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चतुर्थ भाग
(२७५)
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हनुमान-मन्दोदरी ? तुम पतिव्रता हो । जिस पती के द्वारा तुम्हें देवियों के से सुख प्राप्त हैं। उसी के अपयश में तुम सहायता करती हो । अपने पती को श्राप ही नरकों के दुख में डालना चाहती हो । तुम रावण की महिषी अर्थात पटरानी हो। मैं तुम्हें महिषी अर्थात मैंस समझता हूं।
___ म०-हनुमान ! हनुमान !! तुम्हारी और ये जबान । उन गीदड़ों के संग में रह कर ये कृतघ्नता । उन सबको हराना मेरे स्वामी के बांये हाथ का खेल है। अभी तक वो तुम्हें अपना समझते थे किन्तु अब तुम्हें शत्र समझ कर कंठिन से कठिन दण्ड देंगे।
सीता-मन्दोदरी ! तूने मेरे स्वामी के बल को नहीं सुना है । जिस समय वज्रावर्त धनुष उठाया था तब सारा आकाश मण्डल गूंज उठा था । याद रख ! तुझे शीघ्र ही विधवा होना पड़ेगा हमेशा के लिये रोना पड़ेगा। ___ मन्दोदरी-सीता ! तु ऐसे अभिमान के बचन बोलती है, ले सम्हल मैं तुझे प्राणों रहित करती हूं। (मन्दोदरी बार करती है, हनूमान बचा लेते हैं। मन्दोदरी क्रोधित होकर चली जाती है, सीता और हनूमान
__ ही रह जाते हैं। )" हनुमान-माता, तुम मेरे काँधे पर बैठ जाओ मैं तुम्हें