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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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Class+
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जिनाय नमः
श्री जैन नाटकीय रामायण
( अर्थात )
श्री रविषेणाचार्य कृत श्री पद्मपुराणजी का निघोड़े
FY लेखक व प्रकाशक क
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श्री ॐ० विमलप्रकाशजैन अग्रवाल 4595 धामपुर (बिजनौर) निवासी हाल अजमेर
| लेखक की बिना आज्ञा प्रकाशित करना मना है ||
थम संसकरण | दीपावली वीर नि०सं० २४६२ ( न्यौछावर अक्टुबर सन् १९३५
१०००
१८) मात्र
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पुस्तक मिलने का पताः - प्रा०खुन्नामलजी जैन मदारगेट अजमेर
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भूमिका।
प्रिय पाठक गण, ' मुझे अत्यन्त हर्ष है कि मैं आपके सन्मुख अत्यन्त परिश्रमके
पश्चात ये पुस्तक रखने में सफल हुआ हूं। मैंने इसमें जो भी रचा है वो सब श्री १०८ श्री विषेण आचार्य प्रणीत श्री पद्मपुराणजी के आधार पर । यद्यपि यह ग्रन्थ बहुत बड़ा और विस्तार पूर्वक है किन्तु फिर भी आज कल की आवश्यक्ता के अनुसार ही उसमें से चुन चुनकर लोगों के हृदय से असत्यता को दूर करने और सत्य वृतांत का प्रकाश करने के लिये अत्यन्त संक्षेप से रचना की है । इसमें और तो सब बातों पर उन्हीं पर प्रकाश डाला गया है जो भाज कत्ल प्रचलित हैं। विशेष बातें कंवल इतनी ही दिखाई गई हैं जो कि प्रचलित नहीं हैं किंतु उनकी आवश्यक्ता थी, जैसे रावण का जन्म उसका राज्य तथा कैलाश पर्वत को उठाना यज्ञों की उत्पत्ती कब और किस प्रकार हुई, हनुमान का जन्म और रावण से उसका क्या सम्बन्ध था, जनक की राजधानी पर म्लेक्षों का उत्तर की ओर से हमला, लव कुश का जन्म सीता की अग्नि परिक्षा ।
इसमें पांचों भागों में पांच नकल रखी गई हैं सो वो भी सुधार की दृष्टी से हैं किसी द्वेष वश नहीं हैं। फिर भी यदि इस पुस्तक में की कोई बात चुभने वाली हो तो क्षमा करें।
प्रार्थी:--विमल
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समर्पण श्रीमान् माननीय फूपाजी, (ला० मुनीवाजी साफ किरतपुरे बिजनौर ) आपने मेरे प्रति जो जो उपकार किये हैं मेरे लिये भांति भांति के कष्ट सहे हैं तथा ज्ञान की प्राप्ती कराई है जिससे मैं आज इस अवस्था में भा सका हूं । उसका मैं अत्यन्त आभारी हूं और मृणी हूं । यदि मैं उस ऋण से छूटना चाहूं तो जन्म जमान्तर में भी नहीं छूट सकता । किन्तु मुझे आपने इस प्रकार उन्नत बनाया, उसके फल स्वरूप मैं अपनी तुच्छ बुद्धी की इस कृति को श्रापके कर कमलों में समर्पण करता हूं। आशा है आप इसे हृदय से अपनायेंगे। आपके उपकारों के भार से नम्रीभूत:
'विमल' साथ ही साथ मैं ( श्री प्रद्युम्न कुमारजी रईस सहारनपुर 'पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस, सेठ मदनमोहनजी जैन उज्जैन तथा श्री रा० ब० द्वारकाप्रसादजी नहरौर ) इन सज्जनों के उपकार का आभारी हूं । श्राप सज्जनों ने मुझे ज्ञान प्राप्त करने में जिस प्रकार समय समय पर सहयोग दिया है, उसे मैं अपने सारे जीवन में नहीं भूल सकता । मैं आशा करता हूं श्राप सज्जन वृन्द अपने इस बालक की टूटी फूटी भाषा को पढ़कर हर्ष मनायेंगे
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धन्यवाद
सब से प्रथम धन्यवाद तो उस देवाधिदेव वीतराग भगवान को है जिसका स्मरण करके प्रारंभ करने से संपूर्णता को प्राप्त हई ।
द्वितिय धन्यवाद पूज्य पिताजी ( बा० खुन्नामलजी रिटायर्ड गुड्स वर्लक ) को है । जिनकी छत्र छाया में मैंने यह पुस्तक लिखो और प्रकाशित को ।
तृतीय धन्यवाद श्री डा. गुजाबन्दजी पाटनी को है जिन्होंने मुझे इस पुस्त . क लिखते समय उत्साहित किया और जो सदा मुझे उन्नत मार्ग पर लगाने के इच्छुक रहते है।
चतुर्थ धन्यवाद बा० बिरधोचन्द्रजी रारा ( जिन्होंने गानोंका संशोधन किया ) तथा पं० बनारसीदासजी प्रतिष्ठाचार्य का है । श्राप सज्जनोंने अपना अमूल्य समय देकर यह देखा कि कहीं धर्म विरुद्ध बात तो नहीं श्राई है। __इसमें दूसरे और पांचवें भाग में श्रीमान ज्योतिषस दजी की कर्ता खण्डन लावनी और द्यानतरायजी का सीता का भजन ये दो चीजें रखी गई हैं इसके लिये उक्त सज्जनों को धन्यवाद है। ___ संशोधन में जो अशुद्धियां रह गई हैं उनके लिये मुझे दुख है, पाठक गण मुझे उसके लिये क्षमा कर और शुद्ध करलें ।
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." भाग प्रथम
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मुझे बना दो।
केकसी-नहीं वेटी तू नहीं मैंही वनूंगी मेरी लाल, (उसे उठाकर उसका मुँह चूमती है) मेरी प्यारी चन्द्रनखा ।
. इम्मकर्ण-वाह नी वाह तुम तो उसे ही गोदी चढायो । हमभी गोदी चढेंगे।
रावण-तो मैं भी गोदी चढुंगा ।
विभीषण-देखो भाई साहब आप सबसे बडे हो । भाप गोदी मत चढो । माताजी को कष्ट होगा।
रावय-(विभीषण को गोदी लेकर ) मेरे प्यारे विभीषण तुम बडे धर्मात्मा हो । (कुम्भकर्ण को मां से लेकर ) श्राओ कुम्भकर्ण तुम भी मेरी गोदी मा जाओ, मातानी को कष्ट मतदो। (इतने ही में ऊपर से बाजों की आवाजें आती हैं बहुत हल्ला सुनाई देता है, आकाश मार्ग से सेना जा रही है रावण के सिवाय तीनों माता से चिपट जाते हैं।
रावण दृढ़ता से ऊपर को देखता रहता है, वह । अभी मेवल बच्चा ही है। धीरे धीरे सव
, बन्द होजाता है।) रावण-माताजी, यह बाकाश मार्ग से किसकी सेना जा रही है।
केसी-बेटा ये वैश्रवण की सेना- है । जो तेरी मोसी का बेटा है।
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(१४)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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रावण-माता, यह मालूम होता है अभिमान से , चूर्ण हो
___ केकसी-हां पुत्र यह बहुत पराक्रमी, है । सब विद्यायें इसको सिद्ध हैं यह सब पृथ्वी. पर श्रेष्ठ है। राजा इन्द्र का लोक पाल है । इन्द्र ने तुम्हारे दादा के बड़े भाई का युद्ध में हरा कर उन्हें कुल परम्परा से चली आई राजबानी - लंका से निकाला
और इसको वहां रक्खा है ! इसी लका के लिये तुम्हारे पिता अनेक उपाय करते हैं किन्तु वह प्राप्त नहीं कर सके । हम लोग अपने स्थान से भृष्ट हैं और अनेक प्रकार का चिनायें सहते हुये इधर उधर फिरते हैं । पुत्र हमें बह दिन देखने की अभिलाषा है जब तुम अपने दोनों भाइयों सहित अपना · यश जग में फैला कर वैश्रवण को और अभिमानी राजा इन्द्र को हरा कर ; लंकापुरी में फिर से खुख पूर्वक, राज्य करोगे'। अपने बैंडों की सम्पत्ति - 'को प्राप्त करोगे।
विभीषण-माता आप इतने दुख भरे बचन क्यों बोलती हो आफ्ने वीर पुत्रोंको जन्म दिया है । हमारे बड़े भाई साहब रावण का पर क्रम कुछ कम नहीं है । इनकी एक ही फटकार से वह लंका को छोड़ कर भाग जायगा ।
रावण-है माता मैं गर्वके बचन नहीं बोलता, किंतु तो भी इतना अवश्य करूँगा कि पृथ्वी पर के सारे विद्याघर भी आदि
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प्रथम भाग।
(१५)
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एकत्र होकर मुझसे युद्ध करें तो हार ही मान कर जायेंगे। किन्तु हमारे कुना में पहले विद्या साधने की रीति चली आई है। इस लिये पहले मैं विद्या साधने के लिये दोनों भाइयों को. साथ लेकर बन में जाता हूँ।
केकर्स:-जाओ, पुत्र तुम सबसे पहले अपने कुल की रीत निमाओ।
(तीनों पुत्र माताको नमस्कार करके जाते हैं। आयो वेटी चन्द्रनखा तुम्हारे पिता के पास चलें ।
(दोनों चली जाती हैं।)
दृश्य समाप्त।
अंक प्रथम---दृश्य छटा (भयानक बनम तीनों भाई ध्यान में लीन हैं। नाना प्रकार के डरावने शब्द हो रहे हैं। भूत पिशाच आदि
आ आ कर नाचते हैं। उनका ध्यान नहीं डिगता फिर एक देव अपनी दो स्त्रियों सहित आटाहै।)
१ स्त्री-अहा ! ये क्या ही सुन्दर युवक हैं । इनकी ये भवस्था खेल कूद के योग्य है। बन में बैठकर बप करने योग्य नहीं है।
.२ स्त्री-इनके माता पिता कैसे निर्दई हैं जो उन्होंने ऐसे युवकों को बनमें जाकर तप करने की आज्ञा दी।
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(१६)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
· १ स्त्री-(पास में जाकर ) हे युवकों ! ये अवस्था तुम्हारे लिये तप करने की नहीं है। उठो! अभी कुछ नहीं 'बिगडा है, तुम लोग अपने घर जानो।।
२स्त्री -क्यों तुम लोग अपने इन" कोमन शरीरों को कष्ट दे रहे हो, बोलो!
१ स्त्री-अरे, यह तो बिल्कुल पत्थर की शिलाके समान भचल हैं।
स्त्री-क्या किसी कारीगरने लेकंडी के खिलौने बना कर तो नहीं रख दिये जिससे स्त्रियां भायें और इन्हों पर मुग्ध हों।
देव-नहीं ये रत्नश्रवा के तीनों पुत्री हैं । यहां पर विद्या साधने के लिये आये हुवे हैं । ये मूर्ख हैं । इनकी बालक बुद्धि है। मैं अभी 'अपने सेवकों को बुलाकर । इन्हों का ध्यान डिगाता हूँ। (ताली बजाता है, कुछ देव आकर उपस्थित होते हैं।) - देखो जिस प्रकार भी बने तुम इन्हों का ध्यान डिगाओ।
रासस जो भाज्ञा महाराज । (देव अपनी दोनों स्त्रियों सहित एक ओर खड़ा होजाता है। बह तीनों निश्चल बैठे हैं। देव लोग नाना प्रकार की क्रीडा करते हैं। उनके कानों में बहुत भयावने
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(३०)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
बाप-लेकिन सजमल तो बहुत छोटा है वह तो अभी चौदह का ही है । और उसके पास जाते भी शर्माता है।
मां-बस एकही बात पकडली, आज कल के छोरे आस्मान से बातें करते हैं। आपके सामने वह ऐसा ढोंग बनाता है जिससे आप उसे सीधा समझे । वैसे वह बडा गुन्ना है । तुम्हारे हमारे सब के कान काटले ।
चाप-काटता होगा, मुझे तो ताज्जुब होता है कि गर्भ कैसे रह गया । अरे याद आया, गर्भ नहीं होगा। वैसे ही पेट में खराबी होगई होगी सो महावारी बन्द होगई है। किसी को दिखाया भी ?
मां--तुम्हें तो सिवाय बहम के और ताज्जुब के दूसरा काम ही नहीं, दिखाया कैसे नहीं, दाईने तीन महीने का बताया है।
बाप-अच्छा जाओ ( इतने लोगों के सामने मत कहो वरना ये हंसी उडायेंगे )
(चली जाती है) राजमल-(पाकर ) पिताजी, क्या सोच रहे हो, खुशी मनाओ । 'अबतो बहू के छोरा होगा ! मैं उसे खूब खिलाया करूँगा। । . बाप-( चपत मार कर. ) छोरा होगा र लगाई, चौदह बरस का बैत्त हो गया अभी तक खाक की भी अकल नहीं आई।
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भाग प्रथमा
(३१)
(राजमल रोता है। बाप मनाता है। राजमल उठ
जाता है । चुप हो जाता है) राजमल-मापने मुझे क्यों मारा ?
बाप-बेटा मैंने कोई दूसरा समझा था । अच्छा तुम अब गेंद नहीं खेलते ? खूब खेला करो खाया करो, तुम्हें यहां किस बात की कमी है ।
राजमल-आप मुझे नई गेंद लिवा देना, तब मैं म्युनिसपिल्टी के ग्राउन्ड में खेलने जाया करूँगा।
वाप-वहां जाने की क्या जरूरत है, तुम्हारे बैल खाने की जमीन ही गेंद खेलने को काफी है।
राजपल-नहीं पिताजी यहां नहीं। यहां तो मेरी गेंद उड़न छ होजाती है।
वाप-बेटा, उड़न छु किसे कहते हैं।
राजमल-बाह, पिताजी आप उड़न छू का भी मतलब नहीं समझते।
वाप-नहीं वेटा तू बतलादे क्या बात है।
राजमल-देखो पिताजी सुनो, एक दिन मैं गेंद खेल रहा था सो, वह दूसरी तरफ जाकर भुस की कोठरी में जा पड़ी, जब मैं वहां पर लेने गया तो बहूजी और कल्लू वहां पड़े हुवे थे। मैंने कल्लू से पूछा कि यहां गेंद आई है ? उसने कहा कि
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(३२)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
यहां गेंद नहीं भाई । अगर पाती भी है तो उड़न छु होजाती है। इस लिये धब कभी भी यहाँ गेंद लेने न आना । इस लिये पिताजी यहाँ पर खेलकर कौन अपना नुकसान करे ।
पिताजी-(आश्चर्य से ) कौन कल्लू ! राजमल-वही काला कल्लू जो बैलोंको भुस खिलाता है।
पिताजी-अच्छी बात है। मैं अभी जाकर उसे अपने घर से निकालता हूँ।
(चला जाता है, राजमल रह जाता है। राजमल-हाजी अब तो गेंद श्रायगी । बहू-( आकर ) प्राणनाथ ! ।
राजमल-जाजा, फिर गेंद का नाम सुनकर उडन छू करने आगई।
बहू-नहीं मैं गेंद उडन छू नहीं करूँगी। मैं तुमसे प्यार करूँगी।
राजमल-अच्छा प्यार करेगी तो पहले मुझे गोदी चढाले । ।
बहू-अब तुम बडे हो गये । अब मैं गोदी नहीं चढाती,
राजमल-बडा मैं ही थोडे ही हो गया तू भी तो हो गई। और तेरे तो अब छोरा होगा, मुझे खित्ताने को दिया करेगी?
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कहीं की ।
प्रथम भाग ।
बह - खिलाने को क्या वह तो तुम्हारा ही होगा । राजमल — कहीं लड़कों के भी छोरे होते हैं ? बावली
स्त्री हूँ ।
( ३३ )
वह प्राणनाथ, श्राप नाराज न हों, मैं तो आपकी सती
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राजमल - जैसी सीता सती थी वैसी ही है ? यहू - इसमें क्या कुछ संदेह है ?
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राजमल - ठीक रामचन्द्रजी कालेथे ! उनकी स्त्री सीता सती थी | लक्ष्मण उनका सेवा किया करते थे। ऐसे ही हमारे यहां कल्लू है उसकी स्त्री तुम हो। और तुम अपने को सती कहती हो, तब तो मुझे तुम्हारी पूजा करनी चाहिये । क्यों कि किताबों में लिखा है कि सती की सेवा करना परम धर्म है ।
बहू -- तुम तो मेरी हँसी उड़ाते हो ! कैसा कल्लू ! कल्लू को मैं क्या जानूं ।
राजमल - - पिताजी कल्लू को घर से निकाल रहे हैं तुम्हें भी उनका बन के लिये साथ करना चाहिये । मैं तो उसी के साथ जाउँगा ।
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( चला जाता है । वह को सोत्र होजाता है । बहू --- हाय मेरे माता पिता ने मुझे इससे व्याह कर मेरी तकदीर फोड दी | मेरी बहन शान्ती की सगाई की थी, उसका
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(३४)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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दूल्हा उससे चार बरस बडा था । वह सुख से अपने पती के साथ प्रेम पूर्वक रहती है। यहां पर आकर बेचारे कल्लू का सहारा था। उसको भी अब ये निकाल रहे हैं। अब मैं अपनी बाली उमर किसके संग बिताऊँगी।
गाना बाली उमर नादान, छोटासा मेरा बालमा । रंग नहीं जानत, ढंग नहीं जानत, ठंग नहीं जानत। प्रेम का है अनजान, नन्हा सा मेरा बालमा बा०॥ जोवन मेरा छल छल छलके, छल छल छलके । पीया मिलनको जीया ललके, जीया ललके । तड़फत हूँ हैरान, आवे ना मेरा बालमा ॥बाली०॥
(सामने से रामू को आते देख कर.) बह-राम आरहा है, ( रोने लगती है)। राम-बहूजी क्या बात है ? कहिये तबियत तो ठीक है। बहू-हां जरा पैर में दर्द है। रामू-अगर सरकार का हुकम हो तो पैर दबा हूँ ? बहू-हां जरा दरद जाता रहेगा। (रामू पैर दबाता है। वो फिर रोने लगती है।) रामू-क्यों बहूजी भब कहां दर्द है।
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प्रथम भाग,
(४७)
गाना श्री इन्द्र देव महाराजा, बज रहा खुशी का बाजा। हां गायो, हां गायो, हर्षित होकर यश गायो॥ जिनकी महिमा अगणित है, सबही में जिनका हित है। हां गायो, हां गायो, हर्षित होकर यश गायो॥ (पटा क्षेप) दृश्य समाप्त
अंक द्वितिय-दृश्य छटा (वानर वंशी महाराजा सूर्यरजका किष्किन्धा में दर्वार.). ( पास में ही उनके दोनों पुत्र वाली और सुग्रीव,बैठे हैं।)
सूर्यरज--पुत्र बाली, तुम राज कार्य में सर्वथा योग्य हो। मैं भव वृद्ध होगया हूँ। यह संसार महा दुख दाई है। नहीं मालूम मैं कितनी बार चौरासी लाख योनियों में भ्रमा हूँ। मैंने यह मनुष्य जन्म पाया है। इसको सफल करना चाहिये । तुम इस राज्य सिंहासन के स्वामी बनो मैं बन में जाकर तपस्या करूँगा। और कर्मों को काटने का उपाय करूंगा।
बाली-महाराज, मैं यद्यपि इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य हूँ किन्तु आपकी भाज्ञा का. उलंघन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ।
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(४८)
भी जैन नाटकीय रामायण |
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सूर्यरज-पुत्र ! तुम्हारी पितृभक्ति से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। जो मैं तुम्हें राज्य तिलक करता हूं। ( राज्यतिलक करता है) बेटा, सुग्रीव | तुम्हें मैं युवराज पद देता हूं। बाली, इस बात का सदा ध्यान रखना कि प्रजा किसी प्रकार दुख न देखे । तुम्हारे चाचा रक्षरज के पुत्र नल और नील उनको भी तुम अपना भाई समझ कर ही उनसे व्यवहार करना ! ,
सुग्रीव-पिताजी भाप हम लोगों को अकेला छोड़ कर जाते हैं इससे मुझे बड़ा दुख होता है।
सूर्यरज-पुत्र इसमें दुःख की क्या बात है । यह तो हमारी परम्परा से चनी' भाई नीति है। मैं तो अपना मना करने जा रहा हूँ। संसार में रहते २ मैं थक गया हूं सो उससे विश्राम पाने के लिये बन में जारहा हूं। तुम अपने बड़े भाई बाली को अपना सब कुछ समझो । वह किसी प्रकार तुम्हारे ऊपर भापत्ति नहीं माने देगा। - -
- 'वानी–पिताजी ! पाप हमें छोड़ कर धन में जा रहे हैं । इस समय हमें दुख और भानन्द बराबर होते हैं।
बाली और सुग्रीव का गाना । जा रहे छोड़ कर हो बन. को,
कुछ दुःख भी है आनंद भी है।
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प्रथम भाग।
(४९)
हम पिता कहेंगे अब किसको,
___ इसका बस हमको रंज भी है ॥ अब तक अानन्द उड़ाते थे,
चिन्ता हमको कुछ भी ना थी। रह गये अकेले हम दोनों,
अंधेर भी है और चन्द भी है ॥ आकर तुम बन में तप द्वारा,
कर्मों की सेना जीतोगे। अविकार राज्य को पाओगे,
बस इस ही से अानन्द भी है ॥ सूयरज-पुत्र, तुम दोनों बड़े ही बुद्धिमान हो । इस समय संसार की दशा मेरी आँखों के सामने चित्र पट बना रही है।
वह देखो नरकों के प्राणी, दुख उठा रहे कैसे कैसे । बह रही रक्त की नदियां हैं, गिर रहे अंग कट कर कैसे ॥ १ हा, भूख प्यास चिल्लाते हैं, दाना पानी नहिं पाते हैं। निज कानी के फच पाते हैं, नहीं कह सकता हूँ किन जैसे ॥ २ तिर्यंचगती में भी देखो, सब प्राणी दुःख उठाते हैं।
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(५०.)
श्री जैन नाटकीय रामायण।
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हैं बोझ खींचते..अरु पिटते, भूखे प्यासे दुखिया भैंसे ।। ३ जो बंधे. कसाई के घर में, भय खाते खैर मनाते हैं। किन्तु कटते हैं बेचारे, उसके हाथों भुट्टे जैसे ॥ ४ जंगल में भी जो रहते हैं, वो एक एक से डरते हैं ।
आखेट खेलने जो जोते, निर्देई होकर मोरे ऐसे ॥ ५ ॥ कोई कहे देव सुख पाते हैं, वो भी ईी से जलते हैं । जब मायू थोड़ी रहजाती, रोते विधवा नारी जैसे ॥६॥ मनुजों में भी ये ऊँच नीच, का भाव सदा दुख देता है । इक राजा बनकर बैठा है, एक मांग रहा धेले पैसे ॥ ७ ॥
। पर्दा गिरता है । दृश्य समाप्त
अंक द्वितिय--'दृश्य सातवां कुम्भकरण-( भागा भाकर) कहां गया, कहां गया वह दुष्ट खर दूषन ?
विभीषण-( दूसरी ओर से आकर ) वह निकल गया। हमारी बहन चन्द्रनखा को हर कर ले गया। · कुंभकरण-मैं उसे इसका फल दूंगा । अभी उसके नगर पर धावा बोल कर उसे हराऊंगा और बहन को वापिस लाऊंगा।
विभीषण-जाने दीजिये माई साहब । वह बहुत बलवान
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प्रथम भाग।
(५१)
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है हमारे से नहीं जीता जायगा । उसे चौदह हजार विद्यायें सिद्ध हैं । दूसरे इस समय बड़े भाई साहब भी उपस्थितनहीं हैं।
कुंभकरण-क्या हुआ, यदि मैं युद्ध में लड़कर मर भी जाउँगा तो कोई बात नहीं, किन्तु उससे युद्ध अवश्य करूँगा।
रावण-( आकर आश्चर्य से ) क्या बात है । तुम लोग क्यों घबरा रहे हो?
विभीषण-महाराज राक्षस वंशी महापराक्रमी राजा खरदूषन हमारी वहन चन्द्रनखा को छल से उठा ले गया ।
रावण-क्या कहा बहन को उठा ले गया ? उसने इतना बड़ा काम किसके बूते पर किया । क्या उसे मेरे बलका, पता नहीं है । मैं अभी जाकर उसे छुड़ाकर लाता हूँ।
विभीषण-भाई साहब की आज्ञा होतो सेना सजाई जाये।
रावण-नहीं मैं अकेला ही उसके लिये काफी हूँ। तुम दोनों यहां रहकर नगर की रक्षा करना । (जाने लगता है। पीछे से मन्दोदरी आकर पैर
पकड़ लेती है), रावण-क्यों मन्दोदरी तुम मुझे क्यों रोकती हो । क्या एक क्षत्राणी का यही धर्म है कि वह रण में जाते हुवे पतीको रोके ।
मन्दोदरी-नहीं पतिदेव, मेरा यह धर्म नहीं है कि मैं
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(५२)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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आपको रण में जाने से रोकू। 'रावण- तो फिर ?
मन्दोदरी-एक पतीवृता नारीका यह धर्म है कि वह आपत्ति में पड़ने से अपने पती की रक्षा करे । - रावण-कैसी आपत्ति । रावण के लिये क्या किसी ने आपत्ति का नाम सुना है? __ मन्दोदरी---यह सच है प्राणनाथ, किन्तु वहं चौदह हजार विद्याओं का स्वामी है । आप उससे कदापि नहीं जीत सक्ते ।
रावण-मन्दोदरी तुम पतिवृता स्त्री होकर अपने पती को हतोत्साहित करती हो।
मन्दोदरी नहीं इसमें एक और भी रहस्य है । रावण--यह क्या ?
मन्दोदरी-वह यह कि यदि आप उससे पराजित होण्ये तो श्रापका मान भंग होगा, और यदि वह युद्धमें हार गया तो आपकी बहन बिधवा होजायगी । वह दृषित हो चुकी है। यदि आप उसे ले भी आयेंगे तो कोई दूसरा नृपति स्वीकार नहीं करेगा । इस प्रकार आपका घोर अपयश फैलेगा । इस लिये आप मेरा कहना स्वीकार कीजिये और उसके प्रति अपना वात्सल्य भाव दर्शाइये । क्यों कि श्रापकी बहन के लिये बिना खोजे ही बह बहुत योग्य बर मिल
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प्रथम भाग।
(५३)
गया है। आपके धन्य भाग्य हैं। जो ऐसे पृथ्वी पर श्रेष्ठपुरुष से आपकी बहिन का गंधर्व विवाह हुआ।
रावण-प्रिये तुम सत्य कहती हो । मैं तुम्हारी बात को स्वीकार करता हूं तुम्हारे जैसी विचार वान शुभ मंत्रणा देने वाली नारी संसार में बहुत कम जन्म लेती हैं।
(सव चले जाते हैं। अंक द्वितिय-दृश्य आठवां
(बाली का दर्बार) दूत-(प्रवेश करके ) महाराज की जय हो । लंकापुरी से रावण का दूत भाया है। मापसे भेंट करना चाहता है । बाली-उसे आदर पूर्वक यहां बुला लाओ।
(दूत जाता है रावण का दूत आता है) रावण का दूत-महाराज वाली की जय हो। बानी-कहो महाराजा रावण सकुटुम्ब सुखी हैं ? वहां से क्या समाचार लाये हो?
दूत-महाराज की कृपा से सब प्रसन्न चित्त हैं । महाराजा धिराज रावण ने आपके पास समाचार भेजे हैं कि आपके पिताजी जिनको हमने संकट से बचा कर राज्य दिया था अब वह बन में दीक्षा ले गये हैं। हम आपके प्रति सहानुभूति प्रगट करते हैं और भाज्ञा करते हैं कि आप हमारे यहां पाकर हमें प्रणाम करो
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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
हमारा प्रेम आपके प्रती आपके पिता से भी अधिक है। आप हमें अपनी बहिन श्रीप्रभा ब्याहो, और निमस्कार करो जिससे परम्परा से चली, भाई, मित्रता निभती चली जाय ।
" बांझी-तुमने जो कहा सो मैंने सुना । मैं और सब बातें स्वीकार करता हूं किन्दु मेरी यह प्रतिज्ञा है कि सिवाय देव शास्त्र और गुरु के किसी को मस्तक नहीं. नवाऊंगा मैं तुम्हारे साथ बँकापुरी को चल सकता हूं अपनी बहन श्रीप्रभा का विवाह रावण से कर सकता हूं। किन्तु प्राण जाने पर भी अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता।
दूत-हे बानर वंश में श्रेष्ठ, · तुम रावण के वचनों का पालन करो । राज्य पाकर गर्व न करो । या तो दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करो या आयुध पकड़ा । या तो रावण को शीष नवाओ या बँचकर धनुष चढ़ाओ । या तो रावण को आज्ञा को कर्ण आभूषण करो नहीं तो धनुष का पिनच बैंचकर कानों तक लाओ, या तो रावण के चरणों के नखों में मुख देखो । या खडग रूपी दर्पण में मुंह देखो। अर्थात या तो जाकर उन्हें शीस नवाओ, या युद्ध के लिये तैयार होजाओ.। . . . . . . , - योद्धा 'अरे दुष्ट दृत क्यों ऐसे कठोर वचन स्वामी के 'लिये बोलता है। मालूम होता है तेरी मृत्यु निकट है । ले मरने
को तैयार होजा । . . . . . .
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प्रथम भाग।
(५५)
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बाली-नहीं, इसे मत मारो । इसमें इसका कोई अपराध नहीं है। जिसका अपराध है, जिसके बूते पर यह बोल' रहा है, मैं उसे ही जाकर मजा चखाता हूं।
मंत्री-महाराज शान्त होइये । रावण की समानता 'आप नहीं कर सकते । वह इस समय बहुत बलवान है। सारे पृथ्वी मण्डल पर श्रेष्ठ है । श्राप उससे युद्ध करके पराजय को प्राप्त होंगे।
बाली-मंत्री तुम यह क्या शब्द कह रहे हो । मनुष्य एक वस्तु को तभी तक सबसे सुन्दर गिनता है जब तक वह उससे सुन्दर वस्तु नहीं देख लेता । मेरा बल पर।क्रम तुम्हें ज्ञात नहीं है। ( तलवार खींचकर) मैं भी उसका सारा अभिमान चूर करुंगा । (तलवार छूटकर गिरती है) यह क्या, मेरे हाथ में से खड़ग क्यों छूट पड़ा ? वस वस हो चुका, मैंने जितना राज्य करना था कर लिया। मेरे हाथ इस बात के लिये राजी नहीं होते कि जिनसे में नित्य.प्रती मन्दिर में जाकर पूजन प्रक्षाल करता हूँ। उनसे लाखों जीवों की हत्या करूं। इस कारण मैं साब राज्य कार्य के योग्य नहीं ।
सुग्रीव-भाई साहब आपके विचारं एक दम कैसे बदल गये ? रणवीर होकर आप धर्मवीर क्यों बने जारहे हैं ? आपके बिना इस राज्य भार को कौन सम्हारेगा ।
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( ५६ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
बाली -- भाई सुग्रीव, मै तुम्हें राज्यतिलक करता हूँ । तुम जैसा उचित समझो वैसा करना । चाहे युद्ध करना, चाहे जाकर उसको प्रणाम करना । मैं ऐसे संसार में जिसमें एक मनुष्य दूसरे का विरोधी है, रहना नहीं चाहता । मैं भी पिताजी की तरह
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दिगम्बरी दीक्षा धारण करूँगा ।
सुग्रीव - नहीं भाई साहब, यह नहीं हो सकता | आपके. आसरे पर मुझे पिताजी ने छोड़ा अब भापभी मुझे मकेला छोड़ कर जारहे हैं । पिताजी तो वृद्ध होगये थे इस लिये वह बन में
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गये श्राप तो अभी युवक ही हैं ।
बाली सुग्रीव तुम चिन्ता न करो । मुझे इस सत्कार्यं में जाने से न रोको मुझे संसार भयावना दिख रहा है । जो मैं तुम्हें राज्यतिलक करता हूं । सुख पूर्वक राज्य करना । ( राज्य तिलक करते हैं . )
सुग्रीव -- आप मुझे अकेला छोड़ कर जा रहे हैं मुझे दुःख होता है ।
ין
गाना
आज मैं संसार में हूं, हा ! अकेला रह गया । भ्रात के जाने से मेरे, चित्त में दुख बह गया || इक तो वियोग पिताका था, फिर आप भी जाने लगे। श्रापही बतलाईये अब, किससे नाता रह गया | पर्दा गिरता है । दृश्य खतम होता है । द्वितिय अंक समाप्त ।
·
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प्रथम भाग।
(५७)
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अंक तृतीय
'इश्य प्रथम स्थान-कैलाश पर्वत की तलहटी (कैलाश के ऊपर बहुत से जिन चैताल्य बने हुवे हैं। पाली मुनि तपस्या कर रहे हैं। रावण अपनी
स्त्री और मंत्री सहित आता है।) रावण-चलते चलते मेरा विमान क्यों रुक गया ? मंत्रीजी क्या आप इसका कारण बता सकते हैं ? ___ मंत्री महाराजाधिराज, यह कैलाश पर्वत है। यहां पर भनेक जिन चैत्यालय हैं । महा मुनि बैठे हुवे तपस्या कर रहे हैं इनमें यह शक्ति है कि कोई भी विमान बिना बन्दना किये हुने उलांघ कर नहीं निकल सकता।
रावण-अच्छा मैं समझा, जिन धर्म का बहुत उच्च महत्व है। ( पर्वत की ओर देख कर ) यह सामने कौनसे मुनि तपस्या कर रहे हैं ? मालूम होता है यह बाली है इसने मुझसे वैर निकालने के लिये ही मेरा विमान रोका है। ........: मरे दुष्ट बाली ! तू क्यों यह झूठी दिखावटी तपस्या कर रहा है। तू कषायों से प्रज्वलित हो रहा है और वीतरागता का ढोंग रचता है । तूने मुझसे बैर निकालने के लिये मेरा विमान रोका है। अच्छा देख मैं तुझे अभी इसका फल देता हूं। ,
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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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(कैलाश पर्वत को खोदता है। उसके अन्दर घुस कर पर्वत को उठाता है। सारी प्रथ्वी पर
. भूकम्प आजाता है।) 'पाली--मालूम होता है. यह सब रावण का कर्तव्य है। मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं । चिन्ता इन जिन चैत्यालयों की है पर्वत को हानि पहुंचने से इन्हें हानि पहुंचेगी। (पैर के अंगूठे को दबाते हैं । गवण पर्वत के नीचे दब जाता है। बिल्कुल कछुवा बन कर हा हा कार करता है । देव मुनि के ऊपर फूलवर्षाते हैं। रावण की रानी बाली से
प्रार्थना करती है। रानी-छोड़िये छोड़िये भगवन ! आप परम कृपालू हैं । पति के मरण से मैं विधवा कहलाऊंगी । दया कीजिये । (बाली पैर के अंगूठे को ढीला छोड़ते हैं। रावण
बाहर निकल कर आता है।) रावण-क्षमा, क्षमा भगवान क्षमा, मैंने जो यह घोर अपराध किया इसके लिये मुझे क्षमा कीजिये । आप परम तपस्वी हैं 'आपने जो यह व्रत धारण किया था कि मैं सिवाय देव शास्त्र
और गुरु के किसी को नमस्कार नहीं करूंगा' सो वह श्रापका ' व्रत अटल है। आपका नाम भी बाली है और आपके गुण भी
बली हैं। मेरी मूर्खता थी कि मैंने आपके सच्चे स्वरूप को न
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प्रथम भाग।
(५९)
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समझा । आपने मुझे प्राण दान दिया उसके लिये मैं कहां तक आपकी स्तुति कर सकता हूं।
बाली-यदि तुम इस घोर अपराध का प्रायश्चित लेना चाहते हो तो भगवान की भक्ती में मन लगाओ जिससे यह जीव उनके पदको प्राप्त करता है।
रावण-धन्य है भापको, भापके लिये शत्र और मित्र एक समान हैं। धन्य धन्य गुरु देव आपको, करते हो सबका कल्याण । वीतरागता है दृढ तुमको, शत्रु मित्र सब एक समान ।। अनहित करता के हित करता, शत्रू के हो मित्र तुम्हीं। परिपह विजयी, हित उपदेशी, शान्ति के हो चित्र 'तुम्ही ॥ निज पर के हित साधन में तुम, निश दिन तत्पर रहते हो। ऐसे ज्ञानी साधु तुम्ही हो, दुख समूह को हरते हो ।
आया गुरु शरण मैं तेरी, अपराधी अन्यायी हूँ। दूर होंय सब दुष्कृत मेरे, तुम पर्वत मैं राई हूँ ॥
धरणेन्द्र--(प्रगट होकर ) रात्रण, मैं भगवान का भक्त हूं। और इन श्री १०८ मुनिराज़ बाली महाराज का शिष्य हूँ।
मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ | तुझे भाई समझकर यह.अमोघ विजया . नामक शक्ती देता हूं। यह संकट में तेरे कम आयेगी । इसका वार
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(६०)
भी जैन नारकीय रामायण ।
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कमी खाली नहीं जायगा । तेरे मारने वाले पर भी यह अवश्य अपना असर दिखायेगी। ..
रावण-मैंने अपने अपराध क्षमा कराने के लिये गुरु देव की प्रार्थना की थी, इस लिये नहीं, कि तुमसे शक्ती ग्रहण करूँ, यदि तुम मुझे भगवान की भक्ती के उपलक्ष में यह देते तो मैं कभी इसे ग्रहण नहीं करता । क्यों कि जिसकी भक्ती से मोर के सुख मिलते हैं तो मैं ऐसी छोटी सी वस्तु को लेकर क्या करता । किन्तु तुम भाई के नाते से दे रहे हो। इस लिये इसे सहर्ष स्वीकार करता है।
सब मिलकर गाते हैं। जय जिनेन्द्र,जय जिनेन्द्र,जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र
पर्दा गिरता है। ___ अंक तृतिय-दृश्य द्वितिय (बिल्कुल फटे मेष में राजमल की बहू आतीहै।)
बह-मन्धकार, अन्धकार, भान मेरे लिये चारों ओर
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प्रथम भाग।
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अन्धकार है। पक्षियों, तुम्हें, शरण है। पशुओं, तुम्हारे लिये भी शरण है । जरासी चींटी के लिये इस संसार में शरण है। किन्तु मैं अशरण हूं। मैं कुल्टा हूँ ! पापिनी हूं!! कलंकिणी हूं !! पतिदेव, मैंने तुम्हें काम के आवेश में पाकर त्याग दिया । पाह
आज मुझे सारा संसार त्यागे हुवे है । कहां गये, कहां गये ? मेरे घन और यौवन के साथी कालू और राम ! जिन्होंने मुझे इस अवस्था तक पहुँचाया । मेरे विनाश कर्ता कहां हैं ? रामू ! तूने मुझे सारी उमर निभाने का वचन दिया था। अब तू क्यों मुझे छोड़ बैठा है ? नहीं, नहीं, तेरा कोई अपराध नहीं है । तो फिर मैं किसका अपराध कहूँ ? ये सब मेरा ही अपराध है । नहीं, नहीं, ये अपराध दुष्ट माता पिता का है। मेरे साथ की सहेलियां अपने पतियों के संग चैन से रहती हैं । और पतिव्रता कहलाती हैं। मेरा वेजोड़ विवाह करके माता पिताने मुझे कलंकिणी बना डाला । हे ईश्वर मैं तुमसे यही वर मांगती हूँ कि ऐसे निर्बुद्धि अन्धे माता पिता को कभी भी संतान न हो । मेरा अन्त:करण कहता है मुझे दुलहिन बनाने वाले माता पिता का नाश हो। मेरा जोड़ा मिलाने वाले नाई का नास हो मेरे फेरे डालने वाले पुरोहित के घर में यही दशा हो जो मेरी हो रही है।
ओ अन्धे पुरोहित ! सब के सब निर्बुद्धी थे तो क्या हुआ । तु तो पढ़ा लिखा था । नीति का जानकार था वेदों का ज्ञाता था।
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(६२.)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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क्या तुझे. यह नहीं; सुझा कि मैं यह क्या करा रहा हूं। हे भारत माता तु ऐसे लोभी स्वार्थ में अन्धे पुरोहितों को क्यों जन्म देती है? श्रो:समाज के पंचो, तुम लोगों ने मेरे विवाह में. लड्डू कचौड़ी खाये और अपनी. थौंदों पर हाथ फेरा । किन्तु किसी ने मेरे भविष्य की ओर ध्यान नहीं, दिया । तुम लोगों को मेरा यही श्राप है कि तुम्हारी उन थौंदों में कीड़े पड़ें। जो दशा आज.मेरी हो रही है वैसे ही तुम्हें भी कोई आश्रय देने वाला न मिले । माज़ भारत वर्ष में भबलाओं की यह क्या दुर्दशा हो रही है ? समाज हमें पशु समझती है, जिघर चाहती है ढकेल देती है। धन के लालच में मां बाप हमें बूढों से ब्याह देते हैं । हमारे विधवा होने पर समाज हम से.दुराचार करती है । बाद में ठुकराती है और हमें कलंकिणी बना कर हमारे ऊपर थूकती है। क्या कहीं हम भवलाओं का न्याय नहीं है ?
गाना आज निर आश्रय हूं मैं, यह क्या मेरी तकदीर है । पेट खाली उघड़ा तन, यह क्या मेरी तकसीर है ॥ ब्याह किया छोटे पती से, मात पित ने हाय मम। थी जवानी मुझमें जब, कैसे बंधे मेरि धीर है ॥
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प्रथम भाग।
(६३),
छोड़ कर मैंने पती रामू के संग शादी करी । होगया जेवर खतम, तब कौन किसका भीर है ||" ( कुछ लोग उधर से होकर निकलते हैं वह पैसा मांगती है। इसके पल्ले में थूक देते है। लड़के आते हैं वह उसे ढले मारते हैं। नारियां आती हैं वह नाख पर कपडा रख
कर बच कर निकलती हैं।). सब लोग मुझ पर थूकते, लडके हैं ढेले मारते । नारी सिकोड़ति नाख हैं, यह क्या मेरी तकदीर है। (उसके पिता और ससुर उस रास्ते से आते हैं) ससुर-अाजकल कहीं चैन नहीं । . .
पिता-घर से चले कि हरिद्वार में जाकर शान्ति मिलेगी यहां पर .यह भिखमंगे जान खाये जाते है।
अबला-अरे दुष्टों तुम्हें हरिद्वार में नहीं तुम्हें सातवें नरक में शान्ति मिलेगी।
ससुर-ओ. स्त्री, क्या बकती है चुप रह ।
पिता-आजकल इन भिखंमगों के दिमाग चढ़ गये हैं। समझते हैं कि हमें गरीब जान कर हरएक कोई छोड़ देता है। इससे मन चाही नक देते हैं।
अबला--तुम लोग. श्रन्धे हो । तुम्हारी आँखें नहीं हैं।
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(६४)
श्री जैन नाटकीय रामायण।
यह केवल दो सुराख हैं जो तुम हमें भिखमंगा समझते हो। हम तुम्हारे अत्याचारों के शिकार हैं। समझो न भिखमंगी हूं मैं, मैं आग की पुतली हूं वो । करदे भसम एक आह से, मैं प्रलय की कारी हूंघो । नमूना अत्याचारों का, तुम्हारे सामने हूं मैं । तुम आंखें खोल कर देखो, तुम्हारी कामनी हूं मैं ॥ '
पिता हैं, कौन ? क्या तू सचमुच मेरी पुत्री कामनी है.। बता वेटी इस तेरे भाग्य में मेरा क्या अपराध जो तु मुझे कोसती है।
लमुर-और देखो तो कैसी वेशरम है, सुसरे के सामने ऐसे मुंह खोले हुवे पटापट बोल रही है।
अबला-अपराध ? मुझसे अपराध पूछते हो? तुम्हीं ने तो मुझे इस अवस्था तक पहुंचाया है।
ससुर-अरे कुछ तो शरम कर।
अबला-बस, बस, चुप रह, ओ लोभ के पुतले, अन्याय के बाप । बता मैं तुझसे क्या शरम करूं। माता - पिता से शरम .करी तो मेरी यह अवस्था हुई । तुझसे शरम करी तो मेरा धर्म नष्ट हुआ।
पिता-बेटी, बता, मैंने तेरे लिये क्या नहीं किया । मैंने
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प्रथम भाग।
(६५)
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तुझे बड़ लाड़ से पाली । इतना रुपया खरच करके तेरा विवाह . किया।
प्रयला--तुमने सब कुछ किया । किन्तु कुछ भी नहीं किया। तुमने अपना अन्तिम कर्तव्य जो मेरे लिये योग्य पती ढूंढने का था उसे पूरा नहीं किया । उसी का यह परिणाम है कि मेरी आज यह अवस्था है।
. ससुर-यदि तू घर पर रहती तो यह अवस्था कैसे होती, यह सब राम के साथ भगने का फल है अब तू भुगत।
पिता-देखो सामने से आदमी आरहे हैं। वह अगर यह बात जान जायंगे तो हमारी हंसी रेगी।
ससुर-चलो वह सामने से सुधारक का बच्चा भी आ रहा है। पिता-पुत्री तेरा कल्याण हो।
अबला-पिताजी तुम्हारा नाश हो ( दोनों चले जाते हैं।
सुधारक--(भाकर ) भाइयों देखा सुधार का फल । यह बड़े बूढ़े हम युवकों को पागल बताते हैं। आप लोग सोचिये । पागल हम हैं या ये ?
अबला-भाई तुम कौन हो ? सुधारक-अपनी दृष्टी में समाज सेवक । शिक्षित समाज
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(६६)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
की दृष्टी में सुधारक ओर बूढ़ों की दृष्टि में वेवकूफ हूं।
बला-तुम जाते जाते क्यों रुक गये ? सुधारक-तुम्हारा दुख सुनने के लिये । अबला-इससे क्या लाभ ? सुधारक-लाम यही कि तुम्हें शान्ति मिले । अबला-तुम मुझे कैसे जानते हो।
सुधारक-जिस दिन तुम व्याह कर लाई गई थीं, तभी से मैं तुम्हें जानता हूं। तुम्हारे ब्याह को रोकने का मैंने बहुत प्रयत्न किया था किन्तु मेरी एक न सुनी गई। तुम्हारे ससुर ने कहा कि मैंने यह कार्य सुधार का किया है।'
अबला-भाई क्या मैं तुमसे अब कुछ आशा कर सकती हूं।
सुधारक-बहन, आप मेरे घर चलें । मैं आपको अपनी धर्म बहन बनाकर रखूगा । जो कुछ मुझसे उपकार बन पड़ेगा वो भी यथा शक्ती करूँगा।
अबला-भारत माता ! तुझे धन्य है। आज भी तेरे पुत्र ऐसे परोपकारी हैं । ( सुधारक से ) चलो भाई में तुम्हारे साथ चलती हूँ।
( दोनों जाते हैं।)
दृश्य समाप्त..
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प्रथम भाग ।
अक तृतिय -- दृश्य तीसरा
( साधू और ब्रह्मचारी दोनों आते हैं । )
वृ० – कहिये साधुजी कुछ देखा ?
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खा०-- तुम लोग महा झूठे हो ।
( ६७ )
वृ० वा कैसे ?
सा० - तुमने रावण की एक दम इतनी तारीफ कर डाली । उसे तुम जैनी बताते हो | जैनी होकर भी कोई रावण के जैसे दुष्कर्म कर सकता है ?
वृ० साधु महाराज यह आपका कहना सत्य है कि जैनी होकर दुष्कर्म नहीं कर सकता । किन्तु पांचो अंगुलियों का नाम अंगुलियां ही है । एक ही हाथ के आश्रय हैं । किन्तु कोई छोटी है कोई बड़ी है । उसी प्रकार जिन धर्मके अनुयाई पुरुष भी बहुत से, इन्द्रियों के वशीभूत होकर बुरे काम भी करते हैं और बहुत से अच्छे काम भी करते हैं । जिन धर्म का काम मनुष्य को रास्ता बताने का है उस पर चलाने का नहीं है । यह मनुष्य को स्वयं अधिकार है कि वह चले या न चले ।
साधू – लेकिन तुमने उसकी इतनी तारीफ क्यों की ? वृ० --- सर्वज्ञ भगवान वातरागी होते हैं । वह निःप्रयोजन होते हैं ! उनमें यह बात नहीं होती कि द्वेष वश किसी मनुष्य की बुराई ही बुराई करें । या प्रेम वश किसी की प्रशंसा ही
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(६८)
श्री जैन नाटकीय रामायण।
प्रशंसा करें । उनके ज्ञान में जैसा झलकता है उसी के अनुसार वह कथन कहते हैं।
साधू-खैर यह भी सही । मैंने माना । किन्तु तुमने बाली को यहां तपस्या करते दिखाया है। वहां हमारे यहां तुलसीदासजी ने उसे रामचन्द्रजी के हाथ से मारा गया बताया है । कहिये कितना जमीन आसमान का फरक है। ..
बृ०--साधूजी, हमारे जितने पुरुष भी हुवे हैं । वह सदा अपने धर्म पर कायम रहे हैं। और आजकल भी हिन्दुस्तानमें पुरुष अपने धर्म पर कायम हैं । यह मैं नहीं कहता कि पुरुष दुराचारी नहीं थे या नहीं हैं। वह सब कुछ थे और सब कुछ हैं। वह सर्प जैसे बाहर टेढ़ा मेढ़ा फिरता है। और अपने बिल में सीधा घुसता है उसी प्रकार थे । बाहर भले ही उन लोगों ने अत्याचार किये किन्तु घर में सदाचार पूर्वक रहे । सुग्रीव की रानी सुतारा को वह अपनी बेटी समझते थे।
साधू-तो फिर राम ने बाली को मारा, क्या वृ०-नहीं झूठ नहीं है किन्तु उलट फेर है। साधू-वह क्या ?
-वह 'आपको अभी मालूम पड़ जायगा । आज हम केवल इतनी ही लीला दिखाकर समाप्त करेंगे। आज हम यह दिखादेंगे कि वास्तव में यह क्या मामला है।
ATTA
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द्वितीय भाग ।
( ८१ )
श्री वीराय नमः ।
जैन नाटकीय रामायण | द्वितिय भाग 1
अंक प्रथम
दृश्य प्रथम
स्थान
( क्षीरकदम्ब की स्त्री की कुटिया । अपने गमलों में पानी दे रही है । ;
गाना
नहीं ये पिया, मोर फाटे हिया ।
( इतने ही में उसका पुत्र पर्वत आ जाता है ) माता - क्यों पर्वत तू अपने पिता को कहाँ छोड़ प्राया ?
पर्वत --- माता ! मैं, वसू और नारद तीनों पिताजी के साथ गये थे सो रास्ते में पिताजी ने दिगम्बर मुनियों को बैठे देखा | उन्हें प्रणाम किया ।
मता -- फिर क्या हुआ ?
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(८२)
श्री जैन नाटकीय रामायण।
पर्वत-उनमें से एक मुनी ने कहा कि यह चार जीव हैं। एक गुरु और तीन शिष्य । जिन में से एक गुरु और एक शिष्य तो भव्य हैं ये जग में अपना और पराया उपकार करेंगे । र शिष्य जगत में महा मिथ्यात्व फैलाने वाले हैं। ये नरक गामी होंगे।
माता-वह दो कौन कौन ?
पर्वत-पिताजी ने पूछा किन्तु मुझे पता नहीं कि उन्हों ने बताया या नहीं बताया।
माता-किन्तु यह तो बताओ कि तुम्हारे पिताजी कहां रह गये ?
पर्वत-उन्होंने हम तीनों को उपदेश देकर विदा कर दिया । और स्वयं ........
माता--स्वयं क्या ? पर्वत--स्वयं दिगम्बर मुनी........
माता-हाय, मेरा तो भाग्य फूट गया। अब मैं बिना पती के कैसे रहूंगी । ( रोती है । हे पती देव तुमने मेरे यौवन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। अब मैं कहां जाऊं क्या करूं ? दुष्ट मुनियों ने मेरे पती को मोह लिया । क्या मैं वहां जाकर उनसे घर लौटने के लिये प्रार्थना करूं ? किन्तु वह कभी भी मुझे दिलासा देकर मेरे साथ नहीं आयेंगे । हे पती देव, कुछ
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द्वितीय भाग।
(८३)
नहीं तो इस घर की दीन अवस्था पर तो बिचार किया होता।
पर्वत-माता धैर्य धरो। पिताजी कल्याण के मार्ग पर लग गये हैं।
माता--दुष्ट तु यही चाहता होगा कि मैं अकेला रहकर मन माने ढोल बजाऊंगा । मुझे कहता है धैर्य घरो पिता को वहां छोड़ कर यहां भा बैठा हाय पतिदेव ! (रोती है)
नारद-(पाकर) गुरु माता आप इतनी व्याकुल क्यों हो रही हैं ? हमारे गुरु सर्व शास्त्र पारंगत थे। वह संसार की बुरी भली अवस्था को पहचानते थे। उन्होंने अपना कल्याण करने के लिये वैराग्य को धारण किया है। कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे वह छोड़ गये हों । हमें तीनों को उन्होंने पूर्ण विद्वान बना दिया है । अपने बाद अपने प्रतिनिधी पर्वत को छोड़ गये हैं । जो कि इस समय हर प्रकार का भार सम्हाल सकता है। आपको तो उनका कल्याण सुन कर प्रसन्न होना चाहिये ।
हा, भगवन हमारे लिये वह समय कब आयेगा कि हम भी मुनि पद ग्रहण करके अपनी भात्मा की उन्नति करेंगे।
माता--पुत्र नारद, तुम्हारे बचन सुन कर मुझे हर्षे होता है किन्तु जब पती का बियोग विचारती हूं तो (यांखों में आंसू लेकर ) मेरा कलेजा फटता है। उन्होंने
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( ८४ )
श्री जैन नाटकीय रामायण |
अपना हित सोच लिया । वैराग्य को धारण किया किन्तु मुझे ... ( श्राखों में धासू पोंछ कर ) हमेशा के लिये रुला गये ।
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हैं। थाप भी
नारद ---- माताजी थाप व्याकुल क्यों होती अपना कल्याण कीजिये । शान्ति पूर्वक रह कर धर्म चिन्तवन 1 कीजिये । जब स्त्री का पती मर जाता है । तव उसे दुःख होता है किन्तु गुरुजी धर्म मार्ग पर लग कर अपनी श्रात्मा से कर्म मैल धो रहे हैं। किसी के जीते जी उसका रन्ज करना, यह उचित नहीं । आप बुद्धिमती हैं। बुद्धी से काम लीजिये । माता- मैं बहुत अपने कलेजे को सम्हालती हूं किन्तु ( रोने लगती है )
नारद - मित्र पर्वत मुझे कार्य वश जाना है तुम माता
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जी को धैर्य बंधयो । मतानी प्रणाम ।
'
माता - जाओ पुत्र, मैं न रोऊंगी।
( नारद चला जाता है । पर्वत और माता रह जाते हैं )
पर्दा गिरता है ।
दृश्य समाप्त
अंक प्रथम - दृश्य दूसरा
| एक पचास वर्ष की आयु वाले भारी बदन के बाबूजी
आते हैं। जो कि अप टू डेड फैशन में हैं । चश्मा लगाये हुवे हैं । टोप पहने हैं )
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'द्वितीय भाग
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बाबूजी-हमारा भाग्य बहुत बुरा है। हमारी वाइफ हमें बुढ़ापे में रंडुअा कर के चल बसी । अहा, उसकी पाणी कितनी मधुर थी। मुझे कितना प्यार करती थी ? यह मैं ही जानता हूं। महीने भर मर पच कर जब मैं अपनी तनख्वाह के १६०) खाकर उसे देता था तो एक हो मुस्कान से मेरी महीने भर की थकावट दूर कर देती थी। हाय अब वह सुख कहां ? वह मुस्कान कहां? वह आनन्द कहां?
एक क्लर्क-( आकर ) कहिये बाबूजी कौनसे आनन्द को याद कर रहे हैं ?
बाबूजी-भाई कौनसे क्या, जब मैं बच्चा भा । तो मेरी मां मुझे गोदी में विठाती थी। अपने हाथ से खिलाती थी। मुझे अपने कलेजे से चिपटाती थी। ( सांस भरकर ) भाई उसी श्रानन्द को याद कर रहा हूं। बेचारी वह तो मर गई अब हमें रोना पड़ रहा है।
क्लर्क-बाबूजी मुझे तो श्रापके कहने में कुछ झूठ मालूम पड़ रहा है।
बाबूजी-झूठ ही सही माई तुम जो चाहे समझलो । मेरा दुख तो मैं ही जानता हूं।
कलर्क-जब तक आपकी श्रीमती जी रही............ बाबूजी-(मुंह बना कर ) भाई मेरी उसका नाम मत
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(६८)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
व०-मैं वचन देता हूं।
मा०-तो सुनो “पर्वत और नारद में यह संवाद छिड़ा है कि श्रज का ठोक अर्थ क्या है । पर्वत कहता है कि अजका अर्थ छेला है । नारद कहता है कि अज का अर्थ बिना छित्तक के चावल हैं।
व०-किन्तु माता, बचन तो नारद का ही सत्य है । गुरुजी ने तो हमें यही अर्थ बताया है जो नारद कहता है।
'मा०-होते २ उनमें यहां तक होगई कि कल राजा. वसु से इसका न्याय करायेंगे । और जो सत्य होगा वह झूठे की जिव्हा काट लेगा।
व०-इस प्रकार तो पर्वत की हा जिव्हा कटेगी। माल-किन्तु तुम मुझे बचन दे चुके हो ।
व०-यह मुझे घोर नरक में डालने वाला है । उस समय में समा में राज सिंहासन पर बैठ कर यह मँठा न्याय कैसे करूँगा ? ____ मा०-मैं समझती हूं कि पर्वत झूठा है किन्तु मेरे पती ने वैराग्य धारण कर लिया है । यदि पर्वत की जिव्हा कट जायगी तो मेरे लिये दूसरा सहारा नहीं है । पुत्र तुम अपने बचन को निव्हाना।
4०--माता, आप निश्चिन्त रहिये । मैं दी हुई गुरु
याय
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द्वितीय भाग
(९९)
दक्षिणा वापिस नहीं ले सकता।
मा०-प्रच्छा पुत्र तुम्हारा कल्याण हो । म अब जाती हूं। ( जाती है ) (सभासद लोग आ आ कर बैठते हैं । नाच गाना शुरु होता है। परियां आती हैं।)
नाच गाना यायो सखीरी, गायो सखीरी, मिल के सभीरी।
यानंद मनायो, जिया हरषारो॥ दुखड़ा निकालो, ग्राफत कुटालो गलबंय्या डालो।
ग्रामंद मनायो, जिया हरपायो । सिपाही-महाराजधिराज की जय हो । श्री नारदजी और पर्वतजी पधारे हैं।
व.--उन्हें सम्मान पूर्वक राज्य सभा में ले आओ। (दोनों आते हैं। घसू गले मिलता है। आसन देता है) कहिये आप लोगों ने मेरे ऊपर आज कैसे कृपा की?
प०-जब गुरुजी हमें पढ़ाया करते थे | तब वह यज्ञ के विषय में कहा करते थे। कि " अजैर्यटव्यं , अर्थात अज जो बकरी का बच्चा उससे यज्ञ करना चाहिये । किन्तु यह नारद उसमें अपनी नारदी लीला रचता है ।
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(१००)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
ब०-क्यों नारदजी आप इस विषय में क्या कहते हैं? ना०--मैं जो बात सत्य है उसे कहता हूं। व०-वह क्या ?
ना०-वह यह कि गुरुनी अज का अर्थ बिना छिलके के चावल करते थे। जो बोने से न उग सके । उस में हिंसा का नाम भी नहीं था। और पर्वत ऐसी बात कहता है जो हिंसा से परिपूर्ण है। गुरुजी कभी ऐसा उपदेश नहीं दे सकते थे ।
५०-जन | मैं सत्य कहता हूं ? या ये सत्य कहते हैं ? श्राप इस बात का न्याय कीजिये जिसका बचन असत्य निकलेगा उसकी जिव्हा काट ली जायगी ।
व०-क्यों नारदजी आप इसमें सहमत हैं न ? ना०--मैं तनमन से सहमत हूँ।
व०-यदि आपके विरुद्ध में न्याय होतो श्राप जिव्हा कटाने को तयार हैं न?
ना.---यदि मेरा बचन असत्य होगा तो मैं अवश्य जिव्हा कटा लूंगा।
५०-कहिये पर्वतजी आप को भी स्वीकार है न ? प०-मैं इसे मन बचन काय से स्वीकार करता हूं। व०-तो सुनिये, पर्वत का बचन सत्य है। (सिंहासन टूट कर पृथ्वी पर गिर पड़ता है।)
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द्वितीय भाग ।
( १०१ )
सभासद लोग - महाराज सत्य बोलिये | वरना थाप नरक गामी बनेंगे ।
ना० - कुंठा न्याय करने से तुम्हारा सिंहासन टूट गया । यदि कल्याण चाहते हो तो अब भी सत्य बोल दो वरना आप के बचन प्रमाण जो अत्याचार जब तक संसार में होते रहेंगे तब तक भाप नरक में से नहीं निकल सकेंगे यदि आप को अपना कल्याण करना हो और जीव हिंसा बचानी हो । तो जो गुरुजी ने कहा है वह सत्य कह दीजिये ।
1
व०- ( पृथ्वी पर पड़ा हुआ ) पर्वत का बचन सत्य है ( सिंहासन पृथ्वी फट कर उसमें समा जाता है । साथ २ वसू भी जाता है )
सभासदी- - यह पर्वत महा पापी है । इसने राजा से झूठ नारदजी की जिव्हा
चुलवा कर उसे नरक में भेजा | हम लोग नहीं किन्तु तुम्हारी जिव्हा काटेंगे ।
( पर्वत भाग जाता है ) ना०- देखो जिव्हा कटने के भय से भाग गया | सभासदी- - हम अभी पकड़ कर लाते हैं ।
ना० - जाने दो, जो जैसा करेगा वैसा भुगतेगा ।
B
( सब लोग फटी हुई पृथ्वी की ओर देखते हैं ! पर्दा गिरता है ।
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( १०२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
अंक प्रथम - दृश्य पांचवा ( ब्रह्मचारी और साधू आते हैं ) ब्र० --- कहिये साधूजी भाप सब तमाशा देख रहे हैं न ?
सा -- मैं सब देख रहा हूं और समझ रहा हूं । मेरे आत्मा से अज्ञान का पर्दा हट रहा है । किन्तु एक बात मुझे आपसे और पूछनी है ।
ब्र० वह क्या
सा०-- वह यह कि नारद का जो यहां पर बयान आया, क्या ये वही नारद है जो दुनियां में अपनी नारदी लीला के लिये प्रसिद्ध है ?
ब्र० - नहीं, यह वह नारद नहीं है । यह तो नाम से नारद है ।
सा- तो सच्चा नारद कौन है ?
० -- उसके विषय में गाड़ी बतायेंगे ।
सा० आपके यहां भर्यिका किसे कहते हैं ?
न० जो स्त्री वैराग्य को धारण करके भात्म कल्याण
करती हैं। उन्हे भर्यिका कहते हैं ।
सा०- क्या वह भी नंगी रहती हैं ?
