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चतुर्थ भाग
(२७१)
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शत्रु गण आते देख उन्हें, निज प्राण बचा करके भागे | कुछ दूर वढ़े आगे त्योंही, रुक गया अचानक उनका दल | सोचा क्या धर्म स्थान यहां, जिसका है अति राम प्रति प्राल ।। जब मन्त्री से कारण पूछा, तब विनय सहित ये बात कही। लंकापत ने माया द्वारा, रच रखा यन्त्र श्रीमान यहीं ।। सारी सेना को दूर रखा, बन्दर का भेष बनाया है ! धुम गये पेट में पुतली के, माया को तुरत भगाया है। फिर तोड़ दिया माया का गढ़, जो कुछ था सब बर्बाद किया। ये देख वहां के रक्षक ने, हनुमत पर अपना कोप किया। । दोनों सेना लड़ पड़ी, जुझ पड़े सव वीर। '
करी दया हनुमान ने बोले वचन गम्भीर ॥ क्यों मौत तुम्हारी आई है जा इतना कोप दिखाते हो बोलो अभिमान बचन ऐसे, मरने से भय ना खाते हो ॥ ये कहकर उसको मारा है, सेना सारी की तितर बितर । कोपित होकर उसकी कन्या फिर आती इनको पड़ी नजर ।। यौवन से थी भरपूर अति, सुन्दर सब अंग सुहाते थे! कुच अरु कपोल आदि सब ही, पुरुषों के मन को भाते थे ।। देवी सी कोप दिखाती थी, था शोक पिता के मरने का। था ख्याल उधर से रावण की, आज्ञा को पालन करने का ॥