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स्वामी चरित्र
क्योंकि ये वचन हिंसा के घातक थे, वे खुनि धर्म - नाश से भयad थे व संयमादिक भलेप्रकार सदा रक्षा करते थे । इस तरह चलते चलते वह बहुत दूर चला गया। चयपि भवदेव मोक्षका प्रेमी होगया था तो भी उसके कणकी गांठ थी । उसका चित्त व्याकुलित होने लगा । वह वारवार भरने जन नवीन वधू नागबसूके सुखकमलको याद करता था । उसका पग मूर्च्छित मानवकी तरह लड़खड़ाता हुआ पड़ता था। घर लौटने की इच्छासे कुछ उपाय विचार कर वह भवदेव अपने भाई भावदेवसे किसी बहाने से बारबार कहने लगा कि - हे स्वामी ! यह वृक्ष हमारे नगरसे दो कोस दूर है आप स्मरण करें, यहां आप और हम प्रतिदिन कीड़ा करनेको खाते थे व बैठते थे । महाराज ! यह देखिये | कमलों से शोभित सरोवर है । यहां हम दोनों मोम्की ध्वनि सुनने को बैठते थे। स्वामी देखिये, यह नाना वृक्षोंसे संगठित लगाया हुआ बाग है जहां हम दोनों बड़े भाषसे पुष्प चुननेको आया करते थे ।
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कृपानाथ ! वह वह चांदनी के समान उज्वल स्थान है जहां हम सब गेंद खेला करते थे । (नोट- गेंद खेलने का रिवाज पुरातन है ) । इसतरह बहुत से वाक्योंसे भवदेवने अपना अभिप्राय कहा परन्तु भवदेव श्री मुनिराज के मनको जरा भी मोहित न करसका । मुनिराज मौनसे जारहे थे- न वचनसे हुंकार शब्द कहते थे न भुजाका संकेत करते थे। चलते चलते दोनों भाई श्री गुरुमहाराजके निकट पहुंच ६४