ब्र० नहीं वह नंगी नहीं रहतीं ।
सा० --- किन्तु श्रापतो कहते हैं कि नग्न होने से ही मोक्ष
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द्वितीय भाग ।
ब० मेरे मा बाप ने मुझे यह नहीं देखा कि हम किसे दे रहे हैं। दुष्टों ने धन के लोभ में भाकर मुझे इससे व्याह कर सदा के लिये विधवा बना दी हाय अब मैं किस का सहारा पकडुं १
( गिरती है। लड़का सम्हाल कर अपनी जंघा पर उसका सर रख लेता है। मुंह के आंसू पूछता है । हवा करता है । अबलाओं का भारत वर्ष से न्याय उठ गया ? बेचारी की जो आयू सुख भोगने की भी उसी में विधवा हो गई । विना माता पिता का बच्चा और बिना पती की विधवा स्त्री जो दुख भोगती है उसे कोई नहीं नान
ल० --- हे ईश्वर, क्या इन
देगी ?
( ११५ )
सकता ।
ब० - हाय, वीरसिंह ! में अब किस प्रकार अपना जीवन बिताऊंगी !
वीरसिंह - माता. चिन्ता न करो। तुम मेरे पास सुख से रहो मैं यथायोग्य तुम्हारी सेवा करूँगा ।
ब० - किन्तु तुम्हारी वह मुझे अपने घर में कैसे रहने बहू
अच्छा मैं
५
बी० - उसका कोई फिकर मत करो मैं सब भुगत लूंगा । जाता हूं । ( जाता है )
अब ।
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(११६)
श्रीजैन नाटकीय रामायण।
-
-
-
ब०-वीरसिंह जैसा मनुष्य होना दुर्लभ है । बेचारा मुझसे कितना प्रेम रखता है।
वीर सिंह की बहू-(भाकर ) हां मैं भी जानती हूं जैसा प्रेम वो रखते हैं । मेरे सुसरे को तू खा गई अब हम लोगों के ऊपर मेहरबानी रखो।
ब०-भरी बहू ! तु कैसी बातें करती हैं । मुझे क्या ये अच्छा लगताथा कि मैं विधवा हो जाऊं।
वी०कीब-अच्छा क्या, तूतो पूरी डाकन है । तेरे बाप ने तुझे दो हजार में बेची है।
4०-देख बहू ऐसा मत कह । मुझ दुखिया को और दुखी न कर। .
बी० ब०-अब तो हमारी बातें भी छुरी सी लगती हैं। बस मेरे पती को फुसला रखा है। खबरदार जो मेरे घर में रही।
ब. तो मैं कहां जाकर रहूं?
वी० ब०-चूल्हे में, भाड़ में, मट्टी में । और अगर कोई जगह न मिले तो कूवे में । .
ब-तो क्या मैं अात्महत्या करलूं ।
वी० ब० तेरे जीने से फायदा ही क्या है जो मरने से नहीं होगा।
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द्वितीय भाग ।
( ११७ )
बहू — नहीं ये तो कभी न होगा कि मैं आत्महत्या कर लूं । वीरसिंह की बहू तो कहीं जा, घर २ भीख मांग लेकिन मेरे घर में तेरे लिये जगह नहीं है ।
बहू -- मच्छी बात है मैं जाती हूं । तुम सुखी रहना । ( चली जाती है )
वी० की ब० - अच्छा हुआ चली गई । खाली में ही सेर भर आटे का खरच पड़ा करता । रात दिन की हाय २ रहा करती । मैंने भी किस होशियारी से निकाली । बाहरी में । 1 ( भाग जाती है )
अंक द्वितिय - दृश्य तीसरा ( पर्दा खुलता है)
( अत्यन्त दुर्बल अवस्था में अंजना बैठी है । पास में बसन्ततिलका सखी भा वैठी है ।) अंजना -- ( रोती हुई ) हाय, आज बाईस वर्ष बीत गये पती के दर्शन नहीं हुवे । माता पिता ने सोच विचार कर मेरे लिये बहुत योग्य वर ढूंढा है। मेरे पती महा निपुण हैं । मेरे पूर्व भत्र के कर्मों से मुझे दुःख मिल रहा है । क्या मैंने किसी के जोड़ में विघ्न डाला था ? जिसका फल मं भोग रही हूं । पती में मेरे कोई दोष नहीं वह तो सर्वथा गुणवान हैं ।
वसंततिलका - सखी अंजना, तुम स्त्री रत्न हो पती
।
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( ११८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
ने तुम्हें त्याग रखा है। वह इतना बड़ा उनका अपराध भुला कर तुम उलटी उनकी प्रशंसा कर रही हो । धन्य हो तुम्हें । तुम सरीखी स्त्री इस भारत माता की कोख में ही जन्म लेती हैं । अंजना का गाना
कर्म ने मुझको रुलाया, हाय अबला जान कर । मुझको प्रीतम ने तजी क्या, दोष मेरा मान कर ॥ होगये बाइस बरस मेरे विवाह को ऐ सखी | क्या कभी मुझको पती, दर्शन न देंगे श्रान कर ॥ हॅस के ना बोले कभी, संग में न मिलकर बात की। देखा नहीं मेरी तरफ, उनने कभी भी ध्यान घर ॥
बसंत तिलका सखी, धैर्य्यं घरो। तुम बाइस बरस से रोते २ इतनी दुर्बल हो गई हो । न मालूम कब तक तुम्हारे भाग्य में और रोना लिखा है । किन्तु अब मुझे आशा होती है कि वह शीघ्र ही तुमसे मिलेंगे ।
पवन जय ---- ( आकर स्वगत ) आज मुझे अपने जीवन में रणभूमी में जाकर कौशल दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है । रावण वरुण से युद्ध कर रहा है । मैं आज उसकी सहायता के लिये जारहा हूं । मैं वरुणा को दिखाऊंगा कि रावण से वैर
1
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द्वितीय भाग।
(१९९)
करने में क्या फल मिलता है। वीरों के लिये युद्ध से बढ़ कर प्रियवस्तु दूसरी नहीं है । हम रात्रण के अधिपत्य में हैं वह हमें अपना मित्र समझता है । मैं उसे मित्रता का पूरा साथ देकर दिखा दूंगा । वरुण को उसके चरणों पर न लेटा हूँ ! तो मेरा नाम भी पवनकुमार नहीं है।
(अन्जना को देख कर चलते से रुक कर )
हे पापिनी तूने मुझे रण में जाते हुवे अपनी सुरत दिखा कर अपशकुन किया है। (अजना खड़ो होजाती है पती की ओर देखती है।
प्रेम ले गद्गद होती है। __ ओ दुष्टा तू बड़े घराने को बेटी होकर भी ढीट बनती है। मेरे सामने से नहीं हटती। ____ अंजना-आज मेरे अहोभाग्य हैं कि आपने मुझे दर्शन दिये और मुझसे बोले । आप कैसे भी कठोर बचन क्यों न बोलें वही मेरे लिये अमृत रूप है । मैं आपकी दासी हूं। भाप मेरे पूज्य देवता हैं।
पवनकुमार-ओ कुल्टा नारी तुझे मुझको युद्ध में विलंब करते हुये लाज नहीं आती
अंजना-हे; प्राणनाथ, जब आप यहां विराजते थे तब भी मैं वियोगनी ही थी किन्तु आपके निकट होने से मेरे
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( १२०)
श्रीजैन नाटकीय रामायण ।
हृदय को शान्ति थी। अब आप दुर जारहे हैं। मैं आपके विरह में कैसे जीऊंगी पवन०-( अंजना को ठुकरा कर ) चल हट कलंकिणी
(चले जाते हैं। अंजना-हाय, गये, मेरे दिवाकर भगवान अस्ताचल की ओर चले गये न मालूम कब लौट कर आयेंगे । जिस प्रकार दिन, विना सूर्य के । रात्री, विना चन्द्रमा के । नहीं शोभती उसी प्रकार मेरा जीवन भी इस संसार में निष्फल है।
बसंततिलका-- सखो धैर्य घरो ! इस संसार में दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख अवश्य आता है । अविनाशी सुख तो केवली भगवान को ही प्राप्त होता है । तुम्हारे बचपन के दिवस सुख से कटे थे । अब तुम्हें दुख मिल रहा है । याद रखो । सुख भी अवश्य ही प्राप्त होगा।
गाना
सदा दिन एकसे बहना, किसी के भी नहीं रहते। जगत प्राणी कभी सुखपा, कभी अति दुःख हैं सहते॥ ये हैं संसार धोखे का, नहीं इसका भरोसा कुछ । कभी होकर मगन फूलें, कभी आंखों से जल बहते।।
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द्वितीय भाग
( १२१ )
कभी
न घबरावो कभी दुख में, घड़ी सुख की भी आयेगी । है कभी दुखहै, यही ज्ञानी सदा कहते ॥ पर्दा गिरता है । अद्वितिय -- दृश्य चौथा
सुख
( पवनकुमार और प्रहस्त दोनों आते हैं।
पवनकुमार - मित्र प्रहम्त, हम लोग यहां मान परोचर पर ठहरे हैं, इसकी भृमी को देख कर मुझे विवाह समय की याद रही है | यहा उस चकवी को देखा । अपने प्रीतम के न मिलने से कैसी तड़फ रही है। जब इसको पति के एक रात के विरह में ही इतनी तड़फन है तो हाथ, उस अंजना सती को जिसे छोड़े हुवे वाइस बरस होगये क्या ढंग होगा । मैं अत्यन्त मूर्ख हूं जो सखी के अपराध पर उस अमला को छोड़े हुवे हूँ । हाय, मेरे बिना वह सती किस प्रकार जीती होगी। मैने उसे इतने कठोर शब्द कहे किन्तु उसने मेरी प्रशंसा ही की। वह सच्ची पतीव्रता स्त्री है। मैं विना उससे मिले भव भागे नहीं वढ़ सकता । रण से लौट कर थाने तक वह अवश्य ही अपने प्राण दे देगी।
प्रहस्त - मित्र, तुमने यह विचार बहुत ही उत्तम किया है। वेचारी अंजना के आज शुभ कर्म का उदय है । जो तुमने ऐसा
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( १२२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
विचार किया । किन्तु तुम माता पिता से रण के लिये आज्ञा लेकर आये हो । तुम्हास अब लौट कर जाना उचित नहीं।
पवन-किन्तु भेरा तो उससे मिले बिना जीना ही दुर्लभ है । अहा, कैसी प्यारी सूरत है । वह कितनी सुन्दर है। संसार में उसकी बराबरी करने वाली दूसरी नहीं मिलेगी। कितनी कोमल हैं मानो सारी कोमलता की वह कोष है।
प्रहस्त-मित्र श्राकुलित न होइये मैं अभी इसका उपाय करता हूं। हम लोगों को यहां से छिपे तौर से जाना पड़ेगा। मैं अभी सेनापती को बुलाला हूं। आप उससे कहना कि हम सुमेरु पर्वत की यात्रा के लिये जारहे हैं। तुम सेना का ठीक प्रवन्ध रखना ।
पवन-अच्छी बात हैं जाओ। ' (प्रहस्त जाता है। लेनापती सहित आता है।)
सेनापती-(प्रणाम करके ) श्रीमान् ने सेवक को १ पहर रात्री गये किस लिये स्मरण किया है ?
पवन-हम लोग सुमेरु पर्वत की यात्रा के लिये जारहे हैं । सुबह होने तक लौट आयेंगे | तुम सेना' का प्रबन्ध ठीक रखना।
सेनापती-जैसी आज्ञा। (सेनापती रह जाता है । दोनों चले जाते है ) पर्दा गिरता है
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द्वितीय भाग।
(१२३)
अंक द्वितिय-दृश्य पांचवा
साधू और ब्रह्मचारीजी आते हैं। · ब्रह्मचारी-कहिये साधूनी कुछ देखा?
सा०-मेरी समझ में यह बात नहीं पाई कि रावण को सहायता देने के लिये हनूमानजी के पिता पवनकुमार क्यों गये ?
व-साधुजी, मालूम होता है आपके हृदय से अभी यह नहीं गया है कि रावण राक्षस था और हनुमान बानर थे । मैं श्रापको स्पष्ट कर चुका हूं कि न तो रावण राक्षस ही था और न हनूमान वानर ही थे । राजा लोग हमेशा संकट में एक दूसरे की सहायता करते हैं। रावण ने राजा प्रहलाद के पास सहायता के लिये पत्र भेजा था । सो उसी क लिये वह गये थे।
सा०-अब मैं समझ गया । अगाड़ी तुम क्या क्या और दिखाओगे।
-अब हम पहले पवनकुममार का अंजना से मिलन दिखायेंगे । फिर किस प्रकार सासू के दोष लगाने से गर्भवती अंजना घर से निकल कर जंगलों में दुख पाती है। और वहां उसके हनुमानजी जन्म लेते हैं ये दिखायेंगे । इसके पश्चात हनुमानजी की वाल्यावस्था का वृतान्त स्पष्टतया दिखाकर इस भाग को समाप्त करेंगे। अगले भाग में राम के पिता दशरथ का वृत्तान्त और राम की उत्पत्ती दिखायेंगे ।
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( १२४ )
भी जैन नाटकीय रामायण ।।
सा--तो चलिये दिखाइये । मेरा चित्त देखने के लिये उमंगें ले रहा है। [ दोनों जाते हैं पर्दा खुलता है एक पलंग पर अन्जना सो रही है। पास में ही पृथ्वी पर बसंततिलेका सो रही है। अन्जना करवटें बदल रही है। हाथ, पनिदेव, कर रही है प्रहस्त अन्दर आता है। अन्जना उठ कर बैठती है
बसन्त तिलका को जगाती है ] अंजना-बसंततिलका, बसंततिलका, उठ जाग, देख रात्री के समय में यह कौन पर पुरुष मेरे घर में घुस आया । [बसन्ततिलका जागती है। आंखे मलती हैं।
प्रहस्त हाथ जोडता है] प्र०-हे सती मैं तुम्हारे पति का मित्र प्रहस्त हूं। तुम डरो मत । मैं तुम्हारे पति के आने की सूचना लाया हूं। ___अंजना-मैं महा पुण्यहीन हूं। पती के सुख से कोसों दूर हूं। मेरे ऐसे ही पाप कर्म का उदय है। तुम क्यों मेरी हसी करते हो । सच है जिसको पती ने ही बिसार दिया उसकी कौन हँसी न करेगा । मैं अभागिनी परम दुखी हूं। मेरे लिये इस सन्सार में सुख कहां?
. प्र०-हे सती रत्न, अब तुम्हारे अशुभ कर्म के उदय गये तुम्हारे प्रेम का प्रेरा हुआ तुम्हाग प्राणनाथ तुमसे मिलने के लिये पाया।
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द्वितीय भाग।
(१२५)
अंजना हैं ! पतिदेव, पतिदेव, ( दौड़ कर उनसे चिण्ट जाती है ) बताओ, बताओ, अब तक तुम मुझसे क्यों नहीं बोलते थे । क्यों रूठे हुने थे। (रोती हुई )
(प्रहस्त और बसन्ततिलका बाहर चले जाते हैं)
पवन-( आंखों में जल भर कर ) प्रिये, मेरा अपराध क्षमा करो । मैंने अभी तक तुम्हें नहीं पहचाना था । चकवी को देखने से तुम्हारे लिये मेरे हृदय में प्रेम के बादल उमड पाये ।
अंजना-भब मैं पापको अपने से अलग न होने देंगी।
पचन-नहीं प्रिये, मैं रण में जाते हुवे तुमसे मिलने आया हूं। मुझे माता पिता देखेंगे तो मेरी हंसी करेंगे । मुझे सूर्य निकलने से पहले यहां से चला जाना अत्यन्त आवश्यक है। . ( दोनों पलंग पर बैठ जाते हैं। पर्दा गिरता है )
___ अंक द्वितिय-दृश्य छटा
(रावण और वरुण आते हैं) . रावण-दुष्ट वरुण ! तूने मेरी आज्ञा का लोप किया है समझले अब तेरी मृत्यु निकट है।
वरुण-ओ अभिमानी रावण, ना, युद्ध में तेरे जैसे कायरों का काम नहीं है । यह युद्ध भूमी वोरों के लिये है।
रावण-तुम्हें अभी मेरे बल का पता नहीं है । सभी भूमी हिला डालूं, मैं अपने शक्ती घाणों से।
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( १२६ )
श्री जैन नाटकीय रामायण |
गिरा दूं पर्वतों को मैं, सुखा सागर दूं बाणों से || पता तुमको नहीं कैलाश को मैंने उठाया था ।
वरुण पता है बालि मुनि ने एक गुंठे से दबाया था ॥ करी तारीफ उसकी लाज तक तुमको न आई है । न कर अभिमान उस पर शक्ती जो देवों से पाई है ॥ रावण - यदि बाली मुनि ने दवादिया तो क्या हुआ । जो विजयी इन्द्रियों के कौन उनसे जीत सकता है | जिन्हें है आत्मबल उनसे न कोई जीत सकता है ।
यदि तुम देवीशक्ती का ताना देते हो तो मैं तुमसे युद्ध करने में देवी शक्ती का प्रयोग नहीं करूंगा। इन भुजाओं के बल से ही तुझे जीतूंगा तभी मेरा नाम रावण है ।
-
वरुण – मैं तेरी गीदड़ धमकी में आने वाला नही हूं । यदि कुछ बल रखता है तो मेरे सामने भाकर दिखा । वीरों की तरह युद्ध में लड़ कर अपना कौशल दिखा ।
रावण - अधिक बढ़ कर न बोल । सुझे अपने सौ पुत्रों का घमंड है। मेरे अधीनस्थ सव राजाओं को इकट्टा हो जाने दे । सब भा चुके हैं केवल राजा प्रहलाद अभी तक नहीं भाये हैं
पवन -- ( भाकर) राजा प्रहलाद का पुत्र मैं पवनकुमार उपस्थित हूं । मेरे लिये आज्ञा कीजिये कि इसका अभिमान चूर्ण करूं । बीर लोग अपनी भलाई अपने मुख से नहीं करते उनकी
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द्वितीय भाग।
( १२७)
वीरता की परिक्षा रण क्षेत्र में होती है। जो गर्जते हैं वह वरस ते नहीं । जो वरस्ते हैं वह गर्जते नहीं ।
रावण-पवनकुमार, तुमको मैं धन्यवाद देता हूं। जो तुमने समय पर पाकर मेरी सहायता की । ( वरुण से ) अब मेरे सब बाहू मेरे साथ हैं । श्रा युद्ध कर।
वरुण-माज बड़े दिनों के बाद मुझे यह मौका मिला है कि मैं तुझ जैसे वीर पुरूप से युद्ध करने के लिये उद्यत हुमा हूं।
रावण-हे सिद्ध भगवान मैं अपनी कार्य सिद्धी के लिये तुम्हें नमस्कार करता हूं । ॐ नमः सिद्धेभ्य । (युद्ध का बाजा बजना प्रारम्भ होता है । रावण और वरुण आपस में लड रहे हैं। पवनकुमार भी दूसरे योद्धाओं से लड़ रहे हैं । युद्ध का दृश्य भयानक
होता है । पदी गिरता है। द्वितिय अंक समाप्त
अंक तृतिय-दृश्य प्रथम [भयानक वन में पर्यत के नीचे एक शिला पर अंजना बच्चे सहित लेटी हुई है। बसन्तमाला उसके
पैर दबा रही है।] बसन्तमाला-~सखी, कर्मों की बड़ी विचित्र गती है। चारण मुनि ने बताया कि तुमने पूर्व भर में जिन प्रतिमा का
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(१२८)
भीजैन नाटकीय रामायण ।.
भविनय किया था उस ही का फल तुम्हें मिल रहा है । उधर सासू ने दोष लगा कर घर से निकाली। पिता के घर गई वहां भी शरण न मिली । यहां माये मुनी महाराज के दर्शन से कुछ शान्ति मिली | फिर सिंह के पन्जे से बहुत कठिनाई से बचे । ये सब कर्मों का फल है।
अंजना-सखी, मैं तुम्हारी बहुत आभारी हूं कि तुम मुझे हर संकट में सहारा देती हो । हा मेरा भाग्य, जब तक पति देव की कृपा नहीं थी तब मैं किस प्रकार ब्याकुल रहती थी । किन्तु फिरमी घर में रहती थी। पति देव की कृपा हुई जिस प्रकार वर्षा ऋतु में कभी सूर्य उदय होकर फिर छिप जाता है। अब मैं बन बन मारो फिर रही हूं। ' बसन्तमाना-देखो, सखी ऊपर कोई विद्याधर चला जा रहा है। मुझे तो इससे भय मालूम होता है ।
अंजना-हाय, भब यह अवश्य ही मेरे इस पुत्र रत्न को उठा कर लेजायगा । हाय, मेरा कैसा बुरा भाग्य है।
(रोती हुई) (इतने ही में हनूरुह द्वीप का राजा प्रतिसूर्य ।
। उसकी राणी और ज्योतिषी आते हैं।) राजा-( अंजना से ) मैं ऊपर विमान में बैठा हुआ जा
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द्वितीय भाग
(१२९)
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रहा था । आपका रुदन सुन कर मेरा कलेजा भर पाया । मैंने विमान पृथ्वी पर उतारा । शप किसी उच्च कुन की पुत्री तथा वधू प्रतीत होती हो। कृपा करके आप मुझे अपने बन में आने का कुल हाल बताइये।
अंजना-क्षमा कीजिये, आपत्ती के समय में अपने कुल का नाम बताना उसका नामडवाना है। मैं अपने मुखसे न कहूंगी।
राजा-(वसन्ततिलका से ) ये नहीं बताती तो कृपया भाप बताइये?
वसन्तमाला--ये राजा महेंद्र की पुत्री अंजना हैं। श्रादित्यपुर के राजा महलाद के लड़के पवनकुमार इनके पति हैं। उन्होंने विवाह से वाइस बरस इन्हें छोड़े रखा । किन्तु जब वह रावण की सहायता के लिये जारहे थे । तव मानसरोवर के तट पर चावी की विहलता को देख कर उन्हें अंजना से प्रीति उपजी । वह रात्री में ही छुपे २ अंजना के महल में पाये ।
और अपने कड़े और मुद्रिका इन्हें दे गये। जब इन्हें ६ माह वीत गये । सासू ने इन्हें गर्भवती देख मुद्रिका भादि पर विश्वास न कर इन्हें घर से निकाल दिया । पिता के पास गई वहां भी इन्हें शरण न मिली ! यहां आई इस गुफा में चारण मुनि विराजे थे। उनसे पूर्व भत्र पूंछा । जब वह यहां से चले गये, तब हम दोनों उसमें रहीं हमें एक सिंह ने सताया जिससे
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( १३०)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
है
एक देव ने बचाया।
राजा-पुत्री, अंजना मेने अभी तक तुम्हें नहीं पहचाना था सो क्षमा चाहता हूं। तुम मेरी भानजी हो । मैं हनुरूह द्वीप का राजा प्रतीसूर्य हूं।
अंजना--( एक दम उठकर ) हैं, क्या श्राप मेरे मामा हैं ? ( रोती हुई, मामा के पैर पकड़ती है। ) ( मामी उस बच्चे को उठा लेती है)
बसन्तमाला-हे मामीजी, आपके साथ में यह ज्योतिषी जी हैं। कृपया इनसे कहिये कि पुत्र के ग्रह बतावें।
ज्योतिषी-पुत्री, तुम मुझे यह बताओ कि इसका जन्म किस समय का है।
वसन्तमाला-- श्राज अर्ध रात्रीको पुत्रका जन्म हुआ है।
ज्योतषी-( पत्रा खोल कर ) सुनिये, “ चैत्र बदी अष्टमी की तिथि का जन्म है। अपणा नक्षत्र है। सूर्य मेष का उच्च स्थानक विषै बैठा है। और चन्द्रमा वृष का है । और मंगल मकर का है । बुध मीन का है । वृहस्पती कर्क का है। सो उच्च है । शुक्र तथा शनिश्चर दोनों मीन के हैं । सूर्य पूर्ण दृष्टि से शनी को देख रहा है । और मंगल दश विश्वा सूर्य को देने है । और ब्रहस्पती पन्द्रह विसा सूर्य को देख है। और सूर्य दश विश्ा ब्रह पती को देखे है । चन्द्रमा को पूर्ण दृष्टि से
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द्वितीय भाग।
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ब्रहस्पती देखे है ! ब्रहस्पती को चन्द्रमा देखे है । ब्रहस्पती शनिश्चर को पन्द्रह विश्वा देखे है । और शनिश्चर ब्रहस्पती को दश विश्वा देखे है । और ब्रहस्पति शुक्र को पन्द्रह विश्वा देखे है । और शुक्र ब्रहस्पतीको पंद्रह विश्वा देखे है । इसके सब ही ग्रह बलवान बैठे हैं । सूर्य और मंगल दोनों याका अद्भुत गज्य वतलाते हैं । ब्रहस्पति और शनी बतालाते हैं कि ये वैराग्य को धारण कर मुक्ती पायेंगे। यदि एक ब्रहस्पति ही रच्च स्थान बैठा होय तो सर्व कल्याण की प्राप्ती का कारण है । और ब्रह्म नामा योग है । और मुहूर्त शुभ है । इस लिये यह अविनाशी सुख को प्राप्त करेगा । इसके सवही ग्रह बहुत बलवान हैं । यह ' बहुत पराक्रमी वालक है।
राजा-अापने इम पुत्र के नक्षत्र बताये। बड़ा उपकार किया। लीजिये यह भेंट स्वीकार कीजिये । (गले का हार देता है ) ( अंजना से ) चलो पुत्री तुम मेरे साथ हनुरूह द्वीप को चलो वहीं यह पुत्र वृद्धी पायेगा । ___ अंजना-में अपने को धन्य समझती हूं जो आप मुझे अपना सहारा दे रहे हैं । हे पुत्र तुम चिरजीवी होशे । तुम्हारे पैदा होते ही मेरे सारे दुःख नष्ट होते दिखाई दे रहे हैं। (सब चले जाते हैं। कुछ देर बाद उल पर्वत पर हनूमान
आकर गिते । पर्वत फट जाता है। हनूमान एक
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( १३२ ) पीजैन नाटकीय रामायण ।
शिला पर पड़े हुवे पैर का अंगूठा चूसने लग जाते हैं
ऊपर से सब हा हा कार मचाते हैं । अंजना रोती है)
अंजना-हाय, अनेको दुख सह कर यह पुत्र प्राप्त हुश्रा था। मैं अभागिनी इसे भी खो बैठी । हाय मेरा कैसा बुरा भाग्य है । ( सब उतर कर पाते हैं ) ( राना पुत्र को देख कर आश्चर्य करता है ) .
राजा-धन्य है इस बालक को । इसके गिरने से पर्वत चूर २ होगया। यह अवश्य ही चर्म शरीरी और मोक्ष का गामी है। ___ अंजना--( गोद में उठा कर ) मेरे लाडले बच्चे, (आंसू पूंछती हुई मुंह चूमती है )
राजा-यह बालक बन्दनीक है । हम सब इसको नमस्कार करते हैं। मैं इसका नाम श्री शैल रखता हूं। क्योंकि इसके गिरने से शैतु जो पर्वत वह 'चूर २ होगया।
अंजना--यह हनूरूह द्वीप में वृद्धि पाने जा रहा है। इस लिये मैं इसका नाम इनूमान रखती हूं।
ज्योतिषी-आप लोग 'कुछ मी नाम रखें । मैं तो इसे बनांग कह कर पुकारूंगा । क्यों कि मुझे इसके समान वल में इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं दीखता ।
बसन्तमाला-ऐसे होनहार बालक को जिस नाम से , भी पुकारा जाय वही इसके लिये उत्तम है । ये महावीर। है
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द्वितीय भाग।
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राजा-अच्छा चलो, मन हम सब लोग चलें । (सब चले जाते हैं। पर्दा गिरता है) अंक तृतिय-दृश्य द्वितिय
कौमिक (अगाडी एक लंगड़ा घिसटता चल रहा है । उसके पीछे उसकी अन्धी औरत है उसके पीछे उसका
अन्धा लड़का है)
गाना देदे देदे रे बाबा देदे।
अन्धों को पैसा देदे । मुहताज को पैसा देदे।
लंगड़े को पैसा देदे। देदे देदे रे बाबा देदे। (फटे कपड़े पहने हुवे हाथ में लकड़ी लिये हुवे अन्धी के रूप में बहू पैसा मांगती हुई आती है। उसकी लकड़ी लंगडे के लग जाती है । लंगड़ा उससे
लकड़ी छीन कर उसे मारता है।) बह-अरे कोई वचाओ २ इस दुष्ट ने मुझे मार डाला हायरे, बारे, मरी रे।
लोभीलाल-अन्धी धूप, तुझे दीखता नहीं । सामने
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(१३४.)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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लकड़ी घुमाती हुई चलती है। . औरत-अगर मैं समाकी होती तो चूंडा पकड़ कर घसीटती।
वहू-अरी मरी री, हायरी, कोई बचाओ ये मुझ अन्धी को मारे डालते हैं।
१ आदमी-(भाकर ) ये क्या हल्ला मचा रखा है ? क्यों भाई तुम इस बेचारी को क्यों मारते हो ।
लोभीलाल-अजी साहब, ये औरत देख कर भी नहीं चलती।
बहू-देखकर चलती तो अन्धी ही क्यों कहाती ।
आदमी--क्यों भाई तुम कौन हो और तुम्हारी ये दशा किस प्रकार से हुई।
लोभीलाल-क्या कहं, एक बार मैं सैकिंड क्लास में बैठा हुआ जा रहा था, मेरे कपड़े मैले देखकर एक अंग्रेजने मुझे उसमें से धक्का दे दिया सो मेरी टांग टूट गई। उसमें सारा रुपया खर्च होगया।
आदमी-और तुम्हारा ये लड़का और स्त्री कैसे । अन्धी होगई।
लोभीलाल - ये चाट बहुत खाते थे सो इसकी आंखें । खराब होगई । मेरे पास इस समय एक छदाम भी नहीं है।
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द्वितीय भाग
आदमी-( बहू से ) क्यों वहन तुम किस प्रकार इस दशा को पहुंची !
बहू-ये दुष्ट मेरे माता पिता हैं । इन्होंने मुझे दो हजार में एक बूढ़े से व्याह दी मेरी बड़ी बहनों को भी इसने बूढ़ों से व्याही उसीका नतीजा ये इस रूप में भुगत रहे हैं। व्याहके ६ महीने बाद ही में मेरा पति मर गया मैं विधवा होगई ।
आदमी-हाय, हाय, मैं भारत की अबलाओं की यह क्या दशा सुन रहा हूं।
औरत-उसके तीनों लड़कों ने मुझे घर से निकालदी । मेरी आंखें फूट गई मैं अन्धी हो गई मुझे कोई सहाग न रहा और श्राज मेरी यह अवस्था हो रही है।
आदमो-हाय, आज. भारत को क्या दुर्दशा हो रही है । बूढ़े कन्याओं से विवाह करके उन्हे विधवा बनाते हैं जिसका एक साक्षात परिणाम यह उपस्थित है । अन्धे माता पिता इस वात को नहीं सोचते कि अगाड़ी क्या होना है। लालच में आकर मुफ्त का पैसा खाने के लिये बूढो के साथ कन्याओं को वेच देते हैं। श्राज कत वैवाहिक दोष दिनों दिन उन्नती कर रहे हैं। बी. ए. पास लड़की को उसका बाप किसी बनिये के हाथ व्याहता है जो नित्य प्रति अपने पती से बैठकें लगवाती हैं। और उसे अपना गुलाम बना कर रखती हैं। जब तक यह
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(( १३६ )
भीजैन नाटकीय रामायण ।
कुपथायें बन्द न होंगी भारत की उन्नति होना असम्भव है। माता पिता जिसके निर्दोष होते हैं सन्तान भी हनुमान के समान निर्दोष पैदा होती है।
पर्दा गिरता है।
अंक तृतिय-दृश्य तृतिय (अन्जना और पवनकुमार बैठे हुवे हैं) अंजना—मैं आपके दर्शन पाकर अपने सारे दुख भूल गई।
पवन-मैं क्षमा चाहता हूं कि तुम्हें मेरे ही कारण इतने कष्ट उठाने पड़े । दुष्ट माता ने तुम्हें घर से निकाला । आह जब मैं तुम्हारे दुखों क ऊपर ध्यान करता हूं तो मेरा दिल दहलता है वह शेर कितना भयानक होगा ? | ___अंजना-मेरे तो यह सब दुष्कर्मों का उदय था जो मैंने अभी तक भोगे ! किन्तु आपसे मिलने की आशा में मैं अपने प्राण रखे रही । आपने मेरे लिये कितने कष्ट सहै । बन २ में मुझे ढूंढते फिरे । मेरे विग्ह में सब कुछ त्याग दिया आपका मेरे अपर भतुल्य प्रेम है। .
पवन-तुम्हारे मामाजी यदि न पहुंचते तो सचमुच मेरी जान चली जाती उनकी मेरे ऊपर कितनी असीम कृपा है ! मुझे । बह यहां लाये तुमसे मिलाप कराया।
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द्वितीय माग |
( १४९ )
अपराध नहीं किया जो उसे सत्ताया जाय !
वरुण - सचमुच रावण । तुम महा उदार मनुष्य हो । तुम से जो वैर करे यह मूर्ख है । तुम वीरता नीति क्षमा के अवतार हो । मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। और प्रतिज्ञा करता हूं कि अत्र कभी तुमसे युद्ध न करूंगा ।
रावण - (सिपाही से । इनके बन्धन खोलदो । (बन्धन खुलने पर वरुण रावण के पैर छूना चाहता है किन्तु रावण नहीं छूने देता । अपने कलेजे से लगाता है )
तुम मेरे छोटे भाई के समान हो । तुम्हें मैं हृदय से लगाता हूं । हमारी तुम्हारी शत्रुता युद्ध में थी अब नहीं रही । अब भाई २ का व्यवहार है । हनूमान तुम इनके पुत्र को बन्धन से मुक्त करो ।
हनुमान - जैसी श्राज्ञा (सिपाही से ) इनके सब पुत्रों को जाकर छोड़ दो ।
वरुण - रावण मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूं । मैं अपनी
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पुत्री की सगाई मापसे करता हूं । मुझे इनुमान का बल देख कर आश्चर्य होता है, ये बहुत ही महापुरुष हैं,
रावण - पुत्र हनुमान, तुम हमें बताओ तुमने कितनी विद्यायें साधी हैं ।
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१९५०)
श्री जैन नाटकीय रामायण
हनुमान-मैंने श्रापकी कृपा से अब तक केवल ६६ विद्यायें साधी हैं।
रावण-मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम्हें मैं अपनी बहन की पुत्री को सगाई करता हूं। और कुण्डलपुर का राज्य देता है !
हनूमान--श्राप मेरे लिये इतना सन्मान दे रहे हैं ! मैं अपना सौभाग्य मानता हूं।
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तृतियभाग
(१५१)
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श्री जैन नाटकीय रामायणा
तृतिय भाग
अंक प्रथम-दृश्य प्रथम
स्थान--स्वयंबर
( सब राजा लोग बैठे हुवे हैं। बीच में शुभ मती केकर्ड का पिता बैठा है। परियां आती हैं।
गाती.हुई और नाचता हुई)
गाना
गावो मंगल मनाओ महेश से हां स्वयंवर है सखी, सुकुमारी का। शुभ मती अरु पृथू की दुलारी का ॥
आये राजा सभी देश देश से हां शोभते हैं मुकुट शीश रत्नों के।
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( १५२ )
श्रीजैन नाटकीय रामायण ।
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शोभते राज में ढेर रत्नों के ॥ शोभती है सभा भेष, भेष से हां । आये०
(केकई को आते देख कर) कौमुदी सी लखो केकई आगई। देवियों सी दिपै, सुन्दरी आगई ॥
सूर्य फीका हुआ, इनके तेज से हो । आये. (सब गाकर चली जाती हैं। एक द्वारपाल खड़ा
होकर कहता है। द्वारपाल--हे देश विदेश से आये हुवे महाराजाओं। श्रापको इस कौतुक भंगल नामक नगर में इस लिये कष्ट दिया गया है कि श्रीमान महाराजा शुभमती जिनकी महाराणो पृथु श्री को केकई नामकी कन्या आप लोगों में से अपने लिये वर वरे।
सखी-( केकई से ) हे कुमारी ये जनकपुरी से भाये हुबे महाराज जनक हैं । ( दूसरे को बताकर ) ये अयोध्यापुरी से आये हुवे महाराज दशरथ हैं। ये सर्व गुण सम्पन्न सर्व विद्याओं में निपुण तथा सब भांति से योग्य हैं। (केकई राजा दशरथ के गले में वर माला डाल देती है)
१ राजा-हमें दशरथ और केकई का जोड़ा देखकर अत्यन्त हर्ष है। जैसी योग्य कन्या है वैसा ही उसे वर मिला है,
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तृतीय भाग
(१५३)
हम इस युगल की वृद्धी की भावना भाते हैं।
२ रा राजा-(क्रोध से ) ऐ शुभमती, तेरी कन्या महा निर्लज्ज है । बड़े बड़े योग्य राजाओं के होते हुवे इसने एक विदेशी के गले में जिसका कोई ठिकाना नहीं, वर माला डाली है। हम इस कन्या को बलात हर कर ले जायेंगे।
३रा राजा-नहीं भापको यह नहीं चाहिये । कन्या ने जिसे अपना पति बना लिया है वही उसका पती है, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो।
२रा राजा-नहीं हम कभी इस बातको स्वीकार नहीं करे सकते । शुभमती को हमसे युद्ध करना पड़ेगा।
शुभमती-(दशरथ से ! हे राजा दशरथ आप रथ में विठाकर केकई को लेजाइये । मैं इससे यहां युद्ध करता हूं। ___ दशरथ-कदापि नहीं । मैं इस दुष्ट को स्वयं मार भगाऊंगा, इसके सारे अभिपायों को धूल में मिलादूंगा।
केकई-पिताजी, आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं पति देव के लिये स्थ लाऊ।
शुभमती-जाओ शीघ्रता से रथ लेकर पाओ। तुम युद्ध विद्या में निपुण हो । आज तुम्हारी परीक्षा है। तुम्हें हो स्थका सार्थी बनना पड़ेगा।
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( १५४ ),
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
केकई जो श्राज्ञा ( चली जाती है।
२ रा राजा-अरे दशरथ ! तू क्या घमंड करता है। ये . तेरा यौवन मैं क्षणभर में मिटा दूंगा। तुझे पृथ्वी पर सुला दूंगा।
दशरथ-तुम नीच हो जो ऐसा कार्य करते हो तुम्हें अभी हारकर भागना पड़ेगा । वीरों की यह नीती नहीं होती कि पर स्त्री को हरने के लिये वह उद्यम करें । यदि केकई को लेना था तो स्ववम्बर न होने देते । महाराज शुभमती से पहले ही उसे क्यों न मांगली ?
२ राजा-परस्त्री नहीं वह अभी क्वारी है। मैं उसे अवश्य ही हर कर ले जाउंगा। ___दशरथ-~-मालूम होता है कि आप किसी पाठशाला में नहीं पढ़ हैं । घाड़ों की घुड़साल में बंधे हैं । आपको यह भी मालूम नहीं कि कन्या जिस समय बर के गले में बर माला डाल देती है वह उसी समय से परस्त्री कहलाने लगती है।
. २ राजा-मालूम होता है तेरी मृत्यु निकट है जो तू ऐसे अपमान के बचन बोलता है।
दशरथ-कहने से क्या होता है यह तो अभी मालुम हो जायगा। (केकई रथ लाती है। वह रथ में अगाडी बैठी है।
घोड़ों की रस्सी सम्हाल रखी है)
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तृतिय भाग ।
( १५५)
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केकई-आइये, रथ में बैठ कर युद्ध कीजिये । इस पापी को इसकी धूर्तता का फल दीजिये ।। दशरथ रथमैं बैठता है)
कहिय किघर की ओर रथ चलाऊ !
दशरथ-रथ उसी ओर चलाओ जिस ओर से यह अमिमानी मारा जा सके।
(रथ चलता है युद्ध होता है पर्दा गिरता है।)
अंक प्रथम-दृश्य द्वितिय
कौमिक ( एक मारवाड़ी फैशन में सेठजो आते हैं ।
सेठजी-जहां देखो भाज कल शिक्षा का बोल बाला है वास्तव में शिक्षा ही एक ऐसा विषय है । जो मनुष्य को मनुष्य बना देता है। दूसरे देशों में स्त्री शिक्षा का कितना भधिक प्रचार है। वहां पर स्त्रियों को समान अधिकार दिये जाते हैं। स्त्रियां स्वतन्त्रता पूर्वक गमन करती हैं । हे ईश्वर हमारे भारतवर्ष को वह घड़ी कत्र प्राप्त होगी ?
१ सज्जन-(माकर) हे ईश्वर भारत को कभी भी वह घड़ी प्राप्त न हो जिसमें स्त्रियों के मुंह पर बारह बजने लगे।
सेठजी--मालूम होता है भाप सी शिक्षा के विरोधी हैं।
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(६ १५६ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
. सज्जन-मालूम होता है आप स्त्री शिक्षा के पोषक हैं।
सेठजी-ऐसे शुभ कार्य का पोषक कौन नहीं होगा। दूसरे देशों में स्त्री शिक्षा का कितना अधिक प्रचार है।
सज्जन-मैं मानता हूं कि दूसरे देशों में स्त्री शिक्षा का अत्यधिक प्रचार है और बिना स्त्री शिक्षा के प्रचार के कोई देश उन्नत भी नहीं हो सकता । किन्तु...।
सेठजी-किन्तु क्या? . ____ सज्जन-वह यह कि दूसरे देशों में स्त्रियों को वहीं की भाषा सिखाई जाती है। वहां पर मुश्किल से एक करोड़ एक में एक स्त्री ऐसी निकलेगी जो विदेशी भाषा पढती हो। किन्तु भारत बर्ष को देवियां केवल अपना जीवन अधर्म के गढ़े में डालने के उद्देश्य से विदेशी भाषा पढ़ती हैं । इसका आज कल जो परिणाम हो रहा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। दूसरे देशों में जहां पर विवेक का और शील का नाम मात्र भी नहीं वहां का दृष्टांत सामने रख कर बालिकाओं को विगाड़ना ये कहां का न्याय है। . सेठजी--जब श्राप विदेशी भाषा का इतना विरोध करते हैं तो पुरुष उसे क्यों पढ़ते हैं ? जिस काम को पुरुष करें उस काम को स्त्रियों को क्यों नहीं करना चाहिये ?
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द्वितीय भाग।
(१५७)
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सज्जन-माज कल हमारे देश में विदेशियों का शासन है । उनके कार्य की समालोचना करने के लिये हमें उनकी भाषा पढ़नी आवश्यक है। किंतु फिर भी पुरुषों को चाहिये कि विदेशी भाषा पढ़ा हुवे भी अपने देषी विवेक और सभ्यता को न त्यागें । आपने कहा कि जिस कार्य को पुरुष करते हैं उसको स्त्रियां क्यों नहीं कर सकती । सुनिये ! पुरुष युद्ध करते हैं । स्त्रियां क्यों नहीं करती ? पुरुष व्यापार करते हैं स्त्रियां क्यों नहीं करती ? पुरुष तपस्या करते हैं स्त्रियां क्यों नहीं काती : क्योंकि उनमें बल्ल वुद्धी पूर्वावर विचार सहन शीलता आदि गुण नहीं होते।
सेठजी-झांसी की महारानी ने युद्ध किया था। मीरा बाडे ने तपस्या की थी उन्हें आप विल्कुल भुना ही रहे हैं।
सज्जन-एक हजार पुरुषों का दृष्टांत जहां उपस्थित हो वहां यदि १ स्त्री का दृष्टांत भाजाय तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि वह कार्य सब स्त्रियों ने किया होगा।
सेठजी-तो मैं क्या करूं, मैं तो अपनी लड़कीको कालेज में पढ़ा रहा हूं। इससाल वह बी. ए. के तीसरे वर्ष है में। यदि उससे कहूं कि पढ़ना छोड़ दे तो भी वह नहीं छोड़ती । भाई मेरे पास रुपया है तो मैंने सोचा कि उसे इसी तरह सदुपयोग
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( १५८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण।
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में लगाना चाहिये । शिक्षा की बराबर कोई दूसरी वस्तु ही नहीं है।'
सज्जन-आपकी पुत्री को प्रायू इस समय कितनी होगी। सेठजी-उसकी आयु इस समय बाईस वर्ष की है।
सज्जल-उसके पती क्या कार्य करते हैं। तथा उसके कितने बच्चे हैं।
सेठजी---वह कहती है कि मैं महारानी ऐलीजाबेथ सरीखी कुवारी ही रहूंगी । इस लिये उसने अभी तक ब्याह नहीं कराया है।
सज्जन---किन्तु आप उसकी बातों में आगये न ? सेठजी-तो आप ही बताइये मैं क्या करूं ?
सज्जन--आप याद रखिये ! वह आपके माथे पर कलंक का टीका लगाने की तैयारी कर रही है।
सेठजी---कहीं शिक्षा देने का भी ऐसा बुरा परिणाम होता है ? श्राप कृपया ऐसे शब्द मुंह से न निकालिये। वरना आपके लिये बुरा होगा।
सज्जन-थे तो आप स्वयं देखलगे कि बुरा होगा या - अच्छा और किसके लिये होगा। क्षमा कीजिये मैं जाला हूं।
(चला जाता है।)
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तृतिय भाग ।
(१५९)
सेठजी-मुझे भी आज कल कुछ छोरी के बुरे ढंग दीख रहे हैं। हे ईश्वर मेरी छोरी को सदा सुबुद्धि हो ।
छोरी-(प्राकर ) फादर आप सदा मेरे लिये ईश्वर से भला चाहते हैं । आपकी बराबर इस दुनिया में मेरा दुसरा हित चिन्तक नहीं है।
सेठजी-कहो वेटी मोहनी श्राज कल तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है।
मोहिनी-पिताजी मेरी पढ़ाई आज कल बहुत अच्छी चल रही है। कालेज का प्रिसिंपन्न और सब प्रोफेसर मुझे बहुत चाहते हैं । मैंने एक समय सभा में कालेज छोड़ने का प्रस्ताब रखा था इस पर वो लोग रंज करने लगे और मुझे कालेज में रहने के लिये सबने विवश किया | आज मुझे फिर एक मीटिंग में जाना है। मैं आपको इनफार्म करने आई हूं ताकि मेरे जाने पर आप मुझे ढूंढते न फिरें।
सेठजी---इनफार्म किसे कहते हैं। ___ मोहिनी-(हँसकर ) पिताजी आप बहुत भोले हैं। कहिये तो मैं आपको एक घंटा इंगलिश पढ़ा दिया करूं । इनफार्म कहते हैं इत्तला करना ।
सेठजी--मोहिनी ! यदि तु बजाय इत्तिला के भाज्ञा शब्द कहती तो क्या हज था ?
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( १६०)
श्री जैन नाटकीय रामायण
मोहिनी-पिताजी आपने मुझे पहले से ही कह रखा है कि मुझे आज्ञा लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। दूसरे यदि मैं आज्ञा मांगू और भाप न दें, तो मेरा जाना रुक जाय । कहिये में चली जाऊ न मीटिंग में ?
सेठजी-(स्वगत) बस अब ये छोरी बिगड़ गई। वास्तव में मेरे सिर पर कलंक का टीका लगायेगी ।
मोहिनी-पिताजी ! आप क्या सोच रहे हैं। मुझे उत्तर दीजिये । मीटिंग के लिये देर होरही है।
सेठजी-~-श्राज मेरी कुछ तबियत खराब है । मैं चाहता हूं कि तुम भाज कहीं मत जाओ! __ मोहिनी-आपकी तबियत में मैं क्या कर सकती हूं। आप मुझे मीटिंग में जाने से क्यों रोकते हैं । भाप कहें तो मैं उधर से उधर ही डाक्टर को बुलाती लाऊंगी ।
सेठजी-मोहिनी मैं तुम्हारा पिता हूं । क्या तुम भाज इतना भी नहीं कर सकती कि मेरे लिये रुक जाओ!
मोहिनी---यदि मैं किसी बुरे काम के लिये जाती हो तो आप मुझे रोकते । अब मैं कदापि नहीं रुक सकती हूं।
गुडबाई ( चली जाती है ) सेठजी-इन सुधार कों का नाश हो ! इन्होंने मुझे
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वतीय माग
भपारे पर चढा २ कर मेरा घर बर्बाद कर दिया। (बला जाता है। मोहिनी दूसरी ओर से सतीष को साथ
लिये हुने आती है। मोहनी-सतीष देखो तुम और मैं दोनों एक दूसरे के प्रेम में जकड़े हुवे हैं। दोनों में से किसी का भी विवाह नहीं हुमा है ! दोनों एक ही क्लास के हैं।
सतीष-किन्तु तुम्हें अपने दिये हुये टायम से २ मिनट की देर क्यों होगई ? . ___ मोहिनी-उस बुढे बापने तवियत खराब का ढोंग बनाकर मुझे रोकना चाहा था । इसी से देर होगई। मैं क्षमा चाहती हूं।
सतीष-मेरी तवियत तो इस समय मिल कर गाने को चाहती है । आपकी क्या राय है?
मोहनी--क्या मोहनी कभी गाने में आज तक पीछे ही है ?
सवीप-तो शुरू कीजिये। मोहिनी-प्रस्ताव आपका ही है। भाप ही नेता बनिये । (दोनों मिल कर गाते और अमेजी नाच नाचते हैं)
गाना सती -मोहिनी मोह लिया तेरे काले बालों ने।
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( १६२ )
भी जैन नाटकीय रामायण ।
मोय घायल है किया तेरी नोखी चालों ने ॥
मोय प्रेमी बना भरमायारे ॥ मोय
मोहनी - अधकटी मूंछ तुम्हारी है गजब का चेहरा | जब से कालिज में गई मोह लिया मन मेरा ॥ मोय रूप तेरा यह भाया रे ॥ मोय • ॥ दोनों साथ ( एक दूसरे से )
तुम ही ने पहले मुझे प्रेम में फंसाया है । झूठ बोलो हो तुम्हीने तो ये सिखाया है । खर जाने दो ये झूठी मायारे ।
प्रेमियों के निकट प्रेम आया रे ||
"
है न १
०
( दोनों भाग जाते है ) क प्रथम - दृश्य तृतिय
11
७
( ब्रह्मचारी और साधू आते हैं ।
ब्र० - कहिये साधुजी आपकी सब समझ में आ रहा
"
साधु --- जब दशरथजी का स्वयंवर में दूसरे राजाओं से युद्ध हुआ तो उसके पश्चात क्या हुआ ।
?
ब्र० - सुनिये जिस समय स्वयंबर में युद्ध छिड़ा उस समय
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तृतिय भाग ।
(१६३ )
केकई की चतुरता से और अपने पराक्रम से महाराज दशरथ ने सबों को मार भगाया । पश्चात केकई के गुणों से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा । केकई ने उस वर को राजा के पास घरो हर रख दिया । इसके पश्चात अयोध्या में इनकी सब से बड़ी रानी कौशल्या से श्री रामचन्द्र का जन्म हुआ । जिन्हें पद्म और बलभद्र भी कहते हैं। इसके पश्चात सुमित्रा से लक्ष्मण का जन्म हुमा । केकई से भरत का जन्म हुआ। और सब से छोटी रानी सुप्रभा से शत्र घन का जन्म हुधा ।
साधु-रामायण में तो शत्र घन का जन्म सुमित्रा से ही बताया है।
-रामायण की प्रत्येक बात सच नहीं मानी जा सकती। किन्तु जैन शास्त्र पद्मपुराण ऐसे भाचार्य के द्वारा लिखा गया है जो स्वार्थ से बिल्कुल परे थे। जिनको इतना ज्ञान प्राप्त था । कि वो भूत काल सम्बन्धी बातों को स्पष्ट जान सकते थे। हमें उन्हीं के वचन प्रमाण हैं।
सा०-अब श्राप कृपा करके सीता के विषय में दिखलाईये
ब्र०—पहले रामचन्द्र और तीनों भाइयों की विद्या प्राप्ती दृश्य दिखा कर फिर सीता के विषय में दिखताउंगा । यह पद्म पुराण बहुत बड़ा शास्त्र है । यदि इस की एक एक बात स्टेज पर दिखाई जाय तो करीब एक माह चाहिये । इस लिये मैं जनक
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( १६४ )
श्री जैन नाटकीय रामायण |
और उनकी रानी विदेहा के विषय में भापको परिचय कराये देता हूं । सुनिये !
सा० – कहिये मैं बराबर सुन रहा हूं ।
० राजा जनक की स्त्री विदेहा के गर्भ से पुत्र और पुत्री का जन्म हुआ । कोई देव पूर्व काल के वैर से उसके पुत्र को उठा लेगया । और मारना चाहा किन्तु फिर उसे दया भा गई । और उसे गहने पहना कर जंगल में छोड़ गया । कोई एक परालब्धी नामक विद्याधर उस रास्ते से भाया । और वह उसको उठा लेगया । और अपनी स्त्री को दे कर अति लाड़ प्यार से उसे पाला । उसका नाम भामंडल रखा। इधर पुत्र को हरण देख कर रानी विदेहा कैसे २ विलाप करती है । इसको इस दृश्य के पश्चात दिखाया जायगा ?
सा०--- रामायण में केवल सीता का जन्म ही दिखाया है किन्तु आपने उसके विषय में सब बता दिया । एक बात यह पूछनी है कि सीता को वैदेही कहा है क्यों कि वह किसी के देह से उत्पन्न नहीं हुई थी । हल चलाते हुने खेत में गड़ी हुई मिली थी। यह क्या बात है ?
न० - सुनिये, सीता का नाम वैदेही इस लिये पड़ा है कि वह विदेहा रानी की पुत्री थी । हल चलाते हुवे पृथ्वी में से, सीता, निकली ! यह बात असंभव है ।
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तृतिय भाग।
( १६५)
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सा०-मैं भी यही सोच रहा था कि यह बात सम्भव नहीं हो सकती । चलिये खेल शुरु होने दीजिये।
(दोनों चले जाते हैं)
अंक प्रथम-दृश्य चौथा (गुरुजी बालकों को पढ़ा रहे हैं। पहले स्वयं
बोलते हैं । फिर पालक बोलते हैं। कक्का कितना ही भय भावे, क्षत्री पुत्र नहीं धनरावे। खख्खा ख्याल प्रजा का राखे, स्वयं चाहे वो दुःख उठावे । गग्गा ज्ञान घरम नित पाले, झूठ बचन मुख से नहीं काले। घघा घर पर के नहीं जावे, पर नारी से शील बचावे । बच्चा चाहे जावें प्रान, जाय ना पर क्षत्री मान । छच्छा छोटों से रख प्रेम, पालन कर वृद्धों का नेम । जज्जा जीव दया नित पाल, दुष्टों से दुखियों को काल । झज्झा झूठा सब संसार, जीव दुखी हों बारंबार । रट्टा टूटें कर्म किवाड़, खुल जावे मुक्ती की भाड़ ! गुरु-अच्छा रामचन्द्र बताओ कि पांच पाप कौन से हैं ? रामचन्द्र-सुनिये! मन वच काया से जीवों को दुख देना हिंसा कहते ! माया रचना अप्रिय कहना झूठ बचन इसको कहते ! गुरु-लक्ष्मण अगाड़ी तुम बोलो ।
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(१६६)
श्री जैन नाटकीय रामायण
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लक्ष्मण-बिना दिये पर वस्तू लेना, नाम इसी का चोरी है । ब्यभिचार है पाप चतुर्था नर जीवन की डोरी है।
गुरु--भरत अगाड़ी तुम बोलो।
भरत-इच्छित. वस्तु खूब बढ़ाना, परिग्रह कहलाता है। इन पापों का सेवन वाला, नर नरकों में जाता है।
गुरु-शत्रुधन तुम चारों कषायों के नाम बोलो ।
शत्रुधन-क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं। इनके वश होकर जीव अनेक दुःख पाता है ।
गुरु--रामचन्द्र, तुम बताओ कि शिकार खेलना चाहिये या नहीं ?
रामचन्द्र-गुरुजी ! शिकार इस लिये नहीं खेलना चाहिये कि इससे बेचारे अनाथ असहाय और दीन पशुओं का बध होता है। ।
गुरु-युद्ध करना चाहिये या नहीं ? बताओ लक्ष्मण !
लक्ष्मण-यदि अपने देश अपने धर्म, अपनी जाति और अपने बन्धुओं पर कोई आपत्ति पा रही हो तो उससे बचने के ' लिये युद्ध अवश्य करना चाहिये।
गुरु-किन्तु उसमें लाखों मनुष्यों का वध होता है। लक्षमण-मैंने माना कि उसमें बध होता है और वो
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तृतिय भाग ।
( १६७ )
हिंसा है, किन्तु हमारा जैन धर्म यह नहीं बताता कि थापत्ति के काल में मुंह छिपाकर कायर बनकर बैठ जाना ग्रहस्थी लोग अणुव्रती होते हैं। उनसे जो ग्रहस्थी में पाप होते हैं । वह उन्हें विवश होकर करने पड़ते हैं । यह बात अवश्य है कि हमें किसी पर बलात्कर नहीं करना चाहिये। किसी का धन देश या नारी हड़पने के लिये युद्ध करना जिन धर्म के खिलाफ है ।
गुरु- वास्तव में लक्ष्मण तुम नीति और धर्म शास्त्र में निपुण हो । जाओ अब मैं तुम्हें छुट्टी देता हूं ।
( सब बच्चे भाग जाते हैं पर्दा गिरता है ) अंक प्रथम - दृश्य पांचवां
(विदेहा रानी तुरत की पैदा हुई सीता को लिये लो रही है। जाग कर पुत्र को देखती है उसे
न देख कर वह व्याकुल होती है। पलंग के नीचे देखती है । दासी को बुलाती है ) विदेहा - कमला ! कमला ! जल्दी था ।
कमला - ( आकर ) क्या आज्ञा है महारानी जी १ विदेहा—जा सारे महल में मेरे पुत्र को ढूंड | न मालुम कौन मेरे पास से सोते हुये पुत्र को उठा ले गया ? ( कमला जाती है । मेरे बच्चे को कौन उठा लेगया ? हाय मैं क्या करूं । उसे कहां हूं । ( कमला आती है ) क्यों लाई मेरे बच्चे को ?
!
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( १६८)
भीजैन नाटकीय समायण ।
कमला--महारानीजी महल में तो कहीं नहीं है । पहरे दारों से पंछा वो भी कहते हैं कि यहां कोई भी नहीं आया।
विदेहा-तब तो अवश्य ही उसे कोई देव उठा कर ले गया। अरे दुष्ट! तू मुझे भी मेरे बच्चे सहित क्यों न उठा लेगया हाय न मालूम मेरा बच्चा किस अवस्था में कहां होगा ? नौ माह तक कष्ट सहा किन्तु फिर भी पुत्र का मुख न देख' सकी । हाय पुत्र का हरण मेरे लिये मरण तुल्य है । न मालूम उस दुष्ट देव ने उसे कहां पटका होगा ( रोती है )
जनक---( आकर ) क्यों कमला ! तुम्हारी महारानी क्यों रोती हैं ?
कमला--महाराजाधिराज, रात्री को महारानी के सोतेहुये इनके पुत्र को कोई दुष्ट देव हर कर ले गया है । इसीसे ये इतनी व्याकुल हैं।
जनक-संसार में हर एक प्रकार का वियोग सहा जा सकता है। किन्तु स्त्रियों के लिये पती और पुत्र का वियोग असह्य होता है। मेरे राज्य का तो दीपक ही बुझ गया ( दुखी होता हैं ) नहीं, नहीं, इस समय मुझे स्वयं न दुखी होना चाहिये । किन्तु दुखसागर में डूबी हुई रानी को समझाना चाहिये
विदेहा--हे स्वामी! श्राप किसी प्रकार मुझे पुनसे मिलाओ, मैं उसके बिना नहीं रह सकती।
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तृतीय भाग
( १६९)
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जनक-प्रिये तुम चिन्ता न करो ! तुम्हारा पुत्र बहुत सुख से है । वह कहीं न कहीं पर अवश्य वृद्धी पा रहा होगा । में तुम्हें उससे यनश्य मिलाउंगा। इस पुत्री को ही पुत्र मान कर धैर्य धारण करो।
विदेहा का गाना किस तरह धीरज धरूं, जब पुत्र ही मेरा नहीं । गाय को बछड़े विना क्या चैन पाती है कहीं ॥ नौ महीने कष्ट सह कर लाल पा कर खो दिया । होगये दोनों अलग हैं वो कहीं और मैं कहीं। जान सकती हैं व्यथा मेरी वही बस नारियां ॥ पुत्र जिन ने एक पाकर खोदिया अब रो रहीं । जन्म लेता ही नहीं तो धीर मुझको थी यही ॥ किन्तु हो करके उदय वो छिप गया जा कर कहीं॥
पर्दा गिरता है
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अंक प्रथम-दृश्य छटा ( हाराजा दशरथ का दार । राम लक्ष्मण भी बैठे हैं)
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( १७०)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
१ दूत-( पाकर ) महाराजाधिराज की जय हो । जनक पुरी से एक दूत पाया है।
दशरथ-उसे तुरन्त मेरे सामने उपस्थित करो। ( दूत जाता है जनक का दृत श्राता है। ) कहो क्या समाचार लेकर आये हो?
दूत-महाराजाधिराज की जय हो । कैलाश पर्वत के उत्तर की ओर म्लेक्ष लोगों का वास है। सातों "व्यसन उनमें पाये जाते हैं। कुछ ही दिन हुने कि महाराजा जनक का पुत्र किसी देव के द्वारा हरा गया था। उसके दुख से वो दुखी थे कि इतने में ही म्लेक्ष लोग बहुत बड़ी सेना लेकर सारे आर्य 'देशों को उजाइते हुने मिथिलापुरी भागये हैं। यहां पर वो घोर उपद्रव मचा रहे हैं। किसी के द्वारा जीते नहीं जाते । सबको अपने ही धर्म में मिलाना चाहते हैं। आपसे उन्हें भगाने के लिये महाराज ने प्रार्थना की है।
दशरथ-पुत्र पद्म तुम राज्य का भार सम्हालो । मैं जाकर उनको भगा कर पाता हूं । यदि मैं युद्ध में मारा भी गया तो कोई चिन्ता नहीं । क्षत्रियों का धर्म ही युद्ध काना है । .
रामचन्द्र-यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे होते हुवे माप युद्ध के लिये जाय । मैं जाकर उन म्लेक्षों को अभी भगाता हूँ।
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तृतिय भाग ।
(१७१ ) ·
दशरथ-तुम बच्चे हो, युद्ध में जाने योग्य नहीं हो । तुम यहीं पर सुख से तीनों भाइयों सहित राज्य कार्य सम्हालो !
