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लम्बूस्वामी चरित्र आपके प्रसादसे मेरे भाव में यह करुणा पैदा हुई है। इस प्रकार अपने गुरुको प्रसन्न करके व आज्ञा लेकर तथा वारंवार नमस्कार करके भावदेव मुनि शुद्ध भावसे इर्या समिति पालते हुए-भूमिको निरख कर चलते हुए भवदेवके सुन्दर घरमें पधारे । भवदेवके घरमें आकर वहींकी अवस्था देखकर माश्चर्य में भर भए । क्या देखते हैं कि तोरणोंमें शोभित मंडप छाया हुआ है, मंगलमई बाजोंके शब्द होरहे हैं जिनके शब्दोंसे दिशा चूर्ण होती है। युवती स्त्रियां मंगलगान कररही हैं, बंदीजन वेद-वाक्योंसे स्तुति पढ़ रहे हैं । चित्रोंसे लिखित ध्वजा हिल रही हैं। सुगंधित कुंद भादि फूलोंकी मालाएं लटक रही हैं। कसे मिश्रित श्रीखंडसे रचना बनी हुई है। ऐसा देखकर भी दयालु मुनिराज भावदेव उसके घरके भांगणमें शीघ्र ही जाकर खड़े होगए । मुनिराजको देखकर भवदेव उसी समय स्वागत के लिये उठा, नतमस्तक हुश्रा, उच्च आसनपर विराजमान किया, वार वार नमस्कार किया और भावदेव मुनिके निकट विनयसे बैठाया।
भवदेव संवोधन व जैनधर्म ग्रहण । योगीमहाराजने धर्मवृद्धि कहकर मआशीर्वाद दिया। व उसको संतोषित किया। तब भवदेवने पूछा-हे भात ! भापके संयममें, तपमें, एकाग्र चिन्तवन ध्यानमें, स्वात्मजनित ज्ञानमें कुशक हैं ? महान बुद्धिमति मुनिने समभावसे कहा कि वत्स! हमें सब समाधान है। हमें यह तो बतामो कि इस घरमें क्या हुआ था, क्या होरहा है. व क्या होनेवाला है ? हे आता ! तेरे घरमें मण्डपका भारम्भ