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________________ ( १६ ) प्र. १३ मेरा लक्षण ज्ञान दर्शनादि अनन्त गुण स्वरूप है इसके जानने मे क्या लाभ ? उ० मैं प्रात्मा (१) शरीर आंख नाक कान आदि; (२) पाठ कर्मों रूप (३) विकार रूप (४) परद्रव्यों रूप नही हूँ ऐसा पता चल गया। प्र. १४ मैं प्रात्मा शरीर, कान, पाठकर्म,पर द्रव्यों रूप, और विकार रूप मही हूं ऐसा जानने से क्या लाभ रहा ? उ० अनादिकाल मे नोव को मैं शरीर प्रांख नाक और शरीर को हिला डुला सकता हूं कर्म मुझे सुखी दुखी करते हैं । अशुभ भाव बुरा शुभ भाव अच्छा है ऐमी खोटो मान्यता का प्रभाव हो जाता है क्योंकि जब मैं इन रूप नही हूं तो इनमें करने धरने की बुद्धि का प्रभाव हो जाता है। प्र० १५ जो जीव ऐसा कहता है कि हमें तो उपयोग लक्षण वाला जीव दिखाई नहीं देता है हमें तो शरीर प्रादि रूप ही दिखाई देता है उससे प्राचार्य भगवान ने क्या कहा है ? उ० समयसार गा. ३४ में कहा है कि "नित्य उपयोग लक्षण वाला जीव द्रव्य कभी शरीर प्रांख नाक मन वाणी कर्म विकार रूप होता हुप्रा देखने में नही पाता और नित्य जड़ लक्षण वाला शरीर आदि पुद्गल द्रव्य कभी जीव द्रव्य रूप होता हम्रा देखने में नहीं प्राता, क्योंकि उपयोग और जड़त्व के एकरूप होने में प्रकाश पोर अन्धकार की भांति विरोध है। जड़ चेतन कभी भी एक नही हो सकते । वे सर्वथा भिन्न ही हैं । इसलिए हे भव्य तू सब प्रकार से प्रसन्न हो। अपना चित्त उज्जवल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही "यह मेरा है" ऐसा अनुभव कर ।
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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