रामचन्द्र-पिताजी ! भाप यह न समझे कि बच्चा होने के कारण मैं युद्ध नहीं कर सकता । अग्नि की चिनगारी कितनी जरासी होती है किन्तु वही सारे बनको भस्म कर देती है, क्या उगता हुश्रा सूर्य अपार अंधकार को नष्ट नहीं कर देता? आप मुझे श्राज्ञा दीजिये, मैं भाई लक्षमण सहित युद्ध में जाकर उन म्लेक्षों से प्रजा की रक्षा करुंगा।
लक्ष्मण-पिताजी आप हमें प्राज्ञा देने में कुछ भी संकोच न कीजिये । रण क्षेत्र में जाते ही हम लोग उन्हें मार कर भगा देंगे।
दशरथ-यदि तुम दोनों भाइयों की इच्छा हैतो जाओ रण । क्षेत्र में जाकर राजा जनक की सहायता करो। ( दोनों पुत्र दूत सहित पिता को नमस्कार कर चले जाते हैं)
(पर्दा गिरता है।)
अंक प्रथम-दृश्य सप्तम (राजा जनक और म्लेक्ष सार आता है)
म्लेक्ष-या तो तुम हमारे साथ रोटी बेटी व्यवहार करो हमारे वणे में आकर मिलो । वरना हम लोग दूसरे देशों की तरह
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(१७२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
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तुम्हारे देश को भी उजाड़कर फेंक देंगे।
जनक-कदापि नहीं, चाहें सारा देश क्यों न उजड़ जाय किंतु मैं तुम लोगों म्लेशोंके साथ, जिनमें जीव दयाका नाम मात्र भी नहीं है । रोटी बेटी व्यवहार कदापि नहीं कर सकता । मैं क्षत्री हूं । क्षत्री लोग धर्म की रक्षा के लिये हैं न कि धर्म को दूसरों के हाथ सौंपने के लिये | जब तक एक बच्चा भी क्षत्री जाति का बचा रहेगा वह तुम्हारे हाथों से धर्म को बचायेगा ।
, म्लेश सर्दार-यदि तुम राजी नहीं होते हो तो युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।
जनक-मैं सदैव युद्ध के लिये तैयार हूं। क्षत्री लोग युद्ध से नहीं डरते। मिटते हैं धर्म पर जो, क्षत्री फहाते जग में । रहता है जोश हरदम, नत्री की हर एक रग में ।। निज देश धर्म जाती, अबलाओं को बचाकर । मरते हैं वीर रण में, शत्रू के वाण खाकर ।। (पर्दा खुलता है। दोनों ओर की सेना खड़ो हुई है युद्ध के बाजे बजते हैं। दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ होता है। राजा जनक घाबल होकर गिरता है, शत्र उसके ऊपर झपटते हैं। इतने में राम
. लक्ष्मण आते हैं।)
२
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तृतिय भाग।
(१७३)
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राम-(जलकार कर) ठहरो, यदि जनकको हाथ लगाया तो समझ लेना कि यह हाथ शरीर से जुदा होजायेंगे । लक्ष्मण तुम जनक को सचेत करो (लक्षमण जनक को उठा ले जाते हैं । फिर आजाते हैं।)
मलेन-ओ दुध मुंहे बच्चे, जा अपनी मां की गोद में खेत । रण में खेलना तेरे जैसों का काम नहीं है। यदि एक भी वाण लग गया तो तेरी मां निपूती कहलायगी । राम-बच्चा नहीं मैं काल , हूं प्राण हरने के लिये ।
आया हूं मैं रण क्षेत्र में, बस युद्ध करने के लिये ।। हैं प्राण प्यारे गर तुम्हें, तो भाग जाओ देश को। .
तन से तुम कर दो अन्नग, इस वोरता के भेष को । लक्ष्मण-समझो नहूं जंगली पशु, बन जाऊंगा तेरा शिकार ।
बाणों से तुमको छेदकर, दूंगा बहा मैं रक्तचार ।। बालक के आगे सरं झुकाने से प्रथम जाओ चले ।'
हिंसा न मुझको दो यदी, लगते तुम्हें निज तन भले ॥ म्ले क्ष सुन सुन के बात तेरी, मम कोध बढ़ रहा है।
आकर पड़ेगा नीचे क्यों इतना चढ़ रहा है। ! - ये धमकी दूसरों को ही दिखाना छोकरे कल के ।
खड़ा रहने न पायेगा तु सन्मुख बीरता के ॥ लक्ष्मण-अकेला ही मैं तुम सबको, यहीं पर दूं सुला क्षण में।
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( १७४ )
श्री जैन नाटकीय रामायण |
जो भक्षक मांस के हैं, वो दिखा सकते हैं क्या रण में । / नहीं अब तक मिला है वीर तुमको कोई मुझ जैसा ||
।
न देखा होगा तुमने क्षेत्र रण का आज के जैसा || म्लेक्ष नहीं जाते सहे कर्कश बचन इन दुष्ट बच्चों के राम - लगे हैं दुष्ट को ही वाक भद्दे साधु सच्चों के ॥ घड़ी जब नाश की कोई पुरुष के सामने भाती । तो सत शिक्षा भी उसके वास्ते भग्नि ही होजाती || म्लेन -- बिताते हो समय क्यों बाद में कुछ करके दिखलाओ | यदी हो वीर तो बढ़कर के भागे युद्ध में आओ || लक्ष्मण - नहीं आते हैं जब तक ही तुम्हारी प्राण रक्षा कि आते ही मचेगी किस तरह हो प्राण रक्षा है || ( युद्धके बाजे बजते हैं दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है)
F
ड्राप गिरता है
क द्वितिय - दृश्य प्रथम
1
( नारदजी हाथ में बीणा लिये हुवे आते हैं गाते हुवे ) जय जिनेन्द्र जयजिनेन्द्र जयजिनेन्द्र जय जिनेन्द्र |
( कुछ देर तक गौकर फिर कहते हैं ) नारद - मैंने राजा दशरथ के पुत्र राम की बहुत प्रशंसा
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तृतीय माग
(१८३)
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चन्द्रगती-पुत्र तुम शोक मत करो । मैं तुम्हें अवश्य ही सीता दिलाऊंगा तुम चैन से रहो । ( सेवक से ) जाओ चपलवेग को शीघ्र बुला लाओ ( जाता है चपनवेग सहित भाता है।)
चपलवेग-महाराजा धिराज की जय हो । कहिये मेरे लिये क्या प्राज्ञा है।
चन्द्रगती--(चपलवेग को एकांत में बुलाकर ) देखो हम लोग विद्याधर हैं । भूमीगोचरों के घर जाकर उनसे कन्या नहीं मांग सकते इस लिये तुम मिथिला जाकर घोड़े का रूप बनाआ। जब राजा जनक सवारी करें तब उन्हें यहां उड़ाकर ले आओ। कार्य अत्यन्त कुशलता से होना चाहिये। धोका न खाना । काम करके जल्दी श्राना।
चपलवेग--जैसी धाज्ञा ( जाता है)
चंद्रगती--पुत्र भामण्डल चलो महल में चलो । तुम्हारी माता तुम्हारी वाट देखती होगी । अब तुम कोई चिंता न करो सीता तुम्हें अबश्य प्राप्त होगी।
(सव चले जाते हैं । पर्दा गिरता है।)
अंक द्वितिय दृश्य चतुर्थ ( राजा जनक और चपलवेग आते है।)
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(१८४)
श्री जैन नाटकीय रामायण
जनक-तुम मुझे यहां पर क्यों ले आये हो ? क्या तुम लोग इसी लिये विद्या साधन करते हो कि दूसरों को कष्ट दो। किसी विषय की शिक्षा प्राप्त करके यदि उसके द्वारा दूसरों को लाभ न पहुंचा सकें तो कष्ट भी नहीं देना चाहिये ।
चपलवेग---तुम्हें अपने यहां आने का हाल अमी मालूम होजायगा । यहीं से थोड़ी दूर पर एक जिन मंदिर है तुम उसमें , जाकर ठहरो । मैं स्थनूपुर जाता हूं। ( चला जाता है । )
जनक-न मालूम क्या क्या मेरे अशुभ कर्मक उदय पायेंगे। (चला जाता है, पर्दा खुलता है, जिन मंदिर का दृश्य सामने आता है वो वहां पहुंचता है।)
प्रार्थना गाना । जनक-जग से अनोखा तुझको, हे देब मैंने देखा। ये शांत रूप तेरा हां, ये शांत रूप तेरा,
जिनराज मैंने देखा। तू कर्म का विनाशी, मुक्तीका है विलासी । सब दोषसे रहित तू हांसब दोष से रहिततू।
· जिनराज मैंने देखा ॥ ( दूसरी ओर देखकर ) हैं। ये किसकी सेना पा रही है ?
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Che
तृतीय भाग
मैं अब किसकी शरण ग्रहण करूं १ याद आया जिनराज की शरण के तुल्य इस जग में दूसरी शरण नहीं है । में इन्हींके सिंहासन के पीछे जाकर छिपता हूं | ( छिप जाता है | )
"
( चन्द्रगती सेवकों सहित आता है। भक्त लोग जय जिनेन्द्र के गान में मस्त हैं । कोई नाचते हैं, कोई बाजे बजाते हैं कोई घंटों की ध्वनी कर रहे हैं। सबके सब भक्तो पूर्वक शीष झुकाते हैं । ) प्रार्थना |
चन्द्रगती
तुम परम पावन देव जिन अरि, रज रहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान हग जल बीच त्रिभुवन, कमलपत प्रति भासनं ॥ आनन्द निधन अनंत अन्य अर्चित संतत परनये ।
चल अतुल कलित स्वभाव नहीं, खलित गुनश्रमिलित थये ( उसकी प्रार्थना को सुनकर राजा जनक बाहर आजाता है । चन्द्रगती जनक को देखता है ।) चंद्रगती --- हे महाशय ! आप यहां पर किस लिये पारे | श्रापका नाम ग्राम कौनसा है ?
जनक - मैं मिथिलापुरी का गजा जनक हूं । माया मई घोड़ा मुझे यहां उड़ा लाया है । आपका क्या नाम है ?
चन्द्रगती - मैं रथनूपुर का राजा विद्याधरों का स्वामी चन्द्रगती हूं। तुम्हें देखकर मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ है । तुम्हें मैंने ही बुलाया है ।
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( १८५ )
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( १८६ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
जनक-ऐसे योग्य पुरुष से मित्रता करने में मैं अपना सौभाग्य मानता हूं । कहिये मेरे लिये क्या आज्ञा है ? ' 'चन्द्रगती -- मैंने सुना है कि तुम्हारे एक सीता नामक चुत्री है उसके रूप की प्रशंसा सुन कर मेरा पुत्र भामण्डल उसे प्राप्त करने के लिये अत्यन्त व्याकुल हैं । सो तुम अपनी पुत्री मेरे पुत्र से व्याह कर मुझसे चिरकाल सम्बन्ध स्थापित करो ।
जनक- हे विद्याधरादि पती, मैं अपनी पुत्री को तुम्हारे पुत्र के लिये देने में असमर्थ हूं क्योंकि मेरा निश्चय दशरथ के पुत्र राम को पुत्री देने का है।
चन्द्रगती-तुमने उसमें क्या गुण देखे जो उसे पुत्री देने का विचार किया ।
जनक-सुनिये जिस समय मेरे ऊपर म्लेच्छों का श्राक्रमण हुआ था. उस समय राम लक्षमण दोनों भाइयोंने ही आकर मुझे और मेरे नगर को बचाया था, उनको प्रत्युपकार में मैंने अपनी पुत्री को देने का निश्चय किया है । वो महान पराक्रमी : ऐश्वर्यमान है
चन्द्रगती-हे जनक ! तुम उस छोकरे की क्यों इतनी प्रशंसा करते हो । हम विद्याधरों से बढ़कर वो कदापि नहीं हो सकता । विद्याधर आकाश में चलने वाले देवों के
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( २०० )
श्री जैननाटकीय रामायण
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दूत--(आकर) श्री रामचन्द्रजी की और सीताजी की जयहो।
सीता-कहो दृत क्या समाचार लाये हो ?
दूत-मैं ऐसा समाचार लाया हूं जो अभी तक कोई नहीं लाया होगा।
सीता-वह क्या शीघ्र कहो ? दूत-श्रापके भाई...........
सीता-मेरा माई ! मेरा भाई कहां हैं . तु मेरी हंसी क्यों उड़ाता है उसे तो जन्मते ही कोई हर ले गया है । वह अब कहां । हाय भाई....."( रोने लगती है )
दूत-श्रापके भाई आपसे मिलने आ रहे हैं। वह एक विद्याधर के द्वारा पाले गये हैं। उनका नाम भामण्डल है, उन्हें जाती म्मरण हुआ है । आप हर्ष मनाइये ।।
सीता-कहां है ! कहां है !! कहां है !!! ( चारों तरफ देखती है, भामण्डल को आते देख उससे चिपट जाती है।) भाई तुम अब तक कहां रहे ? मुझे क्यों नहीं मिले ? माता तुम्हारे लिये रात दिन रोती हैं। (गले चिपटकर रोने लगती है, भामण्डल भी रोने लगता है)
भामण्डल-हाय कर्मों की गती विचित्र है। ऐसी बहन से मैं अब तक न मिल सका वहन ! तुम रोती क्यों हो ! खुशी मनाओ । देखो सामने तुम्हारे भर्तार रामचन्द्रजी खड़े हैं । हघर
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तृतीय भाग।
(२०१ )
पिता चन्द्रगतीजी खड़े हैं । प्रेम के लिये बहुत समय है।
सीता-भाई मुझे तुम्हें देखकर श्राज अनोखी सम्पदा मिली है। ( चन्द्रगती से) पिताजी आपने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया जो मेरे भाई को मुझसे मिलाया !
चन्द्रगती-उपकार नहीं, मैं अपने दुर्भाग्य समझता हूं जो अब तक तुम सरीखी पिता कहने वाली पुत्री के दर्शन न कर सका । तुम्हारी और रामचन्द्र की जोड़ी देखकर मुझे भत्यन्त हर्ष है। (राजा जनक गाता है। विदेहा भी आती है । इशरथ भी आते हैं। और भी लग लोग आ. जाते हैं विदेहा दौड़कर भामण्डल के चिपट जाती है। पुत्र ! पुत्र कहते नहीं थकती । सब आपस में मिलेते हैं । जनक की आंखों से भी पानी बह रहा है। दशरथ आदि सर हर्ष मना रहे हैं।)
ड्राप गिरता है द्वितिय अंक समाप्त
अंक तृतिय-दृश्य प्रथम (जंगल का दृष्य है। एक शिलापर एक मुनि बैठे हैं । राजा दशरथ उनके पास जाते हैं। प्रणाम
करके स्तुति करते हैं)
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( २०२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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स्तुति है कांच कंचन एक समजो, बन महल सब एकसे। चाहे रिपु हो मित्र हो या, भाब हित से देखते ॥ . तन सुखाते नित्य तप से, कर्म को हो मेटते । छोड़ सब जंजाल तुम निज, आतमा से भेंटते ॥ हे गुरू ? मैं चाहता हूं, धर्म का उपदेश हो। चाहता मुनिपद ग्रहण करना सभी ये भेष खो ॥ हूं दुखी संसार से मैं, तारिये मुझ को गुरू । दीजिये शिक्षा विमल को, होय आत्मोन्नति शुरू॥ ___मुनिमहारान-हं भव्य तेरे धरम उपदेश सुनने के बहुत उत्तम भाव पैदा हुवे धर्म दो प्रकार का है एक मुनि धर्म
और दूसरा ग्रहस्थ धर्म । ग्रहस्थ धर्म में मनुष्य घर में रहते हुये ब्यापार करते हुवे भी यथा योग्य बारह व्रतों को पालते हुवे अपनी श्रात्मा का उपकार कर सकते हैं । मुनि धर्म अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें सारे घर बार नारी बच्चे सब छोड़ कर जंगल में वास करना पड़ता है । पंच महाव्रत पालने पड़ते हैं ! अपनी देह से ममत्व छोड़ना पड़ता है। तू जिस धर्म को चाहे मैं संबोधूं।
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तृतीय भाग
(२०३)
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दशरथ-हे गुरू! मैं आपसे मुनि का धर्म सुनना चाहता हूं। मैं इस संसार से व्याकुल हो रहा हुँ । मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मुझ में वैराग्य उत्पन्न हो ।
सुनी-हे भव्य सुन ! इस संसार में चार गतियां हैं। किन्तु जीव का सुख किसी भी गती में नहीं है। मनुश्य गती में मनुष्यों को अनेक प्रकार की चिन्ताओं और इच्छाओं के कारण कभी सुख नहीं मिलता। किन्तु मनुष्य गती से जीव मोक्ष जा सकता है इसीसे इस गती को सर्वोत्कृष्ट बताई है । अत्यन्त कठिनता से जीव को मनुष्य की देह प्राप्त होती है। मनुष्यों में भी उत्तम धर्म उत्तम कुल उत्तम जाति और उत्तम शरीर का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है यदि इन्हें पाकर भी किसी ने धर्माचरण नहीं किया तो समझ लो कि उमन चिन्तामणि रत्न को हाथ से खोदिया । जो लोग कहते हैं मनुश्य बन कर भोगविलास करना चाहिये वो मूर्ख हैं। ये भोगविलास मनुष्य को अपनी
ओर लुभाने वाले हैं उनकी ओर न खिंच कर यदि ये मनुष्य धर्म के मार्ग पर आचरण करता है तो ऐसे सुख को प्राप्त होता है जो कभी नाश न हो। इस लिये हे भव्य तूने मनुष्य की उत्तम देह पाई है तू इस संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिये मुनी धर्म का आचरण कर ।
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( २०४)
श्री जैन नाटकीय रामायण
दशरथ-हे जगत गुरु स्वामी ! आपने अपना सत उपदेश देकर मुझे दृढ़ किया । मैं अयोध्या जाकरे गमचन्द्र को राज्य देकर बनमें जाकर मुनीवेष धारण करूंगा ।
पर्दा गिरता है।
अंक तृतिय-दृश्य द्वितीय
कोमिक (एक साधू आता है, उसके पीछे साधू भेष में ही
सतीष आता है।) साधु-जय लक्ष्मी, जय लक्ष्मी ।
गाना लक्ष्मीसे इस जगके भीतर, नर जन मौज उड़ाते हैं। लक्ष्मी बिन कहलाते लुच्चे, पगपग ठोकर खाते हैं। चाहे होय कुकर्मी पापी, पर होवे लक्ष्मी वाला। भेष छिपा करके उसका यश, पंडित गण सब गाते हैं लक्ष्मी से परसन हो लक्ष्मी, पति से प्रेम दिखाती हैं, लक्ष्मी बिन पति तो निश दिन ही, घर जाते भय खातेहैं कहलाना हो बड़ा पुरुष तो, करलो लक्ष्मी की सेवा।
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तृतिय भाग
( २०५ )
जो हैं लश्मीवान जगत में, सब से पूजे जाते हैं।
सतीष-हे साधु बाबा, माप मुझे ऐसा मार्ग वताइये जिससे में इस संसार में अपना हित कर सकूँ । मैं दुनिया से भयभीत हैं।
साधू.-यदि तुझे अपना हित करना हो तो जाकर किसी शहर से बाहर ध्यान लगाकर बैठ जा । लोग वहां आ पाकर के तुझे मस्तक नवायें और तुझे पूजें । तु जिस तरह हो सके उन्हें झांसे में लाकर खूब ठगना इस तरह से तुम बड़े मजे से अपनी जिन्दगी बिता सकोगे।
सतीप-रहने दीजिये मुझे आपका उपदेश नहीं चाहिये जिस संसार से मैं इतना भयभीत हूं उसी में फंसने का श्राप मुझे मुझे उपदेश देते हैं । आपका काम जिस प्रकार भाली दुनिया का ठाना है वहीं मुझे बताते हैं। धर्म समझकर लोग आपका पैसा देते हैं । उससे आप महा निंदनीय वस्तु गांजा और भंग पीत हैं।
साधु-दुष्ट कहींके मेरे लिये तु ऐसे बुरे समझ बोलता है। मारे डंडों के तुझे वेहोश कर दूंगा।
सतीष—याद रखो ! यदि तु तंडांग से पेश आये तो मारते २ जहन्नुम तक पीछा नहीं छोडूंगा । तुम जैसे साधु
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( २०६ ) ' श्री जैननाटकीय रामायण
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1 कटता
साधू नहीं किन्तुं गलियों में घूमने वाले गुंडों से भी बदतर हैं। साधू लोग कभी क्रोध नहीं करते । जिसने क्रोष किया वो साध नहीं क्रोधी स्वाधु है।
साधु-एक ब्राह्मण साधू को ऐसे बचन कहते हुने तेरी जीभ क्यों नहीं कट जाती : __ सतीष - यदि मैं झूठी निन्दा करता होता तो अवश्य जीम कटती। • सा- चलते २ ) मैं तुझे श्राप देता है कि तेरा सर्व नाश होगा। (चला जाता है )
सतीष-जिस मनुष्य ने अपने जीवन में सदा दुष्कर्मों के सिवा कोइ सुकर्म नहीं किया उसका श्राप कभी नहीं लग सक्ता । जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वो कभी श्राप देते ही नहीं। मैंने सुना है कि जैन मुनि अत्यन्त धीर वीर होते हैं । वो सदा जीवों को संसारसागर से पार उतरने का उपदेश देते हैं । आत्मकल्याण के इच्छक जीवों के लिये वो. नौका के समान हैं। मैं उन्हीं से जाकर धर्म श्रवण करूंगा। और जग से पार उतरने के लिये 'उनके बताये मार्ग पर आचरण करूंगा । ( सामने देख कर ) हैं ! ये कौन दुखिया नारी आ रही है।
मोहिनी--(भाकर ) मैं महा पापिनी हूं। कभी भी मैंने
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तृतिय भाग
( २१७ }
कौशल्या - जिस माता के तुम ही एक अकेले पुत्र हो उसे तुम्हारे बिना किस प्रकार चैन पड़ सकगा | क्या करूं विवस हूं ! पती के कार्य में हस्तक्षेप करना कुल्टा नारियों का काम होता है । इस लिये जाओ पिता की आज्ञा का पालन करो।
रामचन्द्र —— अच्छा माताजी प्रणाम । ( चरण छूकरे जाने लगते हैं । सीता रामचन्द्रजी के पैर पकड़ लेती है ) क्यों सीते तू मुझे क्यों रोकती है ?
सीता - प्राणनाथ ! मैं आपको रोकती नहीं हूँ । केवल यह प्रार्थना करती हूं कि आप अपनी अवनि को छोड़ कर न जाइये | मैं भी आपके साथ चलूंगी ।
1
राम -- सीते ! तुम कोमलांगी हो । बन में कठिन मार्गो में किस प्रकार चल सकोगी वहां पर पत्तों के बिछोने पर सोना पड़ेगा | फलों का आहार करना पड़ेगा । तुम बन के कष्ट सहने में सदा असमर्थ हो । इस लिये यहीं पर रह कर माता जी को सेवा करो ।
सीता - चाहे कुछ भी क्यों न हो, आपके संग में बन के दुख मी मेरे लिये सुख है । किंतु आपके बिना यहां पर नाना प्रकार के सुख भी मेरे लिये दुख है ।
पंडित नारी अरु लता, आश्रय बिन दुख पांय ।
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( २१८ ) श्री जैन नाटकीय रामायण
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मारे मारे फिरल हैं, जैसे नट विन पांय || राम - माता ! आप सीता को समझाओ कि वो घर रह जावें ।
कौशल्या - पुत्री ! अपने पतीका वचन मानकर मेरे चित्त को शांति देती हुई घर पर रहः ।
सांता - यह नहीं हो सकता कि पत्ती के बिना मैं घर रहूं । गाना
चाहे लाख मुझे कोई कहे, संग पती के जाऊंगी । दुख सहते भी पती संग में, कभी नहीं घबराऊंगी ॥ चा० बनकी महिमा देख देखकर, सुन सुन पक्षीगण के बोल पूछ पूछकर बात अनेकों, मनमें हर्ष मनाऊंगी ॥ चा० सेवा करूं पती की बनमें, पाऊँ सेवा फल अनमोल | बांध पती को प्रेम पाशमें, मन चाहा सुख पाऊँगी ॥ चा०
कौशल्या - पुत्र ! सीता पती प्रेम में पागल हो रही है । वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकेगी । क्यों कि नारीके हृदय की व्यथा नारी ही जान सकती हैं । तुम इसे बनमें अपने साथ ले जाओ बड़ी चतुराई से रखना |
लक्ष्मण ( आकर ) ( स्वगत ) केकई ने अधर्म पूर्वक
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तृतीय भाग
(२१९)
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बड़े भाई साहब को राज न दिलाकर अपने पुत्रको राज दिलाया मुझसे यह अधर्म नहीं देखा जाता, किंतु नहीं । जिसमें पिताजी की मरजी है उसके विरुद्ध मुझे कुछ भी नहीं करना चाहिये । मैं अपने बड़ भ्राता रामचन्द्रजी के साथ बनमें जाऊंगा, ऐसे राज्य में में कहानि न रहूंगा!
राम-क्यों लक्षमण तुम यहां किस लिये आये ? और खड़े होकर क्या सोचते हो ? __लक्ष्मण-भाई साहब में पापके साथ वन में जाने की सोच रहा हूं। आप मुझे प्राज्ञा दीजीये कि आपकी सेवा करने के लिये मैं वन को चलू ।
राम-भाई लक्ष्मण ? जिस प्रकार सीता ने बन जाने की ठान रखी है ! उसी प्रकार तुम मूर्ख न बनो । तुम घर पर रह कर सुख भोगो। माता सुमित्रा का शान्ता दो ।
लक्ष्मण---भाई साहब ! आप मुझे अपने साथ ले चलने से न रोकिये । मैं अवश्य ही आपके साथ चलूंगा, आपके जैसा संग मुझे तीनों लोकों में भी दुर्लभ है।
गम-यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो माता पिता से आज्ञा प्राप्त करो।
पर्दा गिरता है
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( २२०)
श्री जैननाटकीय रामायण
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अंक तृतिय-दृश्य पंचम (राजा दशरथ शोक की अवस्था में बैठे हुवे हैं।
दशरथ-इस संसार की लीला निराली है। मनुष्य जो चाहता है वह उसके विरुद्ध देखता है। कहां मैंने रामको राज्य देना विचारा था और कहां एक दम बनमें जाने को आज्ञा दी जो पुत्र मेरी आंखों का तारा था आज वही बनको जा रहा है। इस संसार से प्रीती करने वाले मूर्ख हैं, मैं किसके लिये शोक करूं ? क्या पुत्र के लिये ? नहीं, इस संसार में न कोई मेरा पुत्र है न कोई नारी है । सब जीतजी का झगड़ा है । मैं बन में जाकर अपनी आत्मा का कल्याण करूंगा।
(कौशल्या और सुमित्रा आती है।) कौशल्या-नाथ ! अब मेरे लिये इस जग म कौन सहारा है। श्राप दीज्ञा धार रहे हैं और रामचन्द्र और सीता दोनों लक्ष्मण सहित बन को चले गये हैं।
सुमित्रा हे प्रभो ! आप किसी प्रकार भी उन्हें लौटा लाइये । दुख रूपी समुद्र में डूबते हुवे परिवार को बचाइये ।
दशरथ-मेरे हिसाब चाहे कुछ भी हो । मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं है, मैंने अपने बचन का पालन किया है और जो कुछ युक्त समझा सो किया है । अच्छा हुआ जो लक्ष्मण भी राम के साथ चला गया, बड़े भाइयों का छोटे भाई के राज्य
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तृतीय भाग।
(२२१)
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में रहना सर्वथा अनुचित है। आगे तुम पुत्रों की माता हो । यदि वो लौट सकें तो लौटा लाओ । मैं तो राज्य दे चुका मेरे हिसाब चाहे कोई भी उसका अधिकारी बने । तुम जैसा उचित समझो करी । मैं वनमें जाकर दीक्षा लेकर अपना कल्याण करूंगा मैं इन संसारिक झगड़ों में भाग नहीं लेना चाहता। (चले जाते हैं। बाद में दोनों स्त्रियां भी चली जाती है)
अँक तृतिय-दृश्य छठा ( साधू और बृह्मचारी आते हैं ।) साध-इसमें थापने कुछ बातें रामायण के एक दम विरुद्ध दिखाई हैं।
७०-वह कौन कौनसी ? __ साधू-प्रथम तो परशुराम को बिल्कुल छोड़ ही गये, दूसरे रामायण में लक्ष्मण ने कोई सा भी धनुष नहीं तोड़ा था, तीसरे भामंडल का कहीं भी हमारे यहां उल्लेख नहीं पाया, चौथे केकई ने दो वर मांगे थे, अापने केवल एक ही बताया है, और बनोवास पिता के द्वारा बताया है, पांचवे हमारे यहां दशरथ को पुत्र के विरह में माता बताया है। आपने उसे बन में भेज दिया ! छटे आपने भरथ को अयोध्या में ही दिखाया है हमारे यहां कहा है कि वो मामा के यहां थे ।
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( २२२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
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ब्रतो क्या आप रामायण को बिल्कुल सत्य मानते हैं?
सा०-उसे मैं ही नहीं किन्तु सारा हिन्दुस्तान सत्य मान रहा है। जिसे सब सत्य रहे वो सत्य है।
5०---यह बात कदापि नहीं होसकती। यह हमारा नाटक उस पद्मपुराण के आधार पर है जिसको रचना को आज हजारों वर्ष व्यतीत होगये। जिसमें उसके वचन हैं जो भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञाता था, जिसे राग द्वेष छू तक भी नहीं गया था, किंतु अभाग्यवश अभी तक उसका शास्त्र रूप होने से प्रचार नहीं हुआ था । आपने क्या बाल्मीकीजी के विषय में जिनकी बनाई हुई रामायण पर विश्वास करते हो, कुछ नहीं सुना श्रापके यहां ही उन्हें पका चोर हिंसक और झूठा बताया है ! .. सा. किन्तु वो बाद में धर्मात्मा बन गये थे। तभी उन्होंने रामायण की रचना की है।
७०-क्या आप बाल्मीकीजी को केवलज्ञानी मानते हैं ? सा०--नहीं। ।
ब्र- तो फिर उन्होंने जो कहा है सो सब सत्य है यह कभी नहीं होसकता । सारे जीवन उन्होंने कभी शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया। बाद में राम की भक्ती में लवलीन होकर कुछ सुनी हुई कुछ जोड़ी हुई रखकर रामायण बनादी ।
सा--किंतु वो तो संस्कृत में रची हुई है।
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( २३४ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
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मनु०---अच्छा ला मुझे दो रुपये दे । स्त्रो०---काहे के लिये चाहिये ? मनु०---तुझे क्या मतलब, मुझे एक काम को चाहते हैं।
स्त्री०---जब तक मुझे बताओगे नहीं, मैं एक पैसा भी नहीं दूंगी।
मनु० ---अरे बाबा क्लब में चन्दा देना है।
स्त्री-कोई जरूरत नहीं किलब उल्लब में जाने को, अपने घर में ही छोरे को दो रुपये महीना दे दिया करो, और गंजफा खेला करो।
मनु०--मैं अगर क्लब नहीं जाऊंगा तो मेरी तन्दुरुस्ती खराब होजायगी।
नारी-होजायगी तन्दुरुस्ती खराब तो होजाओ । पता है बड़ी मुश्किल से पैसा इकठ्ठा होता है।
मनु०-अच्छा तो ला चार पैसे पान खाने को तो दे। नारी-पान एक पैसे का खाया जाता है। मनु०-अगर कोई मित्र लोग साथ में हों तो ?
नारी-वो अपने पास से लेकर खावें । वो क्या कोई भूखे नंगे हैं जो उन्हों को तुम ही खिलाओगे । बस सब खाने वाले ही हैं कोई खिलाने वाला भी है ?
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चतुर्थ भाग
(२३५ )
मनु०-वेदा प्रकाश ! जरा सा पानी तो ले था ।
नारी-वो कोई तुम्हारा नौकर थोड़े ही है । खुद जाके पी लो, मेरे लिये भी एक गिलास में लेते आना।
मनु०--तो क्या तुम्हारा और इसका ये भी सहारा नहीं, कि एक गिलास पानी भी पिलादो ?
नारी---सहारा नहीं, सहारा नहीं करते हो। रोटी कोई दूसरी करके खुला देती होगी। बड़े आये सहारा चिल्ल ने वाले ?
प्रकाश-यावृजी सहारा हिन्दुस्तान में थोड़े ही है वो तो अफ्रीका में है । अगर आपको सहारा देखना हो तो अफ्रीका
जाइये?
मनु०---अच्छी बात है, अब से मैं तनखा का एक पैसा भी तुम्हें लाकर नहीं दूंगा।
नारी--तुम होते कौन हो न देने वाले । ये धौंस किसी और को ही दिखाना ! घर में नहीं घुसने दूंगी । और दफतर में जाकर भड़ाभड़ जूते लगाऊंगी। लालाजी सारा दाल घाटे का भाव भूल जायेंगे।
मनु०-मैं तो इससे भरपाया । नारी-तो मैं भी तुमसे भरपाई (सेने लगती है) म०--क्यों मेरी प्यारी ! रोने लग गई। तुम्हें तो मैं
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(२३६)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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हृदय से चाहता हूं।
ना०-- चाहते होते तो भरेपाया न कहते । मेरी तो तकदीर उसी दिन से फूट गई जिस दिन से इस घर में पाई। पहले वो सासू थी । वह नोच २ खाय थी। अब ये ऐसी ऐसी कहें जो उठाई जांय न घरी जाय ।
म०-तो क्या तुम एक दम इतनी नाराज होगई । लो तो मैं भी अब जाता हूं। . ( चला जाता है )
ला०-~-प्रकाश जा बेटा ! सुनार को बुला ला । उसे सोना मंगा कर एक जोड़ी कानों की बिजली बनवाऊंगी। प्रकाश-अच्छा अम्मा जाता हूं।
(चला जाता है बो भी चली जाती है)
अंक प्रथम-दृश्य तृतिय ' (दंडक बनमें रामचन्द्र लक्ष्मण और लीला बैठे हुवे हैं)
राम--लक्ष्मण ! देखो यह दंडक बन कैसा शोभायमान है इसकी छटा कैसी निराली है । ये नर्मदा नदी कैसी गम्भीरता से बह रही है। अनेकों उपाय करने परे भी राज महलों में रहते हुवे यह शोभा देखने को नमिलती।
लक्ष्मण---भाई साहब, आप मुझे आज्ञा दीजीये कि मैं इसको दूर तक देखकर भाऊँ । '
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चतुर्थ भाग।
(२३७ )
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राम---जायो ! किन्तु सावधान रहना ।
(लक्ष्मण चले जाते हैं) सीता-नाथ ! वन में भी कितना सुखमय जीवन व्यतीत लेता है । यहां पर न क्रोध करने की आवश्याक्ता पड़ती है न मान माया लोभ श्रादि की ही आवश्यक्ता पड़ती है ।
राम-इसी लिये तो मुनि लोग बहुधा जंगलों में ही रहते हैं। जो वन में रहने का आनन्द लूट चुका हो । उसे नगर का रहना कभी भी अच्छा नहीं लगेगा । वनवास से दूसरी श्रेणी ग्राम चास की है । ग्रामों में भी लोग सुख पूर्वक रहते हैं।
सीता-नाथ ! इस बन की सुन्दरता पर मैं मुग्ध हूं। आपने मेरे ऊपर बड़ी कपा की, जो मुझे साथ में ले आये।
राम- यदि मुग्ध हो तो मुग्धता से भरा हुआ अपने इस मुखारविंदु से कोई आनन्दकारी गीत गाओ ।
सीता- गाना फूलों ने मोह लई, रंग दिखाय के । रंग दिखाय पिया, महक उड़ाय के ॥ फूलों ने. वन में खिले हैं, मन में बसे हैं। झुम झुम झूम रहे, इठ लायके ॥ फूलों ने.
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श्री जैननाटकीय रामायण
राम-वाह, मैं किस प्रकार तुम्हारे गान की प्रशंसा करूं तुम साक्षात इन्द्राणी की अवतार हो ।
सीता--नाथ श्राप क्यों मुझे बड़ाई दे कर लज्जित करते हैं।
राम-सीते ? देखो ये नर्मदा कैसी बह रही है । इसकी घाल तुम्हारी चाल से मिलती है । इसकी सुन्दरता तुम्हारे आगे फीकी है।
सीता-किन्तु इसका जल अापके मन समान निर्मल नहीं है। बस यही एक कमी है।
'राम-सीता ! क्या कारण है । अभी तक लक्ष्मण नहीं पाया ।
सीता-देखो वह सामने खड़ग लिये चले आरहे हैं।
राम-मालूम होता है इसने कोई अद्भुत वस्तु प्राप्त की है । यह बहुत हर्षित है। __ लक्ष्मण-(भाकर ) भाई साहब देखिये मैं इस बन में से ये खड़ग लाया हूं।
राम----यह तुमने कहां प्राप्त किया ?
लक्ष्मण-यहां से थोड़ी दूर पर एक स्थान पर कोई विद्याधर इसे साध रहा था । बह बांसों के बीडे पै बैठा हुआ था। मैंने इसकी ज्योति औ सुगन्धता देख कर इसे सूर्यहास
है
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चतुर्थभाग
( २३९ )
खड़ग जान कर उठा लिया । तथा इसकी परीक्षा करने के लिये उस बांसों के बीड़े पर चलाया ! उसमें बैठा हुआ वह विद्याधर भी उसी के साथ कट गया ।
राम-- भाई तुमने ये अच्छा नहीं किया ।
लक्ष्मण -- किन्तु भाई साहब जिसके साधने में बारह वर्ष सात दिन लगते हैं यदि मैं उसे एक दिन में ही ले आया तो मैंने क्या बुरा किया |
राम ---- हां ये तुम्हारे पूर्वोपार्पित पुराय का फल है जो तुम्हें विना प्रयत्न के ही ऐपी दुर्लभ वस्तू की प्राप्ती हुई किन्तु मुझे मालूम होता है कि इसका परिणाम अवश्य कुछ रंग लायेगा |
( चन्द्रनखा रोती हुई आती है । स्वगत में ही कहती है। चन्द्रनखा --- हाय न मालूम किस दुष्ट
पापी ने मेरे पुत्र शंबूक को मार कर उसका खड़ग लेलिया में रावण की बहन चन्द्रनखा । खरदूषण की नारी हूं । उस अन्यायी को अवश्य ही इसका फल दूंगी । हाय पुत्र तुम्हें बारह वर्ष चार दिन विद्या साधते होगये थे । केवल तीन दिन शेष थे । इस खड़ग का लेने वाला अवश्य कोई रावण का बैरी सिद्ध होगा ।
( राम लक्ष्मण आदि की ओर देख कर )
मालूम होता है इनमें जो ये छोटा बैठा हुआ है इसी ने
」
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( २४० )
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श्री जैन नाटकीय रामायण
वह खड़ग लिया है । अहा इन दोनों भाइयों का कैसा सुन्दर रूप है । ये अपनी सुन्दरता से देवों को भी मात कर रहे हैं । यदि मैं इनकी स्त्री बनूं तो मेरे परम सौभाग्य हैं ।
राम-सीता ! देखो वह सामने कोई दुखिया नारी रोरही जाओ उसे धैर्य बंधाकर यहां ले थाओ ।
सीता —— जैसी पती की आज्ञा । (चन्द्रनखा के पासजाकर )
क्यों बहन आप यहाँ पर इतनी क्यों दुखी हो रही हैं, मेरे नाथ
आपको बुलाते हैं ।
चन्द्रनखा - हे नारी आप बड़ी दयालू हैं। आपके स्वामी बड़े दयालू हैं । मैं अभी चलती हूं । ( जाती है )
राम - हे अबला, तुम क्यों इस प्रकार हृदय को भेदने वाला रुदन कर रहो थीं ?
चन्द्रनखा - हे सुन्दरता के अवतार । दयासागर ! मेरा दुख न पूछो, मैं एक राज कन्या हूं । मेरे माता पिता मुझे बालक को छोड़कर मर गये थे, बन्धू जनों ने मुझे बन में पटक दिया था, तब से अब तक मैं कन्या रूप में ही फिर रही हूं । कोई आश्रय न होने से मैं इधर उधर भटकती हूं । और रोती हूं, आप दोनों ही परम सुंदर और दयालु हैं। दोनों में से कोई भी मुझे अपनी प्रिया बनाकर मुझे आश्रय दें। मैं आपको हृदय से चाहती हूं ।
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चतुर्थ भाग
(२५१ )
राम-हाय सीता ! मैंने तुझे अयोध्या में ही मना किया था तूने एक न मानी । तुझ कोमलांगी को कौन उठा ले गया हा अब मैं अयोध्या क्या मुंह लेकर लौटूंगा ? सीता ! तु सतियों में श्रेष्ठ है न मालूम तुझ पर क्या आपत्तियां पड़ेगी | यदि में ऐसा जानता तो तुझे कदापि छोड़कर न जाता । हाय मेरा दुर्भाग्य । मैं तुझे कहां ढूंढूं, क्या करूं। गानाः-सीता सीता पुकारूं मैं बन में,
सीता प्यारी बसी मेरे मन में। जाके क्या समझाऊंगा वतन में,
छोड़ पाया कहां सीता बन में ॥ जानती थी कि जाऊंगी तजकर,
__ क्यों लुभाया मुझे प्रेम कर कर । कर गई शोक पैदा वदन में,
छोड़ अांसू गई तू नयन में । (गमचन्द्र बेहोश होकर गिर जाते हैं। लक्ष्मण
और विराधित आते हैं।) लक्ष्मण-भाई साहब ' आप यहां किस लिये सो रहे हैं चलिये स्थान पर चलिये । माता सीता कहां है ? (रामचेनते हैं)
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( २५२)
श्री जैन नाटकीय रामायण
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राम-लक्ष्मण तुम लौट आये ? देखें तुम्हारे कहाँ कहाँ घाव लगे हैं ? यह तुम्हारे साथी कौन हैं ?
लक्ष्मण-~-भाई साहब आपके चरणों के प्रशाद से मैंने इस चन्द्रोदय के पुत्र विराधित की सहायता से बहुत सुगमता से युद्ध जीत कर खरदूषण को मार दिया । आप पहले बताइये कि माता सीता कहां है ? .
राम--सीता को मैं अकेली छड़ गया था। न मालूम कौन उसे यहां से उठा लेगया ।
लक्ष्मण-प्राह हमारे क्या बुरे भाग्य हैं । एक पर एक आपत्तियां भाती हैं । न मालूम कौन दुष्ट उन्हें हर लेगया ?
विशधित ---स्वामी ! आप दोनों किसी प्रकारे का शोक न कीजिये मालूम होता है कि उन्हें कोई · विद्याधर ही हर ले गया है मेरे ऊपर आपने बहुत उपकार किया है। मैं उनका पता अवश्य लगा कर उन्हें आपसे मिलाऊंगा। विद्याधर से विद्याधर नहीं छिप सकता।
लक्ष्मण-विराधित ! तुम यदि सीता का पता लगाआगे तो अत्यन्त उपकार करोगे । भाई साहब सीता के विरह में अत्यन्त दुखी हो रहे हैं । यदि इन्होंने प्राण त्याग दिये तो मैं भी अग्नी में भस्म होकर अपने प्राण तज दूंगा । यदि तुम मेरा,
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चतुर्थ माग
(२५३ ।
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उपकार मानते हो तो कहीं से भी मेरे भाई साहब की स्त्री को ढूंढ कर बायो। विराधित-स्वामी! मैं इसके लिये भासक प्रयत्न करूंगा।
रामचन्द्र- गाना वन बन में राम पुकार रहा, सीता सीता सीता सीता । हे वैदेही पतिव्रता सती तू, कहां गई सीता सीता ॥ मेरे बिन बैन न पड़ती थी, संग में रहती थी छाया सी। किन भांति अब दिन काटेगी, शत्रू केघर सीता सीता।
विराधित-हे प्रभो श्राप शोक न तजिये । सीता के भाई भामंडल परे मैं समाचार भेजना हूँ । प्राय यहां से पाताल लंका के लिये चले चलिये । खरदूषण सब विद्याधरों का स्वामी था उसके मरने पर वो विद्याधा कोप करके आपके ऊपर आपत्ती डालेंगे । पवनसुत हनुमान उसका जमाई है वो पृथ्वी पर अत्यन्त बन्नुबान है। अपने ससुर को मृत्यु सुन कर वो अवश्य आपको हानी पहुंचायेगा सुग्रीव श्रादि सब उसके परम मित्र हैं। उसकी मृत्यु सुन कर कोप करेंगे । इस लिये आप शीघ्र ही पाताल लंका चले चलिये।
राम-भाई । तुम सन्त्र कहते हो । वास्तव में तुम बड़े
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( २५४)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
बुद्धिमान हो । हम तुम्हारे कहे अनुसार चलते हैं।
ड्राप गिरता है
अंक द्वितिय-दृश्य प्रथम ('सीता वाटिका में एक वृक्ष के नीचे शिला पर
बैठी हुई है।) सीता-हाय, मेरा कैसा बुरा भाग्य है। अपने प्यारे पती से मैं विछुड़ गई । ये दुष्ट रावण मुझे यहां हर लाया । हे प्राणनाथ ! मेरे विरह में आपको न मालूम क्या २ कष्ट भुगतने पड़ रहे होंगे । यदि मैं ऐसा जानती कि ये दुष्ट मुझे हर ले जायगा तो आपके साथ ही युद्ध में चलती । जब तक पती देव के कुशल समचार न सूनुं तब तक मेरे लिये जल पान वृथा है। विना स्वामी के ये वाटिका वाटिका नहीं, भग्नी कुण्ड है । वह देखो वृक्ष र पक्षी मेरे भाग्य पर हंस रहे हैं।
गाना आ फसी हूं कैद में, जियरा मेरा-घबराय है। बिन पियारे के मुझे, कुछ भी न ये सब भाय है। पक्षियों क्यों चह चहाते, मुझको रोती देख कर । मेरे रोने पर दया तुमको न कुछ भी प्राय है ।
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( २६८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
रामचन्द्र — ग्राइये ? मैं हृदय से आपका स्वागत करता हूं 1 हनुमानजी रामचन्द्रजी से लक्ष्मणजी से गले मिलते हैं ) हनुमान -- सचमुच जैस। मैंने सुना था वैसा ही प्रत्यक्ष देखा | लक्ष्मणजी आपको देख कर मैं फूला नहीं समा रहा हूं । उस कोटि शिक्षा को आपने क्षण भर में उठाली । मुझे 'निश्चय है कि आप युद्ध में रावण को अवश्य मागे !
लक्ष्मण - आप मेरी प्रशंसा करके मुझे लज्जिते करते हैं मेरी प्रशंसा उसी में है कि भाई साहब को सीता माता के दर्शन हों। हनूमान - क्यों नहीं ? जिनके भाई धाप जैसे पुरुशोत्तम नारायण हैं । उन्हें किस प्रकार सीता नहीं मिज सकती ? सीता अवश्य मिलेगी ।
जांबूनद -- ( हनूमान से ) श्रीमान आप से प्रार्थना है कि श्राप लंका जाकर सीता को राम का समाचार दें और रावण को किसी प्रकार सीता लौटा देने के लिये कहें ।
हनूमान — अच्छी बात है । मैं अभी लंका के लिये प्रयाण करता हूँ |
रामचन्द्र -- ( हनुमान से एकांत में बुलाकर ) देखो मित्र ! आप हमारे मित्र हो । आपसे कोई बात छिपानी वृथा है । मैं सीता के शोक में अत्यन्त व्याकुल रहता हूं । उसके बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता श्राप सीता से मेरी सब हालत कहना
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चतुर्थ भाग
(२६९)
और यह भी कहना कि बहुत शीघ्र ही तुम्हें यहां से छुड़ायेंगे। तुम शोक करके अपने तन को दुर्बत न बनाओ । विश्वास के लिये मेरी ये मुद्रिका उसे दे देना और उसका चुडामणी लेते श्राना।
हनुमान--आपने जिस प्रकार कहा उसी प्रकार किया जायगा आप निश्चित रहिये । और मुझे अपना परम हितु समझिये । अच्छा मैं अब जाता हूं।
(गले मिलकर चले जाते हैं । )
पर्दा गिरता है,
अंक द्विविय-दृश्य चतुर्थ
(ब्रह्मचारीजी आते हैं।) ज-सज्जनों ! जिस समय हनुमानजी लंका के लिये जा रहे हैं । उस समय क्या क्या घटनायें घटती हैं सो सुनिये !
श्री वायू सुत चल पड़े, सबसे हृदय मिलाय । मनमें हर्षित होगकरे, श्री जिनराज मनाय ||
आकाश मार्ग से जाते हैं, सारी सेना को संग लिये। हैं सोच रहे जो राम लखन ने, उनके प्रति उपकार किये ॥ जो बड़े पुरुष कहलाते हैं, थोड़ा उपकार बड़ा माने। ' है नीच जनों की रीत यही, उपकारी को शत्रू जानें ।।
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(२७०)
श्री जैननारकीय रामायण
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थोड़ा आगे बढ़ने पाये. नाना का पुर दीख पड़ा। माता की आई याद तभी, मन में उनके यूं क्रोध बढ़ा । माता जब इनके शरण गई, तब बाहर से दुतकारा था। बन में जाकर कष्ट सहे, जब होया जन्म हमारा था |
क्रोध बढ़ा इस मांत से, मचा युद्ध धन घोर ।
नाना मामा भागये, सुन हनुमत की शोर ।। टंकार धनुषों की होती, बाणों से सब नभ छाय गया । दोनों सेना के वीरों ने, बल दिखलाया तब नया नया ॥
आखिर में अंजन के सुत ने, नाना जीता पकड़ लिया । जब दोनों इक स्थान मिले, तब बैर सभी ने भगा दिया। दोनों गल मिलकर के रोये, भूलों पर पश्चाताप किया। दो. मदद राम और लक्ष्मण को, ये कहकरे उनको भेज दिया।
पवनकुमार आगे बढ़े, पहुंचे बन. के मांहि ।
देखे दो मुनिराज को, प्रेम द्वेष जिन नाहिं ।। बन में थी अगनी लगी हुई, थे वृक्ष गिर रहे जल बल्ल कर । घर ध्यान खड़े मुनिराज वहां, अपनी भातम को निश्चल कर ।। देखा मुनियों पर कष्ट पड़ा तब दया भाव मनमें आये ।
करने को रक्षा जीवों की, विद्या से बादल बरसाये ।। .. उपसर्ग दूर कर मुनियों का, लेकर पासीष चले भागे ।
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चतुर्थ भाग
(२७१)
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शत्रु गण आते देख उन्हें, निज प्राण बचा करके भागे | कुछ दूर वढ़े आगे त्योंही, रुक गया अचानक उनका दल | सोचा क्या धर्म स्थान यहां, जिसका है अति राम प्रति प्राल ।। जब मन्त्री से कारण पूछा, तब विनय सहित ये बात कही। लंकापत ने माया द्वारा, रच रखा यन्त्र श्रीमान यहीं ।। सारी सेना को दूर रखा, बन्दर का भेष बनाया है ! धुम गये पेट में पुतली के, माया को तुरत भगाया है। फिर तोड़ दिया माया का गढ़, जो कुछ था सब बर्बाद किया। ये देख वहां के रक्षक ने, हनुमत पर अपना कोप किया। । दोनों सेना लड़ पड़ी, जुझ पड़े सव वीर। '
करी दया हनुमान ने बोले वचन गम्भीर ॥ क्यों मौत तुम्हारी आई है जा इतना कोप दिखाते हो बोलो अभिमान बचन ऐसे, मरने से भय ना खाते हो ॥ ये कहकर उसको मारा है, सेना सारी की तितर बितर । कोपित होकर उसकी कन्या फिर आती इनको पड़ी नजर ।। यौवन से थी भरपूर अति, सुन्दर सब अंग सुहाते थे! कुच अरु कपोल आदि सब ही, पुरुषों के मन को भाते थे ।। देवी सी कोप दिखाती थी, था शोक पिता के मरने का। था ख्याल उधर से रावण की, आज्ञा को पालन करने का ॥
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(२७२१
धी जैन नाटकीय रामायण
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बोली ललकार पवनसुत को, क्यों मेरे पिता को मारा है। ले सम्हल बचा भव प्राणों, को. मैंने भी धनुष सम्हारा है ।। बोले हनुमान बचन ऐसे, नारी से युद्ध नहीं करते । तुम वार करो मैं रोकुंगा, क्षत्री गण कभी नहीं डरते ।।
छिड़े युद्ध इस मांति से दोनों दोनों ओर । ।
काम बाण भरु धनुष है, बाण चले इम घोर ।। कन्या ने आखिर में छोड़ा, एक तीर पत्र जिसमें था यूं। हे प्राणनाथ स्वीकार करो, दासी को तड़फाते हैं क्यं ॥ था प्रेम बढ रहा दोनों में, दोनों ही बढ कर मिले जुले । जो अभी तलक मुरझाये थे, दोनो के दिल के पुष्प खिले ॥ स्वीकार किया उस कन्या को, रात्री भर उसके पास रहे । सारी सेना को छेड़ वहां, प्रातः लंका हनूमान गये ।। जा पहुंचे पास विभीषण के, सब समाचार उससे पाये । उपवास सुना सीता का जब, चल दिये अंजना के जाये ।। धी सीता राती शोक भरी, कर रही विलाप अती नाना । देखो अब क्या क्या होता है, जय वीर मुझे है भव जाना ।।
(चला जाता है।
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चतुर्थ भाग
क द्वितिय -- दृश्य पंचम
( अशोक वाटिका में सीता गा रही है )
( २७३ )
गाना
सिया को काहे बिसारी राम । जबसे छूटी प्राणनाथसे, प्राण हुवे बे काम | बिना प्राण प्यारे के पाये, नहीं मुझे आराम ॥ सि० ॥ मुझ बिन तुम, तुम बिन मैं व्याकुल नहीं मिले सुखधाम यो दरश दिखाओ मुझको, दो मुझको विश्राम ॥
( ऊपर से मुद्रिका गिरती है उसे देख कर ) हैं, ये मेरे पती की मुद्रिका यहां कहां से भाई | भाज मेरे परम सौभाग्य हैं जो उनकी ये मुद्रिका भाई ।
मन्दोदरी - ( भाकर) सीता ! आज तो बड़ी प्रसन्न मालूम हो रहीं हो ! मालूम होता है मेरे स्वामी के प्रेम ने मन में स्थान बनाया है ।
सीता - तेरे स्वामी का प्रेम और मेरे मन में स्थान बनाने, ये संभव है ।
चन्द्र सूर्य स्थित होजावें, पर्वत अपनी छोड़े रीत । . कभी नहीं हो सकता सीता, पर प्रीतम से जोड़ें प्रीत ॥
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(२७४)
श्री जैन नाटकीय रामायण
म.--तो फिर क्या कारण है ? सी०- आज मेरे पती की मुद्रिका मुझे प्राप्त हुई है। म-सीता ! सीता ! तू कोई पागल तो नहीं होगई ।
सी०-कृपा करके जो मेरे पती की -मुद्रिका लेकर आये हैं वो मुझे दर्शन देकर मेरे संशय को दूर करो।
हनुमान-(भाकर) माता तुम्हें मेरा बार २ नमस्कार है !
सी०-कहो भाई तुम कौन हो इतने बड़े समुद्र को 'उलांघ करे तुम यहां कैसे पाये ? मेरे पती और देवर तो प्रसन्न हैं।
हनूमान-माता में हेनुमान हूं। मैं विद्याधर हूं मेरे लिये समुद्र कोइ बड़ी बात नहीं। आपके पती और देवर कुशल पूर्वक हैं। - सी.-क्यों माई 'तुम्हारे सरीखे विनयवान और बलवान मेरे पती के पास कितने पुरुष हैं ?
म०-सीता इनके समान तो सारे भरत क्षेत्र में दूसरा मनुश्य नहीं है । इनका बच और पराक्रम अतुल्य है । मेरे स्वामी इन्हें अपने पुत्रों से भी अधिक चाहते हैं। इनके दर्शनों के लिये लोग व्याकुल होते हैं । किन्तु इस बात का बड़ा भाश्चर्य है कि ये रामचन्द्र के दूत बन कर आये हैं ।
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चतुर्थ भाग
(२७५)
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हनुमान-मन्दोदरी ? तुम पतिव्रता हो । जिस पती के द्वारा तुम्हें देवियों के से सुख प्राप्त हैं। उसी के अपयश में तुम सहायता करती हो । अपने पती को श्राप ही नरकों के दुख में डालना चाहती हो । तुम रावण की महिषी अर्थात पटरानी हो। मैं तुम्हें महिषी अर्थात मैंस समझता हूं।
___ म०-हनुमान ! हनुमान !! तुम्हारी और ये जबान । उन गीदड़ों के संग में रह कर ये कृतघ्नता । उन सबको हराना मेरे स्वामी के बांये हाथ का खेल है। अभी तक वो तुम्हें अपना समझते थे किन्तु अब तुम्हें शत्र समझ कर कंठिन से कठिन दण्ड देंगे।
सीता-मन्दोदरी ! तूने मेरे स्वामी के बल को नहीं सुना है । जिस समय वज्रावर्त धनुष उठाया था तब सारा आकाश मण्डल गूंज उठा था । याद रख ! तुझे शीघ्र ही विधवा होना पड़ेगा हमेशा के लिये रोना पड़ेगा। ___ मन्दोदरी-सीता ! तु ऐसे अभिमान के बचन बोलती है, ले सम्हल मैं तुझे प्राणों रहित करती हूं। (मन्दोदरी बार करती है, हनूमान बचा लेते हैं। मन्दोदरी क्रोधित होकर चली जाती है, सीता और हनूमान
__ ही रह जाते हैं। )" हनुमान-माता, तुम मेरे काँधे पर बैठ जाओ मैं तुम्हें
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( २७६ )
भी जैन नाटकीय रामायण ।
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तुम्हारे स्वामी के पास पहुंचा दूंगा ! वरना न मालूम तुम्हें और क्या २ कष्ट यहां रह कर उठाने पड़ेंगे। . "
सीता-नहीं भाई ! मैं इस प्रकार नहीं जा सकती । यदि मेरे स्वामी मुझसे पूछेगे कि तु बिना बुलाई क्यों आई तो मैं क्या उत्तर दूंगी। लो तुम मेरा यह चूडामणी उन्हें दे देना भोर मेरी सब अवस्था उन्हें बता देना। .
हनुमान जैसी माज्ञा । मैं तुम्हारे लिये खाना मंगाता हूं। क्यों कि अब तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगई है। मैं विभीषण के घर जाता हूं वहीं भोजन करूंगा । प्रणाम, (चले जाते हैं। पर्दा गिरता है । विभीषण और हनूमान
दोनों आते हैं। विभीषण--कहो भाई साहब क्या समाचार लाये ?
हनुमान में माता सीता को भोजन खिला पाया हूं। माता के रूप को देखकर मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ ?
विभीषण-क्या कहूं बेचारी भांति २ के कष्ट पा रही है। भाई साहब को मैं भनेक बार समझा चुका किन्तु उनकी समझ में एक भी नहीं माता । आप उन बेचारों की सहायता कर रहे हैं इसमें मुझे बड़ा हर्ष है।
हनूमान-मुझे एक बार रावण से मिलना है।
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चतुर्थ भाग
विभीषण- देखो ! देखो ! वे सामने से सिपाही लोग तुम्हें ही पकड़ने या रहे हैं । तुम भाग जाओ ।
( २७७ )
हनूमान - श्राप भाग जाइये वरना थापको मेरे साथ खड़े हुने सुन कर रावण आप पर नाराज होगा । मुझे रावण से मिलने का यह अच्छा मौका है ।
( विभीषण चला जाता है । सेना आनी है । हनूमान उन्हें मार कर भगा देता है | )
हनुमान - थोड़ा कौतूहल अवश्य दिखाना चाहिये । ( चला जाता है | )
बँक द्वितीय - दृश्य छठा
( रावण का दर्बार | मेघवाहन इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण, विभीषण और दो मन्त्री वैठे हैं । दूत आता है । )
दूत - महाराजाधिराज की जय हो । उस हनुमान ने लंका में घोर उपद्रव मचा रखा है । बड़े बड़े रत्नोंके महलों को अपनी जंघा से चूर्ण कर रहा है । जलाशय तोड़ दिये हैं सारी सड़कों पर कीचड़ हो रही है, तमाम मकानों को ढा रहा है, नगर के लोग त्राही मचा रहे हैं । दुहाई है महाराज की ।
रावण -- मेरे टुकड़ों का पला हुआ हनूमान और मेरे ही नगर पर उपद्रव | मेघवाहन जाओ जिस प्रकार हो सके जीता या
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( २७८)
श्री जैन नाटकीय रामायण
मरा हुमा उसे मेरे पास पकड़ कर लाओ।
मेघवाहन-~जो आज्ञा ! (-चला जाता है)
रावण-कोई डर की बात नहीं । देखता हूं कौन कौन | मुझसे अलग होकर उन निर्धन बनासियों की सहायता करता है। यदि सारे पृथ्वी के राजा लोग एक ओर होजायें तो भी क्या परवाह है रावण अकेला ही सबको काफी है।
दूत--( भागा आकर । महाराज गजब होगया । हनुमान अकेला ही सबको मार मार कर भगा रहा है। मेघवाहन खतरे में है तुरन्त सहायता भेजिये ।
रावण--ओ ! उस चार दिन के छोकरे में ये शक्ती । इन्द्रजीत-पिताजी मुझे श्राज्ञा दीजिये मैं अभी उसे नाग पाश द्वारा बांध कर दर्बार में लाता हूं। रावण-जाओ उसे मेरे सामने पकड़ कर लाओ ।
(इन्द्रजीत चला जाता है) आखिर ये हनूमान उनकी सहायता के लिये गया क्यों ?
मन्त्री-सुनिये महाराज | सुग्रीव की राम ने सहायता की इस लिये सुग्रीव ने इन्हें बुलाया ये राम की सहायता के लिये आये। वहां से सीता को सुध लेने के लिये चले । बीच में इनके नाना का नगर पड़ा उसको इन्होंने जीत कर राम की सहायता के लिये भेजा । अगाडी बढ़ने पर एक बन में दो मुनि
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चतुर्थ भाग
(२७९ )
राजों को अानी में जलते हुवे बचाया । भागे बढ़ कर आपका यन्त्र तोड़ कर लंका सुन्दरी को परणा !
बनाया हुधा माया का दूत - ( भागा कर ) महाराज की जय हो । इन्द्रजीत हनुमान को नाग फांस में फांस कर ला रहे हैं ।
इन्द्रजीत --- ( हनुमान को अगाड़ी के ) देखिये पिताजी आपके चरणों के प्रशाद से मैं इसे बांध लाया हूं | अब जो उचित समझें इसे दण्ड दें ।
रावण - इनूमान ! हनुमान !! मैंने तुझे पुत्र समझ कर राज्य दिया और मेरे ही साथ में तूने ये विद्रोह किया | तुझे जाज नहीं आती ।
हनूमान - - तुम्हारा मेरा राजा और प्रजा का नाता था । जिस समय राजा अन्याय करता है उस समय उसका साथ देना धर्म के विरुद्ध है । तुम तो क्या अन्याय और अनोती के कारण पिना पुत्र का सम्बन्ध छूट जाता है ।
कुंमारी कन्यां से यारी, कृ नृपति की सेवा करके । कुमित्रों के संग में रह कर, पुण्य सब नष्ट भ्रष्ट करके || नरक में दुःख उठाते हैं, घूमते हैं धक्के खाते । न्याय और नीती पर चलते, वहीं हैं जग में यश पाते ॥ रावण - तूने कितना बड़ा धर्म किया हैं जो अपने सहारा देने वाले का साथ छोड़ कर उन निर्षन बनवासियों की
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(२८०)
श्री जैननाटकीय रामायण
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सेवा की ! जिनके ऊपर तू इतना उछल रहा है उन्हें मैं एक बुटकी से पीस सकता हूं।
हनुमान--जिन्हें तुम बल हीन समझते हो वो तुम्हारे लिये काल हैं । यदि अब भी अपना भला चाहते हो तो जाओ रामके पैरों में गिरकर उनसे क्षमा मांगो । और सीताको लौटा दो।
रावण-ओ नहीं सुना जाता । इस दुष्ट की मौत निकट है । जाओ इसे मेरे सामने से ले जाओ । इसे नंगा करके सारे नगर में पागल की तरह से घुमाओ ।
(सेवक लोग हनुमान को ले जाते हैं) मेरे द्वारा पाला हुआ और मेरे लिये ये शब्द । दूत-(भागा आकर ) गजव होगया । रावण-क्या हुआ ?
