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________________ ज्ञान चारित्र जो मनुष्य जन्म पाने पर कुदेव, कुगुरु, कुधर्म से समय समय पर ग्रहण करता है। प्र० १०. अगृहीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र किसे कहते हैं ? उ० ज्ञान दर्शन चारित्र प्रादि अनंत गुणों के प्रभेद पिण्ड मेरी प्रात्मा के अलावा बाकी अनंत प्रात्माए जिसमें २४ तीर्थकर, देव, गुरू, स्त्रो,पुत्रादि द्रव्यकर्म सोना, चाँदो, मकान, दुकान, शरोर मन वाणी, धर्म, अधर्म, आकाश और लोक प्रमाण असंख्यात काल द्रव्यों में चारो गतियों के शरीर व भावों में, ज्ञय से ज्ञान होता है और शुभाशुभ विकारी भावों में एकत्व को बुद्धि अगृहीत मिथ्यादर्शन है। इन सबमें एकत्व रूप आचरण अगृहोत मिथ्या चारित्र है। इन सबमें भिन्नत्व की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है । भिन्नत्व का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और भिन्नत्व का आचरण सम्यक चारित्र है । प्र० ११. तुमने आज तक क्या किया ? उ० पर पदार्थों को अपना मानकर मात्र मोह राग दंप किया । प्र० १२. अब क्या करू ? उ० ज्ञान दर्शन चारित्र आदि अनंन गुणों का पिण्ड जो स्वयं है उसको पहिचान कर। प्र० १३. अपनी पहिचान मैं कैसे करू? उ० मिथ्यादृष्टि को मर्यादा विकारी भावों तक है । ज्ञानियों की मर्यादा शुद्ध भावों तक है । परन्तु पर पदार्थों में ज्ञानी अज्ञानी कुछ भी नहीं कर सकता है। प्र. १४. संसार और मोक्ष क्या है ? उ. (१) प्रात्मा ज्ञातो दृष्टा के उपयोग को जब 'पर' पदार्थ को
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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