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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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स्तुति है कांच कंचन एक समजो, बन महल सब एकसे। चाहे रिपु हो मित्र हो या, भाब हित से देखते ॥ . तन सुखाते नित्य तप से, कर्म को हो मेटते । छोड़ सब जंजाल तुम निज, आतमा से भेंटते ॥ हे गुरू ? मैं चाहता हूं, धर्म का उपदेश हो। चाहता मुनिपद ग्रहण करना सभी ये भेष खो ॥ हूं दुखी संसार से मैं, तारिये मुझ को गुरू । दीजिये शिक्षा विमल को, होय आत्मोन्नति शुरू॥ ___मुनिमहारान-हं भव्य तेरे धरम उपदेश सुनने के बहुत उत्तम भाव पैदा हुवे धर्म दो प्रकार का है एक मुनि धर्म
और दूसरा ग्रहस्थ धर्म । ग्रहस्थ धर्म में मनुष्य घर में रहते हुये ब्यापार करते हुवे भी यथा योग्य बारह व्रतों को पालते हुवे अपनी श्रात्मा का उपकार कर सकते हैं । मुनि धर्म अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें सारे घर बार नारी बच्चे सब छोड़ कर जंगल में वास करना पड़ता है । पंच महाव्रत पालने पड़ते हैं ! अपनी देह से ममत्व छोड़ना पड़ता है। तू जिस धर्म को चाहे मैं संबोधूं।