दूत-हनुमान सब बन्धन तुड़ा कर भाकाश में उड गया लंका के सारे दरवाजे ढा दिये। आपका राज महल चर २ कर दिया बन्दीखाना तोड़ कर सब कैदियों को छुड़ा लेगया।
रावण-कोई चिन्ता की बात नहीं, सब देखा जायगा। . विभीषण-भाई साहब ! श्राप इस बात को अच्छी प्रकार जानते हैं कि जब तक आप नीती और न्याय पर चलते रहे आपकी कभी पराजय नहीं हुई । न्याय और नीती पर चलने
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चतुर्थ भाग
. (२८१ )
बालों की सदा जीत होती है । लंका इस रामय आपत्ती में है। ये सब आपत्ती सीता के कारण हैं। आप मेरा कहा मान कर सीता लौटा दीजिये।
इन्द्रजीत-चाचा ! चाचा ?? तुम जो कह रहे हो सिंहों के अखाड़े में रह कर न्यार बन रहे हो । पृथ्वी के जितने रन हैं वो पिताजी के लिये हैं । सीता भी एक स्त्री रेस्न है ! उसे लौटा दिया जाय ये असंभव है।
विभीषण--ओ दुष्ट इन्द्रजीत । पुत्र कहला कर पिता का अहित सोचते हुवे तुझे लज्जा नहीं पाती। सुग्रीव बिराधित महेन्द्र हनूमान भामंडल आदि सब उनकी सहायता के लिये तैय्यार हैं उन लोगों के सामने तेरा बाल भी नजर नहीं आयेगा! वो न्याय मार्ग पर हैं उनकी अश्य जीत होगी।
रावण-दुष्ट विभीषण ! उस बच्चे से लड़ते हुवे लज्जा नहीं आती ? मेरा भाई होकर मेरे शत्रू की मेरे सामने वडाई करता है ? ले मैं अभी तेरा जीवन समाप्त करता हूं। (रावण वार करता है। दोनों में युद्ध होता है । मन्त्री
लोग बचाते हैं।) मंत्री-महाराजाधिराज आपको ये उचित नहीं कि भाई को मारे, पाप इन्हें बहुत करें तो अपने राज्य से निकाल दीजिये।
रावण--अच्छी बात है इस दुष्ट को मेरे राज्य से बाहर
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(२८२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
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निकाल दो।
विभीषण-राबण ! अब तक मेरा तेरा भाई का नाता था किंतु अब शत्रु का नाता है । यदि तु रत्नश्रवा का पुत्र है तो मैं भी उसीका हूं। इस अपमान का बदला तुझे अच्छी तरह दूंगा तीस अक्षौहिणी सेना से राम को सहायता दंगा । और तेरा सत्यानाश कर दूंगा। (चला जाता है।)
मंत्री-महाराज ये बहुत बुरा हुश्रा ।
रावण-~-बहुत अच्छा हुआ। ऐसे विद्रोहियों को में अपने राज्य में नहीं रखना चाहता ।
पर्दा गिरता है
अंक द्वितिय-दृश्य सांतवां (विभीषण एक हुन सहित आता है।) विभीषण-जिस समय किसी मनुष्य के विनाश की घड़ी आती है, तो उसकी बुद्धि पहले से ही पलट जाती है, लोग कहते हैं कि जिसका नमक खाना उसका अन्त तक साथ निभाना चाहिये । किंतु ऐसा कहना सर्वथा उचित नहीं है । यदि खास पिता भी हो, और वह अधर्म में चलता हो तो कदापि उसका साथ नहीं देना चाहिये । जो किसी भय से भी खोटे पुरुषों का साथ देते हैं वो अपने लिये नरक का सामान करते हैं। धार्मिक
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चतुर्थ भाग
( २८३ )
पुरुषों की सहायता करना मनुष्य के लिये परम धर्म है । दूत ! तुम जाओ श्री रामचन्द्रजी से मेरा समाचार कहो । मैं तन मन
धन से उनका साथ दूंगा ।
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दूत - जो थाज्ञा महाराज | ( चला जाता है )
( विभीषण भी चला जाता है । पर्दा खुलता है । ) ( रामचन्द्रजी अपने सब मित्रों सहित बैठे हुये हैं । ) सेवक
गाना
न्याय पर होजायो बलिदान ।
न्याय मार्ग पर चलें पुरुष जो, सहते कष्ट महान । नहीं ध्यान दे बनते उन्नत, पाते हैं सम्मान ॥ न्याय मार्गका धारक रावण, करता है अन्याय । पर स्त्री को हर कर मूरख, बना बड़ा अज्ञान ॥ न्या० ॥ न्याय मार्ग पर युद्ध छिड़ेगा, शत्रु का संहार । न्याय मार्ग पर लड़ने वालों, का होगा यश गान ॥ न्या०
हनुमान - ( श्राकर ) महाराजा रामचन्द्र की जय हो । राम - कहो मित्र क्या समाचार लाये ? सीता की क्या अवस्था है ।
राम -- (चूड़ामणी को हृदय से लगाकर मूर्छित होजाते हैं
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( २८४)
श्री जैन नाटकीय रामायण |
सब लोग उनका उपचार करते हैं। ) हा ! सीते तु कभी मुझसे अलग नहीं रही । इस समय तेरी क्या अवस्था होगी।
लक्ष्मण-भाई साहब! धैर्य धारण कीजिये। माता सीता को लाने का उपाय कीजिये।
भामंडल-( आकर ) श्रीरामचन्द्रजी को मेरा प्रणाम !
राम-( बड़े हर्ष से) प्रिय भामंडल ! आओ, प्रायो, मैं तुम्हारी ही वाट देखता था। ( दोनों गले मिलते हैं । __भामंडल-प्रियवर मुझे सब वृत्तान्त मालूम होगया है। रावण को मैं इस पृथ्वी से मिटा दूंगा । अपनी बहन के बदले उसके प्राणों का दहन करूंगा।
हा बहन, तुम किस प्रकार उस स्थान पर अपना जीवन चलाती होंगी ? तुम्हारे जैसी सती पर ये आपत्ती कहां से टूट पड़ी।
दूत--(आकर ) महाराज श्रीरामचन्द्रजी की जय हो । विभीषण का दूत आपसे मिलना चाहता है।
राम--उसे मेरे समीप मेजो। ( दूत जाता है)
लक्ष्मण--भाई साहब मुझे इसमें थोड़ा सन्देह मालूम होता है। कहीं विभीषण राजनीती तो नहीं चल रहा है। कहीं वो हमसे कपट तो नहीं करेगा। .
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चतुर्थ माग।
(२८५ )
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हनुमान-आप इस बात से निश्चिन्त रहिये । विभीषण धर्मात्मा पुरुष है । उसे रावण का व्यवहार पसन्द नहीं आया होगा इसी लिये वो न्याय मार्ग पर आपको सहायता देना चाहता है। मालूम होता है रावण ने उसका अपमान किया है।
दृत-( आकर ) महाराज श्री रामचन्द्रजी की सब मित्रों सहित जय हो।
राम----कहो दूत ! क्या समाचार लाये हो ?
दूत- महाराज मैं विभीषण का दूत हूं। जिस समय विभीषम रावण को समझा रहे थे उस समय रावण को क्रोध आया विभीषण ने अपमानित होकर तीस अक्षौहिणी सेना लेकर आपको सहायता देने का संकल्प कर लिया है। क्योंकि वह समझते हैं कि यदि न्याय मार्ग पर हो और शन भी हो तो उसका साथ देना चाहिये । आप संशय रहित होकर मुझे आज्ञा दीजिये । मैं उन्हें आपके सन्मुख लाऊं।
राम-अवश्य, में उनसे मिलने के लिये बहुत इच्छुक हूं। दूत-मैं अभी उन्हें आपके पास भेजता हूं।
(चला जाता है) सुग्रीव-मुझे निश्चय है कि हमारी युद्ध में अवश्य जीत . होगी । क्यों कि प्रथम कारण तो हम न्याय पक्ष पर हैं। दुसरा
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( २८६ )
श्री जैननाटकीय रामायण
कारण जितने भी राजा लोग श्रीरामचन्द्रजी की शरण में आते हैं। सब से मित्रता का व्यवहार होता है।
विभीषण-(श्राकर ) हे राम मुझे शरण दीजिये ?
राम---( उसको हृदय से लगा कर ) मित्र विभीषण ! तुम्हारे भाई ने जो तुम्हारे साथ व्यवहार किया उससे मुझे दुःख होता है । किन्तु कोई बात नहीं तुम धर्मात्मा हो । न्याय पक्ष पर हो । तुम्हारी श्रवश्य जोत होगी।
विभीषण---माई का अपमान मेरे हृदय में खटक रहा है। मैं तीस अक्षौहिणो सेना से तुम्हें सहायता देकर उसका नाश कराउंगा । सीता वहां पर ब्याकुल हो रही है। जल्दो से लंका पर चढ़ाई करके रावण को मार कर उसे बन्धन से छुड़ाइये ।
पर्दा गिरता है (लाधू और ब्रह्मबारी आते हैं) साधु-ब्र. जी मैं आपसे एक बात पूछता हूं। ब्र -अवश्य पूछिये ।
सा०---रावण इतना बलवान था और सीता एक अबला थी रावण के सामने कुछ भी नहीं थी । रावण ने उस पर . बलात्कार क्यों नहीं किया।
ब्र०-बड़े पुरुष अपनी प्रतिज्ञा के दृढ़ पालक होते हैं ।
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चतुर्थ भाग
(२८७)
उसने एक केवली के सामने ये प्रतिज्ञा की थी कि जो स्त्री उसे न चाहेगी, उसको वो क्ल पूर्वक अपनी अर्धांगिनी न बनायेगा। इसको दृढ़ता से पालने में ही उसने तीर्थंकर प्रकृति का बन्धकर 1 लिया तीसरे चौथे भव से मोक्ष जायेगा।
ला०---अक्षौहिणी किसे कहते हैं ?
~~जिस सेनामें इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर स्थ इतने ही हाथी एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास पियादे और पैंसठ हजार छै सौ दस घोड़े हों उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं । ऐसी तीस अक्षौहिणी सेना लेकर विभीषण राम से पाकर मिला था। रावण के पास चार हजार अक्षौहिणी सेना थी, रामके पास सब गजाओं की मिलाकर एक हजार अक्षौहिणी से अधिक नहीं थी, फिर भी युद्ध में राम को जीत हुई।
साधु-इसमें आप लक्ष्मण को मुा आदि दिखायेंगे या नहीं ?
७०---हमारे पास इतना समय नहीं है। और न ही ये मूर्छा आदि कोई खास दिखाने की बातें हैं। ___ यदि हर एक बात देखनी है तो श्री पद्मपुराण नामक ग्रंथको पढ़ो जिससे हृदय के पट खुलकर उसमें ज्ञानका प्रकाश हो । ये अंक हमें युद्ध दिखाकर समाप्त करना है। दोनों सेनायें एक स्थान
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( २८८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
पर, दोनों में घमासान युद्ध होरहा है। दोनों ओर के वीर लोग अपने प्राण दे रहे हैं । देखिये वो कैसा दृश्य है।
( दोनों चले जाते हैं। ( पर्दा खुलता है। रण के बाजे बज रहे हैं । भांति भांति के शब्द हो रहे हैं। वीर लोग वीरों से भिड़ रहे हैं। रण में लड़ लड़ कर गिरते हैं। उन्हींके ऊपर होकर
दुसरे युद्ध कर रहे हैं।) ड्राप गिरता है
अंक तृतिय-दृश्य प्रथम ( अयोध्या में महल में भरथजी सो रहे हैं। हनूमान
___ और भामण्डल आते हैं । ) हनुमान-पाधीरात के समय भरतजी सुख निद्रा में सो रहे हैं। यदि इनको जगायें तो कोपित होने का भय, नहीं जगायें तो उपर लक्ष्मण के प्राण जाते हैं । विशल्या बिना इनकी सहायता के नहीं मिल सकती।
भामण्डल-चाहे कुछ भी हो हमें भरथजी को जगाना पड़ेगा भरथजी बहुत सरल चित्त हैं वो कभी क्रोधित नहीं होंगे। देखो वो स्वयं ही जाग उठे।
भरथजी कहो भाइयों आप लोग इस समय यहां पर
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चतुर्थ भाग
( २८९)
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किस कारण से किस प्रकार आये ?
(आगे आ जाते हैं । पर्दा गिरता है।) दोनों-श्री मरथजी को हमारा नमस्कार ।
भामंडल-आप मुझे जानते होंगे, मैं भामण्डल हूं। ये हनुमान हैं। हम दोनों रामचन्द्रजी की सहायता कर रहे हैं। वहां पर रावण ने सीता को हरली थी, जिसके कारण युद्ध हो रहा है लक्ष्मण के रावण की शक्ति लगी है सो वो अचेत पड़े हुवे हैं। उन्हीं का समाचार देने हम आकाश मार्ग से आपके पास आयेहैं।
भरथ-शोक, शोक, महाशोक, आह रावण की इस प्रकार शक्ति बढ़ गई, कोई चिन्ता नहीं, में अभी अपनी सारी सेना लेकर भाप लोगों के साथ चलता हूं और उसको उसकी धृष्टता का देता हूं फल ।
हनुमान--इस समय क्रोध करने से काम न चलेगा । सारी सेना लंका में पड़ी हुई है। हम लोगों की सेना ही उसके लिये काफी है । बीच में समुद्र होने से आपकी सेना वहां तक जा भी न पायेगी। • भरथ-तो क्या करना चाहिये ? जिसमें भाई लक्ष्मणजी का हित होसके वो उपाय बताओ।
भामंडल-श्रापके राज्य में विशल्या नामकी कन्या है। उसके स्नान का जल हमें दिलवा दीजिये । उसका छींटा लक्ष्मण
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(३०२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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रावण-तू इतना मुंह चलाता है, नहीं डरता हैं मरने से । __अभी यमपुर को जायेगा, रखा क्या बात करने में || (दोनों में युद्ध होता है, कोई भी नहीं हारता, युद्ध बन्द होता है रावण के हाथ में चक्र आता है रावण उस चक्र को लक्ष्मण के मारने के लिये फेकता है। वह चक्र लक्ष्मणके तीन प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण
के हाथ में आजाता है। ) . सब-~बोल चक्रवर्ती लक्ष्मण को जय ।।
लक्ष्मण-अभी तक तू मुनी वाक्य को झूठ मानता था अब प्रत्यक्ष देखले । तू प्रतिनारायण है तो तुझे मारने के लिये नारायण तेरे सामने खड़ा है अब तक ये चक्र तेरे पास था किन्तु अब मेरे पास आगया है. तेरा शस्त्र तेरे ही प्राणों का घातक होगा।
रावण -(स्वगत) आह, निमित्तज्ञानी मुनिक वाक्य ठीक हुवे, मुझ प्रति वासुदेव अर्थात प्रति नारायण अर्थात अर्धचक्री की मृत्यु इनके हाथों से होगी मुझ दुष्टने मोह के वश में होकर सीता का हर कर अपनी मृत्यु आप बुलाई । अब किसी प्रकार भी मेरा जीवन नहीं है, विभीषण और मन्दोदरी ने मुझे समझाया । उसे भी न समझा । विभीषण ! मन्दोदरी ! क्षमा करना । भाई कुम्भकण ! पुत्र मेघनाथ ! और इन्द्रजीत । क्षमा करना । मैं इस संसार में कुछ हो समय के लिये जीवित हैं । मेरी मृत्यु मेरे सामने खड़ी है।
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चतुर्थ भाग
(३०३)
मेरे दुष्कर्म का फल मुझे नरकों में जाकर मिलेगा। __लक्ष्मण-बोल क्या सोचता है ? यदि अब भी अपना जीवन चाहता है तो सीता लौटा दे । तू सुख पूर्वक राज्यकर वरना याद रख ये नारायण तेरे मारने के लिये खड़ा हुआ है । अब तक मैं साधारण मनुष्य था किंतु अब चक्र हाथ में आने से चक्रवर्ती कहलाता हूं।
रावण —ओ अभिमानी लक्ष्मण ! जरा से चक्रको पाकर तू क्यों इतना फूल रहा है. रावण तेरी इन गीदड़ भभकियों से डान वाला नहीं, अपने मुंह से यदि त नारायण वासदेव और चक्रवर्ती बनता है तो बन, किंतु मैं तुझे कुछ नहीं समझता। तुझे चक्र मिल गया तो क्या हुआ । मेरी भुजायें ही चक्रों का काम करेंगी। __ लक्ष्मण -ओ मान के पुतले ! ले सम्हल, यदि तेरी यही इच्छा है तो चक्र के वार को रोक । (लक्ष्मण चक्र चलाते हैं। रावण के वह लगकर फिर लक्ष्मणके पास आजाता है, रावण पृथ्वी पर गिरकर
मर जाता है । लोग जै बोलते हैं।) विभीषण-(रोता है ) आह, भाई भाई, मैंने तुम्हें कितना समझाया था तुमने एक न सुनी, लाखों को जीवन प्रदान करने
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( ३०४)
श्री जैननाटकीय रामायण
वाले आज निर्जीव पड़े हो । उठो, उठो, आप तो महलों में सोते थे, आज भूमी पर क्यों पन्द्र हो ।
राम-विभीषण ! तुम इतने व्याकुल न होओ । धीर धरो . इस पृथ्वी पर जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य ही होती है, केवली के वाक्य झूठे नहीं हो सकते । रावण की मृत्यु लक्ष्मण के हाथ से ही होनी थी । नारायण सदा से प्रति नारायण की मृत्यु का कारण होता है।
(इतने ही में मन्दोदरी रोती हुई आती है। )
मन्दोदरी:-प्राणनाथ ! मुझ अबला को छोड़ कर कहां चल दिये । आपने तो कहा था कि मैं युद्धसे जीत कर पाउंगा। ' अब ये भापको क्या अवस्था हो रही है।
पर्दा गिरता है
अंक तृतिय-दृश्य चतुर्थ (राम लक्ष्मण लब राजाओं सहित आते हैं।)
विभीषणः-- लंका मापके अधिकार में है। आप जैसा बाहें इसे करें ।
रामः- मित्र विभीषण ! तुम मेरे सामने अपने भाई और भतीजों को जो कि बन्धन में पड़े हुवे हैं ला। ताकि उन्हें मैं बन्धनमुक्त करूं।
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चतुर्थ भाग
(३०५ ) .
विभीषणः-जैसी आज्ञा, (जाता है और लेकर आता है)
राम-कुम्भकरण, मेघनाथ, और इन्द्रजीत, आप लोग जानते हैं, कि रावण खोटे मार्ग पर था। दूसरे उसकी मृत्यु लक्ष्मण के हाथ से थी, उसे कोई रोक नहीं सकता था, अब जो हुवा सो हुआ, यदि तुम लोग बन्धन से छूटना चाहते हो और आनन्द सहित विभीषण सहित लंकाका राज्य करना चाहते होतो हमें मस्तक नमामो ।
कुम्भकरण-जैसा आप कहते हैं, हम लोग उससे सह.. मत हैं हम भापको मस्तक नमाते हैं । भाज से हम आपके सेवक बनकर रहेंगे।
राम-विभीषण ! इन्हें बंधन मुक्त कर दो। (विभीषण उन्हें खोल देता है, मेघनाथ, और इन्द्रजीत उसके पैर छूते हैं। कुम्भकर्ण गले से मिलता है, फिर तीनों राम के और लक्ष्मण के पैर छते है) सब-बोल श्री राम लखन की जै।
हनुमान--महाराज ! जिसके लिये आपने ये सब कुछ किया है उसकी चलकर सुघ क्यों नहीं लेते ? वो आपके विरह में व्याकुल हैं।
राम-आह, सीता ! तुम मेरे विरह में कितनी व्याकुल होंगी ? मित्र विभीषण ! सीता कहां है ?
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पंचम भाग
( ३१९ )
सीता - देव ! मेरी इच्छा सिद्ध क्षेत्र भादि तीर्थों की वन्दना करने की है ।
राम-- देवी ! यह तुम्हारी अत्यन्त उत्तम इच्छा है। मालुम होता है तुम्हारे गर्भ में आये हुवे पुत्र मोक्षगामी होंगे। जिसके प्रभाव से तुम्हारे ऐसे भाव हो रहे हैं। मैं अवश्य ही तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा । तुम्हें सारे तीर्थों की बन्दना कराऊंगा ।
सीता - भापका मेरे ऊपर अपार प्रेम है । आपने मेरे लिये कितने कष्ट सहे । मेरे जैसी भाग्य वाली दूसरी न होगी जिसका पति ऐसा पुरुषोतम हो ।
राम - प्राणेश्वरी ! प्रेम प्रेम से ही उत्पन्न होता है । ये कोई बाजारू चीज नहीं है जो पैसा देकर मोल की जा सके । जितना प्रेम तुम्हारा मुझ से है उतना ही मेरा भी तुम से है । तुमने मेरे बिना किस प्रकार कष्टं सहा सो मैं जानता हूं । पतिव्रता से जग को प्रेम होता है । पतिव्रता ने एक भाकर्षण મૈં होता है जो मनुष्य को अपनी ओर खींचता है ।
1
!
सीता - नाथ ! ये सब तो आप ही की कृपा है। भाप ही ने मुझे ये पाठ पढ़ाया है। मैं आपकी अर्धागिनी हूं |
राम - प्रिये, जगत जिसे प्रेम कहता है वो प्रेम नहीं । किन्तु प्रेमाभास है । ' प्रेम उसे कहते हैं जिसका बंधन दर्द हो ।
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(३२०)
श्री जैन नाटकीय रामायण
चाहे दूर रहे या पास रहें जिनका आपस में मन खिंचता रहे. वो ही दो सच्चे प्रेमी हैं और वही पवित्र प्रेम है ।
गाना सीता---प्रेम ही है जीवन आधार । बिना प्रेमके कठिन ग्रहस्थी, पले न ग्रहस्थाचार ॥ राम-बिना ग्रहस्थी धर्म नहींहै, ना हो मुनि प्रहार॥प्रे० सीता-प्रेम पती से नेहा लगाऊं। . राम--प्रेम नगर में तुम्हें बसाऊं ॥ सीता--प्रेम से हो श्रृंगार । दोनों-प्रेम तन्तु में बंधकर दोनों, सेवें धर्माचार ॥
हां हां. सेवें धर्माचार ॥ प्रेम ही है जीवन आधार-॥
(दो सखी आती है) दोनों सखी-श्री महाराज पुरुषोत्तम और महारानी की जय हो।
१ सखी-महाराजको राज़ दार प्रजा स्मरण कर रही है।
राम-अच्छा तुम लोग सीता का मन बहलाओ मैं राज दर्बार में जाता हूं। . ( चले जाते हैं ) .
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पंचम भाग
( ३२१)
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सीता-हैं, अचानक ही मेरी दाहिनी आंख क्यों फड़क ने लगी।
२ सखी-महारानी जी कहिये हम आपकी क्या सेवा करें। हमारे आते ही श्राप व्याकुल क्यों हो गई ?
सीता--सखी रात मैंने एक दुःस्वप्न देखा है। इस समय प्राणनाथके जाते ही मेरी दाहिनी आंख फड़कने लगी अवश्य इसमें कुछ रहस्य है । न मालूम अब फिर क्या दुख मिलने वाला है।
१ सखी-महारानीजी! आप शोक न कीजिये । चलिये उद्यान में चलिये। (सब चली जाती हैं )
अंक प्रथम-~-दृश्य पंचम (दार में प्रजा के लोग खड़े हुवे हैं। रामचन्द्रजी आते
हैं। प्रजाजन उन्होंको शीश झुकाते हैं।)
राम---कहो भाइयों ! क्या प्रार्थना लेकर आये हो सब चुप रहते हैं। कहो, कहो, तुम लोग निःसंकोच होकर जो कहना हो सो कहो ; ( फिर चुप रहते हैं ) क्यों तुम लोग चुप क्यों हो। जिसकी शिकायत तुम्हें करनी हो । निर्भय होकर कहो। यहां पर इस समय तुम लोगोंके और मेरे सिवाय कोई नहीं है।
१ मनुष्य-महाराजाधिराज ! आप हमें अभयदान दें तो हम कहें।
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( ३२२)
भी जैननाटकीय रामायण
राम-मैं तुम्हें अभयदान देता हूं । तुम निःसंकोच होकर जो कहना है सो कहो।
१ मनुष्य-माज कल बड़ा अनर्थ मचा हुआ है । जो चाहे जिसकी स्त्री को हर ले जाता है । उस स्त्री का पति फिर उसे घर में रख लेता है । बड़े बड़े सामंत दीनों की स्त्रियां चुरा कर ले जाते हैं उनके साथमें कुचेष्टायें करते हैं। किंतु ये खाज चल गया है कि पर पुरुष के घर में रही हुई स्त्री को भी लोग रख लेते हैं । वो कहते हैं कि जब पुरुषों में श्रेष्ठ रामचन्द्रजी ने . हो रावण के घर में रही हुई सीता रखली तो हमें कौन रोक सकता है । यथा राजा तथा प्रजा । भाप पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, धर्मात्मा हैं, न्यायगन हैं ऐसा उपाय कीजिये जिससे आपका ये अपयश दूर हो । और प्रजा में फैला हुमा अर्नथ मिट जाय ।
' राम-अच्छा तुम लोग जाओ। मैं इस बात पर विचार कलंगा।
सब-जो आना। (चले जाते हैं।
गम-(स्वगत ) सीता रावण के यहां रह पाई है। माना कि वह परम सती है किन्तु लोक में उसके रखने से मेरा अपयश फैल रहा है जब तक सीता को घर से नहीं निकाला जायगा तब तक यह अपयश मिट नहीं सकता। .
किन्तु मैं सीता को कैसे निकालूंगा । जिसने मेरा समाचार
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पंचम भाग
(१२३)
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सुनने के लिये ग्यारह दिन तक उपवास किया था वो सीता मुझसे कैसे अलग होगी।
इधर सीता का प्रेम, उधर लोकापगद । दानों में कौनको छोडूं ? इमर कुना है उधर खाई है। किपर चलूं ? दानों ही मुझे संताप के देने वाले हैं। मैं जानता हूं कि सीता शुद्ध है किन्तु लेोकापवाद से डरता है । यद्यपि शुद्ध है किन्तु लोक के विरुद्ध है तो न उसे करना चाहिये न उस पर चलना चाहिये। (मावाज देते हैं ) कोई है?
द्वारपाल-(भाकर ) माझा महाराज । राम-जावो लक्ष्मण को शीघ्र बुला लायो । द्वारपाल-जो आज्ञा ( चला जाता है)
राम-लक्ष्मण से इसके लिये मैं सलाह लेता हूं। देख वह क्या कहता है।
लक्ष्मण-(भाकर ) भाई साहब के चरणों में सेवक का प्रणाम ।
राम-लक्ष्मण ! मैंने तुम्हें इस लिये बुलाया है कि अभी मेरे पास प्रजा के लोग भाये थे। वो कहते थे कि मैंने जो रावण के यहां रही हुई सीता को घर में रख लिया सो भला नहीं किया इससे अनाचार की प्रवर्ती हो रही है। पर २ में हमारा अपवाद हो रहा है।
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( ३२४ ) श्री जैन नाटकीय रामायण
लक्ष्मया --- जो सीता को दोष लगाते हैं और हमारा अपवाद करते हैं वो मूर्ख हैं। मैं अभी जाकर उन सबको दण्डदूंगा । राम -- नहीं लक्ष्मण ! मारते हुबे के हाथ पकड़े जा सकते
हैं किन्तु किसी की जिन्हा नहीं पकड़ी जा सकती । यदि हमारे भय से कोई हमारे मुंह पर नहीं कहेगा तो पीछे जरूर कहेगा । सीता को मैं अपने घर में नहीं रखूंगा ।
"
लक्ष्मण - भाई साहब ! सीता परम सती है । केवल लोकापवाद के भय से भाप न तजियेगा । वह सती आपके बिना किस प्रकार रहेगी ?
राम -- लक्ष्मणा । यदि एक वस्तु शुद्ध है किन्तु लोग उसे बुरा कहते हैं तो उसे त्यागना ही उचित है । इस भगवान ऋषभदेव के कुल को दूषित न करूंगा । नारी नरक में ले जाने वाली है । इसके मोह में पड़ कर मैं अपयश नहीं कमाऊँगा । लक्ष्मण - जो लोग धर्म सेवन करते हैं लोग उनकी निन्दा करते हैं उन्हें ढोंगी बताते हैं। लोग दिगम्बर साधुओं को बुरा बताते हैं । तो ये नहीं कि वह गुरे हैं । इसका यह । मतलब नहीं है कि धर्म सेवन करना या साधुओं की बन्दना करना छोड़ दें ।
राम -- बस चुप रहो। मैं अधिक सुनना नहीं चाहता । मैं नारी के प्रेम से बढ़कर लोकापवाद को समझता हूं ।
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पंचम भाग।
( ३२५)
(द्वारपाल से) द्वारपाल ! जाओ सेनापति को बुलालाओ ! द्वारपाल-जो आज्ञा !
(चला जाता है। सेनापति आता है।) सेनापति-श्री महाराजा रामचन्द्रजी तथा लक्ष्मणजी के चरणों में सेवक का प्रणाम । सेवक श्राज्ञा पालन करने को उपस्थित है।
राम-सेनापती ! जाओ सीता को रथ में बिठाकर ले जाओ उसे पहले सारे तीर्थों की बन्दना कराओ, पश्चात सिंहनादबन में अकेली छोड़ पाना । जैसा मैंने कहा उसी प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करना । नहीं तो दण्ड पाओगे । सेनापति-जो श्राज्ञा । ( चला जाता है)
पर्दा गिरता है
সঁন্ধ সৃথষয় লতা (राजा वनजंघ अपने सैनिकों सहित आता है।)
वज्रजध-मेरे बहादुर सैनिकों ! हमें यहां पाये हुवे भाज १ माह बीत गया । ओह, यह सिंहनाद बन कैसा भयानक है यहां पर मनुष्य नहीं आ सकता। हम लोगों ने कितने कष्ट सहते हुवे हाथियों को पकड़ा । अब कुछ ठहरकर फिर नगरको वापिस लौटना चाहिये।
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( ३२६)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
१ सेनिक-महाराजाधिराज ! मुझे तो यह बन बहुत पसंद पाया है। यहां पर बहुत बड़ी ढंडक रहती है । खूब फल फूल खाने को मिलते हैं।
२ सेनिक-वाह चा, कैसा पसन्द प्राया। सबके साथमें हो, इसी लिये पसन्द आया है। जरा इकले रहकर देखो, कैसा । आनन्द मिलता है। महाराजाधिराज इसे यहीं छोड़ चलो।।
सेनिक-भाई अगर मुझे कोई रहने को कहें तो मैं तो चाहे 'मेरी जान चली जाय तो भी न रहूं । बाप रे बाप उस दिन वो कैसा भयानक सिंह था, मेरी तो देखते ही मय्या ‘मर गई थी।
वनजंघऔर यदि तुमको यहांका राज्य दे दिया जायतो?
३ सेनिक-मुझे गज्य नहीं चाहिये । राज्य पुरुषों पर किया जाता है । यहां तो मनुष्य का नाम भी नहीं । शेर बघेरे मुझे एक ही दिन में मार खायेंगे । ना रे बाबा ना।
वज्रजंघ-अच्छा अब चलने की तैय्यारी करो । ('सब चले जाते हैं, पर्दा खुलता है। लोता और सेना
पतो दोनों खड़े हुवे है।) सीता-अहा, आज मेरे धन्य भाग हैं। मैंने सारी यात्रायें 'समाप्त करली; क्यों सेनापती ! ये कौनसा बन है ?-बड़ा भयानक है। यहां से हमारा नगर कितनी दूर है ?
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पंचम भाग
( ३२७ )
सेनापती-माता ये सिंहनाद नामा बन है । यहांसे नगर को जाने के लिये १ माह का रास्ता है। किन्तु...............
. ( रोने लगता है।) सीता-सेनापती, सेनापती, तुम बात करते करते क्यों रोने लगे?
सेनापती-माता बात बताते हुवे मेरा कलेजा फटता है। मेरा मुंह रुकता है । श्रापको अब यहीं पर रहेना पड़ेगा। . सीता--क्यों सेनापती ! मैंने ऐसा क्या अपराध किया । तुम शीघ्र स्थको हांककर मुझे मेरे पतिसे मिलायो ।
सेनापती-माता सुनिये, रामचन्द्रजी के पास कुछ लोग इकठे होकर आये थे कि आपने रावण के घर में रही हुई सीता को घर में रखली इससे लोक में अपवाद फैल रहा है। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत समझाया कि आप गर्भ के भार से पीड़ित सीता को बनमें न भेजिये, किंतु उन्होंने लोकापवाद मिटाने के लिये श्रापको वनमें छोड़ने की आज्ञा. दी है। सीता-हैं ! मैं ये क्या सुन रही हूं श्राह....
. (मूर्छित होती है।) सेनापती-आह, चाकरी भी,क्या बुरी चीज है । इसके आधीन मनुष्य को कैसे कैसे अकार्य करने पड़ते हैं। सीता जैसी सती को मैं नौकरी के वश होकर बनमें छोड़ रहा हूं । चाकर से
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.
( ३३६ )
भी जैन नाटकीय रामायण
इस जगत में अन्धकार है।
__मदनांकुश-माता! आप क्षत्राणी होकर ये कैसी बातें कर रही हैं याज्ञा दीजिये । छोटा सा सिंह का बच्चा बड़े बड़े गज राजों को नीचा दिखाता है।
सीता-यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो दोनों भाई जाओ युद्ध से विजय पाकर लौटो। (दोनों चले जाते हैं। सीता भी चली जाती है । पर्दा
खुलता है। राजा वज्रजंघ का दबार ) बज्रजंघ-शीघ्र उसही दुष्ट पर सेना ले चलने की तैय्यारी करो । मैं उसे क्षण मात्र में हराकर उसकी पुत्री का विवाह मदनांकुश से करूंगा । अह ! वो कैसी योग्य जोड़ी है। जिसे देखकर इन्द्र भी लजाता है। ये बड़े भाग्यशाली बालक हैं। इनसे संबंध जोड़कर मैं अपने को धन्य समझंगा।
सैनिक-राजा पृथुमती बड़ा मुर्ख है जो इतने अच्छे बर को अपनी कन्या देने से मना करता है। वो अभिमानी है उसका मान हम लोग अवश्य भंग करेंगे।
दोनों पुत्र-(भाकर) मामा जी के चरणों में प्रणाम ।
वजनंघ-चिरंजीव हो पुत्र । इस समय मेरे पास माने का क्या कारण है ।
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पधेम भाग।
(३३७)
लवण-मामा जी ! मैंने सुना हैं कि राजा पृथुमती ने श्रापकी आज्ञा भंग की हैं । मैं उसका मान भंग करूंगा ) ____ वजूंजघ--- पुत्र ! तुम युद्ध में न चलो । उसके लिये मैं काफी हूं। मेरे लड़के मेरे साथ चल रहे हैं तुम्हारी कोई प्रावश्यकता नहीं । तुम दोनों माता के पास रह कर उसके नेत्रों को शान्ती दो।
अंकुश-मामाजी ? भाप हमें युद्ध से न रोकिये । हम क्षत्री हैं हमें युद्ध में आनन्द प्राप्त होता है।
वज्रजंघ-यदि तुम्हारी उत्सुकता इतनी बढ़ी हुई है तो चलो । युद्ध में अपनी परिक्षा दो। (सब चले जाते हैं)
पर्दा गिरता है।
अँक द्वितीय-दृश्य तृतीय
(वजूध और पृथुमती आते है) वज्रजंघ--बोल ओ अभिमानी राजा बोल, तु अपनी कन्या मदनांकुश को व्याहता है या युद्ध में प्राण गंवाता है। सोच ले समझ ले वरना पीछे पछतायेगा मेरी आज्ञा भंग करने का फल पायगा।
पृथुमती-सब समझ लिया । तेरे जैसे कन्या को मांगने वाले मैंने बहुत देखे हैं । जा भाग जा वरना मेरे धनुष बाण के
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( ३३८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
आगे तू न टिक सकेगा । जिसके कुल का कुछ पता नहीं उसे पृथुमती अपनी कन्या नहीं दे सकता ।
अंकुश-(भा कर) क्या कहा ? ओ अभिमानी ठहर मैं आज मुंह से नहीं बाणों के द्वारा तुझे अपना कुल बताऊंगा।
मेरे बाणों से तुझको, याद आजायेगा कुल मेरा । सम्हल कर युद्ध कर ले, देख क्या कहता धनुष मेरा ।।
पृथुमती-ओ नीच बालक ! इतना बढ़ कर न बोल । क्षत्रियों के सामने मुंह न खोल ये जवान तेरी खेल में चल सकती है युद्ध में नहीं। बच्चों की है खिलवाड़नहीं, ये युद्ध क्षेत्र कहलाता है। प्राणों की भेंट चढ़े इसमें, जो ज्यादा बात बनाता है। बच्चे जाकर के माता को, गोदी में दूध पियो थोड़ा। डरता हूं बालक हत्या से, जा भाग तुझे मैंने छोड़ा । लवण-हम बाल नहीं हैं काल तेरे, हम रणमें तुझे हरायेंगे।
है नीच कौन इसका परिचय, नीचा करके बतलायेंगे । मामा की आज्ञा टाली है, इसका फल तुझे चखाऊंगा। किस कुल के बालक हैं, तुझको बाणों द्वारा बतलाऊंगा ॥
प्रथुमती-जा भागजा | क्या कभी मेंढकने भी पहाड़ को उठाया है । क्या बच्चों से युद्ध जीता जाता है ! जाओ मैं फिर
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पंचम भाग
( ३३९)
कहता हूं मेरे सामने न पाओ, अपने प्राणों की कहीं रक्षा जाकर करो।
अंकुश-क्या युद्ध से डरते हो ? युद्ध में बालक और बड़ का प्रश्न नहीं होता । प्राओ मुझसे युद्ध करो या अपनी कन्या को मेरे हाथ सौंपो।
प्रथुमती-फिर वही दिलको क्रोध उपजाने वाली बात । सम्हत जा, सम्हल जा।
अब तक मैं चुप खड़ा था, अब जोश आया मुझमें ।
मुझको भी देखना है. कितना है तेज तुझमें ॥ : (पदी खुलता है। दोनों में युद्ध होता है अंकुश उसे गिरा
देता है । गिराकर उससे पूछता हैं ।) अंकुश-बता, बता, अब हमारा क्या कुन्त है ?
प्रथुमती-बाह, छोड़दो, छोड़दो, क्षमा करो। तुम क्षत्री हो । मैं भूला हुआ था, मेरा अपराध क्षमा करो, मैं आपको शीश नवाता हूं । अपनी कन्या श्रापको अवश्य दूंगा। ___अंकुश-( उसे छोड़कर ऊपर उठाकर ) उठो मैं इतने से ही प्रसन्न हूं
प्रथुमती–मैं बड़ा अपराधी हूं । आप शूरवीर क्षत्री धर्मास्मा और क्षमावान हैं। चलिये, मैं आपके साथ अपनी कन्याका विवाह करता हूं।
पर्दा गिरता है।
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( ३४० )
श्री जेननाटकीय रामायण
- अँक द्वितीय-दृश्य चतुर्थ (नारदजी अपनी बीणा बजाते हुवे आते हैं)
गाना जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जयजिनेन्द्र, जयजिनेन्द्र,
( थोड़ी देर गाकर इधर उधर देखकर आश्चर्य से ) हैं, यह तो पुंडरीक नगर मालूम पड़ता है, यहां तो मैं वजूजघ के राज्य में आगया । अहा, ये भी नगर क्या ही सुन्दर है । ( सामने देखकर ) हैं, सामने से ये दो बालक कौन आ रहे हैं ? इन्हें देख कर मुझे राम लक्ष्मण का धोखा होता है । अहा कैसी मनोग्य जोड़ी है। बिल्कुल इन्द्र सरीखे मालूम पड़ रहे हैं।
दोनों--( श्राकर ) नारदजी के चरणों में प्रणाम ।
नारद-चिरायु होवो पुत्रों ! राम लक्ष्मण जैसी मान्यता श्रेष्ठता और वैभव को प्राप्त करो।
लवण-क्यों नारदजी ! राम लक्ष्मण कौन हैं ? कहां रहते हैं उन्होंने क्या श्रेष्ठता प्राप्त की है ?
नारद-हा, हा, हा ! पुत्रों तुम नादान हो । तुम्हें अभी मालूम नहीं सुनो मैं उनका तुम्हें प्रारम्भ से वृतांत सुनाता हूं।
अंकुश-- सुनाइये महाराज बड़ी कृपा होगी। . नारद--इसी भरत क्षेत्र में एक अयोध्यापुरी है वहां पर राजा
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पंचम भाग
( ३४१)
दशरथ राज्य करते थे। उनकी चार रानियों से राम, लक्ष्मण भरत, शत्रुधन ये चार पुत्र उत्पन्न हुवे । राम ने धनुष चढ़ा कर सीता को ब्याहा । इस के पश्चात राजा दशरथ के वैराग्य के समय केकई ने भरंथ को राज्य दिलाया । राम लक्ष्मण और सीता वन को चले गये । वहां पर रावण सीता को हर कर ले गया । लक्ष्मण ने अनेक विद्याधरों और भूमि गोचरियों को सहायता से रावण को मारा और सीताको वापिस अयोध्या लाये और सिंहासन पर बैठे । भरथजी ने सन्यास धारण किया और मुक्ती प्राय के । लोकापवाद के भय से राम, जिन्हें बलभद्र पद्म पुरुषोत्तम
आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है । उन्होंने सीता को बन में छुड़वा दिया । लक्ष्मण ने जिन्हें नारायण वायुदेव आदि नामों से पुकारते हैं बहुत मना किया किन्तु न माने । हाय वेचारी सीता न मालूम अब कहां फिरती होगी ।
लवण-नारदजी ! तब तो राम ने बहुत बुरा किया । बेचारी निर्दोष भवला को लोकापवाद के भय से घर से बाहर निकाल दिया । मैं अवश्य अयोध्या को अपनी सेना लेकर जाऊंगा । और उन्होंने जो ये न्याय विरुद्ध काम किया है । इस का उन्हें दण्ड दूंगा।
नारद-नहीं पुत्र ! ऐसा न करना । वो बलभद्र नारायण हैं। उनके भागे कोई नहीं जीत सकता ।
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( ३४२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
लवण-अंकुश ! तुम जाओ । जाकर वनजंघजी से ! कहो कि सारी सेना तय्यार होजाय । हम लोग अयोध्या पर चढ़ाई करेंगे।
अंकुश-जो प्राज्ञा । ( चला जाता है।)
लवण --नारदजी ! आप कृपा करके मेरी माता के पास -चलिये।
नारद---जरूर, कहां हैं तुम्हारी माताजी ? लवण-चलिये इसी सामने वाले राज महल में हैं।
नारद---अच्छा तुम चलो मैं सामायिक से निवटकर अभी श्राता हूं तुम्हारी माता से मैं अवश्य भेंट करूंगा।
लवण-जैसी इच्छा । ( दोनों चले जाते हैं । ) ( पदी खुलता है। सीता बैठी हुई है।)
.. गाना प्राणों के नाथ ने मुझे, आहे युही भुला दिया । रंजमें अपने रात दिन, मुझको यु ही घुला दिया । भूलथी मुझसे क्या हुई, मैंने तो कष्ट थे सहे । रायणने हर के हायरे, दुखिया मुझे बना दिया ॥
लवण- आकर ) माताजो ! आप क्यों रो रही हैं ? मैं - आपको एक हर्ष समाचार सुनाने आया हूं।'
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पंचम भाग |
( ३४३ )
सीता - कहो पुत्र वह क्या समाचार हैं ? लवण ----माताजी ! अयोध्या में कोई राम और लक्ष्मण नाम के दो राजा रहते हैं। राम ने लोकापवाद के भय से अपनी स्त्री सती सीता को निकाल दिया । देखिये माताजी उसने कितना मुर्खता का काम किया । मैं उसे इसकी सजा देनेके लिये प्रयोध्या को सेना लेकर जाउंगा ।
सीता-पुत्र ! तुम्हें ये कैसे मालूम पड़ा ? लवण -- माता ! ये मुझे नारदजी ने कहा । सीता-पुत्र ! जिनके ऊपर तुम सेना ले जा रहे हो वो तुम्हारे पिता हैं । वो मैं ही हूं जिसको उन्होंने चन में निकाला है ।
लवण-क्या सचमुच माता जी आप ही का नाम सीता है ? तब तो हम बड़े भाग्यशाली हैं। जो हमारे ऐसे जगत प्रसिद्ध पुरुषों में श्रेष्ठ पिता हैं ।
सीता-पुत्र ! तुम अयोध्या जाकर अपने पिता के चरणों में शीश नवायो। उनसे युद्ध न करना । यदि उनकी हार हुईं तो भी मुझे दुःख होगा और तुम्हारी हार हुई तो भी मुझे दुःख होगा ।
लवण - माता जी ! मैं अयोध्या जाकर उनसे युद्ध - श्य करूंगा । किन्तु उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचने दूंगा।
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( ३४४)
श्री जैननाटकीय रामायण
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मैं बचा बचाकर वार करुंगां । वो मेरे ऊपर वार करेंगे 'उनको मैं रोकूँगा। उनकी शक्तियाँ मेरे ऊपर निष्फल होंगी क्यों कि मैं उनका पुत्र हूँ। पिता के शस्त्रं से पुत्र की मृत्यु नहीं होगी।
(चला जाता है) नारद-(ऑफर) हैं ये कौन ? सीता, मेरी आंखों को धोखा तो नहीं हो रहा.है।
सीता-मुनिश्वर प्रणाम । मैं भापकी चरण सेविका सीता ही हूं। मुझे वजूजघ सिंहनाद बन में से ले आया है।
नारद-क्या ये दोनों पुत्र तुम्हारे ही हैं ? मेरा अनुमान ठीक निकला।
सीता-नारदजो ! आपने इन्हें कथा सुना कर वृथा कोष उपजा दिया। अब ये अयोध्या में पिता और चाचा से लड़ने
नारद-सती जो कुछ भी होता है वो अच्छे के लिये ही होता है। तुम कोई चिंता न करो । इन्हें जाने दो, तुम्हारा भाई भामण्डल तुम्हें देखने को तड़फ रहा है । में जाता हूं और उसे तुमसे मिलाता हूं । ( चले जाते हैं)
सीता-हाय ! मैं कैसी अभागिनी हूं। मेरे ही कारण पिता पुत्र में युद्ध होगा। हे श्राकाश मण्डल के देवताओं तुम मेरे पति देवर और पुत्रों की रक्षा करना ।
पदी गिरता है।
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पंचम भाग
अंक द्वितीय-दृश्य पंचम (नारद और भामण्डल आते हैं । ) भामण्डल-कहिये नारदजी, इस समय आपका कैसे आना हुआ?
नारद---भामण्डल ! मैं तुम्हें एक हर्ष समाचार सुनाने पाया है।
भामण्डल---कृपा कीजिये मुनिवर । नारद---तुम्हारी बहन सीता की खोज.... ... भामण्डल-सीता की खोज मिलगई ? नारद---हां मिलगई।
भामण्डल--कहाँ है ? मेरी प्यारी बहन कहां है ? जीवित है या नहीं।
नारद-तुम्हारी बहन पुण्डरीक नगर में राजा बज्रजंघ के यहां सुख पूर्वक रह रही है । वहीं पर उसने दो पुत्रों का प्रसव किया है। वो दोनों पुत्र अनन्त बलके धारक कांतिवान और धर्मात्मा हैं । वो वहां से राम लक्ष्मण से युद्ध करने के लिये श्रा रहे हैं।
भामण्डल---मुझे ये सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ । चलिये मुझे पहले पुण्डरीक नगर ले चलिये । मैं अपनी बहनसे मिलने के लिये अत्यन्त व्याकुल होरहाहूं । पुत्रोंका जन्म कौनसे दिन हुआ था।
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( ३४६ )
श्री जैननाटकीय रामायण
नारद-पुत्रों के युगल ने श्रावण सुदी पूर्णमासी को जन्म लिया था, वो दोनों सूर्य चन्द्र सरीखे दैदीप्यमान हैं।
__ भामंडल-तो चलिये, मुझे मेरी बहन और भानजों से मिलाइये?
नारद-भामण्डल ! पहले इसका प्रबन्ध करना चाहिये कि युद्ध में किसी के चोट न भावे ।।
भामण्डल-नारद जी ! आप ही बताइये मैं क्या करूं?
नारद--तुम रामचन्द्र के सारे सहायकों को ये सुचित करदो कि ये सीता के पुत्र हैं। वो कोई इन पर वार न करें । लवण और अंकुश ने ये वचन दे दिया है कि हम बचाकर वार करेंगे । राम लक्ष्मण के ब णों का उन पर असर नहीं होगा उनके चक्रों का भी असर इन पर नहीं होगा क्यों कि ये उनके अंग हैं।
भामंडल--जैसी आज्ञा, चलिये मैं अभी सबके पास समा चार भेजे देता हूं। किन्तु पिता पुत्र में युद्ध होगा ये ठीक नहीं। ___ नारद---इसमें कोई हर्ज नहीं है । राम लक्ष्मण को इनके बल का पता चल जायगा । बाद में मैं अपने आप सबको मिला दूंगा। भामंडल---तो चलिये । ( दोनों चले जाते हैं )
(पर्दा खुलता है । सीता बैठी है)
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पंचम भाग
(३४७)
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सीता-आज मेरा बांया नेत्र फड़क रहा है। चित्त में अन्दर ही अंदर खुशी की लहर उठ रही है। श्राज अवश्य किसी प्रिय बंधु का मिलन होगा। याद आया, नारदजी भाई.भामण्डल को लाने के लिये कह गये थे। प्राज मेरा भाई का मिलन होगा। (श्रावाज देती है) भचला ! अचला !!
अचला-क्या सेवा है महारानीजी ?
सीति-जा, भोजनालय में कह कि नाना प्रकार के पकवान बनाय जाय और नारदजीके लिये अलग शुद्ध थाहार बनाया जाय ।
अचला-जाती हूँ देवी जी ( चलने लगती है) सीता--भरी और सुन । अचला---कहिये
सीता--जा चार पांच हार ले भा और तांबूल लेना भाज मेरा भाई मुझ से मिलने पा रहा है।
अचला-जो भाज्ञा । ( चलने लगती है) सीता--भरी और सुन तू तो भागी जाती है। अचला-प्राज्ञा कीजिये।
सीता--तुझे जरा भी खयाल नहीं; मेरा भाई आ रहा है। उसके लिये तु सुंदर प्रासन विधा । एक श्रासन नारद जी के लिये विचा;
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( ३४८)
श्री जैन नाटकीय रामायण
तुम्हें देखकर अत्यन्त हर्ष हुआ ।
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(दासी चली जाती है दो आसन लाकर बिछाती है एक खाली लकड़ी का और एक मखमलका । फिर मालायें और तांबूल लाती है इतने में ही भामण्डल और नारदजी आ जाते हैं । दोनों भाई बहन गले मिल कर रोते हैं।)
नारद-भामण्डल, सीता, रोमओ नहीं, हर्ष मनाओ ! सीता-~-नारदजी ये हर्ष के. श्रांस हैं, भाई भामण्डल मुझे
से नहीं कह सकती। भामण्डल---बहन ! मुझे बड़ा दुख है कि मैं तुम्हारे दुःख में कुछ भी हाथ न बटा सका । तुम्हें कुछ भी सहारा न लगा सका । मुझको इस बात का हर्ष है कि तुम जीवित रही और मैं तुमसे मिला।
सीता-भाई भामण्डल ! यदि मनुष्य जीवित रहते हैं तो कभी न कभी मिल हो जाते हैं। यदि मैं सिंहनाद बनमें ही मर जाती तो तुम मुझे कहां खोजते । आओ बैठो। नारदजी आय भी बिगजिये। (नारदजी और भामण्डल यथा स्थान पर बैठ जाते हैं।' सीता दोनों के गले में फूल माल डालती है, भाई
को पान खुलाती है।) ‘भामंडल-~-सीता, तुम कितनी दुबेल होगई । वजेध के हम लोग बड़ पामारी हैं जिसने तुम्हें आश्रय दिया । चलो अब तुम अयोध्या लौट चलो । रामचन्द्रजी तुम्हारे बिना रात दिन ब्याकुल रहते हैं।
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पंचम भाग
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सीता नहीं भाई, उन्होंने मुझे निकाल दी है । जब
( ३४९ )
तक वो स्वयं मुझे न बुलायेंगे, मैं न जाऊंगी ।
नारद - तुम दोनों बहन और भाई यहीं पर रहो मैं भयोध्या जाता हूं जाकर युद्ध रोकता हूं | ( चले जाते हैं । ) सीता - - भाई ! दोनों पुत्र हठ करके श्योध्याको पिता और चाचा से लड़ने चले गये हैं ।
हुश्रा
भामण्डल - बहन मुझे दोनों पुत्रों की सुनकर बहुत हुआ । मैं उन्हें देखना चाहता हूं । चलो विमान में बैठ चो तुम भी अपने पुत्रोंका पराक्रम देखना । और मैं भी देखूँगा । विमान को ऐसे स्थान पर रोक लेंगे जिससे तुम सबको देख सको, तुम्हें कोई न देख सके |
सीता --- यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो चलो और शीघ्र ही उन्हें देखकर लौट पायेंगे |
पर्दा गिरता है ।
अंक द्वितीय - दृश्य छठा स्थान युद्ध क्षेत्र
( युद्ध के बाजे बज रहे हैं। दोनों ओर की सेनायें लड रही है, राम लक्ष्मण और लवण अंकुश चारों ही आमने सामने लड़ रहे हैं । नारदजी आते हैं ।)
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( ३५० )
श्री जैननाटकीय रामायण
नारद - बस बन्द करो, ये युद्ध का बाजा । युद्ध रोकदो । रामचन्द्र ! पहचानो, ये तुम्हारे पुत्र हैं । इन पर तुम्हारी शक्तियां नहीं चल सकतीं ।
( दोनों रामचन्द्र के चरणों में जाकर प्रणाम करते हैं । ) रामचन्द्र - धन्य भाग मेरे जो ऐसे पुत्र पाये ।
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( सब लोग जय जयकार करते हैं । आकाश से पुष्प वर्षा होती है | सुन्दर बाजे बजते हैं। एक ओर राम खड़े हैं एक ओर लक्ष्मण, बीच में दोनों पुत्र हैं । सब राजा लोग इधर उबर खड़े हुवे हैं। सबके बीच में नारदजी खड़े हैं । ) ड्राप गिरता है द्वितीय अंक समाप्त |
क तृतीय- दृश्य प्रथम
( राज दर्बार में गम, लक्ष्मण, लव, कुश और सब राजा लोग उपस्थित हैं )
सखियों का नाच गाना
ओ री सखी नाचें गाँव आज सभी । राम औ लखन लवकुश मिले हैं सभी ॥ पुत्रोंका है संगम हुआ, इनको मुबारिक बाद है ।
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पंचम भाग
( ३५१ )
खुश हुवे सबके हृदय, इनको मुबारिक बाद है || आओ
ओ री सखी नाचें गावें आज सभी ।
लक्ष्मण - भाई साहब तक आप कहते थे कि कोई सीता का पता बताये तो मैं उसे बुलाऊं अब आपको पता मिल गया । शीघ्र ही अपने समीप बुलाइये ।
राम -- जिसे मैं एक बार अलग कर चुका उसे नहीं बुला सकता चाहे उसके विरह में मेरे प्राण ही क्यों न चले जाये ।
1
सुग्रीव - - महाराजाधिराज, आपको यह करना उचित नहीं सीता निर्दोष है ये आपके पुत्रों के बल और तेज को देखकर सिद्ध होगया । वह आपके विरह में सुखकर कांटा हो रही है । उसे बराबर आप से मिलने की आशा बनी रहती है ।
राम - यह सत्य है किन्तु मैं लोकापवाद से डरता हूं लोग कहेंगे कि राम से सीता बिना न रहा गया । सीता को एक बार निकालकर फिर घर में रखली ।
सुग्रीव - महाराज, आप इस बात से निश्चिन्त रहिये | इस समय सारी प्रजा सीता की बाट देख रही है । आप शीघ्र ही हमें श्राज्ञा दीजिये ! हम पुष्पक विमान में सीता को बिठाकर अयोध्या लेवें ।
राम - यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ उसे मेरे समीप ले लाओ ।
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( ३५२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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-
सुग्रीव-जो अाज्ञा । ( चला जाता है )
राम-मित्र हनुमान ! विभीषण ! 'विराधित ! आप लोग भी सुग्रीव के साथ जाकर सीता को ले श्राओ । '
हनूपान-जो आज्ञा । (तीनों चले जाते हैं)
अंक तृतीय-दृश्य द्वितीय
(साधु और ब्रह्मचारी आते हैं) ब्रह्मचारी---कहिये साधू महाराज कुछ देखा ? अब तो बहुत दिनो बाद दर्शन हुवे ।
साधु-मैंने सब कुछ देख लिया । और समझ लिया अभी तक मैं जैनियों को नास्तिक समझता था । किन्तु अब मेरे ध्यान में आगया । जितनी बातें तुम्हारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं उतनी हमारे शास्त्रों में कहीं भी नहीं हैं । तुम्हारे यहां जो कुछ है वो पूर्वापर विरोध रहित है। उसमें कहीं विरोध नहीं पा सकता।
७०-फिर भी बड़े दुःख की बात है कि हठी पुरुष अपनी हठ को नहीं छोड़ते । जैसा उन्होंने सुन लिया वैसा ही कहने लग जाते हैं । ये नहीं समझते कि इसमें कहां तक झूठ
और कहां तक सत्य हो सकता है। । सा०---सत्य है इसीसे आज हम लोगों का पतन हो रहा
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पंचम माग |
1 हमारी आत्माओं से पर्वतों को हिला देने वाली शक्तियां निकल चुकी हैं। आप एक बात तो बताइये ?
The
( ३५३ )
ब्र० - पूजिये ।
सा०-- ज्ञान प्राप्त करने का और ये जानने का कि भाज कल जो प्रचलित है वो कहां तक झूठ है और कहां तक सत्य है, इसका क्या उपाय है। पुराने वाक्य कहां तक कपोल कल्पित हैं कहां तक ठीक हैं ये कैसे जाना जा सकता है ।
ब्र०---ये सब बातें जैन शास्त्रों को पढ़ने से मिल सकती जिननी प्रचलित कथायें हैं उनमें सबमें थोड़ा २ सत्य है । पूर्ण सत्यता जैन शास्त्रों और जैन पुराणों के पढ़ने से ही मालूम पढ़ सकती है।
सा०—किंतु आपके यहां तो बहुत पुराण हैं। खास खास पुराण कौनसी हैं सो बताइये
ब्र० - वैसे तो सभी खास खास हैं । किंतु उनमें भी भादिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, पांडवपुराण, प्रद्युम्नचरित्र, पार्श्वपुराण और महावीर पुराण ये विशेष पढ़ने योग्य हैं । सा०-- इनमें क्या क्या विषय हैं ?
Montgome
ब्र० भादि पुरण से यह ज्ञात होता है कि सृष्ठी की रचना किस प्रकार हुई है । वर्ण व्यवस्था कम प्रारंभ हुई । ये ढोंगी साधु कैसे बने, इत्यादि । पद्मपुराण का वृतान्त नाटक
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( ३५४)
श्री जैन नाटकीय रामायण
द्वारा बतला ही दिया है। हरिवंशपुराण में श्रीकृष्ण का जरासिंधु आदि का पूर्ण वृतांत है। पांडवपुराण से पांडवों का सच्चा हाल मालूम पड़ता है। प्रद्युम्न चरित्र में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का बड़ा,सनोज्ञ चरित्र है, पार्श्वपुगण और महावीर पुराण में चतुर्थकाल के अन्त का सारा वृत्तांन है, इन पुराणों को पढ़कर मनुष्य खोटे मार्ग पर नहीं जा सकता।
सा०--अब अगाड़ी भाप क्या दिखायेंगे ?
ब्र०-आज हमें नाटक खेलते हुवे पांच दिन होगये हैं आज सीता की अग्नि परीक्षा दिखाकर हम अपना खेल समाप्त करेंगे।.
