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तृतीय भाग
(२०३)
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दशरथ-हे गुरू! मैं आपसे मुनि का धर्म सुनना चाहता हूं। मैं इस संसार से व्याकुल हो रहा हुँ । मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मुझ में वैराग्य उत्पन्न हो ।
सुनी-हे भव्य सुन ! इस संसार में चार गतियां हैं। किन्तु जीव का सुख किसी भी गती में नहीं है। मनुश्य गती में मनुष्यों को अनेक प्रकार की चिन्ताओं और इच्छाओं के कारण कभी सुख नहीं मिलता। किन्तु मनुष्य गती से जीव मोक्ष जा सकता है इसीसे इस गती को सर्वोत्कृष्ट बताई है । अत्यन्त कठिनता से जीव को मनुष्य की देह प्राप्त होती है। मनुष्यों में भी उत्तम धर्म उत्तम कुल उत्तम जाति और उत्तम शरीर का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है यदि इन्हें पाकर भी किसी ने धर्माचरण नहीं किया तो समझ लो कि उमन चिन्तामणि रत्न को हाथ से खोदिया । जो लोग कहते हैं मनुश्य बन कर भोगविलास करना चाहिये वो मूर्ख हैं। ये भोगविलास मनुष्य को अपनी
ओर लुभाने वाले हैं उनकी ओर न खिंच कर यदि ये मनुष्य धर्म के मार्ग पर आचरण करता है तो ऐसे सुख को प्राप्त होता है जो कभी नाश न हो। इस लिये हे भव्य तूने मनुष्य की उत्तम देह पाई है तू इस संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिये मुनी धर्म का आचरण कर ।