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श्री जैन नाटकीय रामायण
तुम्हें देखकर अत्यन्त हर्ष हुआ ।
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(दासी चली जाती है दो आसन लाकर बिछाती है एक खाली लकड़ी का और एक मखमलका । फिर मालायें और तांबूल लाती है इतने में ही भामण्डल और नारदजी आ जाते हैं । दोनों भाई बहन गले मिल कर रोते हैं।)
नारद-भामण्डल, सीता, रोमओ नहीं, हर्ष मनाओ ! सीता-~-नारदजी ये हर्ष के. श्रांस हैं, भाई भामण्डल मुझे
से नहीं कह सकती। भामण्डल---बहन ! मुझे बड़ा दुख है कि मैं तुम्हारे दुःख में कुछ भी हाथ न बटा सका । तुम्हें कुछ भी सहारा न लगा सका । मुझको इस बात का हर्ष है कि तुम जीवित रही और मैं तुमसे मिला।
सीता-भाई भामण्डल ! यदि मनुष्य जीवित रहते हैं तो कभी न कभी मिल हो जाते हैं। यदि मैं सिंहनाद बनमें ही मर जाती तो तुम मुझे कहां खोजते । आओ बैठो। नारदजी आय भी बिगजिये। (नारदजी और भामण्डल यथा स्थान पर बैठ जाते हैं।' सीता दोनों के गले में फूल माल डालती है, भाई
को पान खुलाती है।) ‘भामंडल-~-सीता, तुम कितनी दुबेल होगई । वजेध के हम लोग बड़ पामारी हैं जिसने तुम्हें आश्रय दिया । चलो अब तुम अयोध्या लौट चलो । रामचन्द्रजी तुम्हारे बिना रात दिन ब्याकुल रहते हैं।