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श्री जैन नाटकीय रामायण
म.--तो फिर क्या कारण है ? सी०- आज मेरे पती की मुद्रिका मुझे प्राप्त हुई है। म-सीता ! सीता ! तू कोई पागल तो नहीं होगई ।
सी०-कृपा करके जो मेरे पती की -मुद्रिका लेकर आये हैं वो मुझे दर्शन देकर मेरे संशय को दूर करो।
हनुमान-(भाकर) माता तुम्हें मेरा बार २ नमस्कार है !
सी०-कहो भाई तुम कौन हो इतने बड़े समुद्र को 'उलांघ करे तुम यहां कैसे पाये ? मेरे पती और देवर तो प्रसन्न हैं।
हनूमान-माता में हेनुमान हूं। मैं विद्याधर हूं मेरे लिये समुद्र कोइ बड़ी बात नहीं। आपके पती और देवर कुशल पूर्वक हैं। - सी.-क्यों माई 'तुम्हारे सरीखे विनयवान और बलवान मेरे पती के पास कितने पुरुष हैं ?
म०-सीता इनके समान तो सारे भरत क्षेत्र में दूसरा मनुश्य नहीं है । इनका बच और पराक्रम अतुल्य है । मेरे स्वामी इन्हें अपने पुत्रों से भी अधिक चाहते हैं। इनके दर्शनों के लिये लोग व्याकुल होते हैं । किन्तु इस बात का बड़ा भाश्चर्य है कि ये रामचन्द्र के दूत बन कर आये हैं ।