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चतुर्थ भाग
. (२८१ )
बालों की सदा जीत होती है । लंका इस रामय आपत्ती में है। ये सब आपत्ती सीता के कारण हैं। आप मेरा कहा मान कर सीता लौटा दीजिये।
इन्द्रजीत-चाचा ! चाचा ?? तुम जो कह रहे हो सिंहों के अखाड़े में रह कर न्यार बन रहे हो । पृथ्वी के जितने रन हैं वो पिताजी के लिये हैं । सीता भी एक स्त्री रेस्न है ! उसे लौटा दिया जाय ये असंभव है।
विभीषण--ओ दुष्ट इन्द्रजीत । पुत्र कहला कर पिता का अहित सोचते हुवे तुझे लज्जा नहीं पाती। सुग्रीव बिराधित महेन्द्र हनूमान भामंडल आदि सब उनकी सहायता के लिये तैय्यार हैं उन लोगों के सामने तेरा बाल भी नजर नहीं आयेगा! वो न्याय मार्ग पर हैं उनकी अश्य जीत होगी।
रावण-दुष्ट विभीषण ! उस बच्चे से लड़ते हुवे लज्जा नहीं आती ? मेरा भाई होकर मेरे शत्रू की मेरे सामने वडाई करता है ? ले मैं अभी तेरा जीवन समाप्त करता हूं। (रावण वार करता है। दोनों में युद्ध होता है । मन्त्री
लोग बचाते हैं।) मंत्री-महाराजाधिराज आपको ये उचित नहीं कि भाई को मारे, पाप इन्हें बहुत करें तो अपने राज्य से निकाल दीजिये।
रावण--अच्छी बात है इस दुष्ट को मेरे राज्य से बाहर