सा.. तो चलिय। ( दोनों चले जाते हैं)
____ अंक तृतिय-दृश्य तृतिय (रामचन्द्रजी दर । पाल में ही दोनों पुत्र और लक्ष्मण शत्र धन खड़े हैं । सुग्रीत्र आदि सीता को लेकर आते हैं, सीता प्राणनाथ कहकर झपटती
है, किन्तु राम दूर से ही रोक देते हैं।)
राम--बस खबरदार, मेरे समीप न पाना मुझे स्पर्श न करना । जिसे मैं एक बार त्याग चुका उसे बिना किसी परिक्षा लिये हुवे नहीं अपना सकता । . . . सीता--देव मैं आपकी हूं । मापको अधिकार है । ग्रहण करें
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पंचम भाग
(३५५)
या न करें । मैं सती हूँ मैंने आपके सिवाय पापुरुष को आंख उठा कर भी बुरी निगाह से नहीं देखा । श्राप चाहे जैसी परिक्षा लें मैं तैय्यार हूँ।
मैं स्वामी श्रापकी हूं, आपको अधिकार मुझ पर है । कोई कुछ भी करे अधिकार मुझको अपने मन पर है ।। यदि चाहो तो पर्वत से गिरा कर चूर कर डालो । यदि चाहो तो अग्नी में जला कर भस्म कर डालो ॥ वचन मन काय से मैंने, घरम अपना रेखा होगा। पटकदो मुझको अग्नी में, मेरे छूने से जल होगा ।
राम---यदि यही बात है तो कल तुम्हारी अग्नी परिक्षा होगी । सेनापती ! जाओ एक लम्बा चौड़ा और गहरा अग्नी कुन्ड तैय्यार कराओ। उसमें चन्दन की आग जलाओ । सारे नगर में इस बातका ढिंढोरा पीटो कि कल सीता की अग्नी परिक्षा होगी।
नारद-रामचन्द्र । ऐसा न करो | अग्नी प्रचन्ड रूप होती है वो सीता को अवश्य जला देगी | तुम उसमें सीता का प्रवेश न कराओ। यदि सीता को स्वीकार नहीं करना चाहते तो न करो । किन्तु ये हिंसा का कार्य न करो।
रामचन्द्र-नारदजी ! मैं आपके वाक्यों का सम्मान करता हूं किन्तु जो एक बार मेरी आज्ञा हो गई वो नहीं टल सकती। जिस प्रकार अग्नी में सोना लपाने से सोने और सुनार दोनों का
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( ३५६ )
श्री जैन नाटकीय रामायण । ,
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अब हम में
विश्वास हो जाता है उसी प्रकार सीता की अग्नी परिक्षा से सीता का और मेरा विश्वास हो जायगा।
प्रजा का मनुष्य-महाराजाधिराज ! हम लोगों को क्षमा करें। हम विश्वास करते हैं कि सीताजी निर्दोष हैं से कोई भी अपवाद न करेगा।
राम---अब विश्वास करने से कुछ नहीं बनता । जब इतने दिन तक सीता ने कष्ट उठा लिये तब विश्वास करने से कुछ न बनेगा । जो मेरी प्राज्ञाहै वो.अटत रहेगी । सीता की कल अग्नी परिक्षा अवश्य होगी।
लवण---पिताजी ! माता जी अग्नी में भस्म हो जायगी तो कैसे होगा हम माता किसे कहेंगे ? आप हमारे कार कृपा करके माता जी की ऐसी कठिन परिक्षा न लो।
सीता-पुत्र ! तुम इस बात की चिंता न करो। तुम्हारी अनेक मातायें हैं । इस समय मोह करना वृथा है। अपने पिताको देखो मुझ को कितना मोह करते थे और करते हैं। ये मैं ही जानती हूं। किन्तु न्याय के लिये बो इस समय मोह को त्यागे हुवे हैं। सब-बोलो सती सीता महारानी की जै।
पर्दा गिरता है।
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पंचम भाग
(३५७ )
Raमय
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अक तृतीय-दृश्य चतुर्थ (एक इन्द्र और एक देव दोनों आते हैं )
देव-महाराज ! आज पृथ्वी पर बड़ा हा हा कार मचा हुवा है चारों और लोग रो रहे हैं। कल सीता की अग्नी परिक्षा होगी। ___ इन्द्र-मुझे इस बात की बड़ी चिंता है। सीता के सती पन से सारा देव मंडल प्रसन्न है। उसकी भाशनम अत्यन्त भक्ती है। ऐसी सतियों की रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
देव-तो फिर क्या उपाय रचा जाय ? इन्द्र---अभी ही एक बात और उत्पन्न हुई है। 'देव-वह क्या ?
इन्द्र-एक मुनी महाराज को ज्ञान की उत्पत्ती हुई है। मुझे वहां पर जाना अत्यन्त आवश्यक है। मैं जाकर उनकी पूजा करूंगा।
देव-तो इन्द्र महाराज : सीता के लिये क्या उपाय सोचा।
इन्द्र-तुम सब देव लोग उस स्थान पर जाना। जिस समय सीता भग्नी में प्रवेश करे उसी समय अग्नि को जल में बदल देना । और उसमें इस प्रकार कमल खिला देना कि सीता कमल पर आसानी से बैठ सके । और इधर उधर दो कमच खिलाना जिन पर उसके पुत्र लव और कुश बैठे।
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( ३५८ )
श्री जैन नाटकीय रामायण
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देव --आपने यह बहुत अच्छा उपाय बताया । मैं अभी जाता हूं । वहां पर पुष्प वर्षा कराऊंगा, और जय ध्वनी कराऊंगा।
— इन्द्र-तो जाओ देर न करो। (दोनों दोनों ओर को चले जाते हैं। ब्रह्मचारीजी आते हैं)
७०-सज्जनो ! आपने देख लिया कि सन पुरुषों के ऊपर जब कष्ट पाता है तब देव लोग किस प्रकार रक्षा करते हैं। देवों की पूजा करना, पीपल भादि को पूजना, देवियों के नाम से हिंसा करना ये सब वृथा है देव मनुष्यों से वैभव में बढ़कर हैं किन्तु श्रात्म बन्ज में नहीं, जो अपने धर्म पर है हैं, जो अपनी .
आत्मा को उन्नत बनाते हैं . जो न्याय और नीति को नहीं छोड़ते उनको देव लोग स्वयं पूजा करते हैं। ____ लोग कहने हैं, भगवान रक्षा करने के लिये आते हैं सो बात नहीं है । भावान तो कृत्य कृत्य होगये हैं उन्हें संसारिक झगड़ों से कोई प्रयोजन ही नहीं। मनुष्य भगवान की भक्ति करता है उसी भगवान की भक्ती देव लोग करते हैं जब अपने साथी के ऊपर देव लोग कष्ट देखते हैं तो वो पाकर • किसी न किसी भेष में भगवान के भक्तों की रक्षा करते हैं। यदि आप इस बात को असत्य समझे तो सुनिये । श्राप लोग रामचन्द्रजी को भगवान का अवतार मानते हैं । रामचन्द्रजी स्वयं सीता को कष्ट दे रहे हैं | तो बताइये उस समय सीता की रक्षा
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पंचम भाग
। ३५९)
करने के लिये और कौन से भगवान प्रायेंगे रामचन्द्रजी केवल एक मनुष्य थे। किंतु पहले जन्म में वो देव थे। उनके पुण्यका उदय होने से उन्हें इतनी ख्याति प्राप्त हुई । भगवान को भक्तिको . हम लोग सबसे प्रथम घारते हैं भगवान से इस बात की प्रार्थना नहीं करते कि वह हमें कुछ दें। हम उनके गुणों का गान करते हैं। उनकी मूर्ति को श्रादर्श मानकर पूजते हैं जिससे वह गुण हम धारण करें और जिस प्रकार पूर्व पुरुषों ने जो कि अन्त में भावान कहनाये, अपना मार्ग रखा था, जिस मार्ग पर चले थे उसी मर्ग पर चलना सीख, इस लिये हर मनुष्य का यह कर्तव्य है कि प्रथम वो देखले कि जिम पूज रहा हूं वो पूजने योग्य है या नहीं बाद में उसमें श्रद्धा लावें । और उसके गुणों को गावें, जो पूजनीय भगवान हैं उनके तीन लक्षण हैं। प्रथम बोतरागता । अर्थात न किसी वस्तु से प्रेम न द्वेष । जिनके साथ स्त्री शस्त्र चक्र श्रादि पढार्थ हैं वो वीतराग नहीं, हैं। दूसरा लक्षण सर्वज्ञता है । जो तीनों लोकों की बात पूर्णतया जानता हो वही सर्वज्ञ है। उसी का उपदेश सच्चा माना जायगा जो सब बातों को जानता हो। जिसका ज्ञान अधूरा है। उसके वाक्य झूठ हो सकते हैं। तीसरा लक्षण हितोपदेशी पना है । जो हमें संसारिक जीवों को सच्चे हित मोक्ष का उपदेश दें । जो युद्ध आदि का या मारने काटने का उपदेश दे
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( ३६० )
श्री जैननाटकीय रामायथा
वो हितोपदेशी नहीं है । इस प्रकार जिसमें ये तीनों बाते हों वही माननीय पूजनीय हो सकता है । दूसरा नहीं हो सकता । जिसमें एक बात की भी कमी है वो भावान नहीं कहला सकता । इस प्रकार आप लोगों को सोच समझ कर बुद्धि से विचार कर किसी को पूजना चाहिये ! भगाड़ी श्राप देखिये । सीता की अग्नी परिक्षा किस भांति होती है।
(चला जाता है।
अंक वृतिय-दृश्य पांचवां (एक चौमोर करीब दो गज लम्सा डेढ़ गज चौड़ा एक गज ऊंना हौज है। उसमें अग्नी जल रही है। सीता उस होज के पीछे की तरफ कुछ पृथ्वी से ऊंची खड़ी है । रामचन्द्र आदि सष अगाड़ी की तरफ खड़े हैं । अग्नी बड़ी तेजी से जल रही है।)
सीता-नाम तेरे से प्रभो, भवसिंधु से तर जात हैं। ____ याद करने से तुझे रक्षा को, सुर-गण आत हैं । मैं यदि दृषित हूँ तो, ये तन मेरा जल जायगा । वरना मेरे सत-धरम से, अग्नी जल बन जायगा ।।
( प्रवेश करना चाहती ई.) लव--नहीं, नहीं, माता जी आप अग्नी में न कूदो, माता जी ! कुछ तो हम पुत्रों पर दया करो । इतनी कठोर न बनों
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पंचम भाग।
(३६१)
सीता-पुत्र श्रादि ये सब झूठा झगड़ा है । न कोई मेरा है न मैं किसी की हूँ। तुम दोनों भाई अपने पिता के पास में रहना । तुम्हें मैं आशीर्वाद देती हूं चिरंजीव होवो ।
: ओं नमः सिद्धभ्य । ( अग्नी में प्रवेश करती है । अग्नी के स्थानमें जल होजाता है। उसमें कमल खिल जाते हैं । सीता कमल पर बैठ जाती है। उसके दोनों ओर दो कमत्त पर उनके दोनों पुत्र दौड़कर बैठ जाते हैं । वो उसके सर पर हाथ रखती है। आकाश से पुष्प वर्षा और जयकार होती है।)
रामचन्द्र--सीता ! तुम धन्य हो ' आओ, आओ, मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं। मेरे अपराधों को क्षमा करो ।
सीता--प्राणनाथ ! आप मुझे क्षमा करें अब मैं आपकी अर्धागिनी न कहला कर अर्यिका बनूंगी । ये स्त्री पर्याय अत्यन्त दुखदाई है मैं तप करके इस पर्याय को छेदूंगी। जिससे फिर स्त्री न बनना पड़े । आपके, आपके भाइयोंके, आपके मित्रों के
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( ३६२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
पुत्रोंके, माताओंके, और नारियोंके लिये तथा प्रजाके लिये मैं भगवान से प्रार्थना करती हूं कि सदा शान्ति रहे । (चारों ओर जय जय कार होती है।)
ड्राप गिरता है।
पंचम भाग समाप्त श्री जैन बाटकीय रामायण
सम्पूर्ण ।
A
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उद्देश्य
इस पुस्तक के लिखने का मेरा अन्य कोई उद्देश्य न होकर केवल इतना ही है कि इसके द्वारा जैन और अजैन समाज में जैन साहित्य की प्राचीनता और गूढ़ता का प्रचार हो । प्रत्येक स्थान की जैन समाज को उचित है कि धार्मिक अवसरों पर या प्रतिवर्ष इसको स्टेज पर खेलकर करोड़ों मनुष्यों के हृदय में सत्यता की धाक बैठावें।
किसी भी प्रकार की कुछ पूछताछ या सलाह के लिये मैं सदैव तय्यार हूं।
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यह पुस्तक
श्रीमान् जाति भूषण डाक्टर गुलाबचन्दजी पाटनी आनरेरी मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में
श्री पाटनी प्रिंटिंग प्रेस अजमेर में मांगीलाल जोशी ने मुद्रित की।
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[६] दिशाओंमें बड़े २ मार्ग हैं । हरएक मागमें छेटी २ गलियां हैं। यह राज्यधानी बादशाहले यशके समान दिन प्रतिदिन उज्वल व ऐश्वर्यसे वृद्धिरूप है, मानो रत्नादि सहित एक महा समुद्र है। परन्तु समुद्र पानी नीचेको जाता है, परन्तु यह नगर सुमेरुपर्वतके समान बहुत उन्नत है। बड़े २ महलोंमें सुवर्णके बल चढ़े हैं, वहां नानाप्रकारके धनी रहते हैं, जहां गान वादिन होरहे हैं। नगरके बाहर नंदनवन के समान बन है जिनमें पृथ्वीको छाये हुए फल लदे हुए छायादार वृक्ष हैं । उस नगर के भीतर पड़े उज्वक जिनमंदिर हैं, उनमें रत्नमई प्रतिमाएं विराजित हैं, उन मंदिरों में पूनाके महान उत्सब हुमा करते हैं । जन्म प्रमाणादिके उत्सव होते हैं।
जैसे सुमेरू पर्वत देवों द्वारा लाए हुए क्षीर समुद्र के गंधो. दकसे शोमता है वैसे ही यहां कमी शांतिकमर्म में अभिषेक करनेके लिये जैन लोग यमुना नदी तक पंक्तिबद्ध खड़े होकर देवोंके समान जल लाते हैं। मंदिरोंमें जय जय शब्द होरहे हैं। यतिगण व श्रावन स्तुति पढ़ रहे हैं, उनकी ध्वनि सुन पड़ती है। कितने ही श्रावक अपनेको कृतार्थ मानके मंदिरमि जारहे हैं। वहां जाकर सर्व भारम्भको छोड़कर धर्मव्यानमें लवलीन हो रहे हैं। इस तरह नाना गुणोंसे पूर्ण यह आगरा राज्यपत्तन है। इस नगरमें टक्का नामळे मरजानी पुत्र क्षत्रिय वंशज जिनको कृष्णामंगल चौधरी भी कहते हैं, साही जलालद्दीन पावरके निष्ट बैठनेवाले सर्वाधिकार प्राप्त मंत्री है। यह सर्वके हितैषी, प्रतापशाली, श्रीमान् हैं। इन्होंने बड़े शत्रुओं का मान दमन किया है। बहुत धन
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उत्पन्न किया है। उसने यमुना नदीतट पर विश्रांतिके लिये घाट व स्थान बना दिया है, लोग स्नान करके वहां विश्राम करते हैं। वह घाट स्वर्गकी शोभाको विस्तार रहा है । उनके साथ मुख्य कार्यकर्ता गढ़मल्ल साहु हैं, यह वैष्णवधर्म रत हैं। गंगादि तीर्थ जाते हैं, धनवान हैं व परोपकारी हैं, जिससे यशस्वी हो रहे हैं। इन दोनों बड़ी प्रीति है । खजानेकी शोभा इनसे है।
___ अकबरके समय जैन भट्टारक।
काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करमणमें लोहाचार्य आदि अनेक माचार्य हुए हैं । उनहीके माम्नायमें भट्टारक मलयकीर्ति देव हुए। उनके पीछे गुणभद्रसरि भट्टारक हुए । उनके पद पर सूर्यके समान तेजस्वी भानुकीर्ति भट्टारक हुए । यह भनेक शास्त्रोंके पारगामी थे। भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करनेको सूर्य ही थे। उनके पद पर श्री कुमारसेन भट्टारक हैं, जो बड़े शांत व पतापी चंद्रमाके समान पट्टरूपी समुद्रको बढ़ानेवाले है और ब्रह्मचर्य व्रतसे कामकी सेनाको जीतनेवाले हैं।
अलीगढ़के धनिक टोडरमल श्रावक । इनके समयमें काष्ठासंघको माननेवाले प्रतापशाली अग्रवाल वंशज गर्ग गोत्रधारी कोल (अलीगढ़) नगरनिवासी साधु (साहु) मदन हैं, उनके छोटे भाई साधु आसू हैं, उनके पुत्र जिनधर्ममें गाढ़ रुचिवान श्री रूपचंद हैं। उनके पुत्र अद्भुत गुणोंके धारक साधु पासा हैं, जिनका यश सर्व साधुगण गाते हैं । दानी, यशस्वी, सुखी हैं व जैन धर्ममें बड़े प्रेमालु हैं। उनके विख्यात पुत्र साधु
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टोडर हैं। यह महान उदार, महा भाग्यवान, कुलके दीपक हैं, चारित्रवान हैं, सभामें मान्य हैं, देवशास्त्र गुरु के परम भक्त हैं, परोपकारमें कुशल, दानमें अग्रगामी, वात्सल्यांगधारी हैं। इनका धन धर्मकार्यों में ही वगता है व इनका मन सदा महतके गुणोंमें मगन रहता है, धर्म व धर्मके फलमें अनुरागी हैं, कुधर्मसे विरागी हैं, परस्त्रीके त्यागी हैं, परदोष कहनेमें मुक हैं, गुणवान होनेपर भी अपनेको बालकवत् समझते हैं, अपनी बड़ाई कमी नहीं करते हैं. स्वममें भी किसीका बुरा नहीं विचारते हैं, अधिक क्या कहें, साधु टोडर सर्व कार्य करने में समर्थ हैं, धन व पुत्रादिसे शोभित हैं, सर्व जीवोंपर दयालु हैं, सर्व शास्त्रोंमें कुशल हैं, सर्व कार्योंमें निपुण हैं, श्रावकोंमें महान हैं, इनकी स्त्री सुन्दर मुखी कौमुभी है जो पतिव्रता है व पतिकी माणमें चलनेवाली है। इन दोनोंके तीन पुत्र हैं जो अपराधीपर कठोर हैं, निर्दोष के उपकारी हैं। बड़ेका नाम गुणवान ऋषभदास है, दुसरेका नाम मोहन है । यह शत्रुओंको भस्म करनेमें अग्निकणके समान हैं। तीसरा माताकी गोदमें खेलनेवाला रूपमांगद नामका है जो रत्नसम प्रकाशमान हैं।
साधु टोडरमलके समयकी उपयोगी बातें।
इन सब परिवारके साथमें साधु टोडर रहते हैं जो एक दिन मथुरानगरीमें सिद्ध क्षेत्र स्थित प्रतिमामोंके दर्शन के लिये यात्रार्थ भाए। मथुरानगरकी हदके पास एक मनोहर स्थान देखा जो सिद्ध क्षेत्रके समान महारिषियोंके वाससे पवित्र था। वही धर्मात्मा साहुने 'निःसही नामके स्थानको देखा, जहां अंतिम केवली श्री स्वामीका
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विहार हुमा है व जंबुस्वामीके पदसेवी विद्युच्चर मुनिका मागमन हुआ है । इनके साथ बहुतसे और मुनि थे। यहीं पर महामोहको जीतनेवाले, भखंड व्रतके पालनेवाले विद्युच्चरादि साधुओंने संन्यास लिया था, वे भिन्नर स्वर्गादिमें गर हैं। शास्त्रज्ञाता विद्वानोंने जंबु. स्वामीके व विद्युच्चाके स्थानों के पास माये साधुओंके स्थान स्थापित किये थे। कहीं पांच कहीं भाठ कहीं दश कहीं बीस स्तुर बने हुए थे। काल बहुत होजानेसे व द्रव्यके जीर्ण स्वभावसे ये सब स्तूप जीर्ण होगये थे। इनको जीर्ण देख कर साधु टोडरने जीर्णोद्धार करानेका उत्साह किया । इम बुद्धिमानने धर्मकार्य करने का मनमें दृढ़ विचार किया । साधु टोडरकी धर्म व धर्म फरमें भास्तिक्य बुद्धिथी। उसको श्रद्धान था कि भात्मा है, वह अनादिसे कर्मोसे बंधा है, कौके क्षयसे मोक्ष पता है तब सर्व क्लेश मिट जाते हैं व अनंत सुखकी प्राति होती है। जब तक इस अभूतपूर्व व कठिन मोक्षका लाम नहीं तबतक वुद्धिमानोंको अवश्य धर्मकार्य करते रहना चाहिये ।
मोक्ष तो महात्मामोंको तब ही सुखसे साध्य होता है जब काललब्धि मादि मोक्षकी सामग्री प्राप्त होती है। यह मोक्ष भी भव्योंको होगा जिनको सम्यककी प्राप्ति हो जायगी। परन्तु मभव्योंको मोक्ष कभी नहीं होता है, न हुमा है न होगा। वे नमव्य नित्य आत्मसुखको न पाकर दुःखी रहेंगे तथापि जो अमव्य क्रिया मात्रमें रागी होकर धर्मसाधन करेंगे वे पुण्यके फलसे महान् भोगोंको पाएंगे। वे ग्रेवेयिक तकके सुख पा सक्ते हैं परन्तु स्वर्गादिसे भाकर वे बिचारे तिर्यंच मनुष्यादि गतियोंमें तीन दुःख उठाते हुए भव भ्रमण किया करते हैं। उस सम्यग्दर्शन 'धर्मको सदा नमस्कार हो
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जैसे एक मासमें शुक्ल पक्षके पीछे कृष्ण पक्ष व कृष्ण पक्षके पीछे शुक्ल पक्ष आता है, इसी तरह ये दोनों काल क्रमसे वर्तते हैं । अब यहां भरतमें भवरार्पिणीशाल चल रहा है। यहां जब पहला काल आर्य खण्डमें था तब उसकी स्थिति चार कोडाकोड़ी सागरकी थी।
___ भोगभूमिकी शोभा। इस पहले सुखमा सुखमाकालमें देवकुरु व उत्तर कुरु उत्तम मोग्भूमि समान अवस्था थी तब जो युगलिये मनुष्य उत्पन्न होते थे उनकी मायु तीन पत्यकी होती थी व शरीरकी ऊंचाई ६००० छः हजार धनुषकी होती थी। शरीरका संहनन रजवृषभ नाराच होता था । अर्थात् वज्र के समान हद नशे, हड्डियों के बंधन, व हड्डयां होती थीं। सबका स्वरूप सुन्दर व शांत होता था। उनका शगैर उपाए सुवर्णके समान चमकता था। मुकुट, कुंडल, हार, भुजबन्द, कड़े, कर्धनी तथा ब्रह्मसूत्र, ये उनके नित्य पहराबके आभूषण थे। इस उत्तम भोगभूमि पुरुष पूर्व पुण्यके उदयसे रूप, लावण्य व सम्पदासे विभूषित होकर अपनी स्त्रियोंके साथ उसी तरह क्रीडा करते थे जिस तरह स्वर्गमें देव देवियों के साथ रमण करते हैं । भोगभूमिवासी बड़े बलवान, बड़े धैर्यवान, बड़े तेजस्वी, बड़े प्रभावशाली महान पुण्यवान होते हैं। उनके कंधे बड़े ऊंचे होते हैं । उनको भोजनकी इच्छा तीन दिन पीछे होती है। तब वे बेरफल के समान अमृतमई अन्न खाकर ही तृप्त होजाते
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है । सर्व ही मोगभूमिबासी रोग रहित, मलमूत्र नीहार रहित, बाधा रहिल व खेद रहित होते हैं। उनके शरीरमें पसीना नहीं होता है व उनको कोई आजीविका नहीं धरनी पड़ती है तथा वे पूर्ण भायुके भोगनेवाले होते हैं।
वहांकी स्त्रियों की ऊंचाई व मायु पुरुषोंछे समान होती है। जैसे कल्पवृक्षमे करावेलें मासक्त होती हैं इसी तरह वे अपने नियत पुरुषों में मनराग खनबाली होती हैं। जन्म पर्यंत दोनों प्रेमसे भोग संपदाको भोगते हैं सर्व भोगभूमिवासी स्वर्गके देवोंके समान स्वभावले सुन्दर होते हैं। उनकी वेणी स्वभावस मधुर होती है, उनकी चेष्टा स्वभावसे ही सुन्दर होती है। वहां पृथ्वीमायिक दश जातिक कर-वृक्ष होते हैं। उनसे वे भोगभू मवासी इच्छानुकूक आहार, घर, बादित्र, माला. आभूषण, वस्त्र आदि भोगकी सामग्री प्राप्त कर लेते हैं। कल्पवृक्षों के पत्ते सदा ही मंद मंद सुगंधित हवासे हिलते रहते है। साल प्रभाव व क्षेत्रकी सामर्थ्यसे ये करपवृक्ष प्रगट होते हैं। क्यों इनमे पुण्यवान मानवोंको मनके अनुसार रुचिकर भोग प्राप्त माते हैं। इसलिए इनको विद्वानों ने इल्पवृक्ष कहा है। इनकी जातियांश प्रकारका होता हैं । (१) मयांग (२) वाजित्रांग (३) भूषणांग (१, पुष्मालांग | ज्योतिभा (६) दीपांग (७) गृहांग ८) भोन ग १९) पात्रांग :१०; वस्त्रांग से इनके नाम हैं वैसी ही 46 प्रश्ट कर में ये पारणमन करते । भोगभूमिवासी इन ६. वृक्षां प्राप्त भागको अपने पुराने बदसे भामु
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पर्यत भोगते रहते हैं। आयुके अंतमें जम्हाई व छींक मानेसे प्राण त्यागते हैं। वे मंद कषामी होनेसे पापरहित होते हैं । इसलिये सर्व ही स्त्री पुरुष प्राण छोड़के देव गतिको जाते हैं। उनके शरीर मेघोंके समान उड़ कर विला जाते हैं। इसतरह भवसर्पिणीके पहलेकालकी विधि थोडीसी वर्णन की है। शेष सर्व अवस्था देवकुरु उत्तरकुरुके समान जाननी चाहिये।
नोट-यहां कुछ श्लोक उपयोगी जानके दिये जाते हैं, जिससे पाठकोंको भोगभूमिकी अवस्थाका ज्ञान हो
वज्रास्थिबंधनाः सौम्याः सुन्दराकारचारवः । निष्टसकनकच्छाया दीन्यन्ते ते नरोचमाः॥ १३ ॥ मुकुट कुंडलं हारो मेखला कटकांगदौ । केयूरं ब्रह्मसूत्रं च तेषां शश्वद्विभूषणम् ॥ १४ ॥ महासत्ता महाधैर्या महोरस्का महौजसः । महानुभावास्ते सर्वे महीयते महोदयाः ॥ १६॥ निर्व्यायामा निरातका निर्विहारा निरामयाः। निःस्वेदास्ते निराधाधं जीवति पुरुषायुष ॥ १८ ॥
इसतरह पहला काल क्रमसे ज्यों ज्यों बीतता जाता था, कल्पवृक्षोंकी शक्ति मनुष्योंकी मायु व ऊंचाई धीरे धीरे कम होती जाती थी। चार कोडाकोड़ी सागर बीतनेपर दूसरा सुखमा काल तीन कोडाकोड़ी सागरका प्रारम्भ हुमा । तब भोगभूमिके मानवोंकी मायु दो पल्पकी रह गई। शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुषकी
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जम्बूस्वामी चरित्र होगई। चंद्रमाकी चांदनीके समान शरीरका उज्वल वर्ण होगया। दो दिन के पीछे बहेडा (विभीतक) प्रमाण अमृतमई अल्पाहारसे कृप्ति पा लेते थे। उनकी सर्व अवस्था हरिवर्ष क्षेत्र में स्थित मध्यम मोगभूमि वासियोंके समान होगई। तब फिर क्रम जैसे जैसे काल बीतता गया शरीरकी ऊँचाई, आयु, वीर्य आदि कम होते चले गये । तीन कोड़ाकोड़ी सागर काल बीतनेपर, तीमरा काल दो कोडाकोड़ी सागरका प्रारम्भ होगया। तब हैमवत् क्षेत्र के समान जघन्य भोगभूमिकी अवस्था प्रगट होगई। तब भोगभूमिके मानवोंकी भायु एक पत्यकी रह गई। शरीरकी ऊँचाई २००० धनुष या एक कोसकी रह गई । शरीरमा रंग प्रियंगुके समान शाम रंगा होगया। एकदिन पीछे मामले समान अमृतमई मोजल करके वे तृप्ति पालेते थे।
इस तरह तीसरा काल बीतते हुए जब एक पत्यका माठवां भाग समय शेष रहा तब कर्मभूमिकी रचनाके प्रवर्तानेवाले प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकर क्रमसे हुए । चौदहवें कुलकर श्री ऋषभदेवके पिता श्री नाभिराज हुए । नाभिराजाके समयतक मेघवृष्टि होने लगी। काले नीले जलसे भरे बादल धूमने लगे, विजली कड़पने लगी, पवन चकने लगी, मेघोंकी गरज सुनकर मयूर नृत्य करने लगे। जलवृष्टि ऐसी हुई मानों कल्पवृक्षोंके क्षय होनेपर मेघोंने भश्रुपातकी धारा वर्षा दी। सूर्यकी किरणोंके व जकबिंदुओंके स्पर्शसे पृथ्वी अंकुरित होगई। द्रव्य, क्षेत्र, कालके निमित्तसे परिणमन होजाया करता है। धीरे२ खेतोंमें अन्न पकने लगा । वृक्षोंमें फल पक गए।
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अतिवृष्टि व अनावृष्टि न होनेसे मध्यम वृष्टि होनेसे सर्व प्रकारके धान्य व फल पक गए। ईख, धान्य, जौ, गेहूं, अलसी, धनिया, कोदों, तिल, सरसों, जीरा, मूंग, उड़द, चने, कुलथी, कपास मादि सर्व ही पदार्थ जिनसे प्रनाका जीवन होसके फल गए । धान्य व फलादिके फलनेपर भी प्रजाको यह न जान पड़ा कि किस तरह उनका उपयोग करना चाहिये ।
कर्मभूमिका आगमन । चौथा हाल भानेवाला है। कल्पवृक्षोंका क्षय होगया। प्रजाजन अपने प्राण रक्षणके लिये भाकुलित होगए । क्षुधाकी वेदनासे आकुल होकर सर्व मानव श्री नाभिराजाको महापुरुष जानकर उनके सामने प्रार्थना करने लगे कि हे नाथ! हम मन कैसे जीवें । कल्पवृक्ष नष्ट होगए । कितने ही वृक्ष फल व धान्यसे नम्रीभून खड़े हुए मानो हमको बुला रहे हैं । हम नहीं जानते हैं कि उनमें से फिनको ग्रहण करना चाहिये व किनको छोड़ना चाहिये । इनका हम कैसे उपयोग करें सो सब विधि हमठो बताइये ।
आप महापुरुष हैं, ज्ञाता हैं, हम अज्ञानी हैं. कर्तव्यमूद हैं। हमको कया कर सब भेद समझाइये । तब नाभिराजाने संतोषित करके कहा कि कल्पवृक्षोंके जानेपर ये वृक्ष उत्पन्न हुए हैं, उनमेसे अमुक२ विषवृक्ष हैं, हानिकारक हैं, उनके फळ न ग्रहण करना चाहिये । इक्षुका रस निकालकर पीना चाहिये । धान्यको पकाकर खाना चाहिये । दयालु नाभिराजाने बर्तनोंके बनानेकी व पकानेकी
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व भोजनकी सब विधि बताई। जो मौषधियां थीं उनको भी समझा दिया। प्रजाके पल्याणके लिये नामिराजा कल्पवृक्षके समान होगए । प्रजा सब विधि जानकर बड़ी सन्तोषित हुई और सुखसे प्राणयापन करने लगी। श्री नाभिराजा अकेले ही जन्मे थे, उनके समय जुगलियोंकी उत्पत्ति बन्द होगई थी। तब इन्द्रकी भाज्ञासे देवोंने नाभिगनाका विवाह मरुदेवीके साथ कर दिया। कहा है:
तस्योद्वाहकल्याणं मरुदेव्या सम तदा । यथाविधि सुराश्चना पाकशासनशासनात् ॥ ८१ ॥
देवोंने ही इन्द्रकी आज्ञासे देशोंकी सीमा बांधी; पत्तन, ग्राम, नगर नियत किये। अयोध्यापुरीकी बड़ी ही सुन्दर रचना करी । तबसे कर्मभूमिका कार्य प्रारम्भ होगया। कर्मभूमिके तीन काल हैं-चौथा, पांचमा, छट्ठा।
चौथे कालका वर्णन । चौथा काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरका है। चौथे कालकी मादिमें ही (नोट-हुंडावसर्पिणी कालके कारण जब तीन वर्ष ८॥ मास तीसरे झालके शेष रह गये थे तब ही श्री वृषभदेव मोक्ष पधारे थे) श्री वृषभदेव प्रथम तीर्थकरने मोक्षमागको प्रगट किया। इस कामें मानवोंकी उत्कृष्ट ऊंचाई ५२५ सवा पांचसौ धनुषकी थी। उत्कृष्ट मायु एक करोड पूर्वकी होती थी। ८१००००० चौरासी लाख वर्षका एक पूर्वोग व ८४ लाख पूर्वांगका एक पूर्व होता है। मध्यम व जघन्य भायु भनेक प्रका
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रकी होती थी जिसका वर्णन परमागमसे विदित होगा। नपन्य मायु एक मंतर्मुहर्नकी होती थी। चौथे कालमें गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष पांचों ल्याणकोंमें पुजाको प्राप्त ऐसे चौवीस तीर्थकर होते हैं। इनकेसिबाय कितने ही महात्मा अपनी काललब्धिके वलसे अतीन्द्रिय सुखको भोगते हुए निर्वाणको प्राप्त होते हैं। उन सर्वही निर्वाण प्राप्त सिद्धोंको हम नमन करते हैं। कितने ही महात्मा सम्यक्तपूर्वक महाव्रतोंको या देशवतोंको पालकर पहले स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यंत जाते हैं। कितने ही द्रव्यलिंगी मुनि चारित्रको पालकर सम्यक्तके विना मिथ्यादृष्टी होते हुए भी पुण्य बांधकर नौग्रैवेयिक पर्यन्त जाते है।
कितने ही सम्यक्त व व्रत दोनोंसे रहित होनेपर भी भद्रपरिणामी पात्र दान करके भोगभूमिमें जाकर जन्म लेते हैं। कितने ही पहले तीर्थंच व मनुष्य मायु बांधकर पीछे सम्यग्दर्शनको पाते हैं
और पात्रदानसे भोगभूमिमें जन्म लेते हैं। कितने ही भोगोंमें मासक्त रहते हैं, प्राणियोंपर दयासे वर्ताव नहीं करते हैं, धर्मसे विमुख रहते हैं, दुष्टभाव रखते हैं, वे नर्क में जाकर दुःख भोगते हैं। मानवोंको दुष्टकर्म- पापकर्मका त्याग अवश्य करना चाहिये । क्योंकि पापका बन्ध होनेसे उसका कटुक फल भोगना पडेगा। जो नर जन्म व धर्म साधनेयोग्य सर्व उचित सामग्री पाकर भी धर्मसेवन नहीं करते हैं उनका यह सर्व योग्य समागम वृथा चला जाता है। फिर ऐसा नरजन्मका उत्तम धर्म साधन योग्य समागम मिलना बहुत कठिन है।
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क्योंकि चौथे कालमें बंध व मोक्षका मार्ग चलता है, इसीलिये साधुओंने इसे कर्मभूमिका नाम दिया है । मसा कहा है:
इतीत्थं तुर्यकालौऽसौ पंथा: स्याद्वंधमोक्षयोः । तस्मानिगद्यते सद्भिः कर्मभूरितिनामतः ॥ ९७।।
इस चौथे झालमें बारह चक्रवर्ति, नौ नारायण, नौ प्रतिना. रायण नौ बलभद्र भी होते हैं। जिस कालमें विना किसी बाधाके चौवीस तीर्थंकरों को लेकर त्रेशठ शालाका पुरुष उरन्न होते हैं वही चौथा काल है। इस कालमें सर्व स्थानों पर महाव्रतधारी मुनि व देशवतघारी गृही श्रावक सदा दिखलाई पड़ते हैं । इस कालमें पूजा दानादि नित्याहममें तत्सर व सदाचारी गृहस्थ दर्शन प्रतिमासे लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक यथाशक्ति ग्यारह प्रतेमाओंको पालते हुए सदा मिलते हैं। जो ग्यारहवीं प्रतिमा धारी व्रती श्रावक होते हैं वे गृहको त्यागकर मुनिके समान परम वैराग्य भाव स्थिर रहते हैं। चौथे कालमें बालगोपाल सर्व प्रजाजन जैनधर्मको पालते हैं।
हुंडावसर्पिणी काल।। कभी भी अन्य किसी अजैन धर्मका प्रकाश नहीं होता है। किन्तु जब कभी हुंडावसर्पिणी काल आजाता है तब उस कालमें अनेक पाखंड मत चल पड़ते हैं व सत्य धर्मकी हानि होती है।
असंख्यात कोटिवार उत्सपिणी अवसर्पिणीके बीतने पर एक दफे हुंडावर्षिणी काल आता है। ऐसी बात अनन्तवार पहले हो चुकी है व मनन्तवार भागे होगी। जैसे किसी वर्ष में एक
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एक माप्त अधिकका मल मास होता है, वैसे ही इस हुंडावसर्पिणीकालको जानना चाहिये । इस हुडासर्पिणी कालमें बहुनसे मनर्थ होते हैं। कालचक्रही मर्यादाको कोई रोक नहीं सका। जैसे कालके स्वभावसे ही वर्षा ऋतुके पीछे शरद ऋतु भाती है, वैसे कालके परिभ्रमणमें यह हुंडाकाल माता है। द्रव्योंका होना ही स्वभाव है। इस हुंडादसर्पिणी कादमें परमागमके अनुसार तीर्थकर ऐसे महान आत्माओशो भी उपसर्ग होता है। चक्रवर्तीका मानभंग अपने ही कुटुम्बसे होता है। इत्यादि वचनसे भगोचर बहुत ननर्थ होते हैं । तव प्राणीवध रूप हिपाका प्रचार होता है। जिससे तीन पापकर्मका बंध होता है। ब्राह्मण वर्ग इसी कालमें प्रगट होते हैं। मनिष्ट वुद्धिधारी ब्राह्मण यज्ञों के लिये पशुओंकी की हुई हिमासे पुण्यका लाम व कल्याण होना बताते हैं।
इस प्रकरणये श्लोक हैंकिंतु इंडावसर्पिण्यां कालदोषादिह क्वचित् । प्रादुर्भवति पाखण्डास्तथापि च कृपक्षतिः ॥ १०४ ॥ गतायामवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यां तथैव च । असंख्यकोटिवारं स्यादेका हुंडासर्पिणी ॥ १०५॥ तद्यथा तत्र हुंडावसपिण्यां वा यथागमम् । तीर्थेशामुपसर्गो हि महानर्थों महात्मनाम् ॥ १०९ ॥ मानमङ्गश्च चक्रेशं जायते जातिपूर्वकः । इत्यादि बहवोऽनाः सन्ति वाचामगोचराः॥ ११० ॥
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हिंसा प्राणिवधश्चेयं दुष्कर्मार्जनकारणम् । यागाथ श्रेयसे हिंसा मन्यते दुर्पियो द्विजाः ।। १११ ॥
इस काल में प्रगटरूपसे ब्रह्म अद्वैतवादी मत प्रगट होता है जो एक अद्वैत ब्रह्मको ही मानते हैं और अनेक द्रव्योंको नहीं मानते हैं। कितने ही एकांतमतवादी तत्वको सर्वथा नित्य ही कहते हैं, वे माकाशको व यात्मा मादिको सर्वथा नित्य मानते हैं। कितने ही क्षणिक एकांतवादी तत्वको सर्वथा क्षणिक ही मानते हैं जैसे शब्द व मेघादि। कितने ही कापालिक मतवाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच तत्वोंको ही मानते हैं। वे जीवको नहीं मानते हैं। उनके मतमें बन्ध व मोक्षकी अवस्था नहीं होसक्ती है : कितने ही अज्ञानी मोक्षका ऐसा स्वरूप मानते हैं कि वहां ज्ञानादि धर्माकी -संतानका सर्वथा नाश होजाता है। इन मतोंके भीतर बहुतसे भेदरूप मत इस हुंडावसर्पिणी कालमें ही प्रचलित होते हैं, और किसी मवसर्पिणी कालमें नहीं होते हैं।
स्याद्वाद गर्मित श्री जिनेन्द्रकी वाणी द्वारा जैन सिद्धांत 'एकान्त मतोंका उसी तरह खंडन करता है जिसतरह वज्रयातसे पर्वत चूर्ण होजाते हैं। इन एकांत मतोका खंडन जागे कहीं करेंगे। वहां उनका कुछ स्वरूप मात्र कहा गया है।
इस हुंडावसर्पिणी काल में नाना भेष धारी साधु प्रगट होते हैं। कोई त्रिशूलादि शस्त्र लिये रहते हैं, कोई जटाओंको बढ़ाते हैं, कोई शरीरमें भस्मको लपेटते हैं, कोई एक दंडी, कोई दो दंडी, कोई
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जम्बूस्वामी चरित्र त्रिदंडी होते हैं । कोई हंस व कोई परमहंस होते हैं जो वनमें निवास करते हैं । इस कालमें इतने साधुभोंके भेष प्रचलित होजाते हैं कि उनका नाम मात्र भी कहा नहीं जासक्ता । इस कालमें राजालोग भी पापमें रत दिखलाई पड़ते हैं। रोग पीडित साधु पाए जाते हैं। ऐसा होनेपर भी परमार्थको पहचाननेवाले महात्मा
ओंका कर्तव्य है कि वे क्षण मात्र भी इस जैन धर्मको न भूलें। जैसे सुवर्ण भमिसे तपाए जानेपर भी भपने स्वभावको नहीं छोडता है किंतु और भी निर्मल होजाता है वैसे ही सज्जन पुरुषोंका कर्तव्य है कि क्षुद्र पुरुषोंमे पीडित होनेपर भी वे कभी धर्मको न त्यागें । कहा है कि इस लोक में भने जीव अपने २ बांधे हुए मौके वश ना । म.वोंको रखने वाले हैं, उनके कुत्सित मावों को देखते हुए भी योगियों का मन क्षोमित नहीं होता है। वे समभावसे सत्य वस्तु स्वरूपको विचार कर अपना हित करते हैं। इसतरह चौथे कालकी कुछ विधि कही है। अधिक वर्णन परमागमसे जानना योग्य है।
जब चौथे कालमें तीन वर्ष मादेमाठ मास शेष रहे थे तब श्री वीर भगवानने निर्वाण प्राप्त कर लिया। उसके पीछे बासठवर्ष तीन केवलज्ञानी मोक्ष पधारे-श्री गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बुस्वामी।
पञ्चमकाल वर्णन। तीन केवली के पीछे सौ वर्षमें चौदह पूर्वोके पारगामी पांच श्रुतकेवली क्रमसे हुए-विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाह । उपके पीछे एकसौ मस्सी वर्ष में क्रमसे दश पूर्वके शासा
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ग्यारह मुनिराज हुए-विशाल, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसा, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिमान् , अंगदेव, धर्मसेन । यहांतक । धात्मा भादि तत्वों का पूर्ण उपदेश होता रहा। उनके पीछे क्रमसे दोसौ बीस वर्षाने ग्यारह अंगके पाठी पांच मुनीश्वर हुए-नक्षत्र, जयमाल, पांडु, ध्रुवसेन व इंसाचार्य। इस समय तत्वोपदेशकी कुछ हानि होगई । जैसे हाथकी हथेलीमें रखा हुआ पानी बूंद बूंद करके गिर जाता है, फिर एकसौ पठारह वर्षों में क्रमले प्रथम अंगके पाठी पांच मुनि हुए-सुमद्र यशोभद्र, सद्बाहु, महायश, लोहाचार्य । इनके समय में तत्वोदेश एक भाग ही रह गया। आगे आगे चलकर और भी तत्वोपदेश कम होगया । क्योंकि पचम. झालके दोषले मानवोंकी बुद्धि हीन हीन होती चली गई ।
इस दुषमा पंचमकालमें मानवोंकी आयु साधारणरूपसे एकसौ वीस पर्यंतकी होजाती है। इस कालमें अप्रमत्त वित्त सातवां गुणस्थान तक ही होती है। कोई साधु उपशम या क्षणी नहीं चढ़ सक्ता है न इस काल में दोनों मनःपर्ययज्ञान होते हैं। देशावधि तो होती है, परन्तु परमावघि च सर्वावधि नहीं होती है। ताकी हानि होनेसे सब ऋद्धियां सिद्ध नहीं होती हैं। पंचनल्याणकोंक न होनेसे देवोंचा मागमन नहीं होता है। कहीं किसी समय कोई २ क्षद्र देव किसी कारणले पाते हैं, ऐसा जिनागममें कहा है। उत्कृष्ट भायु १२० वर्षकी होती है। शरीरकी ऊंचाई एक धनुषकी या चार हाथकी होती है। जैसे २ काल वीतता है, मानवोंकी गायु
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घटती जाती है, धर्मका भी कही२ ममाव होजाता है। इस कालमें उपशम तथा क्षयोपशम दो ही सम्यक्त बाधा रहित होसकते हैं। देवलियों के न होने से क्षायिक सम्यक्त नहीं होसकता है। एक अन्य ग्रंथकी गाथामें कहा है कि पहले कालमें उपशम सम्यक्त ही होती है और सर्व कालों में पहला उपशम व दमग क्षयोपशम सन्यक्त दो होते हैं। क्षायिक सम्यक्त त्वही होता है जो श्री जिनेन्द्र केवली होते हैं। यहां कुछ श्लोक उपयोगी है:
ततः श्रेण्योरभावः स्यात्नमन पर्ययबोधयोः । देशावधि विना परमसाधबोधयोः ।। १४५ ।। ऋद्रीणां चापि स मामभावस्तपसः क्षः। नापि देवागमम्तत्र कल्याणामनाभावतः ।। १४३ ॥ कदाचित कुत्रचित् केचिव क्षुद्रदेवाः कथंचन ।
आगच्छंत पुनस्तत्र सदभिः प्रोक्तं जिनागमे ।। १४४ ॥ गाथा-पढप पढमे णियदं पढमं विदियं च सबकालेसु ।
खाइयसम्मत्तो पुण जत्थ जिणो कैवली तम्हि ॥१॥
इस दुखमा पंचमकाकमें महावत और अणुव्रत दोनोंका पालन होसकता है, पान्तु अप्रमत्तविरत सातवें गुणस्थानके ऊपर गमन नहीं होसकता है। जो कोई भद्र परिणामी हैं व दया धर्म व दान में तत्पर रहते हैं, शील तथा उपवास पालते हैं, वे निरंतर स्वर्ग भी जाते हैं । इत्यादि कार्य जिस कालमें होते हैं वह दुखमा काल है ऐसा माप्तका उपदेश है।
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जम्बूस्वामी चरित्र
छठे कालका आगमन । इस पंचमकालले अन्तमें जो व्यवस्था होती है, वह भी कुछ वर्णन की जाती है। इस पंचमकालके वीतनेपर दुखमा दुखमा नामका छठा काल आता है, उसका भी कुछ कथन किया जाता है। पंचमकालके अन्त में किसी देशका कलंकी राजा हालाहरू विष के समान धर्मका घातक प्रगट होता है। उसका भी सर्व व्यवहार प्रजाको पीडाकारी होता है । उस समय तक सर्व सुवगादि धातुएं विला जाती हैं। चमड़ेका सिक्का चल जाता है उसीसे ही माल खरीदा व वेचा जाता है। वह दुष्ट राजा प्राणियों के वांधने व माग्नेके ही वचन बोलता है। जैनधर्म सबतक बराबर चलता रहता है। क्योंकि उस समय भी एक भावलिंगी मुनि, एक आर्यिका, एक जैन श्रावक, एक श्राविका मिलते हैं। कहा है
अथ तत्रापि दृषः साक्षादव्युच्छिन्नमवाहतः । यस्मादेको मुनिजना विद्यते भावलिंगवान् ॥१५७॥ एका चाप्यर्जिका तत्र यथोक्तव्रतधारिका । सजाना श्रावकश्चैको जैनधर्मपरायणः ॥१५८॥
भावार्थ-वह कलंकी पापी राजा किसी दिन विचारता है व कहता है-क्या कोई मेरी माज्ञासे विरुद्ध है ? मुझे कर नहीं देता है ? ऐसा सुनका कितन अधम पुरुष कहते हैं कि-महाराज ! एक जनका मुनि है जो भापको कर नहीं देता है। कहा है
राशि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः । लोकास्तदनुवर्तते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ १६१॥
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जम्बूस्वामी चरित्र
भावार्थ-यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा धर्मात्मा होती है, यदि राजा पापी होता है तो प्रजा पापी होती है, यदि राजा समान होता है तो प्रना समान होती है। लोग राजाका मनुकरण करते हैं। जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है।
ऐसा सुनकर वह राजा निर्दयी वचन कहता है कि जिसतरह जैन मुनिसे दण्ड लिया जाय वैसा उपाय करना योग्य है। राजाकी भाज्ञा पाकर राजाके कुछ नौकर उन जैन मुनिके पीछे जाते हैं। जब वह भिक्षा के लिये भूमि निरख कर चलते हैं। जब वे पवित्रात्मा किसी श्रावके घरमें निकट पहुंचते हैं और वह श्रावक नमोऽस्तु कहकर मुनिका पड़गाहन करके विधिक साथ भीतर लेजाकर व भक्ति पूजा करके दान देनेको खड़ा होता है और मुनि शुद्ध भावसे अपने करमें जैसे भोजनका ग्रास लेते हैं वैसे राजाके नौकर वज्रमई कठोर वचन कहते हैं कि तुम इस तरह भोजन नहीं कर सक्ते। राजाकी भाज्ञा है कि पहला प्रास राजाको करके रूपमें प्रतिदिन देना होगा। इतना सुनते ही भागमके ज्ञाता मुनि पंचमकालकी अंतिम अवस्थाका विचार करते हैं और निश्चय करते हैं कि यह पंचमकालका अंत समय है। इसीलिये ऐसा अनर्थ होरहा है। शास्त्र के ज्ञाता मुनि उस माहारके प्रासको छोड़ देते हैं और मुनि धर्मका चलना मशक्य जानकर सावधानीसे जीवन पर्यंत चार प्रकारके माहारका त्याग करके समाधिमरण धारणा करते हैं। तब मार्यिका भी सर्व पाहार त्याग कर सावधान हो
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जस्यूस्वामी चरित्र
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समाधिमाण घाण करती है। अपनी धर्मपत्नी सहित श्रावक भी मुनिके समान सपार शरीर भोगोंसे विरक्त हो समाधिमरण स्वीकार कर लेते हैं। चारों ही सम्यक्ती महात्मा शरीरको त्यागकर स्वर्गमें देव उत्पन्न होते हैं । पश्चात् उस कलंकी राजाके ऊपर भी विजली गिरती है। उसकी शय्या व गृह भादि सर्व नाश होजाता है। उसी क्षणले ही दही, दूध, घी भादि विला जाता है। जैसे पापड़े उदयसे सम्पदा विला जाती है।
छठे कालका वर्णन । उस समयले दुखमा दुखमा नामका छठा झाल प्रारम्भ होजाता है। उस समय भोग सामग्री नाश होजाती है। तब उत्कृष्ट आयु सोलह वर्षकी रह जाती है । मानवों के शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई एक हाथ ही होजाती है। मध्यम व जघन्य भायु व ऊँचाई आगमसे जानना योग्य है । पशुओंकी भी भायु व शरीरकी ऊँचाई बागमसे जानना चाहिये । इस कालमें मनुष्य तथा पशु सब दुखोंसे पीड़ित होते हैं । फल आदिका आहार करते हैं। भूमि विलोंमें रहते हैं। मनुष्य वृक्षकी छालले कपड़े पहनते हैं। परस्पर विरोध रखते हैं। पशु भी महान दुष्ट होते हैं । रात दिन लड़ते रहते हैं । पापी व निर्दयी प्राणी धर्मबुद्धिके अमावसे व दुष्ट कालके प्रभावसे एक दुसरेको मार करने फल खाते हैं। वर्षभरमें वर्षा कभी कहीं होती है। प्राणियोंमें तृष्णा इतनी बढ़ जाती है कि कभी वह शांत नहीं होती है। पापकर्मके उदयसे इसतरह छठे काल के प्राणी बड़े कष्टप्से इक्कीशहजार वर्ष पूर्ण करते हैं।
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जम्बूस्वामी चरित्र
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४९ दिन प्रलय होना। छठे बालके अंतमें कालवे प्रभावसे इस मार्यखण्ड प्रलय होती है । सात सात दिनतक क्रमले मग्नि, रज भादिकी वर्षा होती है। इसतरह लगातार उनचास दिन तक महान कष्टदायक भयंकर उपद्व होता है। उस क्षेत्रके रक्षक देव वहत्तर जोडोंको स्त्री पुरुष सहित लेजाकर गुप्ता आदिमें रख देते हैं।
इस भार्यलण्ड में शेष सब छत्रिम रचना भस्म होजाती है। अकृत्रिम रचना बनी रहती है। उसे कोई नाश नहीं कर सकता है। चिना पृथ्वी निस्य बनी रहती है। इस तरह अनंतबार कालने परिवर्तनमें छठे साल के अंत प्रलय होचुकी है। कहा है
द्वासप्ततिजीवानां दंपतीमिथुन तदा । तत्राधिकारिभिर्देवैनीयते गहरादिषु ॥ १८७ ॥ शेषमनार्यखण्डेऽस्मिन् कृत्रिय भस्मसाद्भवेत् । अकृत्रिमं तु केनापि कर्तुं शक्य न वान्यथा ॥१८८॥
इसप्रकार भारतक्षेत्र में अवमर्पिणीके छःकाल, फिर विरोध कपसे उत्सर्पिणीके छःकाल वर्तते रहते हैं ।
मगधदेश वर्णन। ऐसे भरतक्षेत्रमें मगधदेश पृथ्वीमें प्रसिद्ध बसता है। जिस देशची प्रजा भोग सम्पदासे नित्य प्रसन्न है व जहां सदा उत्सव होते रहते हैं। जिस देशमें मेघोंकी वर्षा सदा हुआ करती है। वहां कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियां नहीं होती हैं, न वहां
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जबूस्वामी चरित्र
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सनीतिका प्रचार है। राजाओंके द्वारा प्रजाको करकी बाधा नहीं पहुंचाई जाती है। यहां सदा सुकाल रहला है। वहां के खेत धान्यसे व वृक्षफलोंसे सदा फलते रहते हैं । फलोले लदे हुए वृक्षोंसे मंद मंद सुगंध माती है। पथिकगण इसके रसको इच्छानुसार. पीते हैं । जहाँके कूप व सरोवर जलले मरे हुए हैं व मनुष्यों के मातापको हरते हैं। वापिकाएं निर्मक जलसे भरी हुई मानवों की तृषाको बुझाती हैं। जिनके तटोपर वृक्षोंकी छाया होरही है। वृक्षोंने सूर्यके मातापको रोक रखा है।
जिस देश में बड़ी नदियां स्वच्छ जलसे पूर्ण कुटिलतासे दूरतक बहती थीं, जिससे सर्व मानव व पशुपक्षी लाम उठाते थे।
झीलोंके तटोपर हंस कमलकी दंडी के साथ कल्लोल कर रहे थे। वनोंमें बड़े २ मल्ल हाथी विचर रहे थे। जहां बड़े २ दृढ़ - वृषभ जिनके सींगोंड कर्दम लगा है, थल कमलोंको देखकर पृथ्वीको खोद रहे थे। इस देश स्वर्गपुरीके समान नगर थे। कुरुक्षेत्रकी सड़कोंके समान चौड़ी सड़ थीं। स्वर्गके विमानों के समान सन्दर पर थे व देवोंके समान प्रजा सुखसे वास करती थी। उस देशमें कहीं भंग उपद्रव न था । बदि भंग था तो जलकी तरंगोंमें था। प्रजामें मद न था, मद था तो हाथियोंमें था। दंड देना नहीं पड़ता था, दंड कमलों में था। सरोवरोंमें ही जलका समूह था, कोई नगर जलमम नहीं होता था। गाएं ठीक समयपर गाभिन शेती । श्रीं। जैसे मेघोंसे जल मिलता है वैसे गायोंसे मनुष्योंको दुष
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जम्बूस्वामी चरित्र मिलता था । उसको पीकर लोग हृष्टपुष्ट रहते थे । मगध देशकी स्त्रियां स्वभावसे ही सुन्दर थीं । पुरुष स्वभावसे ही चतुर थे। जहां भर घर लें कन्याएं स्वभावही से मिष्टवादिनी थीं ।
मगध देशके लोग की अरहंतोंकी पूजा व पात्रदान में बड़ी प्रीतिरस्तते थे । ब्रह्मचर्य पालने में बड़े शक्तिशाली थे । अष्टमी, चौदशको प्रोषघोपवास करने में रुचिवान थे। कहा है---
यत्र सत्पात्रदानेषु प्रीतिः पूजासु चाईताम् । शक्तिरात्यतिकी शीले प्रोषधे च रतिर्नृणाम् ॥ २०८ ॥ नोट - इससे कविने यह दिखलाया है कि मगधदेश में जैन धर्मका दीर्घकालले प्रचार था । गृहस्थ लोग श्रानोंके नित्यकर्म सावधान थे तथा लाश देश बढ़ा सुखी था । प्रजा नानन्दर्भे समय विताती थी ।
राजगृही नगर वर्णन |
इस मगध देश के एक भागमें राजगृही नगरी शोभायमान थी। जहां के राजसुनट इन्द्र के समान सदा शोभते थे । इस नगर के बड़े बड़े प्रासादोंके ऊपर खपाए हुए सुवर्णके कलश शोभते थे । जिससे नगर निवासियों को आकाश में सैकड़ों चंद्रगाओंके चमकनेकी भ्रांति होती थी । वहां शिखरवंद श्री जिनमंदिर थे, जिनपर दण्ड सहित पताकाएं हिल रही थीं, जिनसे ऐसा मालूम होता था कि माकाशमें गंगा नदीके सैकड़ों प्रवाह बह रहे हैं ।
महकोंकी खिडकियोंमें या झरोखोंमें सुन्दर स्त्रियां अपना
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जम्बूस्वामी चरित्र भुख बाहर निकाले हुए बैठी थीं। ऐसा विदित होता था कि झरोखों कमल खिल रहे हैं। वहांकी नारियोंकी सुंदरता देखते देखते देवियां चक्ति होती थीं। इसीलिये मालो उनके नेत्रोंको कभी पलक नहीं लगती थी।
(नोट-देवदेवियों कभी पलक नहीं लगती। नेत्र सदा खुले रहते हैं। निद्रा नहीं भाती) उस नगरमें नित्य नृत्य व गीत बादित्रकी ध्वनि होती थी। सुगंधित धूरका धूआं फैला रहता था। जिससे मयूरोंको मेघोंकी गर्जनाका भ्रम होता था और बे मोर ध्वनि सहारने लगते थे।
अणिक महाराजला वर्णन । उस राजगृहनगरमें राजाओं के राजा महाराज श्रेणिक राज्य करते थे जो बड़े बुद्धिमान् थे। भनेक भूपाल उनके चरणोंडो मस्त नमाते थे। राजा श्रेणिकके शरीर में सही लक्षण शुष थे, जिनका वर्णन करना कठिन है, तो भी सामुद्रिकशास्त्र ज्ञानके लिये कुछ लक्षण कहे जाते हैं। राजा शिरपर नीले ब घूघरवाले बाल ऐसे शोभते थे मानों कामदेव रूपी काले सर्पके बच्चे ही प्रगट हुए हैं। भमरके समान नेत्र थे, मुल कमलके समान था। जब राजा युद्ध करते थे उनके मुखके भीतरसे किरणे चारों तरफ फैल जाती थीं। वाणी बड़ी ही मधुर थी, फूलके रससे भी मीठी थी। राजाके दोनों नेत्र कर्ण तक लम्बे शोभते थे। उन नेत्रोंने सत्य शास्त्रोंका ही माश्रय लिया है। वे सिखारहे हैं कि बुद्धिमानोंको सच श्रुतको ही सीखना
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जम्बूस्वामी चरित्र
चाहिये । राजाके कंठमें हार ऐसा शोमता था मानों मोसकी बूंद ही हों या मानों तारागणोंको लेकर चंद्रमा ही राजाकी सेवाके लिये आगया है। राजाके चौड़े वक्षस्थलमें चंदन चर्चा हुआ था। मानों सुमेरु पर्वतके तटपर चंद्रमाकी चांदनी छाई हुई है।
___ राजा सिके ऊपर मुकुट मेरुके समान शोमता था, मानों मेरुके दोनों तरफ नील व निषध पर्वत ही हो । यहां नील पर्वतके समान केशोंका भाग व निषिधले समान मुखका अग्रभाग तपाए सुवर्णके समान था। राजाके शरीरले मध्यमें नामि नदीके आवर्तके समान गंभीर थी। मानो कामदेवने स्त्रीकी दृष्टि रोकनेको एक जलकी खाई ही खोद दी हो । राजाही कमरका मंडल सुवर्णकी अपनीले व अमरबंधते वेष्ठित था, मानो जम्बूवृक्षके चारों तरफ सुवर्णकी वेदी खड़ी की गई है। दोनो जंघाएं स्थिर, गोल व संगठित थीं, मानों स्त्रियों मनरूपी हाथीने बांधने के लिये स्थमके समान थीं। दोनो चरण काल थे व बड़े कोमल थे, वे जलकमकके समान शोभित थे, जिनमें लक्ष्मीने निवास किया था। राजा श्रेणिकके पास शास्त्ररूपी संपदा भी रूपसंपदाके समान ऐसी शोभायमान थी जिससे देखनेवालोको शरदकाल चंद्रमाकी मूर्तिके देखने के समान आनंद होता था । जैसा राजाका रूप सुखप्रद था वैसे ही उसका शास्त्रज्ञान भानन्ददाता था। गजाकी बुद्धि सर्व शास्त्रोंमें दीपक समान प्रवीणतासे प्रकाश करती थी। वह शास्त्रों के पद व वाक्योंके समझने में बहुत चतुर थी। राजा श्रेणिक मधुरभाषी था, सुन्दर तनधारी था,
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सस्बूस्वामी चरित्र विनयवान था. जितेन्द्रिय था, सन्तोषी था तथा राज्यलक्ष्मीको वश रखनेवाला था। श्रेणिक राजाको विद्याका प्रेम था, कीर्तिका भी अनुराग था वादिन बजानेका राग था। उसके पास लक्ष्मीका विस्तार था, विद्वान लोग उसकी माज्ञाको माथे चढ़ाते थे।
राजा श्रेणिक ऐसा प्रतापी था कि उसके प्रतापकी भमिकी ज्वालासे अभिमानी शत्रु क्षणमात्रमें इसतरह ठंडे होजाते थे जैसे मागके लगने से तिनके भस्म होजाते हैं। जैसे कमलकी सुगंधसे खिंचे हुए भौरे कमलकी सेवा करते हैं वैसे बड़े बड़े राजा महाराजा श्रेणिकके चरणोंको सदा प्रणाम करते थे।
इसी राजाने पहले मिथ्यात्व अवस्थामै अज्ञानसे एक जैन मुनिराजको उपसर्ग किया था, तब तीन संक्लेशमई भावोंसे सातवें नर्ककी मायु बांधली थी। वही बुद्धिमान् श्रेणिक पीछे कालकब्धिके प्रसादसे विशुद्ध भावधारी होकर क्षायिक सम्यग्दर्शनका धारी होगया। वह शीघ्र ही कर्मोझो नाश करनेवाला भावी उत्सर्पिणीकालमें प्रथम तीर्थकर होगा । श्रेणिक राजाका सब वृत्तान्त अन्य कथाअन्थोंसे जानना चाहिये, यहां विस्तारमयसे संक्षेपमात्र ही कहा है।
धर्मात्मा रानी चेलना। राजा श्रेणिककी धर्मपत्नी चेकना रानी पतिव्रता, व्रत, शील व धर्मसे पूर्ण सम्यग्दर्शनको धारनेवाली थी। यद्यपि भन्म अनेक स्त्रियां राजाके अंत:पुरमें थीं, परन्तु श्रेणिश चेलनाके सहवासमें ही भपनेको भोगिनी सहित मानता था। वह चेकना रूप,
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यौवन, सुंदरता, व गुणोंकी नदी थी। जैसे नदी समुद्रकी तरफ जाती है वैसे यह अपने भारकी माज्ञानुकूल चलनेवाली थी। जैसे कल्पवृक्षमें लगी हुई कल्पबेल शोमती है वैसे यह चेकना रति कार्यमें अपने भारसे संलग्न हो शोमती थी।
श्री महावीर विपुलाचल पर । एक दिन समाके भीतर नम्रीभूत राजाओंसे सेवित महाराजा श्रेणिक सिंहासनपर विराजमान थे। जैसे सुमेरु पर्वतपर झरने पड़ते हुए शोमते हैं वैसे राजापर दुरते हुए चमर चमक रहे थे । चन्द्रमण्डलके समान सिम्पर सफेद छत्र शोभता था। उस समय वनके मालीने बाद महाराज के दर्शन किये । प्रणाम करके विनय महित निवेदन करने लगा कि हे देव ! मैंने अपनी आंखोंले प्रत्यक्ष कुछ
आश्चर्यमग घटनाएं देखी हैं, उन सर्वका थोडासा भी वर्णन मैं नहीं कर सक्ता हूं। तौभी हे महाराज ! कुछ अवश्य कहने योग्य कहता हूं____ इसी विपुलाचल पर्वतके मस्तकपर तीन जगतो गुरु महान् श्री बर्द्धमान तीर्थंकरका समवसरण विराजमान है । मैं उस समवसरणकी शोभा क्या पहूं! जहां स्वर्गके देवोंके समूह नौकरोंकी तरह भक्ति व सेवा कर रहे हैं। स्वर्गवासी देवोंके विमानोंमें क्षोमित समुद्रकी ध्वनिके समान घंटोंके शब्द होने लगे। ज्योतिषी देवों के विमानोंमें महान सिंहनाद कासा शब्द होने लगा, जिससे ऐरावल हाथीकी मद दूर होजावे । व्यतरोंक घरोंमें मेघोंकी गर्जनाको दूर
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जम्बूस्वामी चरित्र
करता हुमा दुंदुभि बाजोंका शब्द होने लगा तथा घरणेंद्रोंके या भदनवासियों के भवनों में शंखकी महान ध्वनि हुई।
चार प्रकारके देवोंने जन यह ध्वनि सुनी, इन्द्रोंके शासन शांपने लगे। भगवानको केवलज्ञान हुमा है, इस विजयको वे मासन सहन न कर सके । करावृक्ष हिलने लगे, उनसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी, सर्व दिशाएं निर्मल झलकने लगी, आकाश मेघाहित स्वच्छ भासने लगा, पृथ्वी धूलरहित होगई, शीत व सुहावनी हवा चलने लगी। जब केवलज्ञान रूपी चंद्रमा पूर्ण प्रगट हुमा तब जगतरूपी समुद्र आनन्दमें फूल गया । इसी समय सौधर्म इन्द्र करित देवकृत ऐरावत हाथीपर चढ़कर विपुलाचल पर्वतपर माया।
अभियोगजातिके देवने ऐसा मनोहर हाथीज्ञा रूप धारण किया कि उसके बत्तीस मुख थे व एक एक मुख आठ आठ दांत थे, एकर दांतपर एक एक कमलिनीके माशय बत्तीस बत्तीस कमलके फूल थे, एक एक कमलके बत्तीस बत्तीस पत्ते थे, उन पत्तों से हरएक पत्तेपर छत्तीस बत्तीस देवांगना नृत्य कररही थीं। उनका नृत्य अदभुत था। ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुमा इन्द्र था। उसके मागे किमरी देवियां मनोहर कंठसे श्री जिनेन्द्रका जयगान कर रही थीं। बत्तीस व्यंतरेन्द्र चमर ढार रहे थे, सरपर मनोहर छत्र था, अप्सरा देवियें मनोहर शोभाके लिये साथ में चल रही थीं, माकाशमें देवी-देवोंके द्वारा नील, रक्त आदि रङ्ग छाईहे थे। ऐसा मालूम होता था कि भाकाशमें संध्याकालका समय छाया हुआ है । देवोंकी सेना पूजाकी सामग्री
