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पंचम भाग।
(३६१)
सीता-पुत्र श्रादि ये सब झूठा झगड़ा है । न कोई मेरा है न मैं किसी की हूँ। तुम दोनों भाई अपने पिता के पास में रहना । तुम्हें मैं आशीर्वाद देती हूं चिरंजीव होवो ।
: ओं नमः सिद्धभ्य । ( अग्नी में प्रवेश करती है । अग्नी के स्थानमें जल होजाता है। उसमें कमल खिल जाते हैं । सीता कमल पर बैठ जाती है। उसके दोनों ओर दो कमत्त पर उनके दोनों पुत्र दौड़कर बैठ जाते हैं । वो उसके सर पर हाथ रखती है। आकाश से पुष्प वर्षा और जयकार होती है।)
रामचन्द्र--सीता ! तुम धन्य हो ' आओ, आओ, मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं। मेरे अपराधों को क्षमा करो ।
सीता--प्राणनाथ ! आप मुझे क्षमा करें अब मैं आपकी अर्धागिनी न कहला कर अर्यिका बनूंगी । ये स्त्री पर्याय अत्यन्त दुखदाई है मैं तप करके इस पर्याय को छेदूंगी। जिससे फिर स्त्री न बनना पड़े । आपके, आपके भाइयोंके, आपके मित्रों के