________________
के अभेद पिण्ड का विशेष प्राथय होने से शुद्धोपयोग दशा में मुनिपना आता है श्रेणीपना आता है और २८ मूलगुणादि बाहरी क्रियायों या विकारी भावों से कभी भी मुनिपना श्रेणीपना नहीं पाता है । प्र० ३४. तो मिथ्यादृष्टि पूजा पाठ यात्रा आदि ना करे, क्योंकि आप कहते हो सम्यग्दर्शन के बिना पूजा पाठ यात्रा आदि पर व्यवहार का आरोप भी नहीं पाता है ? उ० (१) पहिले गुणस्थान में जिज्ञासु जीवों को शास्त्राभ्यास,
अध्ययन मनन, ज्ञानी पुरुषों का धर्मोपदेश श्रवण. निरन्तर उनका समागम, देव-दर्शन, पूजा भक्ति आदि शुभ भाव होते
हैं किन्तु उनके व्रत तप आदि सच्चे नहीं होते हैं ? (२) व्रत दान पूजा अादि करने वाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी, यह
जानना आवश्यक है। यदि अज्ञानी हैं तो उनके व्रत दान आदि होते नहीं, इसलिए उन्हें छोड़ने और करने ना करने का प्रश्न ही नहीं होता है । और यदि ज्ञानी हैं तो छद्मस्थ दशा में व्रत का त्याग करके अशुभ में जावे, ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है । परन्तु ऐसा हो सकता है क्रमशः शुभ भाव
को दूर करके शुद्ध भाव की वृद्धि करे, सो ठीक ही है । प्र० ३७. मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान हूँ जबतक ऐसा अनुभव ना हो तो क्या करना ? उ० जैसे हमने देहली जाना है और किसी वजह से देहली जाना न बने तो क्या हम देहली जाने के बजाय बम्बई चले जावेंगे ? कभी नहीं, परन्तु देहली जाने का प्रयत्न करेंगे; उसी प्रकार मुझे अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड का अनुभव करना है यदि वह ना हो तो, मैं क्या करूँ ? अरे भाई !