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जम्बूस्वामी चरित्र लिये हुए भाकाशमें चलती हुई ऐसी झलती थी कि देवोंकी सेनारूपी समुद्रमें मनेक तरंगें उठ रही हैं। इन्द्रादि देवोंने दृरले समवसरगको देखा। इसे देव शिल्पियोंने बड़ी भक्तिसे निर्माण किया था।
इस समवसरणकी चौड़ाई एक योजन (४ कोस) थी। यह इन्द्रनीलमणिकी भूमिले शोमित थी। यह समवसरण इन्द्रनीलमणिसे रचा हुआ गोल था। मानो तीन जगतकी स्त्रियोंके मुख देखनेका दर्पण ही है। जिस समवसरणको इन्द्रकी माज्ञासे देवोंने रचा हो उसी शोमाका वर्णन कौन करसता है ? प्रथम धूलीशाल कोट है जो पांच वर्ण के रत्नरनोंसे बना है। उसके चारों तरफ सुवर्णके ऊंचे संभ हैं, जिसके तोरणों में रत्नमालाएं लटक रही हैं। फिर कुछ दुर जायर गलियों के मध्यमें सुवर्ण रचित ऊंचे मानस्तंम हैं। जिनको दुरसे देखनेपर मानियों का मान गल जाता है। ( यहां एक अन्य ग्रंथका श्लोक हैं जिसका भाव है कि)मानस्थंभोंने धागे चलकर सरोवर है। निर्मल जलकी भरी वापिसा है। फिर पुष्पोंकी वाटिकाएं हैं, फिर दुसरा कोट है, नाट्यशाला है, उपवन है, वेदियोंपर ध्वजाएं शोमायभान हैं, पहावृक्षोंका वन है, स्तुप है, महलोंकी पंक्तिये हैं, फिर स्फटिक मणिका फोट है, उससे आगे श्री मंडप है वहां बारह सभाए हैं, जहां देव, मनुष्य, पशु, मुनि भादि विराजते हैं, मध्यमें पीठ है उसके जार स्वयंभू महंत तीर्थकर बिराजते हैं। यह पीठ या चबूतरा तीन कटनीदार है। मणियोंकी शोभासे शोभित है। भगवान के ऊपर चलते हुए चमरोंकी प्रतिविम्ब पड़ती है
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जम्बूस्वामी चरित्र तब ऐसा मालम होता है कि इन कटनियोंपर हंस ही बैठे हैं।
भाठ मंगलद्रव्यको सम्पदा शोभायमान है। ये मंगलद्रव्य जिनेंद्र के चरणकमलोंके निकट रहनेसे पवित्र हैं व गंगाके फेन समान निर्मक स्फटिक मणिसे निर्मापित हैं। तीन कटनीदार पीठ पर गंधकुटी है, जिस पर तीन लोक नाथ निराजमान हैं। यह पीठ ऐसा शोमता है मानों देवलोकके ऊपर सर्वार्थसिद्धिके समान है। इस पीठके नीचे सुगंधित धूपके घट मालाओंसे शोभित विराजित हैं। उस अंधकुटीके मध्य में रत्तमई सिंहासन मेरुशिखरको तिरस्कार करता हुमा शोमता है। उस सिंहासनपर अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान चार अंगुल ऊंचे अधर भएनी महिमासे विराजमान हैं। कहा है
विष्टरं तदलंचके भगवानंततीर्थकृत । चतुर्मिरगुलैः स्वेन महिन्ना पृष्ठतमलम् ॥ २८९ ॥
आठ प्रातिहार्य। इन्द्रादि देव बड़ी मजिसे पूजा कर रहे हैं। आकाशसे मेषधाराले समान फूलोंकी वर्षा होरही है। भगवान के पास आठ प्रातिहास शोभायमान हैं। अशोक वृक्ष वायुले अपनी शाखाओंको हिदाता हुमा व सूर्यके भातापको रोकता हुमा भगवान के पास शोभ रहा है। चंद्रमाकी चांदनी के समान धवल तीन छन्न शोभायमान हैं, मानों चंद्रमा तीन रूप बनोकर तीन जगतके गुरुकी सेवा कररहे है। यक्षों द्वारा ढोरे हुए चमरोंकी पंक्तियां क्षीरसमुद्रकी ताङ्गोंके समान शोभ रही हैं। भगवान के शरीरकी चमको पड़ती हुई ऐसी
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मालूम होती है, मानों शरदकालके चंद्रमाकी चांदनी ही फैली हो। भाकाशमें देवदुंदुभी बाजे ऐसी मधुर ध्वनिसे बज रहे हैं कि मोरगण मेघोंके मानेकी शंकासे मदसे पूर्ण हो राह देख रहे हैं।
भगवानकी देहका प्रभामंडल बड़ा ही शोभायमान है, जिसके प्रकाशसे स्थावर जंगम जगत मानो झलक रहा है । भगवानके मुख. कमासे मेघकी गर्जनाके समान दिव्यध्वनि प्रगट होरही है, जिससे भव्य जीवोंके मनके भीतरका मोह-अंधकार नाश होरहा है, जैसे प्रकाशसे अंधकार दुर होजाता है।
हे महाराज ! इसतरह मा प्रातिहार्योसे शोभित व अनेक देवोंसे सेवित श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र विपुलाचल पर्वतपर विरामित हैं। उनके विराजने का ऐसा महात्म्य है कि जिनका जन्मसे वैरभाव है ऐसे विरोधी पशु पक्षियोंने भी परस्पर वैरभाव त्याग दिया है। शांतिसे सिंह मृग आदि पास पास बैठे हैं। जिनका किसी कारणसे इस शरीरमें रहते हुए पासर वैरभाव होगया था वे भी भगवानके निकट भाकर वौमाव छोडकर शांतिसे तिष्ठे हुए हैं। महारान! हस्तिनी सिंहके बालकको दुध पिला रही है। मृगोंके बाल सिंहनीको माताकी बुद्धिसे देख रहे हैं। महाराज ! वहां सपोंके फणोंपर मेढक निःशंक बैठे हैं, जिसतरह पथिकजन वृक्षोंकी छायामें भाश्रय लेते हैं। ____ महागज! सर्व ही वृक्ष सर्व ही ऋतुके पत्तोंसे व फोंसे फल रहे हैं और आनंदके मारे लम्बी शाखाओं को हिलाते हुए नृत्य कर
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जम्बूस्वामी चरित्र
रहे हैं। खेतों में बडे स्वादिष्ट धान्य पक रहे हैं । सर्व प्रकारकी सर्व रोगनाशक व पौष्टिक औषधियां प्रजाके सुखके लिये प्रगट होरही हैं। भगवान के प्रतापसे दुर्भिक्ष यादि संकट इसीतरह मूलले नाश हो गए हैं जैसे सूर्यके उदयसे अंधकार विला जाता है । हे महाराज ! श्री महावीर जिनेन्द्रके बिराजने से एकसाथ इतने चमत्कार हो रहे हैं कि मैं इस समय हनेको असमर्थ हूं ।
श्रेणिकका वीर समवसरण में आना ।
इस तरह बनपालके मुखसे सुखपद वचन सुनकर महाराज श्रेणिकका शरीर मानन्दरूपी अमृतसे पूर्ण होगया । इसी समय श्री जिनेन्द्रकी भक्ति भावसे सिंहासन से उठकर भगवान के सम्मुख मुख करके सात पग चलकर श्रेणिकने तीन दफे नमस्कार किया । तथा अपने सर्व परिवारको लेकर श्री महावीर भगवानकी पूजाके लिये जाने की तय्यारी करने लगा | भक्तिभाव से पूर्ण होकर घर्मकी प्रभावन के लिये बड़े ठाठनारसे वंदना के लिये चला । सेनाको साथ लिया उसका क्षोभ हुआ, आनंदप्रद बाकी ध्वनि सब दिशाओंमें छाई । हाथी, घोड़े, रथ, पैदलोंकी सेना साथ थी। हजारों ध्वजाएं दूर से चमकती थीं । महान साज-सामान के साथ महाराज श्रेणिक सम्मवसरण में पहुंचे । वह समवसरण सूर्य मंडलकी प्रभाको जीतनेवाला शोभायमान होरहा था । प्रथम ही मानस्थंभोंकी प्रदक्षिणा देकर पूजा की । फिर समवसरण की शोभा को क्रमशः देखते हुए महान आश्चर्यमें भर गया ।
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जम्बूस्वामी चरित्र श्री मंडपके वहां पहुंचा, धर्मचक्रकी प्रदक्षिणा दी, पीठकी पूजा की, फिर गंधकुटीक मध्यमे सिंहासनार उदयाचलपर सर्यले समान विराजित श्री जिनेन्द्रका दर्शन किया। जिनेन्द्र पर चमर ढर रहे थे। भगवान साठ पातिहार्य सहित विराजमान थे। तीन लोडके प्रभु जिनेश्वादेवकी गंधकुटीकी तीन प्रदक्षिणा दी, फिर बड़ी भक्तिसे श्री जिनेन्द्रकी पूजा की। पुजाके पीछे बड़े भाबसे स्तुति की। उस स्तुतिका भाव यह है-आपको नमस्कार दो, नमस्कार हो, नमस्कार दो। आप दिव्यवाणीके स्वामी है, नाप कामदेवको जीतनेवाले हैं, पूजनेयोग्य है, धर्मही ध्वजा हैं, धर्मके पति हैं, कमरुपी शत्रुओंके क्षय करनेवाले हैं, नाप जगतके पालक हैं, आपका सिंहासन महान शोभायमान है, आपके पास अशोक वृक्ष शाखाबों हिलता हुमा, ऊंचा व आश्रय करनेवालोंको छाया देता हुआ विराजमान है। वक्ष भक्तिसे चमर ढारते हुए मानो भक्तजनों के पापोंको उड़ा रहे हैं । स्वर्गपुरी पुण्यशी वृष्टि होरही है, मानो स्वर्गकी लक्ष्मी हर्षके मारे मश्रुबिंदु क्षेषण कर रही है। भाकाशमें देवदुंदुभि बाजे बजते हैं। मानो आपकी जयघोषणा कर रहे हैं कि मापने सर्व कर्मशत्रुओंको विजय किया है। आपमें शुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र, क्षायिक सम्यग्दर्शन, अनंतदानादि लब्धियां हैं। मोतियोंसे शोभित भापके ऊपर तीन छन विराजित हैं जो भाप निमल चारित्रको प्रगट कर रहे हैं। भापके शरीरका प्रभामण्डल फैला हुवा है, मानो भापका पुण्य मापको अभिषेक
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जम्बूस्वामी चरित्र
करा रहा है । आपकी दिव्यध्वनि जगतके प्राणियोंके मनको पवित्र करती है। आपका ज्ञान सूर्यका प्रकाश मोहरूपी अंधकारको दूर कर रहा है।
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आपका ज्ञान अनंत है, अनुपम है व क्रमरहित है । आपका सम्यग्दर्शन क्षायिक है, सर्व विश्वको जानते हुए भी आपको किंचित् खेद नहीं होता है । यह आपके अनंत वीर्यकी महिमा है । आपके भावोंमें रागादिकी बलुपता नहीं है। आप क्षायिक चारित्र से शोभित हैं । आपके पास स्वाधीन मात्मासे उत्पन्न अतीन्द्रिय पूर्ण सुख है । जैसे निर्मल जल शीतल व मलसे रहित भासता है वैसे आपका सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शनकी कीचसे रहित शुद्ध भासता है। अनंत दान भोगोपभोग कब्धियां आपके पास हैं, परन्तु उनसे कोई प्रयोजन आपको नहीं है, क्योंकि आप कृतकृत्य हैं, बाहरी सर्व विभूतिका सम्बन्ध आपके लिये निरर्थक है । आप तो अनंत गुणोंके स्वामी हैं । मुझ अल्पबुद्धिने कुछ गुणोंसे आपकी स्तुति की है । इसप्रकार परमैश्वर्य सहित श्री भगवान जिनेन्द्रकी स्तुति करके राजा श्रेणिक अपने मनुष्यों के बैठने के कोठे में गया और वहां बैठ गया ।
इस जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र में मगधदेश विरुपात है । उसमें श्री राजगृह नगरी राजधानी है। उसका राजा महाराज श्रेणिक श्री विपुकाचल पर्वत पर विराजित श्री वर्द्धमान भगवान के समवसरण में जाकर भक्तिपूर्वक तिष्ठा है ।
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दूसरा अध्याय
श्री जम्बूस्वामी पूर्वभव-भावदेव भवदेव स्वर्गगमन । ( श्लोक २४१ का भाव )
संसार दुःखों को हरनेवाले तीर्थंकर श्री संभवनाथको व इन्द्रोंसे वन्दनी श्री अभिनन्दनस्वामीको हम भावसहित नमस्कार करते हैं।
तब समवशरण में विराजित राजा श्रेणिक प्रफुल्लित कमल समान दोनों हाथोंको जोड़कर व भक्ति से नतमस्तक होकर श्री जगतकेगुरु तत्वोंका स्वरूप जानने की इच्छा से यह प्रार्थना करने लगाहे भगवान् सर्वज्ञ ! मैं जानना चाहता हूं कि तत्वोंका विस्तार क्या है, धर्मका मार्ग क्या है, व उसका कैसा फल है । पुण्यवान महाराज श्रेणिकके प्रश्न करनेपर भगवान् श्री महावीर ने गंभीर वाणी से तत्वोंका व्याख्यान किया ।
निरक्षरी ध्वनि । व्याख्यान करते हुए महान् वक्ता के मुखकमलमें कोई विकार नहीं हुआ जैसे-दर्पण में पदार्थों के झलकनेपर भी कोईं विकार नहीं होता है । तालु व ओष्ठ मी हिले नहीं । सर्व अंगसे उत्पन्न होनेवाली निरक्षरी ध्वनि भगवानके मुखसे प्रगट हुईं- स्वयंमुके मुखसे वाणी ऐसी खिरी जैसे पर्वतकी गुफा से ध्वनि प्रगट हो । उस वाणीमें भर्थं भरा हुआ था । कहा है
ताल्वोष्ठमपरिस्यदि सर्वागेषु समुद्भवाः । अस्पृष्ट करणा- वर्णा मुखादस्य विनिर्ययुः ॥ ७ ॥
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स्फुरद्विरिग्रहो दसुतंप्रतिध्वनितसंनिभः । प्रस्पष्टार्थको निरागाध्वनिः स्वायंभुवात सुखाव ॥ ८ ॥ भगवानकी ईच्छा बिना भी जिनवाणी प्रगट हुई- महान पुरुचौकी, योगाभ्यास से उत्पन्न शक्तियोंकी संपदा अर्चित्य है । चितवन में नहीं आसक्ती है। कहा है
विवक्षा मंतरेणापि विविक्ताऽसीत् सरस्वती । महीयसामचिन्त्या हि योगजाः शक्तिसम्पदः ॥ ९ ॥
सात सत्यकथन ।
भगवानकी वाणी प्रगट होने के पीछे गौतम गणधर ने कहा- हे श्रेणिक ! मैं अनुक्रमसे जीव आदिसे लेकर काल पर्यंत तत्वार्थके स्वरूपको अनुक्रमसे कहता हूं सो सुनो। जीव, अजीव, मास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्व सम्यग्दर्शन तथा सम्यज्ञान के विषय हैं । पुण्य व पाप पदार्थ स्वभावसे भासव व बन्धमें गर्भित हैं इसलिये तत्वज्ञानी आचार्यने उनको तत्वोंमें नहीं गिना है ।
द्रव्य लक्षणको धारण करने से लोक में छः द्रव्य हैं । जिसमें गुण व पर्याय हो उसको द्रव्य कहते हैं । जीव गुणपर्याय धारी है इसलिये द्रव्यका लक्षण रखने से द्रव्य है। पुद्गल के भी गुणपर्याय होते हैं इसलिये पुद्गलको भी द्रव्य कहते हैं । इसीतरह गुणपर्यायके वारी अन्य चार द्रव्योंकी भी सत्ता है अर्थात् घर्मं, अधर्म, आकाश और काल प्रदेशोंकी बहुलता रखनेवाले द्रव्योंको अस्तिकाय कहते
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। ऐसे मस्तिकाय स्वभाववाले पांच द्रव्य हैं। कालके कायपना नहीं है | काळगुणके एक ही प्रदेश है इसलिये कालद्रव्य मस्तिकाय नहीं है । जितने भाकाशको एक मविभागी पुद्गला परमाणु रोकता है उसको प्रदेश कहते हैं । इस मापसे मापने पर काल सिवाय अन्य पांच द्रव्योंके बहु प्रदेश माप में आयेंगे। इसलिये जीव, फुल, धर्म,
धर्म व आकाश मस्तिकाय हैं। जीव व्यादि पदार्थोंका जैसा उनका यथार्थ स्वरूप है वैसा ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । तथा उनको वैसा ही जानना सम्यग्ज्ञान है । कर्मोंके बंधन के कारण भावोंका जिससे निरोध हो वह चारित्र है । इन तीनोंकी एकतासे कर्मोंका नाश होता हैं इसलिये यह रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है । सम्यग्दर्शनको सम्यग्ज्ञान से पहले इसलिये कहा गया है कि सम्यग्दर्शनके विना ज्ञानको अज्ञान या मिथ्या ज्ञान कहा जाता है ।
यहां द्रव्यसंग्रहकी गाथा दी है, जिसका अर्थ है - जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । निश्वयसे वह भात्माका स्वभाव है । संशय, विमोद, विश्रम रहित ज्ञान तब ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है जब सम्यग्दर्शन प्रगट होजावे । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही चारित्र अपना वास्तव कार्य करनेको समर्थ होता है । यदि ये दोनों न हों तो वह चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है । इन तत्वोंका लक्षण तत्वज्ञानके लिये कुछ माममानुसार कहा जाता है । द्रव्योंमें अस्तित्व आदि सामान्य रवमाव है। तथा ज्ञानादि विशेष स्वभाव हैं ।
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जीवतत्व। यह जीव सदासे सत् है, अनादि अनंत है. नित्य है. स्वतः सिद्ध है, मूलमें पुरक सम्बन्धी शरीरोंसे रहित है, असंख्यात प्रदेशोको रखनेवाला है, अनंत गुणोंका धारी है, पर्यायकी अपेक्षा जीवमें व्यय उत्पाद होता है। जीवका विशेष लक्षण चेतना है, यह ज्ञातादृष्टा है. यह झर्ता , यही मोक्ता है, निश्चपसे अपने ही शुद्ध भावोंका कर्ताभोक्ता है। अशुद्ध निश्चयसे रागद्वेषादि भावोंका इती व मोक्ता है। व्यवहारनयसे द्रव्यधर्म व नोकर्मका कर्ता व मोक्ता है।
संसारदशामें समुदयातके सिवाय प्राप्त शरीरके प्रमाण खाकाएका घरनेवाला है। वेदना, कषाय, विक्रिया, थाहारक, तेजस, भारणांतिक व केवल समुदघातमें कुछ कालके लिये शरीरसे बाहर फैलता है, फिर संकोच कर शरीराकार होजाता है। नाम कर्मके उदयसे दीपकके प्रकाशकी तरह संकोच विस्तारके कारण छोटे व बड़े शरीरमें छोटे व बड़े शरीर प्रमाण होता है। मोक्ष होनेपर मंतिम शरीर प्रमाण रहता है। जब इस जीवके सर्वकर्मोका नाश होजाता है तब यह जीव शुद्ध ज्ञानादि गुणों के साथ ऊर्द्धगमन स्वभावसे कोकके ऊपर सिद्धक्षेत्रमें विराजता है।
इस जीवको प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् , भात्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ, ज्ञानी मादि नामोंसे कहते हैं। क्योंकि संसारके जन्मोंमें यह जीता है, जीता था व नीवेगा। इसलिये इसको जीव
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कहते हैं। संसारसे छूटकर मोक्ष होनेपर भी सवा जीता रहता है, तब इसको सिद्ध कहते हैं। जीवके तीन भेद भी कहे जाते हैंभव्य, भभव्य और सिद्ध । जिनके सुवर्ण घातु पाषाणके समान सिद्ध होनेकी शक्ति है, उनको भव्य कहते हैं। मन्य पाषाणके समान जिनमें सिद्ध होनेकी शक्ति नहीं है उनको मभव्य कहते हैं। मभव्योंको कभी भी मोक्षके कारणरूप सामग्रीका लाभ नहीं होगा। जो धर्मबन्धसे मुक्त होकर तीन लोकके शिखर पर विराजमान होते हैं और जो अनंत सुखके भोक्ता हैं वे कौके मंजनसे रहित निरंजन सिद्ध हैं। इस तरह नीवतत्वका संक्षेरसे कथन किया गया। भव अजीव पदार्थको कहता हूं, सुनो
अजीव तत्व। जिम जीव तत्व न हो उसको अजीव कहते हैं। इसके पांच भेद हैं-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, बाक्षाशद्रव्य, कालद्रव्य और पुद्गलद्रव्य । जो द्रव्य अमूर्तीक लोकव्यापी है व जो जीव और पुद्गलके गमनमें उदासीन निमित्त कारण है वह धर्म द्रव्य है, यह गमनमें प्रेरणा नहीं करता है । जैसे मछली के इच्छापूर्वक रानमें जल सहायक है, जक मछलीको प्रेरणा नहीं करता है, इसी तरबका लोकव्यापी ममूर्तीक अधर्म द्रव्य है जो जीव और पुदलोंके ठहरने में उदासीन निमित्त कारण है । जैसे वृक्षकी छाया पथिकको ठहराने में निमित्त कारण है-प्रेरक नहीं है, इसी तरह मधर्म भी प्रेरक नहीं है। माकाश द्रव्य, अनंत व्यापी, ममूर्तीक, हलन चलन क्रिया रहित,
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लापूरबानी परित्र रुपर्शमें न आने योग्य एक द्रव्य है, जो जीवादि पदार्थीको अवगाह देता है। काल द्रव्य वर्तना लक्षण है, सर्व द्रव्य मपने २ गुणों की पर्यायोंमें वर्तन करते हैं उनके लिये कालद्रव्य निमित्त कारण है । जिस तरह कुम्हारके चक्रके स्वयं घूमनेमें नीचेकी शिला कारण है इसी तरह स्वयं परिणमन करनेवाले द्रव्योंकी पर्याय पकटने में निमित्त कारण काल है ऐसा पण्डितोंने कहा है। व्यवहार समय घटिका
आदि कालसे ही मुख्य या निश्चय कालका निर्णय होता है, क्योंकि निश्चय कालके विना व्यवहार झाल नहीं होसकता । व्यवहार काल परम सूक्ष्म एक समय है, जो निश्चय काल-कालाणु द्रव्यकी पर्याय है। जैसे बाहीक या पंजाबीको देखनेसे पंजाबका निश्चय होता है, पंजाब न हो तो पंजाबका निवासी नहीं कहा जासक्ता । काल द्वय कालाणुरूपसे मसंख्यात है, लोडाकाश प्रमाण प्रदेशोंमें मिण २ रत्नोंकी राशिके समान व्यापक है। क्योंकि एक कालाणुका प्रदेश दुसरे कालाणुके प्रदेशसे कभी मिलता नहीं है। इसलिये कालको काय रहित कहते हैं। शेष पांच द्रव्यों के प्रदेश एकसे अधिक है व एरस्पर मिले हुए हैं इसलिये इन पांच द्रव्योंको पंचास्तिकाय कहते हैं।
धर्म, मधर्म, भाकाश तथा काल ये चार मजीव पदार्थ शरी. शादि गुणरहिन होनेसे अमूर्तीक हैं, केवल पुद्गल द्रव्य मूर्तीक है, क्योंकि उनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाया जाता है। पुद्गलके भेद सुनोः
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इन चार मुख्य गुणों के धारी पुद्गल द्रव्यको
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जम्बूस्वामी चरित्र पुद्गल इसलिये कहते हैं कि उसमें पुरण और गठन होता है। परमाणु मिझकर स्कंध बनते हैं, स्कंघसे छूटकर परमाणु बनते हैं तथा परमाणुओंमें भी पुरानी पर्यायका गलन व नई पर्यायका प्रकाश होता है। पुद्गलों के मूल दो भेद हैं, परमाणु और स्कंध-परमाणुओंमें रूमा तथा स्निग्ध गुणके कारण परस्पर बंध होनेसे स्कंध बनते हैं। दो मंश मधिक चिकना या रूखा गुण होनेसे बंध होजाते हैं, जैसे १२ अंश चिकना परमाणु १४ अंश चिकने या रूक्षमें मिलजायगा या १५ मंश रूखा परमाणु १७ मंश रूखे या चिकने परमाणुमें मिल जायगा। जिसमें अधिक गुण होगा वह दुसरे परमाणुको अपने रूप कर लेगा। जघन्य अंशधारी चिकने व रूखे परमाणुका बन्ध नहीं होता है। स्कंधोंके भनेक मेद दो परमाणुमोंके संघसे लेकर महा स्कंध पर्यंत हैं। छाया, धूप, अंधेरा, प्रकाश मादिके स्कंध होते हैं।
पुद्गलोंके छः भेद किये गए हैं-१ सूक्ष्म सूक्ष्म, २ सूक्ष्म, ३ सूक्ष्म स्थूल, ४ स्थूल सूक्ष्म, ५ स्थूल, ६ स्थूल स्थूल । सूक्ष्म सूक्ष्म एक भविभागी पुद्गका परमाणु है जो देखने में नहीं माता । भनुमानसे ही जाना जाता है। सूक्ष्म पुदलोंका दृष्टांत कार्मणवर्गणा है, जिसमें अनंत परमाणुओंका संयोग है तो भी वह इन्द्रियोंके गोचर नहीं है। चार इन्द्रियोका विषय शब्द, स्पर्श, रस, गंध सूक्ष्म स्थूल हैं। ये चारों भांखसे नहीं दिखलाई पड़ते हैं । स्थूल सूक्ष्म पुदल छाया, प्रकाश, भातप मादि हैं, जो मांखसे दिखलाई पडते हैं परन्तु उनको न तो ग्रहण किया जा सक्ता है न उनका घात किया जा सकता है। वहनेवाले
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जम्बूस्वामी चरित्र द्रव्य जल आदि स्थल हैं। पृथ्वी मादि मोटे स्कंध जो टुकडे करने पर स्वयं नहीं मिल सक्ते स्थूल स्थूल हैं।
आस्रव तत्व। भास्रवके दो भेद हैं-भावात्रव और द्रव्यास्रव । कर्मके निमिउसे होनेवाले जीवके मशुद्ध भावोंको भावास्तव कहते हैं। भागमाजुसार भावासबके चार भेद हैं-मिथ्यात्व, मविरति, कषाय तथा योग । जीवादि तत्वोंका व सच्चे देव शास्त्र गुरुका श्रद्धान न होना मिथ्यात्व है । हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील व परिग्रह में वर्तन अविरति है । क्रोध, मान, माया, लोमके वश होना कषाय है । मन, वचन, कायके निमित्तसे भात्मामें चंचलता होना योग है। इन भावास्रबोके निमित्तसे फर्मवर्गणा योग्य पुद्गल कर्मरूप भवस्थाके होनेको प्राप्त होते हैं वह द्रव्यास्रव है।
बन्ध तत्व। भानपूर्वक बन्ध होता है अर्थात् फर्म बन्धके सम्मुख होकर बंधते हैं । इस बंधतत्वके भी दो भेद हैं-आवबन्ध और द्रव्यबन्ध । जिन मशुद्ध भावोंसे बन्ध होता है वह भावबन्ध है। कर्मवर्गणाका कार्मण शरीरके साथ बन्धजाना द्रव्यबन्ध है । बंधके चार भेद हैंप्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश ।
ज्ञानावरणादि पाठ फर्मरूप स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है । कितनी संख्या किस धर्मकी बंधी सो प्रदेशबंध है। कर्मोंमें कितनी मर्यादा पढ़ी यह स्थितिबन्ध है। उन काँमें तीव्र व मंद फलदान
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शक्ति पड़ना भनुभाग बंध है। चारों ही बंध एक साथ योग भोर कषायोंसे होते हैं।
संवर तत्व। मास्रवके रोकनेको संवर कहते हैं। जिन शुद्ध भावोंसे काँका भाना रुकता है वह भाव संवर है। मौके भासवका रुक जाना यह द्रव्य संवर है।
निर्जरा तत्व। कोके आत्मासे अलग होनेको निर्भरा कहते हैं। निर्जराके दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । जो कर्म पककर अपने समयपर झड़ता है वह सविपाक निर्जरा है। जो धर्म पकनेके पहले शुद्ध भावोंसे दूर किया जाता है वह भविषाक निर्जरा है। यह निरा संबरपूर्वक होती है व यही कार्यकारी है। तत्त्वज्ञानियोंने इस निर्जराके दो भेद कहे हैं-जिन शुद्ध भावोंसे कर्मकी निर्जरा होती है वह भाव निर्जरा है। उन शुद्ध भावों के प्रभावसे काँका झड़ जाना द्रव्य निर्जरा है।।
मोक्ष तत्व। जीवका सब मौके क्षय होनेपर अशुद्धावस्थाको छोड़कर शुद्ध भवस्थाको प्राप्त होना मोक्ष है । मोक्ष पर्याय में अनंत ज्ञान, अनंत आनंद मादि स्वभावोंका प्रकाश स्वतः होजाता है।
. पुण्य पाप पदार्थ। शुभ भावोंसे पुण्य कर्मका व अशुभ भावोंसे पाप कर्मका बंध
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जम्बूस्वामी चरित्र होता है। महिंसादि व्रतोंके पालनेसे शुभ भाव होते हैं। हिंसादि पापोंसे अशुभ भाव होते हैं।
इस प्रकार श्री गौतमस्वामीने श्रेणिक महाराजको सात तरबोंका वर्णन किया। इतने हीमें चाकाशसे कोई तेजमई पदार्थ उतरता हुमा दिखलाई पड़ा । ऐसा झलकता था कि सूर्यका बिम्ब अपना दूसरा रूप बनाकर पृथ्वीतलपर वीतराग भगवानकी समवशरण लक्ष्मीके दर्शन करनेको माया हो।
विद्यन्माली देवका आना। महाराजा श्रेणिक इस अकस्मात्को देखकर आश्चर्य में भर गए। गौतमस्वामीसे पुनः पूछा कि यह क्या दिखलाई पड़ रहा है ? ऐसा पूछनेपर गौतमस्वामी कहने लगे कि हे राजन् ! यह महाऋद्धिका धारी विद्यन्माली नामका देव है, प्रसिद्ध है। अपनी चार महादेवियोंको लेटर धर्मके अनुरागसे श्री जिनेन्द्रकी वन्दना करने के लिये शीघ्र २ चला आरहा है। यह भव्यात्मा माजसे सात दिन स्वर्गसे चयकर मानव जन्ममें आयगा । यह चरम शरीरी है, उसी मनुष्य भवसे मोक्ष जायगा।
श्रेणिकके प्रश्न। गौतमस्वामी के वचन सुनकर राजा श्रेणिक भक्तिभारसे पूर्ण हो व परम प्रीतिपूर्वक तीन जगतक गुरु श्री जिनेन्द्र भगवानसे प्रार्थना करने लगे कि हे कृपानिधि स्वामी! मापने भपनी दिव्यध्वनिसे यह उपदेश किया था कि जन देवोंकी भायु छः मास शेष रह जाती
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है तब उनके गलेमें पुष्पोंकी माला मुरझा जाती है, शरीरकी चमक मन्द पड़जाती है, उनके करा वृक्षोंकी ज्योति कम होजाती है, महा राज ! इस देवके मुखका तेज सब दिशाओंमें व्याप्त है । इसका शरीर बड़ा तेजस्वी है, यह प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है। यह बात बड़े माश्चर्यकी है। तब सिंहासन पर विराजमान श्री जिनेन्द्ररूपी देवने राजा श्रेणिकके संशयरूपी अंधकारको दूर करते हुए गम्भीर वाणीसे यह प्रकाश किया कि हे राजन् ! इस देवका सर्व वृतान्त माश्चर्यकारक है। इस देवकी कथाको सुननेसे धर्मप्रेमकी वृद्धि होगी व संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न होगा। तु चित्त लगाकर सुन ।
भावदेव भवदेव ब्राह्मण। इसी धनधान्य सुवर्णादिसे पूर्ण मगधदेशमै पूर्वकालमें एक -बर्द्धमान नामका नगर था। वह नगर वन व उपवनोंकी पंक्तिसे व कोट खाई मादिसे शोभनीक था। विशाल कोटके चार विशाल द्वार थे। जहांकी महिलाएं भी सुन्दर थीं, वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत थीं। वहां ऐसे ब्राह्मण रहते थे जो वेद मार्गको जाननेवाले थे। पुण्यके व हितके लाभके लिये यज्ञमें हिंसा पशुवध करते थे। मिथ्यात्वके अंधकारसे कुमार्गगामी विम यज्ञोंमें गौ, हाथी, बकरादि यहां तक कि मानवकी भी बलि करते थे। उन्होंमें एक आर्यावनु नामका ब्राह्मण रहता था, जो वेदका ज्ञाता व अपने धर्म कर्ममें प्रवीण था। , उसकी स्त्री सोमशर्माबड़ी पतिव्रता सीताके समान साध्वी तथा पतिकी
माज्ञानुकूल चलनेवाली थी। उस ब्राह्मणके दो पुत्र भावदेव, भवदेव
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बम्वृस्वामी चरित्र थे जो चंद्रमा व सूर्यके समान शोभते थे। धीरे २ दोनों पुत्रोंने विद्याभ्यास करके वेदशास्त्र, व्याकरण, वैद्यक, तर्क, छन्द, ज्योतिष, : संगीत, काव्यालंकार मादि विषयों में प्रवीणता प्राप्त की। वे विद्या. रूपी समुद्र के पार पहुंच गए।
ये दोनों ब्राह्मण वाद-विवाद करने में बहुत प्रवीण थे, ज्ञानविज्ञानमें चतुर थे। दोनो भाइयोंमें ऐसा प्रेम था, जसा पुण्यके साथ सांसारिक सुखका प्रेम होता है। ये दोनो विना किसी उपद्रवके सुखसे बढ़कर कुमार वयको प्राप्त हुए । पूर्व पाप-कर्मके उदयसे उनके पिता महान व्याघिसे पीड़ित होगए । उसको कोढ़का रोग हो गया। शरीरभरमें कुष्टरोग फैल गया। कान, आंख, नाइ गलने लगे, अंग उपङ्ग सड़ने लगे, तीव्र वेदनासे वह ब्राह्मण व्याकुल हो गया । यह प्राणी अज्ञानसे पापकर्म बांध लेता है। जब उस फर्मका फर दुःख होता है तब उसको सहना दुष्कर होजाता है। जो कोई स्वादिष्ट भोजनको अधिक मात्रामें लालेता है, जब वह भोजन पचता नहीं तब वह दुःखदाई होजाता है, ऐसा जानकर बुद्धिमानको उचित है कि वह इन्द्रियोंके विषयोंको विषके समान कटुक ‘फलदाई जानकर छोड़ दे और विकार रहित मोक्षपदके देनेवाले धर्मामृतका पान करे। कहा है:
अज्ञानेनार्यते कर्म तद्विपाको हि दुस्तरः। स्वादु संभोज्यते पथ्य तत्वाके दुःखवानिव ॥ ८८ ॥ मत्वेति धीमता त्याच्या विषया विषसनिभाः। धर्मामृतं च पानीयं निर्विकारपदपदम् ।। ८९ ॥
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यह ब्राह्मण महान दुःखी होकर अपना मरण नित्य चाहता था। मरण न होते हुए वह पतंगके समान ममिकी चितापर पड़कर भस्म होगया। अपने पतिके वियोगसे शोकपीडिन होकर सोमशर्मा ब्राह्मणी भी उसीकी चिता भस्म होगई। मातापिता दोनोंके मरनेपर ये दोनो भावदेव व भवदेव मत्यंत दुःखी हुए-शोकके संतापसे तप्त होगए । करुणा उत्पादक शब्दोंसे विलाप करने लगे। उनके निजी बन्धुओंने समभावसे बहुत समझाया तब उन्होंने शोझको छोड़कर मातापिताकी मरणक्रिया की । जैसी ब्राह्मणोंकी रीति है उसके अनुसार तर्पण मादि क्रिया की। फिर शोक वेगों को दर करके वे दोनों ब्राह्मण पहलेके समान अपने घाके कामों में लग गए।
बहुत दिनोंके पीछे उस नगरमें एक सौधर्म नामके मुनिराज -- पधारे, जो धर्मकी मूर्ति ही थे। जो बाहरी व भीतरी सर्व परिग्रहके त्यागी थे, जन्मके बालकके समान नाम स्वरूपके धारी थे, मन, वचन, कायकी गुप्तिसे सन्जित थे, जैन शास्त्रों मर्थमें शंका रहित थे, परन्तु व्रतोंसे कभी च्युत न होजावे इत शंकाको रखते थे, सर्व प्राणी मात्रपर दयालु थे, तथापि कमोंके नाशमें दया रहित थे, मिथ्या एकांत मतके खण्डनमें स्याद्वाद बलके धारी थे, सूर्यके समान तेजस्वी थे, चंद्रमाके समान सोंग शांत थे, मेरू पर्वतके समान उन्नत वधीर थे। वे जैन साधु संसारकी दावानलसे तप्त प्राणियोंको मेघ के समान शांतिदाता थे। भवरूपी चातकोंको धर्मोपदेशरूपी जलसे पोषनेवाले थे. भालस्य रहित थे, इंद्रियों के जीतनेवाले थे, ज्ञान विज्ञानसे पूर्ण थे,
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गुणोंके सागर थे, वीतराग थे, गणके नायक थे, शत्रु मित्र, जीवन मरणमें समान भावधारी थे। काम अलाभमें व मान अपमान में विकार रहित थे, रत्नत्रय धारी थे, धीर थे, तप रूपी अलंकार से भूषित थे, संयम पाळने में निरन्तर सावधान थे, वैराग्यवान होनेपर भी प्रायः करुणा रससे पूर्ण होजाते थे। ऐसे मुनिराज माठ मुनियोंके संघ सहित वनमें विराजमान हुए। कहा हैसर्वसंग विमुक्तात्मा बाह्याभ्यंतरभेदतः । यथाजातस्वरूपोऽपि सज्जो गुप्तश्च गुप्तिभिः ॥ ९६ ॥ स्याद्वादी कुमतध्वान्ते तेजस्वी भानुमानिव । सौम्यः शशीव सर्वागे धीरो मेरुरिवोन्नतः ॥ ९८ ॥ (नोट - जैन साधुका ऐसा स्वरूप होना चाहिये । ) अवसर पाकर सुनिराजने दयामई जैन धर्मका उपदेश देना प्रारम्भ किया ।
मुनिराजका धर्मोपदेश ।
हे भव्य जीवो ! तुम सब श्रवण करो, यह धर्म उत्तम है । स्वर्ग तथा मोक्षका बीज है, शुभ है व तीन लोक के प्राणियोंका रक्षक है।
इस संसार में सर्वे ही प्राणी यहांतक कि स्वर्गके देव भी सब अपने२ कमौके उदयके वश हैं । उनको रंच मात्र भी सुख नहीं
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है । तौ भी मोहके माहात्म्यसे यह मूढ़ संसारी प्राणी ज्ञानके लोचनको बन्द किये हुए इन्द्रियोंके विषयोंमें व्यासक्त होकर सुख मान रहा है । यह शरीर अनित्य है, पुत्र-पौत्र मादि नाशवन्त हैं, संपदा,
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' अस्वामी चरित्र
घर, स्त्री भादि सब छूट जानेवाले हैं। मियादृष्टि भज्ञानी इन सब भनित्य पदार्थों में नित्यपनेकी बुद्धि करता है। चाहता है कि ये सदा बना रहे। अपनेको सुख मिलेगा, इस भाशासे दुःखोंके मूल कारण इन विषयभोगोंमें रमण करता है। जब विषयभोगोंका वियोग होजाता है तब दुःखोंसे पीड़ित होकर पशुके समान कष्ट भोगता है।
क्षणभरमें कामी होजाता है, क्षणभरमें लोभी होजाता है, क्षणभरमै तृष्णासे पीडित होता है, क्षणमें भोगी बन जाता है, क्षणभरमें रोगी होजाता है, भूतपीडित प्राणीकी तरह व्यवहार करता है। कहा है
क्षणं कामी क्षणं लोभी क्षणं तृष्णापरायणः । क्षणं भोगी क्षणं रोगी भूताविष्ट इवाचरेत् ॥ १०९ ॥
यह भज्ञानी मोही प्राणी वारवार रागद्वेषमई होकर ऐसे कर्म बांधता है जिनका छूटना कठिन है। इसलिये वारवार दुर्गतिमें जाता है। कभी अत्यन्त पापकर्मके उदयसे नारकी होकर मसहनीय ताडनमारणादि दुःखोंको सागरोंतक सहता है।
कभी तियेच गतिमें जन्म लेकर या मनुष्मगतिमें नीच कुलमें जन्म लेकर हजारों प्रकारके दुःखोंसे पीडित होता हुभा इस संसारमें भ्रमण किया करता है। चार गनियों में भ्रमण करते हुए इस जीवको मनंतकाल होगया। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई धर्मको न पाकर इसे कभी थिरता नहीं मिली। इसलिये जो कोई प्राणी सुखका अर्थी है उसको अवश्य ही मिनेन्द्र कथित धर्मका संग्रह सदा करना चाहिये।
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अम्बूस्वामी चरित्र.
भावदेव मुनिदीक्षा |
इसप्रकार सुनिमहाराज के शांतिगर्भित अनुपम वचनों को सुनकर भावदेव ब्राह्मणका हृदय कंपित होगया, संसार भ्रमण से भयभीत होगया, मनमें वैराग्य पैदा होगया। हाथ जोडकर सौधर्म मुनिराजसे प्रार्थना करने लगा कि हे स्वामी ! मैं संसार - समुद्रसे डूब रहा हूं, मेरी रक्षा कीजिये, जिससे मैं नविनाशी आत्मीक सुखको प्राप्त कर सकूं । कृपा करके मुझे पवित्र जैन साधुकी दीक्षा दीजिये । यह दीक्षा सर्वपरिग्रहके त्यागसे होती है तथा यही संसारका छेद करनेवाली है ऐसा मुझे निश्चय होगया है । भावदेव के ऐसे शांत वचन सुनकर सौधर्म मुनिराजने उसको संतोषप्रद वचन कहे - हे ब्रह्म ! यदि तु वास्तव में संसार के भोगोंको रोगके समान जानकर वैराग्यवान हुआ है तो तू इस जिनदीक्षाको धारण कर। जो जीव संसार में रागी हैं वे इसे धारण नहीं कर सक्ते । गुरुमहाराजके उपदेश से शुद्ध बुद्धिघारी भावदेवको बहुत धैर्य प्राप्त हुआ। वह ब्रह्मणोत्तम सब शल्य त्यागकर मुनिदीक्षा में दीक्षित होगया ।
फिर वे सौधर्म योगीराज अपने संयमकी विराधना न करते हुए पृथ्वीतल पर विहार करने लगे । वे मुनिराज गुणोंमें महान थे । . ऐसे गुरु के साथ साथ भावदेव मुनि पापरहित भावसे घोर तप करने लगा । दुःख तथा सुखमें समान भाव रखता था । एकाग्र भावसे कभी ध्यान कभी स्वाध्यायमें निरंतर लगा रहता था । विनयवान होकर ब्रह्म भावको उत्पन्न करनेवाले शब्द ब्रह्ममईं तत्वका अभ्यास
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जम्मूस्वामी चरित्र करता था। अर्थात् ॐ, सोहम् भादि मंत्रोंसे निजात्माके स्वरूपको. ध्याता था। कहा है
स्वाध्यायध्यानमैकाम्यं ध्यायविह निरंतरम् । सन्दब्रह्ममयं तत्वमभ्पसन् विनयानतः ॥ १२४ ॥
वंह भावदेव मनमें ऐसा समझता था कि मैं धन्य हूं, कृतार्थ हूं. वड़ा बुद्धिशाली है, अवश्य भवसागरसे तिरनेवाला ह भो मैंने इस उत्तम जैन धर्मका लाम प्राप्त किया है। ___ बहुत काल विहार करते हुए वे सौधर्म मुनिराज एक दफे भावदेवके साथ उसी वर्द्धमानपुरमें पधारे। उससमय विशुद्ध बुद्धिधारी भावदेवने अपने छोटे भाई भवदेवको याद किया। भवदेव ब्राह्मण इस नगरमें प्रसिद्ध था, पन्तु संसारके विषयों में अंधा था, एकांत मतके शास्त्रों अनुरागी था, अपने यथार्थ भात्महितको नहीं जानता था। भावदेवके भावों में करुणाने पर किया और यह संकल्प किया कि मैं स्वयं उसको जाकर सम्बोधूं तो उसका कल्याण होगा। परम वैराग्यवान होनेपर भी परहितकी कांक्षासे उसके घर स्वयं जानेका मनोरण कर लिया।
मैं उसको महत् धर्मका उपदेश करूं। किसी तरह भी यदि वह समझ सायगा तो वह अवश्य संसारके भोगोंसे विरक्त होकर मुनि हो जायगा ऐसा भपने मनमें विचार कर भावदेव अपने गुरुके पास भाज्ञा मांगनेके लिये गए और कहा-हे महाराज! मुझे माज्ञा दीजिये कि मैं माकर अपने छोटे भाईको संबोधन करूं.
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लम्बूस्वामी चरित्र आपके प्रसादसे मेरे भाव में यह करुणा पैदा हुई है। इस प्रकार अपने गुरुको प्रसन्न करके व आज्ञा लेकर तथा वारंवार नमस्कार करके भावदेव मुनि शुद्ध भावसे इर्या समिति पालते हुए-भूमिको निरख कर चलते हुए भवदेवके सुन्दर घरमें पधारे । भवदेवके घरमें आकर वहींकी अवस्था देखकर माश्चर्य में भर भए । क्या देखते हैं कि तोरणोंमें शोभित मंडप छाया हुआ है, मंगलमई बाजोंके शब्द होरहे हैं जिनके शब्दोंसे दिशा चूर्ण होती है। युवती स्त्रियां मंगलगान कररही हैं, बंदीजन वेद-वाक्योंसे स्तुति पढ़ रहे हैं । चित्रोंसे लिखित ध्वजा हिल रही हैं। सुगंधित कुंद भादि फूलोंकी मालाएं लटक रही हैं। कसे मिश्रित श्रीखंडसे रचना बनी हुई है। ऐसा देखकर भी दयालु मुनिराज भावदेव उसके घरके भांगणमें शीघ्र ही जाकर खड़े होगए । मुनिराजको देखकर भवदेव उसी समय स्वागत के लिये उठा, नतमस्तक हुश्रा, उच्च आसनपर विराजमान किया, वार वार नमस्कार किया और भावदेव मुनिके निकट विनयसे बैठाया।
भवदेव संवोधन व जैनधर्म ग्रहण । योगीमहाराजने धर्मवृद्धि कहकर मआशीर्वाद दिया। व उसको संतोषित किया। तब भवदेवने पूछा-हे भात ! भापके संयममें, तपमें, एकाग्र चिन्तवन ध्यानमें, स्वात्मजनित ज्ञानमें कुशक हैं ? महान बुद्धिमति मुनिने समभावसे कहा कि वत्स! हमें सब समाधान है। हमें यह तो बतामो कि इस घरमें क्या हुआ था, क्या होरहा है. व क्या होनेवाला है ? हे आता ! तेरे घरमें मण्डपका भारम्भ
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जम्बूस्वामी दिन दिखाई पड़ता है, तेग सौम्य शरीर परम सुन्दर व भूमयोंसे मलंकन है। तेरे हाथमें कंकण पन्धा है, तेरे यहां कोई उत्सव दिखाई पड़ता है। गुरुमहाराजके इस वाक्योंको सुनकर भवदेवमे इस नीचा कर लिया। कुछ मुसकराते हुए वतनासे डगमगाते वचनोंसे कहा---
हे स्वामी ! इस नगरमें दुर्मिषण नामका ब्राह्मण रहता है उसकी नागश्री नामकी ली है। वह कुलवान व शीलवान है। उनकी नागश्री नामकी पुत्री है। बन्धुजनोंकी आज्ञासे उसके साथ भाज मेरा विवाह वेदवाक्योंके साथ हुमा है। अपने छोटे भाईकी इस उचित वाणीको सुनकर मुनिराज बोले-हे भ्राता ! इस जगत धर्मके प्रतापसे कोई बात दुर्लभ नहीं है। धर्मसे ही इन्द्रपद, सर्वसंपदासे पूर्ण चक्रवर्तीद, नारायण व प्रतिनारायणपद व राजाका पद प्राप्त होता है। धर्मका लक्षण सर्व प्राणियोंपर दया भाव है अर्थात महिला लक्षण धर्म है, वही धर्म यती तथा गृहस्थ के मेदसे दो प्रकार हैं। तथा सम्मादर्शन सम्याज्ञान सम्यकचारित्र मय रत्नत्रयके मेदसे तीन प्रकार है ऐसा जिनेन्तुने उपदेश किया है । कहा है
सर्वप्राणिदगालक्ष्मो गृहस्थशमिनोधिा । रनत्रयमयो धर्मः स विधा जिनदेशितः ॥१५१॥' मनुष्य जन्म बहुत कठिनतासे प्राप्त होता है। ऐसे नर जन्मको पाकर जो कोई धर्मका माचरण नहीं करता है उसका जन्म
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स्वामी चरित्र पुषा जाता है, ऐसा मैं मानता हूं। इत्यादि मुनिरूपी समुद्रसे धर्माधृतले पूर्ण पवित्र वचनोंके रसको पीकर भवदेव बहुत संतुष्ट हुमा और उन्होंने भावपूर्वक भावकके व्रत ग्रहण कर लिये।
भवदेवका आहारदान। ब्रतोंको ग्रहणकर उसी समय मुनिराजसे प्रार्थना की कि स्वामी! आन मेरे घर कराकर भाप भोजन स्वीकार करें । धर्मके मनरागसे पूर्ण छापने छोटे भाईके बचन सुनकर मुनिमहाराजने दोषरहित शुद्ध पाहार ग्रहण किया । कहा है- पीत्वा वाक्यापूतं भूतं प्राप्त मुनिमहोदधेः।
भवदेवो व्रतान्युनः श्रावकस्याग्रहीत्तदा ॥ १५३ ।। संग्रहीतव्रतेनाशु विक्षलो मुनिनायकः । स्वामिन्नत्र गृहे मेऽध त्वया भोज्यं कृपापर ॥ १५४ ॥ .विशरनुजस्यैव भ्रातृधर्मानुरागतः ।
निः स शुद्धमाहारं निःसावधं जघास सः ॥१५॥
(नोट-इन वाक्योंसे मुनिराजकी उदारता व सरलता व सज्ज. नता व निरभिमानता प्रगट होती है। एक यज्ञकी हिंसाका माननेवाला ब्रामण जब हिंसाको त्यागकर श्रावकके महिंसादि बारह व्रतोंको स्वीकार करता है तब उसी क्षण वह श्रद्धावान श्रावक माना जाने कगा। उसके हाथका माहार उसी दिन लेना मुनिने मनुचित नहीं समझा । उसको भाहारकी विधि सब बतादी थी। यद्यपि उसकी प्रार्थना एक निमंत्रण रूपमें थी। जैन मुनि निमंत्रण नहीं मानते
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जम्बूस्वामी चरिण
हैं इस भतीचारका ध्यान उससमय मुनिराजने उसके धर्मानुरागके महत्वको देखकर नहीं किया । यह उनका भाव था कि किसी प्रकार यह मोक्षमार्ग पर दृढतासे मारूढ़ होजावे । यद्यपि सुनिने माहार ras नवधाभक्तिमे लिया होगा | जब भोजनका समय होगा तब उस श्रावकने अतिथि संविभाग व्रत के अनुसार ही आहारदान दिया होगा । यदि वह स्वीकार नहीं करते तो उसका मन मुरझा जाता व धर्मप्रेम कम होने की भी संभावना थी । इत्यादि बातोंको विचार कर परम उदार, जिन धर्मके ज्ञाता, द्रव्य, क्षेत्र, काळ भावको विचारनेवाले मुनिराजने उसके हाथका उसी दिन माहाग्वान लेना उचित समझा । किंचित् अतिचार पर ध्यान नहीं दिया। उसके सुधारका भाव अतिशय उनके परिणामसें था । )
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आहारके पश्चत् भावदेव मुनिगन अपने गुरु सौधर्म के पास, जो अनेक मुनिसंघ सहित वनमें तिष्ठे थे, ईपथ सोधते हुए चलने लगे तब नगरके कुछ लोग मुनिकी अनुमति विना ही विनय करनेकी पद्धति से मुनिगनके पीछे चलने लगे। वे लोग कितनी दूरतक गए फिर अपने प्रयोजन वशसे मुनिको नमस्कार करके अपने २ घर लौट पाए ।
भवदेव छोटा भाई भी मुनिके साथ पीछे २ गया था । वक्ष भोला यह विचारने लगा कि जब मुनि माज्ञा देंगे कि तुम जाओ तब मैं लौहूंगा। इसी प्रतीक्षा से अपने गौरववश पीछे २ चळा गया | मुनि महाराजने ऐसे वचन नहीं कहे न वह कह सके थे;
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स्वामी चरित्र
क्योंकि ये वचन हिंसा के घातक थे, वे खुनि धर्म - नाश से भयad थे व संयमादिक भलेप्रकार सदा रक्षा करते थे । इस तरह चलते चलते वह बहुत दूर चला गया। चयपि भवदेव मोक्षका प्रेमी होगया था तो भी उसके कणकी गांठ थी । उसका चित्त व्याकुलित होने लगा । वह वारवार भरने जन नवीन वधू नागबसूके सुखकमलको याद करता था । उसका पग मूर्च्छित मानवकी तरह लड़खड़ाता हुआ पड़ता था। घर लौटने की इच्छासे कुछ उपाय विचार कर वह भवदेव अपने भाई भावदेवसे किसी बहाने से बारबार कहने लगा कि - हे स्वामी ! यह वृक्ष हमारे नगरसे दो कोस दूर है आप स्मरण करें, यहां आप और हम प्रतिदिन कीड़ा करनेको खाते थे व बैठते थे । महाराज ! यह देखिये | कमलों से शोभित सरोवर है । यहां हम दोनों मोम्की ध्वनि सुनने को बैठते थे। स्वामी देखिये, यह नाना वृक्षोंसे संगठित लगाया हुआ बाग है जहां हम दोनों बड़े भाषसे पुष्प चुननेको आया करते थे ।
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कृपानाथ ! वह वह चांदनी के समान उज्वल स्थान है जहां हम सब गेंद खेला करते थे । (नोट- गेंद खेलने का रिवाज पुरातन है ) । इसतरह बहुत से वाक्योंसे भवदेवने अपना अभिप्राय कहा परन्तु भवदेव श्री मुनिराज के मनको जरा भी मोहित न करसका । मुनिराज मौनसे जारहे थे- न वचनसे हुंकार शब्द कहते थे न भुजाका संकेत करते थे। चलते चलते दोनों भाई श्री गुरुमहाराजके निकट पहुंच ६४
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गए। वे दोनों वृषभोंके समान धर्मरूपी रथकी धुराको चलानेवाले थे (भावार्थ-दोनों मोक्षगामी आत्मा थे) तब सब मुनियोंने भावदेव मुनिको कहा-हे महाभाग ! तुम धन्य हो जो अपने भाईको यहां इससमय लेभाए हो। ___ भावदेव मुनि भक्तिपूर्वक सौधर्म गुरुको नमस्कार करके अपने योग्य स्थानपर बैठ गए।
वहांके शांत वातावरणको देखकर भवदेव मपने मनमें विचारने लगा कि मैंने नवीन विवाह किया है। मैं यहां संयम धारण कर या लौटकर घरको नाऊँ ? सूझ नहीं पड़ता है क्या करूं? चित्तमें व्याकुल होने लगा, संशयके हिंडोलेमें झूलने लगा । अपने मनको क्षणभर भी स्थिर न कर सका। कभी यह सोचता था कि नवीन वधूके साथ घर जाकर दुर्लम इच्छित भोग भोगू । मेरे मनमें लज्जा है, इस बातको मैं कह नहीं सक्ता, तथा यह मुनीश्वरोंका पद बहुत दुर्द्धर है। कामरूपी सर्पसे मैं डसा हुणा हूं। मेरे ऐसा दीन पुरुष इस महान पदको कैसे धारण कर सकेगा ? तथा यदि मैं गुरू वाक्यका अमादा करके दीक्षा धारण न करूं तो मेरे बड़े भाईको बहुत लज्जा आयगी । इस तरह दोनों पक्षकी बातोंको विचार कर शल्यवान होकर यह सोचने लगा कि दोनों बातोंमें कौनसी बात करने योग्य है, कौनसी करने योग्य नहीं है, यही स्थिर किया कि इस समय तो मुझे जिन दीक्षा लेना ही चाहिये, फिर कभी भवसर होगा तो मैं अपने घर लौट भाऊंगा।
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egearnt परित्र
भवदेवको मुनिदीक्षा ।
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इस तरह कपट सहित वह भवदेव नतमस्तक होकर मुनि महाराजको कहने लगा कि- स्वामी ! कृपा करके मुझे अर्हत 'दीक्षा प्रदान कीजिये । मुनिराजने अवधि ज्ञानरूपी नेत्रसे यह जान लिया कि यह ब्राह्मण अपने मनके भीतरी अभिप्रायको छिपा रहा है । भोगोंकी अभिलाषा रखते हुए भी दीक्षा लेना चाहता है, यह भी जाना कि यह भविष्य में वैरागी हो जायगा ऐसा समझकर महामुनिने मुनिदीक्षा प्रदान करदी । भवदेवने सर्वके समक्ष निग्रन्थ दीक्षा धारण करली तौ भी उसका मन कामकी अभिरूपी शल्यसे रहित नहीं हुआ । उसके मनमें यह यात खटकती रही कि मैं कब उस तरुणी, चंद्रमुखी, मृगनयनी अपनी भार्याको देखूं जो मेरेवर मोहित हैं व मेरे विना दुःखी होगी, मेरा स्मरण भले प्रकार करती होगी, मेरे विना उसका चित्त सदा व्याकुल रहेगा । ऐसा मनमें चितवन करता रहता था तो भी बराबर ध्यान, स्वाध्याय, ज्ञान, तप व व्रतमें लगा रहता था ।
भवदेवका पत्नी प्रति गमन ।
बहुत काल पीछे एक दिन संघसहित सौधर्म गणी विहार करते हुए फिर उस वर्द्धमान नगर में पधारे। सर्वे ही संयमी मुनि नगरके बाहर उपवन के एकांत स्थानमें ठहर गए। जब अनेक मुनि शुद्धामाके ध्यानकी सिद्धिके लिये कायोत्सर्ग तप कर रहे थे तब भवदेव मुनि पारणा करनेके छळसे नगरकी तरफ चला । उसका चित्त इस ५६
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भावदेव प्रमाद रहित हो तप करते थे । कुछ काल पीछे भावदेव उसी नगर में गए और धर्मानुरागसे छोटे भाईंके समझानेको उसके घर गए । धर्मो देिश देकर उसे गुरुके पास ले आए ।
भवदेवने शुद्ध बुद्धि होनेपर भी शव्यसहित कज्जा से गुरुके पास दीक्षा लेली | जब किसी कारण से उसकी शल्य दूर होगई । तब वह मुनिराज के साथ २ चारित्रको पालता हुआ चारित्रका भंडार होगया | भावदेव भवदेव दोनों मुनिचारित्रको पालते हुए, अंतमें समाधिमरणपूर्वक प्राण त्याग कर तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुए। वढां उपपाद शय्या में अंतर्मुहूर्त में पूर्णयौवनवान होकर उठे और सातसागरपर्यंत मनोहर भोगोंको विना किसी विघ्न वाघाळे भोगते रहे । आयुके अंत में भावदेवके नीच तुम सो वज्रदंत राजाके घर में सागरचंद्र पैदा हुए। और भवदेवका जीव चक्रवर्तीके घर में शिवकुमार नामका पुत्र हुआ है जो सूर्य के समान तेजस्वी है । तुम्हारे दर्शन मात्र से उसको अपने पूर्वभवका स्मरण होजायगा और वह संसार शरीर भोगों से विरक्त होजायगा ।
इसतरह कुमारने मुनिराज से अपने पूर्वभव सुने । संसारको असार जानकर अपना मन धर्मसाधन में तत्पर कर दिया। वह विचारने लगा कि इस जगत में सर्व ही प्राणी जन्म, मरण, जराके स्थान हैं । इस जगत के भोगोंमें कुछ सार नहीं है, सार यदि कुछ है तो वह मुक्ति सुखको देनेवाला दयामई जैनधर्म है। उसी धर्मकी सेवासे इन्द्रियोंके व कषायके मदको दमन किया जासक्ता है। जो कोई
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जबूस्वामी चरित्र
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मात्मीक सुखको चाहता है उसे इसी जैन धर्मका सेवन करना चाहिये । कहा है
सारोऽस्त्यत्र दयाधर्मों जैनो मुक्तिसुखपदः । स चेन्द्रियकषायाणां दुर्मदे दमनक्षमः ॥ ९५ ॥
सागरचन्दका मुनि होना। इस तरह विद्वान सागरचन्द्रने विचार कर श्री मुनिराजके पास जिनेन्द्रकी मुनि दीक्षा धारली। यह सुख दुःखमें, शत्रु मित्रमें, महक मशानमें, जीवन मरणमें समभावका धारी होगया। परम शांत होगया । बाह्य और अभ्यन्तर बारह प्रकारका तप बड़े यत्नसे करने कगा। परीषह व उपसगाके पड़नेपर भी अपने मनको समाधिसे चंचल न कर सका । ध्यानमें स्थिर रहा । तपके साधनसे उसको चारण ऋद्धि सिद्धि होगई, वह श्रुतकेवली होगया। एक दफे विहार करते हुए वे सागरचन्द्र मुनि वीतशोकापुरीमें पधारे ।
मध्याह्न कालमें (अर्थात् ९ से ११ के मध्य ) ईर्यापथकी शुद्धिसे वह नगरमें विधिपूर्वक विनयसे पारणाके लिये गए । राजमहलके निकट किसी सेठका घर था। उस सेठने शुद्ध भावोंसे पाहार दिया। मुनिराजने नवकोटि शुद्ध प्रासको शांतिपूर्वक ग्रहण किया । मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदना रहितको नवकोटि शुद्ध कहते हैं।
मुनिराज ऋद्धिधारी थे। मुनिदानके महास्यसे दातारके पवित्र घरके सांगणमें आकाशसे रत्नोंकी वृष्टि हुई। इस बातको देखकर
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जम्बूस्वामी चरित्र
वहांके सर्व जन परस्पर बातें करने लगे। यह क्या हुभा, सबको बड़ा ही माश्चर्य हुमा । परस्पर वादविवाद करनेपर बड़ा कोलाहल हुमा । शिवकुमारने अपने महलमें सब वृत्तान्त सुना। वह महलके ऊपर माया और मानन्दसे कौतुकपूर्वक देखने लगा । मुनिराजका दर्शन करके चित्तमें आश्चर्यपूर्वक विचारने लगा। महो । मैंने किसी भवमें इन मुनिराजका दर्शन किया है। पूर्व जन्मके संस्कारसे मेरे मनमें स्नेह भर गया है और बड़ा ही मारहाद होरहा है। इसलिये मैं जाऊं और अपना संशम मिटाने के लिये मुनिगजसे प्रश्न करूँ।
शिवकुमारको जाति स्मरण । ऐसा विचारता ही था कि इतने में उसको पूर्वजन्मका स्मरण होगया। उसी समय पूर्वजन्मका सब वृत्तान्त जानकर उसने यह निश्चय कर लिया कि यह मेरे पूर्वमवके बड़े भाई हैं। भाष यह तपस्वी महामुनि हैं । इन्होंने ही कृपा करके मुझे धर्ममें स्थापित किया था। उस धर्मके साधनसे पुण्य बांधकर पुण्यके उदयसे मैं परम्परा सुखको पाता रहा हूं। मैंने तीसरे स्वर्गमें देव होकर महान भोग भोगे और मन सर्व सम्पदासे पूर्ण चक्रवर्ती के घरमें जन्मा हूं। यह मेरा सच्चा भाई है, इस लोक पर लोकका सुधारनेवाला है। इस तरह बुद्धिमान शिवकुमारने पूर्वभवका सर्व वृत्तान्त स्मरण किया और उसी क्षण में मुनिराजके निकट भागया । मुनिवरको देखकर शिवकुमारकी मांखों में प्रेमसे मांसू निकल आए। जैसे वह मुनिराजके पास गया, प्रेमके उत्साहके वेगसे वह मूर्छित होगया ।
चक्रवर्तीने जब यह सुना कि शिवकुमारको मूर्छा भागई है
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जम्बूस्वामी चरित्र
तब वह उसी क्षण माया और मोहसे मांसू भरकर रोने लगा। और यह कहने लगा-हे पुत्र! तुने यह अपनी क्या व्यवस्था की है। इसका क्या कारण है ? शीघ्र भयहारी वचन कह ! क्या अपनी स्त्रीके स्नेहले थातुर हो लताके समान श्वास ले लेकर कांप रहा है। क्या किसी स्त्रीका नवीन अवलोकन किया है, जिसके संगमके लिये रुदन कर रहा है ? क्या तुझे तरुणावस्थामें कामभावकी तीव्रता होगई है, जिससे भातुर हो जल रहा है ? क्या किसी स्त्रीके वचनोंको व उसके गुणोंको स्मरण कर रहा है ! इतनेमें सर्व नगरके मनुष्य मागए। देखकर व्याकुलचित्त होगए। दुःसह शोक पृथ्वीपर छागया। सबने अन्न पानी त्याग दिया। ठीक है, पुण्यवान पदार्थको कोई हानि पहुंचती है तो सबको उद्वेग होजाता है।
___ फिर किसी उपायसे चेतनता आगई, मूर्छा टक गई। कुमार प्रातःकालके सूर्य के समान जागृत होगया । सर्व लोग पूछने लगे-हे कुमार ! मूर्छा मानेका क्या कारण है ? शीघ्र ही यथार्थ कह जिससे सबको सुख हो, चिंता मिटे। तब शिवकुमारने मंत्रीके पुत्र हदरथको जो उसका मित्र था, एकांतमें बुलाकर अपने मनका सब हाल वर्णन कर दिया। ठीक है, चिंतारूपी गूढ रोगसे दुःखी जीवोंके लिये मित्र बड़ी भारी औषधि है, क्योंकि मित्रके पास योग्य व अयोग्य सर्व ही कह दिया जाता है। कहा है:
चिंतागढ़गदार्तानां मित्रं स्यात्परमौषधम् । यतो युक्तमयुक्तं वा सर्वं तत्र निवेद्यते ॥ १५ ॥
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जम्बूस्वामी चरित्र
शिवकुमारने मित्रसे अपना गूढ़ हाल कह दिया कि हे मित्र ! मैं संसारके भोगोंसे भयभीत हुमा हूं। मैं नाना योनियोंके मावर्तसे भरे हुए महा भयानक इस दुस्तर संप्तार समुद्रसे पार होना चाहता ई। उसके अभिप्रायको जानकर हढवयंने चक्रवर्तीको सर्व वृत्तांत कह दिया कि महाराज ! शिवकुमार तप करना चाहता है।
शिवकुमारको वैराग्य। हे महाराज ! यह निकट भव्य है, शुद्ध सम्यग्दृष्टी है, यह राज्यसम्पदाको अपने मनमें तृणके समान गिनता है, यह भाज बिलकुल विरक्त चित्त है, सर्व भोगोंसे यह उदासीन है, इसका जरा भी मोह न धनमें है न जीवनमें है । यह अपने आत्माके स्वरूपका ज्ञाता है, तत्वज्ञानी है, विद्वानों में श्रेष्ठ है । यह जैन यतिके समान सर्व त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यको जानता है । इसका मन मेरु पर्वतके समान निश्चल है, यह परम दृढ़ है। किसीकी शक्तिनहीं है जो रागरूपी पवनसे इसके मनको डिगा सके। इसको इस समय पूर्व जन्मके संस्कार से वैराग्य होगया है। इसका भाव सर्व जीवोंकी तरफ रागद्वेष शल्यसे रहित सम है, यह संशय रहित जिनदीक्षा लेना चाहता है।
चक्रवर्ती इन कठोर बनके घातके समान वचनोंको सुनकर चित्तमें मतिशय व्याकुल होगया। इसका मोहित हृदय विंध गया। मांखोमेसे बलपूर्वक भांसकोंकी धारा बह निकली। गदगदू वचनोंको दीन भावसे कहता हुमा रुवन करने लगा। मेरा बड़ा दुर्भाग्य है !
