SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३८ ) (४) करणानुयोग में जीव ऐसे भाव करता है तव ऐसा २ का का निमित्त-नैमित्तिक संबंध होगा, यह कहां से आया है (५) चरणानुयोग में जीवने ऐसे व्रत का भाव किया है उस फल से देव हुआ, यह कहां से आया; (६) प्रथमानुयोग तो भूत भविष्यत वर्तमान सबको बताता यह इसका जीता जागता प्रमाण है । (७) समयसार गा० ३०७ मे ३११ तक स्पट पाया है। इस लिए वास्तव में आजकल भगवान की आज्ञा न मानने पंडितों त्यागियों में सर्वज्ञ के विपय में उल्टो धारणा है इसलिए उनको वर्तमान में सच्चे शानियों का समाग करके अपनी भूल मिटा लेनी चाहिए। प्रश्न में जो ६ बातें आई है उन्होंने सर्वज्ञ को अल्प माना यह उनकी चारों गतियों में घूमने की बात है। प्र. ३०. जब ज्ञान में अनादि और अनन्त पर्यायें एक साथ पा जाती तब तो उनका आदि और अन्त भी आ गया ? नहीं पाया। अनादि कहने से आदि नहीं है और अनन कहने से अन्त यह अर्थ नहीं है । प्र० ३१. अनादि कहने से आदि क्यों नहीं ? अनंत कहने से अन्त क नहीं? उ. केवलज्ञानी अनादि को अनादि रूप से और अनंत को अन रूप से जानते हैं।
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy