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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
बुद्धिमान हो । हम तुम्हारे कहे अनुसार चलते हैं।
ड्राप गिरता है
अंक द्वितिय-दृश्य प्रथम ('सीता वाटिका में एक वृक्ष के नीचे शिला पर
बैठी हुई है।) सीता-हाय, मेरा कैसा बुरा भाग्य है। अपने प्यारे पती से मैं विछुड़ गई । ये दुष्ट रावण मुझे यहां हर लाया । हे प्राणनाथ ! मेरे विरह में आपको न मालूम क्या २ कष्ट भुगतने पड़ रहे होंगे । यदि मैं ऐसा जानती कि ये दुष्ट मुझे हर ले जायगा तो आपके साथ ही युद्ध में चलती । जब तक पती देव के कुशल समचार न सूनुं तब तक मेरे लिये जल पान वृथा है। विना स्वामी के ये वाटिका वाटिका नहीं, भग्नी कुण्ड है । वह देखो वृक्ष र पक्षी मेरे भाग्य पर हंस रहे हैं।
गाना आ फसी हूं कैद में, जियरा मेरा-घबराय है। बिन पियारे के मुझे, कुछ भी न ये सब भाय है। पक्षियों क्यों चह चहाते, मुझको रोती देख कर । मेरे रोने पर दया तुमको न कुछ भी प्राय है ।