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मयूस्वामी चरित्र मैंने विचार कुछ किया था, देवके उदयसे कुछ और ही होरहा है। 'जैसे कमलके बीच में सुगंधकी इच्छासे बैठा हुआ भ्रमर हाथीद्वारा कमल मुखमें लेनेपर प्राण खो बैठता है। वह कहने लगा किहे पुत्र ! तुझको यह शिक्षा किसने दी है ? तेरी यह बुद्धि विचारपूर्ण नहीं है। कहां तेरी बाल अवस्था व कहां यह महान मुनिपदकी दीक्षा ? यह कार्य असंभव है, कभी नहीं होसक्ता है। इसलिये है पुत्र ! इस साम्राज्यको ग्रहण करो जिसमें सर्व राजा सदा नमन फरते हैं । देवोंको भी दुर्लभ महाभोगोंको भोगो !
. शिवकुमारका उपदेश। इत्यादि पिताके वचनोंको सुनकर उसने घरमें रहना स्वीकार किया तथा कोमल वाणीसे कहने लगा-हे तात ! इस संसाररूपी बनमें प्राणी कोंके उदयसे चारों गतियोंमें भ्रमण करते रहते हैं। कहीं भी निश्चल नहीं रह सक्ते। कभी यह जीव नारकी होता है। फिर कभी पशु होजाता है फिर मनुष्य होजाता है। कभी आयुके क्षयसे मरके देव होता है। इसी तरह देवसे नर व तिर्यच होता है । हे तात ! न कोई किसीका पुत्र है न कोई किसीका पिता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उठती व बैठती हैं वैसे इस संसारमें प्राणी जन्मते व मरते हैं।
हे पिता! यह लक्ष्मी भी उत्तम वस्तु नहीं है। महा पुरुषोंने भोग करके इसे चंचला जान छोड़ दी है। यह रक्ष्मी वेश्याके समान चंचल है। एकको छोड़कर दूसरेके पास चली जाती है । इस लक्ष्मीका
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जम्बूस्वामी चरित्र
विश्वास क्षण मात्र भी नहीं करना चाहिये। यह ठगनीके समान फसानेवाली है, व अनेक दुःखोंमें पटकनेवाली है। इन्द्रियों के भोग सर्पके रमण समान शीघ्र ही प्राणों के हरनेवाले हैं। यह जवानी जिसे भोगोंको भोगनेका स्थान माना जाता है, स्वमके समान या इन्द्रजालके समान विला जाती है, ऐसा प्रत्यक्ष भी दिखता है। तथा भूतकालके ज्ञानका स्मरण भी इसे देखकर होता है। यदि यह राज्यलक्ष्मी उत्तम थी तो महान ऋषियोंने क्यों इसका त्याग किया। पूर्वकालका चरित्र सुनाई पडता है कि पहले बड़े बड़े ज्ञानी श्रीमान ऐश्वर्यवान होगए हैं, उन्होंने सर्व परिग्रह व राज्यको त्यागकर मोक्षके लिये तप स्वीकार किया था। हे तात ! ये भोग भोगने योग्य नहीं हैं। ये वर्तमानमें मधुर दीखते हैं, परन्तु इनका फल या विषाफ कडवा है। इन भोगोंसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है।
धर्म वही है जहां अधर्म न हो, पद वही है जिसमें कोई भापत्ति न हो । ज्ञान वही है जहां फिर कोई अज्ञान च हो । मुख वही है जहां कोई दुःख न हो।
भावार्थ-वीतराग विज्ञान धर्म है, मोक्षपद ही उत्तम पद है, केवल ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है, मतीन्द्रिय मात्मीक सुख ही सुख है।
स धर्मों यत्र नाधर्मस्तत्पदं यत्र नापदः । तज्ज्ञानं यत्र नाक्षानं तत्सुखं यत्र नामुखम् ॥ १५१॥ बुद्धिमान चक्रवर्ती इस तरह बोधप्रद पुत्रके वचनोंको सुनकर
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जम्बूस्वामी चरित्र
-पुत्रके मनकी बातको ठीक ठीक जान गया। उसको निश्चय होगया कि यह मेरा पुत्र संसारसे भयभीत है, वैराग्यसे पूर्ण है, यह अपना यात्महित चाहता है, यह अवश्य उग्र तप ग्रहण कर मोक्षको प्राप्त करेगा, ऐसा जानकर भी मोहके उदयसे चक्रवर्ती कहने लगाहे पुन ! जैसी तुम्हारी दया सर्व प्राणियों पर है वैसी दया मुझपर भी करो। सौम्य ! एक बुद्धिमानीकी बात यह है कि जिससे तुम्हें तयकी सिद्धि हो और मैं तुम्हें देखता भी रहूं इसलिये हे पुत्र ! घरमें रहकर इच्छानुसार कठिन २ तप व्रत भादि अपनी शक्तिके अनुसार साधन करो।
शिवकुमार घरमें ब्रह्मचारी। हे पुत्र ! यदि मनमें रागद्वेष नहीं है तो वनमें रहनेसे क्या? और यदि मनमें रागद्वेष है तो वनमें रहनेका क्लेश वृथा है । इत्यादि पिताके वचनोंको सुनकर शिवकुमारका मन करुणामावले पूर्ण होगया। वह कहने लगा हे तात! जैसा भाप चाहते हैं वैसा ही मैं करूंगा। उस दिनसे कुमार सर्व संगसे उदास हो एकांतमें घन्में रहने लगा, ब्रह्मचर्य पालने लगा, एक वस्त्र ही रखा, मुनिके समान भावोंसे पूर्ण व्रत पालने लगा। यह रागियोंके मध्य में रहता हुआ भी कमल पत्ते के समान उनमें राग नहीं करता था । अहा ! यह सब सम्यग्ज्ञानकी महिमा है । महान पुरुषों के लिये कोई बात दुर्लभ नहीं है। कहा है
कुमारस्तदिनानूनं सर्वसंगपरांगमुखः । ब्रह्मचार्यैकवस्त्रोऽपि मुनिवत्तिष्ठते रहे ॥ १३० ॥
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जम्बूस्वामी चरित्र
अकामी कामिनां मध्ये स्थितो वारिजपत्रवत् । अहो ज्ञानस्य माहात्म्य दुर्लभ्य महतामपि ॥ १६१ ॥
कभी वह एक उपवास करके पारणा करता था, कभी दो दिनके पीछे, कभी एकपक्ष, कमी एक मासका उपवास करके माहार करता था । वह शुद्ध प्राशुक माहार, बहुधा जल व चावल लेता था। जिसमें कृत व कारितज्ञा दोष न हो ऐसा माहार हदवर्म मित्र द्वारा भिक्षासे लाया हुआ ग्रहण करता था। (नोट-ऐसा मालूम होता है दृढ़वर्म मित्र भी क्षुल्लक होगया था। वह भिक्षासे भोजन काता था। उसे ही दोनो ग्रहण करते थे । एक या अनेक घरोंसे लाया हुभा भोजन लेना क्षुल्लकों के लिये विधिरूप था। कहा है
प्राशुकं शुद्धमाहारं कृतकारितवर्जितम् । आदत्त भिक्षयानीतं मित्रण दृढवर्मणा ॥ १६३॥
उस कुमारने घरमें रहते हुए भी तीव्र तपकी अमिमें काम, क्रोधादिको ऐसा जला दिया था कि ये भाग गए थे, फिर निष्ट नहीं भाते थे। इस तरह शिवकुमार महात्माने पापसे भयभीत होकर चौसठ हजार वर्ष ६४००० वर्ष तप करते हुए पूर्ण किये। मायुका मन्त निकट देखकर वह नग्न दिगम्बर मुनि होगया। उसने इन्द्रियोंको जीतकर चार प्रकारके माहारका त्याग कर दिया। इस तपके करनेसे शुभोपयोग द्वारा बांधे हुए पुण्यके फलसे वह छठे ब्रमोचर स्वर्गमें मणिमादि गुणोंसे पूर्ण विद्युन्माली नामका इन्द्र उत्पन्न हुमा। इसकी दश सागरकी भायु हुई । अब उसके पास बेचार महादेवी
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जम्बूस्वामी चरित्र विधमान हैं । वही विद्युन्माली यहाँपर स्वर्गमें इंद्रके समान शोभ रहा है। यह सम्यग्दृष्टी है । इस सम्यग्दर्शनके पतिशयसे इसकी क्रांति मलीन नहीं हुई। (नोट-इससे सिद्ध है कि मिथ्यादृष्टी देवोंकी ही माला मुरझाती है, शरीरकी शोमा कम होती है, आभूषणोंकी चमक घटती है, परन्तु सम्यग्दृष्टी देवोंकी शोभा नहीं घटती है; क्योंकि उनके मनमें वियोगका दुःख व शोक नहीं होता है। सम्यक्तीको वस्तु स्वरूपके विचारसे इष्ट वियोगका व मरणका शोक नहीं होता है । ) कहा है-.
सोऽयं प्रत्यक्षतो राजन राजते दिवि देवराट् । नास्य कांतिरभूत्तुच्छा सम्यक्त्वस्यातिशायितः ॥१६९॥
सागरचन्द्र मुनिने भी व्रतमें तत्पर रहकर समाधिमरपूर्वक शरीर छोड़ा । उसका जीव भी छठे स्वर्गमें जाकर प्रतीन्द्र हुभा । वहां भी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी नाना प्रकार सुखकी इच्छापूर्वक विना बाधाके दीर्घ कालतक भोग किया।
धर्मके फलसे सुख होता है, उत्तम कुल होता है, धर्मसे ही शील व चारित्र होता है। धर्मसे ही सर्व सम्पदाएं मिलती हैं, ऐसा जानकर हरएक बुद्धिमानको योग्य है कि वह प्रयत्न करके धर्मरूपी वृक्षकी सदा सेवा करे । कहा है
धर्मात्सुखं कुलं शीलं धर्मात्सर्वा हि संपदः । इति मत्वा सदा सेव्यो धर्मक्षा प्रयत्नतः ।। १७२ ।।
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जम्बूस्वामी चरित्र
चौथा अध्याय ।
जम्बूस्वामीका जन्म व बालकीड़ा । ( श्लोक १६० का भावार्थ )
सर्व विघ्नोंकी शांति के लिये प्रकाशमान सुपार्श्वनाथको चन्दना करता हूं । तथा चन्द्रमाकी ज्योतिके समान निर्मल यशके धारी श्री चंद्रप्रभ भगवानको मैं नमस्कार करता हूं । चार देवियों के पूर्वभव |
श्रेणिक महाराज विनय पूर्वक गौतम गणधर को पूछने लगे कि इस विद्युन्माली देवकी जो ये चार महादेवियां हैं वे किस पुण्यसे देवगतिषे जन्मी हैं. मेरे संशय निवारणके लिये इनके पूर्वमत्र वर्णन कीजिये | योगीश्वर विनयके आधीन होजाते हैं, इसलिये श्री गौत
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मामीने उनका पूर्वभव कहना प्रारम्भ किया । वे कहने लगे - हे श्रेणिक ! इसी देश में चंपापुरी नामकी नगरी थी, वहां धनवानोंमें मुख्य सुरसेन सेठ था । उस सेठके चार स्त्रियां थीं । उनके नाम थे जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी, यशोमती । इन महिलाओंके साथ यह सेठ बहुत काल तक सुख भोगता रहा, जबतक पुण्यका उदय रहा। फिर तीव्र पापके उदय से सेठका शरीर रोगमई होगया, एक साथ. ही सर्वरोगों का संयोग होगया । कास, श्वास, क्षय, जलोदर, भगंदर, गठिया आदि रोग प्रगट होगए । जब शरीर में रोग बढ़ गए तब शरीस्की धातुएं विशेषरू होगईं। उस सेठ के भीतर अशुभ वस्तुओंकी तीव्र. अभिलाषा पैदा होगई । रोगी होनेसे उसका ज्ञान भी मंद होगया। वह
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जम्बूस्वामी चरित्र अपनी स्त्रियोंको मुट्ठीसे व ककड़ीसे मारने कगा। वह दुर्बुद्धि मकस्मात् श्रांतिवान् होगया। मस्तिष्क बिगड़ गया। खोटे दुष्ट वचन कहने कगा-तुम्हारी पास कोई जार पुरुषको खड़े देखा था। फिर कभी देखूगा तो तुम्हारे नासादिको छेद डालूंगा व प्राण ले लूंगा । इत्यादि कर्णभेदी शस्त्र के समान कठोर वचन स्त्रियोंको कहता था, पापके उदय शैद्रध्यानी होगया।
बे चारों बहुत दुःखी हुई अपने जीवनको धिक्कार युक्त मानने लगी। एक दफे वे तीर्थयात्राके लिये घरसे वनमें गई। वहां श्री वारपूज्यम्वामीका महान् मंदिर था, उसको देखकर भीतर जाकर श्री जिनविग्बों के दर्शन करके मानने लगी कि भाज हमारा जन्म सफल हुआ है, आज हम कृतार्थ हुए। वहां मुनिराज विराजमान थे. उनके मुखाविदसे धर्म व धर्मका फल सुना व गृहस्थ श्रावकके व्रत प्रण किये । व्रत लेकर वे घर लौट आई। इतने महापापी सूरसेनका मरण होगया।
ला चारोंने अपना सर्व धन धर्मबुद्धिसे एक महान् जिनमंदिर बनानेसें खर्च कर दिया। फिर वैराग्यवान होकर चारोंने गृहका त्याग करके मार्यिकाके व्रत धारण कर लिये। शास्त्रानुसार उन्होंने तीव्र तप किया। अतः शुभ भावों से पुण्य बांधकर उसी छठे ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें देवियां पैदा हुई और इस विद्युन्माली देवकी वे प्राणधारी महादेविणं होगई।
श्रेणिक महाराज इस धर्मकथाको सुनकर बहुत ही प्रमुदित
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जम्बूस्वामी चरित्र
हुए। फिर मनमें विचार किया कि एक और प्रश्न करें। स्वामी। भाज भागने यह भी कहा था कि विद्युन्मालीका जीव जब मानकभवको ग्रहण करेगा र विद्युञ्चर नाम चोर भी उनके साथ तप ग्राण करेगा ! यह दिइच्छर कौन है, उसका क्या कुल है, चोरीकी आदत कैसे पड़ी, फिर वह मुनि कैमे होगा, विद्वद्वर ! कशा करके इसका सब वृत्तांत कहिये । मैं धर्मफलकी प्राप्तिके लिये विस्तार सहित सुनना चाहता हूं।
श्री महावीर तीर्थकरके दयारूपी जलसे पूर्ण समुद्र के समान गंभीर श्री गौतमलामी कहने लगे-हे श्रेणिक ! धर्मका अदभुत महाल्य है। तृ श्रवण कर।
विद्युच्चरका वृत्तांत । इसी मगधदेश हस्तिनागपुर नामका महान नगर है, जो स्वर्गपुरी समान है। वहां संवर नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी प्रियवादिनी कामकी खान श्रीषणा थी। उसका पुत्र विद्युच्चा पैदा हुका । यह बहुत विद्वान् होगया । जैसे जैसे कुमार भवस्था माती गई यह भनेक विद्यामोंको सीख गया । इसको जो कुछ भी विज्ञान सिखाया जाता था, जल्दी ही सीख लेता था। रात दिन अभ्यास करनेसे कौनसी विद्या है जो प्राप्त न हो ? यह शस्त्र व शास्त्र सर्व विद्यामों में निपुण हो गया । - किसी एक दिन इसके भीतर पापके उदयसे यह खोटी बुद्धि उत्पन्न हुई कि मैं चोरी करना नहीं सीखा, उसका भी अभ्यास
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अनुस्वामी चरित्र करना चाहिये, ऐसा विचारकर वह एक रात्रिको अपने पिताके ही महल में धीरे २ चोरकी बरह गया। बड़ी बुद्धिमानीसे बहुत मूल्य रत्न उठा लिये । उन रत्नों का बड़ा भारी प्रकाश था। जब वह लौटने लगा तब उसको किसीने देख लिया। इस दर्शकने सबेरा होते ही राजाके सामने कुमारकी चोरीका वृत्तांत कह दिया । सुनकर दाजाने उसे उसी समय बुलवाया। कर्मचारी दौडक्षर उसको ले
आए । वह वीर सुभटके समान धैर्य के साथ सामने भाकर खड़ा होगया। तब राजाने मीठी वाणीसे पुत्रको समझाया-है पुत्र ! चोरीका काम बहुत बुग है। तूने यह चोरी किसलिये भी यदि तु भोगोंको भोगनेकी इच्छा करता है तो मेरी क्या हानि है। तु अपनी स्त्रियों के साथ इच्छित भोगोंको भोग । जो बस्तु कहीं नहीं मिलेगी सो सब मेरे घाई सुलभ है | जो तुझे चाहिये सो गृहण कर ले, परन्तु इस चोरी कर्मको तू न कर। यह बहुत निघ है, इसलोक व परलोक में दुःखदाई है, सर्व संतापका कारण है, तू तो महान विवेकी है, ऐसे कामको कभी न कर ।
पिताके ऐसे उपदेशपद वचनोंको सुनकर भी उसको शांतिम मिली। जैसे ज्वरसे पीड़ित प्राणीको शकरादि मिष्ट पदार्थ नहीं सुहाते हैं। वह दुष्ट चोरीका प्रेमी अपने पिताको उत्तरमें कहने लगा कि महाराज! चोरी कर्म व राज्यमें बहुत बड़ा भेद है। राज्यमें कक्ष्मी परिमित होती है। चोरी करनेसे अपरिमितका लाभ होता है। इन बोलोंमें समानता नहीं है। इसलिये चोरीके गुणको ग्रहण करना
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जम्बूस्वामी चरित्र उचित है । कर्तव्य व कर्तव्यका विचार न करके पिताके वचनका उल्लंघन कर वह दुष्ट घर से उदास होकर राजगृही नगरको चल दिया। वहां कांपलता नामकी वेश्या बहुत सुंदर काम भावसे पूर्ण थी, उसके रूपमें भासक्त होगया । उस वेश्या के साथ इच्छित भोगोंको भोगने लगा । वह कामी विद्युश्वर चोर रात दिन चोरी करके जो धन लाता है वह सब वेश्याको दे देता है ।
जम्बूस्वामी जन्मस्थान ।
भगवान गौतमके मुखसे इस प्रश्नके उत्तरको सुन कर राजा श्रेणिक बहुत संतुष्ट हुआ। फिर प्रश्न करने लगा - हे भगवान् ! बापने जो इस विद्युन्माली देवकी कथा कही थी, उसमें कहा था कि मासे सातवें दिन यह इस पृथ्वीतलपर जन्मेगा, सो यह किस पुण्यवानके घरको अपने जन्म से भूषित करेगा ? जगत के स्वामीने उसके प्रश्न यह समाधान किया कि इसी राजगृह नगर में धनसम्पन्न अर्हदास सेठ रहता है जो जैनधर्म में तत्पर हैं। उसकी स्त्री स्वरूपवान जिनमती नामकी है, जो धर्मकी मूर्ति है, महान साध्वी है । जैसे उत्तम विद्या मानवको सुखदाई होती है, वैसे वह सुखको देनेवाली है । कहा है:
तस्य भार्या सुरूपाया नाम्ना जिनपती स्मृता । धर्ममूर्तिर्महासाध्वी सद्विद्येव सुखावहा ॥ ५२ ॥ उस जिनमती के पवित्र गर्भमें पुण्योदयसे यह अवतार धारणकरेगा । यह सम्यग्दर्शन से पवित्र है । इसका आत्मा भवश्य मोक्षरूपी स्त्रीका स्वामी होगा ।
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जबुस्वामी चरित्र
___ वहां कोई यक्ष बैठा था, वह यह सुनकर भानंदसे पूर्ण हो नृत्य करने लगा। हे स्वामी ! ऐ केवलज्ञानी! हे नाथ! जय हो, जय हो, मापले प्रसादसे मैं लतार्थ होगया। मैंने पुण्यका फल पालिया। उसका कुल बन्छ है, प्रशंसनीय है, जहां केवलोका जाप हो, उस कुको सूर्य के समान केवलज्ञानले वह प्रकाशित होगा। वही पवित्र देश है, वही शुभ नगर है, वही कुल पवित्र है, वही घर पावन है, जहां सदा धर्मका प्रवाह रहता है। कहा है:
स एव पाबनो देशस्तदेव नगरं शुभम् । तत्कुलं तद्गृहं पूतं यत्र धर्मपरंपरा ॥ ५७ ॥
जम्बूस्वामी कुलकया। वह यक्ष अपने भासनपर खड़ा खड़ा बाबा हर्षले नृत्य करने लगा। तब श्रेणिकने पूछा कि महाराज! यह यक्ष क्यों नृत्य कर रहा है ? गौतम गणेशशज श्रेणिकर कहने लगे-इसी नगरमें एफ श्रेष्ठ बणिक पुत्र था, जिसका नाम धनदत्त था जो सौम्यपरिणामी था व धन कुबेरके समान था । उसकी स्त्री सुन्दर गोत्रमती नामकी थी, उसके दो पुत्र थे । बड़ेशा नाम अर्हदास जो बहुत बुद्धिमान है। छोडेका नाम जिनदास था, जो चंचल बुद्धि था ? पापके तीन उदयसे वह सर्व जुआ आदि व्यसनोंमें फंस गया : यह दुर्बुद्धि मांस खाने लगा, मदिरा पीने लगा, वेश्यासेवन करने लगा ! पापी जुआ मी रमने लगा। उसका सर्व कर्म निंदनीय हो गया। इधर उधर दुःखदाई चोरीका धर्म भी करने लगा। भषिक क्या-पहा जावे।
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जम्बूस्वामी चरित्र
उसका आचरण सर्व बिगड़ गया। जगतमें प्रसिद्ध है, एक जूएके
व्यसन में फंसकर युधिष्ठिर आदि पांडुपुत्रोंने दुःखोंको भोगा, परन्तु जो कोई इन सर्वे ही वह इस लोक में नाज व कल अवश्य दुःख भोगेगा व परलोक में भी पापके फलसे दुःख सहन करेगा । कहा है:--
अहो प्रसिद्धिलोकेऽस्मिन् द्यूताद्धर्मसुतादयः ।
राज्यभ्रष्ट होकर महान व्यसनोंमें लोलुप होगा
एकस्माद्वयसनान्नष्टाः प्राप्ता दुःखपरम्पराम् || ६६ ॥ अयं सर्वैः समयैस्तु व्यसनैर्लोलमानसः । अद्य श्वो वा परश्वश्च ध्रुवं दुःखे पतिष्यति ॥ ६७ ॥ इस तरह नगर के लोग परस्पर बातें करते थे । उसके जातिवाले उसको शिक्षा देनेके लिये दुर्वचन भी कहते थे ।
इमतरह एक दिन जुआ खेलते२ जिनदास इतना सुवर्ण हार गया जितना उसके घर में भी नहीं था। तब जीतनेवाले जुआरीने जिनदासको पकड़कर कहा कि शीघ्र मुझे जितना तूने द्रव्य हारा है, दे । जिनदास तीव्र धनकी हारसे माकुलित हो विना विचार किये हुए कठोर वचनोंसे उत्तर देने लगा - तू चाहे जो वध बन्धन आदि करे, मेरे पास आज इतना सुवर्ण देने को नहीं है । मैं अपने प्राणोंका अंत होनेपर भी नहीं दूंगा। जिनदासके वचन सुनकर वह क्षत्रप जुआरी कोष भर गया । कहने लगा कि मैं माज ही सर्व सुवर्ण लूंगा, नहीं तो तेरे प्राण लूंगा । तू ठीक समझ - दूसरी गति नहीं होती । परस्पर कड़ाई झगड़ा होने लगा । बड़ा भारी कोलाहल होगया ।
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जम्बूस्वामी चरित्र
दुष्ट क्षत्रियने क्रोध के आवेशमें जाकर अपनी तलवार से जिनदासको मारा । वह जिन्दास मूर्छा खाकर गिर पड़ा। तब वह सत्रिय अपनेको अपराधी समझकर मारा गया । इतने में नगर के बहुत लोग वहां देखनेको भागए । जिनदासका भाई अर्हदास भी आया | आईको मूर्छित देखकर व्याकुल चित्त हो उसे यत्नपूर्वक अपने घर लेगया । शस्त्र वैद्यको बुलाकर उसकी चिकित्सा कराई परन्तु जिनदासका समाधान नहीं हुआ। ठीक है जब दुष्ट कर्मरूपी शत्रुका उदय होता है तब सब उपाय वृथा जाता है । जैसे दुर्जन पुरुष के साथ किया हुआ उपकार उसके स्वभावसे वृथा ही होता है । कहा है
Co
उदिते दुष्टकर्मारौ प्रतीकारो वृथाखिलः ।
निसर्गतः खले पुंसि कृताप्युपकृतिर्यथा ॥ ७९ ॥
उसको ज्ञान देने के लिये बर्हदास जैन सूत्र के अनुसार धर्मभरी वाणी कहने लगा- हे भ्रात ! इस संसाररूपी समुद्र में मिथ्याष्टी दुष्ट जीव सदा भ्रमण किया करता है, व महादुखोंको सहता है । इस जीवने संसार में अनंतवार द्रव्य, क्षेत्र, काक, भव, भाव इन पांच परिवर्तनोंको किया है। पापबंध के कारण भाव मिथ्यात, विषयभोग, कषाय व मनवचन कायके योग हैं, इनमें भी जुआ मादिके व्यसन तो दोनों कोक में निन्दनीय हैं। जूमा आदिके व्यसनोंमें जो फंस जाते हैं उनको इसलोक में भी वध बंधन आदि कष्ट होता है व परलोक में महान असाताकर्म उदयमें आकर तीव्र दुःख होता है ।
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अम्पस्वामी चरित्र
हे भाई! तूने प्रत्यक्ष ही द्युत कर्मका महान खोटा फल प्राप्त कर लिया। यह भी निश्चयसे जान, तू परकोक्में भी तीव दुःख पावेगा। मईदासके वचनोंको सननेसे जिनदासका मन पापोंसे मयभीत होगा। रोगातुर होनेपर भी उसकी रुचि धर्मामृत पीनेमें होगई।
जिनदासने अहवासकी तरफ देखकर कहा कि वास्तवमें मैंने बहुन खोटे काम किये हैं। मैंने व्यसनोंके ममुद्रमै मगन होकर अपना समय घृभा खो दिया। हे भाई! मैं अपराधी हूं, मेरा त उद्धार कर । इस लोक में जैसा त मेरा सच्च हितैषी वधु है वैसा हे धर्मात्मा! तु मेरी पालो में भी सहायता कर। मईदास भी मिनदासके वरूणापूर्ण वचन सुनकर शुद्ध बुद्धि धारकर उपका धर्म साधन हो वैसा उआय करने लगा। मईदासके उपदेशसे जिनदासने श्रावको मणुवन ग्रहण कर लिये और तन समाधि. मरणसे मरके पुण्यके उत्यमे यह यक्ष हुआ है। इसीलिये हे राजन् ! मेरे व क्यों को सुनकर यह नाच रहा है। उसके मनमें बढ़ा हर्ष है कि मेरे वंशमें मंतिम सेवलीका जन्म होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। यह विद्युन्मालीदेवका जीव महदास सेटका पुत्र जन्मेगा और यही जम्वृस्वामी नामका पारी अंतिम केवली होगा। ___ हे राजन् ! जम्बुस्वामीकी कथा बड़े मुनींद्र सत्धर्मकी प्राप्तिके हेतु वर्णन करेंगे । श्रेणिक महागज इस प्रकार भगवानकी दिव्यवाणी सुनकर व अपने इच्छित प्रश्नोंका समाधान करके बहुत प्रसन्न हमा । मोर घर लौटने की इच्छा करके भी जिनेन्द्रकी स्तुति गण
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जम्बूस्वामी चरित्र
च पद्यमें करने लगा । भगवत् के गुणों का स्मरण किया । स्तुतिके कुछ वाक्य ये हैं- हे देव महादेव ! जय हो, जय हो । केवलज्ञान नेत्रके धारी भगवान की जय हो। आप दया के सागर हैं, सर्व पाणी मात्र के हित कर्तार हैं । हे देवाधिदेव ! आपकी जय हो, जापने घातीय कर्मों का नाश कर दिया है, आपने मोहरूपी योद्धाको जीतकर वीरत्व प्रगट किया है, आप धर्मरूपी तीर्थ के प्रवर्तन करनेवाले हो । हे स्वामी ! आपके समान तीन जगत में कोई शरण नहीं है । हे विभु ! जब तक मैं आपके समान न हो जाऊं, तब तक मुझे आपकी शरण प्राप्त हो । कहा है : -
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यथा त्वं शरणं स्वामिन्नस्ति त्रिजगतामपि । तथा मे शरणं भूयाद्यावत्स्यां त्वत्समो विभो ॥ ९८ ॥
इस तरह स्तुति करके श्रेणिक राजा अपने नगर में प्रयाण कर गया । घरमें रहते हुए वह श्रेणिक जिनेन्द्रकथित धर्मका पालन करने लगा। यह जिनधर्म, भावकर्म और द्रव्यधर्मका नाश करनेवाला है । जम्बूस्वामीका जन्म |
राजा श्रेणिकको राज्य करते हुए कुछ फाल बीत गया, तब श्री जम्बूस्वामीका जन्म हुआ था । बईंदास सेठ राज्यश्रेष्ठी थे । राज्यकार्य में मुख्य थे । उनकी स्त्री निमती सीता के समान शीलवती, गुणवती व रूपवती थी। दोनों दम्पति परस्पर स्नेह से भीगे हुए सुखसे काल बिताते थे । यद्यपि वे गृहस्थ के न्यायपूर्वक भोग करते थे, तथापि रात दिन जैन धर्म दत्तचित्त थे ।
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जम्बूस्वामी चरित्र
शयन कर रही थी. उसने
एक
स्वम यह देखा कि
एक रात्रिको निमती सुखसे रात्रिके पिछले पहर कुछ स्वम देखे । जामुनका वृक्ष है, फर्कोसे भरा हुआ है, भ्रमर गुंजार कर रहे हैं, देखने से बड़ा प्रिय दीखता है। दूसरा स्वम देखा कि गमिकी ज्वाला जल रही है, परन्तु धूप नहीं निकलता है । तीसरा स्वम चावलका खेत फूला हुआ हराभरा देखा । चौथा स्वप्न कमल सहित सरोवर देखा । पांचवां स्वप्न तरङ्ग सहिल समुद्र देखा । प्रातःकाळ उठकर अपने पतिसे स्वप्नोंका हाल जानकर ईदासको बहुत आनंद हुआ । जैसे मेघों को देखकर मोरली शब्द करती हुई नाचती है वैसे ही सेठका मन हर्षसे पूर्ण होगया । वह उसी समय उठ', स्त्री सहित श्री जिन मंदिरजी गया । वारवार नमस्कार किया। श्री जिनेन्द्रोंकी भले भावों से पूजा की । फिर वह दैश्वराज मुनीश्वरोंको प्रणाम करके स्वर्मो का फल पूछने लगा
हे स्वामी ! आज रातको पिछले भाग में मेरी स्त्रीने कुछ शुभ स्वप्न देखे हैं, भाप ज्ञाननेत्रधारी हैं ! शास्त्रानुसार उनका क्या फक है सो कहिये । तब मुनिराजने कुछ देर विचार किया फिर कहने लगे कि - जम्बूवृक्ष देखनेका फल यह है कि कामदेव समान तुम्हारे पुत्र होगा | प्रज्जलित अभि देखनेका फल यह है कि वह कर्मरूपी ईंधनको जलाएगा । खेत के धान्य देखनेका फलयह है कि वह वक्ष्मीवान् होगा | कमलसहित सरोवर देखनेका फल यह है कि वह भव्यजीवोंके पापरूपी दाहकी संतापको शांत करनेवाला होगा । हे श्रेष्ठी ! समुद्रके दर्शनका फल यह है कि वह ९१
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जम्बूस्वामी चरित्र
तरफ केरल.देशमें ऐसे लोग रहते थे जिनको विद्याधर कहते हैं। ये लोग भाकाशमै विमानोंपर चढ़के चलते थे। उस समय भी विमानपर चढ़कर चलने की कलाका प्रचार था, ऐसा इस चरित्रसे झलकता है।)
हे स्वामी ! हंसद्वीपका निवासी विद्याधरोंका राजा बड़ा तेजस्वी रत्नचूक नामका विद्याधर है। उसने उस सुंदर कन्याको अपने लिये वरनेकी इच्छा प्रगट की। राजा मृगांकको मुनिराजके वचनोंपर श्रद्धा थी। उसने श्रेणिकको ही देनेका विचार स्थिर करके रत्नचूलकी वात भस्वीकार की । इस बालसे रनचूलने अपना बहुत अपमान समझा, क्रोधित हो गया, मृगांक राजासे वैर बांध लिया, सेनाको सजकर उसने मृगांक के नगरको नाश करना प्रारम्म कर दिया है। उस पापीने मकान तोड़ डाले हैं। धन-धान्यसे पूर्ण व ग्रामोंकी पंक्तियोंसे शोभित ऐसे ऐश्वर्यवान देशको ऊजड़ कर दिया है। बनोंको उखाड़ डाला है, किला भी तोड़ दिया है। और अधिक क्या कहूं, सर्व ही नाश कर दिया है । मृगांक मयसे पीडित होकर अपने किलेके भीतर ठहर कर किसी तरह अपने प्राणों की रक्षा कर रहा है। वर्तमानमें जो वहांकी दशा है सो मैंने कह दी। भागे क्या होगा, उसे ज्ञानीके सिवाय और कौन जान सक्ता है ? मृगांक राजा भी युद्ध में सावधान है। आज व कलमें वह भी अपनी शक्तिके मनुसार युद्ध करेगा।
क्षत्रियोंका यह धर्म है कि जब युद्धमें शत्रुका सामना किया
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जम्बूस्वामी चरित्र जाता है तब प्राणोंका त्याग करना तो अच्छा है परन्तु पीठ दिखाकर जीना अच्छा नहीं। कहा है---
क्रमोऽयं क्षात्रधर्मस्य सन्मुखत्वं यदाहवे। बरं प्राणात्ययस्तत्र नान्यथा जीवनं वरं ॥ ३० ॥
महान पुरुषोंचा धन व प्राण नहीं है, किन्तु मानरूपी महान धन है। प्राण जानेपर भी यशको स्थिर रखना चाहिये । मान नहीं रहा तो यश कहांसे हो सका है। कहा है
महतां न धन प्राणाः किंतु मानधनं महत् । प्राणत्यागे यशस्तिष्ठेत् मानत्यागे कुतो यशः ॥३१॥
जो कोई शत्रु पूर्ण बलको देखकर विना युद्ध किये शीघ्र भाग जाते हैं उनका मुख मैला होजाता है। जो कोई बुद्धिमान धेर्यको धारण करके युद्ध करते हैं, मर जाते हैं, परन्तु पीठ नहीं दिखाते हैं, वे ही यशस्वी धन्य हैं। कहा है--
ये तु धैय विधायाशु युद्धं कुर्वति धीधनाः। ' मृतास्तत्रैव नो भना धन्यास्ते हि यशस्विनः ।। ३३ ।।
हे राजन् ! मैं वचन देकर आया हूं, मुझे वहां शीघ जाना है। यह कार्य परम मावश्यक है, मुझे विलम्ब करना उचित नहीं है। मैं क्षण मात्र यहांपर मापका दर्शन करता हुमा इस उत्तम स्थानः वहांका वर्णन करता हुआ ठहरा था। अब मेरा मन यहां अधिक ठहरना नहीं चाहता है। हे राजन् ! माज्ञा दीजिये जिससे मैं शीघ्र जाऊं। ऐसा कहकर वह माकाशगामी विद्याधर तुरत चल
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जम्बूस्वामी चरित्र
नेको उद्यमी हुमा । इतनेमें जम्बूस्वामी उस विद्याधरसे कहने लगे
हे विद्याधर ! क्षणभर ठहरो ठहरो, जबतक श्रेणिक महाराज तैयारी करें। यह महाराज बड़े पराक्रमी हैं। सर्व शत्रुभोंको जीत चुके हैं, उनके पास हाथी, घोड़े, स्थ, बलदोंकी चार प्रकारकी सेना है, यह महा धीर हैं, राजा बड़ा बुद्धिमान है, राज्यके सातों अंगों से पूर्ण है, तेजस्वी है व यशस्वी है। कुमारके वीरतापूर्ण वचन सुनकर विद्याधरको माश्चर्य हुमा । फिर वह विद्याधर सर्व वचन युक्तिपूर्वक कहने लगा-हे बालक ! तूने जो कुछ कहा है वही क्षत्रियों का उचित धर्म है, परन्तु यह काम असंभव है। इसमें तुम्हारी युक्ति नहीं चल सक्ती । यहाँसे वह स्थान सेड़ों योजन दूर है, वहां जाना ही शक्य नहीं है तब वीर कार्य करने की बात ही क्या ? तुम सब भूमिगोचरी हो, वे भामाशगामी योद्धा हैं, उनके साथ आपकी समानता कैसे हो सक्ती है ? जैसे कोई बालक हाथीको पानी में डालकर चन्द्रबिम्बकी परछाईको चन्द्र जानकर पकड़ना चाहें वैसा ही मापका कथन है । अथवा कोई बोना मानव बाहु रहित हो और ऊंचे वृक्ष फलको खाना चाहे तो यह हास्यका भाजन होगा वैसा ही भापका उद्यम है । यदि कोई अज्ञानी पगोंसे सुमेरु पर्वतपर चढ़ना चाहे, कदाचित् यह बात होजावे परन्तु मापके द्वारा यह काम नहीं होसक्ता है। जैसे कोई जहाजके विना समुद्रको तरना चाहे वैसे ही यह मापका मनोरथ है कि हम रमचूनको जीत केंगे ।
इस तरह हजारों दृष्टांतोंसे उस विद्याधरने अपने प्रभावका
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जम्बूस्वामी चरित्र बल दिखलाया । सर्व और चुप रहे, परन्तु यशस्वी कुमारसे न रहा गया। वह बादी-प्रतिवादीके समान भनेक दृष्टान्तोंसे उत्तर देने लमा। हे विद्याधर ! ऐसे विना जाने वचन कहना ठीक नहीं है । ज्ञान विना किसीके बल व अवलको कौन जान सक्ता है ? कुमारके वचनको सुनकर व्योमगति विद्याधर निरुत्तर होगया । मौनसे कुमारके पराक्रमको देखने के लिये ठहर गया । श्रेणिकराजा उनके वचनोंको सुनकर अहंकार युक्त होकर यह विचारने लगा कि यह काम बहुन कठिन है, ऐसा सोचकर मन में घड़ा गया। राजा वार बार विचार करता है, खेदित होता है, उस कामको दुर्लभ जानकर कुछ करनेका दृढ़ संकल्प न कर सका । न तो शीघ्र चलनेको तय्यार हुमा न उसको कुछ उत्तर ही दे सका। दो काठकी तराजुमें चढ़कर राजाका मन हिलने लगा।
जम्बूकुमारका साहस। इतने हीमें जंबूस्वामी कुमारने आनंद सहित गंभीर वाणीसे शांतभाव द्वारा ऊंचे स्वरले कहा-हे स्वामी ! यह काम कितना है ? आपके प्रसादसे सिद्ध हो जायगा। सूर्यकी तो बात ही दुर रहे, उसकी किरण मात्रसे अंधकार मिट जाता है। मेरे समान बालक भी उस कामको कर सक्ता है तो आपकी तो बात ही क्या है, जिनके पास चार प्रकारकी सेना तय्यार है।
जंबूकुमारके वचन सुनकर श्रेणिक महाराज आनंदित होगए। जैसे सम्यग्दृष्टी तत्वकी बात कर भानंदित होजाता है और जम्बु
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किसी वीर योद्धा को भेजा है। इन वचनोंको सुनकर मृगांक राजाके शरीर में आनंदले रोएं खड़े होगए । तब वह मृगांक भी अपनी सब सेनाको सजकर युद्ध के लिये नगरसे बाहर निकला । उसकी सेनाकी बाजों की ध्वनि सुनकर रत्नचूल भी सावधान होगया । क्रोधाग्निसे जलता हुआ युद्ध करनेको सामने आया । इसतरह दोनों तरफकी सेनाओं ने भयंकर युद्ध चल पड़ा। हाथी हाथियोंसे, घोड़े घोड़ोंसे, रथ रथोंसे, विद्याधर विद्याधरोंसे परस्पर भिड़ गए ।
इस भयंकर युद्धका वर्णन हम क्या करें ? रूविकी धारा से समुद्र ही होरहा है। जिनकी छाती भिद गई है वे उसको पार करके शत्रु के ऊपर जा नहीं सकते थे । घोड़ोंके खुरोंका धूला आकाशमें छाया हुआ है। जिससे दिनमें भी रात्रिका अनुमान होता है। कहीं योद्धा एक दूसरे का नाम लेकर ललकार रहे हैं। रथोंके चलनेकी, हाथियोंकी घंटियोंकी व उनके दहाड़नेकी, धनुषों की टंकारकी, योद्धाओंके रे रे शब्दकी महान ध्वनि हो रही है । कहीं योद्धा, कहीं गज, कहीं रथ भम पड़े हैं | तलवार, कुन्त, मुद्रा, लोहदंड आदि शस्त्रोंसे सैकड़ोंके सिर चूर्ण हो गए हैं । कितनोंद्दीकी कमर टूट गई है, आकाशमें तलवार पवनादिके कारण विजलीसी चमक रही है ।
ऐसा महान युद्ध होरहा है कि वहां अपना पराया नहीं दिखता है। कहीं भूमिमें आंतें पडी हैं, कोई बालोंको फैलाए मुर्छित पड़े हैं, कोई किसीके केशोंको पकड़कर मार रहा है। सिरसे रहित घड़ भी जहां युद्ध के लिये नाचते थे । कुमार व रत्नचूल दोनों भाकाशमें
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विमानों पर युद्ध करने लगे। जम्बूस्वामीने रचूलका विमान तोड़ दिया तब वह भूमिपर भागया। जैसे ही यह भूमिपर गिर पड़ा, तब हाथीपर चढ़े मृगांकने महावतको पूछा कि किसको किसने मारा ? तब उसने कहा कि पराक्रमी जम्बुकुमारने रत्नचूकको भूमिपर गिरा दिया। इतने में कुमारने रत्नचूलको दृढ़ बांध लिया । राजाके बांधे जानेपर रत्नचूलकी सन सेना भाग गई। तब राजा मृगांकने द उसकी ओरके विद्याधरीने जम्बूकुमारकी प्रशंसा की। चारों तरफ जय ज्यार शब्द हो गया । कहने लगे
धन्योऽसे त्वं महामाज्ञ रूपनिर्जितमन्मथ । क्षात्रधर्मस्य चोन्नत्यमद्य जातं त्वया कृतम् ।। २५२ ॥
भावार्थ-हे महाबुद्धिवान् , कामदेवके रूपको जीतनेवाले कुमार तू धन्य है । तुमने मान क्षत्रिय धर्मके ऐश्वर्यको भले प्रकार प्रगट कर दिया। देरल राजाकी सेना में जीतके नगरे वजने लगे। बंदीजन कुमारके यश कहने लगे। व्योमगति विद्याधरने जंबुकुमारका मृगांकके साथ बहुत प्रेम करा दिया।
घुटनोंतक लम्बी भुजाधारी जंबूकुमारने माठ हजार विद्याघरोंको लीका मात्र में जीत लिया। यह सब पुण्य का महात्म्य है। उस पुण्यके उदयसे ही कुमारने जयलक्ष्मी प्राप्त की । इसलिये जिनको मुखकी इच्छा है उनको एक धर्मका सेवन सदा करना योग्य है। कहा है:
एक एव सदा सेव्यो धर्मो सौख्यमभीप्सुभिः। यद्विपाकात्कुमारेण जयश्रीः किंकरीकृता ॥ २५७ ॥
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सातमा अध्याय।
जंबूस्वामी श्रणिक महाराजकाराजगृहमें प्रवेश।
(श्लोक १४५ का भावार्थ) मैं शुद्ध भावों को रखनेवाले निर्मल ज्ञानधारी विमलनाथकी स्तुति करता हूं तथा अपने गुणोंकी प्राप्तिके लिये मनंत वीर्यवान अनंतनाथ भगवानको वंदना करता हूं।
जम्बूकुमारकी वैराग्यपूर्ण आलोचना।
जम्बुकुमारने जब भयानक युद्धक्षेत्रको देखा तब मनमें दयाभावपैदा होगया-विचारने लगे, संसारकी अवस्था भनित्य है । महो! जलका स्वभाव शीतल है परन्तु अग्निके संयोगसे उष्ण होजाता है, परन्तु स्वरूपसे तो जल शीतल ही है। शीतलता जलका गुण है, वैसे ही आत्माका स्वभाव शांत है, कपायके उदयसे मोहित हो जाता है। ज्ञानवान पुरुषोंने इस संसारकी स्थितिको उच्छिष्ट ( झूठन ) मानके इसका मोह त्याग किया है, परन्तु जो मज्ञानसे व मानसे अंघ हैं वे मरके दुर्गतिको जाते हैं । जो प्राणी इन्द्रियों के विषयोंमें आसक्त होते हैं वे इसीतरह मरते हैं जैसे पतंगा स्वयं
आकर अग्निमें पड़कर मर जाता है। एक तो विषयों का मिलना दुर्लभ है, कदाचित् इच्छित विषय प्राप्त भी होजावें तो उन विषयोंके भोगसे तृष्णाकी आग बढ़ती ही जाती है। ये विषय. किंपाक
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फलके समान हैं - सेवते अच्छे लगते हैं, परन्तु इनका फल कडुवा है । ऐसा होनेपर भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी इन विषयोंका सेवन करते हैं ।
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वास्तव में यह मोहरूपी पिशाच बड़ा भयंकर है, महान पुरुषों को भी इससे पीछा छुड़ाना कठिन है । इम मोहके उदयसे यह प्राणी परको अपना माना करता है । जैसे मृग जंगलमें मरीचिका ( चमकती हुई घास या वाल ) को जल समझकर पानी पीने के लिये दौडते हैं, जल न पाकर अधिक तृषातुर हो जाते हैं, वैसे मोही प्राणी अज्ञान से विषयों से सुख होगा ऐसा जानकर विषयोंको भोगनेके लिये दौड़ते हैं, परन्तु अधिक तापको बढ़ा लेते हैं । जो मिथ्यात्व अंधकार से अंध हैं, वे ही इन्द्रियोंके विषयोंसे सुख मानते हैं । जैसे कोई अग्निको ठंडा करने के लिये शीघ्र ईंधन डाल दे वैसे ही मज्ञानी तृष्णाकी दाहको शमन के लिये विषयोंके सामने जाता है, उल्टा अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । उस चतुराईको धिक्कार हो जो दूसरोंको तो उपदेश करे व अपने आत्माके हितका नाश करे । उस से क्या काम, जिसके होते हुए भी गड्ढे में गिर पड़े। उस ज्ञानसे भी क्या जो ज्ञानी होकर विषयोंके भीतर पड़ जावे ।
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अहो ! मैं भी तो ज्ञानी हूं, मुझ ज्ञानीने भी प्रमादके वश डोकर यश पाने की इच्छा से घोर हिंसाकर्म कर डाला | शास्त्र कहता है कि अपने प्राण जानेपर भी किसी प्राणीकी हिंसा न करनी चाहिये । मुझ निर्दयीने तो माठ हजार योद्धामको मारा है । वास्तव में ऐसा १२६
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जम्बूस्वामी चरित्र ही कोई शुभ या अशुभ कर्मों का उदय आगया। कर्मके तीव्र उदयको तीर्थकर भी निवारण नहीं कर सक्ते। जैसे स्फटिकमणि स्वभावसे स्वच्छ है तो भी रक्त पीत मादि उपाधिके बलसे रक्त पीत मादि रंगझे भावको प्राप्त होजाती है वैसे ही यह जीव स्वभावसे चैतन्यमई है व अतीन्द्रिय सुखका धारी है । संसारमें रहता हुभा मौके उदयसे छाइंकार मादि नाना भावोंमें परिणमन कर जाता
जानतापि मयाकारि हिंसाकर्म महत्तरम् । तत्केवलं प्रमादाद्वा यद्वेच्छता यशश्चयम् ।। १८ ।। प्राणान्तेऽपि न हंतव्यः प्राणी कश्चिदिति श्रुतिः। मया चाष्टसहस्रास्ते हता निर्दयचेतसा ॥ १९ ॥ आफलोदयमेवैतत्कृतं कर्म शुभाशुभम् । शक्यते नान्यथा कर्तुमातीर्थाधिपतीनपि ॥ २०॥ यत्स्फाटिको मणिः स्वच्छ, स्वभावादिति भावतः । सोऽप्युपाधिषलादेव रक्तपीतादिकां व्रजेत् ॥ २१॥ तथ.यं चित्स्वभावोऽपि जीवोऽतीन्द्रियसौख्यवान् । धत्ते मानादिनानात्वमुदयादिह कर्मणाम् ॥ २२॥
(नोट-सम्बहिष्टी गृहस्थका ऐसा ही भाव रहता है। वह कषायोंको न रोक सकने के कारण गृहस्थ सम्बन्धी सब काम युद्धादि करता है, परन्तु अपनी निन्दा गर्दा किया करता है। कर्मकी तीव्र प्रेरणासे काम करता है। भापको स्वभावसे अकर्ता व अभोक्ता ही समझता है।)
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जब तक जम्बुकुमार भाने मनमें अपने कार्यकी मालोचना कर रहे थे, तब तक लचूलादि गजा इस प्रकार कह रहे थे कि गुण स्वयं निर्गुण होने पर भी मर्थात् गुणमें दूसरा गुण न होने पर भी वे गुण किसी द्रव्यके ही माश्रय पाए जाते हैं । हे स्वामी ! माप बडे गुणवान हैं, भापमें ऐसे गुण हैं जिनका वर्णन नहीं हो सक्ता है। दूसरे लोग परकी सहायतासे जय प्राप्त करने पर भी अभिमानसे उद्धत होजाते हैं। आपने बिना किसीकी सहायतासे केवल अपने ही पराक्रमसे विजय प्राप्त की है तब भी भाप मदरहित व गगरहित हैं। जिस वृक्षमें मामके फल लदे होते हैं वही झुकता है, फलरहित वृक्ष नहीं झुपता है । हे सौम्यमूर्ति भापके समान कौन महापुरुष है जो विजयलाभ करके भी शांत भावको धारण करे ?
