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श्री जैन नाटकीय रामायण
दशरथ-हे जगत गुरु स्वामी ! आपने अपना सत उपदेश देकर मुझे दृढ़ किया । मैं अयोध्या जाकरे गमचन्द्र को राज्य देकर बनमें जाकर मुनीवेष धारण करूंगा ।
पर्दा गिरता है।
अंक तृतिय-दृश्य द्वितीय
कोमिक (एक साधू आता है, उसके पीछे साधू भेष में ही
सतीष आता है।) साधु-जय लक्ष्मी, जय लक्ष्मी ।
गाना लक्ष्मीसे इस जगके भीतर, नर जन मौज उड़ाते हैं। लक्ष्मी बिन कहलाते लुच्चे, पगपग ठोकर खाते हैं। चाहे होय कुकर्मी पापी, पर होवे लक्ष्मी वाला। भेष छिपा करके उसका यश, पंडित गण सब गाते हैं लक्ष्मी से परसन हो लक्ष्मी, पति से प्रेम दिखाती हैं, लक्ष्मी बिन पति तो निश दिन ही, घर जाते भय खातेहैं कहलाना हो बड़ा पुरुष तो, करलो लक्ष्मी की सेवा।