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जम्बूस्वामी चरित्र जाता है तब प्राणोंका त्याग करना तो अच्छा है परन्तु पीठ दिखाकर जीना अच्छा नहीं। कहा है---
क्रमोऽयं क्षात्रधर्मस्य सन्मुखत्वं यदाहवे। बरं प्राणात्ययस्तत्र नान्यथा जीवनं वरं ॥ ३० ॥
महान पुरुषोंचा धन व प्राण नहीं है, किन्तु मानरूपी महान धन है। प्राण जानेपर भी यशको स्थिर रखना चाहिये । मान नहीं रहा तो यश कहांसे हो सका है। कहा है
महतां न धन प्राणाः किंतु मानधनं महत् । प्राणत्यागे यशस्तिष्ठेत् मानत्यागे कुतो यशः ॥३१॥
जो कोई शत्रु पूर्ण बलको देखकर विना युद्ध किये शीघ्र भाग जाते हैं उनका मुख मैला होजाता है। जो कोई बुद्धिमान धेर्यको धारण करके युद्ध करते हैं, मर जाते हैं, परन्तु पीठ नहीं दिखाते हैं, वे ही यशस्वी धन्य हैं। कहा है--
ये तु धैय विधायाशु युद्धं कुर्वति धीधनाः। ' मृतास्तत्रैव नो भना धन्यास्ते हि यशस्विनः ।। ३३ ।।
हे राजन् ! मैं वचन देकर आया हूं, मुझे वहां शीघ जाना है। यह कार्य परम मावश्यक है, मुझे विलम्ब करना उचित नहीं है। मैं क्षण मात्र यहांपर मापका दर्शन करता हुमा इस उत्तम स्थानः वहांका वर्णन करता हुआ ठहरा था। अब मेरा मन यहां अधिक ठहरना नहीं चाहता है। हे राजन् ! माज्ञा दीजिये जिससे मैं शीघ्र जाऊं। ऐसा कहकर वह माकाशगामी विद्याधर तुरत चल