इस तरह परस्पर अनेक राजा स्वामीकी तरफ लक्ष्य करके बात कर रहे थे कि इतने में पास्मात् व्योमगति विद्याधर बोल उठाहे स्वामी जम्बूकुमार ! जब माप युद्ध में वीरोंका संहार कर रहे थे तब इस मृगांक रामाने भी अपना पुरुषार्थ प्रगट किया था। आपके सामने हे स्वामी । मैं क्या कह सकता है, भापका पुरुषार्थ तो वीरोंसे प्रशंसनीय है। जैसा मैंने सुना था वैसा मैंने प्रत्यक्ष देख लिया। मृगांककी प्रशंसा सुनकर रत्नचुल क्रोधमें माकर कहने लगा-रस्नचूल इस मिथ्या कथनके भारको सह नहीं सका।
रत्नचूलको अपनी हार होनेसे जितना दुःख नहीं हुआ था, उससे
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अधिक दुःख मृगांक बलकी प्रशंसा सुनने से व उसके मिथ्या महंकारसे हो गया । कहा है- जो गुण रहित है वह गुणीको नहीं यह मान सक्ता है । गुणवान गुणीको जानकर ईर्षाभाव कर लेता है । बास्तवमें इस जगत में महान गुणी भी विरले हैं व गुणवानों के साथ प्रीति करनेवाले भी विरले हैं । हे व्योमगति विद्याधर ! तू बुद्धिमान है, तुझे ऐसे घृषा वचन नहीं कहने चाहिये । कहीं आकाश के फूलों से बंध्या के पुत्र का मुकुट बन सक्ता है । मेरी सेना बढेर पराक्रमी योद्धा से भी नहीं जीती नासक्ती थी, उसको केवल स्वामी जंबूकुमारने ही जीती हैं। यदि यह एक वीर योद्धा संग्राम में नहीं होता तो मैं क्या कर सक्ता था सो तुम देख लेते । अभी भी यदि 1 मृगांकको गर्व है तो वह आज भी मेरे साथ युद्ध कर सक्ता है । हम दोनों यहां ही पर विद्यमान हैं । कुमार इस बीचमें माध्यस्थ रहे । केवल तमाशा देखने लगे कि क्या होता है ।
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मृगांक व रत्नचूलका युद्ध ।
रत्नचूळके वचनोंको सुनकर मृगांकको भी क्रोध आगया । ईंधनों को रगड़ने से घूमां निकलता ही है। कहने लगा- हे रत्नचूल ! जैसा तू चाहता है वैसा ही हो । काला भी सुवर्ण अझिसे भिड़ने पर शुद्ध होजाता है । अब तू विलम्ब न कर । ऐसा कह कर युद्धके लिये तैयार होगया । कुमारने रत्नचूक्रको छोड़ दिया। दोनोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया । कुमार मौन से बैठे हुए तमाशा देखने लगे । कुमारने विचार किया कि बीचमें बोलना ठीक नहीं होगा । माध्यस्थ ૨૯
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रहना ही सुंदर है। यदि मैं मृगांकको मना करता हूं तो इसके बलकी लघुता होती है और मैं मृगांकका पक्ष लेता हूं, ऐसा रत्नचून विपक्षीको होगा। यदि मैं रत्नचूलको मना करता हूं तो भी रत्नचूलको घमण्ड होजायगा । रत्नचूल और मृगांक दोनोंने कुमारको नमस्कार किया और रणक्षेत्रमें युद्ध करने लगे। दोनों मोरकी सेनाके योद्धा सावधानीसे लड़ने लगे। चारों प्रकारकी सेना परस्पर भिड़ गई। दोनोंने महंकारमें भरकर राम रावणके समान घोर युद्ध किया । साधारण शस्त्रोंसे युद्ध किये जानेपर कोई नहीं हारा । तब रत्नचूलने क्रोधवान होकर विद्यामई युद्ध प्रारम्भ किया। मृगांक भी विद्यामई युद्धमें सावधान होगया । रत्नचूलने सब सेनामें ऐसी धूला फैला दी कि मृगांककी सेना व्याकुल होगई। तब मृगांकन पवनके शस्त्रमे उस राज्यको उड़ा दिया। तन ममिवाण चलाकर रत्नचूलने सेनामें आग कगादी। तब मृगांकने जलकी वर्षा करके ममिको शांत किया। इस तरह विद्यामई शस्त्रोंसे बहुत देरतक युद्ध हुमा। अंतमें रत्नचूलने नागपाशिसे मृगांकको बांध लिया। अपनेको विजयी मानकर व मृगांकको दृढ़ बंधनोंसे बांधकर रणक्षेत्रसे जाने लगा। तब जम्बूस्वामीने तुर्त मना किया।
हे मूढ़ ! मैं मृगांकके साथ हूं, मेरे होते हुए तू इसे कहां लिये जारहा है ? शेषनागके सिरकी उत्तम मणिको कौन ले सक्ता है? कालके मुखसे कौन अपनेको बचा सक्ता है..? महा मेरु पर्वतको कोन हायसे हिला सक्ता है ? सिंहकी अपापर सोकर कौन
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समवशरणमें वंदनाके लिये पधारे। श्री वर्द्धमान भगवानके मुखकमलसे धर्मोपदेश सुना । सुनकर उसका मन भोगोंसे उदास होगया । अपने मनमें विचारने लगा कि यह संसार मसार है, चंचक है, धनादि सब जलके बुद बुदूके समान क्षणिक हैं । उसी दिन उस राजाने भाठ कर्मोको नाश करनेके लिये सर्व परिग्रह त्याग कर स्वर्ग व मोक्षमुखको देनेवाली निथकी दीक्षाको ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों के पीछे सुप्रतिष्ठ मुनि सर्व श्रुतके परगामी होगए । तथा वर्द्धमान जिनेश्वरके ग्यारह गणघरों चौथे गणधर हुए। अपने पिता गणधरको एक दिन देखकर सौधर्मने भी कुमार वय वैगम्यवान हो, मुनिपदको स्वीकार कर लिया । वह फिर श्री वीर भगवानका पांचमा गणधर होगया। वहीं मैं तेरे सामने भावदेवका जीव सुधर्म नामका बैठा हू
और तु भवदेवका जीव है । ऐसा तु अपने पूर्व जन्मका वृतांत नान । हे वत्स | संसारी जीव कोके माधीन होकर अपने कर्म विनाशक वीतराग भावको न पाते हुए संसारमें भ्रमण किया करते हैं । तुम छटे स्वर्गमें विद्युन्माली देव थे, सो वहांसे भाकर सेठ महदासके सुखकारी पुत्र हुए हो। तेरी स्वर्गकी चारों देवियां भी वहांसे च्युत होकर सागरदत्त भादि श्रेष्ठियोंकी चारों पुत्रियां जन्मी हैं। उन चारोंके साथ तेरा विवाह होगा। वे पूर्व स्नेहवश ही तेरी चार भार्या होंगी।
जम्बूकुमारका वैराग्य। मुनिराजके मुखसे अपना भवांतर सुनकर अंबुस्वामी कुमारके
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जम्बूस्वामी चरित्र मनमें तीव्र वैराग्य बढ़ गया। विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा कि मैं संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होगया हूं। आप मेरे विनाकारण परम बंधु । हैं। आप मेरा संसारसागरसे उद्धार कीजिये। कृपा करके मुझे निग्रन्थ दीक्षा प्रदान कीजिये, मेरी इच्छा भोगोंमें नहीं है, आत्माके दर्शनकी ही भावना है। कुमारकी वाणीको सुनकर महामुनि समाधानकारी बचन साग्य मुखसे कहने लगे । वह अवधिज्ञानके बलसे जान गए कि वह अति निकट भव्य है। भाषा समितिकी शुद्धिसे कोमल वाणी प्रगट करने लगे। हे वत्स ! तेरी अवस्था क्रीड़ा करने योग्य है। कहां तेरी वय और कहां तेरा यह कठिन दीक्षाका श्रम जो महान पुरुषोंसे भी कठिनतासे पालने योग्य है। यदि तेरे मन में दीक्षा लेनेकी तीव्र उत्कंठा है तो तू अपने घर जा। वहां बंधुवर्गोको पूछकर उनका समाधान करने परमर क्षमायाव करादे, फिर लौटकर , उस कर्म क्षयकारी निग्रंथ दीक्षाको ग्रहण कर । यही पूर्वाचार्योके द्वारा बताया हुक्षा दीक्षा लेनेसा क्रम है। . सौधर्मसूरिक वचनोंको सुनसर जंबुकुमार विचारने लगा कि यदि मैं अपने भीतरी हठले घर नहीं जाता हूं तो गुरुकी आज्ञाका लोप होना ठीक नहीं होगा। इससे मुझे शीघ्र ही अपने घर अवश्य जाना चाहिये। पीछे लौटकर मैं अवश्य इस दीक्षाको ग्रहण करूंगा। ऐसा मनमें निश्चय करके कुमारने सौधर्म गुरुको नमस्कार किया
और अपने घर प्रस्थान किया। घर पहुंचकरके कुमारने अपनी । माता जिनमतीको विना किसी गुप्त बातको रक्खे हुए अपने
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जम्बूस्वामी चरित्र मनका सर्व हाल जैसाका तैसा कह दिया । हे माता ! मैं अवश्य इस संसारसे वैराग्यवान हुमा ई, भब तो मैं अपनी हथेली में रक्खा हुभा ही माहार ग्रहण करूंगा।
इस वार्तालापको सुनकर सती जिनमती कांपने लगी जैसे मानो पवनका झोका लगा हो। फलैसे कमलिनी मुरझा जाती है इसतरह जिनमती उदास होगई। कहने लगी हे पुत्र ! ऐसे वज्रपातके समान कठोर वचन क्यों कहे ? इस कार्यके होनेमें अकस्मात क्या कारण हुमा है सो कह । तब कुमारने समाधान करते हुए जो कुछ सुधर्माचार्य ने वर्णन किया था सो सब कह दिया।
जंबूकुमारके पूर्वजन्मकी वार्ता सुनकर जिनमतीके भीतर धर्मबुद्धि उत्पन्न हुई । चित्तको समाधान करके उसने सेठ मरहदासके मागे सर्व वृत्तान्त कह दिया कि यह चरमशरीरी कुमार है यह नैन दीक्षाको लेना चाहता है। अबंदास इस वचनको सुनते ही मूर्छित होगया, महा मोहका उदय भागया, हाहाकार शब्द रटने कगा। किन्हीं उपायोंमे सेठजीने मुर्छा छोड़ी, फिर उठकर इसतरह भाकुल हो विलाप करने लगा कि उसका कथन कौन कवि कर सक्ता है। फिर समाधान-चित्त होकर अर्हदासने एक चतुर दूतको भेजा कि वह यह सब बात समुद्रदत्त आदि सेठोंको कहे । वह दत शीघ्र ही पहुंचा और चारों सेठोंको एकत्र कर विवाहका निषेधक निवेदन किया। अंतमें कहा कि भापक समान सज्जनोंका समागम बडे भाग्यसे मिला था सो हमारा दुर्भाग्य है कि मकस्मात् विन्न मा खंडा हुआ।
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अम्बूस्वामी चरित्र
शस्त्रपात के समान दुःखदाईं इन कठोर वचनों को सुनते ही चारों सेठ कांपने लगे, मनमें आश्चर्य हो माया । शोचसे मांखों में पानी आगया, आकुलित होकर कहने लगे। क्या कुमार कहीं अन्य l न्यासे विवाह करना चाहते हैं, या कोई और कारण है सो सच सच कहो। तब दूतने बड़ी चतुराईसे यह सच बात कह दी कि महो जम्बूस्वामी तो संसारसमुद्र से शीघ्र तरना चाहते हैं । वह संसारके दुःखोंसे भयभीत हैं । निश्चयसे कामभोगोंसे उदासीन हैं, उनके भीतर मुक्तिरूपी कन्याके लाभकी भावना है । वे अवश्य जैनधर्मकी दीक्षा ग्रहण करेंगे । इस बातको सुनकर के चारों सेठ उदास होगए । और घर के भीतर जाकर उन कन्याओंको बुलाया और उनको समझाने लगे। वे कन्या मन, वचन, कायसे कुलाचार व शीलव्रतको पालनेवाली थीं। हे पुत्री ! सुनानावा है, जंबूकुमार भोगसे उदास होगये हैं व मोक्षकाभके लिये तप पूर्वक व्रत लेना चाहते हैं | जैसी उनकी इच्छा, उनको कौन रोक सक्ता है ? अभी तक हमारी कोई हानि नहीं है, तुम्हारे लिये दूसरा वर देखकिया जायगा । कहा है
तद्गृहातु यथाकामं का नो हानिस्तु सांप्रतम् । भवतीनां समुद्रा भवेच्चाद्य वरोऽपरः ॥ ७० ॥
कन्याओंकी विवाहकी हढ़ता !
पिताके इन वचनों को सुनकर पद्मश्री उसी तरह कांपने लगी जैसे कोई योगी के प्रमादसे प्राणीकी हत्या के होजानेपर योगीका तन कंपित होजाता है । पद्मश्री कहने लगी- हे पिता ! ऐसे लज्जाकारी अशुभ वचन १४२
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जम्बूस्वामी चरित्र हे स्त्रियो ! वही विपत्तिमें पड़ना चाहता हूं। यदि मैं तुमसे संसगा करके भोग भोगू, और मोहसे कर्म बांधू-जब काँका उदय होगा और मैं भवसागरमें डूबूंगा तब मुझे कौन उद्धार करेगा ? इस दृष्टांतसे पद्मश्रीकी कथाका खण्डन होगया ।
कनकनीकी कथा। तब कनकधी कौतूहलसे पूर्ण कथा कहने लगी-रमणीक कैलाश पर एक बन्दर रहता था। एक दिन वह पर्वतकी चोटीपर चढ़ गया। यकायक वह गिर गया । शरीरके खण्ड खण्ड होगए। शांत आवसे अशाम निर्जरासे मरकर एक विद्यारशा पुत्र हुआ। एक दफे बड़ी भायु पानेपर विद्याधरने मुनि महाराजसे नमन करके अपना पूर्व अव पूछा । मुनि महाराजने अवधिज्ञान नेत्रसे देखकर कह दिया कि पूर्व जन्ममें तुम बन्दर थे । कैलाशले गिरकर पुण्यके फकसे विद्याधर हुए हो। इस बातको सुनकर विद्याधरने कुमति ज्ञानसे यह मन निश्चय कर लिया कि जिस स्थानसे मरकर मैं कविसे विद्याधर हुआ हूं, उसी स्थानसे गिरकर यदि मैं फिर मरूंगा तो अवश्य देव हो जाऊंगा । इसलिये मुझे अवश्य जाकर कैलाशके शिखरले गिरकर मरना चाहिये । एक दिन विद्याधरने अपनी स्त्रीसे आने मनकी बात कही कि हे प्रिये ! कैलाशके शिखरले गिरकर मरनेसे स्वर्ग मोक्षके फल मिलते हैं, इससे मैं कैलाशसे पडूंगा। उसकी स्त्री सुनकर दीनमन हो दुःखित होकर रुदन करने लगी व कहने लगी-हे स्वामी ! भाप बड़े बुद्धिमान
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जम्बूस्वामी चरिक
हैं, आप क्यों मरण चाहते हैं, माप तो विद्याघर हैं, आपको किस बातकी कमी है ? उस मुर्खने स्त्रीकी बातपर ध्यान नहीं दियाजाकर कैलाशके शिखरसे पड़ा तो मार्तध्यानसे मरकर फिर वही लाल मुखका बन्दर पैदा होगया। हे सखियो ! जैसे मुर्ख विद्याधरने स्वाधीन सम्पदाको छोड़कर मरण करके पशु पर्याय पाई वैसे हमारे स्वामीका व्यवहार है। महारमणीक सर्व संरदाओंको छोड़कर भागेकी वांछासे तर करने जाते हैं, फिर ये संपदाएं मिले या न मिले, क्या भरोसा है।
जम्बूस्वामीकी कथा। ___ जम्वृस्वामी कनकनीकी कथाको सुनकर उसको उत्तर देनेके लिये एक कथा कहने लगे। विन्ध्याचल पर्वतपर एक बलवान कोई बंदर था । वह बड़ा कामी था। वह वनने बंदरोंको मार डालता था। ईर्षावान भी बहुत था। अपनी बंदरीसे जो बच्चे होते थे उनको भी मार डालता था। अकेला ही काम क्रीड़ा करते हुए तृप्त नहीं होता था। एक दफे उसीका एक बंदर पुत्र हुआ, वह उसके जानने में न भाया। किसी तरह बच गया। जब वह पुत्र युवान हुमा, तब कामातुर होकर अपनी माताको स्त्री मानकर इमण करनेको उद्यत हुमा । तब उसके पिता वंदरने देख लिया और उसके मारनेको क्रोध करके दौड़ा। उस युवान बंदरने पिताको दांतोंसे क. नाखूनोंसे काटा। दोनों पितापुत्र बहुत देरतक परस्पर नख व दांतोंसे काटकाटकर युद्ध करने लगे । घबड़ाकर बूढ़ा बंदर भाग निकला
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मम्बूस्वामी चरित्र
तब युबान बंदरने उसका पीछा किया। जब वह बहुत दूर निकल -गया तब युवान बंदर लौट आया। वृद्ध बंदरको बहुत प्यास लगी। वह पानी पीनेको कीच सहित पानीमें घुसा। मैले पानीको पी लिया। परन्तु कीचड़में ऐसा फंस गया कि निकल न सका । मुर्ख विषयवासनासे आतुर होता हुमा मर गया। हे प्रिये ! मैं इस बंदरके समान इस संसारमें विषयों के भीतर यदि फंस जाऊं तो मुझे कौन उद्धार करेगा ? जंबूस्वामीके इस उत्तरके बलसे कनकश्री मुरझा गई, तब कथा कहने में चतुर तीसरी विनयश्री बोली
विनयश्रीकी कथा। एक कोई दरिद्री पुरुष था, जिसका नाम संख था। वह -रोज सबेरे वनमें लकड़ी काटने जाया करता था। ईंधन लाकर विक्रय करके बड़े कष्ट अशाताके उदय से पेट पालता था। एक -दफे लकड़ीका दाम बाजारमें अधिक मिला । सब भोजनमें खर्च करने के पीछे एक रुपया बच गया । तब अपनी स्त्रीके साथ सम्मति करके उस रुस्येको भूमिमें गाड़ दिया कि कभी आपत्ति पड़ेगी तो यह शाम छायगा । कुछ दिन पीछे एक प्रवासी यात्री उसी वनमें भाया । वहां उसने अपना रत्नोंका पिटारा गाड़ दिया और तीर्थ-यानादिक्के लिये चला गया । उस दलिद्री संखने उसे गाड़ते देख लिया था। जब वह प्रवासी चला गया तब संखने उस रत्नभांडको लोभसे दूसरी जगह गाड़ दिया। और मनमें विचारने लगा कि इसमें से जब चाहूंगा एक एक रत्न निकालता रहूंगा । घरमें माकर
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जम्बूस्वामी चरित्र'
अपनी स्त्रीसे सर्व हाल कहा कि पुण्यके उदयसे एक रत्नोंका पिटारा मुझे मिल गया। मैंने उसे यत्नपूर्वक गाड़ दिया है। हे प्रिये !: यह बात सच है, मैं झूठ नहीं कहता हूं ।
इस बात को सुनकर स्त्रीको आश्चर्य हुआ, तो भी हर्षसे फूलगईं । हे भद्र! बहुत अच्छा हुमा, तुम चिरकालतक नीओ | मेरी सलाह और मानो । जो एक साया तुमने एकत्र किया है उसको भी उस रत्नमांडमें कुशलतासे घर दो। हम तुम दोनों अपना नित्य कर्म बराबर करते रहें । मोहके कारण स्त्रीके वचनोंको. दरिद्रीने मान लिया कि तूने ठीक कहा -दरिद्रीने वैसा ही किया । दोनों ही जने बनसे काष्ठ ले जाते थे और विक्रय करके पेट भरते थे । कुछ दिनोंके बाद रत्नभांडका स्वामी पीछे उसी वनमें खाया । अपने रत्नभांडको जहां रक्खा था वहां न पाकर इधर उधर भूमि खोदकर ढूंढने लगा | बहुत देरके परिश्रमके बाद पुण्यके योगसे उसको वह रत्न पिटारा मिल गया । उसको लेकर वह आनन्दसे अपने घर चला गया । पुण्यके बलसे चंचला लक्ष्मी गई हुई भी सुखसे मिल जाती है । उस दरिद्रीने एक घड़े के भीतर रत्न पिटारी रखकर रुपया रख दिया था। एक दिन वह वहां भाकर खोदता. है तो घड़ेको खाली पाता है । रत्न पिटारा भी गया व एक रुपया भी गया । वह मूर्ख हावभाव करके सिरको पीट पीटकर रोने लगा ।' हा ! रत्न पिटारे के साथ मेरा पहला संचय किया हुआ रुपया भी चला गया । हा 1 पापके उदयसे मैं ठगा गया । मैंने प्राप्त धनको १५७
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जम्बूस्वामी चरित्रः न भोग लगाया न दानमें लगाया। जिसके स्वाधीन लक्ष्मी हो फिर भी वह उसका भोग न करे तो वह पीछे उसी तरह पछताएगा जैसे संख दरिद्रीको पछताना पड़ा। .
जम्बूस्वामीकी कथा। विनयश्री की कथा सुनकर नाबूस्वामीने फिर एक कथाके बहाने उत्तर दिया । लब्धदत्त नामका एक बनिया था। व्यापार के लिये बाहर गया था, सो मार्गमें एक भयानक वनमें खा पड़ा। पापके उदयसे उसके पीछे एक भयानक हाथी क्रोधित हो उसको -मारनेको दौड़ा। उससे भयभीत होकर वह बनिया भागा भौर यकायक एक करके जार वटवृक्षकी शाखा पकड़कर लटक गया। उस शाखाकी जड़को दो चूहे एक सफेद एक काले काट रहे थे। बणिक देखकर विचारने कगा कि क्या किया जाय । यह शाखा कटी कि काके भीतर मष गिर जाऊँगा, शरीरके शतखण्ड हो जायगे। ऐसा विचारते हुए नीचे देखा तो कूपमें एक बड़ा अजगर बैठा हुआ है, देखकर कांपने लगा। फिर देखा तो चारों -कोनोंसे निकले हुए भयानक सांप कूपमें बैठे हैं । उस समय उस वणिकको जो संकट हुआ वह कहा नहीं जा सकता। हाथी क्रोप्में होकर उस वटवृक्ष को अपने कन्धे से उखाड़नेका उद्यम करने लगा व "ध्वनि भरने लगा। जहां वह वणिक स्टक रहा था उसके कार एक मधु मक्खियोंका छत्ता था। यकायक मधुकी बूंद उस वणिके मुखमें भापड़ी। उस बूंदके स्वादसे वह बड़ा राजी होगया ।
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जम्बूस्वामी चरित्र
इतनेही में एक विद्याधर भाकाश मार्गसे जारहे थे उसने वणिकको कूपके कार लटकते देखकर वह विमानसे उतरा और बोला-हे मूढ़ ! मैं विद्याधर हूँ, मैं तुझे निकाल सक्ता हूँ ! मेरी भुनाको पकड़, तू निकल जा, संकटसे बच जा। सुनकर वह मधुझे रसके स्वादका लोलुपी कहने लगा-थोड़ी देर ठहर जामो, जबतक एक मधुकी बूँद मेरे मुख में और न माजावे । दयावान विद्याधरने फिर भी कहा किरे मूढ़ ! तेरा मरण निस्ट है, विंदु मात्रके लोभसे कूरमें प्राण न गमा । तू हलाहल विष खाकर जीना चाहता है सो ठीक नहीं है। मेरी भुना पकड़, देर न कर । इस तरह बहुत बार समझाया परन्तु वह रसना इन्द्रियके लोभवश नहीं समझा। विद्याधरने उसे मूर्ख समझा और वह अपने मार्गसे चला गया। थोड़ी देरमें मूषकोंके द्वारा शाखा फटनेसे वह कूपमें गिर पड़ा और मजगरने उसे भक्षण कर लिया। जिस तरह लन्धदत्त वणिक मधु-बिंदुके लोभसे काल असित हुमा वैसे मैं इस तुच्छ विषयसुखके लिये महा भयानक कालके मुख में प्रवेश करना नहीं चाहता हूं।
विनयश्री स्वामीसे वचन सुनकर मूढ़तारहित होगई। मन चौथी स्त्री रूपश्री कथा कहने लगी
नियश्रीकी कथा। एक दफे मनोहर वर्षाकाल भागया । मेघ छा गए । पानीकी वर्षासे तलैया तलाव भर गए, बिजली चमकने लगी। मार्गमें कीचड़से माना जाना कठिन होगया। दिनमें अन्धकार छागया।
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लम्बूस्वामी चरित्र ऐसे समयमें एक कुकलास (किरला) भूखी होकर अपने विलसे निककी। वह घूमती थी। उसने एक काले भयानक दंदशक सर्पको देखा। ऐसे भयानक कालस्वरूप सर्पको देखकर वह भयसे चिंतातुर हो भागी और नदीमें एक नकुलके विलमें चली गई । वह सर्प भी उसीके पीछे पीछे उसी विलमें घुस गया। वहां सर्पने उसको तो छोड़ दिया।
और विलके भीतर बहुत उसका कुटुम्ब मिलेगा उसको पाडूंगा इस आशासे चला गया। नकुलोंने सर्पको देखकर क्षुधासे आतुर हो उसे मारडाका और खा लिया।
जैसे उस सर्पकी दशा हुई वैसे हमारे स्वामी विवेक रहित हैं नो सामने पड़ी लक्ष्मीको छोड़कर भागेकी भाशा करके पथभ्रष्ट हो रहे हैं। रूपश्रीकी कथा सुनकर जम्बूकुमार उसे समझानेके लिये एक सुंदर कथा कहने लगे
जम्बूकुमारकी कथा। इस पृथ्विीपर एक शृगाल था। रातको वह नगरके भीतर गया, वहां एक बूढे बैलको मरा हुभा देखकर प्रसन्न होगया कि मब मेरे मनका मनोरथ सिद्ध होगा, वह शृगाल उस बैलके हाइपिंजरके भीतर घुस गया। मांसको खाते खाते तृप्त नहीं हुमा। इतने में रात चली गई। सबेरा होगया तब नगरके लोगोंने उस शृगालको देख लिया, वह उस अस्थिके पंजरसे निकलकर भाग न सका, चित्तमें व्याकुल होगया कि माज मेरा मरण अवश्य होगा। इतने में किसी नागरिकने शृगालक दोनों कान व उसकी पूंछ किसी औषधि बनानेके
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लिये काट की। फिर वह विचरने लगा कि इसतरह भी जीता बचे. तो ठीक है, ममी तो कुछ विगड़ा नहीं है। इतने में किसीने पत्थर लेका उसके दांत तोड़कर निकाल लिये कि इनसे घर जाकर वशी. करण मंत्र सिद्ध करूड़ा। तब भी शृगाल विचारने लगा कि इसी तरह जान बचे तो वनमें भाग जऊ । इतने में कुपोंने आरक्षण. मात्र में मार डाला । रसना इन्द्रियके वश वह शाक जैसे मारा गया व कुत्तोंसे लाया गया वैसे मैं विषयों के मोहमें मंधा होकर नष्ट होना नहीं चाहता हूं। कौन बुद्धिमान जान बूझकर कुमार्गमें पडेगा । यदि मैं इन्द्रियों विषयों के वशमें निर्वस होकर फंस जाऊं तो फिर मेरा कौन उद्धार करेगा ? हे प्रिये ! तुम्हारे वचन परीक्ष में उचित नहीं बैठने हैं।
इसतरह उन चारों महिलामोंकी नाना प्रहारकी वार्तालापोंसे महात्मा कुमारका मन किंचित् भी शिथिल नहीं हुषा।
विद्युचरका आगमन । इवर कुमारके साथ स्त्रियां वार्तालाप कर रही थीं, उधर उस रात्रिको विचर नामका एक चोर कामलता वेश्याके घरसे चोरी करनेको निकला। कोतवालसे अपनी रक्षा करता हुभा वह चोर उस रातको अहदास सेठके घर चोरी करनेको माया। जहां कुमारका शयनालय था वहांपर भागया। कुमारका अपनी स्त्रियोंसे जो वार्तालाप होरहा था उसको सुनकर विचारने लगा कि पहले इस कौतुकको देख कि रत्नोंको चुराऊ ? सुननेकी दृढ़ माकांक्षा होगई।
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जम्बूस्वामी चरित्र
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यही निश्चय कर लिया कि पहले सब सुनना चाहिये फिर धनको चुराऊंगा । वह ध्यानसे उनकी वार्ताको सुनने लगा। वर व कन्याओंकी कथाओंको सुनकर उसे बड़ा शाश्चर्य हुमा । सोचने लगा कि कुमार के धैर्यकी महिमा कौन कह सक्ता है। इन वधुओंने किंचित् भी कुमारके मनको नहीं डिगाया । उधर जंबूकुमारकी माला घनडाई हुई मकान में इधर उधर फिर रही थी। बारबार कुमारके शयनालयके द्वारपर भाकर देखती थी कि इन स्त्रियों के मोहमें कुमार आया कि नहीं।
यकायक भीतके पास खड़े हुए चोरको देखकर भयभीत हो बोली-यह कौन है ? तब विद्युचरने कहा कि माता! घबड़ा नहीं, मैं प्रसिद्ध विद्युच्चर नामका चोर हूं। मैं तेरे नगरमे नित्य चोरी किया करता हूं। अबतक मैंने बहुतोंशा धन चुराया है। तेरे घरसे भी सुवर्णान चुराये हैं। और क्या कहूं। इसीलिये आज भी माया हूं। कुमारकी माला कहने लगी हे वत्स ! तुझे जो चाहिये सो मेरे घरसे ले जा। तब विद्युच्चाने जिनमतीसे कहा-हे माता ! मुझे आज धन लेनेकी चिंता नहीं है, किंतु मैं बहुत देरसे यह जपूर्व कौतुक देख रहा हूं कि युवती स्त्रियों के फटाक्षोंसे इस युवानका मन किंचित् भी विचलित नहीं हुमा है । हे माता ! इसका कारण क्या है सो कह । अब तु मेरी धर्मकी बहन है, मैं तेरा भाई हूं। तब जिनमती धैर्य धारकर कहने लगी-एक ही मेरा यह कुलदीपक पुत्र है। मैंने मोहसे इसका भाज विवाह कर दिया है। परन्तु यह
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जम्बूस्वामी चरित्र विरक्त है व तब लेना चाहता है। सूर्यके उदय होते ही वह नियमले तप ग्रहण करेगा, इसमें कोई संशय नहीं है । उसके वियोगरूपी कुठारसे मेरे मन के सैकड़ों खंड होरहे हैं । इसीलिये मैं घचडाई हुईं हूं और वारवार इस घर के द्वारपर जाकर देखती हूं कि कदाचित् पुत्रका संगम अपनी वधुओंके साथ होनावे ।
जिनमतीके वचन सुनकर विद्युच्च के मनमें दया पैदा होगई, कहने लगा- हे माता ! मैंने रूव हाल जान लिया । तू भय न कर, 1 सुझसे इस फार्यमें जो हो सकेगा मैं करूंगा । तू मुझे जिस तरह बने कुमार के पास शीघ्र पहुंचा दे। मैं मोहन, स्तंभन, वशीकरण मंत्र तंत्र सब जानता हूं । उन सबसे मैं प्रयत्न करूंगा | व्याज यदि मैं तेरे पुत्रका संगम वधुओंसे न करा स्कूंगा तो मेरी यह प्रतिज्ञा है, जो उसकी गति होगी वह मेरी गति होगी । ऐसी प्रतिज्ञा करके यह विद्युचर बाहर खड़ा रहा। माताने धीरे२ द्वार खटखटाया। हाथ की अंगुली से द्वारपर थपकी दी, परन्तु लज्जावश मुखसे कुछ नहीं चोली । कुमारने शीघ्र किवाड़ खोल दिये । कुमार ने नमन किया, माताने आशीर्वाद दिया ।
तब जैवकुमारने विनयसे पूछा- हे माता ! यहां इस समय आनेका क्या कारण है ? तब जिनमती कहने लगी कि जब तुम गर्भ में थे तब मेरा भाई - तुम्हारा मामा वाणिज्य के लिये परदेश गया था | भाज वह तेरे विवाहका उत्सव सुनकर यहां माया है - तुम्हारे दर्शनकी बड़ी इच्छा है, वह बहुत दुर से पधारा है । जिनमनीके वचन
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जम्बूस्वामी चरित्र सुनकर कुमारने कहा कि मेरे मामाको शीघ्र यहां बुलाओ। पुत्रकी माज्ञा होनेपर माता शीघ्र विद्युच्चरको जंबूकुमारके पास ले गई। जम्बुकुमार मामाको देखकर पलंगसे उठे और भादर सहित स्नेह पूर्ण हो गले मिले। स्वामीने पूछा-इतने दिन कहां २ गए थे, मार्गमे सब कुशल रही ना ?
सुनकर विद्युच्चरने भानजेकी बुद्धिसे कहा कि हे सौम्य ! सुन, मैंने इतने दिन कहां कहां व्यापार किया।
दक्षिण दिशामें समुद्र तक गया हूं चंदन के वृक्षोंसे पूर्ण ऊंचे मलयागिर पर, सिंहलद्वीपमें (वर्तमान सीलोन) के रकदेश, मंदिरोंसे पूर्ण व जैनोंले भरे हुए द्राविड़देश (सामीलमें), चीणमें, कर्णाटकमें, काम्बोज, अति मनोहर बांकीपुरमें, कोतलदेशमें होकर उन्नन सह्य पर्वतके वहां आया। फिर महाराष्ट्र देशमें गया। वहांसे अनेक वनोंसे शोभित वैदर्भदेश बहारमें गया। फिर नर्मदा नदी के तट पर विध्य, पर्वतके वहां पहुंचा। विंध्याचलके वनोंको लांघकर आगे माहीर देशमें, चउरदेशमें, भृगुकच्छ (मरोंच)के तटपर माया । वहां धवल सेठका पुत्र श्रीपाल राजा राज्य करता है। कोंकणनगरमें होकर किकिध्य नगर में आया। इत्यादि बहुतसे नगर देखे, फिर पश्चिममें जाकर सौराष्ट्र देश (काठियावाड़) देखा । श्री गिरनार पर्वत पर आया। भी नेमिनाथ तीर्थकरके पंचकल्याणकोंके स्थान व वह स्थान देखा जहां श्री नेमनाथने राजीमतीको छोड़कर तप किया था। उसी गिरनार पर्वतसे यदुवंश शिरोमणि नेमनाथ मोक्ष प्राप्त हुए हैं।
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जम्बूस्वामी चरित्र
मिल्लमाल विशाल देशमें गया। अर्बुदाचल ( माबू) पर प्राप्त हुमा । महा रमणीक संपत्ति पूर्ण काट देशको देखा। चित्रकूट पर्वत होकर मालवादेशमें गया। इस भवंती देशके जिन मंदिरोंकी महिमा क्या वर्णन करूं। फिर उत्तर दिशामें गया । शाकंभरी पुरी गया, जो जिन मंदिरोंसे पूर्ण है व मुनियोंसे शोभित है। काश्मीर, करहार, सिंधुदेश मादिमें होकर मैं व्यापार करता हुमा पूर्वदेशमें आया । कनौज, गौड़देश, अंग, बंग, कलिंग, मालंधर, बनारस व कामरूप (मासाम)को देखा। जो जो मैंने देखा मैं कहांतक पहूं।
इस तरह परम विवेकी भंवृकुमार स्वामी जगतपूज्य नयवंत हो जो विरक्तचित्त हो पर पदार्थ के ग्रहणसे उदास हो स्त्रियों के मध्यमें बैठे चोरकी बात सुन रहे हैं।
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दशवां अध्याय |
जंबूस्वामी विद्युच्चर वार्तालाप |
( श्लोक १५९ का सारांश | )
मोहरूपी महायोद्धाको जीतनेवाले मल्लिनाथकी तथा सुत्रतों को बटानेवाले मुनिसुव्रत तीर्थकर की स्तुति करता हूँ ।
विद्युवरका समझाना व कथा कहना ।
अब विद्युचर मामा के रूपमें श्री जंबूकुमार स्वामीको कोमल बचनों से समझाता हुआ कहने लगा- हे कुमार ! तुम बड़े भाग्यवान ! हो, ऐश्वर्यवान हो, कामदेवक समान तुम्हारा रूप है । वज्रधारी इन्द्र के समान बलवान हो, चंद्रमाकी किरण समान यशस्वी व शांत हो, मेरु पर्वत के समान धीरवीर हो, समुद्र के समान गंभीर हो, सूर्यके समान तेजस्वी हो, कमलपत्र के समान नम्र स्वभावधारी हो, शरणा
की रक्षा करनेको बलवान हो । जो जगत में दुर्लभ भोग सामग्री है सो पूर्व बांधे हुए पुण्यके उदयसे तुमने प्राप्त की है । किनही को दुर्लभ वस्तु मिल आती है, परन्तु वे भोग नहीं कर सक्ते हैं, जैसे भोजन सामने होनेपर भी रोगी खा नहीं सक्ता । किसीको भोजनक्की शक्ति तो है, परन्तु भोगादि सामग्री नहीं मिलती है। जिसके पास मनोज्ञ भोग सामग्री भी हो व भोगने की शक्ति भी हो, फिर भी वह भोग न करे तो उसको यही कहा जायगा कि वह देवसे
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जम्बूस्वामी चरित्र
ठगा गया है। जैसे किसीके पास स्त्रियां हों, परन्तु उसके काग-भोगका उत्साह न हो। या किसीको काम-भोगका उत्साह. हो, परन्तु स्त्रियां न हों। किसीको दान करनेका उत्साह तो है परन्तु घरमें द्रव्य नहीं है। किसीके घरमें दम है परन्तु दान करनेका उत्साह नहीं है । दोनों बातोंको पुण्यके उदयसे धारकर जो नहीं भोगता है उसे मूर्ख ही कहना चाहिये। मूर्ख मानव खरगोश के सींगको व बंध्याके पुत्रको मारना चाहता है सो उसकी मूर्खता है। जिसके लिये चतुर पुरुष तप करनेका क्लेश करते हैं। वह सब सर्वांग पूर्ण सुख तेरे सामने उपस्थित है, उसको छोड़कर
और अधिकची इच्छासे जो तुम तप करना चाहते हो सो यह तुम्हारा विचार उचित नहीं है। दृष्टांतरूपमें मैं एक कथा कहता हूं। सो हे मागिनेय ! ध्यानसे सुन
एक युवान ऊंट था, वह वनमें इच्छानुसार बहुतसे वृक्षों को खाता फिरता था । एक दिन वह एक वृक्षके पास आया जो कूपके पास था। उसके पत्तोंको गलेको ऊँचा करके खाने लगा। उसके स्वादिष्ट पत्तोंको खाते खाते उसके मुखमें एक मधुकी बूंद पड़ गई। मधुके रसका स्वादका लोभी हो वह विचारने लगा कि इस वृक्षकी सबसे ऊँची शाखाको पफड़नेसे बहुत अधिक मधुका लाभ होगा। मधुका प्यासा होकर ऊपरकी शाखापर वारवार गलेको उठाने लगा तो पग उठ गए, यकायक वह बिचारा कूपमें गिर पड़ा। उसके सन मङ्ग टूट गए। जैसे महा लोभके कारण इस ऊँकी दशा
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जम्बूस्वामी चरित्र
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हुई, वैसे ही तुम्हारी दशा होगी, जो तुम अज्ञानसे मोहित होकर प्राप्त संपदाको छोड़कर भागेके भोगोंके लामके लिये तप करना चाहते हो।
जम्बूस्वामीकी कथा। तब जम्बूस्वामी कहने लगे कि हे मामा ! आपके कथन के उत्तरो मेरी कथा भी सुनो
__एक वणिक पुत्र घरके कार्य में लीन था । एक दिन व्यापारके लिये स्वयं परदेश गया । मार्ग भूलकर वह एक भयानक वनमें फंस गया। प्यास भी बहुत लगी। पानी न पाकर पश्चाताप करने लगा कि मैं घरसे वृथा ही आकर इस बनके भीतर फंस गया। यदि जल न मिला तो प्याससे मेरा मरण अवश्य होजायगा । ऐसा विचार करते हुए बैठा था कि चोरोंने भाकर उसका माल लूट लिया। 'धनकी हानिके शोकसे व प्याससे पीड़ित होकर वह एक पग भी चल न सका । एक वृक्षके नीचे सोगया, वहां सोते हुए उसने एक बटन देखा कि वनमें एक सरोवर है, उसका पानी मैं पीरहा हूं, 'ह्विासे पानीका स्वाद रहा हूं। इतनेमें जाग उठा तो देखता है कि न कहीं सरोवर है, न कहीं जल है। हे मामा ! स्वप्नके समान 'सब सम्पदाओंको जानो । यकायक मरण भाता है, सब छूट जाता है। ऐसे स्वप्नके समान क्षणभंगुर भोगोंमें महान् पुरुषोंका स्नेह कैसे होसता है?
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विद्यचरकी कथा |
कुमारकी कथाको सुनकर वास्तवमें वह उसी तरह निरुत्तर होगया जैसे एकांत मतवादी स्याद्वादीके सामने निरुत्तर होजाते हैं । फिर भी वह विद्युच्चर दूसरी कथा कहकर उधम करने लगा ।
एक कोई वृद्ध बनिया था, वह अपनी स्त्रीसे प्रेम करता था परन्तु उसकी स्त्री नवयौवन व्यभिचारिणी व दुष्टा थी । एक दिन वह घर से सुवर्णादि लेकर निकल गई । वह काम - लेपटी इच्छानुसार भोगोंमें रत होना चाहती थी । जाते हुए किसी घूर्त ठगने देख लिया, देखकर उसको मीठे वचनों से रिझाने लगा ।
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हे सुंदरी | तुझे देखकर मेरे मन में स्नेह पैदा होगया है कि न जाने क्या कारण है । जन्मांतरका तेरे साथ लेइ है ऐसा विदित होता है । वह कहने लगी कि यदि तेरे मनमें मेरी तरफ प्रेम है तो आजसे तुमही मेरे भर्तार हो, दूसरा नहीं है। इस तरह परस्पर स्नेन्हवान हो वे पति पत्नी के समान रहने लगे, इच्छानुसार कामक्रीडा करने लगे । इस तरह दोनोंका बहुतसा काळ चीत गया । एक दिन वह दूसरे कामी पुरुष के साथ स्नेहवर्ती होगई, वह निर्लज्ज घृणा रहित माया व मिथ्या भावसे मरी हुई कामभाव से जलती हुई दोनों दीके साथ रतिकर्म करने लगी। वास्तवमें स्त्रियोंके मनमें कुछ और होता है, वचन कुछ कहती हैं । पण्डितोंको कभी भी स्त्रियोंका विश्वास न करना चाहिये ।
एक दिन दुष्टबुद्धिवारी प्रथम जार पुरुष दूसरे पुरुषका आना १६९
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जानकर विचारने लगा कि किसी तरह स्त्री से उसका पिंड छुड़ाना चाहिये । उसने जाकर कोतवालसे कहा कि रात्रिको कोई जाकर मेरी स्त्रीकेसाथ रमण करता है, उसे रात्रिको आकर पकड़ ले तो तुझे सुवर्णका लाभ होगा। ऐसा कह कर वह घर आगया । रात्रि होने पर पहला पति जागता हुआ ही सो गया कि मैं इस स्त्रीके खोटे चारित्रको देखूं । इतने में रात्रिको दूसरा जार पति आगया तब वह व्यभिचारिणी पहले पति के पाससे उठ कर दूसरे के पास चली गई । जब वह दूसरा जार कामातुर हो स्त्रीभोग करने को ही था कि कोतबाल उसके पकडनेको भागया । कोलाहल होने पर वह दुष्टा पहले जार के साथ आके सोगई । रुद्र स्वभाववारी सिपाहियोंने कहा कि यहां वह जार चोर कहां है । इतने में दूसरा जारपति बोल उठा कि मैं तो निन्द्रामें था, मैं नहीं जानता हूँ | इधर उधर देखते हुए क स्त्रीकेसाथ पूर्वपतिको देखकर पूर्वपतिको पकड़ लिया कि यही वह जार है, तथा यही वह स्त्री है। जिसने पकड़ाना चाहा था वही पकड़ा गया । सिपाहियोंने मारते मारते बड़ी निर्दयता से उसे कोत
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बाली में पहुंचाया !
इस बात को देखकर वह स्त्री डरी, कदाचित् मुझे भी सिपाही पकड़ । इसलिये उसने भागना निश्चय किया तब उसने दूसरे जारको समझा दिया कि हम दोनों मिलकर यहांसे निकल चलें । उस स्त्रीने घरके वस्त्राभूषणादि बहुमूल्य वस्तु ले ली और जारके साथ घर से निकली ।
मार्ग में गहरी नदी मिली । तब यह दूसरा जार मायाचार से
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जम्बूस्वामी चरित्र ठगनेके लिये वोला कि हे प्रिये ! वस्त्राभूषणादि सब मुझे दे दे, मैं पहले पार जाकर एक स्थानमें इनको रखकर पीछे भाकर तुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर भले प्रकार पार उतार दूंगा । स्वयं वह धून थी ही, उसने उस धूर्त का विश्वास कर लिया । उसने पति जानकर अपने संव गहने कपड़े उतार कर दे दिये । आप नग्न होकर इस तटपर बैठी रही। वह दुष्ट ठग नदी पार करके लौट कर नहीं माया । यह मलेली यहां बैठी रही, तब स्त्रीने वहा-हे धूर्त ! तु लौट कर भा। मुझे छोड़कर चला गया ? उस ठगने कहा कि तु. बड़ी पापिनी है। वहीं बैठी रह । इतने में एक शृगाल सागया। जिसके मुखमें मांसपिंड था, पूछ ऊंची थी। उस शृगालने पानीमें उछलते हुए एक मछलीको देखा । तब वह अपने मुखके मांसको पटाकर महा लोमसे मछली के पकडनको दौडा । इतने में वह खूब गहरे पानी में चला गया, तब वह कोभी स्यार उसी मांसको लेकर दूसरे वनमें भाग गया, वह स्त्री ऐसा देखकर इंसी कि स्यार.. को मछली नहीं मिली। उसने विना विचारे काम किया। स्वाधीनमांसको छोडकर पराधीन मांस लेने की इच्छा की । वह धूर्त चोर भी. दुसरे पारसे कहने लगा-हे मूर्खे। तुने क्या किया, तृ अपनेको देख। यह पशु तो अज्ञानी है, हित अहितको नहीं जानता है, तु कैसी मज्ञानी हैं कि अपने पतिको मारकर दूसरे के साथ रति करने लगी।
इतना कहकर वह धूर्त ठग अपने घर चला गया तब वह स्त्री लज्जाके मारे नीचा मुख करके बैठ रही।
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जम्बूस्वामी चरित्र
हे भागिनेय ! तुम माने पास की लक्ष्मीको छोडकर मागेकी इच्छाको करके मत जामो नहीं तो हास्यके पात्र होंगे।
जम्बूकुमारकी कथा। तब फिर जंबूकुमार अपने दांतोंकी कातिको चमकाते हुए कहने लगे
एक व्यापारी जहाजका काम करता था। एक दिन जहाज. पर चढकर वह दूपरे द्वीपमें गया। वहां सर्व माझ वेचकर एक रत्न खरीद लिया । तब वह बनिया अपने घरको लौटा। मार्गमें भरने हाथमें रतन रखकर व बारबार देखकर यह विचारने लगा। समुद्रतट पहुंचकर मैं इस महान रत्नको बेच डालूंगा और हाथी घोडे बादि नाना प्रकारकी वस्तु खरीदूंगा, फिर राजाके समान होकर अपने नगरको जाऊंगा । लक्ष्मीसे पूर्ण हो मंत्री व नौकर चाकर रवगा। मैं घरमें रह कर स्वस्त्रीके साथ सुखसे जीवन विताऊंगा। मुपहराते हुए स्त्रियोंको देखूगा। पुत्र पौत्रादि होंगे उनको देख कर प्रसन्न हूंगा। ऐसा मनमें विचारता जारहा था कि पापके उदयसे व प्रमादसे वह रतन हाथसे समुद्र में गिर पड़ा, तब उसके मनके सब मनोरथ वृथा रह गए। रतन न दीखने पर हाहाकार करके रोने लगा।
हे मामा ! मैं इस तरह नहीं हूंगा कि धर्मके फलको छोड़कर वर्तमान विषयभोगों में फंसकर दुःख भोगू।
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जम्बूस्वामी चरित्र
स्वामीके इस उत्तरको सुनकर वह चोर निरुत्तर होगया तथापि वह एक और कथा कहने कना, जैसे मृदंगको मारनेसे वह ध्वनि निकालता ही है।
विद्यञ्चरकी कथा। एक धनुषधारी शिकारी भील विंध्याचल पर्वत पर रहता था। उसका नाग दृढ प्रहारी था। उसने एक दिन एक बग हाथीको जो सरोवर में प्यासा होकर पानी पीने गाया था जानसे मार डाला। पापके उदयमे उसी क्षण एक सर्पने भीलको डंस दिया, भील भी मर गया । वह सांप भी धनुषके गनेसे घायल होकर मर गया। वहां हाथी, मीक और सांर तीनों मृतक पड़े थे, इतने में एक भूखा स्वार वा नागया। वहां पर हाथी, भील, सांप व धनुपको पड़ा हुआ देखकर लोमके कारण बहुत हर्पित हुगा । वह स्यार मनमें विचारने लगा कि इस मरे हुए हाथीको छः मास्तक निश्चित हो ख:ऊँगा। उसके पीछे एक मासतक इय मनुष्य का शरीर भक्षण करूँगा। उसके पीछे सांपको एक दिनमें खा जाऊंगा। उन सबको छोड़कर आज तो मैं इस धनुषकी रासीको ही खाता हूं। उसमें बाण लगा था वह माण उसके तालमें घुस गया। पारके उदयसे वह डोरी खाते हुए बहुत कष्टसे मरा ।
ई कुमार ! जैसे बहुत सुखकी इच्छा करनेसे स्यारका मरण होगया वैसे तुम इस सांसारिक वर्तमानके सुखको छोड़कर मधिकमुखके लिये घरको छोड़ जाओगे तो हास्यको पाओगे।
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जम्बुकुमार मामाकी कथाको सुनकर उत्तर देने के लिये एक रमणीक कथा कहने लगे..
जम्बूस्वामीकी कथा। एक अति दरिद्री मजदूर था जो वनसे ईंधन काकर व वेचकर पेट भरता था। एक दिन वनसे कंधेपर भारी बोझा काया था। दोपहरको उस भारको यत्नसे रखकर अपने घरमें ठहरा । -वह बिचारा बहुत प्यासा था। ताल्लू सुख गए थे। बोझा लानेका भी कष्ट था। भार रखकर एक वृक्षक नीचे शांतिको पाकर क्षण मानके लिये सो गया। नीदमें उस मजदूरने स्वप्न देखा कि वह राज्यपदपर बिगजित है। मणि मोतीले जड़े हुए सिंहासनपर बैठा है। वारवार चमर ढर रहे हैं । बन्दीजन विरह वखान रहे हैं। हाथी, घोड़े आदि बहुत परिवार हैं । फिर देखा कि राजमहल में बैठा है। चारों तरफ स्त्रियां बैठी हैं। उनके साथ हास्य-विनोद होरहा है। इतनेहीमें उसकी भूखसे पीड़ित स्त्रीने लाड़ीसे व पैरोंसे ताडकर उसको जगाया। यकायक उठा। उठकर विचारने लगा कि वह राज्यलक्ष्मी कहां चली गई ! देखते देखते क्षण मात्र में नाश होगई !
हे मामा | इसी तरह स्त्री आदिका संयोग सब स्वपके समान क्षणमात्रमें छूटनेवाला है व इनका संयोग प्राणीके प्राणोंका भपहरण करनेवाला है। ऐसा समझकर कौन बुद्धिमान दुःखोंके स्थानमें अपनेको पटकेगा।
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भूमि निरख कर वनकी ओर चल पड़े। ईस्थि शुद्धिसे चल करके धीरे २ जंबू मुनि वनमें श्री सौधर्माचार्य निष्ट माये। महान् । तेजस्वी जम्बू मुनिको एक निर्वाण लाभकी ही भावना थी, इसीलिये तपकी सिद्धि करना चाहते थे।
कुछ सालके पीछे सौधर्म भाचार्यको स्वाभाविक केवलज्ञानका काम होगया । अनंत स्वभावधारी सर्वज्ञ के वलीके चरणों में रहकर जंबूस्वामी महामुनिने कठिन कठिन तपका साधन किया।
जम्बूस्वामीका तप । स्वामी बारह प्रकारका तप करने लगे। आत्माकी विशुद्धिके लिये एक दो मादि दिनोंकी संख्यासे उपवास करते थे। शांतभाव धारी एक ग्रास दो ग्रास मादि लेबर भी महान् भवमोदर्य ता करते -थे । लोभ रहित स्वामी यथा अवसर मिक्षाको जाते हुए घरोंकी . •संख्या कर लेते थे। इसतरह वृत्तिसंख्यान तीसरा तप साधन करते थे।
इन्द्रियोंको जीतने के लिये व काम विकारकी शांति के लिये बस त्याग नामके चौथे तपको करते थे। आत्मवशी जब मुनिराज -वन पर्वत भादि शून्य स्थानों में बैठकर विविक्त शय्यासन नामका यांचमा तप किया करते थे। महान् उपसर्गको जीतने के लिये शस्त्रके -समान कायक्लेश नामके छठे तपको करते थे। श्री जंबूस्वामी परम धैर्यके एक महान् पद थे, महान् वीर्यघारी थे, छः प्रकार के बाहरी सपको सहजमें ही साधन करते थे। इसीतरह स्वामीने छः प्रकारका मतरङ्ग तप साधन किया।
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मन वचन काय सम्बन्धी कोई दोषकी शुद्धिके लिये प्रथम प्रायश्चित्तः तपको स्वीकार किया। निश्चयरत्नत्रयरूपी शुद्धात्मीक धर्ममें तथा मरहंत मादि पांच परमेष्ठियोंमें विनय तपको करते थे। मुनिराजोंको नमस्कार व उनकी सेवाको नहीं उल्लंघन करते हुए, तीसरा सुखदाई कैय्यावृत्य तप पालन किया करते थे। शुद्धात्माके. अनुभवका अभ्यास करते हुए निश्चय स्वाध्यायरूपी चौथे परम तपका साधन करते थे। शरीरादि परिग्रहमें ममत्व भावको विलकुल दूर करके स्वामीने पांचमा व्युत्सर्ग तप साधन किया। सबसे श्रेष्ठ तर ध्यान है। सर्व चिंतासे रहित होकर चैतन्य भावका ही मालम्बन करके स्वामीने छठा ध्यान तपका माराधन किया। ये छः अंतरङ्ग शुद्ध तप मोक्षके कारण हैं। वैराग्यभावकारी स्वामीने दोष रहित इन सबोंको पाला । यथाजात स्वरूपके घारी मन, वचन, कायको. निरोध करके तीन गुप्तियोंको पालते थे । स्वामीने कषाररूपी शत्रु
ओंकी सेनाको जीतने के लिये कमर कस ली । शांतभावरूपी शस्त्रको लेकर उन कपार्योका सामना करने लगे। कामदेवकी स्त्री रतिको तो स्वामीने पहिले ही दूरसे ही भस्म कर दिया था। अब कामदेवरूपी योद्धाको लीला मात्र जीत लिया । द्रव्य व भाव श्रुतके भेदसे नाना प्रकार भर्थसे भरी हुई द्वादशांग वाणीके बुद्धिमान. जम्बु मुनि पार पहुंच गए थे।
सौधर्माचार्यका निर्वाण। इस तरह जब जंबुस्वामीको अनेक प्रकार तप करते हुए
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जम्बूस्वामी चरित्र अठारह वर्ष एक क्षणके समान बीत गए थे, तब माघ सुदी सप्तमीके दिन सौधर्मस्वामी विपुकाचल पर्वतसे निर्वाण प्राप्त हुए । तब सौधर्ममामीशा मात्मा अनंत सुखके समुद्र में मम होगया । वे अनंत बल, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञानके धारी निरंतर शोभने लगे। अपने कल्याण के लिये मैं उनको नमस्कार करता हूं।
जम्बूखामीको केवलज्ञान । उसी दिन जब भाषा पहर दिन बाकी था तब श्री जंबूस्वामी मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न होगया। पहले उन्होंने मोह-शत्रुका क्षय किया। फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय कर्मका क्षय कर लिया। वे अनन्त चतुष्टयके धारी मरहंत होगए । पद्मासनसे विराजित थे, तब ही केवलज्ञान लाभकी पूजा करनेके लिये देव-गण अपने परिवार सहित व अपनी विभूति सहित बड़े उत्साहसे भागये । इन्द्रादिदेवोंने स्वामीको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया जय जय शब्दोंका उच्चारण किया, तथा बड़े हर्षसे प्रभुकी भक्तिपूर्वक अष्टद्रव्यले पूजा की । इन्द्रोंने अनुपम गद्य पद्य गर्मित स्तुति पढ़ी। उस स्तुतिमें यह कहा-प्रचण्ड कामदेवके दर्परूपी सर्पको नाश करने के लिये आप गरुड़ हैं, आपकी जय हो। केवलज्ञान सूर्य से तीन लोकको प्रकाश करनेवाले प्रभुकी जय हो। इसप्रकार अतिम केवली जिनवरकी अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे -स्तुति करके अपनेको कतार्थ मानते हुए देवादि सब अपनेर स्थानपर गये।
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जम्बूस्वामी चरित्र विपुलाचलसे जम्बूस्वामीका निर्वाण ।
पश्चात् श्री जंबूस्वामी जिनेन्द्रने गंधकूटीमें स्थित हो उपदेश किया। स्वामीने मगधसे लेकर मथुरा तक व अन्य भी देशोंमें मठारह वर्ष पर्यन्त धर्मोपदेश देते हुए विहार किया। फिर केवली महाराज विपुलाचक पर्वपर पधारे । भाठों कर्मोंसे रहित होकर निर्वाणको प्राप्त हुए। नित्य अविनाशी सुखके भोक्ता होगये ।
पश्चात् महदास मुनीश्वर भी समाधिमरण करके छठे देवलोक पधारे । श्रीमती जिनमती मार्यिशाने स्त्रीलिंग छेद दिया और उत्तम समाधिमरण करके ब्रह्मोचर नामफे छठे स्वर्गमें इन्द्रपद पाया। चारों वधुएं मार्यिका पदमें चंपापुरके श्री वामपूज्य चैत्यालयमें थीं। वहां प्राण त्यागकर महर्द्धिक देवी हुई।
विद्युचर मुनि मथुरामें। विद्युच्चर नामके महामुनि तप करते हुए ग्यारह मंगके पाठी होगए । विहार करते हुए पांचसौ मुनियों के साथ एक दफे मथुराके महान दनमें पधारे । वनमें ध्यानके लिये बैठे कि सूर्य अस्त होगया । मानो सूर्य मुनियोंपर होनेवाले घोर उपसर्गको देखनेको असमर्थ होगया। उसी समय चंद्रमारी नामकी वनदेवीने मुनियोंसे निवेदन किया कि यहां भाजसे पांच दिन तक भापको नहीं ठहरना चाहिये । यहां भूत प्रेतादि भाकर भापको नाषा करेंगे, आप सहन नहीं कर सकेंगे। इसलिये माप सब इस स्थानको छोड़कर अन्य स्थानमें विहार कर जाओ। ज्ञानियों को उचित है कि संयम व
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एक बस इसतरह छः प्रकार प्राणियोंके प्राणों की हिंसा करना छः ये हैं
स्वानुभूतिको धर्म कहते हैं। जिससे स्वानुभूतिमें मसावधानी होजावे उसको प्रम द कहते हैं। धर्मः स्वात्मानुभूत्याख्या प्रमादो नवधानता । यह फर्मास्रवका द्वार पन्द्रह प्रकारका है । चार विकथा स्त्री, भोजन, देश व राजा। उनके साथ चार कषाय व पांच इन्द्रिय निद्रा व सह । इनके गुणा करनेसे प्रमादके मस्सी भेद होते हैं। मन, वचन, वायती वर्गणाओं के निमित्तसे मात्माके प्रदेशों का परिस्पंद होना-हिलना, सो योग तीन प्रकारका है। इसके भेद पन्द्रह हैं-सत्य, असत्य, उभय, मनुभय, मनयोग तथा सत्यादि. वचन योग व सात प्रकार काय योग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, माहारक, माहारक मिश्र, कार्मण । सब मिलके आस्रव भाव सत्तावन हैं। ५ मिथ्यात्व + १२ अविरत + २५ कषाय + १५ योग = ५७ इनका विशेष सरूप गोम्मटसारादि ग्रंथोंसे जानना योग्य है। कर्म स्वरूपसे एक प्रकार है। द्रव्य कर्म व भावधर्मके भेदसे दो प्रकार है। द्रव्यधर्म माठ प्रकार व एकसौ मड़तालीस प्रकार है या असंख्यात लोक प्रकार है। शक्तिकी अपेक्षा उनके भेद उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजधन्य । यह सब कथन परमागमसे जानना योग्य है।
संवर भावना। निश्चयसे सर्व ही आसत्र त्यागने योग्य हैं। आस्रव रहित एक अपना आत्मा शुद्धात्मानुभूति रूपसे ग्रहण करने योग्य है ।
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भाचार्योने भास्रवके निरोधको संवर कहा है। उसके दो भेद हैं-द्रमास्त्र और भावात्रव । जितने अंशमें सम्यम्हष्टियों के कषा-योका निग्रह है उतने अंश भाव समर जानना योग्य है। कहा है--
येनांशेन कषायाणां निग्रहः स्यात्सुदृष्टिनाम् । तेनांशेन प्रयुज्येत संवरो भावसंज्ञाः ॥ १२३॥
भावार्थ-भाव संवर के विशेष मेद पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परीपह जय वषांच प्रकार चारित्र है।
रागादि भावोंके न होनेपर जितने अंश काँका मानव नहीं । होता है उतने अंश द्रव्यसंवर कहा जाता है । मोक्षका साधन संबरसे होता है। अतएव इसका सेवन सदा करना चाहिये। निश्चय से भाव संवरका भविनाभावी शुद्ध चैतन्य भावका अनुभव है सो सदा कर्तव्य है।
निर्जरा भावना। निर्जरा भी दो प्रकारको है-भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। द्रव्य निर्जरा सम्यग्दृष्टीसे लेकर जिन पर्यंत ग्यारह स्थानोंके द्वारा असंख्यात गुणी भी कही गई है । जिस मात्माके शुद्ध भावसे पूर्वबद्ध कर्म शीघ्र अपने रसको सुखाकर झड़ जाते हैं उस शुद्ध भावको भाव निरा कहते हैं। मात्मा के शुद्ध भांवके द्वारा तप मतिशयसे भी जो पूर्वबद्ध द्रव्यकोका पतन होना सो द्रव्य निर्जरा है।
जो धर्म अपनी स्थिति के पाक समयमें रत देकर झडते हैं वह सविधाक निर्जरा है। यह सर्व जीवोंमें हुमा करती है। यह
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जम्बूस्वामी चरित्र सविपाक निर्जरा मिथ्यादृष्टियों के बंत्रपूर्वक होती है । क्योंकि तब मोहका उदय होता है । इसलिये यह निर्जरा मोक्षसाधक नहीं है । सम्यग्दृष्टियों के सविपाक या अविपाक निर्जरा संवर पूर्वक होती है। यह मोक्षकी साधक है । ऐसी निर्जरा मिथ्याह ष्टयों के कभी नहीं होती है । कहा है
इयं मिथ्यादृशामेव यदा स्यादुबंध पूर्विका । मुक्तपे न तदा ज्ञेया मोहोदयपुरःसरा ॥ १२० ॥ सविपाका विपाका वा सा स्यात्संवरपूर्विका । निजरा सुदृशामेव नापि मिथ्यादृशां कचित् ॥१३१॥
मोक्षकी सिद्धि चाहनेवालोंको उचित है कि निर्जराका लक्षण जानकर उस निर्जराके किये सर्व प्रकार उद्यम करके शुद्धात्माका आराधन करें ।
लोक भावना ।
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इस छः द्रव्योंसे भरे लोकके तीन भाग हैं- नीचे वेत्रासन या मोटेके आकार है । मध्य में झालर के समान है, ऊपर मृदंग के समान है, अधोलोक में सात नरक हैं जिनमें नारकी जीव पावके उदय से छेदनादिके घोर दुःख सहन करते हैं । कोई जीव पुण्यके उदयसे ऊर्द्धलोक में स्वर्गौने पैदा होकर सागरोंतक सुख सम्पदाको भोगते हैं । मध्यलोक में तिर्थच व मनुष्य होकर पुण्य व पापके उदय से कभी सुख कभी दुःख दोनों भोगते हैं । लोकके अग्रभाग के ऊपर मनुष्य को ढ ईंद्वीप प्रमणं पैतालीस लाख योजन चौड़ा सिद्धक्षेत्र २०७
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________________ पू. मी चरित्र है, जहां अनन्त सुखको भोगते हुए सिद्ध परमात्मा बसते हैं। इस तरह तीन लोकका स्वरूप जानकर महाऋषि ण मोहको क्षयकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई मार्गके द्वारा लोकके जार जो सिद्धालय है उसमें जानेका साधन करते हैं। बोधिदुर्लभ भावना। एकाग्रमन होकर भात्माका अनुभव करना सो बोधि है, इस बोधिका लाम जीवोंको बहुत दुर्लम है यह विवारना बोषि दुर्लभ भावना है। अनादि नित्य निगोदरूप साधारण वनस्पतियोंमें अनंतानंत जीवोंका नित्य स्थान है। अनन्तकाल रहनेपरभी कोई जब कभी वहांसे निकलते हैं / और पृथ्वी, जल, ममि, वायु, प्रत्येक वनस्पतिके किसी तरह जन्म प्राप्त करते हैं। नित्यनिगोदके सम्ब. न्धमें कहा है-- अनंतानंतजीवानां समानादिवनस्पतौ। निःसरंति ततः केचिद्गतेऽनतेऽप्यनेहसि // 14 // भावार्थ-मशुभ कर्मों के कम होनेपर व अज्ञान अंधकारके कुछ मिटनेपर एकेन्द्रियसे निकलकर द्वन्द्रियादि तियेच होते हैं उनमें पर्याप्तपना पाना बहुत कठिन है / प्रायः अपर्याप्त जीव बहुत होते हैं जो एक श्वास (नाड़ी) के अठारहवें भाग मायुको पाकर मरते हैं / इनमें भी पंचेन्द्रिय तियेच होना बहुत कठिन है। मसैनी पंचेन्द्रियसे सैनी पंचेंद्रिय फिर मनुष्य होना बहुत दुर्लभ है ! कदाचित् कोई मनुष्य भी हुमा तब मार्यखण्डमें जन्मना कठिन है। मार्यखण्डमें 208