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तृतीय भाग।
(२०१ )
पिता चन्द्रगतीजी खड़े हैं । प्रेम के लिये बहुत समय है।
सीता-भाई मुझे तुम्हें देखकर श्राज अनोखी सम्पदा मिली है। ( चन्द्रगती से) पिताजी आपने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया जो मेरे भाई को मुझसे मिलाया !
चन्द्रगती-उपकार नहीं, मैं अपने दुर्भाग्य समझता हूं जो अब तक तुम सरीखी पिता कहने वाली पुत्री के दर्शन न कर सका । तुम्हारी और रामचन्द्र की जोड़ी देखकर मुझे भत्यन्त हर्ष है। (राजा जनक गाता है। विदेहा भी आती है । इशरथ भी आते हैं। और भी लग लोग आ. जाते हैं विदेहा दौड़कर भामण्डल के चिपट जाती है। पुत्र ! पुत्र कहते नहीं थकती । सब आपस में मिलेते हैं । जनक की आंखों से भी पानी बह रहा है। दशरथ आदि सर हर्ष मना रहे हैं।)
ड्राप गिरता है द्वितिय अंक समाप्त
अंक तृतिय-दृश्य प्रथम (जंगल का दृष्य है। एक शिलापर एक मुनि बैठे हैं । राजा दशरथ उनके पास जाते हैं। प्रणाम
करके स्तुति करते हैं)