________________
जम्बूस्वामी चरित्र
इतनेही में एक विद्याधर भाकाश मार्गसे जारहे थे उसने वणिकको कूपके कार लटकते देखकर वह विमानसे उतरा और बोला-हे मूढ़ ! मैं विद्याधर हूँ, मैं तुझे निकाल सक्ता हूँ ! मेरी भुनाको पकड़, तू निकल जा, संकटसे बच जा। सुनकर वह मधुझे रसके स्वादका लोलुपी कहने लगा-थोड़ी देर ठहर जामो, जबतक एक मधुकी बूँद मेरे मुख में और न माजावे । दयावान विद्याधरने फिर भी कहा किरे मूढ़ ! तेरा मरण निस्ट है, विंदु मात्रके लोभसे कूरमें प्राण न गमा । तू हलाहल विष खाकर जीना चाहता है सो ठीक नहीं है। मेरी भुना पकड़, देर न कर । इस तरह बहुत बार समझाया परन्तु वह रसना इन्द्रियके लोभवश नहीं समझा। विद्याधरने उसे मूर्ख समझा और वह अपने मार्गसे चला गया। थोड़ी देरमें मूषकोंके द्वारा शाखा फटनेसे वह कूपमें गिर पड़ा और मजगरने उसे भक्षण कर लिया। जिस तरह लन्धदत्त वणिक मधु-बिंदुके लोभसे काल असित हुमा वैसे मैं इस तुच्छ विषयसुखके लिये महा भयानक कालके मुख में प्रवेश करना नहीं चाहता हूं।
विनयश्री स्वामीसे वचन सुनकर मूढ़तारहित होगई। मन चौथी स्त्री रूपश्री कथा कहने लगी
नियश्रीकी कथा। एक दफे मनोहर वर्षाकाल भागया । मेघ छा गए । पानीकी वर्षासे तलैया तलाव भर गए, बिजली चमकने लगी। मार्गमें कीचड़से माना जाना कठिन होगया। दिनमें अन्धकार छागया।
१५९