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जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला ( प्रथम भाग ) प्रस्तावना
सन् १९६९ श्रावण मास में प्रथम बार, पं० कैलाश चन्द्र जी बुलन्दशहर वालों को शुभ प्रेरणा से हमको अध्यात्म सत् पुरुष श्री कांजी स्वामी के दर्शन हुए।
जगत के जोव दुःख से छुटने के लिए और सुख प्राप्त करने के लिये सतत् प्रयत्नशील हैं। परन्तु मिथ्यात्व के कारण जगत के जीवों के समस्त उपाय मिथ्या है । सुखी होने का उपाय एक मात्र अपने शुद्ध स्वरूप की पहिचान उसका नाम सम्यम्दर्शन है। ऐसे सम्यग्दशन का उपदेश ही श्री कांजी स्वामीके प्रवचनों का सार है। हमें लगता है भव्य जीवों के लिए इस युग में श्री कांजी स्वामी के उपकार करोड़ों जबानों से कहे नहीं जा सकते हैं ।
सोनगढ़ में श्री खेमचन्द भाई तथा श्री राम जी भाई से जो कुछ हमने सीखा पढ़ा है उसके अनुसार श्री कैलाश चन्द्र जो द्वारा गुन्थित प्रश्नोत्तर का हम बारम्बार मनन किया तो हमें ऐसा लगा कि हमारे जैसे तुच्छ बुद्धि जीवों की बहुलता है | अपना हित करने में निमित्त रूप से प्रश्नोत्तर के रूप में जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ होगा । हमने पंडित कैलाश चन्द्र जी से इस ग्रन्थ को छपा देने की इच्छा व्यक्त की । उनको अनुमति पाकर, मुमुक्षत्रों को सद्मार्ग पर चल कर अपना प्रात्महित करने का बल मिले ऐसी भावना से यह पुस्तक प्रापके हाथ में है ।
इस रत्नमाला में मुमुक्षुत्रों के अध्ययन के लिए अत्यन्त उपयोगी ऐसे द्रव्य, गुण, पर्याय, छह सामान्य गुण और चार अभाव लिए गये हैं। इसके अभ्यास से अवश्य ही पर में कर्ता - भोक्ता को खोटी बुद्धि का प्रभाव होकर जीवों को धर्म की प्राप्ति का अवकाश है। ऐसी भावना से ओतप्रोत होकर हम बात्मार्थियों से निवेदन करते हैं कि इस पुस्तक का अभ्यास कर अपने हितमार्ग पर आरूढ़ होवें ।
विनीत
मुमुक्षु मन्डल
श्री दिगम्बर जैन मन्दिर सरनीमल हाऊस, देहरादून ।