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धी जैन नाटकीय रामायण
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बोली ललकार पवनसुत को, क्यों मेरे पिता को मारा है। ले सम्हल बचा भव प्राणों, को. मैंने भी धनुष सम्हारा है ।। बोले हनुमान बचन ऐसे, नारी से युद्ध नहीं करते । तुम वार करो मैं रोकुंगा, क्षत्री गण कभी नहीं डरते ।।
छिड़े युद्ध इस मांति से दोनों दोनों ओर । ।
काम बाण भरु धनुष है, बाण चले इम घोर ।। कन्या ने आखिर में छोड़ा, एक तीर पत्र जिसमें था यूं। हे प्राणनाथ स्वीकार करो, दासी को तड़फाते हैं क्यं ॥ था प्रेम बढ रहा दोनों में, दोनों ही बढ कर मिले जुले । जो अभी तलक मुरझाये थे, दोनो के दिल के पुष्प खिले ॥ स्वीकार किया उस कन्या को, रात्री भर उसके पास रहे । सारी सेना को छेड़ वहां, प्रातः लंका हनूमान गये ।। जा पहुंचे पास विभीषण के, सब समाचार उससे पाये । उपवास सुना सीता का जब, चल दिये अंजना के जाये ।। धी सीता राती शोक भरी, कर रही विलाप अती नाना । देखो अब क्या क्या होता है, जय वीर मुझे है भव जाना ।।
(चला जाता है।