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कर्ता जगत का मानता जो कर्म या भगवान को । वह भूलता है लोक में, अस्तित्व गुगा के ज्ञान को ।। उत्पाद-व्यययुत वस्तु है फिर भी सदा ध्रुवता घरे । अस्तित्व गुगा . योग मे घोई नहीं जग में मरे ।।
प्र. ८३. 'उत्पाद-व्यययुन वस्तु है फिर भी सदा ध्र वता धरे' इस कथन का शनादि ने परवृषभ, जिववर और जिन ने तथा वर्तमान में पूज्य कांजीवामी ने क्या प्राध्यातिपक रहस्य बताया है ? उ० प्रत्येक द्रव्य एक समय में जाने उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप विस्वभाव । स्पर्श करता है, उसी समय निमित्त होने पर भी द्रव्य उनका स्पर्श नहीं करते। सन्यग्दागन हया वहां पाना उग सम्यग्दर्शन के उत्पाद को, • मिथ्यात्व के व्यय को पौर श्रद्धारूप अपनी अवना को स्पर्श करता है, किन्तु मम्यक्त्व के निमिनभूत ऐमे देव,गुरु या शास्त्र को स्पर्श नहीं, करता, वे मो भिनास्वभावी पदार्थ है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति, मिथ्यात्व का व्यय तथा श्रद्धापने का खण्डतारूप ध्र वता-इन तीनों का प्रात्मा में ही समाबेग होता है, किन्तु इनके अतिरिक्त जो वाद्य निमित्त हैं उनका समावेश
यात्मा में नगें होता। प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्र वतारूप द्रव्य का अपना • स्वभाव है और उस स्वभाव का ही प्रत्येक द्रव्य स्पर्श करता है, यानी
अपने स्वभावरूप ही वतंता ने; किन्तु परद्रव्य के कारण किसी के उत्पादव्यय-ध्र व नहीं है। परद्रव्य भी उसके अपने ही उत्पाद व्यय-ध्र व स्वभाव में अनादिअनंत वर्तता है और यह मात्मा भी अपने उत्पाद-व्यय-ध्र व स्वभाव में ही अनादिप्रचंत वतंता है; ऐसा समझने वाले ज्ञानी को अपने आत्मा के उत्पाद-व्यय-ध्र व के अतिरिक्त बाह्य में कोई भी कार्य किचित्