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श्री जैननारकीय रामायण
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थोड़ा आगे बढ़ने पाये. नाना का पुर दीख पड़ा। माता की आई याद तभी, मन में उनके यूं क्रोध बढ़ा । माता जब इनके शरण गई, तब बाहर से दुतकारा था। बन में जाकर कष्ट सहे, जब होया जन्म हमारा था |
क्रोध बढ़ा इस मांत से, मचा युद्ध धन घोर ।
नाना मामा भागये, सुन हनुमत की शोर ।। टंकार धनुषों की होती, बाणों से सब नभ छाय गया । दोनों सेना के वीरों ने, बल दिखलाया तब नया नया ॥
आखिर में अंजन के सुत ने, नाना जीता पकड़ लिया । जब दोनों इक स्थान मिले, तब बैर सभी ने भगा दिया। दोनों गल मिलकर के रोये, भूलों पर पश्चाताप किया। दो. मदद राम और लक्ष्मण को, ये कहकरे उनको भेज दिया।
पवनकुमार आगे बढ़े, पहुंचे बन. के मांहि ।
देखे दो मुनिराज को, प्रेम द्वेष जिन नाहिं ।। बन में थी अगनी लगी हुई, थे वृक्ष गिर रहे जल बल्ल कर । घर ध्यान खड़े मुनिराज वहां, अपनी भातम को निश्चल कर ।। देखा मुनियों पर कष्ट पड़ा तब दया भाव मनमें आये ।
करने को रक्षा जीवों की, विद्या से बादल बरसाये ।। .. उपसर्ग दूर कर मुनियों का, लेकर पासीष चले भागे ।