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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
१ सेनिक-महाराजाधिराज ! मुझे तो यह बन बहुत पसंद पाया है। यहां पर बहुत बड़ी ढंडक रहती है । खूब फल फूल खाने को मिलते हैं।
२ सेनिक-वाह चा, कैसा पसन्द प्राया। सबके साथमें हो, इसी लिये पसन्द आया है। जरा इकले रहकर देखो, कैसा । आनन्द मिलता है। महाराजाधिराज इसे यहीं छोड़ चलो।।
सेनिक-भाई अगर मुझे कोई रहने को कहें तो मैं तो चाहे 'मेरी जान चली जाय तो भी न रहूं । बाप रे बाप उस दिन वो कैसा भयानक सिंह था, मेरी तो देखते ही मय्या ‘मर गई थी।
वनजंघऔर यदि तुमको यहांका राज्य दे दिया जायतो?
३ सेनिक-मुझे गज्य नहीं चाहिये । राज्य पुरुषों पर किया जाता है । यहां तो मनुष्य का नाम भी नहीं । शेर बघेरे मुझे एक ही दिन में मार खायेंगे । ना रे बाबा ना।
वज्रजंघ-अच्छा अब चलने की तैय्यारी करो । ('सब चले जाते हैं, पर्दा खुलता है। लोता और सेना
पतो दोनों खड़े हुवे है।) सीता-अहा, आज मेरे धन्य भाग हैं। मैंने सारी यात्रायें 'समाप्त करली; क्यों सेनापती ! ये कौनसा बन है ?-बड़ा भयानक है। यहां से हमारा नगर कितनी दूर है ?