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जसपूस्वामी चरित्र
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जीवतत्व। यह जीव सदासे सत् है, अनादि अनंत है. नित्य है. स्वतः सिद्ध है, मूलमें पुरक सम्बन्धी शरीरोंसे रहित है, असंख्यात प्रदेशोको रखनेवाला है, अनंत गुणोंका धारी है, पर्यायकी अपेक्षा जीवमें व्यय उत्पाद होता है। जीवका विशेष लक्षण चेतना है, यह ज्ञातादृष्टा है. यह झर्ता , यही मोक्ता है, निश्चपसे अपने ही शुद्ध भावोंका कर्ताभोक्ता है। अशुद्ध निश्चयसे रागद्वेषादि भावोंका इती व मोक्ता है। व्यवहारनयसे द्रव्यधर्म व नोकर्मका कर्ता व मोक्ता है।
संसारदशामें समुदयातके सिवाय प्राप्त शरीरके प्रमाण खाकाएका घरनेवाला है। वेदना, कषाय, विक्रिया, थाहारक, तेजस, भारणांतिक व केवल समुदघातमें कुछ कालके लिये शरीरसे बाहर फैलता है, फिर संकोच कर शरीराकार होजाता है। नाम कर्मके उदयसे दीपकके प्रकाशकी तरह संकोच विस्तारके कारण छोटे व बड़े शरीरमें छोटे व बड़े शरीर प्रमाण होता है। मोक्ष होनेपर मंतिम शरीर प्रमाण रहता है। जब इस जीवके सर्वकर्मोका नाश होजाता है तब यह जीव शुद्ध ज्ञानादि गुणों के साथ ऊर्द्धगमन स्वभावसे कोकके ऊपर सिद्धक्षेत्रमें विराजता है।
इस जीवको प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् , भात्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ, ज्ञानी मादि नामोंसे कहते हैं। क्योंकि संसारके जन्मोंमें यह जीता है, जीता था व नीवेगा। इसलिये इसको जीव