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________________ ( १७० ) गतियों का पात्र होता हुआ अनंतबार निगोद हो आया । अब यदि प्रदेशत्व गुरण को समझ ले तो मोक्ष का पथिक बन जावे । Я. ७. 'मैं उ० और प्रौदारिक शरीर मनुष्य हूं' इस पर अगुरुलघुत्व गुरण को लगाओ ? (१) मैं प्रात्मा ज्ञान दर्शन चारित्र आदि प्रनंत गुणों का पिण्ड ज्ञायक भगवान हूँ । (२) द्रव्यकर्म, तेजस शरीर अनंत पुद्गल द्रव्य हैं इनसे मेरी श्रात्मा का कोई भी बदले इन सबमें 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसा माने तो उसने नहीं माना । संबंध नहीं है। इसके प्रगुरुलघुत्व गुण को Яо उ० ८. मैं आत्मा और अनंत पुद्गलों में अपनापना मानने के कारण अगुरुलघुत्व गुरण को नहीं माना, तो इसका क्या फल होगा ? अनंत द्रव्यों को अपना मानना निगोद का कारण है । जैसे कोई दूसरे की स्त्री को अपना मान ले तो सिर पर जूते पड़ते हैं और उसका काला मुंह करके गधे पर चढ़ाकर देश निकाला होता है; उसी प्रकार जो अनंत द्रव्यों से अपनापना मानता है वह चारों गतियों में घूमता हुआ निगोद चला जाता है । По ६. अनंत द्रव्यों को अपना मानने वाली खोटी बुद्धि कैसे छूटे तब हमने गुरुलघुत्व गुण को माना कहलाये ? मैं आत्मा अनंत गुणों का अभेद पिण्ड हूं यह सब पुद्गल परमाणु हैं इनसे मेरा स्वचतुष्टय अलग है, इनका स्वचतुष्टय अलग है इन सबमें और मेरे में अत्यन्त भिन्नता है ऐसा जानकर अपने स्वभाव की ओर उ०
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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