमित्तभूत पदार्थ भी उसके अपने उत्पाद-व्यय-ध्र वतारूप स्वभाव का ही स्पर्श करता है उपादान का वह किचित् स्पर्श नहीं करता। उपादान और निमित्त दोना
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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